महात्मा गाँधी : समसामयिक प्रासंगिकता
ISBN: 978-93-93166-17-3
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गाँधी-दर्शन की प्रासंगिकता

 डॉ. सरोज कुमारी
एसोसिएट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग
एस.एन.बी.डी. गवर्नमेंट पी.जी. कॉलेज
 नोहर, राजस्थान, भारत  
डॉ. प्रमोद कुमार चौहान
असिस्टेंट प्रोफेसर
इतिहास विभाग
एस.एन.बी.डी. गवर्नमेंट पी.जी. कॉलेज
नोहर, राजस्थान, भारत

DOI:
Chapter ID: 15501
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सारांश

गाँधी-दर्शन के आधार तत्व सत्य, अहिंसा और प्रेम हैं और इसी आधार पर राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक विचारों की बेल फल-फूल रही है। यही तीन तत्व प्रकाश, जल और वायु की भाँति सम्पूर्ण गाँधी-दर्शन को पोषित व पल्लवित कर रहे हैं। आज जब साम्प्रदायिकता, धार्मिक विद्वेश, आतंक, हिंसा तथा आर्थिक शोषण का वातावरण बना हुआ है। गाँधीजी के विचारों को अपनाकर विश्व इस दूषित वातावरण से मुक्ति पा सकता है। आज यह जरूरी है कि सभी धर्मों, सम्प्रदायों, भाषाओं और अलग-अलग परम्पराओं में विश्वास रखने वाले लोग आपस में मेल-मिलाप ओर भाईचारे को बढ़ाने वाले जीवन्त तत्वों को अपनाऐं और पारस्परिक गलतफहमियों और विद्वेश आदि को बढ़ाने वाले तत्वों को कम करें।

प्रस्तुत आलेख द्वारा हम वर्तमान समाज में गाँधी-दर्शन की अनिवार्यता तथा प्रासंगिकता का अवलोकन करेंगे।

मुख्य शब्द:- राजनीतिक क्षेत्र में, सामाजिक क्षेत्र में, आर्थिक क्षेत्र में, परम्पराओं, धार्मिक विद्वेश

प्रस्तावना

जैसा कि आइंस्टीन ने कहा है कि ‘‘आने वाली पीढ़ीया शायद मुश्किल से ही यह विश्वास करेंगी कि गाँधी जैसा हाड-माँस का पुतला कभी इस धरती पर हुआ होगा। गाँधी इंसानों में एक चमत्कार था।’’ गाँधी के विचार केवल गाँधी युग तक ही प्रासंगिक नहीं थे अपितु उनके विचारों की उज्ज्वल छाया से मानव-समाज युगों-युगों तक प्रकाशित होता रहेगा। पिछले 73 वर्षाें में मानव-समाज में अनेक प्रकार की विषमताएँ हमारे सामने आयी हैं। समाज में हिंसा, लूट-पाट, हत्या, बलात्कार जैसी आपराधिक प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं। आज का मानव इतना स्वार्थी हो गया है कि वह पराये तो क्या अपने सम्बन्धियों की भावनाओं को भी ठेस पहुँचाने में संकोच नहीं करता। धन की पिपासा शान्त होने का नाम ही नहीं लेती। जितना मिलता है वह कम प्रतीत होता है और अधिक की चाह बढ़ती जा रही है। धन का मूल्य बढ़ रहा है और मानव जीवन का मूल्य घटता जा रहा है। मानव समाज में मानवीय भावनाओं का निरन्तर हृास हो रहा है जो स्वयं मानवीय हित में नहीं है। हमारी युवा पीढ़ी पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण कर रही है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति की आभा दिनों-दिन क्षीण होती जा रही है। यह पाश्चात्य सभ्यता के बढ़ते प्रभाव का ही परिणाम है। किसी भी देश के युवा उस देश के रीढ़ होते हैं, उनका पतन कई अर्थो में राष्ट्रीय पतन कहलाता है। सब जगह अंग्रेजी का बोल-बाला है, अंग्रजी बोलना प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जा रहा है और हिन्दी के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। आज जबकि विश्व तीसरे विश्व युद्ध की कगार पर खड़ा है और सभी शान्ति के उपाय निरर्थक सिद्ध हो चुके हैं, तो गाँधी-दर्शन की प्रासंगिकता और भी बढ़ गयी है। गाँधी विचारों का आलोक ही हमें उचित मार्ग-दर्शन और प्रेरणा दे सकता है। डॉ. पी. एस. रमाया ने कहा है ‘‘गाँधीवाद नीतियों, सिद्धान्तों, नियमों, आदेशों, निषेधों आदि का सिद्धान्त ही नहीं वरन् जीवन का एक रास्ता है। इसके द्वारा जीवन की समस्याओं के प्रति एक नवीन दृष्टिकोण का प्रतिपादन या पुरातन दृष्टिकोण की पुनर्व्याख्या करते हुए आधुनिक समस्याओं के लिए पुरातन हल प्रस्तुत किए गए हैं।’’[1]

अध्ययन के उद्देश्य:-

1. गाँधी दर्शन के आधार तत्व सत्य, अहिंसा एवं सत्याग्रह का मूल्यांकन करना।

2. गाँधी दर्षन के आर्थिक विचारों की समसामयिक प्रासंगिकता का विश्लेषण करना।

3. गाँधीवाद की सामाजिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रासंगिकता का विष्लेषण करना।

4. गाँधी दर्षन की षिक्षा, मानवाधिकार, राजनीतिक एवं विष्व शांति के क्षेत्र में प्रासंगिकता का मूल्यांकन करना।

साहित्य की समीक्षा

जब नील का दाग मिटा चंपारण 1917 ब्रिटिश शासन में किसानों की दुर्दशा का लेखा-जोखा के लेखक पुष्यमित्र ने किसानों की दुर्दशा को चित्रित किया है। महात्मा गाँधी अंग्रेजों द्वारा किसानों पर किए जा रहे अत्याचारों से किसानों की मदद करने के इरादे से चंपारण गए थे। गाँधीजी के नेतृत्व में भारत में किया गया यह पहला सत्याग्रह था। महात्मा गाँधी अंग्रेजों द्वारा किसानों पर किए जा रहे अत्याचारों से किसानों की मदद करने के इरादे से चंपारण (Champaran) गए थे। ब्रिटिश कानून के तहत किसानों को अपनी जमीन पर नील की खेती (Neel ki Khaeti) करने के लिए मजबूर किया जाता था और इसके लिए उन्हें बहुत कम भुगतान मिलता था। गाँधी जी द्वारा जो कदम उठाए गए वह सत्याग्रह (champaran satyagraha) के रूप में जाना गया। यह संघर्ष से आगे चलकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में ऐतिहासिक रूप से एक महत्वपूर्ण विद्रोह रहा था।

