भारतीय संस्कार : परिवर्तित आयाम
ISBN: 978-93-93166-25-8
For verification of this chapter, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/books.php#8

परिवर्तन के दौर में भारतीय संस्कार व्यवस्था

 बृज भूषण
एसोसिएट प्रोफेसर
समाज शास्त्र विभाग
राजकीय महिला पीजी कॉलेज
कांधला  उत्तर प्रदेश, भारत 

DOI:
Chapter ID: 17858
This is an open-access book section/chapter distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.

प्रस्तावना

भारतीय दर्शन नैतिकता, आध्यात्मिकता तथा आचरण की शुद्धता के द्वारा व्यक्ति के समाजीकरण पर बल देते है। समाजीकरण के उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही प्राचीन भारतीय समाज में संस्कारों की व्यवस्था का उदय हुआ। डा॰ राजबली पाण्डेय के शब्दों में भारत मेंसंस्कार व्यवस्था का उदय सुदूर अतीत में हुआ और काल क्रम के अनेक परिवर्तनों का सामना करते हुए आज तक जीवित है[1]। हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति के ऋणों एवं दायित्वों को महत्व दिया जाता है, जो अनेक यज्ञ कर्मो के माध्यम से ही पूर्ण हो सकते है, जिसके लिए व्यक्ति का आन्तरिक रूप से पवित्र होना आवश्यक है, इसी आन्तरिक का निर्माण करने के लिए विभिन्न अनुष्ठानों या प्रतीकात्मक धार्मिक क्रिया-कलापों को संस्कार कहा जाता है। ये संस्कार प्रत्येक परिस्थिति में व्यक्ति को दायित्वों से परिचित कराकर सांसारिक जीवन में अनुकूलनता पर बल देते है। यद्यपि संस्कारों का सम्बन्ध आत्मिक शुद्धि तथा दायित्वों के बोध से है फिर भी इनके निर्वहन में अनेक अनुष्ठान एवं कर्मकाण्डों का समावेश हो जाता है। डा॰ नागेन्द्र के शब्दों में संस्कारों की उत्पत्ति में मानवीय प्रवृतियों का हाथ है। यह आख्यानों (स्महमदके) के निर्माण की प्रवृति का ही दूसरा रूप है[2]।इसलिए संस्कार एक सामाजिक-धार्मिक अवधारणा है जो हिन्दू समाज के सांस्कृतिक जीवन में अभिव्यक्त होती है। भारतीय जीवन में विभिन्न संस्कार संस्कृति के अभिन्न अंग रहे है तथा सामाजिक जीवन में संस्कार व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए आवश्यक माने जाते रहे है।

(अ) संस्कारों का अर्थ- संस्कृत साहित्य में संस्कार शब्द का अर्थ अनेक रूपों में हुआ है जैसे - शिक्षा, प्रशिक्षण, सौजन्यता, पूर्णता, परिष्कार, शुद्धिकरण, धार्मिक विधि-विधान, धारणा, कार्य का परिणाम तथा क्रिया की विशेषता इत्यादि। यद्यपि विभिन्न अर्थ एक भ्रमपूर्ण स्थिति पैदा करते है फिर भी संस्कार व्यक्तिके परिष्कार शुद्धता तथा परीक्षण की ओर संकेत करते है। जैमिनी पूर्व मीमांसा सूत्र में कहा गया है कि ‘‘संस्कार वह है जिस के करने से कोई पदार्थ उपयोगी बन जाता है[3]। डा॰ राजबली पाण्डेय के शब्दों में संस्कार का अभिप्राय केवल बाह्य धार्मिक क्रियाओं, अनुष्ठानों, व्यर्थ के आडम्बरों कोरे कर्मकाण्डों, राज्य द्वारा निर्दिष्ट चलनों, औपचारिकताओं एवं अनुशासित व्यवहार से नहीं है। .................. संस्कार शब्द के साथ विलक्षण अर्थो का योग हो गया है जो इसके दीर्घ इतिहास क्रम में इसके साथ मिल गये है। इनका अभिप्रायः शुद्धि की धार्मिक क्रियाओं तथा व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक परिष्कार के लिए किये जाने वाले अनुष्ठानों से है, जिससे वह समाज का पूर्ण विकसित सदस्य बन सके। हिन्दू संस्कारों में अनेक आरम्भिक विचार, धार्मिक विधि-विधान व उनके सहवर्ती नियम तथा अनुष्ठान भी समाविष्ठ है, जिनका उद्देश्य केवल औपचारिक देह संस्कार ही न होकर व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का परिष्कार, शुद्धि और पूर्णता भी है। साधारणतया यह समझा जाता है कि विधिपूर्वक संस्कारों के अनुष्ठान से व्यक्ति में विलक्षण तथा अवर्णनीय गुणों का पादुर्भाव हो जाता है। संस्कार शब्द का प्रयोग इसी सामुहिक अर्थ में होता है[4]

(ब) संस्कारों के उद्देश्यः- संस्कारों के प्रमुख उद्देश्य या प्रयोजन संक्षेप में निम्न प्रकार है-

1. मन की प्रतीकात्मक अभिव्यक्तिः संस्कार मानव मन तथा उसकी सांस्कृतिक विशेषताओं को प्रतीकात्मक रूप से अभिव्यक्त करते है। सामान्यतः अधिकतर संस्कार हर्ष व आनन्द की ही प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति करते है जिससे मानव मन में प्रेम, स्नेह, वात्सल्य जैसी प्रवृत्तियों की तुष्टि के अवसर प्राप्त हो।

2. अभीष्ट की प्राप्तिः विभिन्न संस्कारों के अर्न्तगत देवताओं की अराधना का उद्देश्य इसी ओर संकेत करता है कि व्यक्ति अभीष्ट की प्राप्ति कर जीवन को सुरक्षित, समृद्ध बना सके। अतः प्रत्येक संस्कार के माध्यम से हम किसी न किसी लक्ष्य को प्राप्त करने की कामना करते है।

3. नकारात्मक या अशुभ शक्तियों से रक्षाः- अनेक नकारात्मक या अशुभ (हानिकारक) शक्तियों से व्यक्ति (बच्चे) की रक्षा की कामना हम संस्कारों में करते है। अनेक क्रियाकलापों के माध्यम से हम स्थापित रीतियों का निर्वहन करते है। संस्कारों में जल व अग्नि का प्रयोग करके तथा होम/यज्ञ से इन्हीं अशुभ शक्तियोंको निष्प्रभावी करने का प्रयास करते है।

