Research Trends in Business and Management
ISBN: 978-93-93166-71-5
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भारत की आर्थिक विकास की रणनीति

 करुणाकर राम त्रिपाठी
आचार्य
अर्थशास्त्र विभाग
दी0द0उ0 गोरखपुर विश्वविद्यालय
 गोरखपुर, उत्तर प्रदेश, भारत 

DOI:10.5281/zenodo.10495354
Chapter ID: 18447
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भारतीय समाज में आर्थिक विकास के रणनीति के सन्दर्भ में आर्थिक चिन्तन की प्रक्रिया स्वतन्त्रता प्राप्ति के पहले ही शुरु हो गया था। इस दौरान जिन चिन्तकों ने अपने विचार व्यक्त किये उनमें प्रमुख थे- दादाभाई नौरेजी, एम0जी0 रानाडे, आर0सी0 दत्त तथा गोपाल कृष्ण गोखले। वस्तुतः सामूहिक रुप में इन विद्वानों को ही आधुनिक भारतीय आर्थिक चिन्तन के जनक के रुप से जाना जाता है। इन अर्थशास्त्रियों ने ब्रिटिश शासन के दौरान भारत के निर्धनता के कारणों एवं उनके निवारण हेतु उपायों को सुझाया। इन अर्थशास्त्रियों ने ब्रिटिश शासन के आर्थिक नीति विशेषकरके सरकारी अहस्तक्ष्ेप की नीतितथा करारोपण की नीतियों से असहमति व्यक्त किया। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अनेक चिन्तकों ने भी भारतीय समाज में व्याप्त निर्धनता की समस्या का विश्लेषण किया। साथ ही साथ इन चिन्तकों ने भारतीय अर्थव्यवस्था के संभावित विकास प्रारुप के बारें में भी अपना मत व्यक्त किया। वी0जी0 काले तथा ब्रिज नरायन जैसे चिन्तकों का यह मत था कि भारत का विकास पश्चिमी देशों के प्रारुप के आधार पर होना चाहिए और इसमें विशाल उद्योगों के विकास को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। दूसरी तरफ, गांधी जी एवं जे0के0 मेहता का यह मत था कि देश का विकास सत्य, सरलता एवं अहिंसा पर आधारित होना चाहिए तथा देश विकास प्रक्रिया में लघु एवं ग्रामीण उद्योगों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। वहीं, के0टी0 शाह तथा आर0के0 मुखर्जी जैसे विचारक इन दोनों मतों के मध्य मार्ग की बात करते थे। इनका मानना था कि सभी प्रकार- विशाल, लघु एवं कुटीर के उद्योगों का एक साथ विकास होना चाहिए। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात देश के आर्थिक चिन्तकों के विमर्श का मुख्य विषय आर्थिक नियोजन था। इस सन्दर्भ में सी0एन0 वकील, डी0आर0 गाडगिल, पी00 वाडिया, ग्यान चन्द, वी0के0आर0वी0 राव, बी0पी0 आडरकर तथा आर0 बालाकृष्ना ने यह निष्कर्ष दिया कि भारत जैसे देश के विकास के लिए अहस्तक्षेप की नीतिउपयुक्त नहीं होगी बल्कि इसके लिए नियोजित विकासका तरीका उपयुक्त होगा। स्वतन्त्र भारत में बदलते समय के साथ भारतीय अर्थनीति में विभिन्न आर्थिक सिद्धान्तों एवं प्रारुपों को अपनाया गया है। आगे इन्हीं नीतियों का वर्णन किया जा रहा है।

भारत के आर्थिक विकास की रणनीति

लगभग दो सौ वर्षों तक ब्रिटिश शासन के अधीन रहने के कारण भारत की आर्थिक स्थिति तहस-नहस हो गयी थी और देश में आर्थिक गतिविधियां काफी सीमित स्तर पर संपादित हो रहीं थीं। देश के अर्थव्यवस्था का ऐसा स्वरुप था जिसमें न केवल प्रति व्यक्ति आय का स्तर कम था बल्कि आय के वितरण में भी असमानता विद्यमान थी। पूंजी की सीमितता तथा तकनीकी पिछड़ापन होने के साथ-साथ देश में उद्यमियों का भी अभाव था तथा देश की अर्थव्यवस्था प्रमुख रुप से कृषि पर आधारित थी। इन्हीं लक्षणों के कारण स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था का स्वरुप एक अल्पविकसित अर्थव्यवस्था के रुप का था। प्रति व्यक्ति आय का स्तर कम हाने के कारण देश में बचत दर कम था। बचत दर कम होने के कारण पूंजी निर्माण की दर भी कम थी और पूंजी निवेश की दर भी कम थी। कम पूंजी निवेश के कारण आय भी कम थी और प्रति व्यक्ति आय भी कम थी। इस प्रकार भारतीय अर्थव्यवस्था एक दुःश्चक्र में फंसी हुई थी। देश के नीति नियामकों के समक्ष भी यही चुनौती थी कि किस रणनीति का उपयोग किया जाय जिससे कि देश को विकास पथ पर आगे ले जाया जा सके। देश के नीति नियामकों ने देश-काल-परिस्थिति के अनुसार आवश्यक रणनीति को अपनाया तथा कालान्तर में समयानुसार इसमें परिवर्तन होता रहा। उन सभी रणनीतिओं में से प्रमुख रणनीतियों का वर्णन आगे किया जा रहा है।

मिश्रित अर्थव्यवस्था

जिस समय देश को स्वतन्त्रता की प्राप्ति हुई उस समय आर्थिक विकास हेतु वैश्विक स्तर पर दो प्रकार की आर्थिक प्रणालियां प्रचलित थीं- एक तो पूंजीवाद और दूसरा समाजवाद। पूंजीवाद प्रणाली का आधार पूर्ण रुप से लाभ होता है। समस्त आर्थिक क्रियाओं, चाहे वह उत्पादन हो, उपभोग हो, निवेश हो या संसाधनों का आबंटन हो, का निर्धारण लाभ के आधार पर ही होता है। इसका अभिप्राय यह है कि जिस वस्तु के उत्पादन की मांग तथा उसमें लाभ प्राप्ति की संभावना होगी उसी का उत्पादन होगा और जिस वस्तु के उत्पादन में लाभ प्राप्ति की संभावना नहीं होगी उसका उत्पादन नहीं होगा। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार की व्यवस्था में आर्थिक क्रियाओं का निर्धारण निजी निवेशकों द्वारा बाजार तन्त्र के आधार पर किया जाता है। दूसरी तरफ, समाजवादी प्रणाली के अर्न्तगत पूंजीपति तथा लाभ का कोई अस्तित्व नहीं होता है और समस्त आर्थिक क्रियाओं का निर्धारण एक केन्द्रीय सत्ता के द्वारा किया जाता है। अतः, ध्यान देने योग्य बात है कि समाजवादी प्रणाली के अर्न्तगत व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर पूरी तरह अंकुश होता है जबकि पूंजीवादी प्रणाली के अर्न्तगत ऐसा कोई अंकुश नहीं होता है। अतः देश के समक्ष यह समस्या थी कि दोनों प्रणालियों में से किसी भी प्रणाली पूर्ण रुप से स्वीकार नहीं किया जा सकता था। क्योंकि स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय देश की आर्थिक स्थिति अत्यन्त कमजोर होने के कारण आय का स्तर काफी कम था और मांग का स्तर पर्याप्त नहीं था। अतः यदि ऐसी स्थिति में देश के आर्थिक विकास हेतु पूंजीवादी प्रणाली को अपनाया जाता तो अनेक ऐसे क्षेत्र थे जो आर्थिक विकास हेतु महत्वपूर्ण थे परन्तु मांग में अभाव एवं कम लाभ प्राप्ति की संभावना के कारण इनमें निजी निवेशक निवेश करने को तैयार नहीं होते। यदि इन क्षेत्रों में निजी निवेशक निवेश करते भी तो शायद इनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमत इतनी अधिक होती कि आम व्यक्तियों के पहुँच से बाहर होतीं। दूसरी तरफ यदि समाजवादी प्रणाली को अपनाया जाता तो इससे देश में वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति तो हो जातीं परन्तु व्यक्तिगत स्वतन्त्रता बाधित होती जो देश के लिए स्वीकार्य नहीं थी क्योंकि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को बड़े ही संघर्ष के पश्चात् प्राप्त किया गया था। ऐसी विकट स्थिति में तत्कालीन सरकार ने एक तीसरे विकल्प को विकसित किया और वह था- मिश्रित प्रणाली।

