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ISBN: 978-93-93166-40-1
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भारतीय कला जगत में मालवा लघु चित्रण शैली का महत्व एवं आधुनिक परिवेश में योगदान

 डॉ. कंचन कुमारी
प्रशिक्षक
चित्रकला विभाग
दयालबाग शैक्षिक संस्थान
आगरा  उत्तर प्रदेश भारत  

DOI:
Chapter ID: 16410
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सारांश

चित्रकला का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि मानव सभ्यता के विकास का इतिहास। सच तो यह है कि चित्र बनााने की प्रवृत्ति सर्वदा से ही हमारे पूर्वर्जों में विद्यमान रही है। मानव ने जिस समय प्रकृति की गोद में अपनी आखें खोली, उस समय से ही उसने अपनी मूक भावनाओं को अपनी तूलिका द्वारा रेखाओं के माध्यम से गुफाओं और चट्टानों की भित्तियों पर अंकित कर अभिव्यक्त किया। ‘‘मनुष्य की रचना जो उसके जीवन में आनन्द प्रदान करती है, कला कहलाती है।’’ उत्तर एवं दक्षिण भारत के मध्य स्थित मालवा दोनों भागों का सदैव ही एक सन्धिस्थल रहा है। मालवा चित्रों में आरम्भ से लेकर अन्त तक तत्कालीन समाज की मनोदशाओं का सरल, स्वाभाविक चित्रण हुआ है। धार्मिक एवं सामाजिक सभी प्रकार के चित्रों में सात्विक एवं राजसी भावों का प्रदर्शन हुआ है, जो तत्कालीन सरल जीवन का सही प्रतिबिम्ब है। मालवा कला का सौन्दर्य भारतीय चित्रकला की उन आरम्भिक प्रवृत्तियों में है जो भक्ति कला के समान सहज एवं ओजपूर्ण रही है।

मुख्य शब्द. कला जगत,मालवा, लघु चित्रण शैली, आधुनिक परिवेश, योगदान।

भारतीय कला जगत में मालवा चित्रशैली का महत्व

उत्तर एवं दक्षिण भारत के मध्य स्थित मालवा दोनों भागों का सदैव ही एक सन्धिस्थल रहा है। कालान्तर में उत्तर का अवन्ति एवं दर्शाण क्षेत्र आकाशवन्ति के नाम से जाना जाने लगा। जो क्रमश पूर्वी अवन्ति और पश्चिमी अवन्ति था। दक्षिण का अनूप क्षेत्र दक्षिण अवन्ति के नाम से जाना जाता था। मालवों के अभुदय के पश्चात् सम्पूर्ण अवन्ति प्रदेश का नाम धीरे-धीरे मालव देश पड़ गया जो महा-मालवके रूप में ज्ञात होता है। मालवा कला-महान भारतीय कला का अंग है, असकी जीवन्त शक्ति, वास्तुविन्यास, रूपायन विधि आदि भारतीय कला के समान ही है।

चित्र सं0-1, उज्जैनी वाले चमकीले पात्र, समय-6वीं शती

मालव कला की लोक-परम्परा लम्बे समय से अक्षुण दिखाई देती है, पाशाणयुगीन मानव ने प्रस्तर उपकरणों का क्रमिक विकास किया था, जिसकी चरम परिवर्ती मालवा की ताम्राश्मयुगीन कला में दृश्टवय है। मालवा की ताम्राश्मयुगीन कला ग्राम्य संस्कृति होते हुए भी मानव के कलात्मक विकास का प्रथम सोपान है।मालवा की ताम्राश्मयुगीन कला बनारसघाटी एवं गोदावरी के काठे की समकालीन कलाओं से प्रभावित अवश्य है। परन्तु इसका स्थानीय मौलिक स्वरूप विशिश्ट है।लोहे के अन्वेशण के पश्चात् छठी शताब्दी ई0 पू0 आते-आते भारतीय कला में नवीन क्रान्ति के दर्शन होते है। इसी प्रकार उज्जयिनी में पाँचवी शती ई0 पू0 से ही उत्तरी काले चमकीले पात्र निर्मित होने लगें थे।मौर्यकाल में तक्षण कला का विकास हुआ। अशोक में मगध के चुनारी पत्थर से निर्मित राजकीय कला के स्तम्भों को उत्तर भारत के विभिन्न स्थलों के साथ मालवा में साँची एवं उज्जयिनी में भी स्थापित किया था। परन्तु मालवा के लोक-कलाकारों ने लोहें की छेनियों का सम्बल लेकर, यक्ष-यक्षियों की मूर्तियां उकेरी जिसके उदाहरण विदिशा के आस-पास मिले है। विदिशा के हस्तिदन्तकारों ने अपनी बारीक कला का प्रदर्शन साँची के तोरणद्वारों में किया था, जिनमें स्थानीय पत्थर का ही उपयोग हुआ है। शुंग सातवाहन के युग में बनी यक्ष-यक्षी मूर्तियों तथा मृण्मूर्तियां मालवा की लोक कला का विकसित स्वरूप हैं। नागों ने मालवा की लोक कला को अनेक कला रूपों में ढाला। इनके शासन काल में यक्ष-यक्षी, नाग-नागी, कुबेर, बुद्ध, विश्णु, एक मुखी शिवलिंग आदि के रूपायन के साथ-साथ गुफाएँ एवं मन्दिर भी बने।

