P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- IX , ISSUE- IX May  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
शंकराचार्य के दर्शन में अतीन्द्रिय अहं प्रत्यय की संकल्पना
The Concept of The Supersensory Ego Concept in The Philosophy of Shankaracharya
Paper Id :  16119   Submission Date :  16/05/2022   Acceptance Date :  22/05/2022   Publication Date :  25/05/2022
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पूनम सिंह
पूर्व शोधार्थी
दर्शन शास्त्र
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
प्रयागराज,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश भारतीय दर्शन में वेदान्त को सभी दर्शनों की पराकाष्ठा माना जाता है। वेदान्त का प्रभाव केवल भारतीय दर्शन में परिलक्षित न होकर पाश्चात्य दर्शन में भी इसका प्रभाव स्पष्ट दिखता है। अद्वैत वेदान्त केवल अध्यात्मिक पक्ष से ही सम्बन्धित नहीं है बल्कि यह व्यवहारिक पक्ष से भी सम्बन्धित है। अद्वैत दर्शन का मुख्य उद्देश्य आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करके ब्रह्मरूपता को प्राप्त करना है। शंकराचार्य ने ब्रह्म के अद्वैत तत्व को मानकर अद्वैतवाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। ब्रह्म स्वभाव से स्वस्थ, शान्त तथा विशुद्ध रूप है। शंकराचार्य के दर्शन में ब्रह्म की पारमार्थिक सत्ता से तात्पर्य इसकी निर्गुण अथवा अतीन्द्रिय सत्ता से है। जीव और ब्रह्म में ऐक्य है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Vedanta is considered the culmination of all philosophies in Indian philosophy. The influence of Vedanta is not only reflected in Indian philosophy, but its influence is clearly visible in Western philosophy as well. Advaita Vedanta is not only related to the spiritual side but it is also related to the practical side. The main aim of Advaita philosophy is to attain Brahmanupta by realizing the Self. Shankaracharya propounded the principle of Advaita by accepting the non-dual element of Brahman. Brahma is healthy, calm and pure by nature. In the philosophy of Shankaracharya, the meaning of the transcendental being of Brahma is its nirguna or supersensuous being. There is oneness between Jiva and Brahman.
मुख्य शब्द ब्रह्म, आनुभविक अहं प्रत्यय, जीव, स्वरूप लक्षण, तटस्थ लक्षण, जगत।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Brahman, The Empirical Ego Concept, The Living Entity, The Form Characteristics, The Neutral Characteristics, The World.
प्रस्तावना
आदि शंकराचार्य एक महान पुरुष थे। 32 वर्ष के छोटे जीवनकाल में उन्होंने ऐसे कार्य किए जो शायद ही किसी साधारण मनुष्य द्वारा किए गए हों। अद्वैत वेदान्त की दार्शनिक महत्ता इस बात से सिद्ध होती है कि दार्शनिक परम्परा का कोई भी सम्प्रदाय ऐसा नहीं है जिस पर अद्वैत वेदान्त का प्रभाव न पड़ा हो। अद्वैत वेदान्त का दार्शनिक महत्ता का दूसरा पक्ष समन्वयवादिता है जिसके कारण अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्तों में परस्पर विरोध प्रतीत नहीं होता है। अद्वैत