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ISBN: 978-93-93166-40-1
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गोरखा रेजिमेंट: एक ऐतिहासिक परिचय

 डॉ. भारती बिष्ट
एसोसिएट प्रोफेसर
इतिहास विभाग
हिन्दू कालेज, एम॰जे॰पी॰ रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय
मुरादाबाद  उत्तर प्रदेश, भारत 

DOI:
Chapter ID: 16530
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सारांश

ब्रिटिशकालीन भारत में गोरखा एक प्रमुख सैन्य जाति के रूप में सामने आये। कुल 1,40,797 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले नेपाल, जिसका अधिकांश क्षेत्र पहाड़ी है प्रारम्भ से ही दो बड़ी संस्कृतियों तिब्बती मंगोलीय एवं इन्डो आर्य का समन्वय माना जाता रहा है। नेपाल के उत्तर में वसने वाली शेरपा तथा भोटिया पश्चिमी क्षेत्र में बसने वाली गुरंग तथा खस पूर्वी क्षेत्र में बसी थारू और बोक्सा जातियों से मिलकर नेपाली समाज का निर्माण हुआ है। प्राचीन काल से लिच्छवी मल्ल आदि वंशों ने यहाँ शासन किया। 12वीं सदी में भारत में हो रहे तुर्क आक्रमणों और उनके द्वारा अपमानित होने के भय से कुछ राजपूत सुदूर नेपाल में जाकर बसने लगे। ये सर्वप्रथम पालपा में बसे और तत्पश्चात् धीरे धीरे पालपा से जुड़़े क्षेत्रों को अपने अधिकार में लेकर इन्होंने अपनी सीमाओं को फैलाया। सन् 1559 में द्रव्यशाह ने गोरखा शहरपर अधिकार कर अपनी पहचान को गोरख्यालीशब्द के साथ जोड़ा। गोरखा कोई एक विशेष जाति नहीं थी वरन इन दिनों आये तथा पहले बसे मानव समूह गोरखा कहलाने लगे। इसमें से कुछ जातियाँ स्वभाव में लड़ाकू रही थी। अपने पड़ोसी पहाड़ी क्षेत्रों में लूटपाट तथा मारकाट करने वाली यह जाति भौगोलिक परिस्थितियाँ और राजपूती परम्परा से सम्बद्ध होने के कारण अपनी सैन्य प्रतिभा का प्रदर्शन लाई थी। गोरखा अपनी वीरता के कारण सर्वप्रथम स्थानीय (नेपाली) सेना में भर्ती हुये और इनकी सैन्य जाति के रूप में पहचान बनने लगी। धीरे-धीरे उनकी महत्वाकांक्षा बढ़ने लगी। 18 वीं शताब्दी में पृथ्वी नारायण शाह गोरखा जाति का पहला साम्राज्यवादी शासक बना। इस समय काठमान्डू घाटी तीन विभिन्न राज्यों में विभक्त थी। काठमाण्डू, पाटन और भट्टगाँव। शेष प्रदेश को नेपाल के नाम से जाना जाता था जो मुख्यतः पहाड़ी क्षेत्र था। पृथ्वी नारायण शाह एक महत्वाकांक्षी शासक था और एक विशाल साम्राज्य की स्थापना का स्वप्न देखता था। 1769 तक उसने सम्पूर्ण नेपाल पर विजय प्राप्त कर अपने स्वप्न को साकार रूप प्रदान किया। अब वह नेपाल से बाहर साम्राज्य विस्तार का सपना देखने लगा। लेकिन उसकी अचानक मौत हो गयी और दूसरे गोरखा शासकों ने इस स्वप्न को पूरा करने की ठानी। इस शोधपत्र में गोरखा रेजिमेन्ट के अम्युदय को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है।