गाँधी: द ईयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड

महात्मा गाँधी की जयंती के डेढ़ सौ वें साल पर आई रामचंद्र गुहा की इस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्व है, क्योंकि यह सिर्फ गाँधी पर केंद्रित पुस्तक नहीं है, बल्कि गाँधी के बहाने यह आधुनिक भारत का इतिहास भी है। भारत लौटने पर गाँधी ने अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले से गुजरात में बस जाने की इच्छा जताई थी। गोखले ने एक साल तक भारत घूमने और कहीं भाषण न देने की सलाह दी थी। एक साल बाद बनारस में बीएचयू के उद्घाटन के अवसर पर गाँधी ने पहला भाषण दिया, जिसका देसी राजाओं के अलावा एनी बेसेंट ने भी विरोध किया। गाँधी के चार लक्ष्य थे- हिंदू-मुस्लिम एकता, अस्पृश्यता उन्मूलन, विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार और खादी के प्रयोग को आगे बढ़ाना। गुहा गाँधी को देवता की तरह पेश नहीं करते, बल्कि उनके खिलाफ बनी असहमति को भी दर्ज करते हैं। वह बताते हैं कि गाँधी के प्रति सम्मान के बावजूद रवींद्रनाथ विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के उनके फैसले और सुभाष बाबू के प्रति उनके रवैये से क्षुब्ध थे। ऐसे ही राजाजी चक्रवर्ती राजगोपालाचारी गाँधी के इतने निकट थे कि सरला देवी चौधुरानी से भावनात्मक रिश्ते पर उन्होंने गाँधी को डांटा था। गाँधी के सहयोगी राजाजी के अलावा नेहरू और पटेल पर भी पुस्तक में विस्तार से जिक्र है।

गाँधी बोध: गाँधी को पढ़ा, लेकिन कितना समझे

गाँधी को पढ़ना और उन्हें समझना दोनों ही अलग बातें हैं। उनका अध्ययन करने वाला विद्यार्थी जब भी उनके जीवन और विरासत के अनेक पक्षों से परिचित हुआ, वह तब-तब हैरान हुआ। गाँधी की निजी जानकारियां और उनके समय के घटनाक्रमों का विचारशील अध्ययन का समन्वय पुस्तक गाँधी बोध को अनूठा दृष्टिकोण प्रदान करता है। गाँधी के कुछ निकट सहयोगी उनके विचारों और सिद्धांतों की अच्छी समझ रखते थे, जिनका साक्षात्कार फ्रेड जे. ब्लूम ने लिया। इन्हीं में कुछ सर्वश्रेष्ठ साक्षात्कारों को उषा ठक्कर और जयश्री मेहता ने इस पुस्तक में समावेशित किया है।


गाँधी: एक सचित्र जीवनी

महात्मा गाँधी पर लिखी यह पुस्तक एक शानदार दस्तावेज है। इसमें हम गाँधी के जीवन के रंगों को रोचक वर्णन और तस्वीरों के माध्यम से देख पाते हैं। बचपन से लेकर अंतिम विदाई तक के नजारे बेजोड़ हैं। इसे गाँधी पर लिखी गयी अब तक की मुकम्मल पुस्तक कहा जाए तो गलत नहीं होगा। पुस्तक की भाषा सरल है। लेखक ने घटनाओं को खींचने के बजाय कम शब्दों में स्पष्ट तौर पर बताया है।

The Story of my Experiments with Truth' by Mahatma Gandhi

No one can write better about the Mahatma, than he himself. With all the other interpretations and studies of his life, it's good to take in his own perspective. In his autobiography he tells us about his life from childhood to 1921. It was written in Gujarati, in weekly installments and was published in Navjivan from 1925 to 1929. The English version was translated by Mahadev Desai in 1940. It is an honest account of his early life, ideologies, his mistakes and the lessons he learnt from them. My Dear Bapu: Letters from C. Rajagopalachari to Mohandas Karamchand Gandhi, Devadas Gandhi and Gopalkrishna Gandhi

Chakravarti Rajagopalachari or Rajaji needs little introduction as his contribution to India's struggle for freedom is invaluable . He was the first Indian-born governor-general and the last Governor-General of India and a leader of the Indian National Congress. He was described by the Mahatma as his "conscience keeper” and, once, as his “only possible successor”. This book compiles an exchange of letters between them from the years 1920 to 1945. The dialogue not only gives an insight into their lives but also provides food for thought.

The Good Boatman' by Rajmohan Gandhi

The author of this book, Rajmohan Gandhi, is a known biographer and the Grandson of the great man he's writing about. In this book, he tries to look into Gandhi's philosophy and the success he had in applying it in detail. As time passes, new generations are taught a simplified version of his struggle, making him but a simplified archetype and with this book, the attempts to show Bapu's struggles and achievements in real light.

Gandhi: Prisoner of Hope' by Judith M. Brown

Judith M. Brown is a British historian who was born in India and being deeply interested in Indian politics, she's written several books on it. Her biography of Gandhi is both fair and insightful. She doesn't deify or try to make him look like a canny politician but rather she writes about his life and shows how it shaped his philosophy and how he attempted to follow what he believed in. It's a good biography of his whole life.

The Death and Afterlife of Mahatma Gandhi' by Makarand R Paranjape

As the title suggests, this book looks into the assassination of the father of our nation, and it's implications. The book examines in detail Gandhi's last six months and all he did to prevent bloodshed as the nation he fought for was being torn apart. This book looks for a deeper meaning behind his death and is an interesting take.

