ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- I April  - 2022
Anthology The Research
स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी कविता सामाजिक सन्दर्भ
Post-Independence Hindi Poetry Social Context
Paper Id :  16001   Submission Date :  2022-04-05   Acceptance Date :  2022-04-15   Publication Date :  2022-04-25
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महेन्द्र कुमार नावरिया
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी विभाग
राजकीय महाविद्यालय, मलारना
डूंगर,राजस्थान, भारत
सारांश
प्रस्तुत शोध पत्र मे स्वाधीनता के बाद की हिन्दी कविता के परिपाष्र्व मे कविता की जनवादी प्रवृत्तियो तथा जनवादी चेतना का अनुसंधान किया गया है। अनुसंधान की प्रकिया मे स्वाधीनता के बाद की हिन्दी जनवादी कविता के जो मूल्य स्थापित हुए ए प्रतिमान निरुपित हुए तथा जो सीमाएं व सम्भावनाएं दृष्टिगत हुई उनका विष्लेशण यहाँ किया गया है। हिन्दी की स्वातन्त्र्योत्तर जनवादी कविता प्रगतिषील कविता से ज्यादा लोक - संप्रक्त और जन तांत्रिक है वह सामाजिकए राजनैतिक सोद्र्श्यता और जनसमूह के लिए प्रतिबद्धता की कविता है। उनमे वर्गीय चेतना और संघर्ष बराबर दिखाई देता है। ये कविताएं विचार प्रधान है इन कविताओं का कैनवास और लेण्डस्केप बहुत व्यापक है। स्वातन्त्र्योत्तर जनवादी कवि अपनी कविताओ की परिधि मे पूरे तंत्र को कटघरे मे खड़ा करते है। वे प्रशासन पुलिस न्यायपालिका सब पर प्रश्न चिह्न लगाते है मुक्तिबोध ने लिखा "ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन मूल्यो जनता के जीवनादर्शो को प्रतिष्ठित करता है उसे अपने मुक्ति पथ पर अग्रसर करता हो इस मुक्ति का अर्थ राजनैतिक मुक्ति से लगाकर अज्ञान से मुक्ति तक है अतः इसमे प्रत्येक प्रकार का साहित्य सम्मिलित है बशर्ते वह उसे सचमुच मुक्ति पथ पर अग्रसर कर सके।"
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In the present research paper, the democratic tendencies of poetry and democratic consciousness have been researched in the context of post-independence Hindi poetry. In the process of research, the values ​​of post-independence Hindi democratic poetry were established and the limitations and possibilities that were seen have been analyzed here.
Hindi's post-independence democratic poetry is more people-oriented and people-tantric than progressive poetry, it is a poem of social, political purpose and commitment to the masses. Class consciousness and struggle are equally visible in them. These poems are thought-provoking, the canvas and landscape of these poems is very wide. Post-independence democratic poets put the whole system in the dock in the periphery of their poems. Those administration, police, judiciary put question marks on everyone, Muktibodh wrote that such literature, which honors the life values ​​of the people, leads them on the path of their liberation, this liberation means freedom from ignorance by applying political liberation, so in this Every type of literature is included provided it can really lead it on the path of liberation.
मुख्य शब्द स्वातन्त्र्योत्तर कविता, जनवादी काव्यधारा।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Post-independence Poetry, Democratic Poetry.
प्रस्तावना
स्वातन्त्र्योत्तर कविता की जनवादी काव्यधारा के कवियों के चिन्तन के केन्द्र मे मनुष्य और उसके जीवन की पीड़ा और संघर्ष को आराम मिला है असल मे यही उपेक्षित प्रताड़ित दलित, शोषित जनसमूह स्वाधीनता के बाद के कवियो के सौन्दर्य का स्रोत है। इन्हीं के जीवन की सुख दुखात्मक अनुभूतियो से उनकी रचनानुभूति की संस्कृति आकार पाती है। सच पूंछा जाए तो इन कवियो की कविता क्रियाशील जीवन जीने वाले विभिन्न लोगो की जिन्दगी से उसी तरह जुझने का भरसक प्रयत्न करती है हिन्दी आलोचना के शिखर डाॅ. रामविलास शर्मा ने एक साक्षात्कार मे कहा था "जो माक्र्सवादी है उसके लिए जनवादी होना अत्यन्त आवश्यक है, पर जो जनवादी है यह जरूरी नही कि वह माक्र्सवादी भी हो।
अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोध पत्र मे स्वाधीनता के बाद की हिन्दी कविता के परिपाष्र्व मे कविता की जनवादी प्रवृत्तियो तथा जनवादी चेतना का अनुसंधान किया गया है।
साहित्यावलोकन
स्वाधीनता के बाद समाज की मानसिकता मे व्यापक परिवर्तन आया। समाज एक गतिशील इकाई है अतः इस गतिषीलता और समस्त छोटी छोटी सामाजिक घटनाओ का सामाजिक जीवन पर सीधा प्रभाव पड़ता है इन जनवादी कवियों ने सामाजिक विकास की प्रत्येक स्थितियों को देखा परखा और लोक की हर तरंग को अपनी कविता मे व्यक्त किया, जिसके प्रमुख कवि धूमिल है।
मुख्य पाठ


