P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- IX , ISSUE- IX May  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
कृषकों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति पर औद्यानिकी (Horticulture) का प्रभाव - जनपद मेरठ का एक भौगोलिक अध्ययन
Effect of Horticulture on the Social and Economic Condition of Farmers - A Geographical Study of District Meerut
Paper Id :  16098   Submission Date :  04/05/2022   Acceptance Date :  16/05/2022   Publication Date :  25/05/2022
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सोनू कुमार
शोधार्थी
भूगोल
दिगंबर जैन कॉलेज
बरौट, बागपत ,उत्तर प्रदेश, भारत
सुरेश कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर
भूगोल
दिगंबर जैन कॉलेज
बरौट, बागपत, उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश भारत में कृषि प्रणाली में तीव्र गति से परिवर्तन हुआ है। हरित-क्रांति के पश्चात न केवल भारत खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बन गया है, बल्कि कृषि उत्पादों का निर्यातक भी बना है। 1990 के दशक के पश्चात कृषि प्रणाली में तीव्र गति से परिवर्तन हुआ है, जिसका प्रमुख कारण तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या की भोजन की आपूर्ति तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को उभारना है। भारतीय कृषक गरीबी के दलदल में फंसकर अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूर्ण करने में भी असमर्थ हैं। कृषि में तकनीकी के विकास ने ग्रामीण क्षेत्र में फसलों के प्रतिरूप में परिवर्तन किया है। कृषक खाद्यान्न उत्पादन से अधिक वरीयता ‘बागानी कृषि’ को दे रहा है, जिसका प्रमुख कारण न्यूनतम संसाधनों का अधिकतम उपयोग करके उच्च लाभांश प्राप्त करना है। बागानी कृषि का क्षेत्रफल निरन्तर बढ़ता जा रहा है, क्योंकि कृषकों के पास उपलब्ध भूखण्डों (जोतों) का आकार बहुत छोटा है, जिसमें वह खाद्यान्न उत्पन्न कर अपने परिवार की आजीविका नहीं चला पाता है। इसलिए कृषक ‘हार्टीकल्चर’ को वरीयता प्रदान कर रहे हैं। इस प्रकार की कृषि ने कृषकों की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The agricultural system in India has changed at a rapid pace. After the Green Revolution, not only India has become self-sufficient in food production, but it has also become an exporter of agricultural products. The agricultural system has undergone rapid changes since the 1990s, mainly due to the supply of food to the rapidly growing population and the upliftment of the rural economy. The Indian farmers are incapable of fulfilling even their minimum requirements by being trapped in the quagmire of poverty. The development of technology in agriculture has changed the pattern of crops in rural areas. The farmer is giving preference to 'horticulture agriculture' over food grain production, the main reason for which is to get high dividends by making maximum use of minimum resources. The area of ​​plantation agriculture is increasing continuously, because the size of the plots (holdings) available with the farmers is very small, in which he is unable to earn his family's livelihood by producing food grains. That's why farmers are giving preference to 'Horticulture'. This type of agriculture has played an important role in strengthening the economic condition of the farmers.
मुख्य शब्द औद्यानिकी, बागवानी, कृषि विकास, सामाजिक परिवर्तन, आर्थिक परिवर्तन।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Horticulture, Horticulture, Agricultural Development, Social Change, Economic Change.