मालवा में इस युग का बिखरा मूर्ति शिल्प जहाँ एक ओर औलिकर गुप्तकाल के विकसित स्वरूप को अपने में संजोये है, वहीं दूसरी ओर अपने से परवर्ती परमार कला के अंकुरों को अपने गर्भ में छिपाये है। परमार-कला मालव लोककला का चरम विकसित स्वरूप है। परमार युग से पहले चित्रकला के वर्णन हमें सहित्य, काव्यों से प्राप्त हुये हैं जो उन युगों की मालवा चित्रकला समृद्धि का परिचय देते हैं, जिनका वर्णन पृथक अध्याय में किया है।

मालवा की परमार कला राजस्थान के चित्र वैभवों के सामने ला खड़ा कर देती है। परमारों की गुजरात, मालवा एवं राजस्थान क्षेत्रों की प्रभुसत्ता से मालवा कला भी सार्वभौमिक अपभ्रंश के रूप में सामने आती है। अतः मालवा चित्र शैली मध्ययुग में राजस्थान एवं गुजरात से प्रभावित करती रही। इस समय की मूर्तियाँ मालवा में बिखरी पड़ी हैं। ताम्रपत्र व अन्य ताड़पत्रीय पोथियाँ इसके उदाहरण हैं। परन्तु मालव कला प्रारम्भ से ही स्थानीय विशेशताओं के कारण विशिश्ट मौलिकताओं का वाहन रही हैं।

इल्तुतमिश से लेकर अलाउद्दीन खिलजी तक मुस्लिम आक्रमणों ने मालवा की जीवन्त लोककला को समाप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी परन्तु माण्डु के सुल्तानों के अन्तर्गत, हिन्दू जैन व्यापारियों के प्रभाव से यह कला पाण्डुलिपियों में चित्रित हो उस युग की चित्रकला परम्परा की कहानी कह देती हैं।

इन कलाकृतियों में ईरानी प्रभाव का चित्रण है अपितु ये पूर्व भरतीय है, इस प्रकार मुस्लिम शासन में जैन एवं वैश्णव सम्बन्धी पाण्डुलिपियों की रचना होने के कारण भारत के समस्त क्षेत्रों में यही प्रभाव व्याप्त हुआ और पन्द्रहवीं शताब्दी में में मुस्लिम शासन होने के साथ ही सम्पूर्ण भारत में जैन धर्म

चित्र सं0 - 2, माण्डु कल्पसूत्र महावीर, समय-1435 ई., बेवसाइट

और वैश्णव धर्म सम्बन्धित रचना में कोई रूकावट नहीं आयी।

भारतीय कला जगत में मालवा एवं मालवा चित्र शैली का यही योगदान महत्वपूर्ण है। सभी भारतीय क्षेत्रों की भाँति मालवा क्षेत्र भी पुनुरूत्थान की लहर से ग्रसित हुआ। इसके 14390 वाले कल्पसूत्र के चित्रों में अकृतियों में अपभ्रंश की प्राचीन परम्परा होते हुए भी निखरा है। आकृतियाँ ठोस एवं प्रमाणिक हैं। यद्यपि भारतीय सौन्दर्यात्मक रेखायें अपना स्थान लिये हुए है। शास्त्रीय एवं प्रमाणिक होते हुए कालात्मक रूप लिये हुए है। भावों का संयोजन भारतीय चित्रकला छाप का प्रमाण है। परन्तु इन चित्रों में एक अंश तक ईरानी प्रभाव मिश्रित हो गया था। जिसके मूल्यांकन में द्विविधा उत्पन्न हो जाता है। यह प्रभाव शिराजी एवं हिराती था। जो तैमूर लंग के आक्रमणों 15000 में भागे हुए चित्रकारों के फलस्वरूप भारतीय चित्रकला जगत पर सार्वभौमिक रूप में पड़ा था। सोलहवीं शती की नियामतनामा शैली ने हिन्द ईरानी शैली का सूत्रपात किया, जो आगे चलकर दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजपूताना, गुजरात, दक्षिण चौरपंचशिखा शैली के के रूप में सार्वभौमिक रूप से सम्पूर्ण भारत में फैली, जिसमें कल्पसूत्र की बिना परली आँख वाली आकृतियों का रूप विद्यमान है।