4. सांसारिक समृद्धि प्राप्त करनाः- संस्कारों के माध्यम से हम तनबल, बुद्धिबल, द्रव्यबल तथा जनबल प्राप्त करने हेतु देवताओं से प्रार्थना करते है जिससे व्यक्ति संसार में समृद्धि व प्रसिद्धि प्राप्त कर सके।

5. नैतिक गुणों को व्यक्तित्व में अर्न्तनिहित करनाः- संस्कार व्यवस्था व्यक्तित्व के विकास का साधन है। संस्कारों द्वारा व्यक्ति को उसके नैतिक एवं सामाजिक दायित्वों का बोध कराया जाता है। जैसे-उपनयन संस्कार में ब्रहमचारी को तथा सीमान्तोन्नयन संस्कार में एक मर्भिणी को उसके दायित्वों का बोध कराया जाता है।

6. सांस्कृतिक आधार पर चरित्र निर्माण करनाः- हिन्दू जीवन पद्धति में चरित्र का महत्वपूर्ण स्थान है। इस हेतु पूर्व निर्धारित सांस्कृतिक मानदंड़ों के आधार पर व्यक्ति के चरित्र निर्माण के प्रबल प्रयास किये जाते है। संस्कार इन्हीं प्रयत्नों की अभिव्यक्ति है। प्रत्येक संस्कार निर्दिष्ट दिशा की ओर बढ़ने के लिए मार्गदर्शन करता है। संस्कार चरित्र निर्माण के द्वारा व्यक्ति में अनुशासित जीवन व्यतीत करने की भावना भरते है।

7. आध्यात्मिक महत्वः- ‘‘आध्यात्मवाद’’ जिसका जन्म धर्म की अवधारणा से हुआ है, भारतीय जीवन का मूल आधार जिसके कारण सांस्कृतिक विभिन्नताओं के होते हुए भी भारतीय समाज एकता के सूत्र में बंधा है। आध्यात्मवाद का अर्थ है - स्वयं को जानना या अध्ययन करना। अर्थात आत्म को जानना या आत्मा को जानना। आत्मशक्ति ही आध्यात्मिक है जो सम्पूर्ण जगत व जीवन को संचालित व नियन्त्रित करती है। इस उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए डा॰ राजबली पाण्डेय का कहना है कि संस्कार एक प्रकार से आध्यात्मिक शिक्षा की क्रमिक सीढ़ियों का कार्य करते है। इनके द्वारा व्यक्ति यह अनुभव करता था कि सम्पूर्ण जीवन संस्कारमय है और सभी दैनिक कृत्य आध्यात्मिक ध्येय से अनुप्रमाणित है। यही वह मार्गहै जिससे क्रियाशील सांसारिक जीवन का समन्वय आध्यात्मिक तथ्यों के साथ स्थापित किया जा सकता है[5]।

(स) संस्कारों की संख्या व स्वरूप - हिन्दू संस्कारों की संख्या तथा इनकी आयोजन प्रक्रिया को लेकर धर्मशास्त्रों में मत विभिन्नताएँ पायी जाती है। गौतम-धर्मसूत्र में इनकी संख्या 40 निर्धारित की गयी है। वही बाराह गृहृासूत्र, पारस्कार गृहासूत्र, बौधायन गृहृासूत्र तथा मनुस्मृति में इनकी संख्या 13 है। बैखानस गृहृासूत्र इनकी संख्या 18 तो आश्वलायन गृहृासूत्र में यह संख्या 11 बतायी गयी है। महर्षि व्यास ने संस्कारों की संख्या 16 बताई है। परन्तु प्रस्तुत विवेचना में यहाँ केवल प्रमुख 16 संस्कारों का ही संक्षिप्त उल्लेख किया जा रहा है जो बच्चे के जन्म से पूर्व, बाल्यावस्था में, शिक्षा के समय, विवाह के समय तथा मृत्यु के पश्चात किये जाते है। प्रत्येक संस्कार का विशेष उद्देश्य होने के बाद भी विभिन्न संस्कारों के विधि-विधान एक समान है इसका अर्थ है कि अदृश्य शक्ति/शक्तियों से अभीष्ट की कामना की जाती है। इसके लिए अग्नि प्रज्ज्वलित करना, यज्ञ करना, स्तुतियाँ/प्रार्थना करना, स्नान व आचमन, दिशा निर्धारण, फलित ज्योतिष के अनुसार गृहों व नक्षत्रों का विचार करना तथा आध्यात्मिक वातावरण निर्मित करने के लिए कुछ मूर्त प्रतीको का प्रयोग करना इत्यादि कुछ सामान्य तत्व है जो सभी संस्कारों में पाये जाते है। प्रमुख 16 संस्कारों का विवरण अग्रलिखित है। 1. गर्भाधान। 2. पुंसवन। 3. सीमान्तोन्नयन। 4. जातकर्म। 5. नामकरण। 6. निष्क्रमण। 7. अन्नप्राशन। 8. चूडा-करण। 9. कर्ण-भेदन। 10. विद्यारम्भ। 11. उपनयन। 12. वेदारम्भ। 13. केशान्त या गोदान। 14. समावर्तन। 15. विवाह। 16. अन्तयेष्टि।

1. गर्भाधानः- स्त्री के गर्भ में पुरूषद्वारा बीज स्थापित करना गर्भाधान कहा जाता है। यह एक काल्पनिक कृत्य नहीं वरन् यथार्थ कर्म है जो कलान्तर में संकोच की भावना से जुड़ जाने के कारण अप्रचलित हो गया है। पितृऋण से उऋण होने के लिए सन्तानोत्पत्ति अनिवार्य है, इस धारणा ने इस संस्कार को महत्वपूर्ण बना दिया है।

2. पुंसवनः- पुंसवन का अभिप्राय है वह कार्य जिसमें पुत्र के जन्म की कामना की जाती है तथा गर्भस्थ शिशु की मंगल-कामना की जाती है। इस संस्कार में कुछ शास्त्रोक्त औषधिय उपचार व उपाय भी किये जाते है। तीसरे मास में यह संस्कार होता है।