धूमिल की कविता और और नक्सलवाद का विकास साथ साथ हुआ। धूमिल की कविता को नक्सलवाद से उग्रता मिली। इस उग्र चेतना का प्रभाव न केवल धूमिल के अनुभव जगत को मिला वरन उनकी काव्य भाषा भी प्रभावित हुई और उन्होने पूरे परिवेश को कटघरे मे खड़ा करते हुए कविता को मुहावरो में बदल दिया। धूमिल ने भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के महान सेनानियों की आकांक्षा को अपनी आकांक्षा बताते हुए लिखा-

मैने कहा-आजादी
और दौड़ता हुआ खेतो की और
गया झ वहां कतार के कतार
अनाज के अंखुए फूट रहे थे
मैने कहा- जेसे कसरत करते हुए
बच्चे झ तारो पर चिड़िया चहचहा रही थी
मैने कहा कांसे की बजती हुई घंटिया
खेत की मेड़ पार करते हुए
मैने एक बेल की पीठ थपथपाई
सडक पर जाते हुए आदमी से
उसका नाम पूछा और कहा बधाई हो।

धूमिल की ऐसी कविताओ पर या कविताओं के अंशो पर जब गौर करे तो स्पष्ट जान पड़ता है कि वह स्वाधीनता के बाद के माहौल मे सांस लेने वाले विक्षुब्ध और एक हद तक निराश आम आदमी का आलाप है जिसके बहाने समूचे वातावरण की मूल्यहीनता ढोंग पाखण्ड और अमानवीय स्वार्थ का भंडाफोड़ किया गया धूमिल की ऐसी कविताओं मे उस पीड़ा और प्रतीक्षा की निर्मम स्वीकृति है जिसमे स्वाधीनता आन्दोलन के सेनानियो की आकांक्षाएं तो अभिव्यक्त हुई है समकालीन युग चेतना को भी वाणी मिली है-

मैंने इंतजार किया, अब कोई बच्चा
भूखा रहकर स्कूल नहीं जाएगा
अब कोई छत बारिश मे नहीं टपकेगी
अब कोई किसी से रोटी नहीं छीनेगा।

धूमिल ने स्वाधीन भारत की गरीब अनपढ़ जनता के आंसू और उसकी विवश असहायता को बहुत अच्छी तरह पहचाना है। इसलिए स्वाधीन भारत की बेइमान नगर व्यवस्था की समूची पशुता का, समूची दानवता का, उसके राक्षसी कुत्सित शोषण का वह बेझिझक चित्रण करता है वह जानता है कि देश मे भट्टियां तो सभी जगह है लेकिन लोग सेक रहै है उनमे शील को, मर्यादा को, आत्मसम्मान को। चारो तरफ नजर दौड़ा, तो कही आत्महीनता का दल दल मिलेगा तो कही नफरत का उन्नत संसार। इसलिए कवि बेझिझक लिखता है-