वेदान्त का तीसरा पक्ष परमार्थ सत्य के साक्षात्कार की प्रक्रिया एवं स्वरूप का निरूपण है। ब्रह्मज्ञान से अविद्या का नाश करके जीव के वास्तविक स्वरूप अर्थात् निर्गुण ब्रह्म के साक्षात्कार से अद्वैत वेदान्त के आध्यात्मिक पक्ष की महत्ता उजागर होती है। अद्वैत वेदान्त केवल आध्यात्मिक पक्ष से ही सम्बन्धित नहीं है बल्कि यह व्यवहारिक पक्ष से भी सम्बन्धित है। अद्वैत वेदान्त व्यवहारिक दृष्टिकोण से जगत की सत्यता का समर्थन करता है, इसके साथ ही जीवन दर्शन के उपयोगी तत्वों जैसे दया, प्रेम, सहिष्णुता, अहिंसा एवं विश्व बंधुता का समावेश मिलता है।
अध्ययन का उद्देश्य इस शोध पत्र का उद्देश्य शंकराचार्य के दर्शन में अतीन्द्रिय अहं के स्वरूप का विश्लेषण करना है। दर्शन जगत में भारतीय विचारधारा के दार्शनिक हो या पाश्चात्य दर्शन जगत के सभी ने आत्मतत्व के विश्लेषण पर जोर दिया है। भारतीय दर्शन में कर्मवाद की अवधारणा हो या पुर्नजन्म की अवधारणा इत्यादि विषयों का सम्बन्ध अहं प्रत्यय से है। इस शोध पत्र में शंकराचार्य के दर्शन में ब्रह्म का स्वरूप क्या है? अन्य वेदान्त दार्शनिकों ने ब्रह्म के स्वरूप को किस प्रकार बताया है। इसे विश्लेषित करना है।
साहित्यावलोकन
1. निधि सिंह ने अपने शोध शीर्षक शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म विमर्श में ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए ज्ञान मार्ग के लिए जो सोपान है उसको ग्रहण करने के पहले कैसे जीव में ब्रह्म ज्ञान की जिज्ञासा उत्पन्न होती है और कैसे जीव ज्ञान मार्ग के द्वारा अहम् ब्रह्मास्मि का बोध करता है इसकी विवेचना की है 2. प्रोफेसर त्रिपुरेश कुमार त्रिपाठी जी ने अपने शोध पत्र में कबीर और शंकराचार्य के दर्शन में ब्रह्म के जिस स्वरूप की विवेचना की है वह तत्वों से प्रारंभ तो होती है ,किंतु इसका मूल गंतव्य सत/अद्वैत है ।जीव ,जगत माया जो कि निर्गुण ब्रह्म से संबंधित है। जीव जो कि अज्ञानता वश अपने आपको ब्रह्म से भिन्न समझता है किंतु वह निर्गुण ब्रह्म है । ’अहम ब्रह्मास्मि ’यह वाक्य भी जीव और ब्रह्म की अभेदता का प्रतीक है ।जगत जोकि मिथ्या रूप है किंतु जब तक जीव को अपनी वास्तविकता का बोध नहीं हो जाता तब तक यह जगत सत्य प्रतीत होता है। माया जो कि निर्गुण ब्रह्म के अधीन है ,माया जगत ,जीव को प्रभावित करती है किंतु ब्रह्मा आ प्रभावित रहता है। इन सभी पक्षों की विवेचना त्रिपुरेश कुमार त्रिपाठी ने अपने शोध पत्र में किया है। 3. प्रज्ञा मिश्रा जिन्होंने शंकराचार्य और रामानुजाचार्य जगत विषयक विचारों का तुलनात्मक अध्ययन पर अपना शोध पत्र लिखा है ।इस लेख में प्रज्ञा मिश्रा ने जगत की अवधारणा के संबंध में शंकर और रामानुज के विचारों का तुलनात्मक अध्ययन किया है ।जगत की सत्ता चाहे शंकर के दर्शन से संबंधित हो या रामानुज दोनों दार्शनिकों ने जगत की सत्ता के संबंध में विचार भिन्न है, किंतु जगत की सत्ता कहीं ना कहीं ब्रह्म से संबंधित है। शंकराचार्य जगत की सत्ता को व्यावहारिक रूप से सत्य मानते हैं वही रामानुज जीव और जगत को ब्रह्मा से अभिन्न मानते हैं। 4. डॉ राजेश कुमार तिवारी ने अपनी पुस्तक ’आत्मा ’कांट शंकर की दृष्टि में कांट तथा शंकर के दर्शन में आत्मा के तीनों पक्षों अतिंद्रिय अहम प्रत्यय आनुभविक अहम प्रत्यय एवं नैतिक अहम प्रत्यय का तुलनात्मक अध्ययन किया है।