3. सीमान्तोन्नयनः- इसका अर्थ है गर्भिणी के केशो (सीमन्त) को ऊपर उठाना। इस संस्कार का उद्देश्य गर्भिणी को प्रसन्न रखने, अमंगलकारी शक्ति से बचाना, अधिक शारीरिक श्रम से बचना, स्वास्थ्य के नियमों का पालन करना है। इसके लिए स्त्री को अनेक निषेधों का पालन करना होता है। पति को भी सहवास, तीर्थीयात्रा, विदेशयात्रा, शवयात्रा जैसे निषेधों का पालन करना होता है। निषेधों का आधार आयुर्वेदिक है जिससे गर्भिणी के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा हो सके। विभिन्न सूत्रों  स्मृतियों के अनुसार इसका समय चौथे माह से आठवंे माह तक माना जाता है।

4. जातकर्मः- यह जन्म के तुरन्त बाद किया जाता है। इसका प्रयोजन है नवजात शिशु को अमंगलकारी शक्तियों से रक्षा करना तथा आशीर्वाद द्वारा दीर्घायु एवं स्वस्थ होने की कामना करना है।

5. नामकरणः- बच्चे के नाम का निर्धारण करना जो उसकी सामाजिक पहचान का माध्यम बनता है। प्राचीनकाल से ही नामकरण अति महत्वपूर्ण माना जाता है। बृहस्पति के अनुसार नाम व्यक्ति के शुभकर्मो व भाग्य का आधार होता है। नाम से ही व्यक्ति को कीर्ति प्राप्त होती है। गृहृासूत्रों के अनुसार नामकरण शिशु जन्म के 10वें या 12वें दिन होना चाहिए। बृहस्पति के अनुसार यह 32वें दिन तक हो सकता है। फलित ज्योतिष के अनुसार यह ग्रहों व नक्षत्रों के शुभ योग तक टाला जा सकता है।

6. निष्क्रमणः- इसका तात्पर्य है कि निश्चित अवधि के बाद माता व शिशु को स्वच्छतापूर्वक घर के अन्य भागों में जाने की अनुमति प्रदान करना। यह जन्म के बारहवे दिन से चौथे माह तक हो सकता है, परिस्थितियों के अनुसार। इसका प्रयोजन है बालक को जन्म की निश्चित अवधि के बाद उन्मुक्त वायु में घर के बाहर लाना है जो उदयीमान मन पर यह अंकित करता है कि विश्व सृष्टा की असीम कृति है जिसका आदर विधि पूर्वक करना चाहिए।

7. अन्नप्राशनः- शिशु को प्रथम बार विधानपूर्वक अन्न ग्रहण कराना। सूत्रों व स्मृतियों के अनुसार यह जन्म के छठे माह से 12वें माह के बीच हो सकता है। इसका उद्देश्य शारीरिक विकास के लिए पाचनशक्ति को विकसित करना है लोक परम्परा या पारीवारिक परम्परा के अनुसार भोजन सात्विक, राजषि व तामसि हो सकता है।

8. चुडाकरणः- गृहृासूत्रों व स्मृतियों के अनुसार यह जन्म के एक वर्ष के बाद तथा तीसरे वर्ष से पहले सम्पन्न किया जाता है। इसका प्रयोजन है शिशु के गर्भकाल के केशो व नखो को शरीर से अलग कर देना। अमंगलकारी शक्ति से रक्षार्थ केशों को गोबर में लपेट कर गुप्त स्थान पर दबाते है।

9. कर्ण-वेधः- बच्चे के अलंकरण के प्रयोजनार्थ इस संस्कार का प्रचलन हुआ। गृहृासूत्र व धर्मशास्त्र इसके बारे में मौन है। बृहस्पति, गर्ग, श्रीपति, कात्यायन सूत्र इसको एक वर्ष से पाचवें वर्ष के बीच करने का आग्रह करते है।

10. विद्यारम्भः- बालक की शिक्षा प्रारम्भ करना, जिससे उसका मानसिक बौद्धिक विकास हो सके। गृहृासूत्रों व धर्मसूत्रों में इसका उल्लेख नहीं मिलता शायद इसलिए क्योंकि उपनयन संस्कार को ही ज्ञानारम्भ के लिए उचित माना गया है। विश्वामित्र व कुछ अन्य स्मृतियों ने इसे 5वें वर्ष से 7वें वर्ष में सम्पन्न करने को कहा है।

11. उपनयनः- वैदिक काल से लेकर धर्मशास्त्र युग तक यह अति महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता रहा है। इसका तात्पर्य है ‘‘ब्रहमचारी द्वारा शिक्षा ग्रहण करना’’ तथा ‘‘ब्रहमचारी को वेदों की शिक्षा देना’’। द्वितीय जन्म (पशु से मनुष्य)धारण करने के लिए आचार्य के समीप ले जाना उपनयन कहा जाता है। वीरमित्रोदय के अुसार ‘‘वह कृत्य जिसके द्वारा व्यक्ति को गुरू, वेद, यम, नियम और देवता के सामीप्य के लिए दीक्षित किया जाये उपनयन है।इस संस्कार को जनेऊ अथवा उपवीत सूत्र भी कहा जाता है। उपवीत सूत्र के लम्बाई बालक की लम्बाई के बराबर तथा इसके तीन धागे सत,रज, तम गुणों के प्रतीक है तथा बालक को हमेशा तीनों ऋणों (ऋषि, पितृ,देव) से उऋण होने की याद दिलाते है। यह संस्कार आठवें वर्ष से सोलवे वर्ष के बीच कभी भी किया जा सकता है।

12. वेदारम्भः- सूत्रों व स्मृतियों में इसका उल्लेख नहीं मिलता है। इसका अर्थ है ‘‘वेदों का अध्ययन आरम्भ करना’’। यद्यपि उपनयन संस्कार में ही इसका प्रारम्भ हो जाता है परन्तु बाद में जब संस्कृत आम बोलचाल की भाषा नहीं रही तो सम्भवतः उपनयन के अतिरिक्त इस संस्कार की शुरूआत हुई हो।

13. केशान्त अथवा गोदानः- केशान्त का तात्पर्य बच्चे की 16 वर्ष की आयु पूर्ण होने पर पहली बार उसके दाढ़ी व मूंछ के बालों को साफ करना जिससे पुनः ब्रहमचर्य नियमों का स्मरण दिलाने तथा कठोर संयम का जीवन व्यतीत करने के लिए प्रोत्साहित हो।