मुख्य पाठ

1790 में कुमाऊँतथा 1792 में सिक्किम में गोरखा शासकों का अधिकार हो गया था। इसके बाद गोरखा शासक पश्चिमी हिमालय को भी अपने एकछत्र शासन के अधीन लाने की इच्छा करने लगे लेकिन इसी वर्ष तिब्बत के साथ संघर्ष होने के कारण उन्हें अपना इरादा बदलना पड़ा। 1804 में गढ़वाल को अपने आधीन कर लेने के पश्चात् पंजाब की छोटी बढ़ी रियासतों को हस्तगत करते हुए उन्होंने कांगड़ा को जीत लिया। अब तक नहान, देहरादून, जौनपुर-भाबर का कुछ हिस्सा और दार्जलिंग भी इनके अधिकार क्षेत्र में आ गये और गोरखे एक विस्तृत साम्राज्य के स्वामी बन गये। उनकी अविजित सैन्य शक्ति और महत्वाकांक्षा के कारण ही उन्हें विजय प्राप्त हुई थी।

यह समय भारत में औपनिवेशिक शक्तियों के विस्तार का था। इस होड़ में ब्रिटेन सबसे आगे था। इस समय ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी व्यापारिक मुखौटे में अपनी सैन्य शक्ति बढ़ा रही थी तथा अन्य औपनिवेशिक शक्तियों का दमन भी कर रही थी। प्लासी युद्ध के पश्चात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी का साम्राज्य तेजी से फैल रहा था। इस समय कुमाऊँ गढ़वाल पर गोरखों का अधिकार था। अंग्रेज हिमालय क्षेत्र में अपना साम्राज्य फैलाना चाहते थे लेकिन गोरखों से टकराये बिना हिमालय क्षेत्र में घुसपैठ सम्भव नहीं थी। 1812 तक गोरखा साम्राज्य की सीमाएँ काफी फैल गयी थी लेकिन अब कम्पनी सरकार गोरखा साम्राज्य विस्तार के ूपूर्णतया विरुद्ध थी, तथा किसी न किसी बहाने गोरखों से संघर्ष का इरादा रखती थी।

तब गोरखों ने अपना साम्राज्य विस्तार नेपाल से दक्षिण की तरफ किया। कम्पनी इस हस्तक्षेप को सहन न कर सकी। अतः कम्पनी सरकार और गोरखों के मध्य कुछ गाँवों को लेकर सीमा विवाद पैदा हो गया। इस विवाद ने अन्त में नेपाल युद्ध (1814-16) का रूप ले लिया। इस युद्ध की रूपरेखा तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड हेस्टिंग्स द्वारा तैयार की गयी। इस युद्ध का अन्त सुगौली की सन्धि के साथ हुआ। 1816 में इस सन्धि को स्वीकृति मिल गयी। इसके द्वारा काली नदी को ब्रिटिश भारत तथा नेपाल के बीच की सीमा-रेखा मान लिया गया। सुगौली की सन्धि से अंग्रेजों को दोतरफा फायदा हुआ, पहला कुमाऊँ-गढ़वाल जैसे पर्वतीय प्रदेश तथा व्यापारिक महत्वांकाक्षा को बढ़ावा देने वाले क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन हो गये और दूसरी महत्वपूर्ण उपलब्धि यह थी कि एक लड़ाकू जाति (सैन्य जाति) की प्राप्ति। युद्ध के दौरान गोरखों की वीरता का प्रदर्शन अंग्रेजों को सराहनीय लगा।