प्रस्तावना
भारत की अधिकांश जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है, उसकी आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि तथा पशुपालन है। कृषि ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य स्रोत है। छोटे एवं सीमान्त कृषक जिनके पास या तो कृषि भूखण्डों का अभाव है या कृषि भूखण्डों का आकार बहुत छोटा है, वह अपनी आजीविका चलाने में वर्तमान में असमर्थ हैं। पुरानी कृषि पद्धति उनके आर्थिक विकास में बाधक बनी हुई है। पुरानी व अप्रचलित कृषि तकनीकी उत्पादन को प्रभावित करती है। वह अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को भी पूर्ण करने में असमर्थ हो गया है। कृषि एवं कृषक दोनों के पिछड़ेपन का प्रमुख कारण कृषि तकनीकी का अपेक्षाकृत कम प्रयोग तथा कृषि तकनीकी में होने वाले परिवर्तनों की जानकारी का अभाव है। जनसंख्या का दबाव कृषि पर निरन्तर बढ़ता जा रहा है। जनसंख्या का कृषि पर दबाव बढ़ने के कारण न केवल गरीबी एवं बेरोजगारी की समस्या ने जन्म लिया है, बल्कि पर्यावरणीय समस्याऐं भी उत्पन्न हो गयी हैं। कृषि भूमि के अत्यधिक उपयोग से मृदा में अनुर्वरता की समस्या उत्पन्न हो गयी है। रासायनिक खादों के प्रयोग ने मृदा की उपजाऊ क्षमता को प्रभावित किया है। कृषक मुख्य रूप से खाद्यान्न फसलों के उत्पादन को वरीयता प्रदान कर रहा है, जिस कारण उसकी आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं हो पा रहा है, क्योंकि खाद्यान्न फसलों के उत्पादन में श्रम, धन व समय की खपत अधिक है, जबकि लाभांश अपेक्षाकृत कम प्राप्त होता है। बागवानी कृषि न केवल कृषकों के सामाजिक एवं आर्थिक विकास को सुदृढ़ करने में सक्षम है, बल्कि मृदा की उर्वरा क्षमता को भी लम्बी अवधि तक बनाये रखती है। साथ ही मृदा में होने वाली विभिन्न पौषण तत्वों की कमी को भी दूर करने में योगदान प्रदान करती है। ग्रामीण क्षेत्रों में वर्तमान समय में मांग के अनुरूप कृषि फसलों के उत्पादन में तीव्र गति से परिवर्तन हुआ है। छोटे एवं सीमान्त कृषकों ने अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने हेतु ‘हार्टीकल्चर’ को वरीयता प्रदान की है। हरित-क्रांति ने कृषि विकास की अपार संभावनाऐं कृषकों को उपलब्ध करायी हैं। उन्नत किस्म के बीजों के प्रयोग ने उत्पादन को कई गुना बढ़ा दिया है, जिससे न केवल कृषकों की आय में वृद्धि हुई है बल्कि जनसंख्या को कृषि उत्पादनों की आपूर्ति संभव हो सकी है। वर्तमान समय में कृषि विकास हेतु विभिन्न प्रकार की सरकारी परियोजनाऐं चलायी गयी हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य कृषि को विकसित कर कृषकों की आर्थिक स्थिति में सुधार करना है। बागवानी कृषि से वर्ष पर्यन्त आय प्राप्त होती है, जिससे कृषकों की आर्थिक स्थिति मजबूत होती है। साथ ही साथ अन्य फसलों की तुलना में बागवानी कृषि में लाभांश अधिक प्राप्त होता है। इसके साथ ही एक वर्ष में कई फसलों का उत्पादन किया जाता है, जिससे कृषकों की आर्थिक स्थिति में सुधार होता है। इसके अतिरिक्त वर्ष पर्यन्त बागवानी उत्पाद की बाजार में मांग बनी रहती है, इसलिए कृषकों ने खाद्यान्न फसलों को कम करके बागवानी कृषि को वरीयता प्रदान की है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोध पत्र को पूर्ण करने हेतु निम्नलिखित उद्देश्यों को चयनित किया गया है- 1. बागवानी कृषि के बदलते प्रतिरूप का मूल्यांकन करना। 2. बागवानी कृषि से उत्पन्न रोजगार के अवसरों तथा कृषकों के आर्थिक विकास की दर को ज्ञात करना। 3. कृषि विकास के तकनीकी कारकों को ज्ञात करना।