सामग्री और क्रियाविधि
विश्लेषणात्मक दार्शनिक पद्धति के द्वारा मुख्य रूप से भाषा का अध्ययन किया जाता है। वैसे भाषा का विश्लेषणात्मक दर्शन इन अध्ययनों से सहायता ले सकता है, परन्तु यह भाषा का अध्ययन इन सबों से भिन्न ढंग से करता है तथा भिन्न उद्देश्य से करता है। इन सभी अध्ययनों का उद्देश्य भाषा सम्बन्धी जानकारी है, भाषा के स्वरूप भाषा की संरचना भाषा का विन्यासात्मक रूप आदि के सम्बन्ध में जानकारी जुटाना है। यही कारण है कि इन सभी अध्ययनों का लक्ष्य भाषा की वैज्ञानिक जानकारी है। यही कारण है कि इन सभी अध्ययनों का लक्ष्य भाषा की वैज्ञानिक जानकारी है। इस प्रकार इन सभी अध्ययनों की विधि किसी न किसी प्रकार वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त होती है। परन्तु यह विश्लेषणात्मक दर्शन का लक्ष्य नहीं उसका लक्ष्य दार्शनिक है। उसका उद्देश्य एक ऐसी विधि को पकड़ना है जिसके द्वारा दार्शनिक समस्याओं का निदान किया जा सकता है। इनकी मान्यता है कि भाषीय प्रयोगों की अस्पष्टता अनेकार्थकता आदि के कारण दार्शनिक समस्याएँ बनकर उभरती है, परन्तु विश्लेषण पद्धति के द्वारा इस प्रकार की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। कुछ विचारकों का कहना है कि जिस प्रकार प्रत्येक विज्ञान-विचार की प्रत्येक शाखा का अपना शब्द भण्डार तथा अपना भाषीय ढंग होता है, उसी प्रकार दर्शन को भी अपना शब्द भण्डार और अपना भाषीय ढंग तय करना है।
विश्लेषण

शोध की समस्या
भारतीय दार्शनिक परम्परा में आत्म तत्व पर चिन्तन का प्रारम्भ उपनिषद काल से भारतीय मनीषियों द्वारा किया गया जो वेदान्त परम्परा तक अनवरत चलता रहा। उपनिषदों को भारतीय दर्शनों का मूल स्रोत माना जाता है। भारतीय दर्शन का ऐसा कोई भी सम्प्रदाय नहीं है जो उपनिषदीय विचारधारा से प्रभावित नहीं हुआ है। आत्मतत्व जो व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का केन्द्र बिन्दु है। आत्मा क्या है? इसका स्वरूप क्या है? यह प्रश्न जिज्ञासापद है। आत्मा का अस्तित्व और उसका स्वरूप मानव के सांस्कृतिक एवं वैचारिक जीवन से ही दार्शनिकों के लिए एक चिन्तन का विषय रहा है।
प्रायः सामान्य मनुष्य के विचार में आत्मा से तात्पर्य शरीर की क्रियाशीलता से समझता है। प्रायः लोग यह प्रश्न करते हैं क्या आत्मा को हम देख सकते हैं? क्या उसे अपनी आँखों से देख सकते हैं। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि आत्मा का आकार एक बाल के 10,000वाँ हिस्से के समान होता है। आत्मा एक अतिसूक्ष्म तत्व है। इसका प्रत्यक्ष हम शरीर में विद्यमान चेतना से कर सकते हैं।
अद्वैतवादियों ने कर्म द्वारा चित्त शुद्धि के सिद्धान्त को स्वीकार करके अद्वैत दर्शन को पूर्णतया व्यवहारिक दर्शन बना दिया है। अद्वैत दर्शन का मुख्य उद्देश्य आत्म स्वरूप का साक्षात्कार करके ब्रह्मरूपता को प्राप्त करना है। वेदान्त दर्शन के तीन आधार हैं- उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और भगवतगीता। इन्हें वेदान्त दर्शन में प्रस्थानत्रयी कहा जाता है। इन्हें क्रमशः श्रुति प्रस्थान, न्याय प्रस्थान और स्मृति प्रस्थान कहा जाता है।