इस देश की मिट्टी में

अपने जंगर का सुख तलाना

अंधी लड़की की आंखो में

उससे सहवास का सुख तलाना है।

केदारनाथ अग्रवाल की कविता मे समाज को बदलने की अदम्य लालसा है अपने समय और समाज की क्रूरतम स्थितियों को नष्ट करने के लिए केदारनाथ अग्रवाल का कवि कर्म हस्तक्षेप करता है जिस सामाजिक और आर्थिक आजादी की बात मुक्तिबोध, नागार्जुन और सर्वेश्वर ने की उसकी चाह केदारनाथ अग्रवाल को भी रही वे भी राजनीतिक आजादी नहीं आम आदमी की आजादी चाहते थें उनकी हाय ना आई, कविता मे इस चाह को व्यक्त किया गया है-

चिट्ठी आई

पत्री आई

डाक बराबर सब दिन आई

लेकिन दिल्ली से आजादी

अब तक अब तक हाय न आई, हाय न आई। केदारनाथ अग्रवाल की इस गहरी संवेदना आम आदमी की पक्षधरता और संघर्ष भावना के लिए डाॅ.जीवन सिंह ने उचित ही लिखा है- केदार किसी भी तरह के अन्याय, अत्याचार और उत्पीड़न के विरोध मे संघर्षशीलता के पक्षधर रचनाकार है। इसलिए जहाँ एक तरफ उनकी दृष्टि अपने देश अंचल और समाज मे हो रहे अन्याय की विकृतियो पर व्यंगय प्रहार करती है वहां दूसरी तरफ सम्पूर्ण विश्व उनकी नजरो मे रहता है..............................एक ओर वे विश्व की मानव विरोधी शोषणकारी शक्तियों की खबर लेते है तो दूसरी ओर पिटती हुई निर्बल सी दिखाई देने वाली मानवता की उत्पादकता एंव क्रियाशील जनशक्ति की ऊष्मा और ताप को अपनी कविताओ मे रचते है।

"स्वागत भाषण" और एकालाप से हटकर वार्तालाप और संघर्ष की और निरन्तर अग्रसर हिन्दी कविता के कुछ प्रमुख कवियो मे नागार्जुन सर्वाधिक प्रसिद्ध कवि है समता पर आधारित वर्गहीन शोषण मुक्त समाज को स्थापित करने के लिए वे संघर्षरत है नागार्जुन जैसे संघर्षशील रचनाकारों के प्रयासो का ही परिणाम है कि हिन्दी-साहित्य मे मानव-मुक्ति की आवश्यकता पहले से कही अधिक शिद्दत से महसूस की जा रही है प्रेत का बयानए मास्टर, मुक्तिपर्व, चन्दू मैने सपना देखाए मन करता जैसी कविताएं जन कवि ही लिख सकता है उनकी कविता मे अमीर-गरीब, मालिक-मजदूर, जमीदार-कृशक उच्चवर्ग-निम्नवर्ग के बीच द्वन्द दिखाई देता है गरीबी, भुखमरी, बीमारी, अकाल, बाढ जैसे सामाजिक यथार्थ का सूक्ष्य चित्रण कवि ने किया है नागार्जुन ने अपनी अकाल और उस के बाद कविता मे इस यथार्थ को चित्रित किया-

कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास

कई दिनों तक काली कुतिया सोई उसके पास

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त

कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त

दाने आए घर के अन्दर कई दिनो के बाद

धुँआ उठा आंगन के उपर कई दिनो के बाद

चमक उठी घर भर की आंखे कई दिनों के बाद

कौए ने खुजलाई पांखे कई दिनों के बाद।

मुक्तिबोध .................. गहन मानसिक अन्तद्र्वन्दो और तीखे सामाजिक अनुभवो के कवि है। शमशेर के शब्दो मे मुक्तिबोध युग के उस चेहरे की तलाश करते हे जो आज के इतिहास के मलबे के नीचे दब गया मगर मर नही गया।

