ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VI , ISSUE- XII March  - 2022
Anthology The Research
मन्नू भण्डारी के कथा का प्लाट: गोपाल को किसने मारा?
The Plot of The Story of Mannu Bhandari: Who killed Gopal?
Paper Id :  15877   Submission Date :  15/03/2022   Acceptance Date :  21/03/2022   Publication Date :  25/03/2022
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रामाश्रय सिंह
वरिष्ठ सहायक प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ
वाराणसी,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश मन्नू भण्डारी के साथ लेखक उनकी अंतिम कहानी को जोड़ने का प्रयास किया है। इस लेख के माध्यम से सारांशतः लेखक यह कहना चाहता है- कि गोपाल को किसने मारा? कहानी दो पीढ़ियों की टकराहट के बावजूद उन्माद नहीं, बल्कि करुणा पैदा करती है, इसमें करुणा ही इसका मूल कथ्य है। जैसे- सीने में जलन, आँखों में तूफान सा क्यों है? इस शहर में हर शख्य परेशान सा क्यों हैं। दरअसल यह कहानी गाँव और शहर के मुहाने पर खड़े दो पीढ़ियों में मेमनों की तरह गाँव के गाँव अजगर रूपी शहरी के पेट में समाते जा रहे हैं। गोपाल को किसने मारा? में एक जिंदा आदमी मृत रूप में संबोधित है, तो सिर्फ इसलिए कि उसके अन्दर की मनुष्यता मर चुकी है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद With Mannu Bhandari, author have tried to connect his last story. Summarizing through this article, author wants to say - who killed Gopal? Despite the clash of two generations, the story creates compassion, not frenzy, in which compassion is its core. Like- burning in the chest, why is there a storm in the eyes?
Why is everyone in this city upset? In fact, in two generations standing at the mouth of the village and the city, like lambs, the villages of the village are getting absorbed in the stomach of the urban python. Who killed Gopal? A living man is addressed as dead, only because the humanity in him is dead.
मुख्य शब्द मन्नू भण्डारी, आपका बंटी।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Mannu Bhandari, Apka Banti.
प्रस्तावना
मन्नू भण्डारी हमारे समय की कथाकार हैं। कहानी, उपन्यास, नाटक के आलावा सिनेमा, टेलीविजन के लिये खूब काम किया। सच में नई कहानी की अगुआ हैं। ’’एक इंच मुस्कान’’ और ’’आपका बंटी’’ आज एक मुहावरा बन चुका है। गोपाल क्यों मारा गया, या किसने मारा? सीमान्त किसान की त्रासदी है। एक सिरा किसान आन्दोलन से तो दूसरा सिरा विकास का बुलडोजर से जुड़ता है।[2] अगर तीसरे सिरे का तलाश करें तो तीसरा सिरा किसान की त्रासदी के वजह से एक राजनीति कहानी भी जुड़ा है। चौथा सिरा ढूंढे तो पितृसत्ता का विद्रोह है। पाँचवाँ सिरा।
अध्ययन का उद्देश्य द्वंद ही जीवन की कथा रही।[1] उनके लेखन के प्रसिद्ध होने का प्रमाण है। वैसे मन्नू भंडारी का जीवन 1931-2021 ई0 तक का है। राजेन्द्र यादव मन्नू जी से सवाल पूछते हैं कि आपकी कौन सी रचना महत्वपूर्ण है। मन्नू जी फौरन नाम लेती हैं- त्रिशंकु और महाभोज। राजेन्द्र जी हँसते हैं क्यों बंटी नहीं महत्वपूर्ण है। आज भी उनके पात्र, उनके पात्रों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण उनकी बहुत सीधी सहज भाषा में आज भी पाठकों को कैसे बाँधकर रखा है। संवेदनशीलन समीक्षक आज भी बंटी में अपने बेटे की परछाई देखकर व्यथित हो जाते हैं। और त्रिशंकु की तनु में कई पाठाकों को अपनी बेटी का चेहरा और तेवर अचंभित करता है। जैसे वे आवेश में उजागर की गई बातें उनकी बहुत बड़ी थाती थी, जिन्हें वे संजोकर रखना चाहती थी, जैसे वही उनकी जागीर थी, जिसे वे हाथ से छूटने नहीं देना चाहती थी। ये सब द्वन्द्व उनके जीवन से हमेशा जुड़ा रहा। कभी सहनशीलता की प्रतिमूर्ति तो कभी बगावत की चिंगारी, तो कभी प्रतिरोध की ज्वाला को बाहर फेंकना चाहती थीं। इस द्वन्द्व और दुविधा के बीच जीवन के अंतिम समय में दो रचनाएँ पहली ’’मुक्ति’’ और दूसरी ’’गोपाल को किसने मारा?’’ यह एक गहरा भावात्मक लगाव ही उनकी रचनात्मकता को धार देता है।
साहित्यावलोकन
नारीवाद का पक्ष मौजूद है। छठासिरा वंचितों और शोषितों के पक्ष से जुड़ता है। सातवां सिरा गोपाल को किसने मारा? से जुड़ता है। गोपाल को कोई नहीं मारा! बल्कि शहर और गाँव का द्वन्द्व ने मारा है। जो युवा मन का मनोविज्ञान है। जहाँ मन्नू जी पहली पंक्ति से अपना रूख साफ कर देती हैं। इन पंक्तियों में देखा जा सकता है- इस गाँव में भी आखिर कस्बे की दहलीज पर पाँव रख ही दिये।[3] इस कथन से स्पष्ट होता है कि कस्बे बने गाँवों की करुण आख्यान की ओर इशारा करती है। पहली पंक्ति ही जैसे- बेहद खरामा-खरामा चाल से चलते हुए पूरी कहानी की बीज पंक्ति है।
मुख्य पाठ