यह नियामतनामा मुगलकाल के पहले का प्रमुख कल्पसूत्र है जिसने भारतीय चित्रकला को मिश्रण का ठोस आधार दिया और आकृतियों में लावण्यता एवं शास्त्रीयता के प्रति रूचि उत्पन्न की जो अपभ्रंश के रूप में ही निखरती चली गयी। बोस्ता ऑफ सादी कल्पसूत्र ईरानी चित्रकारों के माण्डु में संरक्षित होने का प्रमाण है। अतः हिन्दू ईरानी शैली के समगक का प्रमुख केन्द्र माण्डु ही था। जहाँ चित्रकारों के विभिन्न समूह क्रियाशील थे और वहाँ हिन्दू चित्रकार प्राचीन भारतीय परम्परा के आधार पर पाण्डुलिपियों की रचना करते थे और ईरानी चित्रकार ईरानी कलम के अनुरूप अपर्ने इंरानी विशयों पर चित्र रचना करते थे। ये दोनों प्रकार के चित्रकार एक दूसरे की शैली अपनाने की चेश्टा भी करते थे तथा हिन्दू चित्रकार हिन्दू शैली में दिक्षित होते थे और ईरानी चित्रकार हिन्दू शैली में दिक्षित होते थे। यही हिन्दू-ईरानी शैली और चौरपंचशिखा समूह में चित्रों को लांघकर 16600 तथा 16700 के मालवा लघुचित्रों में पुनः दिखायी देती है, जिनमें कुछ आकृतियाँ नियामतनामा चित्रों की आकृतियों से मिलती-जुलती है। 1634-35 में यह शैली आसपास की क्षेत्रीय शैलियों से उद्दीप्त होकर पुनः 16500 में माण्डु कल्पसूत्र के चित्रों की आकृतियों से कुछ ज्यादा पुश्ट आकृतियों को लिए प्रकट हुई, इसमें मुगल एवं हिन्दू के मिश्रण की गन्ध थी। 1680-90 में मालवा के अलग-अलग क्षेत्रों में हिन्दू एवं मुस्लिम रूप धारण किए हुए पास के क्षेत्रों से प्रभावित है और पास के क्षेत्रों को प्रभावित करती है।

चित्र सं0 - 3, राधा-कृष्ण वार्तालाप करते हुए, रसिकप्रिया, समय-1634 ई., राष्ट्रीय संग्रहालय

अन्य भारतीय क्षेत्रों की भाँति इसके चित्रण का विशय धार्मिक ग्रन्थ एवं नायिका भेद चित्र ही प्रमुख था। नायिका भेद में राधा-कृष्ण काव्य पर आधारित चित्र रीतिकालीन वासना की गन्ध से पूर्ण है; जिनमें राधा-कृश्ण का सम्बन्ध लौकिक सामन्तिय जीवन के आधार पर चित्रित किया गया है; जबकि राधा-कृश्ण प्रेम सम्बन्ध उपनिशदों में त्याग परद आधारित है। जो स्वच्छ एवं दिव्य है। 17000 तथा 17250 तक के चित्र पूर्णरूप से मेवाड़ की कला शैली के सन्निकट है और 1750 तक यह पुनः मेवाड़ शैली के समापन के साथ ही साथ स्वयं भी समाप्त होती है। अतः मेवाड़ और मालवा शैली परस्पर आदान-प्रदान का मापक है। क्योंकि मेवाड़ के पुनरूत्थान के साथ हीसाथ मालवा पुनरूत्थानप्रारम्भ होता है और बीच के समय में परस्पर एक शैली पर हम दूसरी शैली का प्रभाव देखते हैं और समापन भी साथ ही साथ देखते हैं। सम्पूर्ण भारत में ये दोनों शैलियाँ प्रमुख लहरों से निरन्तर मिलती एवं अलग होती रही हैं। प्रथम लहर उत्तर प्रदेश से मालवा होती हुई राजस्थान (मेवाड़) से राजस्थान के अन्य क्षेत्रों में प्रवाहित होती है। दूसरी लहर दिल्ली से राजस्थान होती हुई मालवा से बुन्देलखण्ड एवं दक्षिण तक टकराती है। जो महापथों के व्यापार सन्धि युद्ध एवं विवाह के कारण होती थी। मालवा शैली के विघटन के साथ ही साथ हम राजस्थान के अन्य क्षेत्रों जैसे उदयपुर, कोटा-बूंदी, बीकानेर आदि क्षेत्रों में मालवा चित्रों जैसी विशेशताएँ देखते हैं।

सोलहवीं से अठारहवीं तक लगभग तीन शताब्दियों में लोककला के तीन रूप, अर्थात् काव्य, संगीत और चित्रकला एक दूसरे के साथ समानान्तर विकसित हुए। यह विभिन्न मुहावरों में एक ही निर्वेसक्तिक भावों को व्यक्त करते थे। सभी भागवत और पुराणों के उपाख्यानों के धार्मिक विशय से पूर्ण थे। मालवा लघुचित्रों का भारतीय परिपेक्ष्य में सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक महत्व है।

मालवा लघुचित्रों में कलात्मकता ने समाज का कथा चित्रण करके, पहले युग का वर्णन किया ही, साथ ही अपने युग की चित्रों के माध्यम से दर्शा दिया। इस प्रकार उस युग का पोशण तो किया ही, लेकिन आधुनिक युग के समाज को अपने युग के समान, धर्म-मान्यताओं, कर्तव्य, रूढ़ियों एवं परम्पराओं से परिचित करा दिया। सभी चित्र सामाजिक कथाओं को लेकर बनाये गये हैं, जिनमें महापुरूशों के चरित्र का चित्रण हुआ है। राजनीतिक क्षेत्र के अनुसार अधिकांश चित्रों में युद्धों का चित्रण एक सामान्य बात है, मनुश्य के आक्रामक स्वभाव का परिचय युग-युगों से होने वाले युद्धों को इन चित्रणों के माध्यम से भी किया जा सकता है। चित्रों में चित्रित वेशभूशा उस समय में शासित होने वाली इकाई का स्पश्ट रूप है, किस प्रकार राजा सलाह एवं राज्य करता था? किस प्रकार वह युद्धों से निवृत होकर प्रेमालाप करता था? ये लघुचित्र प्रायः अभिजात्य वर्ग के श्रेणी में देखने के लिए बनाये जाते थे तथा इन राजाओं के दरबारों में आश्रित कवियों एवं चित्रकारों की सम्मिलित कृतियाँ होती थी।मध्य युग के सामन्तों का प्रिय व्याख्यान, आखेट खेलना, नृत्यगान देखना, अपने गुणगान या श्रृंगार प्रधान काव्यों का पाठ सुनना था। लघुचित्र देखना भी एक व्यसन था। सांस्कृतिक रूप से इन चित्रों के माध्यम से आधुनिक युग में उस काव्य, ग्रन्थ के नाटक करने में सहयोग मिलता है, क्योंकि इन चित्रों से ही क्षेत्रीय वेशभूशा, वस्त्रालंकरण, केशसज्जा,