14. समावर्तनः- इसका तात्पर्य है कि वेदाध्ययन के पश्चात घर की ओर पुनः प्रस्थान करना। इस संस्कार के लिए निश्चित आयु सीमा तय नहीं की गयी है परन्तु अध्ययन की पूर्णयता के लिए आचार्य की अनुमति आवश्यक है। मनुस्मृति के अनुसार गुरू की अनुमति प्राप्त कर समावर्तन संस्कार करना चाहिए तथा इसके पश्चात सुवर्ण व गुणवती कन्या से विवाह करना चाहिए[6]। इस प्रकार गुरू का आशीर्वाद प्राप्त कर ब्रहमचारी एक उत्तरदायी व्यक्ति के रूप में अपने घर वापस आ जाता था।

15. विवाहः- यह संस्कार व्यक्ति को नयी सामाजिक स्थिति तथा सामाजिक उत्तरदायित्व सौंपता है। यह समझौता नहीं है वरन् जीवन भर के लिए सहअस्तित्व की भावना से दायित्वों के प्रति प्रतिबद्ध होना है। इसके तीन उद्देश्य है- 1.धर्म 2. प्रजा (सन्तानोपत्ति) 3. रति (यौन सुख)। यह क्रम अपरिवर्तनीय है। विवाह मात्र भोग का विषय नहीं है। वरन् ऋषिऋण, पितृऋण, देवऋण, अतिथिऋण तथा जीवऋण से उऋण होने का साधन है। इस संस्कार का उद्देश्य स्वधर्म (कर्तव्य) का पालन करते हुए आध्यात्मवृति से मोक्ष प्राप्त करना है। यह संस्कार मनुष्य के चारों पुरूषार्थ (धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष) का समन्वय स्थल है।

16. अत्येष्टिः- इसका तात्पर्य है अन्तिम संस्कार अर्थात सांसारिकजीवन की समाप्ति। हिन्दू जीवन दर्शन में जीवन के तीन आयाम माने गये है- 1. जन्म 2. वृद्धि 3. मृत्यु। जन्म अर्थात् सांसारिक सम्बन्धों का जन्म, वृद्धि अर्थात् सांसारिक सम्बन्धों का विस्तृत होना, मृत्यु अर्थात् सांसारिक सम्बन्धों का समाप्त हो जाना। वैदिक व लेाक विधानों का पालन करते हुए इस संस्कार को सम्पन्न किया जाता है। अग्नि से प्रार्थना करते है- हे देव इस देह को भस्म कर। पुर्णतः ध्वस्त हो चुके शरीर के स्वामी आत्मा को पितृलोक (उत्पत्ति के मूल में) में ले जा[7]। दाह क्रिया के 10वें से 13वें दिन का अशौच का काल माना जाता है।

2. संस्कारों का सामाजिक महत्वः- संस्कार व्यवस्था मानव निर्माण की योजना है, जो बच्चेे के जन्म पूर्व (गर्भाधान) से लेकर जीवन वृद्धि व मृत्यु तक कार्यरत रहती है, जिससे व्यक्ति व समाज में संतुलन रह सके। यह आध्यात्मिक एवं सांसारिक विकास की योजना है। इसके सामाजिक महत्व को निम्न विवरण से समझ सकते है-

1. व्यक्तित्व निर्माण के साधन हैः- संस्कार व्यक्ति को कर्तव्यों तथा लक्ष्यों का बोध कराते है जो व्यक्ति के बौद्धिक विकास एवं चरित्र निर्माण में सहायता करते है। डा॰ राजबली पाण्डेय के शब्दों में संस्कार 1. मानव जीवन के परिष्कार व शुद्धि में सहायक है। 2. व्यक्तित्व के विकास को सुविधाजनक करते है। 3. मानव देह को पवित्रता एंव महत्व प्रदान करते है। 4. मानव की भौतिक व आध्यत्मिक आवश्यकताओं को गति प्रदान करते है। 5. जटिलताओं व समस्याओं के संसार में सरल व सानन्द मुक्ति का मार्ग प्रस्तुत करते है।

2. जैविकीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु मागदर्शकः- देहिक अस्तित्व की रक्षा के लिए स्वस्थ देहव मन की आवश्यकता होती है। संस्कार प्रजनन से लेकर स्वस्थ जीवन जीने के लिए व्यक्ति के लिए वे जैविकीय शिक्षा का माध्यम है।

3. शिक्षा के श्रेृष्ठ माध्यम हैः- मानव निर्माण में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जन्म से लेकर मृत्यु से पहले तक संस्कार मानव निर्माण के साधन है। मानव होना सामाजिक व्यवस्था के संतुलन के लिए अनिवार्य हैैै। संस्कार व्यक्ति को ‘‘कब क्या करना है’’ बताते है तथा भविष्य में आने वाली चुनौतियों के लिए भी मार्गदर्शन करते है। विद्यारम्भ, उपनयन, केशान्त तथा समावर्तन इसी ओर संकेत करते है। संस्कार पारिवारिक व सामाजिक नैतिकता के आधार है जो व्यक्ति के जीवन को अनुशासित बनाकर उसे बौद्धिक व सांस्कृतिक दृढ़ता प्रदान करते है। जैसे विवाह संस्कार एक भारतीय के जीवन को अपेक्षाकृत अधिक दृढ़ व संगठित बनाता है।

4. समाजीकरण में सहायक होना:- इसका तात्पर्य है कि समाज की प्रत्याशाओं के अनुरूप व्यक्तित्व का विकास होना। संस्कारों की सम्पूर्ण व्यवस्था ही व्यक्तित्व व विकास को समर्मित है। संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति धीरे-धीरे परिस्थितियों के साथ समायोजन करना सीखता है और लक्ष्य प्राप्ति में सफलता पाता है। जैसे गर्भाधान से चुडाकर्म तक के संस्कार व्यक्ति को परिवार के प्रति स्नेह से परिचय कराते है। उपनयन से विवाह तक के संस्कार दायित्वों से परिचित कराते है, जिसकी समाज प्रत्याशा रखता है। संस्कार व्यक्ति व समाज के मध्य विनियम की सर्वोत्तम प्रणाली को स्थापित करते है।

5. नैतिक व सांस्कृतिक महत्व:- संस्कार व्यक्ति में नैतिक गुणों के विकास में महत्वपूर्ण सिद्ध हुए है। प्रत्येक संस्कार व्यक्ति में दया, क्षमा, पवित्रता, मन की शान्ति, समुचित व्यवहार, निर्लोभिता, समर्पण, त्याग इत्यादि नैतिक गुणों का विकास करते है। इसके अलावा गृभिणी, ब्रहमचारी, स्नातक, गृहस्थ को उनके धर्म या कर्तव्य का बोध कराके नैतिक वातावरण तैयार करते है। संस्कार संस्कृति की रक्षा भी करते है। ये सांस्कृतिक परम्पराओं का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरण करते है तथा व्यक्ति को संस्कृति से परिचय भी कराते है। इस प्रकार संस्कार नैतिक व सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करते है।