अहिंसात्मक प्रतिरोध

गाँधीजी अहिंसा को मानवीय जीवन की स्वाभाविक प्रवृति मानते थे। उनका मानना था कि मानव समाज के विकास का इतिहास यही बताता है कि मनुष्य मूल रूप में अहिंसा प्रिय है और उसकी इस अहिंसक प्रवृति के कारण ही मानव जाति निरन्तर बढ़ती जा रही है। गाँधीजी के अनुसार ‘‘मैं यह सोचना पसन्द करूंगा कि भारत अपनी अंहिसा के जरिए सारे विश्व के लिए शांति के दूत का काम करे।’’2 जब पूरे विश्व ने गिरमिटिया को एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में स्वीकार कर लिया था तब गाँधीजी ने इस प्रथा का पुरजोर विरोध किया था। यही नहीं जब पूरी दुनिया में हिंसात्मक युद्ध छिड़ा हुआ था तब गाँधीजी ने अंहिंसात्मक युद्ध प्रारम्भ किया था। उन्होंने हिंसात्मक इतिहास को अहिसा में बदल दिया। राजनीतिक संघर्ष हल करने के लिए जिस तरह से उन्होंने अहिंसात्मक प्रतिरोध यानी सत्याग्रह का उपयोग किया इससे हुआ यह कि बाद की दुनिया में राजनीतिक संघर्षों के हल के लिए यह एक सर्वोत्तम माध्यम बन गया। 1915 से लेकर 1945 तक की कालावधी विश्व में महत्वपूर्ण मानी जाती है। पूरी दुनिया ने माना कि हिंसक तरीके से विवादों को केवल निपटाया जाता है विवाद को जड़ से खत्म नहीं किया जाता। जब पूरी दुनिया हिंसात्मक युद्ध में उलझी हुई थी तब ऐसे विपरीत परिस्थिति में गाँधीजी अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने सोचा था कि युद्ध और हिंसा का अधिक रचनात्मक विकल्प होना चाहिए। गाँधीजी ने सावधानीपूर्वक दुनिया को अहिंसा के नए रुप से न केवल परिचित बल्कि इसे जीने का एक मार्ग भी बताया और वे दुनिया के सामने यह सिद्ध करने में सफल रहे कि एक सभ्य समाज के लिए संघर्ष के संकल्प की सबसे व्यवहारिक और शक्तिशाली तकनीक अहिंसा में निहित है। गाँधी जी की अहिंसा स्थिर नहीं है यह बदलती स्थितियों के लिए विकसित और अनुकूल है। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका और भारत में नस्लीय भेदभाव के खिलाफ अपने अहिंसात्मक प्रतिरोध का इस्तेमाल किया। गाँधीजी आम आदमी की दुर्दशा से बहुत अधिक चिंतित थे। उन्होंने महसूस किया कि हमें वर्तमान स्थिति को बदलना होगा ताकि गरीब व्यक्ति भी सम्मान के साथ अपना सिर उठा सके। ऐसा करने के लिए उन्होंने 3 तरीके खोजे नफरत के स्थान पर प्रेम का बर्ताव किया जाना चाहिए। लालच को प्यार में बदलें और ऐसे में सब कुछ ठीक हो जाएगा। उन्होंने इस बात का आह्वान किया कि क्रोध व नफरत को प्यार और करुणा के मूल्य में बदलना चाहिए। गाँधीजी ने एक सूत्र दिया, तर्क मस्तिष्क से आता है और सहानुभूति दिल में रहती है। हमें सत्य का पालन करना है ताकि मस्तिष्क से यह हृदय तक फैल जाए। करुणा और प्रेम के साथ और विरोधी के प्रति बिना घृणा या क्रोध के हम रचनात्मक ऊर्जा उत्पन्न कर सकते हैं मानव प्रजातियों की एकता केवल एक जैविक और सामाजिक तथ्य नहीं है यह तब होता है जब एक बड़ी शक्ति समझदारी से पूरी तरह से मुखर होकर काम करती है।

राजनीतिक क्षेत्र में

गाँधी जी की दृष्टि में राजनीति धर्म और नैतिकता की एक शाखा थी। अतः उन्होंने राजनीति को शक्ति और सम्पति प्राप्त करने के लिए संघर्ष नहीं माना। उन्होंने कहा कि राजनीति तो लाखों पददलितों को सुन्दर जीवन यापन करने योग्य बनाने, मानवीय गुणों का विकास करने, उन्हें स्वतन्त्रता, बन्धुत्व तथा आध्यात्मिक गहराईयों और सामाजिक समानता के बारे में प्रशिक्षित करने का निरन्तर प्रयास है। एक राजनीतिज्ञ जो इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए काम करता है धार्मिक हुए बिना नहीं रह सकता। गाँधी जी की दृष्टि में राजनीति में प्रवेश का अर्थ था सत्य और न्याय की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होना। उग्रवादी तिलक ने एक बार कहा था कि राजनीति साधुओं का खेल नहीं है। इस पर गाँधी जी का उत्तर था ‘‘राजनीति साधुओं का और केवल साधुओं का काम है।’’ साधुओं से उनका तात्पर्य अच्छे व्यक्तियों से था। रविन्द्रनाथ टैगोर ने भी उनके मत से असहमत होते हुए कहा था ‘‘धर्म की इस महान निधि को इस कमजोर नौका में, दो दलबन्दी की क्रुद्ध लहरों से टकराती रहती है मत रखो।’’ गाँधी जी का उत्तर था कि ‘‘बिना धर्म के राजनीति एक मूर्दा है जिसकों सिवा जला देने के ओर कोई उपयोग नहीं हो सकता।’’[3]

गाँधीजी राजनीति में नैतिकता लाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने घोषणा की कि मेरे लिए धर्म विहीन राजनीति कोई चीज नहीं है। नीति शून्य राजनीति सर्वथा त्याज्य है। उन्होंने यहां तक कह डाला कि ‘‘राजनीति धर्म की अनुगामिनी है। धर्म से शून्य राजनीति मृत्यु का एक जाल है, क्योंकि उससे आत्मा का हनन होता है।’’[4]

गाँधीजी के अनुसार ‘‘मैं यदि राजनीति में भाग लेता हूँ तो इसका कारण केवल यही है कि राजनीति हमें एक सर्पीणी की भाँति जकड़े हुए है और हम चाहे कितना ही प्रयास क्यों न करें उससे बाहर नहीं निकल सकते। मैं इस सर्पीणी से जूझना चाहता हूँ। मैं इस राजनीति में धर्म को प्रविष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ।’’[5]

वर्तमान राजनीति में भ्रष्टाचार, अपराध और अनैतिकता का साम्राज्य चारों ओर व्याप्त है। वर्तमान में नेताओं की छवि धूमिल हुई है और सामान्य जनता का मोह भंग हुआ है। गाँधी जी की कथनी-करनी तथा विचारों में पारदर्शिता थी जबकि आज के नेता केवल सत्ता औैर वोटों की ही राजनीति करना जानते हैं, उनकी कथनी-करनी और विचारों में कोई समानता नहीं है। आज के नेताओं ने राजनीति का अर्थ ही बदल दिया है, ‘राज करने की नीतिइसके लिये वे साम, दाम, दण्ड भेद सभी का प्रयोग करते हैं। गाँधी जी के बाद सम्भवतः ऐसा कोई नेता नहीं है जिसकी एक पुकार पर जनता उसके पीछे चल दे। आज के नेता स्वार्थ लिप्सा में लिप्त हैं। राजनीति का अपराधीकरण आज कोई नई बात नहीं है। सभी प्रमुख पार्टियाँ ऐसा न करने के खिलाफ जरूर हैं परन्तु अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से वे चुनाव के समय टिकट अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को अवश्य देती हैं। चुनाव के समय बिहार तथा अन्य स्थानों पर उभरती हिंसा तथा बूथों को बन्दूकों के बल पर लूट लेना, लोगों के स्वतन्त्र चुनाव अधिकारी का हनन साधारण बात हो गयी है। मुख्य चुनाव अधिकारी श्री टी. एन. शेसन ने अनेक चुनाव सुधार किए जिससे निष्पक्ष चुनाव होने सम्भव हो सके हैं परन्तु आज भी दलबदल, राजनीति का अपराधीकरण, धन व बल का प्रयोग जारी है जो मतदान व्यवहार को प्रभावित करता है। जनता को धर्म, जाति, सम्प्रदाय आदि के आधार पर बाँटकर मतदान के लिए प्रेरित किया जाता है। नेताओं का चारित्रिक पतन आम बात हो गई है तथा अच्छे लोग राजनीति से दूर हो गए हैं। सभी पार्टियाँ इसको रोकना चाहती हैं किन्तु इसके लिये ठोस नियम तथा इसके पालन की आवश्यकता है। सत्ता में आने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त बड़े पैमाने पर हो रही है। ऐसे समय में गाँधी जी के विचार ही हमें उचित दिशा-निर्देश दे सकते हैं। आज विश्व स्तर पर भी महात्मा गाँधी के विचार अधिक प्रासंगिक है।

