ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- IV July  - 2022
Anthology The Research
महात्मा ज्योतिराव फुले के विचार : मानवाधिकारों के विशेष सन्दर्भ में
Thoughts of Mahatma Jyotirao Phule: With Special Reference to Human Rights
Paper Id :  16043   Submission Date :  18/05/2022   Acceptance Date :  28/05/2022   Publication Date :  25/07/2022
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संजय कुमार
सहायक आचार्य
समाजशास्त्र
राजकीय लोहिया कॉलेज,
चुरू,राजस्थान, भारत
सारांश महात्मा ज्योतिराव फुले सामाजिक एवं राजनीतिक गुलामी के विरुद्ध थे। उन्होंने पेशवा के शासन व अंग्रेजी राज के अन्तर के सकारात्मक पक्ष को पहचान लिया था। उन्हें यह एहसास हो चुका था कि अंग्रेजी राज के दो पहलू है और एक अच्छा दिग्दर्शन है - आधुनिक शिक्षा का प्रसार एवं समान कानून संहिता। आधुनिक शिक्षा सबके लिए थी और कानून की दृष्टि में सब समान घोषित कर दिए गए। अंग्रेजी आगमन से पूर्व भारत में वर्ण व्यवस्था थी जिसके अनुसार ही किसी व्यक्ति केअधिकार सुनिश्चित थे। शूद्र वर्ण प्रत्येक क्षेत्र में उपेक्षित था। सभी वर्णों की महिलाओं के अधिकार सीमित थे। ऐसे में महात्मा ज्योतिराव फुले को अंग्रेजी राज में एक उम्मीद दृष्टिगत हो रही थी। वे भारत में अंग्रेजो के आगमन एवं उनके प्रशासन में महिला शिक्षा तथा सामाजिक राजनीतिक एवं आर्थिक समानता आदि मानवाधिकारों के प्रति आशान्वित थे।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Mahatma Jyotirao Phule was against social and political slavery. He recognized the positive side of the difference between the Peshwa rule and the British Raj. He had realized that the British Raj had two aspects and a good guide - the spread of modern education and a uniform law code. Modern education was for all and all were declared equal before the law. Before the advent of English, there was a caste system in India according to which the rights of a person were ensured. Shudra Varna was neglected in every field. The rights of women of all varnas were limited. In such a situation, Mahatma Jyotirao Phule was seeing a hope in the British Raj. He was hopeful about the arrival of the British in India and human rights like women's education and social, political and economic equality in their administration.
मुख्य शब्द सकारात्मक, दिग्दर्शन, सहिता, वर्णव्यवस्था, मानवाधिकार।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Positive, Guidance, Rights, Caste System, Human Rights.
प्रस्तावना
महात्मा ज्योतिराव फुले का जन्म एक माली परिवार में सन् 1827 में महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था। इनका परिवार फूलों की माला और गजरे बनाने का कार्य करता था इसलिए वे फुले के नाम से प्रसिद्ध हो गए। उस समय पुणे में पेशवा-शासन था जो कि अनैतिकता एवं अन्याय का अभिप्राय था शासन में बाह्मण वर्ग का वर्चस्व था। लोग अभी भी क्षत्रपति शिवाजी के शासन को याद करते थे जिसमें समाज के सभी वर्गों को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयास किया जाता था।
अध्ययन का उद्देश्य लेखक का शोध पत्र ‘‘महात्मा ज्योतिराव फुले के विचार मानवाधिकार के विशेष संदर्भ’’ का उद्देश्य यह सिद्ध करना है कि महात्मा ज्योतिराव फुले केवल समाज सुधारक व स्त्री उद्धारक ही नही बल्कि एक मानवाधिकार कार्यकर्ता भी थे।
मुख्य पाठ

प्रजाकल्याणकारी राज्य बीते समय का वृतान्त रह गया था। अब अकाल आदि समय में किसानों को राहत के स्थान पर अत्याचार सहन करना पड़ता था। प्रजा को कठिन समय में राहत के स्थान पर प्रताड़ना मिलती थी। बाजीराव द्वितीय के शासन-काल में चहुँओर गिरावट हो रही थी।