6. आत्म अभिव्यक्ति के साधन है:- अपने आप को व्यक्त करने का अवसर प्रदान करते है संस्कार। दया, हर्ष, शोक, आनन्द, सहानुभूति इत्यादि ऐसे मानसिक उद्वेग है जिसको संस्कार द्वारा सन्तुष्ट किया जाता है। गर्भाधान से कर्णभेद तक के संस्कार माता-पिता के दया, स्नेह व वात्सल्य जैसे उद्वेगों की सन्तुष्टि करते है। विवाह संस्कार हर्ष व सामुहिकता की अभिव्यक्ति है। अन्त्येष्टि संस्कार शोक, करूणा तथा आत्मचिन्तन का अवसर प्रदान करता है।

7. आध्यात्मिक महत्व:- आध्यात्म से तात्पर्य है ‘‘आत्म का अध्ययन’’ या आत्म (स्वयं) को जानना। संस्कार आध्यात्मिक उन्नति के प्रेरक के रूप में कार्य करते है। संस्कारों के आध्यात्मिक महत्व को स्पष्ट करते हुए डा॰ राजबली पाण्डेय का कथन है कि ‘‘संस्कार एक प्रकार से आध्यात्मिक शिक्षा की क्रमिक सीढ़ियों का कार्य करते थे। इनके द्वारा सुसंस्कृत व्यक्ति यह अनुभव करता था कि सम्पूर्ण जीवन संस्कारमय है और सम्पूर्ण दैहिक क्रियाएँ आध्यात्मिक ध्येय (लक्ष्य) से अनुप्रमाणित है। यही वह मार्ग था जिसने क्रियाशील सांसारिक जीवन का सम्बन्ध आध्यात्मिक तथ्यों के साथ स्थापित किया था। जीवन की इस पद्धति में शरीर और उसके कार्य एक बाधा नहीं वरन् पूर्णता की प्राप्ति में सहायक है।

3. परिवर्तन के दौर में संस्कारों की दशा:- भारत ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व मानव समाज तीव्र परिवर्तनों का सामना कर रहा है। इन परिवर्तनों के कारणों में प्रमुख कारण है वैज्ञानिक एवं तकनीकि क्रान्ति। यद्यपि परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है परन्तु इनकी तीव्रता कभी-कभी समाज में असाधारण स्थिति उत्पन्न कर देती है। वही आज देखने को मिल रहा है तीव्र परिवर्तन स्थापित स्वस्थ परम्पराओं केा भी चुनौती दे रहे है। ऐसा प्रतीत होता है कि मानों समाज या तो अपने अतीत से कटना चाहता है या फिर वो अतीत की अपनी सीमाएँ निर्धारित करना चाहता है अर्थात् काल की एक सीमा से पीछे का वह कुछ भी जानना नहीं चाहता है। परन्तु तकनीकी ने अतीत के रहस्यों को खोलने में भी मदद की है इससे पुनः मानव अपने अतीत से भी जुड़े का प्रयास करता है। इस तरह मानव अतीत को लेकर शंकालु भी है तथा जिज्ञासु भी है। अतीत को लेकर संकटग्रस्त तथा निराशा से भरे लोग वर्तमान में असीमित भौतिक जगत की उन्नति के अलावा कुछ नहीं चाहते। वहीं दूसरी ओर अतीत के प्रति जिज्ञासु जन अतीत के रहस्यों को जानने के लिए उत्साहित रहते हुए भौतिक व आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति चाहते है। भारतीय धार्मिक परम्पराएँ तथा संस्कार व्यवस्था दोनों प्रकार की विशेषताओं वाले व्यक्तियों के मध्य खडी है। अति भौतिकतावादी तथा यथार्थवादियों के मध्य भारतीय परम्पराएँ संघर्ष करते हुए जीवित है। भारतीय संस्कार व्यवस्था की वर्तमान दशा को निम्न लिखित तीन प्रक्रियाओं के माध्यम से समझ सकते है।कोई भी परम्परा या संस्कार तभी तक जीवित रहता है जब तक उसके प्रति समाज के व्यक्तियों की श्रद्धा, विश्वास, प्रेम हो। परन्तु अवलोकनों से पता चलता है कि समाज के अतिभौतिकतावादी जिन्हें हम अति आधुनिकतावादी भी कहते है, अक्सर वे परम्पराओं के आलोचक ही नहीं वरन् इनको समाप्त करने में भी अपना योगदान देते है। ये व्यक्ति प्रतिपल अपने भौतिक लाभ की सोचते है। वहीं दूसरी ओर यथार्थवादी, जो अतीत व वर्तमान को अभिन्न मानते है, प्राचीन परम्पराओं का मूल्यांकन सकारात्मक दृष्टिकोण से करते है तथा यह हल निकालने का प्रयास करते है कि उक्त परम्परा वर्तमान चुनौतियों के साथ कैसे सन्तुलन स्थापित कर सकती है? इन परिस्थितियों में हिन्दू संस्कार व्यवस्था को निम्नलिखित तीन प्रक्रियाओं का सामनों करना पड़ रहा है-1. समाप्तिकरण। 2. संक्षिप्तिकरण। 3. पुनःस्थापनकरण।

1. समाप्तिकरण:- इसका तात्पर्य है कि किसी भी धार्मिक परम्परा या संस्कार का समाप्त हो जाना। तो ऐसे बहुत से संस्कार है जो समाप्त हो गये है या समाप्ति की ओर है जैसे-गर्भाधान, पुंसवन, सीमान्तोनयन, विद्यारम्भ, कर्णभेद, वेदारम्भ उपनयन। यहाँ पर समाप्ति का अर्थ है कि अधिकतर लोगों की अनभिज्ञता के कारण या अन्य कारणों से ये संस्कार चलन से बाहर हो गये है। यद्यपि लोक व जाति की दृष्टि से स्थिति इस सम्बन्ध में समान नहीं हो सकती है।