मिश्रित प्रणाली एक ऐसी व्यवस्था होती है जिसमें आर्थिक क्रियाओं के संचालन में सरकार के साथ-साथ निजी निवेशकों की भूमिका को शामिल किया जाता है। इसी के अनुपालन में देश आर्थिक विकास की प्रक्रिया में कृषि क्षेत्र को पूर्ण रुप से निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिया गया जिसका अभिप्राय यह है कि देश में कृषि कार्य के संपादन का अधिकार भूस्वामिया को प्रदान कर दिया गया। औद्योगिक क्षेत्र एवं सेवाओं के विस्तार हेतु सरकारी क्षेत्र के साथ-साथ निजी क्षेत्र की सहभागिता को शामिल किया गया। इसके लिए समस्त औद्योगिक क्षेत्रों का अलग-अलग संवर्गों में सूचियन किया गया। स्वतन्त्र भारत के प्रथम औद्योगिक नीति- औद्योगिक नीति प्रस्ताव 1948 में समस्त औद्योगिक क्षेत्रों को चार सूचियों में रखा गया परन्तु कुछ अस्पष्टता के कारण द्वितीय औद्योगिक नीति- औद्योगिक नीति प्रस्ताव 1956 में इसे संशोधित करके तीन सूची कर दिया गया। पहली सूची में जो औद्योगिक क्षेत्र शामिल थे उनको पूरी तरह से सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित किया गया था। अर्थात् इन उद्योगों में निजी क्षेत्र को औद्योगिक इकाई लगाने की अनुमति बिल्कुल ही नहीं थी। दूसरी सूची में शामिल औद्योगिक क्षेत्रों में सरकार के साथ-साथ निजी निवेशकों को भी औद्योगिक इकाई लगाने की अनुमति थी। तृतीय सूची पूरी तरह से निजी क्षेत्र के लिए खुले रखे गये थे। वस्तुतः, औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से सरकार ने अधिकांश औद्योगिक क्षेत्रों, उपभोक्ता उद्योगों को छोड़कर, सार्वजनिक क्षेत्र के लिए ही आरक्षित कर दिया थाख्1,। जिन औद्योगिक क्षेत्रों में निजी क्षेत्र को अनुमति थी उनके लिए भी 1951 में एक अधिनियम औद्योगिक विकास (एवं नियमन) अधिनियम के माध्यम से औद्योगिक लाईसेंसिंग प्रणाली को लागू किया गया था जिसके अंर्तगत निजी उद्यमियों को औद्योगिक इकाई स्थापित करने के लिए सरकार से अनुमति लेना अनिवार्य था।[2]

आर्थिक नियोजन

स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय, चूॅकि देश में साधनों का अभाव था, इसलिए नीति नियामकों के समक्ष अनेकों चुनौतियां विद्यमान थी। जैसे कि देश के विभिन्न क्षेत्रों में साधनों का आबंटन किस प्रकार किया जाय, कितना निवेश किया जाय, निवेश के लिए आवश्यक साधनों (बचत) को कैसे प्राप्त किया जाय इत्यादि। इसीलिए देश के विकास की प्रक्रिया को शुरु करने तथा आगे बढ़ाने के लिए आर्थिक नियोजनका रास्ता अपनाया गया। इसके लिए पॉच-पॉच वर्षों के लिए योजनाओं के माध्यम से विकास प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की बात कही गयी। वस्तुतः देश में आर्थिक नियोजन की प्रणालीस्वतन्त्रता प्राप्ति के पहले ही विमर्श पर आ गया था और आर्थिक नियोजन के स्वरुप को लेकर अनेकों प्रयास प्रारम्भ हो चुके थे। उन्हीं प्रयासों में पहला प्रयास था 1934 में एम0 विश्वेश्वरैया द्वारा लिखित एक पुस्तक प्लाण्ड इकानॉमी फॉर इण्डियाथी। दूसरा प्रयास 1938 में पं0 नहरु की अध्यक्षता में राष्ट्रीय आयोजन समितिका गठन के रुप में आया जिसे कांग्रेस प्लानके नाम से भी जाना जाता है। इसी क्रम में 1944-45 में देश के आठ प्रमुख उद्योगपतियों द्वारा देश के समक्ष एक प्रस्ताव- ए प्लान फॉर इकानॉमिक डेवलपमेण्ट इन इण्डियाप्रस्तुत किया गया और इसे बाम्बे प्लानया टाटा-बिड़ला प्लानके नाम से भी जान जाता है। ठीक इसी प्रकार 1944 में श्रीमन्न नारायण द्वारा गांधीवादी योजनातथा 1950 में जय प्रकाश नारायण द्वारा सर्वोदय प्लानको देश के समक्ष प्रस्तुत किया गया। उपरोक्त प्रस्तावों के आलोक में ब्रिटिश राज्य द्वारा औपचारिक रुप से 1944-46 की दो वर्षों की अवधि के लिए ‘‘योजना बोर्ड’’ का गठन किया गया।

परन्तु स्वत़न्त्र भारत में आर्थिक नियोजन की प्रणाली को अपनाने एवं योजनाओं को तैयार करने के लिए 15 मार्च 1950 को एक आयोग, ‘योजना आयोगका गठन कर दिया गया।[3] इस आयोग का प्रमुख कार्य पंचवर्षीय योजनाओं की रुपरेखा को तैयार करना था। परन्तु इसके अतिरिक्त यह आयोग, देश के विकास के लिए प्राथमिकताओं का निर्धारण करने एवं इनके लिए संसाधनों का आबंटन करने, देश के विभिन्न क्षेत्रों के विकास के लिए लक्ष्य निर्धारित करने, देश के संसाधनों का आंकलन करने, इन संसाधनों के प्रभावी उपयोग के लिए पंचवर्षीय योजनाओं का निर्माण करने, योजनाओं के सफल कार्यान्वयन के लिए आवश्यक मशीनरी का निर्धारण करने, योजनाओं के प्रगति का मूल्यांकन करने तथा आर्थिक विकास को बाधित करने वाले कारको की पहचान करने के दायित्व की भी निर्वहन करता था।

आर्थिक नियोजन की शुरुआत 1951 में की गयी और पहली पंचवर्षीय योजना 1951-56 की अवधि के लिए संचालित किया गया। आरम्भिक तीन पंचवर्षीय योजनाएं तो निर्बाध रुप से संचालि होती रहीं परन्तु 1966 में देश के समक्ष कुछ ऐसी संकटकारी परिस्थितियं उत्पन्न हुईं कि इनसे न केवल देश के विकास में अवरोध उत्पन्न हुआ बल्कि योजनाओं को संचालित करना भी मुश्किल हो गया। इसीलिए पंचवर्षीय योजनाओं को स्थगित करते हुए 1966-69 के लिए तीन वार्षिक योजनाओं का संचालित किया गयाख्4,1969 में पुनः पंचवर्षीय योजनओं प्रारम्भ किया गया। 1978-79 तथा 1990-92 में पुनः अवरोध होन के बावजूद देश में वर्ष 2017 तक पंचवर्षीय योजनाएं संचालित हेाती रहीं और कुल बारह पंचवर्षीय योजानाएं संचलित हुईं। उल्लेखनीय बात यह है कि इन योजनाओं के निर्माण में अर्थशास्त्र विषय में विकसित आर्थिक संवृद्धि के प्रारुपों को आधार बनाया गया। जैसे कि प्रथम पंचवर्षीय योजना का आधार कीन्सियन विचारधारा के आधार पर विकसित आर्थिक संवृद्धि का डोमर प्रारुप था तथा द्वितीय पंचवर्षीय योजना को महलानोबिस प्रारुप के आधार पर निर्मित किया गया था। तृतीय पंचवर्षीय योजना को तीन प्रारुपों के आधार पर निर्मित किया। ये प्रारुप थे- जे सैन्डी का डिमान्सट्रेन प्लैनिंग मॉडल, महलानोबिस का चार क्षेत्रीय मॉडल तथा सुखमय चक्रवर्ती का आगत-निर्गत मॉडल। ठीक इसी प्रकार चतुर्थ, पंचम तथा छठवीं पंचवर्षीय योजना में लियोनतीफ के आगत-निर्गत प्रारुप को आधार के रुप में लिया गया। आगे के याजनाओं में जिन प्रारुपों को आधार बनाया गया उनमें प्रमुख थीं- वेज-गुड्स मॉडल तथा जॉन डब्ल्यू मूलर मॉडल।