अंग्रेज भारत में स्थापित हो चुके थे। सन् 1818 तक अंग्रेजों का अधिकार समस्त भारत पर हो चुका था। दुनिया में भी कई महत्वपूर्ण घटनाएं घट चुकी थी जिनमें पुनर्जागरणधर्मसुधार आन्दोलनऔद्योगिक  क्रांति एवं फ्रांस की राज्य क्रांति आदि का प्रभाव अति महत्वपूर्ण रहा। फ़्रांस की क्रांति ने समूची दुनिया को स्वतत्रंताए समानता व बन्धुत्व का नारा दिया और लोगों को उद्वेलित किया। भारत में प्राचीन काल से सामाजिक संरचना में कई विषमताएं एवं अमानवीय लक्षण उपस्थित थे। डॉ योगमाया लिखती हैं कि सदियों से भारतीय सामाजिक व्यवस्था का सर्वाधिक निन्दनीय पक्ष जातिगत बन्धन रहा हैए जिसमें जन सामान्य को  जन्म के आधार पर तथाकथित जातीय अभेद्य दीवारो के मध्य कैद कर दिया गया। जाति-व्यवस्था द्वारा समाज के दीन-हीन कमजोर वर्ग पर कई प्रकार की सामाजिक वर्जनाएं थोप दी गई। समाज के बहुत बड़े हिस्से को अस्पृश्य कह कर समाज की मुख्य धारा से अलग-थलग कर दिया गया। ऐसे घोर अन्धकार, अशिक्षा एवं पाखंडवाद के युग में उन्नीसवीं सदी में महात्मा ज्योतिराव फुले बहुसंख्यक शुद्रादि-अतिशूद्रों के मसीहा बने।

अंग्रेजी राज्य की स्थापना से भारतीय समाज में हलचला हुई। फ्रांस से निकला स्वतंत्रतासमानता और बधुत्व का पैगाम अंग्रेजो के माध्यम से भारत से भारत  पहुँचा। नई परिस्थितियों ने जाति-व्यवस्थाछुआछूत और अस्पृश्यता पर प्रहार किया। अंग्रेजी शिक्षा के प्रवेश एवं प्रसार ने समाज में उदारता का वातावरण  बनाया। जाति-प्रथा के दुष्प्रभावों और खोखलेपन को रेखांकित किया गया और समाज-सुधार आंदोलन प्रारम्भ हुए। शहरों में बदलाव एवं उदारता दृष्टिगोचर होने  लगी परन्तु ग्रामीण जो कि बहुसंख्यक थेअभी भी परम्परागत नियमों पर ही चल रहे थे। दक्षिणी और उत्तरी भारत में जाति भेद के खिलाफ कई आंदोलन चले। अनेक महापुरूष इस दिशा में शिक्षा के महत्व को समझ रहे थे, जो कि सीमित वर्ग तक ही थी। महिलाएंचाहे किसी जाति की थीउनकी शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी। अनेक सुधारकों ने बहुदेववादजातिवादजाति-भेदबालविवाहसती-प्रथादेवदासी-प्रथा, कन्या हत्या आदि के विरूद्ध आवाज उठाई और अंग्रेजों ने कानून भी बनाए।