सामाजिक क्षेत्र में

गांधीजी समाज को व्यक्ति के लिए कृत्रिम नहीं वरन् स्वाभाविक संस्था मानते थे क्योंकि व्यक्ति का विकास समाज में रहकर ही हो सकता है। मनुष्य की स्वतंत्रता सामाजिक नियमों के पालन में ही कायम रह सकती है। यही कारण है कि गाँधीजी स्वयं कहते हैं कि ‘‘मैं व्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल्य देता हूं, परंतु यह आपको नहीं भूलना चाहिए कि मनुष्य सार रूप में सामाजिक प्राणी है। उसने अपनी वर्तमान स्थिति व्यक्तिवाद के साथ सामाजिक विकास की आवश्यकताओं को अभियोजित करके ही प्राप्त किया है। अनियंत्रित व्यक्तिवाद जंगली जानवरों का नियम है हमें व्यक्ति की स्वतंत्रता और समाज के नियंत्रण के बीच का रास्ता अपनाना है। संपूर्ण समाज के हित की भावना से स्वेच्छ्या समाज के नियंत्रण को स्वीकार करना ही व्यक्ति और समाज दोनों के लिए लाभकारी है।’’[6]

गांधीजी समाज को स्वाभाविक और आवश्यक मानते हुए भी वे व्यक्ति को समाज की तुलना में गौण नहीं मानते हैं। गांधी जी ने समाज या राज्य की स्वेच्छाचारिता को कभी नहीं स्वीकार किया है उनकी दृष्टि में व्यक्ति का सर्वोच्च महत्व है। अतः उनके मतानुसार ‘‘स्वतंत्रता के माहौल में रहकर के ही मनुष्य अपने को समाज की सेवा में लगा सकता है यदि उसकी स्वतंत्रता का हरण कर लिया जाए तो वह मात्र एक मशीन सदृश्य रह जाएगा एवं समाज का पूर्णतः पतन हो जाएगा किसी भी समाज की स्थापना व्यक्ति स्वातंर्त्य के निषेध पर नहीं की जा सकती है।’’[7]

मनुष्य के स्वभाव को आधार बनाकर समाज को भी दो रूपों में बाँटकर समझा जा सकता है। एक तो समाज का वर्तमान रूप है जिसमें नैतिक और अनैतिक सभी प्रकार के व्यक्ति रहते हैं। दूसरा समाज की आदर्श कल्पना के तहत जिसमें सभी व्यक्ति नैतिक नियमों का पालन करेंगें यही गांधीजी का सर्वोदय समाज है। सर्वोदयी समाज में पूरी तरह सामाजिक सामंजस्य और संतुलन होता है। हर एक व्यक्ति दूसरे का सहयोग करता है। कहीं भी किसी भी तरह का संघर्ष और हिंसा की स्थिति उत्पन्न नहीं होती है। यही पूर्ण अहिंसक समाज है जिसमें अधिकतम रूप में सभी व्यक्तियों का कल्याण होता है। इसका मतलब यह नहीं है कि केवल भौतिक लक्ष्यों की पूर्ति होगी बल्कि कल्याण से तात्पर्य है सभी व्यक्तियों का अधिकतम रूप में आध्यात्मिक विकास करना। अतः ऐसे समाज में व्यक्ति स्वेच्छा से नैतिक नियमों का पालन करता है और समाज की सेवा में अपने को अर्पित करने के लिए तैयार होता है। यह समाज प्रेम पर आधारित होता है।

स्वयं गाँधीजी के अनुसार ‘‘मेरे सपनों के स्वराज्य में जाति (रेस) या धर्म के भेदों को कोई स्थान नहीं हो सकता। उस पर षिक्षितों या धनवानों का एकाधिपत्य नहीं होगा। वह स्वराज्य सबके लिए सबके कल्याण के लिए होगा। सबकी गिनती में किसान तो आते ही हैं, किन्तु लूले, लंगड़े, अंधे और भूख से मरने वाले लाखों करोड़ों मेहनत-कष मजदूर भी अवश्य आते हैं।’’[8]

गाँधी जी जन्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे किंतु इसके साथ ही उनका विचार था कि सामाजिक महत्व की दृष्टि से सभी कार्य समान है और किसी कार्य को या उसके करने वाले को छोटा नहीं समझा जाना चाहिए। एक सफाई कर्मचारी के कार्य का उतना ही महत्व है जितना कि एक वैज्ञानिक के कार्य का हो सकता है। अतः गाँधी जी मानते थे कि राजनीतिक आर्थिक और सामाजिक जीवन में सभी को समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए। गाँधीजी ने अस्पृश्यता को समाप्त करने का बीड़ा उठाया था तथा अछूतों को हरिजन का सम्मान प्रद नाम गाँधी जी ने ही प्रदान किया था। आज सरकार अंतर्जातीय विवाह करने वालों को आर्थिक सहायता तथा सहयोग देती है। गाँधी जी ने उसी समय स्वर्ण हिंदुओं और अछूतों के बीच विवाह संबंध तथा गोद लेने के संबंध स्थापित करने पर बल दिया था।

महात्मा गाँधी नारी स्वतन्त्रता के समर्थक थे। सम्भवतः इसीलिए उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में नारी सहभागिता को महत्वपूर्ण माना  और उन्हें घर की चार दीवारी से निकालकर उपयुक्त वातावरण प्रदान किया। उन्होंने हमारे देश की नारी शक्ति को स्वातन्त्रता आंदोलन की शक्ति बनाया और उस शक्ति का उपयोग सामाजिक सुधारों को क्रियान्वित करने में किया। कुछ हद तक आज हमने समाज और परिवार में स्त्री-पुरूष की समानता को स्वीकारा है जिसके कारण आज की नारी पुरूष के साथ कन्धें से कन्धा मिलाकर प्रत्येक क्षेत्र में अपना बहुमूल्य योगदान दे रही है परन्तु अब भी मानसिक रूप से गाँधी जी के विचारों को हम अपने जीवन में लागू नहीं कर पाये हैं। जिसके कारण अधिकांश परिवारों में अभी भी पुत्र और पुत्री के भेद के कारण लड़कियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित कर उन्हें कर्तव्य व सेवा का पाठ पढ़ाकर परम्परागत तथा रूढ़िगत श्रंखलाओं में बाँध दिया जाता है, जो सर्वथा अनुचित है। गाँधीजी मूलतः धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे ओर जिस प्रकार उन्होंने अपने जीवन में धर्म का निर्वाह किया उस आधार पर उन्हें भारतीय परम्परा का एक महान संत कहा जा सकता है। धर्म के सम्बन्ध में उनका दृष्टिकोण लौकिक और मानवतावादी था। वे प्राणी मात्र की सेवा ही वास्तवित आध्यात्मिक जीवन का मूल तत्व मानते थे और उनका कथन था कि मानव क्रियाओं से पृथक कोई धर्म नहीं है।