आत्मनिर्भरता का लक्ष्य

देश के नियोजित आर्थिक विकास की यात्रा प्रारम्भ करते हुए 1951 पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56) में कृषि क्षेत्र के विकास को प्राथमिकता प्रदान किया गया। परन्तु इसी दौरान अनेकों विशेषज्ञों एवं देश के नीति नियामकों के विमर्श के माध्यम से यह बात निकलकरके आयी कि बिना मजबूत औद्येगिक आधार के देश को विकास पथ पर आगे ले जाना सम्भव नहीं है। इसीलिए, दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61) में औद्योगिक क्षेत्र के विकास को प्रमुखता पर रखा गया। वस्तुतः यह योजना महलानोबिस मॉडल पर आधारित था जिसने भारी उद्योगों में अधिक से अधिक निवेश करनेे का सुझाव दिया था। यहीं से देश के आधुनिक औद्योगिकरण के प्रक्रिया का प्रारम्भ हुआ। इस प्रक्रिया में सरकार ने स्वयं सार्वजनिक औद्योगिक इकाईयों को स्थापित करके देश में पूंजीगत एवं आधारभूत उद्योगों के विकास को बढ़ावा दिया। तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-66) में भी उद्योग प्रधान रणनीति को ही जारी रखा गया। इस रणनीति के फलस्वरुप देश में आद्योगिक इकाईयों की संख्या, जो स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय काफी कम थी, में तो तीव्र वृद्धि हुयी ही साथ ही साथ पूंजीगत एवं आधारभूत वस्तुओं के उत्पादन में भी उल्लेखनीय रुप से वृद्धि हुयी। आद्योगिकीकरण की प्रक्रिया को प्राथमिकता देने के पीछे एक उद्देश्य यह था कि देश को औद्यागिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाया जाय। नियोजन काल के दो दशक से कम समय में ही इस उद्देश्य को बहुत हद तक प्राप्त भी कर लिया गया और तीव्र औद्योगिकरण के फलस्वरुप देश में एक औद्योगिक आधार विकसित हुआ तथा काफी मात्रा में क्षमता (संसाधनों) का सृजन हुआ।[5]

तीसरी पंचवर्षीय योजना के तुरन्त बाद 1967 में सूखा के रुप में देश को प्राकृतिक आपदा का सामना करना पड़ा। साथ ही साथ जनसंख्या में भी तेजी से वृद्धि होती गयी । इन सबका परिणाम यह हुआ कि देश में अपने खद्यान्नों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए घरेलू उत्पादन पर्याप्त नहीं था और इसके लिए देश को आयातों पर निर्भर होना पड़ा। इस प्रकार द्वितीय योजना में शुरु की गयी उद्योग प्रधान रणनीति के फलस्वरुप औद्योगिक क्षेत्र में तो आत्मनिर्भरता प्राप्त होने लगा परन्तु खद्यान्न क्षेत्र में दूसरे देशों पर निर्भरता बनने लगी। खाद्यान्न संकट का सामना करने के लिए देश को अमेरिका से भारी मात्रा में, पी0एल0 480 अनुबन्ध [6], के तहत गेंहू का आयात करना पड़ता था। इस संकट को दूर करने के लिए नीति नियामकों द्वारा कृषि क्षेत्र में आमूल-चूल परिवर्तन को महसूस किया गया। वस्तुतः इस संकट के लिए एक हद तक देश के में प्रचलित परम्परागत खेती की पद्धति को भी जिम्मेदार माना गया। इसलिए देश के कृषि क्षेत्र में उत्पादकता में वृद्धि के उद्देश्य से 1960 में एक कार्यक्रम इन्टेसिव एरिया डेवलपमेण्ट प्रोग्राम (आई00डी0पी0)’ को शुरु किया गया। इसे सर्वप्रथम देश के चुने हुए सात जिलों में पॉयलट प्रोजेट के रुप में शुरु किया गया। इस कार्यक्रम की सफलता से प्रेरित होकर सरकार ने अक्टूबर 1965 से इसे देश के 114 जिलों में लागू कर दिया। 1966 में एक नयी कृषि रणनीतिको लागू किया गया। वस्तुतः इस कार्यक्रम को हाई-इल्डिंग वैराइटी प्रोग्रामके नाम से एक पैकेज कार्यक्रमके रुप में लागू किया गया। इस कार्यक्रम को ही हरितक्रान्तिके नाम से भी जाना जाता है। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत उन्नत किस्म की बीजों के साथ-साथ कृषि क्षेत्र में रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रयोग तथा सिंचाई की पर्याप्त सुविधाओं के विकास पर बल दिया गया। शुरुआती दौर में इस योजना को देश के कुछ सीमित क्षेत्रों तथा सीमित फसलों तक ही प्रयोग के तौर पर लागू किया गया। परन्तु बाद में धीरे-धीरे इसे देश के सभी हिस्सों में लागू कर दिया गया। इस रणनीति के फलस्वरुप देश में खाद्यान्नों के उत्पादन में लगातार वृद्धि होती गयी तथा 1980 के दशक के शुरु होते होते देश न केवल खाद्यान्नों के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गया बल्कि देश से खाद्यान्नों का निर्यात भी किया जाने लगा।

इसी प्रकार, 1970 से पहले देश औषधिओं की आवश्यकता के लिए लगभग पूरी तरह से आयातों पर निर्भर था। देश के औषधि क्षेत्र पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों अर्थात् विदेशी कम्पनियो का प्रभुत्व था। परन्तु, 1970 में इण्डियन पेटेंट एक्टको लागू करके औषधि क्षेत्र के घरेलू उद्योगों को संरक्षण प्रदान करते हुए इनके विकास को बढावा दिया गया।[7] इससे देश को न केवल अपनी आश्यकता में आत्मनिर्भरता प्राप्त हुई बल्कि देश विश्व बाजार में अग्रणी निर्यातक के रुप उभर गया।

औद्योगिक संकेन्द्रण एंव विदेशी विनिमय का नियमन

देश में औद्योगिकरण की प्रक्रिया के आगे बढ़ने के साथ-साथ, खाद्यान्न संकट के अलावा, कुछ अन्य समस्याएं भी उत्पन्न होती गयीं। आर्थिक नियोजन के लगभग डेढ़ दशक तक औद्योगिक क्षेत्र के उत्पादन में वृद्धि होने के पश्चात औद्योगिक क्षेत्र के साथ-साथ सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में सुस्ती की प्रवृत्ति उत्पन्न होने लगी और यह प्रवृत्ति सत्तर के दशक तक जारी रही[8]। एक दूसरी समस्या आय एवं सम्पत्ति के केन्द्रीकरण के रुप में उत्पन्न हुई। अनेक अर्थशास्त्रियों द्वारा यह चिन्ता व्यक्त किया जाने लगा कि दूसरी एवं तीसरी योजना में जिस विकास रणनीति को अपनाया गया है उसने समाज में आय एवं सम्पत्ति के केन्द्रीकरण को बढ़ावा दिया है। इसी सन्दर्भ में सरकार ने एक समिति- महलानोबिस समिति का गठन किया जिसने 1964 में प्रस्तुत अपने रिपोर्ट में यह उल्लेख किया कि आर्थिक प्रणाली के क्रियान्वयन के कारण देश में आय एवं सम्पत्ति के केन्द्रीकरण को बढ़ावा मिला[9]। आय एवं सम्पत्ति के केन्द्रीकरण होने के लिए विशेषकरके औद्योगिक लाईसेंसिंग प्रणाली को उत्तरदायी माना गया।[10] वस्तुतः औद्योगिक लाईसेंसिंग प्रणाली बड़े औद्योगिक घरानों तथा पहले से स्थापित उद्योगों के अनुकूल रही जबकि नये निवेशके के लिए बाधक रहीं। इसीलिए बड़े औद्योगिक इकाईयों पर अंकुश लगाने के लिए सरकार द्वारा 1969 में एक अधिनियम- एम0आर0टी0पी0 अधिनियम को लागू किया गया। औद्योगिक इकाईयों के विस्तार की क्रियाओ अथवा नये इकाई स्थापित करने की क्रियाओं को इस अधिनियम के अधीन कर दिया गया। वस्तुतः, इस अधिनियम ने औद्योगिक इकाईयों को एक निश्चित सीमा के बाद विस्तार को प्रतिबन्धित कर दिया था।