साहित्यावलोकन
प्रस्तुत शोध पत्र को पूर्ण करने हेतु शोधकर्ता ने स्वदेशी एवं विदेशी विद्वानों के शोध कार्यों का अध्ययन किया है। शोध समस्या से सम्बन्धित विभिन्न विद्वानों द्वारा किये गये शोध कार्यों के विवरण को निम्न प्रकार से वर्णित करने का प्रयास किया गया है- अली (2000) ने अपने शोध पत्र में सब्जियों की कृषि के उत्पादन, वितरण तथा उपभोग पर एशिया के संदर्भ में विस्तृत वर्णन प्रस्तुत कर इसके ग्रामीण अर्थ व्यवस्था पर प्रभाव तथा कृषकों की आय में वृद्धि के परिवर्तन को दर्शाया। इन्होंने अपने शोध में पाया कि सब्जियों की कृषि कृषकों की आय तथा रोजगार में वृद्धि करती है। राधा एवं प्रसाद (2001) ने अपने शोध में पाया कि सब्जियों की कृषि खाद्यान्न कृषि से अधिक लाभांश प्रदान करती है। इन्होंने अपना शोध आन्ध्र प्रदेश के करीम नगर जिले पर किया। यह कृषि लघु एवं सीमान्त कृषकों द्वारा अधिक उत्पन्न की जाती है। तिवारी एवं भगत (2002) ने अपना शोध मध्य प्रदेश के रीवा जनपद पर प्रस्तुत किया। इन्होंने अपने शोध में सब्जियों के उत्पादन का विश्लेषण किया। इन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि सब्जियों की कृषि में लाभांश की प्राप्ति अधिक है और रोजगार के उच्च अवसर उपलब्ध हैं। तालाती (2003) ने अपना अध्ययन ‘21वीं शताब्दी में फल एवं सब्जियों की मांग’ पर प्रस्तुत किया। इन्होंने भारत में फल एवं सब्जी की मांग एवं पूर्ति को विश्लेषित किया। इन्होंने बताया कि पिछले दशक में भारत ने सब्जियों का निर्यात किया है, जिससे अर्थव्यवस्था को गति मिलती है। कुमार (2004) ने अपना शोध सब्जियों के उत्पादन तथा वाणिज्यिक पर अंडमान निकोबार द्वीप समूह के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया। इन्होंने अपने शोध में पाया कि अदरक की कीमत खीरा, करेला, मिर्च तथा तुराई से अधिक है। इन्होंने उक्त फसलों की कीमत का थोक एवं फुटकर मूल्य के आधार पर अध्ययन प्रस्तुत किया। साथ ही इनके लाभांश को भी विश्लेषित करने का प्रयास किया। सिंह (2005) ने अपना अध्ययन उत्पादन एवं विपणन की आर्थिकी पर मध्य प्रदेश में कुछ चयनित सब्जियों के आधार पर किया। इन्होंने पाया कि टमाटर, प्याज, अरबी, बैंगन, आलू तथा ओकरा की कृषि छोटे कृषकों के लिये लाभदायक है। सिंह एवं बानाफर (2006) ने गोभी के विपणन एवं उत्पादन पर एक परीक्षण छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले पर प्रस्तुत किया। इन्होंने पाया कि गोभी के उत्पादन में लागत अपेक्षाकृत कम तथा लाभांश अधिक है। बिरठल एवं जोशी (2007) ने अपना अध्ययन छोटे कृषकों द्वारा उत्पन्न की जाने वाली सब्जियों की कृषि उत्पादन तथा