मुक्तिबोध का रचना संसार लगभग चौथे दशक के प्रारम्भ से सातवें दशक के मध्य तक फैला हुआ है उनकी कविताओं में तद्युगीन जीवन की धज्जियों का तार- तार विश्लेषण हुआ है सामाजिक राजनैतिक परिदृष्य पर इतना विवेकपूर्ण विवेचन अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। समाज की हालत तो उस समय तक ऐसी बदतर हो चुकी थी कि लोग और विशेषकर सर्वहारा अभावो के टीले के नीचे दबता चला जा रहा था-

"इतने भीम जडीभूत टीलो के नीचे हम दबे हैं

फिर भी जी रहे है सृष्टि का चमत्कार

श्कोषिष करो कोशिश करो

जिने की, जमीन मे गडकर भी"

वस्तुतः मुक्तिबोध का काव्य-संसार आम आदमी के संघर्श का काव्य संसार है। इसलिए मुक्तिबोध ईमान के डंडे से, बुद्धि के वल्लम से, समय की गैंती से, ह्रदय की तगारी और तसला से महकती हुई मिट्टी पर नया भवन बनाने की कल्पना करते है।     

रघुवीर सहाय की समाज-चिंता के अपने रूप है। उनको अभिव्यक्त करने के ढंग भी अपने है सामाजिक पीड़ा का दंश व्यंग्य और विद्रूप दोनो ही रूपो मे "हंसो-हंसो जल्दी हंसो" संग्रह की कई कविताओं में और भी तीखे तेवर के साथ अभिव्यंजित हुआ। डा परमानन्द श्रीवास्तव के अनुसार- इस संग्रह की सभी कविताएं एक बडे़ सामाजिक हादसे की ओर संकेत करती है-

"निर्धन जनता का षोशण है

कह कर आप हंसे

लोकतंत्र का अंतिम क्षण है

कह कर आप हंसे।"

नारी के संबंध मे रघुवीर की कविताओं मे सुन्दर शब्द की अनेक अर्थ छवियां है एक सुन्दर वह भी है जिसकी पहचान इस समाज मे क्रूरता के निकट ही रह गई है उन्होने स्त्री विषयक अनेक कविताओं के अन्तरंग सन्दर्भ को रेखाकिंत करना सरल हो जाता है-

"वह अपने तीस बरस

औरत व्यक्ति के बनने के तीस बरस

लिए हुए रोज यहां आती है वक्त से

ध्यान से सुनती है नौजवान ग्राहक को

खो नही जाती स्वप्न में

उस लड़के को कही जाने नही देती है फिलहाल।"

समकालीन कवियों की परम्परा मे उदय प्रकाष की काव्य क्षमता और उनकी सामाजिक चिंता के उल्लेखनीय साक्ष्य उनके कविता संग्रह है हमारे देश मे एक वर्ग ऐसा है जिसके पास कोई अभाव चिंता या समस्या नहीं है दूसरी ओर एक वर्ग ऐसा भी जो अभाव मे जन्म लेता है और उन्हीं से संघर्ष करते-करते अपना जीवन बीता देते है उदय प्रकाश की कविताएं इन्ही विवषताओं और विषमताओं के बीच पीसते, चीखते-कहराते संसार से जुड़ने की कोशिश करती है इस तरह कारीगर कविता मे हमारी व्यवस्था की असंगतियो का वर्णन है पूंजीवादी सभ्यता से जो खतरे हमारे सामने है उन्ही को बयान उदय प्रकाश करते है-

"उठो भाई परमेसुर आंतो के इशारे से उंगलियो को छुड़ाओं

एक लोटा पानी सड़काओंए होज्जाय इलाहबादी आर्ट...............