2. संक्षिप्तिकरण:- इसका तात्पर्य है कि संस्कारों का निर्वहन सांकेतिक रूप से संक्षेप में करना। उपनयन, समावर्तन, विवाह तथा अंत्येष्टि संस्कार इसकी पुष्टि करते है। आज उपनयन संस्कार ब्रहमचर्य आश्रम में प्रवेश द्वार न होकर विवाह का प्रवेश द्वार प्रतीत होता है। विवाह से कुछ दिन पहले 20-25 वर्ष का युवा ब्रहमचारी का रूप धारण करता है। कुछ घण्टों या मिनटों में काशी (ज्ञाननगरी) की यात्रा पूरी कर लेता है, गाँव से भिक्षा मांग कर गुरू को देकर समावर्तन की परम्परा या संस्कार पूरा कर लेता है। आधुनिक उच्च शिक्षा प्राप्त युवक/युवती एक पुरोहित द्वारा बोले गये मंत्र दोहराते है यज्ञ/होम में आहूति देते है इस प्रकार 2 से 3 दिन में ब्रहमचारी गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर जाता है। इस प्रकार देखने में आ रहा है कुछ समाज या परिवार इन संस्कारों को जीवित रखने के लिए, अपने पूर्वजों की महान परम्परा मानते हुए संक्षेप में इनका निर्वहन करते है। ये व्यवहारिक जीवन का अभिन्न अंग न होकर संक्षिप्त व औपचारिकता पूर्ण तथ्य के रूप में जीवित है।

3. पुर्नस्थापनकरण:- संस्कार-व्यवस्था के बारे में जहाँ इनका समाप्तिकरण एक अति नकारात्मक तथा संक्षिप्तिकरण अपेक्षाकृत कम नकारात्मक तथ्य है। इसी बीच इनके पुनर्स्थापनकरण पर समाज में विमर्श तथा परिवारों में पुनः अपनाएँ जाने की सूचना एक सुखद समाचार है। इन्हें लोकप्रिय एवं व्यवहारिक बनाने के लिए कुछ व्यक्ति, समूह, संगठन व संस्थाएँ कार्यशील हो रही है। ये संगठन/व्यक्ति आधुनिक तकनीकी के सहारे से आम जन के बीच संस्कारों को विमर्श का केन्द्रीय मुद्दा बनाने में सफल हो रहे है। कुटुम्ब प्रबोधन कार्यक्रम, एक ऐसा ही उदाहरण है, जो धीमा परन्तु निरन्तर सफलता की ओर अग्रसर है। इस प्रकार अनेक संगठनों/संस्थाओं द्वारा चलाये जा रहे अनेक जागरण अभियान इस दिशा में सकारात्मक संकेत दे रहे। पश्चिमी राष्ट्रों (यूरोप व अमेरिका) में जहाँ परिवार की संस्था जो लगभग नष्ट हो चुकी तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता व व्यक्तिवाद हावी हो गया है परिणामस्वरूप भयानक परिणाम देखने को मिल रहे है। विवाह की संस्था का पूर्णतः ध्वस्त हो जाना, हिंसा, व्यभिचार, नशाखोरी इत्यादि ऐसे भयानक परिणामों के उदाहरण है। परिवार की संस्था को पुनः मजबूत करने के लिए अमेरिका जैसे देश की राजनीतिक पार्टियाँ अपने-अपने मेनिफेस्टों में इसको स्थान दे रहे है। ऐसा ही कुछ-2 यूरोपिय राष्ट्रों में भी होना प्रारम्भ हो रहा है। ऐसे में सनातन मत को लोक प्रिय बनाने के लिए विदेशी भूमि पर कार्यशील संस्थाओं के द्वारा चलाये जा रहे अभियान विदेशियों के बीच लोकप्रिय हो रहे है। भारत में भी इस दिशा में कुछ अच्छे संकेत मिलने प्रारम्भ हो चुके है। जैसे-जैसे सनातन मत की लोकप्रियता बढ़ेगी वैसे-वैसे ही संस्कारों का महत्व पुनः विमर्श का विषय बनेगा, ऐसी आशा है।

इस प्रकार संस्कारों की वर्तमान दशा पर यही कहा जा सकता है कि एक ओर जहाँ संस्कार समाप्तिकरण व संक्षिप्तिकरण की ओर बढ़ रहे है, वही परिवार की संस्था के रक्षार्थ तथा इसकी मजबूती के लिए पुनः ये समाज के बीच विमर्श का केन्द्रीय मुद्दा भी बन रहे है जिसमें सामाजिक संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण है। ये संकेत संस्कारों की पुनर्स्थापनकरण को जन्म दे रहे है। भविष्य में क्या होगा, नहीं कहा जा सकता परन्तु संस्कारों का पुनः स्थापित होना सनातनियों के बीच विमर्श का विषय बन रहा है।

4. संस्कार व्यवस्था को चुनौती देने वाली परिस्थितियाँ:- आइये उन परिस्थितियों पर विचार करे जो निरन्तर संस्कारों की व्यवस्था को चुनौती दे रहे है। ये परिस्थितियाँ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संस्कारों को दशा प्रभावित करते है -

1. आध्यात्मिकता बनाम भौतिकतावाद:- यदि हमसंस्कारों के लक्ष्यों को सामान्य रूप से देखे व समझे तो हम पाते है कि संस्कार व्यक्ति के जीवन में भौतिक व आध्यात्मिक लक्ष्यों के बीच संतुलन स्थापित करने का कार्य करते रहे है। आध्यात्मिकता दिव्यता आधारित होती है जबकि भौतिकता द्रव्यता आधारित। विश्व जगत के परिवर्तन आज द्रव्य (पदार्थ) केन्द्रित है जिसमें आध्यात्मिकता (आत्म को जानना) का कोई स्थान नहीं है। द्रव्य केन्द्रित जगत में आज विश्वासवाद (मजहबवाद), पूंजीवाद, कम्यूनिज्म (तथाकथित समाजवाद) जैसी विचारधाराएँ हावी हो रही है जो द्रव्य केन्द्रित जगत की मांगों की, किसी सीमा तक (आंशिक) तुष्टि कर रही है। इन परिस्थितियों में आध्यात्मिकता तथा भौतिकता का समन्वय करने वाली संस्कारों की व्यवस्था के प्रति समाज अनभिज्ञता व लाचारी (जो भिज्ञ है) प्रकट कर रहा है।