दरअसल उपभोक्ताऔर बाजारवाद पूरी मानवता को सोख लिया है। जैसा कि उक्त बातें एक गाँव की कहानी में पूरी तरह से पिरोयी हुई है। कहानी में गोपाल का पिता रामसिझावन काँपतेकलपते गाँव का आदमी है। गोपाल जिंदा रहना चाहता है। पर उसकी अपनी जिद है। जो युवा भी है। जिसके जेहन में किसी प्रकार का यादास्त नहीं हैं। यानी कोई चीज उसको याद ही नहीं रहती। गौर करने की बात है कि वह भुलक्कड़ नहीं हैं। पर  स्मृतियों से उसका कोई वास्ता नहीं है। यहाँ स्मृति शून्यता से किसी बड़ी साजिश की बू आती है। विकास का मतलब मनुष्य की गरिमा संरक्षण न होकर पूजी का निर्माण हो गया है। मन्नू जी घटते गाँव और बढ़ते शहरों के बीच फंसे इंसान की त्रासदी सामने लाती हैं। इस कहानी में भूमियुक्त से भूमिहीन होते विकास और भविष्यहीन होती मनुष्यता के प्रश्न केन्द्रीय प्रश्न हैं। गांव की छोटी बुद्धि की जमात की कहानी है। अक्सर बाप और बेटे के बीच का मनमुटाव है। मानवीय धरातल का टकराव है। जैसा कि प्रेमचन्द की कहानियों में होरी और गोवर के बीच में गांव और शहर के नजारे दिखाई पड़ते हैं। इस कहानी में बेटा अपने बड़े भाई की याद में बने प्याऊ को उजाड़कर वहाँ एक दुकान बनाना चाहता है। प्याऊ के ईर्द-गिर्द कहानी घुमती है। घुमने के कारण भी साफ दिखाई देते हैं कि बड़ा भाई गोविन्द के स्मृति में जो प्याऊ बना है उससे गोपाल की गरीबी कट सकती हैयानी प्याऊ से बेरोजगारी और गरीबी का साइडइफेक्ट समाप्त हो सकता हैगोपाल अपने बड़े भाई गोविन्द की स्मृति में बने प्याऊ जिसका सामुदाययिक महत्व है को उजाड़कर उसका इस्तेमाल व्यक्तिगत हित में करना चाहता है।[4]

मन्नू जी के कथा का प्लाट आत्मकेन्द्रित होती दुनिया की एक आम परिघटना से उठाया गया है। क्योंकि हमें सर्दी में सड़कों पर सोते किसानों का दुःख दिखना बंद हो चुका है। सीवर में प्राण गंवाते सफाईकर्मीखेत खलिहानजंगल-पहाड़ के लिए लड़ते आदिवासियों की लड़ाई हमारी आँखों की परिधि में नहीं आती। आज का मध्यवर्ग इतना तकनीक और हुनरमंद हो चुका है कि उसे रामसिझावन और गोविन्द जैसे लोगों की चीत्कार एवं लाशों का कोई मतलब ही नहीं जान पड़ती है। किसान की आवाज कहीं सुनाई नहीं पड़ती हैबल्कि पटाखों की आवाज हरबार सुनाई पड़ती है। इन सब समस्याओं के निदान के लिए समाज को इस कहानी का पाठ कराना अति आवश्यक है। क्योंकि इस कहानी में खामोशी है। खामोशीगरीबीलाचारी और बेरोजगारी के साथ-साथ ही असहाय होते लोकतंत्र के लिए आवाज बनती नजर जरूर आती है क्योंकि लोकहित ही लोकतंत्र है।