बाजार के मुताबिक, तैयार करो सुराही

नही तो वह गैडे-सा तुंदियल

टेढा मेढा हाथी का बच्चा ठेकेदार कहेगा

परमेसुराए बोल टेढी कैसे है, सुराही की गर्दन"

आधुनिकतावाद के जिस दौर मे हताशा, निराशा, अजनबीपन अनास्था, निस्सारता को नयी संवेदना का आधार स्वीकार किया गया था उससे मुक्ति के लिए जिन कवियो ने संघर्ष किया है उनमे अरूण कमल का नाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है वे ऐसे तरूण प्रगतिशील कवि है जो जनता से ग्रहण करते है उसेे उनको ही वापस लौटा भी देते है एक तीक्ष्ण अस्त्र की तरह ताकि वर्ग संघर्ष मे शत्रुओं के दमन के लिए वह काम आ सके । अरूण कमल की एक अत्यन्त प्रसिद्ध पंक्ति है- "सारा लोहा उन लोंगो का अपनी केवल धार।" कविता मे वर्णित उन लोंगो से कवि का तात्पर्य हमारे देश की मेहनतकश जनता से है। वें बड़ी विनम्रतापूर्वक यह कहते है कि सब कुछ तो उन्हीं का दिया है मे तो सिर्फ धार देने का ही काम कर रहा हूं-

"कोन बचा है जिसके आगे, इन हाथों को नहीं पसारा

यह अनाज जो बदले रक्त मे टहल रहा तन के कोने-कोने

यह कमीज जो ढाल बनी है, बारिश सर्दी लू में

सब उधार का मांगा चाहाए नमक तेल हींग हल्दी तक

सब करजे काए यह शरीर भी उनका बंधक

अपना क्या है इस जीवन मे सब तो लिया उधार

सारा लोहा उन लोगो का अपनी केवल धार।"

जीवन संघर्ष के प्रति गहरा विवेक उनके काव्यात्मक संघर्ष मे भी दृष्टिगोचर होता है। जीवन के प्रति गहरी लालसा और संसक्ति ही उन्हें दुनिया को बेहतर बनाने के लिए सक्रिय करती है मेहनत जनता मे घुलमिल जाने, एकात्म हो जाने की भावना को और स्वयं को उसी का एक हिस्सा समझने की सच्चाई को वे कविता में खुलकर अभिव्यक्त करते है-

"तुम्हीं ने तो रोपा था हमें

तुम्हारा ही रक्त अंकुर रहा

हमारी ध्मनियो में

तुम्हीं तो झांक रहे हो हमारे इस चेहरे में

और तुम्हीं ने तो अपनी सांसे संजोकर

बनाए कई-कई वायुमण्डल हमारे वास्ते

तुम्हीं तो खींचे लाए हो सारा संसार

हमारी आंखो के इतने पास।"

स्वाधीनता के बाद के प्रतिनिधि कवियांे की अपेक्षा समकालीन कवियों की सामाजिक चेतना कुछ ज्यादा ही प्रखर है इन कवियों ने सामाजिक चेतना में मानवीय रिश्तो को काव्य वस्तु बनाया है जो समकालीन विभिन्न समस्याओं से प्रभावित होकर कुछ नए रूपो मे उलझे हुए ए जटिल और संकुल बन गए इन कवियों मे महत्वपूर्ण नाम है कुमार विकल इन्होने जीवन और जगत के प्रत्यक्ष अनुभव को ईमानदारी और सरलता से अभिव्यंजित किया है शंग खतरे मे है, शीर्षक कविता संग्रह मे उन्होने कुछ ऐसे सूत्र गढे है जो मानव-मुक्ति के प्रश्न को हल करने मे बहुत दूर तक सहायक हो सकते हैं उनका विश्वास है कि दर्शन और कर्म की यात्रा मे जीवन संघर्श का रंग एक मजबूत हथियार बन जाता है जिसके द्वारा अंधेर नगरी की सारी सुंरगे छोड़ी जा सकती है।

"वह रंग जो दर्शन से कर्म तक की यात्रा मे

एक मजबूत हथियार बन जाता है

अंधेरी सुरंग तोडने के काम आता है।"

अपने दृश्टिकोण को स्पश्ट करते हुए वे स्पष्ट शब्दो मे घोषणा करते है कि अंधेरे के मादक युग से प्रमादी पृष्ठभूमि सेए निकाल कर जब श्रम की रोशनी मे आदमी को ला खड़ा किया जायेगा तभी जाकर मानव मुक्ति का प्रश्न हल हो पायेगा-