गाँधीजी सांप्रदायिक एकता के समर्थक थे उन्होंने अंत तक भारत के विभाजन का विरोध किया। जब देश का विभाजन हो गया तो उन्होंने हिंदू-मुस्लिम दंगों को रोकने की भरसक चेष्टा की। वे सभी धर्मों को समान समझते थे और उन्होंने सांप्रदायिक एकता बनाए रखने के लिए ही अपने प्राणों की आहुति दे दी। आजादी के बाद भी अनेक सांप्रदायिक दंगे हुए हैं इनका समाधान गाँधीवादी सोच अपनाने से ही है।

आज भारत में साम्प्रदायिकता की आग चारों ओर फैली हुई है, इसके लिए भी नेताओं की स्वार्थपरता, भड़काऊ भाषण ही जिम्मेदार है। एक भीड़ को धार्मिक उन्माद का रूप दे देना आज अत्यन्त सरल हो गया है। मानव संवेदना तथा भावना शून्य हो गया है जिसके कारण एक वर्ग को दूसरे के प्रति भड़काना आसान हो गया है।

गाँधी जी ने कहा था, ”मैं ऐसे भारत के निर्माण के लिए सतत् प्रयत्नशील रहूँगा जिसमें सभी सम्प्रदायों का मेल-जोल होगा। उसमें स्त्रियों को वही अधिकार दिये जायेंगे जो पुरूषों को प्राप्त हैं।वर्तमान में भारतीय संविधान और भारत सरकार की नीतियाँ स्वयं ही गाँधी जी के विचारो की प्रमाणिकता को सिद्ध कर रही हैं कि वे आज के सन्दर्भ में कितने प्रासंगिक हैं।

आर्थिक क्षेत्र में

गाँधी के व्यावहारिक विचारों ने लोगों की जरूरतों के साथ प्रकृति के सामंजस्य को एक नई दृष्टि दी है। सत्य और अहिंसा, सरल जीवन और दृढ़ विचार और समता विकास के उनके विचारों से पता चलता है कि प्रकृति और हमारे साथी जीवन को नष्ट किए बिना सतत विकास कैसे संभव है। वह मनुष्य और प्रकृति के बारे में अपने विचारों में स्पष्ट थे और उन्होंने सभी जीवित और निर्जीव प्राणियों के बीच सहजीवी संबंध को समझा। उनका विचार है कि प्रकृति में हर एक को संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त ऊर्जा है लेकिन किसी के लालच को संतुष्ट करने के लिए नहीं। आधुनिक पर्यावरण वाद के लिए यह पंक्ति एक महाकाव्य बन गई है गाँधीजी पृथ्वी को एक जीवित जीव मानते थे। हाल की महामारी ने हमारी आंखों को वास्तविकता से परिचित कराया है। शहर और शहरी क्षेत्र ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक असुरक्षित   हैं। हमारा विकास मॉडल मौलिक रूप से कैसे गलत है। इस संदर्भ में हम गाँधी द्वारा प्रस्तावित विकास के विचारों पर फिर से विचार करने के लिए मजबूर हैं। उनका आर्थिक दर्शन स्थिर नहीं बल्कि जीवंत और व्यापक रहा है। यह तकनीक केंद्रित नहीं है बल्कि जन केंद्रित है मुट्ठी भर शहरों का विकास हमारी आर्थिक समस्याओं का हल नहीं कर सकता है। वास्तव में यह हमारी समस्याओं को और बढ़ाएगा। इसलिए गाँधी ने गांवों के आर्थिक विकास पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। बड़े पैमाने पर उत्पादन की बजाय उन्होंने छोटे पैमाने पर उत्पादन का सुझाव दिया। केंद्रीकृत उद्योगों के बजाय उन्होंने विकेंद्रीकृत छोटे उद्योगों का सुझाव दिया। बड़े पैमाने पर उत्पादन केवल उत्पाद से संबंधित होता है जबकि जनता द्वारा उत्पादन का संबंध उत्पाद के साथ-साथ उत्पादकों से भी है इसमें शामिल प्रक्रिया से भी है। उनका एक आदर्श गांव का सपना था। बड़े पैमाने पर उत्पादन से लोग अपने गांव अपनी जमीन अपने शिल्प को छोड़कर कारखानों में काम करने पर मजबूर हो जाते हैं। गरिमामय जिंदगी और एक स्वाभिमान ग्राम समुदाय के सदस्यों के बजाय लोग मशीन के चक्रव्यूह में फंस कर रह जाते हैं और मालिकों की दया पर जिंदगी गुजर बसर करने लगते हैं। आज सम्पूर्ण विष्व उनके समन्वित विकास प्रतिमान को अपनाना चाहता है। इसका एक उदाहरण संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय पर गाँधी सोलर पार्ककी स्थापना है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण प्रदुषण रोकने के लिए अनेक संधि एवं समझौतों का किया जाना गाँधी दर्षन की प्रासंगिकता का एक बड़ा प्रमाण है।

गाँधीजी का एक महत्वपूर्ण आर्थिक सिद्धान्त न्यासिता का सिद्धान्त है। गाँधीजी के न्यासिता के सिद्धांत के मूल में यह है कि पूंजी की असली मालिक पूंजीपति नहीं बल्कि पूरा समाज है। पूंजीपति तो केवल इस संपत्ति का रखवाला है। संपत्ति उनकी धरोहर है उनका कहना था कि अगर धन वालों ने अपनी दौलत में जनता को साझेदार नहीं बनाया तो निश्चित रूप से एक दिन हिंसक और रक्त रंजित क्रांति हो जाएगी। पूंजीवाद के कारण दुनिया भर में बेरोजगारी बढ़ी है और श्रम की महत्ता कम हुई है। आज भारत में अनेक उद्योगपति ऐसे हैं जिन्हें महात्मा गाँधी से मिलने का सौभाग्य तो नहीं मिल पाया किंतु वे चैरिटेबल फाउंडेशन और ट्रस्ट स्थापित करके सहर्ष अपनी संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा शिक्षा, चिकित्सा, देशी खेलों के विकास एवं लोक कल्याण पर खर्च कर रहे हैं। ट्रस्टीशिप अपनाने में आईटी उद्योग की प्रमुख कंपनी विप्रो के मुख्य अजीम प्रेमजी के नाम का उदाहरण दिया जा सकता है। जिन्होंने पिछले दिनों 53000 करोड रुपए मूल्य की अपनी आधी शेयर संपत्ति अजीम प्रेमजी फाउंडेशन को दान कर दी। यह फाउंडेशन मुख्यतः भारत के 6 राज्यों व 1 केंद्र शासित प्रदेश में स्कूली शिक्षकों की शिक्षण क्षमता निर्माण हेतु महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है। पश्चिम की विलासिता पूर्ण दिखावे के युग में पूंजी पतियों में विलासिता के प्रदर्शन की होड़ लगी है। ऐसी स्थिति में आज देश के लगभग 5 प्रतिषत उद्योगपति स्वेच्छा से ट्रस्टीशिप सिद्धांत का व्यवहार में प्रयोग समाज हेतु सफलतापूर्वक कर रहे हैं तो यह सिद्धांत की वर्तमान प्रासंगिकता का एक अच्छा उदाहरण है।