अंग्रेजो के सुधारवादी दृष्टिकोण से प्रभावित होकर  महात्मा ज्योतिराव फुले ईसाई मिशनरियों के संपर्क में आए और पश्चिमी जगत का ज्ञान प्राप्त किया। यदि पश्चिमी विचारकों की बात की जाए तो वे इंग्लैण्ड की अपेक्षा थामसपेन, फैकलिन, वाशिंगटन व लाफायते आदि अमेरिकी-फ्रांसीसी दर्शन से अधिक प्रभावित थे। ज्योतिराव फुले अमेरिकी शासन प्रणाली को बेहतर समझते थे और  भारत में भी ऐसी ही व्यवस्था चाहते थे। उनकी मानवाधिकार संबंधी मान्यता अमेरिकी सांचे में ही ढली थी। महात्मा फुले के विचारों पर बौद्ध धर्म का भी अत्यधिक प्रभाव था। अंग्रेजी शिक्षा, अमेरिका स्वतंत्रता आंदोलन, फ़्रांस की क्रांति व पाश्चात्य दर्शन आदि सबके परिणामस्वरूप वे मानव समानता, मानवाधिकार एवं मानव स्वतत्रंता आदि के पक्षधर हो गए। शिक्षा सम्पन्न होने पर ज्योतिराव फुले अपने पैतृक व्यवसाय में लग गए लेकिन उनमें एक  बेचैनी  रहती  थी। तभी सन् 1848 को उन्हें एक ब्राह्मण मित्र की बारात में जाने का निमत्रंण मिला और जाति नियमों के कारण अपमानित होना पड़ा। वहॉ मिली डॉट-फटकार से युवा ज्योतिराव स्तब्ध रह गया। इसका कारण उसके सामने प्रश्नवाचक बन खड़ा था। उत्तर भी स्पष्ट था कि इन सब अनर्थो की जड़ जाति-प्रथा है। पेशवा शासन में दलित वर्ग मानसिकसामाजिक और राजनीतिक गुलाम था। यह गुलामीराजनीतिक गुलामी से भी बद्तर थी। ज्योतिराव की समझ में आया कि सबसे पहले सामाजिक गुलामी भंग करना आवश्यक है। इसके उपरान्त ही दलित गुलामी के मकड़जाल से बाहर निकल सकेंगे। इसमें शिक्षा भी एक शस्त्र है। ज्योतिराव का विचार था कि अज्ञानता अंधकार है और शिक्षा आलोक है। शिक्षा, वह शस्त्र है जो अज्ञानता रूपी वृक्ष को धीरे-धीरे काटकर उसे जड़ सहित समूल नष्ट कर देती है।

ज्योतिराव ने अपने दीर्घ-योजना कार्यक्रम का श्रीगणेश 21 वर्ष की आयु में स्त्री-शिक्षा से किया। उन्होंने सन् 1848 में दलित बालिकाओं के लिए पुणे में स्कूल खोला। यह स्कूल एक क्रांतिकारी कार्य था। कट्टरपंथी इसे स्वीकार नहीं कर सकते थे क्योंकि उनकी मान्यता से शूद्रों को शिक्षा का अधिकार नहीं था लेकिन ज्योतिराव अडिग रहे। ज्योतिराव और अधिक मुखर हो गये और रु मनुस्मृति के निषेधात्मक आदेशों का पालन  नहीं  करें।[2] ज्योतिराव  का स्कूल  8 बच्चियों से प्रारम्भ हुआ[3]आगे चलकर यह संख्या 48 तक पहुँच गई। अब एक समस्या अध्यापक की हो गई। कोई भी पाप एवं भय के कारण अध्यापन के लिए तैयार नहीं हुआ। दृढ़-प्रतिज्ञ पुरूष ज्योतिराव ने इसका भी समाधान निकाल लिया और पत्नी सावित्रि को पहले तो स्वयं ने पढ़ाया और फिर उन्हें अध्यापन कार्य में लगा दिया। स्कूल के परिणाम दृष्टिगोचर होने लगे। सन् 1851, अक्टूबर 16 को राजकीय स्कूलों के निरीक्षक की रिपोर्ट में ज्योतिराव के स्कूल की प्रगति को सराहनीय बताया गया। सन् 1852 में उन्होंने पुणे में एक पुस्तकालय की स्थापना की। अंग्रेजी सरकार ने ज्योतिराव फुले को सार्वजनिक सम्मान दिया और शिक्षा के क्षेत्र में आपके योगदान की प्रशंसा की।