मै जानता हूॅ कविता मे आदमी की मुक्ति नही, लेकिन जब आदमी

कविता को शराब के अंधेरे से निकाल कर, श्रम की रोशनी मे लाता है

तब वह आदमी की मुक्ति के नये अर्थ पाता है।

जब मंगले डबराल का पहाड़ पर लालटेन कविता संग्रह आया तो उस संग्रह मे उनकी प्रतिबद्धता विचारधारा सामाजिक संलग्नताए संघर्ष चेतना आदि मूल्य उत्तर दायित्वपूर्ण ढंग से उभर कर सामने आए। इस संग्रह की अधिकांश कविताएं अपने समय और अपने परिवेष के राग दुःख और संक्रमण गहरे जुड़े हुए अनुभवो से विकसित हैं। उनकी इन कविताओं मे समय के दुःख और थकान उनमे जीने वाले मनुश्य की उदासी और निराशा-अनेक अनुभूतियां बार-बार दस्तक देती हुई प्रतीत होती है अगले दिन शीर्षक कविता मे स्त्री की दारूण यातनाओ का प्रत्यक्ष अनुभव चित्रित है उसकी करूणा, उसका क्षोभ, उसका तनाव है जिसके कारण स्त्री एक अर्थ विशेष को प्राप्त कर लेती है-

"अगले दिन उसके भीतर

मिलेंगे झड़े हुए कितने पत्ते

अगले दिन मिलेगी खुरों की छाप

अगले दिन अपनी देह लगेगी बेकार

आत्मा हो जायेगी असमर्थ

कितने कीचड़ कितने खून से भरी

रात होगी उसके भीतर।"

मंगलेष की कविता में प्रेम और प्रकृति भी एक विशेष सामाजिक सन्दर्भ मे अभिव्यंजित है वहां प्रेम संबंध के साथ राषन के खाली कनस्तर भी है, रेल की पटरियां भी है, किताबे और नौकरियां भी है। लालटेन जलती है पहाड़ पर में कवि लिखता है-

"लालटेन जलती है पहाड़ पर

एक तेज आंख की तरह

टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनी हुई

देखो अपने गिरवी रखे हुए खेत

बिलखती स्त्रियों के उतारे गए गहने

देखो भूख से, बाढ से, महामारी भरे हुए

सारे लोग उमर आए है उचट्टानों से

दोनो हाथो से बेशुमार बर्फ झाड़कर

अपनी भूख को देखो

जो एक मुस्तैद पंजे मे बदल रही है।"

इस कविता की अन्तिम तीन-चार पंक्तियों मे कवि ने सकारात्मक संघर्ष की और संकेत किया है वह मंगलेष की क्रान्ति के प्रति आसक्ति को अभिव्यंजित करने को पर्याप्त है।

मंगलेष की इस परम्परा मे ज्ञानेन्द्रपति आते है जो अपनी कविता की शुरूआत प्रकृति से करते है लेकिन उनकी प्रकृति न तो पंत की प्रकृति की तरह "विस्मय-विमुग्धकारी" है और न अज्ञेय की महावृक्ष की बोध छाया।

ज्ञानेन्द्रपति कवि का प्रकृति के निकट जाना अपनी जिजीविषा संघर्ष और अपनी मूलगामी संवेदना को जानना और पुश्ट करना है उनकी कविताओं में वृक्षो से भरी हुई दुनिया, अरण्यों की दुर्गम कथाएं, पृथ्वी से उगता हुआ जीवन, नीम और जामुन की गंध, वृक्ष की वत्सलता, उसका अकेलापन सभी कुछ मानवीय संवेदना को मानवीय स्मृति-चेतना की वाणी देने के लिए है, साकार करने के लिए है। प्रकृृति के प्रति ज्ञानेन्द्रपति का लगाव मानवीय लगाव का एक हिस्सा है माँ-बिटियाँ, बचपन स्मृतियां इनकी कविताओ मे गहरा आत्मीय रंग भरने वाले विषय है उनकी सामाजिकता उनका आत्मराग जीवन-राग का एक अंग है-