चित्र सं0 - 4 , कृष्ण रासलीला, समय-1700 ई., बेवसाइट

इत्यादि का ज्ञान प्राप्त किया जाता है और नाटकों को उनका क्षेत्रीय रूप दिया जाता है। नाटकों में भावाभिव्यक्ति के लिए भी इन चित्रों का महत्व है। धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृश्टि से मालवा लघुचित्र सभी भारतीय लघुचित्रों की भाँति एक आध्यात्मिक सम्यक तत्व से परिचित कराते है। सामान्य रूप से युग आवश्यकता के अनूरूप  भगवान कभी महावीर का कभी बुद्ध का अवतार ग्रहण करते है, कभी सीमाओं में बँधे राम मर्यादा पुरूशोत्तम रूप धारण करते हैं और मूल आदि कारण शक्ति भी उन्हीं की आज्ञा का अनुसरण करती है।

चित्र संख्या - 5, रागदीपक, समय-1700 ई., कनोरिया कलेक्शन

कभी कहीं राम कृश्ण बनकर विभिन्न आत्मा रूपी नारियों से प्रेम सम्बन्ध स्थापित कर रास लीला का अनुश्ठान करते हैं। अतः प्रेम की निश्काम भक्ति और विरह की उज्जवल, पीड़ा संवेदना ही युग-युग के लिए एक ज्वलन्त उदाहरण बन जाती है।

देवी महात्मय चित्र बलिदान से पूरित, वहीं वन-वन में सह-धर्मिणी भटकने वाली अल्हादिनी शक्ति अपने उग्र रूप में सिंह पर अवतरित होकर प्रत्येक युग में राक्षस शक्तियों का नाश करती है। अधर्म, अन्याय, अनीति का वध करके धर्म न्याय एवं नीति की स्थापना ही उसका परिचय है। चित्रों में अन्य विषयों के चित्रों में राक्षस वध, इसी भावना से सम्बन्धित है।

चित्र सं0 - 6, नायक-नायिका प्रेमालाप करते हुए, समय-1700, कनोरिया कलेक्शन

प्राचीन राजवंशों द्वारा पल्लवित यह क्षेत्र राजनैतिक केन्द्र के रूप में भारत की सांस्कृतिक धाराओं को मार्ग देने में सक्षम हुआ है, देश का केन्द्रीय व्यापारिक महाकेन्द्र होने के नाते इसने भारतीय चित्रकला से प्रेरणा दी है।समग्र अध्ययन से विदित होता है कि कलाओं मंे एक पारस्परिकता रहती है, जिससे एक के द्वारा दूसरे का साक्षात्कार किया जा सकता है। देश और काल की परिस्थितियों से उत्पन्न राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि प्रभाव विभिन्न कलाओं को प्रभावित करते हैं।मालवा शैली में लघु चित्रण शैली में लोककला के तत्वों पर आधारित चित्रण के प्रस्तुत अध्ययन से विदित होता है कि लोककला के आधार पर मालवा शैली में बने इन लघु चित्रों में मानवाकृतियों के अंग-प्रत्यंगों की भाव-भंगिमा और मुद्राओं का लौकिक अंकन, प्रकृति का सतरंग वैभव और विषय का अनूठा काव्यात्मक व सौन्दर्यमयी अंकन हुआ है।

इस शैली में भक्ति और रीति की अनेक परम्पराओं का परिचालन हुआ, जिसमें रामायण, महाभारत, रसिकप्रिया, बारहमासा, आदि को चित्रकला में अधिकता से स्थान मिला। रसवेली, रसिकप्रिया, बारहमासा मूलतः एक लौकिक काव्य है, जिसमें उदार नायक और नायिका का मानवीकरण दैवीय प्रेमी कृष्ण और राधा के रूप में साहित्यिक युक्ति से किया गया है। चित्र काव्यों पर आधारित रसवेली, रसिकप्रिया का चित्रण में छन्दयुक्त लघुचित्रों के रूप में हुआ है। इस प्रकार काव्यगत भाव के आधार पर शीर्षक देकर और पद लिखकर कागज पर निर्मित ये चित्र भारतीय चित्रकला की अमूल्य धरोहर हैं।


आधुनिक परिवेश में योगदान

आज के युग में मानवमूल्यों के साथ कला के प्रति दृष्टिकोण भी बदल गया है। अतः आज इन काव्य आधारित चित्रों का ऐतिहासिक, समाजशास्त्रीय एवं कलात्मक विश्लेषण करना आवश्यक है।