फुले ने सन् 1855 में एक नाटक तृतीय रत्न’ की रचना कीजो मराठी भाषा का पहला स्वतंत्र सामाजिक नाटक था। यह नाटक एक कुनबी किसान की स्त्री  तथा ब्राह्मण जोशी के मध्य वार्तालाप है, जिसमें प्रदर्शित किया गया है कि किस प्रकार एक ढ़ोगी ब्राह्मण अनिष्ट का भय दिखाकर भोले-भाले किसान परिवार से दान-पुण्य करवा कर उसे भिखारी बना देता है। सन 1869 में ज्योतिराव फुले ने एक पद्य रचना शिवाजी का पॅवाड़ाकी। इसमें दर्शाया  गया  है  कि  किस  प्रकार  ब्राह्मणी-व्यवस्था ने कुबनीमालीम्हार और मानंग आदि जातियों को मटियामेट कर दिया। इस रचना में छत्रपति शिवाजी के कार्यों की प्रशंसा की गई, जो अभी तक उपेक्षित रही। सन् 1869 में ही फुले ने शिक्षा विभाग के ब्राह्मण अध्यापक का पॅवाड़ामें ब्राह्मण अध्यापक के आचरण का चित्रण किया, जिसमें अध्यापक दलित बच्चों से तो खेतों में काम-बेगारी करवाता है और ब्राह्मणों के बच्चों को शिक्षा देता है। दलित बच्चों को छोटी सी गलती पर बड़ी सजा मिलती थी। ब्राह्मणों की चालाकीनामक पद्य रचना भी सन् 1869 में प्रकाशित हुई, इसमें बताया गया कि ब्राह्मणों ने झूठे ग्रन्थों की रचना के माध्यम से आडम्बर का  साम्राज्य स्थापित कर लिया। ब्राह्मणों को समाज से खूब दक्षिणा मिलने लगी। ब्राह्मण धनी हो गए और शूद्रों को कर्ज देकर उनकी जमीने हड़प ली।

ज्योतिराव फुले की एक ओर प्रमुख पुस्तक गुलामगीरी’ थीसन् 1873 में प्रकाशित इस पुस्तक को सामाजिक क्रांति का घोषणा पत्र कहा जाता है। इस पुस्तक में धर्म के नाम पर दलित समाज पर थोपी गई मानसिक और सामाजिक गुलामी का चित्रण है।[4] पुस्तक में कुल 16 अध्याय है, जिनमें 9 अध्याय ब्राह्मण प्रभुत्व के इतिहास पर केन्द्रित है। पुस्तक का लेखन संवाद के रूप में है। इस संवाद में ढोंढिबा नामक एक व्यक्ति प्रश्न पूछता और ज्योतिराव उत्तर देते हैं। गुलामगीरीपुस्तक की भाषा बहुत कटु है। पुस्तक में ब्राह्मण-पुरोहित परंपरा, ब्राह्मणों के देवी-देवताओं, धर्मशास्त्रों, पुराण, मनुस्मृति आदि सभी के प्रति विद्रोह है। उनकी प्रामाणिकता पर भी सवाल किए गए हैं।

सन् 1882 में ज्योतिराव ने हंटर शिक्षा आयोग के पास शिक्षा नीति के विषय में कुछ सुझाव भेजे और सार्वजनिक सामान्य शिक्षा की क्रियान्वति पर बल दिया। उनके अनुसार उच्च वर्ण, स्वयं के लिए शिक्षा की व्यवस्था करने में समर्थ है।[5] लेकिन दलित समाज सदियों से शिक्षा से वंचित रहा है, इनके शिक्षण एवं  सभी वर्णों की महिला शिक्षा के उपाय किए जाने चाहिए। फुले ने अंग्रेजी सरकार से शिक्षकों के वेतन बढ़ाने का आग्रह किया। ज्योतिराव की एक पुस्तक किसान का कोड़ासन् 1967 में प्रकाशित हुई। यह पुस्तक लिखी तो सन् 1883 में थी लेकिन सरकार ने प्रकाशित नहीं होने दी। फुले ने तत्कालीन भारतीय कृषि एवं कृषक  के विषय में उन्होंने जो  करूणदयनीय यथार्थ देखाउसे वास्तविक रूप में प्रस्तुत किया। पुस्तक में किसान की केवल अशिक्षा व दुर्दशा की ही व्यथा  नहीं थी अपितु उन्होंने किसानों के लिए एक समुचित योजना भी प्रस्तुत की।