कहना नहीं होगा कहानी के मूल में प्याऊ है। ‘‘गोपाल को किसने मारा’’? एक किसान के बेटों का अलग होने की दास्तान है। दोनों बेटों को बाजार ने लूट लिया। जबकि चालाकी तब होती जब एक पैर खेत में और दूसरा पैर बाजार में होता। पर ऐसा नहीं है यही विचारणीय है। बड़ा बेटा मामा के साथ अस्थाई रूप में बिजली विभाग में काम कर रहा था। जहाँ हादसे में उसकी मृत्यु हो जाती है। उसके कुछ मुआवजे बनते हैं। रामसिझावन मुआवजे को लेना नहीं चाहता है। मामा महेश जिसके वजह से गोविन्द को नौकरी शहर में मिली थी। उसके समझाने पर रामसिझावन गोविन्द के नाम पर शहर में एक प्याऊ बनवाने के नाम पर तैयार हो जाते हैं। पच्चीस सालों में गांवो में शहर घुसने लगता है। यानी शहर धीरे-धीरे गांव में पैर जमाने लगता है। वहीं रामसिझावन का छोटा लड़का गोपाल के नौजवान होते-होते गांव का जीवन मूल्य करवट लेने लगता है। जाहिर है जब मानवीय मूल्य बदलेगा तो इसका असर नौजवानों पर जरूरत पड़ेगा। यानी गोपाल का युवा मन शहर और गांव के द्वन्द्व में फंस गया। जिन्दगी के लिए द्वन्द्व बहुत खतरनाक चीज है। गौर करने की बात है कि रामसिझावन की पूरी उम्र खेती-बारी में ही बीत गई है।[5]

वह आम किसान की तरह जमीन से प्यार करने वाला है। जमीन ही उसकी जमीर है। वह अब भी चाहता है कि गोपाल भी उसी की  तरह खेती करके परिवार का पेट भरेमगरगोपाल चौखट के बाहर खड़े बाजार की आरती करने के लिए लालायित है।[6]  अक्सर देखने में आता है कि बुराई की जड़े सबसे पहले बड़े घरों में फैलती है। फिर धीरे-धीरे छोटे घरों तक पहुंचती है। सच्चाई तो यह है कि गाँव में कोई होचाहे युवा होबुजुर्ग होसबकी नजरे और पॉव गांव की जमीन में ही सने रहते थे पर शहर के आते ही युवा वर्ग के पॉव गांव के जमीन से उखड़ने के लिए बिल्कुल तैयार और ललचाई नजरों से शहर की ओर देखते हैं। इसकी शुरूआत रईसों के परिवार से होती है। जब वे गांव में आते हैं तो किसी बादशाह से कम नहीं अपने आपको समझते हैं। उनका रहन-सहनवेश-भूषाबोल-चाल देख सुनकर गांव के युवाओं के मन में भी न जाने कितने सपने सजने लगते ............! गोपाल की आंखों में सपने ही नहींउसके मन के परिसर में कुछ बुनियादी सवाल भी हैं। बुनियादी सवाल होना जायज है। क्योंकि पिता के किसानी सेसाथ ही उपज की कम कीमत से निराश होनाउसके तेवर में विद्रोह के स्वर हैं। डपटते हुए कहता है- क्या रखा हैइस पुश्तैनी खेती में। कठोर श्रम करने के बाद भी विश्राम नहीं मिलतान ही दो वक्त की रोटी नसीब होती है। ऐसा काम करने से क्या लाभ?

दरअसल मन्नू जी गोपाल के माध्यम से व्यवस्था पर चोट भी करती है। कहानी में बुनती भी हैं कि इस तर्क का जवाब सचमुच रामसिझावन जैसे गांव के गरीब किसान के पास नहीं है। न ही इस महादेश को चलाने वाली सरकारों के पास। यहाँ व्यवस्था जो गोपाल के मन में है वह जमीन बेचकर शहर में निराश और तनावग्रसित भीड़ में समा जाने वाली है। जाहिर है नगर और महानगर की आहो-हवा बहुत खराब है। लेकिन युवाओं का मन अगर कहीं लगता है तो वह कस्बों में ही है। उसके मोह से इतना ग्रसित होता है कि उससे छुटकारा पा ही नहीं पाता है। यही कारण है कि गोपाल शहर को एक सुविधा के रूप में देखता है। शहर उसको पैसा छापने वाली मशीन की तरह दिखती है। जहाँ सुविधा है वहाँ दुविधा है। सर्व विदित है कि पूंजी की नींव ही संवेदना की शहादत पर पड़ती है।[7]  गोपाल और रामसिझावन के बीच जो अन्तर है दोनों के अन्तरमन का अंतर है इन संवादांे से देखा जा सकता है-