2. परिवर्तन की तीव्रता:- इसका तात्पर्य है परिवर्तन की, अपेक्षाओं से कही अधिक, तेज गति। यद्यपि परिवर्तन सृष्टि (जगत) की प्रकृति या विशेषता है लेकिन इन परिवर्तनों की तेज गति दो पीढ़ियों के बीच असहज स्थिति पैदा कर रही है। तकनीकी एवं वैज्ञानिक ज्ञान क्रान्ति के कारण एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को सांस्कृतिक हस्तान्तरण कर ही रही होती है, कि नये व तीव्र परिवर्तनों ने इस प्रक्रिया पर पानी फेर दिया होता है। द्रव्य लक्ष्य केन्द्रित जगत के तीव्र परिवर्तन सांस्कृतिक हस्तान्तरण प्रक्रिया को असहज कर रहे है। इसका परिणाम है संस्कार व्यवस्था के प्रति जन-विमुखता।

3. अशिक्षा व अभिज्ञता:- इसका तात्पर्य है अज्ञानता तथा कारणवश जानकारी न होना। वर्तमान भारतीय समाज का एक बडा वर्ग अपने पुरातन वैज्ञानिक ज्ञान से बिल्कुल कट गया है और संस्कार व्यवस्था उसी ज्ञान का अंग है। ऐसे में आप सोच सकते है कि आधुनिक विज्ञान का प्रयोग कर व्यक्ति अपने जीवन को सुविधा भोगी तो बना रहा है परन्तु वह यह जानने की कोशिश नहीं करता कि इस आधुनिक ज्ञान की जड़े (मूल) कहाँ है? वर्तमान का अतीत से कटना भयावह हो सकता है ठीक वैसे ही जैसे वर्तमान ज्ञान रूपी भवन पर इठलाना, भवन की नींव के बारे में चिन्तन विहिन होकर। जो समाज चिन्तनविहीन हो जाता है वह धीरे-2 चरित्रहीनता व नैतिकताविहीन होता चला जाता है। संस्कार व्यवस्था पुरातन भारतीय समाज की ज्ञान परम्परा की चिन्तनशील का परिणाम रहे है जिनका लक्ष्य व्यक्ति निर्माण से समाज निर्माण रहा है। इन संस्कारों के प्रति अनभिज्ञता हमारे सामने एक चुनौती बनकर खड़ी है।

4. राजनीतिक परतन्त्रता की लम्बी अवधि:- भारतीय समाज का यह दुर्भाग्य रहा है कि उसने दिनों व वर्षो की नहीं वरन् शताब्दियों की गुलामी झेली है। गुलामी का यह दौर इस समाज के लिए विनाशक सिद्ध हुआ है। इस गुलामी के काल खण्ड में आक्रमणकारियों द्वारा ऐसा नहीं है कि उन्होंने इस भूमि के तख्त पर कब्जा जमाकर केवल आर्थिक संसाधनों को लूटा हो वरन् उन्होंने इस राष्ट्र की संस्कृति पर भी आक्रमण किया है तथा जबरन अपने सांस्कृतिक मूल्यों को भी थोपा है। भारत में हुआ पंथपरिवर्तन (धर्म से रीलिजन की ओर) इसका वर्तमान प्रमाण है। गुलामी के कालखण्ड में भाारत के लोग कितनी बुरी परिस्थितियों से गुजरे है, कल्पना से भी परे है और वह भी शताब्दियों की गुलामी। आश्चर्य की बात है कि शताब्दियों की गुलामी के बाद भी भारत के लोगों ने पुरातन ज्ञान परम्परा के प्रतीकों केा कैसे जीवित रखा है? भारतीय संस्कार व्यवस्था पुरातन ज्ञान व व्यवहार परम्परा के प्रतीक है जो काफी हद तक चलन से या तो बाहर हो गये है या संक्षिप्तिकरण के साथ जीवित है। लम्बी अवधि की राजनीतिक परतन्त्रता ने भारतीय समाज के जन, धन व उसके सम्मान को ही नष्ट नहीं किया है वरन् ज्ञान परम्पराओं की रक्षार्थ संस्थाओं को भी नष्ट किया। स्वतन्त्रता पाने का परिणाम वर्तमान सुख-साधन पाना नहीं है वरन् दुख की बात यह है कि ‘‘शताब्दियों की गुलामी में ‘‘हमने क्या गवाया’’ इसे भूल जाना है। वर्तमान में भारतीय समाज के लोग पूर्वजों के शताब्दियों के दुःखों को भूलाकर व भूलकर वर्तमान सुख भोग के नशे में है। देखना है कि वे कब जगते है?

5. स्वतन्त्रता पश्चात गुलामी की मानसिकता:- गुलामी केवल इसलिए भयावह नहीं होती है कि वह जन,धन,सम्मान व ज्ञान परम्परा को हानि पहुंचाती है वरन् इसलिए भयावह होती है कि आपकी आने वाली पीढ़ियाँ उनको सम्मान की दृष्टि से देखने लगती है जिन्होंने हमारे ऊपर जबरन सत्ता स्थापित कर सांस्कृतिक आक्रमण किये थे। वर्तमान भारत पिछले 75 वर्षो से इसी दौर से गुजर रहा है। शदियों तक जिन लोगों ने अपनी शिक्षा व संस्कार व्यवस्था को थोपा तथा हमारी मूल शिक्षा व संस्कार व्यवस्था को नष्ट किया, हम भ्रमजाल से ग्रस्त होकर उनके सांस्कृतिक मूल्यों को सम्मान की दृष्टि से तथा अपने मौलिक मूल्यों को हीन दृष्टि से देखने लगे है, वह भी बिना सोचे-समझे। लम्बी गुलामी के परिणाम से ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग अपने व्यवहार से यह उद्घोषणा करता फिरता है कि उसे इस लम्बी अवधि की गुलामी पर गर्व है तथा अतीत का प्रशंसक छोटा सा वर्ग मानो असहाय बनकर यह सब देख रहा है। इन परिस्थितियों में आप और हम अनुमान लगा सकते है कि इस प्रकार की मानसिकताओं से उत्पन्न वैचारिक संघर्ष में संस्कारों की व्यवस्था की दशा क्या है? सुखद समाचार यह है कि भारतीय समाज का एक वर्ग (छोटा ही सही) संस्कारों की व्यवस्था की वैज्ञानिकता पर विमर्श करने लगा है। लम्बी गुलामी के फलस्वरूप विरासत में मिली आधुनिक शिक्षा जो आत्मविहीन (जिसमें आत्मा व आत्मज्ञान का कोई स्थान नहीं) कही जाती है, विधर्मी आक्रमणकारियों के संस्कारों से युक्त, भृष्ट सरकारी कर्मचारी तन्त्र तथा पश्चिमी संस्कारों से युक्त संवैधानिक परम्पराएँ जिनके प्रकाश में कानून व अधिनियम निर्मित हुए है, उनमें भारतीय संस्कारों के लिए कोई स्थान नहीं है। इसलिए संस्कारों का समाज में पुनः स्थापनाकरण एक बड़ी चुनौती है।