ज्योतिराव फुले का एक पत्र ज्ञान प्रकाश’ में सन् 1877 की 24 मई को  प्रकाशित हुआ। यह पत्र आपने दयालु व दान-प्रवृति के लोगों को अकाल पीड़ितों की सहायता हेतु लिखा था। फुले बहुत ही संवेदनशील व्यक्ति थे। 4 दिसंबर 1884 को आपने अंग्रेजों को अल्पायु विवाह के खतरों विषयक राय भेजी। ध्यान रहे, अंग्रेज ज्योतिराव फुले के विचारों को काफी महत्व देते थे। फुले मानते थे कि अल्पायु विवाह से बǔचों का जीवन बरबाद हो जाता है। यही हाल ब्राह्मणों में है, विशेषकर बाल-विधवाओं का संपूर्ण जीवन अन्धकारमय हो जाता है। फुले का सुझाव था कि लड़कों का विवाह 19 वर्ष व लड़कियों का विवाह 11 वर्ष से पूर्व नहीं होना चाहिए। उन्होंने अंग्रेजी सरकार को ब्राह्मणों में विधवा-विवाह की पैरवी करते हुए पत्र लिखा। फुले ब्राह्मण विधवाओं के बाल काटने की प्रथा को भी अमानवीय मानते थे।

सन् 1884 में ज्योतिराव फुले ने अछुतों की कैफियतनामक पुस्तक की रचना की, इस पुस्तक में भारतीय दलितों का इंग्लैण्ड महारानी विक्टोरिया से संवाद है। पुस्तक में संवाद से भारतीय समाज की बुराइयों को उजागर किया है और महारानी से हस्तक्षेप व सुधार की प्रार्थना है। ज्योतिराव की पुस्तक सतसार सन् 1885 में दो भागों में प्र्रकाशित हुई। पुस्तक का प्रथम भाग, विदुषी रमाबाई पर केन्द्रित है। रमाबाई ब्राह्मण कुल में जन्मी थी, लेकिन इसकी बुराईयों से आहत होकर ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया। रमाबाई का मानना था कि ब्राह्मण धर्म महिलाओं के प्रति कठोर है। पुस्तक के दूसरे भाग में स्वयं ज्योतिराव एवं उनके पुत्र यशवंत में संवाद है। इसका विषय भी जाति-भेद एवं लिंग-भेद की खामियों को दर्शाना है।

सन् 1885 में ही ज्योतिराव की एक अन्य पुस्तक इशारा’ प्रकाशित  हुई। इस गद्य रचना में एक ब्राह्मण पात्र शूद्र से प्रश्न करता है कि हम आर्य-ब्राह्मणों की इतनी कम संख्या है और तुम्हारी संख्या हमसे 10 गुणा अधिक है फिर भी हम स्वामी है और तुम सेवक ! शूद्र कहता है कि इसका मूल कारण यह है कि अनेक शूद्रों ने आपका साथ दिया है। फिर शूद्र प्रश्न करता है कि भारत के आर्य-ब्राह्मणों और उनके शूद्रादि-अतिशूद्र की संख्या 20 करोड़ होने पर भी मुट्ठी भर मुसलमानों और अंग्रेजो ने आपको गुलाम कैसे बना लिया ! इस पुस्तक में ज्योतिराव ने शूद्रादि-अतिशूद्रों, किसानों, मजदूरों और बहुजन समाज को ब्राह्मणों की चालाकी भरी बातों से सावधान रहने के लिए कहा है। ज्योतिराव फुले ने 24 सितंबर 1873 को सत्यशोधक समाज’ नामक एक संस्था की स्थापना की, जिसकी शाखाएँ  महाराष्ट्र के अनेक शहरों में स्थापित हुई। इस संस्था से के द्वारा फुले के बाह्मणेत्त समाज के सांस्कृतिक विद्रोह को काफी  बल  मिला।  फुले  ने ब्राह्मणों द्वारा किए जाने वाले वैवाहिक मंत्रोधार के विकल्प विवाह-विधि की रचना की। अब शूद्रों को विवाह के लिए पुरोहित की आवश्यकता नहीं रही। सत्यशोधक समाज के कार्यकर्त्ता बिना ब्राह्मण-पुरोहित के विवाह सम्पन्न कराते थे, जिनमें मंगल गाथायें गाई जाती थी और वर-वधू एक-दूसरे का जीवन भर साथ निभाने की प्रतिज्ञा करते थे।[6] पूना से प्रारम्भ हुआ यह मांगलिक कार्य महाराष्ट्र के अन्य शहरों में भी पहुँचा। ज्योतिराव ने एक अखण्ड आदि काव्यरचना की, जो कि सन्त तुकाराम की तर्ज पर थी। इस पद्य रचना में जनता की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक दास्ता का वर्णन किया गया।