उदाहरणार्थ रामसिझावन-

                ’’ई प्याऊ ना हरे

                तोहार बड़का भाई के .............

                अऊर तू है कि’’ ....................

गोपाल-अरे पच्चीस बरस बीत गयेउसे मरेखपे,

रामसिझावन- बेटा ई प्याऊ गोविन्दा की मौत की कमाई से बनी हौ

कइसे हक जमा सकत है हम ................

गोपाल- ‘‘धरम करम मुझे नहीं चाहिए ...............

मुझे बस दुकान के लिए प्याऊ चाहिए।’’[8]

पिता पुत्र के बेमेल संवाद सारी परिस्थितियों को खोलकर सामने रख देती है। हम कहना चाहते हैं कि मन्नू जी का गोपाल आज का गोपाल है। जैसा कि गोपाल का अर्थ है गो + पाल त्र यानी गायों की रक्षा करने वाला जब वह गांव में रहता तब तो वह गोपाल है। जबकि उसका मन कस्बे (शहर) में बसा हुआ है। तब वह क्या हो सकता है। यह भी प्रश्न खड़ा होता है। यह भी कारण बन सकता है कि गोपाल को किसने मारा। उसको कोई नहीं मारा बल्कि उसको उपभोक्ता वाद के साथ ही साथ बाजार ने मार डाला। गोपाल की तुलना प्रेमचंद के ईदगाह के हामिद से करें तो कुछ निष्कर्ष निकाला जा सकता है। हामिद अपनी दादी के लिए चिमटा खरीदने की पिक्र में है। ताकि दादी आमिना का रोटी सेकते हुए उसका हाथ न जले। पर ध्यान रहे कि मन्नू भण्डारी और प्रेमचंद में 100 साल का अंतर है। समय परिवर्तन शील है। सब कुछ बदल रहा है। तो गोपाल और हामिद में पर्क होना लाजिमी है। हम इस कहानी को ‘‘बाजार में रामधन’’ कैलाश वनवासी कृत से तुलना करें तो वहाँ रामधन की स्थिति लगभग रामसिझावन की तरह है। लेकिन जिस तरह बाजार की ताकत है। वहाँ रामधन की हार ही होती है। जैसे रामसिझावन की हार गोपाल के सामने होती है। पुत्र की तरह प्यारों बैलों को बाजार के हवाले करना पड़ता है। खैर इस बात को यही छोड़ते हैं।