"बिटियां तुम्हारे जूते, इस कांपते मकान में

निश्चिन्त, भीत को फोडकर उगी कपोल की तरह

मुझे देखते है तुम्हारे जूते

इस दुनियां मे आई हुई एक जोड़ी आंखो की तरह।"

समकालीन कवियों मे एक ज्वलन्त नाम है राजेश जोशी का, जिन्होने अपनी कविता मे जीवन की गहरी आस्था को केन्द्रीयता प्रदान की है। "एक दिन बोलेंगे पैड़" और "मिट्टी का चेहरा" जैसे तमाम संग्रहो मे राजेश ने मानव विरोधी ताकतों के प्रति अपने पाठको को सजग किया है उनकी जनवादी दृष्टि उन्हे हमेशा मानवीय-करूणा के प्रति बांधे रखती है उनकी एक प्रसिद्ध कविता है- अंग्रेजो का कमाल इस कविता में मानव विरोधी सत्ता या व्यवस्था ने जो समाज की दुर्दशा करती है उसकी विडम्बना को एक क्रान्तिकारी ढंग से रखा है-

"बजट पर चलेगी बहस और गंदगी हो जायेगी यात्रा

सावधान !

सावधान!

और करलो विस्तृत अपने अनुभव का संसार

देखो उस लड़के को देखो

जो हण्डे मे बैठकर उड़ गया।"

समाज एक गतिशील इकाई है अतः इस गतिशीलता और समस्त छोटी-छोटी सामाजिक घटनाओं का सामाजिक जीवन पर सीधा प्रभाव पड़ता है इन समस्त छोटी-बड़ी घटनाओं को साहित्य में चित्रित करना अनिवार्य है इस सन्दर्भ में रामविलास जी का मत अत्यन्त महत्व का है- छोटी से छोटी सामाजिक घटना भी एक असंबद्ध आकस्मिक या सीमित घटना नही है उसका प्रभाव समाज के शेष जीवन पर भी पड़ता है। इस प्रकार जिन घटनाओं को हम केवल आर्थिक सामाजिक या राजनैतिक कहकर उनकी ओर संकेत करते है वे अपने संश्लिष्ट रूप के कारण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करती है। बंगाल का अकाल मूलतः एक आर्थिक घटना थी। अन्न की कमी हुई और लोग भूखे मरने लगे। सभी लोग जानते है इस आर्थिक घटना ने सामाजिक जीवन को बुरी तरह हिला दिया था।

निष्कर्ष
स्वातन्त्र्योत्तर जनवादी कवि सामाजिक जीवन की उपेक्षा न कर जनता की समस्याओं के निरूपण की ओर गंभीरता से ध्यान देते है। इस समय नारी शिक्षा विधवाओ की दुर्दशा शोषण अनाचार और राजनीतिक उपचार, आदि को लेकर कविताएं लिखी गई एंव मध्यम वर्गीय सामाजिक परिस्थितियों का चित्रण करते हुए हमारी स्वार्थी समाज की बदनीयती का खुलासा किया गया।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. गजानन माधव मुक्तिबोध - नयी कविता का आत्म संघर्ष - 2. रामविलास शर्मा - प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं - 3. वशिष्ठ अनूप - हिन्दी की जनवादी कविता 4. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी - समकालीन हिन्दी कविता 5. डा0 प्ररमानन्द श्रीवास्तव- कविताः समकालीन कविता 6. डा0 शचीः स्वाधीनता आन्दोलन की राष्ट्रीय विरासत और समकालीन हिन्दी कविता 7. रामविलास शर्मा- माक्र्सवाद और प्रगतिशील साहित्य 8. कैदारनाथ अग्रवाल- कहे केदार खरी-खरी 9. डाॅ0 जीवन सिंह- कविता की लोकप्रकृति 10. धूमिल- संसद से सड़क तक 11. रघुवीर सहायः आत्महत्या के विरूद्ध 12. उदय प्रकाश - सुनो कारीगर 13. मंगलेष डबराल - पहाड़ पर लालटेन 14. अरूज कमल - अपनी केवल धार