महात्मा ज्योतिराव फुले मानते थे कि समाज में अधिकांश समस्याओं के मूल  में ब्राह्मण-धर्म है। उनकी दृष्टि में ब्राह्मण केवल विषम समाज की रचना का निर्माता ही नहीं था अपितु विषमता की निरन्तरता का साजिशकर्ता भी था तथा उसके कारण शूद्रों एवं स्त्रियों का जीवन दूभर हो गया था। प्राचीन काल में हम भारत के निवासी समानता और बंधुत्व के आधार पर सुखमय जीवन व्यतीत करते थे, हमारी संस्कृत बड़ी समृद्ध थी जिसे आर्य-ब्राह्मणों ने नष्ट कर दिया और हम मूल निवासियों को अपना दास, दस्यु और गुलाम बना दिया। जिसकी निरन्तरता के लिए वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था बना डाली।[7] ज्योतिराव ने अन्य धर्मो पर भी अपने विचार प्रकट किए है। वे कहते हैं कि इस्लाम धर्म भाईचारा और समानता सिखाता है। कुरान की तरह बाइबिल भी प्रत्येक इन्सान के लिए सुलभ है। इसके विपरीत वेदों की कमियों को छुपाने के लिए बहुसंख्यक समाज के लिए वर्जित कर दिया। वे यह भी कहते है कि ईसाई और इस्लाम भी संपूर्ण नहीं है इसलिए अनुकरणीय नहीं है।[8] ज्योतिराव को बौद्ध धर्म में राहत मिलती है।

महात्मा ज्योतिराव फुले के सामाजिक तथा राजनीतिक विचारों की बुनियाद, मानवाधिकारों पर आधारित थी।  उनकी मानवाधिकार संकल्पना में धार्मिकता भी निहित थी। महात्मा जी की मान्यता थी कि ईश्वर सर्वशक्तिमान और सृष्टि का नियन्ता है, हम सब ईश्वर की सन्तान है। सर्वसाक्षी ईश्वर ने सभी मनुष्यों को सर्वसामान्य अधिकार दिए है। सभी मनुष्यों का प्रकृति पर भी समान अधिकार है। हम सबके के जनक ने सभी जीवों को उत्पन्न करते समय मनुष्य का जन्मजात रूप से स्वतंत्र प्राणी के रूप में निर्माण किया है और उसे आपस में समान अधिकार भोगने के लिए समर्थ बनाया है और इसी कारण प्रत्येक मनुष्य अधिकारपूर्ण पदों का भार संभालने का अधिकारी है। ज्योतिराव फुले के मानवाधिकार से संबंधित उनके विचारों पर अमेरिकी आंदोलन का भी प्रभाव था। जब  अंग्रेजों के उपनिवेश रहे हुए अमेरिकी राज्यों ने अंग्रेजों से औपनिवेशक अधिकार प्राप्त करने के प्रयास किए तब  मानवाधिकारों के स्वरूप, उद्गम और समर्थन विषयक बहुत चर्चा हुई। इसके मूल में यही विचार था कि औपनिवेशवासी नागरिकों के अधिकार ब्रिटिश संसद ने नहीं दिए है, वे तो अखिल मानवमात्र के अधिकार है और वे ईश्वर के पितृत्व के कारण प्राप्त हुए है। ज्योतिराव भी मानवाधिकारों को ईश्वर प्रदत्त मानते हैं।

महात्मा फुले ने महसूस किया कि भारत में बहुसंख्यक समाज शताब्दियों से मानवाधिकारों से वंचित किया गया है। इसका निराकरण वे राजनीतिक स्वतंत्रता में क्षणिक ही मानते थे। उनकी दृष्टि में जब तक भारतीय समाज में अभिन्नता दृष्टिगोचर नहीं होती तब तक अंग्रेजी राज्य की समाप्ति से भी कोई लाभ नहीं होने वाला है।