अतः नेपाल युद्ध के दौरान गोरखों की शौर्य गाथाएं अंग्रेजों के मन-मस्तिष्क पर उतर गयी। कम्पनी जो भारत में एकछत्र राज्य स्थापित करने का सपना देख रही थी, कम्पनी भली भाँति जानती थी कि यदि गोरखों से मित्रता की जाये और उन्हें अपनी सेवा में लिया जाय तो भविष्य में यह कम्पनी के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा तथा गोरखों की शक्तिशाली सेना की मदद से वे पूरे हिन्दूस्तान पर एकछत्र राज्य स्थापित करने में सफल होंगे। गोरखों को इण्डियन आर्मीमें शामिल करने का पहला प्रस्ताव प्रस्तुत करने का श्रेय आक्टरलोनी को जाता है। अतः सर्वप्रथम सिरमूर बटालियन की नींव रखी गयी। फिर नसीरी पलटन (मित्र सेना) की तीन बटालियनों की स्थापना कर गोरखा रेजीमेन्ट की नींव रखी गयी। प्रत्येक बटालियन की आठ कम्पन्यों में 120 अस्थाई सैनिक रखे गये। इन बटालियनों में से प्रथम को प्रथम नसीरी रेजीमेन्ट तथा द्वितीय को द्वितीय नसीरी रेजीमेन्टनाम दिया गया। इन्हीं दिनों शिमला के पास दो बटालियनों वाली एक रेजीमेन्ट स्थापित की गयी। इसके अतिरिक्त एक अलग वटालियन कुमाऊँ (अल्मोड़ा) में बनायी गयी। यही बटालियन आगे चलकर कुमाऊँ प्रोविन्सियल कोर कहलाई। इस बटालियन में गोरखों के अतिरिक्त कुमाऊँनियों और गढ़वालियों को भी भर्ती किया गया था। यद्यपि सर्वप्रथम स्थापित की गयी इन अस्थाई बटालियनों से ब्रिटिश भारत में गोरखा रेजीमेन्ट की नींव तो रखी गयी परन्तु नेपाल द्वारा भविष्य में और भर्ती की आज्ञा नहीं दी गयी। 1817 में तृत्तीय ऐंग्लो-मराठा युद्ध के समय अंग्रेजों को सेना के विस्तार की आवश्यकता महसूस हुई अतः यहीं से सेना में गोरखों की अवैध भर्ती की शुरुआत हुई जो 1886 तक चलती रही। 1886 तक गोरखा सैनिकों की भर्ती के लिए कोई निश्चित नियम नहीं बने थे। अतः कम्पनी सरकार गैर कानूनी तरीकों से गोरखा सैनिकों की भर्ती करती रही।

नेपाल सरकार कम्पनी सरकार के इन तरीकों से काफी परेशान थी। अतः नेपाल सरकार ने कठोर नियम लागू कर दिये कि अब से कोई भी गोरखा सैनिक किसी अन्य गोरखा को कम्पनी की सेना में भर्ती के लिए फुसलायेगा तो उसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति जब्त कर ली जायेगी तथा उसे मौत की सजा दी जायेगी। कम्पनी सरकार को जब इन सब बातों का पता चला तो उसने अन्य तरीकों का सहारा लेना शुरू किया। 1825 में एडवर्ड पैगेट भारतीय सेना के कमाण्डर इन चीफ नियुक्त हुये। उन्होंने एक प्रस्ताव रखा कि नेपाल से सीधी भर्ती करके गोरखा रेजीमेण्ट का विस्तार किया जाय, ताकि कुछ और नयी बटालियनों का निर्माण किया जा सके। इसी समय गार्डनर, काठमाण्डू के नये रेजीडेन्ट नियुक्त हुये उन्होंने एक सलाह दी कि ऐसी भर्ती व्यवस्था के लिए नेपाल के साथ समझौता करना उपयुक्त रहेगा, लेकिन समस्या का समाधान नहीं हो पाया। 1833 में रेजीडेन्सी का कार्यभार हडसन ने सभाँला और उसने गोरखों मुख्यतया गुरंग जाति को भारतीय सेना में एक नियमित सैनिक के रूप में भर्ती पर जोर दिया। हडसन का मानना था कि गोरखे सम्पूर्ण एशिया में सर्वाधिक श्रेष्ठ सैनिक साबित हुये हैं, अगर उन्हें अच्छा वेतन एवं पेंशन लाभ दिया जाए तो कम्पनी की सेना में गोरखा सैनिकों की अधिक भर्ती होगी तथा साथ ही उनके ऊपर से नेपाली राष्ट्रीयता का असर भी कम किया जा सकेगा। लेकिन भर्ती की समस्या अभी भी हल नहीं हो पायी।