भारतीय दर्शन में वेदान्त को सभी दर्शनों की पराकाष्ठा माना जाता है। वेदान्त दर्शन का प्रभाव केवल भारतीय दर्शन में परिलक्षित न होकर पाश्चात्य दर्शन में भी इसका प्रभाव स्पष्ट दिखता है। शंकराचार्य के दर्शन का केन्द्रीय मूल सिद्धान्त आत्मा या ब्रह्म ही है। अतीन्द्रिय दृष्टिकोण से आत्मा ब्रह्मस्वरूप है जबकि आनुभविक दृष्टिकोण से आत्मा अज्ञान जीव कहलाता है। शंकराचार्य के दर्शन का आधार उपनिषद् है। यद्यपि सम्पूर्ण भारतीय दर्शन का मूल आधार उपनिषद है किन्तु उपनिषद की जो व्याख्या वेदान्त दर्शन में प्रस्तुत की गयी अन्य दर्शन में इस प्रकार से नहीं की गयी है।
शंकराचार्य के दर्शन में अतीन्द्रिय अहं प्रत्यय को ब्रह्मस्वरूप माना गया है। शंकराचार्य ने अपने ब्रह्मसूत्र भाष्य में ब्रह्म की निम्नलिखित परिभाषा दी है- ‘‘अस्य जगतो नामरूपाभ्यां अनेक कर्तुभोक्तृसंयुक्तस्य प्रतिनियत देशकाल निमित्तक्रिया फलाश्रयस्य मनसा अपि अचिन्त्य रचनारूपस्य जन्म स्थितिभङ्ग मतः सर्वज्ञात् सर्वशक्ते कारणाद्भवति तद् अपि अचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभङ्ग मतः सर्वज्ञात् सर्वशक्ते कारणाद् भवति, तद् ब्रह्म1 अर्थात् नाम रूप के द्वारा अव्यक्त, अनेक कर्ताओं और भोक्ताओं से संयुक्त, ऐसे क्रिया और फल के आश्रय जिसके देशकाल और निमित्त व्यवस्थित है, मन से भी जिनकी रचना के स्वरूप का विचार नहीं हो सकता। ऐसे जगत की उत्पत्ति, स्थिति एवं नाश सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान कारण से होते हैं, वह ब्रह्म है।
ऋग्वेद की हंसवती ऋचा के अन्तर्गत समस्त प्राणियों के चित में स्थिति एवं उपाधि रहित निर्गुण परमात्व तत्व का वर्णन हंस के रूप में किया गया है। कठोपनिषद् में परब्रह्म को शब्द, रूप, रस तथा गन्ध से रहित एवं अविनाशी, नित्य, अनादि, अनन्त, परात्पर और धु्रव कहा है। शंकराचार्य ने ब्रह्म को सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्वीकार किया तथा आनुभविक अहं प्रत्यय को निर्गुण ब्रह्म का रूप माना।
छान्दोग्य उपनिषद् में यह कहा गया है कि यह सत् तथा उसके अतिरिक्त सब कुछ आत्मा ही है। वृह्दाण्यक कहता है कि आत्मा को जान लेने से सर्वस्य ज्ञात हो जाता है। अद्वैत वेदान्त में ब्रह्म का जो स्वरूप है वह उपनिषद के परिणामस्वरूप ही प्राप्त होता है। शंकराचार्य ने जिस निर्गुण ब्रह्म के स्वरूप को स्वीकारा है वह तर्क प्रतिपाद्य न होने के कारण अनुभवगम्य है। वेदान्त परिभाषाकार का कथन है। यद्यपि यह ब्रह्मतत्व कोई द्रव्य स्वरूप नहीं है। यदि ब्रह्म की सत्ता द्रव्य रूप में स्वीकार किया जाए तो बाह्य जगत में उसके आधार की भी कल्पना करनी होगी। ब्रह्म ज्ञान सर्वोच्च ज्ञान है। ब्रह्म ज्ञान से ही संसार का ज्ञान जो मूलतः अज्ञान है, समाप्त हो जाता है। ब्रह्म अनन्त सर्वव्यापी तथा सर्वशक्तिमान है। वह व्यवहारिक जगत का आधार है। जगत ब्रह्म का विवर्त है परिणाम नहीं। जगत की विवर्तता का ब्रह्म पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। शंकराचार्य ने ब्रह्म को सभी प्रकार के भेदों से रहित माना।
शंकर का ब्रह्म रामानुज से भिन्न है। शंकर ने ब्रह्म को ही आत्मा माना है। शंकर का ब्रह्म प्रत्यक्ष विरोध और सम्भावित विरोध से शून्य है। रामानुज ब्रह्म को व्यक्तित्व युक्त मानते हैं। शंकर के दर्शन में ब्रह्म का अस्तित्व स्वतः सिद्ध माना है जैसा कि स्पिनोजा के दर्शन में ईश्वर की सत्ता को माना गया हैै। श्रुति वाक्यों के अनुसार ब्रह्म ज्ञान और ब्रह्म-भाव एक है। ब्रह्म ज्ञान में कोई क्रिया नहीं है, क्योंकि जीव सदैव ब्रह्म है।