औद्योगिकरण की प्रक्रिया में एक अन्य समस्या- व्यापार घाटे के रुप में उत्पन्न होने लगा। खाद्यान्न संकट के कारण तो देश को खद्यान्नों का आयात करना ही पड़ा साथ ही साथ औद्योगिकरण की जो रणनीति अपनायी गयी उसके लिए भी देश को भारी मात्रा में मशीनों, उपकरणों, तकनीकी इत्यादि का आयात करना पड़ा। 1971 में पुनः पाकिस्तान के साथ युद्व तथा 1973 के तेल संकटने स्थिति को और गंभीर बना दिया और देश के आयातों के लिए भुगतानों में काफी वृद्धि हुई। इसके विपरीत, निर्यातों में उतनी वृद्धि नहीं हो सकी। इसके परिणामस्वरुप देश के समक्ष विदेशी विनिमय का संकट उत्पन्न होने लगा। इस संकट का सामना करने हेतु सरकार ने 1973 में एक अधिनियम- विदेशी विनिमय नियमन अधिनियम (फेरा)को लागू किया। इस अधिनियम के माध्यम से विदेशी विनिमय के बाह्य प्रवाह पर तो अंकुश लगाया ही गया साथ ही साथ विदेशी कम्पनिओं के गतिविधियों पर भी अंकुश लगाया गया।

गरीबी एवं बेराजगारी निवारण कार्यक्रम

देश के विकास यात्रा में सबसे गंभीर एवं चिन्तनीय समस्या गरीबी एवं बेरोजगारी के रुप में रही है। यद्यपि कि देश के आर्थिक नियोजन में निर्धारित विभिन्न उद्वेश्यों में गरीबी एवं बेरोजगारी उन्नमूलन को भी एक उद्देश्य के रुप में शामिल किया गया था परन्तु नियोजन के लगभग तीन दशकों तक इस समस्या के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया और न ही किसी विशेष नीति को लागू किया गया। केवल कुछ राज्यों द्वारा ही इस समस्या के निवारण हेतु स्थानीय स्तर पर अलग से नीति अपनायी गयी थी। गरीबी एवं बेरोजगारी के उन्नमूलन के लिए किसी विशेष नीति को लागू नहीं करने के पीछे रिसाव प्रभाव (ट्रिकिल डाउन इफेक्ट)की अवधारणा प्रचलित थी। यह अवधारणा इस मत को व्यक्त करता है कि यदि देश के आय (जी0डी0पी0) में वृद्वि होगी तो इसके प्रभाव से देश में गरीबी एवं बेरोजगारी स्वतः दूर होगी। इसी अवधारणा के आधार पर ही देश के विकास रणनीति में आय (जी0डी0पी0) में वृद्वि दर को प्राथमिकता प्रदान किया गया और इसी को लक्षित किया गया। इस रणनीति के फलस्वरुप देश के जी0डी0पी0 में उत्तरोत्तर रुप से वृद्धि होती गयी परन्तु देश में गरीबी एवं बेरोजगारी की समस्या विकराल रुप धारण करती रही।

रोजगार सृजन के प्रयास में सरकार द्वारा कुछ ऐसे उपाय अपनाये गये जिनसे देश में शिक्षित एवं कुशल श्रमिकों को तैयार किया जा सके। इसके लिए सरकार ने न केवल देश में परम्परागत शिक्षण संस्थाओं (विद्यालय, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय) की संख्या में विस्तार किया बल्कि अनेकों रोजगारपरक संस्थाओं जैसे- आई0टी0आई0, पॉलिटेक्निक, इन्जिनियरिंग, प्रबन्धन इत्यादि संस्थानों को भी विकसित किया। इन प्रयासों के फलस्वरुप देश शिक्षित एवं प्रशिक्षित श्रमिकों की आपूर्ति में तो वृद्धि होती गयी परन्तु इस आपूर्ति के अनुरुप रोजगार के अवसर उत्पन्न नहीं किये जा सके। जिन लोगों को रोजगार के अवसर प्राप्त भी हुए उनमें से अधिकांश ऐसे रहे जिनको उनकी योग्यता के अनुरुप रोजगार के अवसर प्राप्त नहीं हुए और इन्हें कम योग्यता वाले रोजगार को स्वीकार करना पड़ा। इस प्रकार, देश की विकास यात्रा में देश में शिक्षित बेरोजगारी एवं अल्परोजगार की स्थिति भी बनी रही। इसका भयावह पहलू यह रहा कि युवाओं में निराशा एवं कंुठा की स्थिति उत्पन्न होती गयी और कुछ हद तक अनेकों सामाजिक विकृतियों (नशा, अपराध, यौन अपराध, राजनैतिक विकृति इत्यादि) का कारण बनती गयीं।

सत्तर के दशक के आखिरी वर्षों (1977) में पहले से चली आ रही सरकार (कांग्रेस पार्टी) के पराजय के बाद एक नयी सरकार (जनता दल) का गठन हुआ। इस नयी सरकार की विचारधारा पिछली सरकार के भारी उद्योगों पर आधारित आर्थिक विकास के रणनीति की लगातार आलोचना करती रही। यह विचारधारा पिछली सरकार के उस नीति की भी आलोचना करती रही कि जो औद्योगिक विकास की रणनीति अपनायी गयी वह पूंजी गहन तकनीकी पर आधारित रही जो कि भारत जैसे श्रम प्रधान देश के लिए उपयुक्त नहीं है। इसलिए यह विचारधारा देश में ऐसे उद्योगों को बढ़ावा देने की पक्षधर थी जिसमें श्रम का अपेक्षाकृत ज्यादा उपयोग हो। इस नयी विचारधारा के समर्थक अर्थशास्त्रियों का यह भी मत रहा कि देश में गरीबी एवं बेरोजगारी की समस्या के लिए विशिष्ट नीतियों को लागू करना होगा न कि इसे आर्थिक वृद्धि के भरोसे छोड़ना होगा। इसीलिए सत्तर के दशक के आखिरी वर्षों (1977 के बाद) गरीबी एवं बेरोजगारी के उन्नमूलन हेतु गंभीर प्रयास शुरु किये गये[11]। यद्यपि कि नयी सरकार अपना कार्यकाल पूर्ण नहीं कर सकी और लगभग ढाई वर्षों के पश्चात ही पुनः कांग्रेस पार्टी ही सत्ता में वापस आ गयी फिर भी आर्थिक विकास की रणनीति में जो परिवर्तन हुआ था उसको आगे ही बढ़ाया गया। गरीबी एवं बेरोजगारी को दूर करने के लिए छठवीं पंचवर्षीय योजना में योजना आयोग ने कुछ विशिष्ट कार्यक्रमों शुरु करने पर जोर दिया जिनमें से प्रमुख थे- इण्टीग्रेटेड रुरल डेवलपमेण्ट प्रोग्राम (आई0आर0डी0पी0), ‘राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम (एन0आर00पी0)’ तथा ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारण्टी योजना (आर0एल00जी0पी0)’। सातवीं योजना में रोजगार सृजन एवं गरीबी निवारण हेतु ग्रामीण विकास पर जोर देते हुए कृषि क्षेत्र के विकास पर बल दिया गया। इसीलिए इस योजना के अर्न्तगत वकील-ब्रहमानन्द द्वारा विकसित वेज-गुड्स मॉडल के आधार पर विकास रणनीति को अपनाया गया और इस रणनीति को एग्रीकल्चरल डेवलपमेण्ट लेड ग्रोथ (ए0डी0एल0जी0) स्ट्रेटजी कहा गया।