1850 में नेपाल में राणा प्रशासन स्थापित हुआ। अब कम्पनी सरकार तथा नेपाल दरबार के बीच कुछ मधुरता आने लगी। जिसकी झलक 1857 में विद्रोह के समय देखने को मिली। इस विद्रोह के समय नेपाल द्वारा कम्पनी सरकार की मदद हेतु अपने सैनिक दस्ते भेजे गये। लेकिन गोरखा सैनिकों की भर्ती अभी भी गलत तरीकों से ही होती थी। 1857 के विद्रोह के समय कम्पनी सरकार की विभिन्न रेजीमेन्टों द्वारा विद्रोह कर दिया गया। अतः कम्पनी सरकार ने विद्रोही कौमों की भर्ती को कम करना आरम्भ कर दिया फलस्वरूप गोरखा भर्ती को प्रोत्साहन और बढ़ावा मिलने लगा।

1857 के विद्रोह के बाद कम्पनी शासन समाप्त हो गया और भारत की बागडोर ब्रिटिश सरकार ने अपने हाथों में ले ली। अंग्रेजी साम्राज्य की देखरेख के लिए वायसराय की नियुक्ति की गयी। धीरे धीरे अंग्रेजी सरकार द्वारा गोरखा सैनिकों को अंग्रेजी सेना में अनेक सुविधायें दी जाने लगी थी अतः ये सुविधायें अन्य गोरखों को अपनी ओर आकर्षित कर रही थीं जिससे गोरखा समय समय पर चोरी छुपे अंग्रेजी सेना में भर्ती होते रहे। 1884 के आते आते नेपाल के सम्बन्ध तिब्बत के साथ तनावपूर्ण होने लगे अब नेपाल को हथियारों की आवश्यकता महसूस होने लगी। दूसरी तरफ अंग्रेजी सेना भी भारत की उत्तर पश्चिमी सीमा पर रुस के साथ युद्ध के कगार पर खड़़ी थी। अतः अंग्रेजों को पुनः और सैनिकों की आवश्यकता महसूस हुईं। अतः दोनों देश एक दूसरे पर निर्भर होते दिखाई देने लगे। परिणामस्वरूप नेपाल सरकार गोरखा सैनिकों को नियमित रूप से ब्रिटिश सरकार को उपलब्ध कराने के लिए और ब्रिटिश सरकार, सैनिकों के बदले हथियार देने के लिए तैयार हो गयी। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने हथियार सैनिकों के बदले नहीं वरन् उपहार स्वरूप दिये गये हैं यह कह कर दिये। ब्रिटिश सरकार अपनी नीति में पूर्णतया सफल रहीं। शीघ्र ही गोरखों की आठ रेजीमेन्टों की स्थापना हो गयी। 1886 में अंग्रेजी सेनाओं में गोरखों की स्वीकृत तथा प्रत्यक्ष भर्ती होने लगी। अब अंग्रेजी सरकार द्वारा सर्वप्रथम गोरखपुर में एक भर्ती केन्द्र खोला गया। इस भर्ती केन्द्र की सफलता को देखते हुए इसी तरह का भर्ती केन्द्र दार्जलिंग में खोला गया। इन दोनों केन्द्रों से ब़ड़ी संख्या में गोरखा सैनिकों की भर्ती होने लगी। 1888 से 1891 तक के तीन वर्षों में इन केन्द्रों से 3260 गोरखों को भर्ती किया गया। यह बहुत बड़ी संख्या थी। अब गोरखा सैनिकों की भर्ती में पुनः सुधार किये गये। 1891 में समस्त गोरखा टुकड़ियों को राइफल रेजीमेन्टके रूप में जाना जाने लगा। सन् 1900 तक गोरखों की दस रेजीमेन्ट स्थापित हो चुकी थी जिनमें प्रत्येक की दो दो बटालियने थी, सन् 1902 में लार्ड किचनर भारतीय सेना के कमाण्डर इन चीफ नियुक्त हुये। अपने सुधारों के अन्तर्गत उन्होंने भारतीय सेना की हर यूनिट को नया स्वरूप दिया। अतः गोरखा बटालियनों की स्थापना की तिथि को आधार मानते हुए उन्हें क्रमवार नम्बर देकर बीस गोरखा बटालियनों को एक से दस तक के ग्रुप में पुनः स्थापित किया गया। गोरखा बटालियनों में युद्ध अभियानों के मध्य सुधार किये जाते रहे।