ब्रह्म के दो लक्षण माने गए हैं- (1) स्वरूप लक्षण (2) तटस्थ लक्षण। तटस्थ लक्षण वस्तु के आगन्तुक और परिणामी धर्मों का वर्णन करता है। स्वरूप लक्षण वस्तु के तात्विक स्वरूप को प्रकाशित करता है। ब्रह्म ही जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण है। ब्रह्म ही जगत का उपादान एवं निमित्त कारण है।
रामानुज ने ब्रह्म को केवल निमित्त कारण माना है और प्रकृति को उसका उपादान कारण माना है। शंकर के अनुसार ब्रह्म जगत का विवर्त है परिणाम नहीं।
निर्गुण ब्रह्म निराकार, अविर्चनीय है जबकि सगुण ब्रह्म विचारों द्वारा चिन्तनीय है। ईश्वर पारमार्थिक ब्रह्म का आभास मात्र है। ईश्वर की सत्ता माया द्वारा प्रतिबिम्बित होते हुए भी ईश्वर की सत्ता को मिथ्या नहीं कहा जा सकता क्योंकि यही सगुण ब्रह्म जीवों का प्रेरक है। ईश्वर व्यवहारिक जगत की सर्वोच्च सत्ता है। एक ही ब्रह्म पारमार्थिक दृष्टि से निर्गुण तथा व्यवहारिक दृष्टि से सगुण है। गुणों से युक्त होने के कारण ईश्वर इस जगत का सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता एवं संहारक है।

निष्कर्ष ब्रह्म से सृजित यह जगत व्यवहारिक दृष्टिकोण से पूर्ण है। अज्ञान नष्ट होने पर पूर्ण ब्रह्म ही एकमात्र सत् रहता है। ब्रह्म और ईश्वर दो सत्ताए नहीं बल्कि अज्ञानता के कारण व्यवहारिक जगत का जीव निर्गुण ब्रह्म को सगुण ईश्वर के रूप में परिभाषित करता है। ईश्वर और ब्रह्म में कोई अन्तर नहीं है। ईश्वर निम्नतर दृष्टिकोण है और सगुण ईश्वर उच्चतर ब्रह्म तक पहुँचने की सीढ़ी है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. निधि सिंह(शोध छात्रा),(2018): शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म विमर्श, शोध सौर्यम इंटरनेशनल साइंटिफिक refereed रिसर्च जर्नल। 2. तिपुरेश कुमार कुमार त्रिपाठी, असिस्टेंट प्रोफेसर (2019): कबीर के दार्शनिक चिंतन में शंकर अद्वैत वेदांत दृष्टि, श्रृंखला एक शोध परक वैचारिक पत्रिका। 3. प्रज्ञा मिश्रा, (2019): शंकराचार्य और रामानुज के जगत विषयक विचारों का तुलनात्मक विश्लेषण, रिव्यू ऑफ़ रिसर्च ,यूजीसी अप्रूव्ड जनरल। 4. डॉ राजेश कुमार तिवारी, (2011): आत्मा कांट शंकर की दृष्टि ,(प्रथम संस्करण) इलाहाबाद विश्वविद्यालय,इलाहाबाद। 5. टीका ,रत्नप्रभा (1934) ब्रह्मसूत्र भाष्य अच्युत ग्रंथावली, काशी। 6. सरस्वती ,स्वामी सत्यानंद (2016): ब्रह्मसूत्र शंकर भाष्य(हिंदी अनुवाद ) चौखंभा संस्कृत प्रकाशन । 7. भारतीय दर्शन, डॉ0 दासगुप्ता, दिल्ली तृतीय संस्करण, 1973। 8. प्रो0 संगम लाल पाण्डेय, आधुनिक दर्शन की भूमिका (द्वितीय संस्करण), दर्शन पीठ, इलाहाबाद, 1973। 9. ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य (चतुसूत्री), रमाकान्त त्रिपाठी। 10. ब्रह्मसूत्र भाष्य, रत्न प्रभा टीका, अच्युत ग्रन्थावली, काशी।
अंत टिप्पणी
1. शा0भा0, ब्र0सू0 1/1/2।
2. कठ0 उ0 1/3/15।
3. शा0भा0, ब्र0सू0 1/1/2।
4. शा0भा0, वृ0उ0 2/4/9।
5. यतो व इमानि भूतानि जयन्ते, येन जातानि जीवन्यित् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद् ब्रह्म, तैतिरीय उपनिषद्।