सांस्कृतिक क्षेत्र में

जीवन में सादगी तथा नैतिक स्वास्थ्य के साथ-साथ शारीरिक स्वास्थ्य को बनाए रखने की दृष्टि से गाँधीजी ने नषीली वस्तुओं तथा नषीले द्रव्यों का विरोध किया। उन्होंने पश्चिमी सभ्यता के अन्धानुकरण से प्रेरित मद्यपान की आदत को बुरा माना। भारत में निर्धन तथा निम्न वर्ग के लोगों में मद्य सेवन की प्रथा उनके जीवन को जिस प्रकार से खोखला बना रही थी उससे गाँधीजी अत्यन्त चिंतिंत थे। उन्होंने परिवार कल्याण की दृष्टि से मद्य निषेध को अपने सामाजिक रचनात्मक कार्यक्रम का अंग बनाया। यही कारण था कि गाँधीजी भारत को मद्यरहित करना चाहते थे ‘‘गाँधीजी की यह मान्यता थी कि आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न व्यक्ति भी अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों को तिलांजलि नहीं दे सकते। यदि सम्पन्न वर्ग के लोग मद्य निषेध का विरोध करें तो समाज में उन्हें ऐसा करने से रोकने का अधिकार      है।’’[9]

आज मद्य-निषेध के क्षेत्र में आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, राजस्थान व देश के अन्य क्षेत्रों में जो अभियान चलाया जा रहा है, व गाँधी दर्शन की प्रासंगिकता को सिद्ध कर रहा है। आज घर की स्त्री स्वयं इस अभियान में सक्रिय भूमिका निभाकर न केवल अपने परिवार व समाज का हित कर रही है अपितु देश के विकास में भी योगदान दे रही है। सरकार को भी पूर्ण रूप से इस क्षेत्र में योगदान देकर कार्यक्रम को सफल बनाने की दिशा में कार्यरत होना चाहिए। आन्ध्र प्रदेश की महिलाओं ने कुछ साल पहले शराब के विरूद्ध एक जन आन्दोलन छेड़ा था, जिससे प्रेरणा प्राप्त कर वहाँ की सरकार ने अपने यहां शराब बन्दी लागू की। सन् 1996 में हरियाणा में भी ठीक यही स्थिति उत्पन्न हुई, जब चुनाव में एक राजनीतिक दल ने शराब बन्दी को मुख्य आधार बनाया, चुनाव में विजय प्राप्त कर मुख्यमंत्री श्री बंसी लाल ने राज्य में शराब पर प्रतिबंध लगा दिया किन्तु आज सरकार की मद्यपान की नीति और राजस्व को आधार मानकर की जाने वाली नीलामी और धड़ल्लें से खुल रही शराब की दुकानें गाँधी जी के मद्यपान विरोधी विचारों और आन्दोलन का परिहास करते दिखायी दे रहे हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में

गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा की धारणा आज भी प्रासंगिक है। उनका विचार था कि शिक्षा का उद्देश्य शरीर मस्तिष्क और आत्मा का समन्वित विकास है। वे अंग्रेजों द्वारा भारत में स्थापित शिक्षा पद्धति को दोषपूर्ण मानते थे। इस पद्धति का ही परिणाम है कि बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेने के बाद भी विद्यार्थी अपनी रोजी रोटी कमाने लायक नहीं होता है और बेरोजगार रहता है। ऐसे युवाओं को असामाजिक तत्व समाज विरोधी गतिविधियों में प्रयोग कर सकते हैं। युवाओं में असंतोष का सबसे बड़ा कारण ही हमारी शिक्षा पद्धति है। शिक्षा प्राप्त करने के बाद युवा शारीरिक श्रम को हेय मानने लगता है। गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा के अनुसार प्रत्येक विद्यार्थी को मूल रूप में कोई न कोई दस्तकारी सिखाई जानी चाहिए और सब विषयों की शिक्षा दस्तकारी के द्वारा दी जानी चाहिए जिसे सहसंबंध का सिद्धांत कहते हैं। शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए। शिक्षा स्वावलंबी हो। विद्यार्थी जिस दस्तकारी के आधार पर शिक्षा प्राप्त करते हैं उस दस्तकारी से विद्यार्थी जीवन में और इसके बाद भी अपना भरण-पोषण कर सकें। गाँधीजी ने चरित्र निर्माण पर बहुत जोर दिया था। अब तक की भारतीय शिक्षा पद्धति केवल डिग्री लेने पर जोर देने वाली अधिक रही है जिसका परिणाम है कि शिक्षा प्राप्त करने के बाद लाखों की संख्या में युवा सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहते हैं, कोई अन्य कार्य नहीं करना चाहते हैं। युवा शक्ति का सही प्रयोग राष्ट्र विकास के लिए नहीं हो रहा है। प्रस्तावित नई शिक्षा नीति से कुछ उम्मीद अवश्य जगी है।

मानव-अधिकार के क्षेत्र में

स्वयं गाँधीजी के अनुसार ‘‘अधिकारों का वास्तविक स्त्रोत कर्त्तव्य ही है। यदि हम कर्त्तव्यों का पालन करें तो अधिकार हमसे दूर नहीं रह जाएंगें लेकिन यदि हम कर्त्तव्यों को अधूरा छोड़कर अधिकारों के पीछे दौड़ेगें तो अधिकार हमसे मृगतृष्णा के समान दूर होते जाएगें।’’[10]

गाँधीजी आगे लिखते हैं ‘‘कर्म कर्त्तव्य है, फल अधिकार है।’’[11]