अंग्रेजों के सम्पूर्ण शासन के दौरान गोरखा उनके प्रति बफादार तो बने ही रहे, साथ ही उन्होंने अंग्रेजों के लिए अनेक युद्ध भी लड़े। 1857 तक अनेक छोटे-मोटें युद्धों में हिस्सा लेकर गोरखों ने कम्पनी की सेनाओं में अपने लिये विशेष स्थान बना लिया। 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध बढ़ते हुये असन्तोष को दबाने में गोरखों ने उत्कृष्ट भूमिका निभाई। यदि 1857 ई. में कम्पनी को गोरखा सैनिकों का सहयोग नहीं मिलता तो ब्रिटिश साम्राज्य की स्थिति कुछ और होती। 1857 तक गोरखों की सात बटालियनें थीं। लेकिन सिर्फ तीन बटालियनें क्रमशः सिरमूर, कुमाऊँ और फर्स्ट आसाम, लाईट इन्फैन्ट्री ही ऐसी थी, जिन्होंने विद्रोह को दबाने में उत्कृष्ट भूमिका निभाई। सिरमूर बटालियन ने विद्रोह को दबाने के साथ दिल्ली को बिद्रोहियों से मुक्त कराने में भी निर्णायक भूमिका निभाई। सिरमूर बटालियन की सेवाएं व्यर्थ नहीं गयी इसे बहुत से सम्मान दिये गये। कालान्तर में इसे दि सिरमूर रायफल रेजीमेन्टबना दिया गया। दिल्ली की तीन महिने आठ दिन की घेराबन्दी में यह बटालियन दिल्ली फील्ड फोर्स की एक ऐसी यूनिट थी जो इस पूरी अवधि में यहाँ मौजूद रही। 1857 में विद्रोह की समाप्ति पर गोरखा बटालियनों को स्थायी और नियमित रायफल रेजीमेण्ट के रूप में पुनः संगठित किया गया तो इन्हें अलग-अलग निवास प्रदान किये गये जैसे धर्मशाला, देहरादून, अल्मोड़ा।

1857 के बाद का समय भारत में अनेक सांस्कृतिक और राजनैतिक हलचलों का रहा। गोरखा सैनिक भी इस बीच खाली नहीं रहे और भारतीय परिक्षेत्र में विभिन्न गतिविधियों पर नियन्त्रण रखने के अतिरिक्त उन्हें विभिन्न युद्धों में शामिल होना पड़ा था। उन्होंने 1864-65 के भूटान युद्ध, 1871-72 के उत्तरी पूर्वी सीमान्त युद्ध तथा 1878 के द्वितीय अफगान युद्ध में अपनी सेवाएं प्रदान की। इसके अतिरिक्त गोरखा सैनिक 1880-90 में उत्तरी वर्मा के आदिवासियों के विरुद्ध भी लड़े। 1897 में मध्य पूर्व 1903 में सोमालीलैण्ड अभियान में हिस्सा लेकर स्वयं को सम्पूर्ण एशिया महाद्वीप में सर्वश्रेष्ठ सैनिक साबित किया।