निर्यात प्रोत्साहन की नीति

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया कि देश के प्रारम्भिक तीन पंचवर्षीय योजना अवधि में विकास की जो रणनीति रही वह अर्न्तमुखी रणनीतिथी जिसके अर्न्तगत, आत्मनिर्भरता की प्राप्ति के उद्देश्य से, आयात प्रतिस्थापन की नीति को अपनाते हुए घरेलू उद्योग को तो बढ़ावा दिया गया परन्तु निर्यात प्रोत्साहन पर बल नहीं दिया गया। इस रणनीति के कारण देश के व्यापार घाटे में लगातार वृद्धि होती गयी। इसके परिणामस्वरुप देश के समक्ष विदेशी विनिमय का संकट उत्पन्न होने लगा। इस संकट के समाधान के लिए सरकार ने निर्यात प्रोत्साहन के उद्देश्य से कुछ विशिष्ट उपायों को अपनाना शुरु किया। इन्हीं उपायों के अर्न्तगत दो निर्यात प्रोत्साहन क्षेत्रों (ई0पी0जेड0)’ - एक काण्डला (गुजरात) में 1965 में तथा दूसरा शान्ताक्रुज (महाराष्ट्रा) में 1972 में, की स्थापना किया गया। कालान्तर में देश में इस प्रकार के कई अन्य क्षेत्र स्थापित किये गये। वर्ष 2000-2001 में सरकार ने देश के भीतर विशेष निर्यात क्षेत्रों’ (एस00जेड0) को स्थापित करने की घोषणा की ।इन क्षेत्रों के अर्न्तगत स्थापित औद्योगिक इकाईयों को निर्यात प्रोत्साहन हेतु अनेक प्रोत्सहन एवं रियायतें देने का प्रावधान किया गया। इसके साथ ही साथ निर्यात प्रोत्साहन के लिए एम0आर0टी0पी0 तथा फेरा अधिनियामों में भी ढील दिया गया।

आर्थिक उदारीकरण

अस्सी के दशक के अन्तिम वर्षों में देश को राजनीतिक स्थिति में अस्थिरता के साथ-साथ खाड़ी युद्ध जैसे बाह्य संकट का समना करना पड़ा। साथ ही साथ देश के अर्थतन्त्र में पहले से चली आ रही संरचनात्मक विकृतियोंख्12, के कारण देश 1990-91 में गंभीर अर्थिक संकट में फंस गया। आर्थिक वृद्धि की दर काफी कम स्तर पर आ गयी थी तथा मुद्रास्फीति की दर 1990-91 में 10 प्रतिशत के उपर पहुँच गयी थी। राजकोषीय घाटा जो 1981-82 में जी0डी0पी0 का 5.1 प्रतिशत था वह बढ़कर 1990-91 में 8.4 प्रतिशत हो गया  तथा व्यापार घाटा जो 1981-82 में जी0डी0पी0 का 1.35  प्रतिशत था वह बढ़कर 1990-91 में 8.69 प्रतिशत हो गया था। विदेशी मुद्रा का स्तर इतना कम हो गया था कि यह जून 1991 में देश के लिए 10 दिन तक के आयात के लिए पर्याप्त नहीं था और यह संकट इतना गंभीर हो चुका था कि अन्तर्राष्टीय संस्थाएं भी सहायता करने के लिए तैयार नहीं थीं। इस परिदृश्य में 1991 में पुनः कांग्रेस के सत्ता में वापस आने के पश्चात तत्कालीन प्रधानमन्त्री नरसिंहराव के नेतृत्व में वित मन्त्री मनमोहन सिंह द्वारा आर्थिक सुधार का कार्यक्रम शुरु किया गया। आर्थिक सुधार कार्यक्रम के अन्तर्गत जहॉ एक तरफ ऐसे उपाय (स्थिरीकरण कार्यक्रम) अपनाये गये जो देश के लिए फौरी तौर पर स्थिरता प्रदान कर सके वहीं दूसरी तरफ ऐसे दीर्घकालीन उपाय (संरचनात्मक सुधार कार्यक्रम) अपनाये गये जिससे अर्थव्यवस्था में व्याप्त विकृतिओं को दूर किया जा सके और देश को पुनः विकास के पथ पर आगे बढ़ाया जा सके। स्थिरीकरण कार्यक्रम के अर्न्तगत सरकार ने राजकोषीय अनुशासन अपनाते हुए सरकारी खर्चों में कटौती करने पर जोर दिया जिससे कि राजकोषीय घाटा कम हो सके। व्यापार घाटे को कम करने के लिए जुलाई 1991 में एक सप्ताह के अन्दर ही रुपये का दो बार अवमूल्यन किया गया।

संरचनात्मक सुधार कार्यक्रम के अर्न्तगत सरकार ने औद्योगिक क्षेत्र में विद्यमान लाइसेंसिंग प्रणाली को समाप्त कर दिया तथा सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों की संख्या को भी काफी कम कर दिया। साथ ही साथ सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के निजीकरण (विनिवेश) की प्रक्रिया को भी शुरु किया गया। अर्थव्यवस्था के औद्योगिक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने के लिए एम0आर0टी0पी0 अधिनियम में काफी संशोधन किया गया। देश में विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए विदेशी विनिमय नियमन अधिनियम (फेरा) में संशोधन किया गया तथा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ0डी0आई0) से सम्बन्धित नियमों को भी काफी उदार कर दिया गया। अस्सी के दशक में सरकार द्वारा जिस निर्यात प्रोत्साहन नीति को शुरु किया गया था उसे जारी रखते हुए आर्थिक सुधार कार्यक्रमों के अन्तर्गत एक्सपोर्ट लेड ग्रोथ (ई0एल0जी0) स्ट्रेटजी को अपनाते हुए व्यापार नीति को भी काफी उदार कर दिया। इसके अन्तर्गत सरकार ने आयातों पर से काफी प्रतिबन्धों में ढील प्रदान कर दिया। वस्तुतः यही वह समय था जब विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू0टी00) की स्थापना के साथ ही वैश्विक स्तर पर भी वैश्वीकरण की प्रक्रिया को लागू किया गया। इस प्रक्रिया के अपनाने के कारण भी देश में व्यापार नीति को काफी उदार बना दिया गया। आर्थिक सुधार कार्यक्रमों के फलस्वरुप देश में न केवल स्थिरता कायम हुई बल्कि देश पुनः प्रगति के पथ पर अग्रसर होने लगा और पहली पंचवर्षीय योजना के पश्चात यह पहली बार हुआ कि आठवीं योजना में प्राप्त जी0डी0पी की वृद्धि दर, निर्धारित लक्ष्य से अधिक रही। नौंवी योजना में भी प्राप्त जी0डी0पी की वृद्धि दर संन्तोषजनक रही। साथ ही साथ राजकोषीय घाटे, मुद्रा स्फीति की दर तथा व्यापार घाटे में भी उल्लेखनीय रुप से सुधार होने लगा।

आर्थिक सुधार कार्यक्रम के दौरान ही एक परिवर्तन यह हुआ कि गरीबी एवं बेरोजगारी के उन्नमूलन के लिए स्वरोजगारपर बल दिया जाने लगा। इसीलिए देश में पहले से चली आ रही अनेकों गरीबी एवं बेरोजगारी उन्मूनल कार्यक्रमों में संशोधन करते हुए नये कार्यक्रम शुरु किये गये। जैसे, 1997 में एक योजना प्रारम्भ किया गया स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना (एस0जे0एस0आर0वाई0)। इस योजना का उद्देश्य शहरी निर्धनों को स्वरोजगार उपक्रम स्थापित करने हेतु वित्तीय सहायता प्रदान करना तथा रोजगार सृजन हेतु परिसम्पत्तियों का निर्माण करना था। ठीक इसी प्रकार 1999 में एक योजना प्रारम्भ किया गया स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना (एस0जे0जी0एस0वाई0)’। इस योजना का उद्देश्य ग्रामीण निर्धनों को स्वरोजगार उपक्रम स्थापित करने हेतु वित्तीय सहायता प्रदान करना तथा रोजगार सृजन हेतु परिसम्पत्तियों का निर्माण करना था। 