मालवा शैली में अंकित तत्सम्बन्धी लघुचित्र इस प्रकार के अध्ययन के लिए विशेष उपयोगी हैं। पाश्चात्य प्रभाव के कारण आज भारतीय सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक यह चित्र अन्धकार की गर्त में तिरोहित होते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में इन चित्रों के विस्तृत विवेचन द्वारा चित्रकला के नये आयामों को प्रस्तुत किया जा सकता है। धर्म व काव्य के आधार पर बने हुए चित्रों की आत्मा को और उनकी भावप्रवणता की सूक्ष्मता को जानने के लिए तत्सम्बन्धी काव्य व धर्म का अध्ययन अत्यावश्यक है।

चित्र सं0 -7, कृष्ण कुबड़ी महिला त्रिवेका से भेंट स्वीकारते हुए, समय-16400, राष्ट्रीय संग्रहालय

धार्मिकता व मानवीय प्रेम व्यापार को भी इन चित्रों में उतना ही महत्व दिया है, जितना हमारे प्राचीन धर्म शास्त्रों में मिला है।

अतः इस विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि लोक तत्वों में जैसा सरस भाव चित्रण किया है, मालवा शैली में बने इन चित्रों में भी वैसा ही सरल, सरस चित्रण देखने को मिलता है।

चित्र सं0 -8, कामोद रागिनी, समय-16500, राष्ट्रीय संग्रहालय

मालवा लघु चित्रण में, लोककला की बहुचित्रित काव्याधार रही है। भारत में ही नहीं,वरन् विदेशों में भी कला मर्मज्ञ लोककला के तत्वों से अधिक परिचित हैं। मालवा के ये चित्र ऐतिहासिक दृष्टि से ही नहीं, वरन् कलात्मक दृष्टि से भी भारतीय लघुचित्रों में अपना पृथक अस्तित्व रखते हैं।

मालवा चित्रों में आरम्भ से लेकर अन्त तक तत्कालीन समाज की मनोदशाओं का सरल, स्वाभाविक चित्रण हुआ है। धार्मिक एवं सामाजिक सभी प्रकार के चित्रों में सात्विक एवं राजसी भावों का प्रदर्शन हुआ है, जो तत्कालीन सरल जीवन का सही प्रतिबिम्ब है। मालवा के शासकों ने समाज की व्यवस्था के अनुरूप चित्रों में धार्मिक रीति-रिवाजों के अंकन का विशेष महत्व दिया है। दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में संग्रहित बड़े

आकार के चित्र ऐसे अनेक हैं तथा सामाजिक व धार्मिक विषयों पर भी बहुत आधारित हैं। मालवा चित्रकला में तत्कालीन धार्मिक व्यवस्था, रीति-रिवाज, तीज-त्यौहार, उत्सव आदि का बड़ा ही कलापूर्ण एवं मनोहारी चित्रण हुआ है। वहाँ के महिलाओं व पुरुषों की रंग बिरंगी पोशाकों, सिर पर पहनने की पगड़ी, टोपी तथा साफा के अतिरिक्त मुकुट का प्रमुख स्थान रहा है। किसी चित्र में भगवान श्रीकृष्ण को भी जामा, पायजामा, पल्का पहने चित्रित किया गया है।

मालवा चित्रों के अध्ययन से हमें सौन्दर्य प्रसाधनों का भी परिचय मिलता है। मालवा शैली के भक्ति स्वरूप का अध्ययन करते समय ऐसे अनेक तथ्य प्रकाश में आये हैं जिनसे सिद्ध होता है कि भक्ति कला ने इस शैली को अनेक बातों में महान योगदान दिया है। मालवा शैली भारत की प्राचीनम शैली है। मालवा चित्रकला अनेक उपशैलियों स्थानीय धार्मिक परम्पराओं, देश-विदेश की कला शैलियों तथा सामाजिक मर्यादाओं को अपने में आत्मसात करती हुयी अपनी स्वयं की मौलिकता को आज तक अपने में संजोए हुए मालवा जन-जीवन में व्याप्त है। मालवा कला का सौन्दर्य भारतीय चित्रकला की उन आरम्भिक प्रवृत्तियों में है जो भक्ति कला के समान सहज एवं ओजपूर्ण रही है। भक्ति कला परम्परा किसी न किसी रूप में मालवा शैलियों में अन्त तक बनी हुयी है। मालवा चित्रशैली ने विभिन्न कला शैलियों को अपने में आत्मसात् कर भारतीय कला को समृद्ध बनाने में महान योगदान दिया। मालवा शैली में लोक कला की प्रधानता के साथ ही साथ भक्ति भावों की भी प्रधानता है।