20 वीं शताब्दी के दूसरे दशक में प्रथम विश्वयुद्ध प्रारम्भ हुआ इस युद्ध से पूर्व भारतीय सेना का कार्यक्षेत्र बहुत सीमित था। गोरखा रेजीमेन्ट में अभी तक कुछ खास जातियों जैसे गुरुगं, खस, तिम्बू सई, सुनवर इत्यादि को ही भर्ती किया जाता था लेकिन इस युद्ध में सैनिकों की बढ़ती हुई माँग को देखकर डोटियालों (डोटी क्षेत्र के नेपालियों) को भी लेबर कोरमें भर्ती किया जाने लगा। श्रेष्ठ सैनिक न होने के कारण बाद में इनकी भर्ती बन्द कर दी गयी। प्रथम विश्व युद्ध तक गोरखा सैनिकों की कुल भर्ती दो लाख तक पहुँच गयी। 1918 में चार बटालियनों वाली ग्यारहवीं गोरखा राइफल्स बनायी गयी।

युद्ध में 20 हजार गोरखा सैनिक, फ्रांस, मैसोपोटामिया, पर्शिया, मिश्र, पैलेस्टीन, सैलोनिका से रुसी तुर्की सीमा पर लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। वीरता के लिए सर्वोच्च सैन्य पुरस्कार विक्टोरिया क्रास गोरखा सैनिकों को दो बार 1915 में फ्रांस और 1918 में मिस्र के युद्धों के पश्चात् प्रदान किया गया। युद्ध में नेपाल द्वारा दी गयी सैन्य सहायता से प्रसन्न अंग्रेज सरकार ने नेपाल को 1919 में सालाना एक लाख रूपया देना स्वीकार किया। इसी समय पाँचवी गोरखा रायफल को युद्ध में महत्वपूर्ण सेवाओं के लिए सम्मानित कर रायल गोरखा रेजीमेन्ट बनाया गया।

प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् तृतीय अफगान युद्ध में (1918) उत्तरी पश्चिमी सीमा पर गोरखा सैनिक कार्यरत रहे। 1923 में अंग्रेजी सरकार ने नेपाल के साथ शान्ति एवं मित्रताकी सन्धि पर हस्ताक्षर किये। भारत में इन दिनों राष्ट्रवादी गतिविधियों का जोर था अतः इसका प्रभाव भारतीय सेना की विभिन्न टुकड़ियों पर भी पड़ने लगा। गोरखा सेनाओं पर इसका प्रभाव रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कठोर कदम उठाये और गोरखा टुकड़ियों को भारतीय सेना की अन्य टुकड़ियों से बिल्कुल अलग थलग रखा जाने लगा। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् गोरखा सैनिकों को खाली बैठने का मौका नहीं मिला वे किसी न किसी कार्यवाही में उलझे ही रहे। 1921-22 में मालावार (केरल) में मोपाला विद्रोह को दबाने के लिए गोरखा सैनिकों को ही भेजा गया। इसके पश्चात् 1930-32 में वर्मा और 1932-34 में बंगाल में इनकी आपातकालीन सेवाएं ली गयीं। इस दौरान युद्ध अभियानों के मध्य गोरखा सेना में सुधारों और परिवर्तनों का दौर चला 1939 के आते-आते कुछ गोरखा रेजीमेण्टों ने अपने नामों में परिवर्तन कर दिया जैसे-

1. फर्स्ट किंग जार्ज, फिफ्थ ऑन गोरखा राइफल (दि मलाऊ रेजीमेन्ट)

2. सैकेण्ड किंग एडवर्ड सेवन्थआन गोरखा राइफल (सिरमूर राइफल)

3. दि थर्ड क्वीन एलेक्जेंडर्स आन गोरखा राइफल (दि फिफ्थ रायल गोरखा राइफल, फ्रन्टियर फोर्स)