लाभांश पर प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि छोटे कृषकों के पास कृषि जोतों का औसत आकार 0.6 हेक्टेयर है। इन्होंने पाया कि इनकी आय 2.0 हेक्टेयर भूखण्ड वाले कृषकों से अधिक है। इन्होंने पाया कि खाद्यान्न के उत्पादन में कमी आयी है, जबकि सब्जियों के उत्पादन में वृद्धि हुई है। मित्तल (2008) ने अपने शोध को मुख्य आवश्यक कृषि उत्पाद तथा उनकी मांग एवं पूर्ति को विश्लेषित किया। इन्होंने पाया कि जिस तीव्र गति से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, उस अनुपात में कृषि के उत्पादन में वृद्धि नहीं हो पा रही है। साथ ही कृषि उपज की गुणवत्ता में कमी आ रही है। सब्जियों की मांग में निरन्तर वृद्धि हो रही है। अल हसन (2009) ने अपने अध्ययन में पाया कि सब्जियों की कृषि से न केवल लाभांश अधिक प्राप्त होता है, बल्कि रोजगार के अवसरों में भारी वृद्धि होती है। ग्रामीण स्तर पर महिलाओं को सर्वाधिक रोजगार सब्जियों की कृषि से प्राप्त होते हैं। आहूजा एवं आहूजा (2010) ने अपने शोध पत्र में कुछ चयनित सब्जियों की कृषि के उत्पादन तथा उनसे प्राप्त आय के संदर्भ में विश्लेषण प्रस्तुत किया। इन्होंने टमाटर, प्याज, मिर्च तथा गोभी जैसी फसलों के उत्पादन का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया, जिसमें इन्होंने 1991-92 से 2005-06 के कृषि उत्पादन को आधार माना तथा सब्जियों के महत्व को बताया। टमाटर का उत्पादन सबसे अधिक तथा मिर्च व बैंगन का उत्पादन इसके पश्चात पाया। शर्मा एवं जैन (2011) ने अपने शोध में उच्च मूल्य वाली फसलों के उत्पादन का अध्ययन किया तथा इनके भविष्य को बताया। इन्होंने बताया कि पिछले दो दशकों में कृषि उत्पादन का प्रतिरूप बदला है। कृषि प्रतिरूप बदले का प्रमुख कारण ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्र में सब्जियों की मांग में होने वाला परिवर्तन है। बाजार में फल, सब्जियों, दुग्ध उत्पादन तथा मांस इत्यादि की मांग में तीव्र गति से परिवर्तन हुआ है। उच्च मूल्य वाली फसलों की भागीदारी 1983-84 में 37.3 प्रतिशत थी, जो वर्ष 2007-08 में बढ़कर 47.4 प्रतिशत हो गयी है। उच्च मूल्य वाली फसलों का उत्पादन बढ़ाकर निर्यात का प्रारम्भ किया तथा विदेशी मुद्रा का अर्जन किया। यादव एवं राय (2012) ने अपने शोध में मुख्य सब्जियों के उत्पादन तथा उनकी आर्थिकी को व्यक्त करने का प्रयास किया। इन्होंने अपना शोध कार्य उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जनपद में सब्जियों के उत्पादन की आर्थिकी को समझने हेतु प्रस्तुत किया। इन्होंने टमाटर की फसल में लागत अपेक्षाकृत कम तथा लाभांश को अधिक बताया। इन्होंने पाया कि टमाटर की कृषि में लागत रू॰ 1 है तो लाभांश रू॰ 2.75 है। गोभी में लाभांश 2.35 रू॰ तथा मटर में 1.20 रू॰ है। सामरा एवं कटारिया (2014) ने सब्जियों के उत्पादन को पंजाब राज्य में छोटे भूखण्डों के आधार पर विश्लेषित किया। इन्होंने पाया कि यहां पर छोटे किसान 66.3 प्रतिशत भूभाग पर सब्जियों की कृषि करते हैं, जिससे उन्हें प्रति हेक्टेयर अधिक आय प्राप्त होती है। इन्होंने भूखण्ड