चित्र संख्या - 9, अमरू शतक, समय-1650 ई., राष्ट्रीय संग्रहालय

मालवा कलाकारों ने राधा-कृष्ण की विभिन्न कथाऐं, बारहमासा, ऋतु वर्णन, रसिक प्रिया, रसवेली, देवी महोत्सव आदि विषयों को चित्रित किया और इन चित्रों ने भक्ति तत्वों को महत्व दिया। वात्सायन के कामसूत्रमें वर्णित चित्रकलाके षंड़गों के आधार पर चित्र रचना का पूरा ध्यान रखा है। मालवा में आदिकला से अब तक के विभिन्न युगों के प्रचलित विभिन्न सांस्कृतिक क्रिया-कलाप भारतीय जन-जीवन में आज तक पनपते रहे हैं।विभिन्न प्रतीकात्मक रूपों, रेखांकन पद्धतियों के विभिन्न प्रयोगों का योजनाबद्धरूप में हमें विभिन्न पर्वों, उत्सवों, अल्पना, तथा भित्तिचित्रों, लघु चित्रों आदि के रूप में दृष्टिगोचर होता है। मालवा चित्रकारों ने इन सभी को सांस्कृतिक क्रिया-कलाप के एक अनमोल निधि के रूप में आज तक अपने चित्रों को संजों कर रखा है।

मालवा चित्रकला में रेखाओं की बारिकियाँ उनके गतिपूर्ण मोड़ रंगों की विभिन्न टोने, रंगों की विविधता, रूपों के नये-नये दृष्टिकोण एवं संयोजन के सभी तत्वों को कलात्मक विश्लेषण के रूप में सूत्रबद्ध कर मनोवैज्ञानिक चिन्तन पर प्रकाश डाला गया है। विभिन्न परम्परागत चित्र शैलियों को स्थान विशेष के आधार पर एक सूत्र में बांधकर नये-नये तत्वों की खोज करने में मालवा चित्रकार पूर्ण सफल हुए हैं।

धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक जीवन राजस्थानी शैली के चित्रों के अभिन्न अंग बन बए हैं। यही कारण है कि इन कलाकारों ने धार्मिक कथाओं, उत्सवों, पर्वों, विभिन्न संस्कारों, सामाजिक रीति-रिवाजों के साथ-साथ जन सामान्य के दैनिक कार्यकलापों आदि का बड़ा ही सजीव एवं सारगर्भित चित्रण किया है। आकारों एवं स्थान का उचित संयोजन मालवा चित्रों में बड़े ही सन्तुलित ढ़ंग से किया गया है। मालवा चित्र शैली में चित्र संयोजन के साथ-साथ आत्मिक सात्विकता तथा सात्विक कौमार्य भाव के भी दर्शन होते हैं। मालवा शैली के मनोवैज्ञानिक संयोजन प्रणाली की यह प्रमुख विशेषता है। मालवा शैली की इन्हीं संयोजन प्रणाली की गति पूर्ण क्रियाओं ने आधुनिक कलाकारों को अपनी और आकर्षित किया है जो कि प्रत्यक्ष रूप में वतावावरण का प्रभाव बनकर चित्रण के वर्ण-विन्यास एवं तकनीकी आधार पर देश-विदेश में तन्मयता से चित्रकारों द्वारा अर्जित की गयी है।

मालवा के समस्त चित्र सर्वप्रथम अपनी जाति का परिचय देते हैं। जिसका दर्शक पर सीधा प्रभाव पड़ता है। चित्रकार के लिए जीवन की बारीकियों, यथार्थ के विस्तार और बहुरंगी विराटता विषय और चरित्र के उपादान को अनुभव और संवेदना के स्तर पर उभारना एक कठिन सृजनात्मक चुनौती है किन्तु भारतीय चित्रकारों ने सतत् साधना और हस्त लाघव का परिचय देकर विभिन्न शैलियों में ऐसे चित्रों का चित्रांकन कर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशिष्टता स्थापित की है।

सदियों से काव्यात्मक ऋतु वर्षात्मक रागमाला बारहमासा के चित्रों की परम्परा रही है। इनका चित्रण मालवा चित्रकारों ने केवल परम्परागत चित्र शैली की प्राचीन लीक पर ही नहीं किया वरन् रंग संयोजन, रेखाओं, आकृतियों तथा विषय में नवीनता के साथ नये-नये प्रयोग किये हैं। स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं अन्तराष्ट्रिय स्तर पर भी अपनी पहचान बनायी है।

मालवा के समस्त प्राकृतिक वातावरण में कला का आवास दिखायी देता है। मालवा में प्राचीन सम्पदा और धरोहर को सुरक्षित रखने का भरसक प्रयत्न हो रहा है। मालवा में व्यक्तिवादी कला का महत्व बढ़ रहा है एवं नये-नये प्रयोग दिन-प्रतिदिन सामने आ रहे हैं। इन कलाकृतियों में जीवन की यर्थाथताओं के दर्शन होते हैं। ग्राम्य जीवन की ओर भी आधुनिक कलाकार झुकता है। कुछ पाश्चात्य कला केन्द्रांे की उपलब्धियों से लाभ उठाकर चित्रण किया जा रहा है व कहीं लोककला की नींव पर नये निर्माण दिखाई पड़ते हैं। आधुनिक कलाकार शैली और तकनीक की सम्भावित विशेषताओं को सामने ला रहे हैं।

उपर्युक्त अध्ययन के आधार पर हम निष्कर्ष स्वरूप कह सकते हैं कि प्राचीन काल में ही नहीं

चित्र संख्या - 10, कृष्ण लीला, सिन्द्रे वरन् आज भी बारहमासा, रागमाला, रसवेली, रामायण, महाभारत, देवी महात्मय, वुस्तान आफ सादी विषय बहुत महत्वपूर्ण रहा है। सौन्दर्य की सघनता और धार्मिक, रीतिकालीन साहित्य को जिस कुशलता से रेखाओं, रंगों के माध्यम से मालवा की लघु चित्रण शैलियांे में अभिव्यक्ति दी गई है, वह प्रशंसनीय है।