4. दि सिक्थ गोरखा राइफल

5. द सेवन्थ गोरखा राइफल

6. द ऐट्थ गोरखा राइफल

7. द नाइन्थ गोरखा राइफल

8. द टैन्थ गोरखा राइफल

1939 में द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुवात के साथ गोरखा सैन्य दल भी पुनः युद्ध में उलझ गया। गोरखा सैनिकों के पास प्रथम विश्व युद्ध का अनुभव था। इस युद्ध में सीरिया, उत्तरी अफ्रीका, सिंगापुर, रंगून, वर्मा और इम्फाल तक गोरखा सेनाएं सक्रिय रही। सम्पूर्ण युद्ध के दौरान कुल 7544 गोरखा सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। यह संख्या प्रथम विश्वयुद्ध में मारे गये गोरखा सैनिकों की तुलना में बहुत कम थी। इस बार गोरखा सैनिकों ने दस विक्टोरिया क्रास प्राप्त किये जिनमें से आठ वर्मा, एक टयूनिशिया और एक इटली के युद्धों के पश्चात् इन्हें प्रदान किये गये। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् अन्तिम वायसराय लार्ड माउण्टबेटन की सहायता से गोरखा सेना ब्रिटिश सेना से जोड़ दी गयी।

       1947 में भारत की आजादी के साथ ब्रिटिश सरकार और भारत सरकार के मध्य गोरखा रेजीमेन्टों का विभाजन एक प्रमुख समस्या बन गया। विभाजन के फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार द्वारा नेपाल और भारत सरकार के साथ एक त्रिपक्षीय समझौता किया गया, जिसमें दूसरी छठी, सातवी और दसवीं रायफल को विस्थापित किये जाने पर बल दिया गया। और समस्त गोरखा सैनिकों के सम्मुख यह प्रस्ताव रखा गया कि वे भारत या ब्रिटेन किसी एक को ही अपनी सेवा प्रदान करें। लेकिन अंग्रेजी सरकार तब जरूर चौकन्ना हुई जब 90 प्रतिशत सैनिकों ने सिर्फ आजाद भारत को अपनी सेवा देनी चाही, फलस्वरूप दूसरी, छठी, सातवी और दसवीं गोरखा राइफल को विस्थापित कर दिया गया और ये ब्रिटिश ब्रिगेड ऑफ गोरखान के नाम से जानी गयी। पहली, तीसरी, चौथी, पॉचवी, ऑठवी और नॅवी गोरखा राइफल्स सिर्फ भारतीय सेना से जुड़ी रही और इण्डियन गोरखा राइफल्स के नाम से जानी गयी।

       गोरखा रेजीमेण्टों के स्थानान्तरण के पश्चात् दोनों देशों के सम्मुख (ब्रिटेन, भारत) अपनी-अपनी सेना में उनकी भर्ती की समस्या उत्पन्न हुई। इससे निपटने के लिए एक त्रिपक्षीय सम्मेलन भारत, नेपाल और ब्रिटेन के मध्य किया गया जो 4 नवम्बर से 8 नवम्बर 1947 तक चला। इस सम्मेलन में गोरखा सैनिकों के स्थानान्तरण भर्ती, प्रशिक्षण, भारत में ट्रान्जिट सुविधाओं और वेतन आदि से सम्बन्धित मसलों को हल किया गया। भारत और ब्रिटेन दोनों के गोरखा सैनिकों का वेतन एक समान कर दिया गया। भारत में गोरखा सैनिकों के संयुक्त रेजीमेण्ट सैन्टर खोले गये। जो इस प्रकार थे -

14 गोरखा राइफल - सबातो (हिमाचल प्रदेश)

39 गोरखा राइफल - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

58 गोरखा राइफल - शिलांग (असम/मेघालय)