6. पूंजीवादी, वाममार्गी (कम्यूनिष्ट), विश्वासवादी (मजहबी) विचारधाराओं का संगठित प्रचार तन्त्र:- पूंजीवादी, वामी तथा विश्ववासवादी विचारधारा आज विश्वभर में हावी है। इन विचारधाराओं के लोग संगठित होकर विचारधाराओं के अनुसार समाज को स्वरूप देना चाहते है। ये अपनी-2 विचारधाराओं के अनुसार समाज को बदलने के लिए संगठित प्रयास एवं प्रचारतन्त्र का सहारा लेते है। इन विचारधाराओं के प्रचारतन्त्र का उद्देश्य समाज में न केवल अपने विचार का प्रभुत्व स्थापित करना रहा है बल्कि अन्य विचारधाराओं को ध्वस्त करना भी रहा है। भारतीय समाज पर शदियों से हो रहे आक्रमणों की प्रकृति वैचारिक रहीं है। विश्वभर में सभ्यताओं का विनाश इसी वैचारिक संघर्ष का परिणाम रहा है। भारत की सनातन (वैदिक) विचारधारा इन समस्त विचारधाराओं के अपने विरूद्ध, प्रचारतन्त्र का सामना कर रहीं है। ये विचारधाराएँ सनातन विचारधाराओं का विरोध ही नहीं करती वरन् तंज, व्यंग, कुतर्क का साहरा लेकर प्रहार करती है। चौतरफे प्रहार भारतीय संस्कृति को जड़ से उखाड़ना चाहते है। ये विचारधाराएँ मानव को अवसरवादी, व्यक्तिवादी, द्रव्यवादी, कट्टरवादी सब कुछ बना रही है लेकिन व्यक्ति को आत्मावलोकनवादी बनने के लिए इनमें कोई स्थान नहीं है। सनातन मूल्य मानव को अनन्त सृष्टि में आत्म अवोलकनवादी व सहअस्तित्ववादी बनाते है। संस्कार इन्हीं सनातन मूल्यों के अंग है जो व्यक्ति निर्माण से समाज निर्माण के लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन है। ऐसा व्यक्ति जो आत्मावलोकनवादी हो और ऐसा समाज जो सहअस्तित्ववादी हो, यही संस्कारों का प्रमुख उद्देश्य है। इन वैचारिक विरोधो के बावजूद संस्कारों के पक्ष में एक विमर्श खड़ा होने का प्रयास कर रहा है। देखना है कि इस विमर्श को भविष्य में कितने उतार-चढ़ाव का सामना करना है?

5. संस्कार व्यवस्था का पुर्नस्थापनकरणः- इन परिवर्तित परिस्थितियों में संस्कार किस प्रकार पुनः समाज के व्यवहार एवं विमर्श का हिस्सा बन सकते है? इसके लिए हमें दृढ़ता से सामूहिक प्रयास करने की आवश्यकता है जैसे-

1. विरोधी विचारधाराओं के समक्ष मौन रहने के बजाएँ हमें तर्क संगत व वैज्ञानिक ढ़ग से संस्कारों का पक्ष लेने की आवश्यकता है।

2. यदि हमें लगता है कि वर्तमान परिस्थितियों में संस्कारों की व्यवस्था में कुछ अतार्किक व अवैज्ञानिक है तो इसे स्वीकारते हुए संशोधन पर विचार करना होगा। सनातन विचार में हर प्रश्न जायज है या स्वीकार्य है तो समाधान को स्वीकारने में संकोच कैसा? लेकिन ध्यान रहे यह तार्किक व वैज्ञानिक विमर्श के बाद ही होना चाहिए।

3. हम सब जानते है कि संस्कार एक पुरातन व्यवस्था है। परिवर्तित परिस्थितियाँ में किसी भी पुरातन व्यवस्था में जड़ता देखने को मिल सकती है जो उत्पन्न हुई कुरीतियों के समाप्ति में बाधा बन जाती है। इसलिए यदि हमें लगता है कि संस्कारों में यह सामाजिक कुरीति है तो उसे हटाना ही होगा।

4. व्यापक विमर्श प्रक्रिया का सहारा लेकर संस्कारों की वैज्ञानिकता को पुनः समाज के जन-जन तक पहुंचाना होगा जिससे नव सामूहिक चेतना निर्मित हो। विमर्श के द्वारा ही अनिष्टकारी शक्ति की अवधारणा को सृष्टि की अनन्त ऊर्जा (सृष्टा) की अवधारणा से सम्बन्धित कर इसका पुनः स्पष्टीकराण् क्रने की आवश्यकता है ताकि जन इसे अन्धविश्वास न कह सके। यही नहीं, वरन् संस्कारों के अन्तर्गत होने वाले सभी प्रतीकात्मक कृत्यों की वैज्ञानिकता को स्पष्ट कर जन-जन को बताना होगा।

5. प्रत्येक संस्कार के प्रयोजन की वैज्ञानिकता को भी स्पष्ट करना होगा जिससे विरोधी विचारधाराओं के प्रचारतन्त्र को कुतर्क करने का अवसर न मिले।

6. द्रव्यज्ञान (भौतिकता) तथा दिव्यज्ञान (आध्यात्मिकता) के बीच सन्तुलन स्थापित करने के प्रयास करने होगे। जिससे व्यक्ति दोनों को समान रूप से महत्वपूर्ण समझने लगे। बताना होगा कि संस्कारों का उद्देश्य ही यह संतुलन स्थापित करना है।

7. संस्कारों के पुनर्स्थापनकरण में प्रत्येक तर्कसंगत विचार को सम्मान देना होगा।

सन्दर्भः-

1. डा॰ राजबली पाण्डेय, हिन्दू संस्कार, पृ॰1

2. Dr. S.P. Nagendra, The Eastrn Anthropologist, Jan, April, 1962 Quoted by S.M. Dube, “Manu Ki samaj Vyavastha” P.85

3. History of Dharamshastra, Vol. II P. 190.

4. डा॰ राजबली पाण्डेय, हिन्दू संस्कार, पृष्ठ 17,19

5. डा॰ राजबली पाण्डेय, हिन्दू संस्कार, पृष्ठ 39

6. मनुस्मृति, 3/4

7. ऋग्वेद, 19/10/1, डा॰ पाण्डेय द्वारा उद्धृत।