ज्योतिराव फुले, लार्ड रिपन द्वारा प्रस्तावित स्थानीय स्वराज्य का स्वागत नहीं करते है, क्योंकि उनकी स्पष्ट  राय थी कि इससे  केवल  मात्र  उच्च वर्ग को ही लाभ प्राप्त  होगा, वे शक्तिशाली होकर पुनः शूद्रों का शोषण करेंगे। उन्होंने आग्रह किया कि राजनीतिक स्वतत्रंता से पहले सामाजिक समानता प्राप्त हो जानी चाहिए। अन्यथा, जो स्वराज्य प्राप्त होगा उसका लाभ चंद लोगो तक ही सीमित रहेगा। हमें मानवाधिकार विषयक मुख्य बिन्दुओं स्वतत्रंता, समानता और बन्धुत्व आदि के बारे में यह  समझना होगा कि यह फ्रांस से पहले  भारत में  विद्यमान थे जैसा कि डॉ. अम्बेडकर कहा करते थे कि ये विशेषताएँ बौद्ध-धर्म में उपस्थित थी। महात्मा फुले भी जब ईश्वर का पितृत्व स्वीकारते है तो विश्वकुटुम्बवाद की निष्पति होती है और स्वतत्रंता, समानता व बन्धुत्व की सर्वोच्चता आलोकित होती है। ज्ञात रहे डॉ. भीमराव अम्बेडकर महात्मा बुद्ध व कबीर के साथ ज्योतिराव को भी अपना आदर्श मानते थे।[9] महात्मा ज्योतिराव फुले की संघर्ष-यात्रा में उनकी पत्नि सावित्री बाई फुले का साहचर्य अति महत्वपूर्ण है। सावित्री बाई ने महात्मा फुले के आंदोलन तथा क्रांतिकारी कार्यो में प्रत्येक स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह  किया। उन्होंने अपने पति के निधन के बाद सन् 1891 से 1897 तक सत्यशोधक समाजको नेतृत्व प्रदान किया।

निष्कर्ष ज्योतिराव फुले की साहित्यिक रचनाओं-पत्रों एवं विचारों से उनकी शूद्र, अतिशूद्र, अस्पृश्य, किसान-मजदूर एवं महिला-विषयक चिन्ता प्रकट होती है उनके कार्य-चिन्तन की शुरूआत धर्म-संस्था की आलोचना से होती है। फुले ने सत्यशोधक समाज के माध्यम से धार्मिक एवं सांस्कृतिक ऊँच-नीच के समाधान के लिए जन-जागरण अभियान चलाया। उनका स्पष्ट मत था कि यह सृष्टि ईश्वर की रचना है, इसमें उसकी सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य है और सभी मनुष्य समान है। भारतीय समाज में सभी नियमों के पीछे ब्राह्मण पड़यंत्र है। ब्राह्मणों ने अपनी सर्वेच्चता और स्वार्थ की पूर्ति के लिए ही सभी नियमों बनाए है, जिनको ध्वस्त करके ही अछूत-शूद्र-महिला को समानता का दर्जा मिल सकता है। ज्योतिराव फुले ने धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपना समस्त जीवन लगा दिया क्योंकि वे जानते थे कि इनके अभाव में मानवाधिकारों की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। महात्मा फुले को अंग्रेजी राज पर पूरा विश्वास था कि उनकी उपस्थिति से ही वंचित वर्ग और महिलाओं के मानवाधिकार प्राप्त हो सकते है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. डॉ. योगमाया-महात्मा ज्योतिराव फुले: दर्शन एवं चिन्तन, जयपुर, 2004, आमुख 2. कीर, धनजंय-फादर ऑफ सोशल रिवोल्यूशन, मुम्बई, 1991, पृ.सं. 29 3. जगताप, मुरलीधर-युगपुरूष महात्मा फुले, मुम्बई, 1993, पृ.सं. 145 4. फुले, महात्मा-गुलामगीरी, दिल्ली, 1990, पृ.सं. 136 5. महात्मा फुले द्वारा सन् 1882, अक्टूबर 19 को हंटर शिक्षा आयोग को लिखा गया पत्र 6. डॉ. योगमाया- पूर्वाक्त, पृ.सं. 68 7. चंचरिक, कन्हैया - महात्मा ज्योतिबा फुले, दिल्ली, पृ.सं. 13 8. कीर, धनंजय - पूर्वोक्त, पृ.सं. 247 9. निम, डी.आर - अम्बेडकर जीवन दर्शन, नई दिल्ली, 1991, पृ.सं. 27