मालवा की पारम्परिक चित्रण शैली जिसमें मालवा के नृत्य-नाटक सांझी आदि वेश-भूषा, वर्णों का मानवीय गुणों पर आकृतियों का प्रयोग, लघु चित्रण का समावेश तथा सरलीकरण, चटक वर्ण विधान मुख्यातः लाल, पीला, हरा, नीला, श्वेत एवं श्याम वर्ण तथा कही-कही नारंगी, बैगनी रंग में, ज्यामितीय एवं अलंकारिक अलंकरण तथा सभी आकृतियों की रचना मेवाड़, दक्खन आदि शैली का प्रभाव, अजन्ता शैली में समान अंग व मुद्राओं के रूप में हमें समानताऐं देखने को मिलती है तथा मुख्यतः चित्रण रचना काल एवं स्थान के रूप में भी अन्तर देखा जा सकता है। हम मालवा के अन्तर्गत लघुचित्र हो या भित्ति चित्र हमें यहाँ कई चित्र शैलियों का प्रभाव देखने को मिलता है।

मालवा लघु चित्रण मन्दिरों, कागजों में ही नहीं, पारम्परिक चित्रण शैली वर्तमान समय में केवल लघु चित्र तक ही सीमित नहीं रही है बल्कि आज भी चित्रकार इसको व्यवसायीकरण के माध्यम से इस कला को आगे पहुँचाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं जिसमें कपड़ा, पत्थर, टेराकोटा, लकड़ी आदि पर हमें चित्रकारी देखने को मिलती है। उदाहरणार्थ - ग्वालियर के चित्रकार एस.के. सिन्दे ने मालवा लघु चित्र शैली से प्रभावित होकर चित्र की रचना की है

नारायण श्रीधर बेन्द्रे यह भी इन्दौर में एक ब्राह्मण परिवार से सम्बन्ध रखने वाले चित्रकार है। इनके चित्रों में हमें मुखाकृति चित्रण के रूप, मालवा चित्रण शैली का मुखाकृति अंकन से प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। जिसके द्वारा वर्तमान समय में मालवा में लोक शैली विकसित हुई।

चित्र सं0- 11, सीता की अग्नि परीक्षा

बीसवीं शताब्दी की शुरूआत में जिन कलाकारों ने आधुनिक भारतीय चित्रकला का आधार स्थापित किया उसमें यामिनी राय एक प्रमुख लोकप्रिय कलाकार थे। उन्होंने अपनी कलामें भारतीय लोककला संस्कृति और देशी पद्धति को अपनाया। मुखाकृति की सीमारेखा से बाहर बड़े, नेत्र, मोटी काली रेखाओं और चटकीले अपारदर्शी रंगों का प्रयोग स्थानीय लोक कलाओं के भिन्न विषय माँ-बेटा, पशु-पक्षी व रामायण के दृश्यों और राधा-कृष्ण का अपनी कला में प्रमुखता से समावेश किया है।

मालवा की उज्जैन निवासी कृष्णा वर्मा का जन्म 1 अप्रैल 1956 को हुआ, इनके पिता श्री सिद्धेश्वर सेन तथा माता श्रीमती कंचनबाई। लोककला के लिए आप और आपके पिता जी को पारस्परिक एवं सिद्ध हस्त मालवी नाट्य नाचकार एवं श्री राष्ट्रपति द्वारा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार 1993-94 एवं राज्य शासन संस्कृति संचालनालय, भोपाल द्वारा शिखर सम्मान से सम्मानित 1996-97 एवं 2002-03 में म0प्र0 शासन संस्कृति संचालनालय, भोपाल द्वारा शिखर सम्मान से सम्मानित किया गया है। मालवा की लोककला, मांडना, भित्ति चित्र, संझा की शिक्षा व व्यावहारिक ज्ञान अपनी दादी मां रम्भाबाई सेन से प्राप्त की।

चित्र सं0- 12, मांडना बनाती हुई कृष्णा वर्मा

अतः प्राचीन समय से चले आ रही लोककला को वर्तमान में नवीन परिवर्तन के साथ लघु चित्रण शैली के व्यवसायीकरण द्वारा विकसित रूप प्रदर्शित होता है। जिसमें चित्रकार की अहम भूमिका भली-भाँति देखी जा सकती है। सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश को जनता के समक्ष दर्शाने में अत्यन्त सहायक हुए हैं, जिसके कारण वर्तमान में मालवा की धार्मिक व कलात्मक संस्कृति से परिचय हो सके।

अखिलेख गौड़ का जन्म 6 अक्टूबर 1983 इन्दौर में हुआ। आप मालवा की पारम्परिक शैली से प्रभावित होकर वर्तमान में कार्य कर रहे है आप लोककला (मालवा) तथा अन्य माध्यम जैसे क्ले, पेपर मैसे, भित्ति चित्रण आदि लगभग सभी विधाओं में काम किया है। आप मैटेरियल ग्रुप एक्जीबिशन भी कर चुके है।