आर्थिक सुधार कार्यक्रमों के फलस्वरुप देश पुनः प्रगति के पथ पर तो अग्रसर होने लगा परन्तु इन उपलध्यिों के बावजूद यह महसूस किया जाने लगा कि इस प्रगति लाभ कुछ लोगों तक सीमित है और आय में विषमता बढ़ती जा रही है। अनेक विद्वानों द्वारा आर्थिक सुधार कार्यक्रमों की आलोचना की जाती रही कि नयी रणनीति में भी उद्योगों के विकास तथा वृद्धि दर को ही प्राथमिकता प्रदान किया गया और यह रणनीति देश में गरीबी तथा बेरोजगारी की समस्या को दूर करने में असफल रही[13]। इसीलिए योजना आयोग ने दसवीं योजना में इस बात पर बल दिया कि यह योजना देश में समता और सामाजिक न्याय के उद्देश्य की प्राप्ति को सुनिश्चित कर सके। दसवीं योजना के अन्तर्गत विकास आयोजन में इन आयामों को महत्व देते हुए मानवीय विकास के अनुरुप लक्ष्य निर्धारित किये गये। वस्तुतः यही वह योजना अवधि थी जब देश में बेरोजगारी की समस्या के उन्नमूलन के लिए एक कार्यक्रम- मनरेगा[14] को शुरु किया गया।

भारत के आर्थिक विकास की रणनीति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन तब आया जब पूर्व राष्ट्रपति डा00पी0जे0 अब्दुल कलाम ने वर्ष 2004 में पुरा मॉडल का उल्लेख किया। इस मॉडल के माध्यम से उन्होंने देश में गरीबी दूर करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाएं (प्रोविजन ऑफ अरबन अमेंनिटिस इन रुरल एरिया-पूरा)उपलब्ध कराने पर बल दिया। विकास के इसी अवधारण को घ्यान में रखते हुए तथा समता एवं सामाजिक न्याय के प्राप्ति को सुनिश्चित करने की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ते हुए ग्यारहवीं योजना में, तीव्र विकास दर की प्राप्ति के साथ-साथ समावेशी विकास (सबका विकास) को एक प्रमुख उद्देश्य के रुप में शामिल किया गया। इसी प्रकार, विकास की प्रक्रिया में पर्यावरण संरक्षण की चिन्ता को ध्यान में रखते हुए बारहवीं योजना में अधिक समावेशी विकास के साथ-साथ पोषणीय विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेण्ट)को प्रमुख उद्देश्य के रुप में शामिल किया गया।

अद्यतन परिवर्तन

2014 तथा 2019 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एन0डी00 पुनः सत्तारुढ़ हुई और इस सरकार में भागीदार भारतीय जनता पार्टी को जनता का भरपूर समर्थन प्राप्त होने के कारण यह सरकार राजनीतिक रुप से काफी बजबूत रही। इस सरकार ने भी आर्थिक सुधार के कार्यक्रमों को तो आगे बढ़ाया साथ ही साथ विकास रणनीति में भी एक महत्वपूर्ण परिवर्तन किया। वह परिवर्तन यह रहा कि 1950 में गठित जिस योजना आयोग के माध्यम से देश विकास पथ पर आगे बढ़ा था उसे जनवरी 2015 में समाप्त करके एक नयी संस्था- नीति आयोगको स्थापित कर दिया गया। साथ ही साथ बारहवीं योजना (2012-17) की समाप्ति के साथ ही देश में चली आ रही आर्थिक नियोजन की रणनीति को बंद कर दिया गया। इस सरकार द्वारा कर प्रशासन के क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण परिवर्तन किया गया और वह था कि लगभग एक दशक से लम्बित चली आ रही जी0एस0टी0 व्यवस्था को जुलाई 2017 से लागू कर दिया गया।

इस सरकार द्वारा बेरोजगारी एवं गरीबी को दूर करने की दिशा में कुछ गंभीर प्रयास भी शुरु किया गया। इन प्रयासों में एक कार्यक्रम रहा प्रधानमन्त्री कौशल विकास कार्यक्रम। सरकार ने स्वरोजगार के माध्यम से रोजगार को बढ़ावा देने के लिए स्टार्ट अप योजनातथा मुद्रा योजनाको शुरु किया। सरकार ने देश में औद्यागिक विकास को बढ़ावा देने हेतु एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम- मेक इन इण्डियातथा  डिजिटल इण्डियाजैसे कार्यक्रमों को भी शुरु किया। नयी सरकार के नीतियों के सन्दर्भ में एक उल्लेखनीय बात यह रही है कि औद्योगिक विकास एवं आर्थिक वृद्धि दर को बढ़ावा देने हेतु आर्थिक सुधार के कार्यक्रमों तो आगे बढ़ाया ही गया साथ ही साथ सामाजिक क्षेत्र- स्वास्थ, शिक्षा, सफाई, पेयजल इत्यादि, के विकास हेतु एक अभियान के रुप में अनेकों महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को घोषित किया। इनमें प्रमुख हैं- स्वच्छ भारत मिशन, उज्जवला योजना, प्रधानमन्त्री आवास योजना तथा आयुष्मान भारत योजना। इसके साथ ही शिक्षा क्षेत्र में आमूल-चूल परिवर्तन के उद्देश्य से नयी शिक्षा नीति को लागू किया गया।

हाल के वर्षों में सरकार के रणनीति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन तब देखने को मिला जब सरकार ने कोविड महामारी जैसे अनिश्चित माहौल का सामना करने हेतु अपने नीति निर्माण में वॉटरफॉल स्ट्रेटजीके स्थान पर बारबेल स्ट्रेटजीको चुना जो सूचना के बेजियन अपडेट पर आधारित पर एक लचीली नीतिगत प्रतिक्रिया थी[15]। इस रणनीति के अर्न्तगत सरकार ने महामारी के कारण समाज एवं व्यावसायिक जगत के कमजोर वर्गों पर उत्पन्न होने वाले प्रभाव को कम करने के लिए एक व्यापक सुरक्षा-जालका गठन किया। वस्तुतः इस रणनीति को दो चरणों में लागू किया गया। प्रथम चरण में वर्ष 2020-21 के लिए सरकार ने अनेकों कल्याणकारी याजनाएं जैसे- गरीबों को भोजन उपलब्ध कराने, नकद हस्तानान्तरण, सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमियों के लिए आपात कालीन नकदी सहायता उपलब्ध कराने तथा दिवाला एवं दिवालियापन संहिता को स्थगित करने पर केन्द्रित था। इन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु वस्तुतः सरकार ने मई 2020 में आत्मनिर्भर भारत मिशनको प्रारम्भ किया। दूसरे चरण में वर्ष 2021-22 के लिए सरकार ने बुनियादी ढांचे पर पूंजीगत व्यय में वृद्धि किया जिससे एवं क्षमता निर्माण पर बल देते हुए आपूर्ति पक्ष के मार्ग को प्रशस्त करने का प्रयास किया[16]। हाल ही में सरकार ने देश को वर्ष 2047 तक एक विकसित राष्ट्र के रुप में निर्मित करने हेतु दिसम्बर 2023 में एक अभियान viksitbharat/2047 को शुरु किया है।

भावी स्वरुप

आत्मनिर्भर भारत मिशनतथा विकसित भारत लक्ष्यके सन्दर्भ में यहॉ एक प्रश्न उत्पन्न होता है वह यह कि इसका स्वरुप क्या होना चाहिए। यह समष्टिगत रुप में पर्याप्त होगा या यह व्यक्तिगत स्तर पर भी होना चाहिए। ध्यान देने की बात है कि देश में आत्मनिर्भरता का प्राप्ति का उद्देश्य कोई नयी अवधारणा नहीं है। जैसा कि पहले ही, देश के विकास रणनीति के वर्णन के अर्न्तगत, उल्लेख किया जा चुका है कि जब देश ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात विकास यात्रा प्रारम्भ किया तब देश में औद्योगिक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया और इसी प्रकार जब देश में खाद्यान्न संकट की स्थिति उत्पन्न हुई थी तब इस क्षेत्र में भी आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था और इन लक्ष्यों को प्राप्त भी कर लिया गया था। ठीक इसी प्रकार, 1970 से पहले देश औषधिओं की आवश्यकता के लिए लगभग पूरी तरह से आयातों पर निर्भर था। परन्तु, 1970 में इण्डियन पेटेंट एक्टको लागू करके औषधि क्षेत्र के घरेलू उद्योगों को बढावा दिया गया जिससे देश को न केवल अपनी आश्यकता में आत्मनिर्भरता प्राप्त हुई बल्कि देश विश्व बाजार में अग्रणी निर्यातक के रुप उभर गया। ठीक इसी प्रकार करोना महामारी के अवधि में सरकार के प्रयास एवं प्रोत्साहन से करोना वैक्सीन, मोबाईल फोन एवं रक्षा उपकरणों के उत्पादन में आत्मनिर्भरता को प्राप्त किया गया। इतना ही नहीं बल्कि स्वतन्त्रता प्राप्ति से लेकर अब तक सम्पूर्ण अविधि में देश में स्वास्थ, शिक्षा, ऊर्जा, परिवहन सुविधाओं इत्यादि के क्षेत्र में आमूल चूल रुप से प्रगति हुई है। परन्तु ये सब उपलब्ध्यिां प्रमुख रुप समष्टिगत स्वरुप में रहीं हैं क्योंकि इनका लाभ पूर्ण रुप से आम जनमानस को प्राप्त नहीं हुआ। इसके लिए करोना महामारी के समय उत्पन्न संकट को स्मरण करना होगा।