वर्तमान समय में सरकार ने इस ओर कई सकारात्मक कदम उठाये हैं। सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा पूर्णतः निशुल्क दी जा रही है और अगर वे आगे पढ़ने में रूचि रखते हैं तो कई सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाएँ उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति देती है, जिससे वे बिना किसी व्यवधान के अपने सपनों को पूरा कर सकें। बालश्रम को रोकने के लिए संविधान में 14 वर्ष से कम आयु के बालकों से काम लेने पर दण्ड का प्रावधान है। श्रमिकों के लिए कई कानून बनाए गए हैं, उनके काम के घण्टों में कटौती, पूरी मजदूरी बोनस के साथ ही काम करते हुए आकस्मिक दुर्घटना होने पर सरकार कम्पनी से उन्हें पूरा मुआवजा दिलवाती है जो उनका हक है। नरेगा, सर्वशिक्षा अभियान, आयुष्मान भारत योजना, चिरंजीवी योजना इन सब योजनाओं का प्रेरणा स्त्रोत गाँधी दर्शन रहा   है। भारत में पंचायतीराज का प्रारम्भ भी गाँधी दर्शन से प्रेरित रहा  है। गाँधीजी स्वच्छता पर बहुत जोर देते थे। उनकी प्रेरणा से ही स्वच्छ भारत अभियान प्रारम्भ किया गया है। यह देश को साफ-सुथरा रखने का एक बड़ा अभियान बन गया है। गाँधीजी बाहरी स्वच्छता के साथ-साथ आन्तरिक (मानसिक) स्वच्छता पर भी बहुत जोर देते थे जो हमें अपनाने की आवश्यकता है।

सरकार किसानों को उन्नत बीजों की किस्में तथा आधुनिक उपकरणों के लिए रिआयती दरों पर ऋण उपलब्ध कराती है जिससे  उनकी फसल अच्छी हो और उन्हें अपनी फसल के पूरे पैसे मिलें। महिला अधिकारों तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों लिए सरकार ने संविधान में अनेक संशोधन किए हैं। इन सब कानूनोें के होते हुए भी सरकार की उदासीनता के कारण कोई भी वर्ग अपने अधिकारों को पूरा-पूरा लाभ नहीं पा रहा है, इसके लिए सरकार को कानून का कठोरता के साथ पालन करना चाहिए।

विश्व शान्ति के क्षेत्र में

गाँधी जी की दृष्टि में एक विशुद्ध देशभक्त राष्ट्रीयता अन्तर्राष्ट्रीयता की विरोधी नहीं है बल्कि उसके विकास में सहायक है क्योंकि एक व्यक्ति के राष्ट्रीयतावादी हुए बिना अन्तर्राष्ट्रीयतावादी होना असम्भव है। राष्ट्रवाद कोई बुराई नहीं है, बुराई तो संकीर्णता एवं स्वार्थ और एकाकीपन की भावनाऐं हैं जिनसे आज के राष्ट्र ग्रसित दिखाई देते हैं। गाँधीजी को राष्ट्रीय जीनव की गन्दगी से नफरत थी ‘‘वे भारतीय राष्ट्र में अहिंसात्मक शक्ति-सजीव सक्रिय शक्ति-उत्पन्न करना चाहते थे। उनके राष्ट्रवाद में अंहकार का, दूसरी जातियों के सिर पर चढ़कर बैठने का, अपने राष्ट्रीय स्वार्थ के लिए दुर्बल देशों का यथेच्छ उपयोग करने का भाव ही नहीं था।‘‘[12]

‘‘गांधी जी के राष्ट्रवाद में एक ओर भारत के पीड़ित एवं दीन दुखियों के उद्धार का भाव था और दूसरी ओर भारत की विश्व भ्रातृत्व का विश्व सेना का एक प्रबल साधन बनाने की आकांक्षा। तीसरी बात यह है कि आरम्भ से ही अपने सिद्धांतों के साथ वे ऐसी शर्ते लगाते जा रहे थे जिनसे पश्चिम के ढंग की राष्ट्रीयता का भक्षक रूप हमें ना देखना पड़े। उनका खादी आंदोलन, उनका आश्रम जीवन का प्रयोग, उनके आहार विशेष प्रयोग, उनकी अहिंसा, उनका दरिद्र नारायण का प्रेम, उनका सात्विक वृर्तियों पर जोर डालना, उनकी सरल जीवन प्रणाली सब राष्ट्रीयता को तामसिक मार्ग पर न जाने देने वाली रोकें हैं।’’[13]

गाँधी जी के अनुसार ‘‘मेरा विश्वास है कि भारत का ध्येय दूसरे देशों के ध्येय से कुछ अलग है। भारत में ऐसी योग्यता है कि वह धर्म के क्षेत्र में दुनिया में सबसे बड़ा हो सकता है। भारत ने आत्मशुद्धि के लिए स्वेच्छापूर्वक जैसा प्रयत्न किया है उसका दुनिया में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। भारत को फौलाद के हथियारों की उतनी आवश्यकता नहीं है वह दैवी हथियारों से लड़ा है और आज भी वह उन्हीं हथियारों से लड़ सकता है। दूसरे देश पशुबल के पुजारी रहे हैं ......... भारत अपने आत्मबल से सबको जीत सकता है। इतिहास इस सच्चाई के चाहे जितना प्रमाण दे सकता है कि पशुबल आत्मबल की तुलना में कुछ नहीं है।’’[14]

यंग इण्डिया में गाँधीजी कहते हैं कि ‘‘मैं भारत को स्वतन्त्र और बलवान बना हुआ देखना चाहता हूँ क्योंकि मैं चाहता हूँ कि वह दुनिया के भले के लिए स्वेच्छापूर्वक अपनी पवित्र आहूति दे सके।’’[15]

आगे लिखते हुए कहते हैं ‘‘मैं भारतवर्ष का उत्थान इसलिए चाहता हूँ कि जिससे सम्पूर्ण विश्व का हित हो सके। मैं भारतवर्ष का उत्थान दूसरे राष्ट्र के विनाश पर नहीं चाहता। मैं उस राष्ट्रभक्ति की निंदा करता हूँ जो हमें दूसरे राष्ट्रों के शोषण तथा मुसीबतों से लाभ उठाने के लिए उत्साहित करती है।’’[16]