दरअसल मन्नू भण्डारी के साथ यह कहानी इसलिए जुड़ती है कि वह अपने जीवन के पैंतीस वर्ष कलपते हुए काट देती हैं। अपने को इस बंधन से मुक्त नहीं कर पाती हैं। वैवाहिक जीवन की यंत्रणा और संत्रासपति की उपेक्षा व संवेदन हीनताजिसमें फंसकर उनका जीवनप्रतिभा और अस्मिता कराहती रहती है। सच में इसके पीछे एक स्त्री रचनाकार की जीवन दृष्टिचेतना और संवदेना को भी देखा जाना चाहिए।[9]  एलेन शोवाल्टर ने कहा था कि स्त्री साहित्य को जब भी पढ़ा जाना चाहिए उससे सामाजिकता की खोज होनी चाहिए। यानि किस तरह बदलाव आते हैं। किस तरह विकास होता है। उसकी दशा क्या है। इसे देखना आवश्यक है। प्रेमचंद की कहानियों के पुनः लेखन से लेकर समाज सेवा और कई कहानी संग्रह रचनाशीलता के साझी हैं। जैसे- पति से उन्हंे उपेक्षाभरपाई के लिए टिकू-दिनेश (पुत्री-दामाद) मोहन राकेश जीमित्रजैनेन्द्र का सानिध्य निर्मल जैन जैसी प्रबुद्ध स्त्रियों की संवेदनामैत्री साहचर्य भी उनके हिस्से में आया है। इन सब बातों के मूल में गोपाल को किसने मारा। इस कहानी के अंत पर ध्यान दिया जाय तो बात स्पष्ट होगी। अंततः प्याऊ को तोड़ जाने के दृढ़ संकल्प के साथ होता है। हम स्पष्ट करें अपने शोध लेख के सार को तो कहानी की सार्थकता इसी में है कि वह प्याऊ के तोड़े जाने के खिलाफ करुणा पैदा करती हैं। ’’करुणा’ ही मन्नू जी के जीवन की कहानी की ताकत है। जैसा कि गरिमा श्रीवास्तव जी लिखती हैं- फूल मरै पै मरै ना बासू। उनके करुणा को हम देख सकते हैं- उपहार स्वरूप मिली वनस्थली की खादी साड़ी पर अपनी छोटी-छोटी ऊँगलियाँ फिरती हैं। पंसद आई। जबाव में आँखें ऊपर उठा कर देखती हैं। मानों वह कहना चाहती हैं कि पुरुष की छाँव की दरकरार की कोई जरूरत नहीं है। मानों फिर अपनी रचित कहानियों, ’’अकेली’’ आपका बंटी में शकुन के अन्तर्द्वन्द्व और तलाक में त्रिशंकु हुए बच्चों के मनोविज्ञान पर बात कर रही हैं। वह स्वयं कहती हैं कि- यह ’’कैसी विडंबना है कि दूसरों की कहानियाँ रचते समय मुझे सामने वाले को उसकी सम्पूर्णता के साथ अपने में मिलाना पड़ता है। वह इस हद तक मिलाना पड़ता है कि स्व और पर के सारे भेद मिटाकर दोनों एकलय एकाकार हो जाते थें। उन्होंने रोगीवृद्धजड़हीनतापति आदि को देखा था। वहाँ से उनके मन में ’’करुणा’’ की लहर पैदा हुई थी जिसका प्रतिफलन, ’’गोपाल को किसने मारा’’ मृत्यु के पहले लिखकर हम सभी सुधि पाठकश्रोतालेखकारों को संदेेश दिया है जो कहानी का अंतिम प्रसंग है- यों कहले प्लाट है- मसलन हजारों मील पैदल चलते हुए मजदूर। मुश्किलों से जूझते किसानइलाज के बिना दम तोड़ते हुए लोगनदी में तैरती हुई लाशें। फुटपाथ बाजार से उजड़ते लोगनौकरी की उम्मीद लगाये नौजवानहवस का शिकार बनती स्त्रियाँपीटे जाते दलितदुर्भावना का शिकार बनते अल्पसंख्यक। यही सब मन्नू जी के कथा का प्लाट है।

निष्कर्ष गुस्से से भन्नाए हुए गोपाल ने गर्दन झटक कर कहा बहुत कहा समझाया, अपनी जरूरत बताई पर मानता ही नहीं बुढ़ऊ, बैठा रहने दो उसे अपने मरे बेटे और धरम-पुन्न को छाती से चिपकाए चलो मेरे साथ मैं ठिकाने लगाता हूँ ...... उसका पुन्न प्रताप। आखिर क्या बिगाड़ लेगा वह मेरा ............. और अपने दोनों दोस्तों के लेकर एक दृढ़ संकल्प के साथ वह प्याऊ की ओर बढ़ गया। यानी इंसानियत के दायरे से बाहर होता आदमी? यही मन्नू जी की कसौटी पर कथा है। और यही कलम की आखिरी कलमकारी है। यही उनके कहानी का प्लाट है। गोपाल को किसने मारा! मन्नू जी की राह ही हम सबकी राह होगी। अपनी कृतियों में नित नूतन होकर जीवंत रहेंगी। क्योंकि ’’करूणा’’ ही उनके पूरे जीवन की उपलब्धि है। सासों की लड़ाई हार गयी। फिसल ही गये रेत।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. हंस जनवरी 2022, पृ0 सम्पादकीय पृष्ठ से सुधा अरोड़ा जी। 2. हंस जनवरी 2022, पृ0 18, इंसानियत के बाहर होता आदमी, जनार्दन (कसौटी पर खरा) 3. वही, पृ0 18 4. हंस जनवरी, 2022, पृ0 20 5. वही, पृ0 20 6. वही, पृ0 20 7. वही, पृ0 20 8. वही, पृ0 21, इंसानियत के दायरे से बाहर होता आदमी- जनार्दन हंस, जनवरी 2022 9. आजकल- जनवरी-2022, पृ0 38, फूल मरै पै मरैना, वासू-गरिमा श्रीवास्तव