करोना महामारी ने भारतीय अर्थव्यवस्था में उत्पन्न कुछ ऐसी गंभीर समस्याओं को विमर्श के पटल पर ला दिया जो महरमारी के ही कारण उत्पन्न नही हुई बल्कि यह पहले से विद्यमान थी। परन्तु इन समस्याओं पर न तो बौद्धिक स्तर पर विचार किया जाता था और न ही सरकार के नीति निर्माण में इनको स्थान प्राप्त होता था। इन्हीं समस्याओं में एक जो प्रमुख समस्या उभरकर आयी वह है प्रवासी श्रमिकों का संकट। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है कि देश के विकास रणनीति के दौरान जिस औद्योगिकीकरण की नीति को अपनाया गया उसके कारण विकास की प्रक्रिया, विशेषकरके औद्योगिक विकास की प्रक्रिया, सम्पूर्ण देश में न हो करके बल्कि देश के कुछ शहरों तक ही केन्द्रित होता गया। इस प्रक्रिया में देश के अनेक राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों से, विशेषकरके उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, बंगाल, उड़ीसा तथा छत्तीसगढ़ से, लगातार वर्ष दर वर्ष भारी मात्रा में श्रमिक रोजगार की तलाश में इन शहरों की तरफ पलायन करते रहे। दिल्ली, मुम्बई, सूरत जैसे शहरों में झुग्गी-झोपड़ी की दयनीय स्थिति तथा त्यौहारों के समय ट्रेनों में अपार भीड़ की स्थिति, पलायन की प्रक्रिया के दुष्परिणामों की तरफ इशारा करती रहीं। परन्तु यह समस्या उस रुप में राष्ट्रीय पटल पर विमर्श के रुप में नही आ पायी। लेकिन, महामारी को नियन्त्रित करने के लिए सम्पूर्ण देश में लॉकडाउन घोषित करते ही यह समस्या एक दम से उभरकरके राष्ट्रीय पटल पर आ गया। लॉकडाउन प्रारम्भ होने के लगभग एक सप्ताह बाद ही देश के अनेक शहरों में प्रवास कर रहे श्रमिकों के भोजन एवं आवास की समस्या सामने आने लगी। देश में समस्त परिवहन सेवाओं के बन्द हाने के बावजूद भारी संख्या में श्रमिक अपने मूल निवास की तरफ चल पड़े। संकट की गंभीरता इसी बात से स्पष्ट है कि भारी संख्या में श्रमिक 1000 से 2000 किमी तक का सफर पूरा करने के लिए पैदल अपनें घरों की तरफ निकल पड़े। अतः इस संकट ने इस तथ्य को उजागर कर दिया कि प्रवासी श्रमिक रोजगार के लिए अपने घरों को छोड़करके जिन शहरों की तरफ पलायित हुए वे शहर उन श्रमिकों को स्थायी रुप से सहारा देने में असमर्थ रहे। ये शहर प्रवासी श्रमिकों को दो सप्ताह तक के आश्रय देने में असफल रहे। अतः इस असमान्य अवधि से उपजे इस संकट ने विशेषज्ञों तथा नीति नियामकों को सोचने पर मजबूर कर दिया कि यह संकट एक राष्ट्रीय संकट है और इसलिए इसका समाधान स्थानीय स्तर पर तो होना ही चाहिए साथ ही साथ राष्ट्रीय पर भी होना चाहिए।

किसी भी संकट की विशेषता यह होती है कि वह मानव प्रजाति, जो कि सभी प्राणियों में बुद्धिमान माना जाता है, के लिए चुनौती तो लेकर आता ही है साथ ही साथ कुछ ऐसे सबक छोड़ता है जिससे मानव प्रजाति बहुत कुछ सीख ले करके इसी संकट में कुछ अवसर भी खोज लेता हैं। करोना महामारी ने भी ऐसा किया है। इस महामारी में एक सकारात्मक पहलू यह उभरकर आया कि जब लॉकडाउन के दौरान देश की समस्त व्यावसायिक गतिविधियां लगभग ठप पड़ गयी थीं उस दौरान ग्रामीण क्षेत्र की गतिविधियां, विशेषकरके कृषि से सम्बन्धित गतिविधियां, संचालित होती रहीं। इस संकट की घड़ी में इसने न केवल ग्रामवासियों तथा प्रवासी श्रमिकों को, बल्कि पूरे देश को काफी राहत प्रदान किया। इसलिए इस महामारी ने एक महत्वपूर्ण सबक दिया है कि हम अपने विकास रणनीति, जो उद्योग प्रधान रही है, उस पर विचार करें। उद्योग प्रधान विकास की जो रणनीति रही है उसने रोजगार के अवसर तो उत्पन्न किये परन्तु वर्तमान समय में भी देश की लगभग आधी आबादी कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर है। अतः अब समय आ गया है कि हम अपने विकास रणनीति में ग्रामीण विकास एवं कृषि क्षेत्र के विकास को उसी प्रकार से प्रमुखता दें जिस प्रकार से द्वितीय पंचवर्षीय योजना में औद्योगिक विकास को प्राथमिकता प्रदान की गयी थी।

इसके लिए आवश्यक होगा कि ग्रामीण अर्थतन्त्र में समग्र रुप से सुधार किया जाय। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात देश जैसे-जैसे विकास पथ पर अग्रसर होता गया वैसे-वैसे ग्रामीण अर्थतन्त्र में भी परिवर्तन होता गया। कृषि क्षेत्र में मशीनों का अधिक से अधिक प्रयोग होने लगा। खेतों की जुताई तथा फसलों के सिचाईं के लिए मशीनों का प्रयोग तो वरदान बनता गया परन्तु जबसे फसलों की कटाई एवं मड़ाई के कार्य में मशीनों (कम्पाइन) का प्रयोग होने लगा तबसे न केवल कृषि क्षेत्र बल्कि सम्पूर्ण ग्रामीण अर्थतन्त्र पर प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न होने लगा। फसलों की कटाई एवं मड़ाई के कार्य में मशीनों के प्रयोग से समय की तो काफी बचत होती है परन्तु इससे भारी मात्रा में कृषि श्रमिकों के रोजगार के अवसर भी समाप्त होते हैं। मशीनीकरण का एक यह भी दुष्प्रभाव होता है कि जो छोटे-छोटे कृषि उपकरणों जैसे- फावड़ा, हंसिया, दाराती इत्यादि के प्रयोग में कमी आने के कारण भी ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों में कमी आती है क्योंकि इन उपकरणों का उत्पादन ग्रामीण क्षेत्रों में ही किया जाता है। फसलों की कटाई एवं मड़ाई के कार्य में मशीनों के प्रयोग का एक गंभीर दुष्प्रभाव यह भी होता है कि पशुओं के लिए आवश्यक चारे का मुख्य अवयव भूंसे एवं पुआल के अपर्याप्तता की समस्या उत्पन्न होती है और इस कारण भारी मात्रा में किसान पशुओं को रखने से कतराते हैं। पशुपालन में कमी होने के कारण जो फसलों के लिए कम्पोस्ट उर्वरक (प्राकृतिक उर्वरक) प्राप्त होते हैं उसकी आपूर्ति भी प्रभावित होती है। इस प्रकार खेती की बदलती स्वरुप, भारत के ग्रामीण अर्थतन्त्र में ही विकृति उत्पन्न करती गयी। यह समय की मांग है कि देश के ग्रामीण अर्थतन्त्र में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है।