गाँधी-दर्शन आज अनेक समस्याओं के समाधान में सबसे अधिक कारगर और सहायक सिद्ध हो रहा है। आज जबकि विश्व तीसरे विश्व युद्ध की कगार पर खड़ा है, परमाणु तथा जैविक हथियारों का बढ़ता प्रयोग मानवता के लिए खतरा बन गया है। विज्ञान के प्रयोग ने हमारे जीवन को सुखमय अवश्य बनाया है परन्तु इसके ऋणात्मक प्रभाव को भी नकारा नहीं जा सकता है।  यंत्रों के अत्यधिकप्रयोग के कारण सम्भवतः मानवीय भावनाओं का भी यंत्रीकरण हो गया है, वे समाप्ति की ओर अग्रसर है। मानव समाज भौतिक सुखों के पीछे भाग रहा है और आत्मिक सुखों की अनदेखी कर रहा है। यही कारण है कि उन्नति व प्रगति के कारण भी समाज में तथा मानव जीवन में रिक्तता का अनुभव हो रहा है। यह रिक्तता तभी पूर्ण हो सकती है, जब मानव स्वयं इस पर चिन्तन मनन करें और यह चिन्तन आशावादी आत्मिक सुखों की दिशा में होना चाहिए। गाँधी जी का मानना था केवल मस्तिष्क, केवल शरीर और केवल भौतिक दृष्टि से ही विकास करना पर्याप्त नहीं, इसके स्थान पर दया, प्रेम, सेवा और जीवन के नैतिक मूल्यों को महत्व देना होगा। आज गाँधी जी के विचारों की प्रासंगिकता सभी क्षेत्रों में बढ़ी है, “गाँधी जी स्वयं शान्ति के मूर्तिमान रूप थे। उनके लिए व्यक्ति के जीवन और सम्पूर्ण समाज के सन्दर्भ में अत्यधिक आनन्द शान्ति में निहित था।उनका मानना था कि शान्ति सीधे गाँव के व्यक्ति से प्रारम्भ हो, उनका अटल विश्वास था जिस राष्ट्र का आधार शान्ति है उसी  के पास विश्व में शान्ति स्थापित करने की शक्ति हो सकती है। गाँधी जी द्वारा संचालित आंदोलन स्वयं ही विश्व शान्ति के क्षेत्र में एक बड़ा अभूतपूर्व कदम था। उन्होंने कभी भी ब्रिटिश साम्राज्य के लिए हिंसा के प्रयोग को उचित नहीं माना और हृदय परिवर्तन पर बल दिया। डी0जी0 तेन्दुलकर के शब्दों में गाँधी जी ब्रिटेन और भारत के बीच ही नहीं दुनिया के समस्त युद्धरत देशों के बीच शान्ति स्थापित करना चाहते थे2 अक्टुबर को विश्व अहिंसा दिवसके रूप में मनाया जाना गाँधी दर्शन की प्रासंगिकता का एक बड़ा प्रमाण है। सार रूप में हम कह सकते हैं 73 वर्षों बाद भी गाँधी-दर्शन की प्रासंगिकता कई संदर्भाें में पहले की अपेक्षा और भी अधिक बढ़ी हैं।

निष्कर्ष

आचार्य कृपलानी के अनुसार ‘‘राजनीति का सत्य, अंहिसा और साधनों की पवित्रता द्वारा अध्यात्मिकरण करके, अन्याय एवं निरंकुशता का सत्याग्रह द्वारा सामना कर तथा अपने रचनात्मक कार्यक्रमों द्वारा गाँधीजी ने सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक जीवन का संयोग एवं समन्वय करने का प्रयत्न किया तथा प्रभावकारी लोकतन्त्र की स्थापना कर न्याय एवं समानता पर आधारित समाज की नींव डाली और इस प्रकार विश्व शांति के लिए मार्ग प्रशस्त किया।’’[17] आज जब हमारे सार्वजनिक जीवन के साथ-साथ हमारे नीजी जीवन में नैतिक मूल्यों का गहरा क्षरण हुआ है और जब नैतिक सिद्धान्त राजनीति से लगभग गायब हो गए हैं तो गाँधीवादी मूल्य एक प्रभावी विकल्प के रूप में दिखाई देते हैं। अपने समय में गाँधीजी ने न केवल राजनीतिक बल्कि देश को नैतिक नेतृत्व भी प्रदान किया जो कि अब दुनिया से गायब हो चुका है। जैसा कि मार्टिन लूथर किंग ने सही कहा, ‘‘गाँधी अपरिहार्य थे। अगर मानवता की प्रगति करनी है तो गाँधी अपरिहार्य हैं। उन्होंने शांति और सद्भाव की दुनिया विकसित करने की ओर प्रेरित किया। हम अपने जोखिम पर गाँधी की उपेक्षा कर सकते हैं।’’ सयुक्त राज्य अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग, दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मण्डेला और म्यांमार में आंग सान सूकी जैसे लोगों के नेतृत्व में कई उत्पीड़ित समाज के लोगों को न्याय दिलाने हेतु गाँधीवादी विचारधारा को सफलतापूर्वक लागू किया गया है जो इसकी प्रासंगिकता का प्रत्यक्ष उदाहरण है। दलाई लामा ने कहा ‘‘आज विष्व शांति और विश्व युद्ध, अध्यात्म और भौतिकवाद, लोकतन्त्र व अधिनायकवाद के बीच एक बड़ा युद्ध चल रहा है।’’ इन बड़े युद्धों से लड़ने के लिए ये ठीक होगा कि समकालीन समय में गाँधीवादी दर्शन को अपनाया जाए। महात्मा गाँधी की मृत्यु डॉ. स्टेन्ले जॉन्स ने लिखा है ‘‘हत्यारे की गोलियां महात्मा गाँधी और उनके विचारों का अन्त करने के लिए चलाई गई थी परन्तु उनका फल यह हुआ कि वे विचार स्वच्छन्द हो गए और मानव जाति की धाती बन गए। हत्यारे ने महात्मा गाँधी की हत्या करके उन्हें अमर बना दिया। मृत्यु में वे अपने जीवन की अपेक्षा अधिक बलशाली हो गए।’’[18]

सन्दर्भ ग्रन्थ

1.     डॉ. पीएस रमाया ळंदकीप - ळंदकीपेउ च्.26

2.     मोहनदास कर्मचन्द गाँधी, हरिजन 25 जनवरी 1942

3.     शम्भू रत्न त्रिपाठी, गाँधी, धर्म और समाज, पेज 140

4.     CFk Andrews : Mahatma Gandhi-His own story, P-353-354.

5-     M.K.k Gandhi, My Experiments with truth, P-591

6.     गांधी एम के, इंडिया ऑफ माय ड्रीम्स, अहमदाबाद, नवजीवन पब्लिशिंग हाउस 1962 पेज 18

7.     मोहनदास कर्मचन्द गाँधी, हरिजन, फरवरी 1, 1942

8.     मोहनदास कर्मचन्द गाँधी, यंग इण्डिया, 26 मार्च 1931

9.     डॉ. पुरूषोतम नागर, आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिन्तन, पेज 426

10.   Gandhi to the Princes and their people, P-10

11.   वही पृष्ठ संख्या 11

12.   रामनाथ सुमन, गाँधीवाद की रूपरेखा, पृष्ठ 45-46

13.   वही पृष्ठ 45-46

14.   भाषण और लेख (स्पीचेज एण्ड राइटिंग्स ऑफ महात्मा गाँधी) पृष्ठ 405

15.   मोहनदास कर्मचन्द गाँधी, यंग इण्डिया, 17 सितम्बर 1925

16.   मोहनदास कर्मचन्द गाँधी, यंग इण्डिया, 04 अप्रैल 1929

17.   आचार्य कृपालानी, His life and Thought P-335

18.   Stanely Jones, Mahatma Gandhi-An Interpretation, P-52