आजादी के तुरन्त बाद भारत में ग्याहरवी गोरखा राइफल का जन्म हुआ। लखनऊ को इसका सेन्टर बनाया गया। भारत के लिए गोरखा सैनिको की भर्ती केन्द्रों से होती रही लेकिन ब्रिटेन ने अपने लिए नये भर्ती केन्द्र खोले लेकिन 1955 में भारत सरकार की सिफारिश पर नेपाल ने इन भर्ती केन्द्रों को बन्द करवा दिया ब्रिटेन को पाँच सालों के लिए नेपाल के अन्दर ही भर्ती की सुविधा प्रदान की गई। फलस्वरूप एक भर्ती केन्द्र पाटन और एक अस्थाई भर्ती केन्द्र पाखली हवा में खोला गया। 1958 में नेपाल ने भर्ती की सुविधा को अगले दस वर्षों के लिए बढ़ा दिया तथा पाखली हवा के भर्ती केन्द्र को बन्द कर नया भर्तीं केन्द्र पोखरा में खोल दिया।

आजादी के बाद भारतीय गोरखा राइफलों में अनेक परिवर्तन किये गये। अब गोरखा सैनिकों को भारतीय सैन्य अफसरों के नेतृत्व में भी कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ। गोरखा रेजीमेन्टों में अफसरों की कम संख्या को देखते हुए बहुत से सूबेदारों, सूबेदार मेजरों को (जो पढ़े लिखे थे) कमीशन देकर लेफ्टीनेन्ट तथा कैप्टन तक बनाया गया। आजाद भारत में गोरखा सैनिकों ने स्वयं को भारत पाक युद्ध में उलझा हुआ पाया। इसके बाद वे 1962 के भारत-चीन युद्ध, 1965 और 1971 के भारत पाक युद्ध में पुनः सक्रिय रहे और उनके अपूर्व योगदान ने पुनः उन्हें अनेक पुरस्कारों और सम्मानों का हकदार बनाया। ब्रिटिश ब्रिगेड ने भी मलाया, इण्डोनेशिया, बु्रन्नई और साइप्रस का दौरा किया। 1965 में एक गोरखा सैनिक को पुनः बिक्टोरिया क्रास प्रदान किया। किसी गोरखा सैनिक को मिलने वाला यह तेरहवाँ विक्टोरिया क्रास था। 1982 में ब्रिटेन और अर्जेन्टीना के मध्य दक्षिणी एटलांटिक (फाकलैण्ड) में हुए युद्ध में ब्रिटिश सेना की ओर से सेवन्थ गोरखाको अर्जेन्टीना के विरुद्ध भेजा गया। जहाँ उन्होंने अन्तिम और निर्णायक युद्ध में फाकलैण्ड (राजधानी पोर्टस्टेनरांे) को पराजित कर दिया। अर्जेन्टीना भी गोरखों की वीरता और साहस से प्रभावित हुआ और उन्हें पर्वतीय भेड़ जैसे शब्दों से सम्बोन्धित किया।

गोरखा सैनिकों ने अपनी वीरता, कर्मठता और साहस से न सिर्फ भारत अपितु विश्व के सैन्य इतिहास में अपना विशेष स्थान बनाया है। भारत में सिर्फ गोरखा रेजीमेण्ट ही ऐसी है जो कभी किसी विद्रोह में शामिल नहीं रही। और न ही कभी आन्तरिक रूप से विद्रोह या असन्तोष व्यक्त किया। अपने कर्त्तव्यों के प्रति इस विदेशी जाति ने अपनी सेवा परम्परा और सैन्य आदर्शों को सदैव बनाये रखा। अतः इनकी कर्मठता, वीरता और प्रतिबद्धता विश्व के सैन्य इतिहास में हमेशा उदाहरण की तरह प्रस्तुत होती रहेगी।

वर्तमान समय में गोरखा सैनिक भारत-ब्रिटेन और नेपाल की सीमाओं में कार्य कर रहे है लेकिन ब्रिटिश सरकार अपनी सेवाओं में इनकी संख्या घटा रही है, जो इस वफादार जाति के प्रति एक अनउत्तरदायित्वपूर्ण कार्य है। क्योंकि नेपाल की अर्थव्यवस्था बेहतर न होने के कारण बेरोजगार सैनिकों को रोजगार उपलब्ध कराने की समस्या गम्भीर हो रही है।

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