करोना महामारी का एक सकारात्मक पहलू यह भी उबरकर आया कि ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर उत्पन्न करने के लिए मनरेगा एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम हो सकता है। परन्तु इसके लिए आवश्यक है कि इसको और व्यापक एवं तर्कसंगत बनाया जाय। वस्तुतः, कृषि क्षेत्र में, विशेषकर फसलों के कटाई के कार्य में, मशीनों के बढ़ते प्रयोग का एक यह भी कारण रहा कि मनरेगा के लागू होने के बाद कृषि कार्य के लिए श्रमिकों को प्राप्त करने में बाधा उत्पन्न होने लगी। इस कारण से किसानों को मजबूर होकर मशीनों का प्रयोग करना पड़ता है। अतः यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि खेती के कार्यों के समय मनरेगा के अर्न्तगत किये जाने वाले कार्य स्थगित रहेंगे।

आर्थिक क्रियाओं को बढ़ावा तथा रोजगार के अवसर सुनिश्चित करने के साथ ही ग्रामीण विकास के लिए यह भी अतिआवश्यक है कि बुनियादी सामाजिक सुविधाओं जिनमें प्रमुख रुप से शिक्षा एवं स्वास्थ सुविधाओं का विस्तार किया जाय तथा सड़क, बिजली एवं पेयजल की व्यवस्था सुनिश्चत किया जाय। क्योंकि इन सुविधाओं के अभाव में, अक्सर जैसा कि देखा जाता है, ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार के अवसर उपलब्ध होने के बावजूद लोग शहरों की तरफ उपलब्ध रोजगार को वरीयता देते हुए पलायित कर जाते हैं। सही मायनें में भारत जैसे ग्रामीण प्रधान देश में श्रमिकों के पलायन की समस्या से निपटने के लिए गॉवों में आकर्षण उत्पन्न करना होगा और यह आकर्षण गॉवों के समग्र आर्थिक उन्नयन से ही सम्भव होगा। इसके लिए औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया को भी गॉवों की तरफ ले जाना होगा जिससे कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी रोजगार-उत्पादन-आय-व्यय के बीच कड़ी का विस्तार होगा। ऐसा करके ही देश में समावेशी विकास एवं टिकाऊ (पोषणीय) विकास के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। अर्थात् हमें अपने विकास रणनीति में गांधिवादी दर्शनएवं दीनदयाल उपाघ्याय के एकात्म मानववादजैसे विचारों को प्रमुखता देनी होगी और ए0पी0जे0 अब्दुल कलाम के पुरा मॉडल को साकार करना होगा। इसी से देश सही मायने में आत्मनिर्भर भारतएवं विकसित भारत के लक्ष्यकी तरफ अग्रसर होगा। 

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

[1] Government of India: Industrial Policy Resolution (1948) and Industrial Policy Resolution (1956).

[2] Government of India: Industries (Development & Regulation) Act, 1951.

[3] देश का प्रधानमन्त्री इस आयोग का पदेन अध्यक्ष होता था तथा कुछ विभागों के कैबिनेट मंत्री  सदस्य होते थे। इस आयोग के स्थायी सदस्य के रुप में अर्थशास्त्र, उद्योग, विज्ञान एवं सामान्य प्रशासन जैसे विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ होते थे।

[4] इस अवधि को योजना अवकाशके नाम से जाना जाता है।

[5] Sukhamoy Chakravarty: Development Planning— The Indian Experience, Oxford University Press, Delhi, 1988, pp 19-20.

[6]  मई 1960 में भारत एवं अमेरिका के बीच 4 वर्ष की अवधि के लिए पी0एल0 480 नामक एक समझौता हुआ था जिसके अर्न्तगत अमेरिका ने भारत को पर्याप्त मात्रा में अनाज भेजने का आश्वासन दिया था।

[7]  Indian Patent Act 1969.

[8]  Isher J. Ahluwalia: Industrial Growth in India—Stagnation since Mid-Sixties, Oxford University Press, Delhi,   1985, p. 14

[9]  J.C. Sandesara: “Restrictive Trade Practices in India, 1969-91”, in Uma Kapila: Indian Economy Since Independence (edt), Academic Foundation, Delhi, 1995, p. 618..

[10] Hazzai Committee Report (1967), Dutt Committee Report (1969), in J.C. Sandesara: “Restrictive Trade Practices in India, 1969-91”, in Uma Kapila: Indian Economy Since Independence (edt), Academic   Foundation, Delhi, 1995, p. 618.

[11]  वस्तुतः यही वह समय था जब तक कि वैश्विक स्तर पर भी आर्थिक विकास की परम्परागत अवधारणा ही स्वीकार्य थी जिसमें आय, प्रतिव्यक्ति आय एवं संसाधनों के विस्तार को विकास का पर्याय माना जाता था। परन्तु इसके बाद इस धारणा में परिवर्तन आया और नयी अवधारणा के अर्न्तगत आर्थिक विकास के लिए आय, प्रतिव्यक्ति आय एवं संसाधनों में वृद्धि के साथ-साथ गरीबी, बेरोजगारी एवं आय में विषमता को कम करने तथा शिक्षा, स्वास्थ, पेयजल इत्यादि बुनियादी सुविधओं की उपलब्धता को भी आवश्यक माना गया।

[12] Bimal Jalan: Indian Economic Crisis – The Way Ahead, Oxford University Press, Delhi, 1991, Chapter-1.

[13] Ruddra Dutt: ‘Second Generation Reforms—Need for Changing Growth Strategy’’ in Second Generation Economic Reforms in India by Ruddar Dutt ((edt), Deep & Deep Publication Pvt. Ltd, New Delhi, 2001, p.8

[14]  गरीबी एवं बेरोजगारी के उन्मूलन के लिए संचालित विभिन्न कार्यक्रमों, विशेषकरके ग्रमीण क्षेत्रों के लिए, का एक दोष यह रहा कि इन कार्यक्रमों का पालन सुनिश्चित नहीं थी। इसलिए इनमें से अनेको कार्यक्रम केवल कागजों तक ही सीमित रह जाते थे और इसीलिए इन कार्यक्रमों के बावजूद  भी देश में गरीबी की स्थिति में कोई संतोषजनक सुधार नहीं हुए। इसीलिए सरकार ने सितम्बर 2005 में ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी उन्नमूलन के लिए एक कार्यक्रम राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम (नरेगा) को पारित किया तथा 2 फरवरी 2006 से लागू किया गया। बाद में इसे 2 अक्टूबर 2009 को इस योजना का नाम गांधी जी के नाम पर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम (मनरेगा) कर दिया गया। इस कार्यक्रम के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्र में  प्रत्येक परिवार के एक वयस्क सदस्य को एक वित्तीय वर्ष में न्यूनतम 100 दिवस का रोजगार उपलब्ध कराने की गारण्टी प्रदान की गयी।

[15] बारबेल स्ट्रेटजी, एजाइल कार्यप्रणाली पर आधारित है जो एक बौद्धिक ढांचा है। इसका प्रयोग परियोजना प्रबन्धन एवं प्रौद्योगिकी विकास जैसे क्षेत्रों में काफी उपयोग किया जाता है। यह रणनीति अनिश्चित वातावरण में, सक्रिय रुपरेखा छोटे पुनरावृत्तियों में परिणामों का आकलन करके तथा लगातार वृद्धिशील रुप मेंसमायोजित करके प्रतिक्रिया करती है। वस्तुतः यह रणनीति वित्तीय बाजारों में प्रयोग किये जाने वाली एक सामान्य रणनीति है जिसका उपयोग दो अल्ग-अलग प्रतिक्रियाओं को मिलाकर अत्यधिक अनिशिचतता से निपटने के लिए किया जाता है। दूसरी तरफ, वाटरफॉल स्ट्रेटजी में समस्या का पहले से ही विस्तृत रुप में एक प्रारंभिक मूल्यांकन कर लिया जाता है और इसके बाद एक दृढ़ अग्रिम योजना बनायी जाती है। यह  रणनीति वस्तुतः इस आधार पर कार्य करती है कि सभी आवश्यकताओं को शुरुआत में ही समझा जा सकता है और यह रणनीति एक निशित मार्ग के लिए पूर्व प्रतिबद्ध है। देश के पंचवर्षीय योजनाएं इसी प्रकार की रणनीति पर आधारित थीं (Economic Survey (2021-22), Chapter 1, page 14) A

[16]  Government of India: Economic Survey (2021-22), Chapter 1.