आपके कई चित्र कई ऑफिस व इंस्टीट्यूट में संग्रहित है। आपको कला सृजन सम्मान से 2008 में एकलव्य कला संस्थान द्वारा नवाजा गया। आज यह स्वतन्त्र रूप से मालवा से प्रभावित होकर कागज, भित्ती सभी धरातल पर कार्य कर रहे है। आज के युग में हम देखे तो लघु चित्र सिर्फ कागज या कपड़ों पर छोटे आकार में ही सीमित नहीं रहे और न ही कला विधिकाओं और संग्रहालयों में सीमित कर रहे है यह आज बहुत ही बड़े विस्तार में फैल गए है आप साड़ियों पर लघु चित्रकारों, टेराकोटा, लकड़ी, कुशन आदि पर देख सकते है। अतः प्राचीन समय के पश्चात् वर्तमान में हमें परिवर्तन के रूप में मालवा लघु चित्रण शैली के व्यवसायीकरण द्वारा विकसित रूप प्रदर्शित होता है जिसमें चित्रकार की अहम भूमिका देखी जा सकती है। अतः प्राचीन समय के पश्चात् में हमें परिवर्तन के रूप में मालवा के लघु चित्रों के व्यवसायीकरण द्वारा विकसित रूप प्रदर्शित होता है। जिसमें चित्रकार की अहम भूमिका भली-भाँति देखी जा सकती है। जिसके कारण वर्तमान में मालवा क्षेत्र की धार्मिक व कलात्मक संस्कृति से परिचय हो सके। मध्य भारत (मध्यप्रदेश) में मालवा से प्राप्त लघु चित्रों का भारतीय चित्रकला के उज्जवल इतिहास में विशेष योगदान है जिससे अवगत कराने का प्रयास किया गया है।

मालवा कलाकारों में उत्साह है, जीवन के चित्रण और नये प्रयोगों के लिए साहस है। इसका योग अच्छे ही परिणाम दे सकता है। भारतीय कला विश्व-बन्धुत्व की भावनाओं से आबद्ध होकर भी अपनी गौरवमयी कला परम्पराओं को किसी न किसी रूप में आज भी संजोए हुए हैं।

निष्कर्ष-मालवा लघु चित्रण शैली का महत्व (विशेषतायें) लघुचित्र चित्रकला जगत की अनमोल धरोहर है। मालवा चित्रों में मानवमन के समस्त भाव परिलक्षित होते है। चाहे वह रति, हृास, शोक, उत्साह, क्रोध, घृणा, भय, अद्भुत, शान्त हो। चित्रकार ने चित्रों में रूपविन्यास, रेखाकर्म, वर्णविन्यास, वर्तनाकर्म, आलंकरणों इत्यादि के माध्यम से सादृश्य, प्रमाण, लावण्ययोजना, वस्त्र-आभूशण, प्रतीक अलंकरण, गति, लय, क्रिया आदि की सहायता से तथा सहयोग, सामन्जस्य, सन्तुलन, प्रवाह, प्रमाण आदि सिद्धान्तों के अनुसार मूलभाव (कथावस्तु तथा वातावरण) की नाना प्रकार की मुद्राओं को महत्तव प्रदान कर सृजन किया।सौन्दर्यपूर्ण मानवाकृति अंकन, अलंकारिकता, कलात्मक तकनीक, सुन्दर  वर्ण योजना, रेखा, मनमोहक रूपाकृतियों का चित्र के अन्तराल में सुखद व सामन्जस्यपूर्ण संस्थापन आदि अनेक विशिष्ताओं के कारण मालवा के चित्र अपना महत्व स्थापित कर चुके है। मालवा लघु चित्रण शैली में लोक कला के तत्वों के आधार पर विवेचन निम्न प्रकार से है-

1.     रेखा व वर्ण        2. चित्र संयोजन व परिपेक्ष्य       3. आकृतियां एवं साधारण जन समूह

4.     पोत       5. दृश्य चित्रण      6. चित्रों में भाव      7. कालक्रमानुसार चित्रों में परिवर्तन

मालवा के प्रारम्भिक चित्रों का मुख्य विषय कल्पसूत्र जो महावीर स्वामी जी से सम्बन्धित रहा है। फिर रामायण, महाभारत, देवीमहात्मय, रसवेली, रागमाला, बारहामासा, तथा बुस्तान ऑफ सादी का चित्रण दर्शनीय हैं। नारी चित्रण में कमनीयता, लज्जाशीलता और सुन्दरता देखने को मिलती हैं। स्थापत्य चित्रण में मालवा कलाकारों की कमाल की पकड़ है। चित्रों में अन्तराल का सर्वत्र सर्वांगीण सन्तुलन है। मालवा चित्रकारों ने परम्परागत विधि से सृजनात्मक आयामों में चित्रण कर मालवा शैली को एक गौरवमयी स्थान प्रदान किया है।

1. Archer, W.G- Indian Painting, London 1956

2. Archer - Central Indian Painting, London, 1958

3. Chavan, Roy, C- A concise History of Indian Art, America, 1976

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11. कुमार, शैलेन्द्र, उत्तर भारतीय पोथी चित्रकला, कला प्रकाशन, 2009

12. https://www.britannica.com/art/malwa-miniature-painting

13. https://www.newworldencyclopedia.org/entry/malwa/madhyapradesh

14. https://www.britannica.com/art/malwa-painting