आकार के आधार पर फसल सघनता को भी ज्ञात करने का प्रयास किया, जिसमें इन्होंने छोटे कृषि भूखण्डों में फसल सघनता सूचकांक 281 प्रतिशत पाया। इसके साथ ही इन्होंने पाया कि सब्जियों की कृषि लघु कालिक कृषि है, जिसमें लाभांश अधिक प्राप्त होता है। ओलूवसोला (2015) ने सब्जियों की कृषि के महत्व का परीक्षण किया। इन्होंने नाजिरिया के ओयो राज्य में सब्जियों की कृषि को आजीविका एवं रोजगार सृजन का प्रमुख स्रोत बताया। यह कृषि छोटे एवं सीमांत कृषकों की आजीविका का मुख्य आधार है। रईस एवं श्योरान (2015) ने अपने शोध में पाया कि भारत में फल एवं सब्जियों की कृषि ग्रामीण आर्थिकी का प्रमुख आधार है। यह रोजगार के उच्च अवसर प्रदान करती है। रहमान हसीबुर (2019) ने अपना अनुसंधान का कार्य फसल प्रतिरूप विभेदीकरण एवं कृषि विकास के संदर्भ में प्रस्तुत किया। इन्होंने अपने शोध में पाया कि फसल प्रतिरूप में परिवर्तन से न केवल छोटे कृषकों की आय में वृद्धि हुई बल्कि रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि हुई है। फसल प्रतिरूप में परिवर्तन छोटे कृषकों ने बाजार में उच्च मूल्य वर्ग की फसलों की मांग के अनुसार किया है। इसके साथ ही बाजार में गैर खाद्यान्न उपज की मांग अधिक बढ़ने से कृषकों ने मुर्गी पालन, पशु पालन, मत्स्यन पालन इत्यादि की कृषि को वरीयता प्रदान की है।
मुख्य पाठ

शोध समस्या
प्रस्तुत शोध पत्र कृषकों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति पर औद्यानिकी कृषिके प्रभाव को दर्शाता है। कृषकों के पास भूखण्डों (जोतों) का आकार बहुत छोटा है, जिससे वह कृषि तकनीकी का प्रयोग करने में असमर्थ है। इसके साथ ही अप्रचलित कृषि प्रणाली को अपनाने के कारण कृषकों की आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं हो पा रहा है। बाजार मांग के अनुरूप कृषि का उत्पादन न करना कृषकों के आर्थिक विकास में बाधक बना हुआ है। धान्य फसलों के उत्पादन से कृषकों की आर्थिक स्थिति दयनीय बनी हुई है।
अध्ययन क्षेत्र
प्रस्तुत शोध पत्र को पूर्ण करने हेतु मेरठ जनपद के ग्रामीण क्षेत्र को चयनित किया गया है। जनपद मेरठ पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक विकसित कृषि प्रधान क्षेत्र है, जहां पर कृषि विकास की अपार संभावनाऐं निहित हैं। मेरठ जनपद का अक्षांशीय विस्तार 28ह्57श् उत्तरी अक्षांश से 29ह्02श् उत्तरी अक्षांश तथा देशान्तरीय विस्तार 77ह्40श् से 77ह्45श् पूर्वी देशान्तर के मध्य अवस्थित है। इसका भौगोलिक क्षेत्रफल 2522 वर्ग किमी॰ है। इसकी उत्तरी सीमा पर जनपद मुजफ्फरनगर, उत्तर पूर्वी सीमा पर बिजनौर, पूर्वी सीमा पर अमरोहा, दक्षिणी सीमा पर गाजियाबाद, पश्चिमी सीमा पर बागपत, उत्तर-पश्चिम में जनपद शामली तथा दक्षिण-पूर्व में हापुड़ जनपद अवस्थित है। गंगा नद़ी इसके पूर्वी भाग में जनपद अमरोहा से सीमा रेखा बनाती है। बनावट की दृष्टि से जनपद मेरठ की धरातलीय संरचना का निर्माण गंगा एवं यमुना नदी द्वारा बहाकर लायी गयी जलोढ़ मिट्टी से हुआ है। भूमिगत जल की उच्च उपलब्धता के साथ-साथ यहां पर उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी विस्तृत क्षेत्र पर फैली हुई है। जनसंख्या का उच्च संकेन्द्रण यहां पर पाया जाता है। यातायात एवं परिवहन के साधनों ने कृषि विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कृषि आधारित उद्योग-धन्धों की इस क्षेत्र में भरमार है। प्राथमिक एवं द्वितीयक क्षेत्र में रोजगार के उच्च अवसर विद्यमान हैं। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के निकटवर्ती होने के कारण यहां पर कृषि उपज की मांग अधिक है। कृषि में मुख्य रूप से फल, फूल, साक-सब्जी की मांग सर्वाधिक एवं नियमित है।
शोध का महत्व
प्रस्तुत शोध पत्र ग्रामीण क्षेत्र में विद्यमान गरीबी एवं बेरोजगारी की समस्या के समाधान में मदद करेगा। यह ग्रामीण आर्थिकी को विकसित कर रोजगार के नये अवसरों को सृजित करने में मदद करेगा। छोटे कृषकों की आय में वृद्धि हेतु एक मार्ग प्रसस्त करेगा, जिससे कृषक अपने छोटे भूखण्डों में उच्च मूल्य वर्ग की फसलों का उत्पादन कर उच्च आय प्राप्त कर सकेंगे। मृदा की उर्वरा क्षमता को बनाये रखने तथा भूमिगत फल के स्तर को सन्तुलित बनाये रखने में सहायक होगा। प्रस्तुत शोध कृषि वैज्ञानिकों, भूगोल वेत्ताओं, अर्थशास्त्रियों तथा नियोजन कत्र्ताओं के लिए अति महत्वपूर्ण साबित होगा।
फसल प्रतिरूप में परिवर्तन
अध्ययन क्षेत्र जनपद मेरठ में फसल प्रतिरूप में तीव्र गति से परिवर्तन हुआ है। शोधार्थी ने प्रस्तुत शोध को पूर्ण करने हेतु वर्ष 2000-01 से 2019-20 के आंकड़ों का अध्ययन फसल प्रतिरूप परिवर्तन के संदर्भ में किया है। वर्ष 2000-01 में धान्य फसलों के अन्तर्गत क्षेत्रफल 100509 हेक्टेयर था, जो वर्ष 2019-20 में घटकर 85057 हेक्टेयर रह गया है। दलहन फसलों के अन्तर्गत क्षेत्र वर्ष 2000-01 में 3342 हेक्टेयर था, जो वर्ष 2019-20 में घटकर 2651 हेक्टेयर रह गया है। तिलहन फसलों के अन्तर्गत क्षेत्रफल यहां पर वर्ष 2000-01 में 2595 हेक्टेयर था, जो वर्ष 2019-20 में बढ़कर 5416 हेक्टेयर हो गया है। अध्ययन क्षेत्र में फसल प्रतिरूप में हुए परिवर्तन को निम्न सारणी में दर्शाया गया है-
सारणी-1
जनपद मेरठ में फसल प्रतिरूप में परिवर्तन, (वर्ष 2001-01 से 2019-20)
क्षेत्रफल (हेक्टेयर में)
 

जनपद मेरठ में फसल प्रतिरूप में परिवर्तन, (वर्ष 2001-01 से 2019-20)
क्षेत्रफल (हेक्टेयर में)
स्रोतः  जिला सांख्यिकी पत्रिका जनपद मेरठ, वर्ष 2001, 20112019
उपरोक्त सारणी में अध्ययन क्षेत्र जनपद मेरठ के परिवर्तित फसल प्रतिरूप को दर्शाया गया है, जिसमें वर्ष 2000-01 से 2019-20 की अवधि में चावल की कृषि के क्षेत्रफल में 3591 हेक्टेयर क्षेत्रफल कम हुआ है। गेहूँ के क्षेत्रफल में 10794 हेक्टेयर क्षेत्रफल कम हुआ है। जौं के क्षेत्रफल में 209 हेक्टेयर तथा बाजरा के क्षेत्र में 388 हेक्टेयर क्षेत्रफल कम हुआ है। मक्का का क्षेत्रफल वर्ष 2000-01 में 777 हेक्टेयर था, जो वर्ष 2019-20 में घटकर 326 हेक्टेयर रह गया है। मक्का के क्षेत्रफल में 451 हेक्टेयर क्षेत्रफल कम हुआ है। यहां पर धान्य फसलों के अन्तर्गत क्षेत्रफल वर्ष 2000-01 में 100509 हेक्टेयर था, जो वर्ष 2019-20 में घटकर 85057 हेक्टेयर रह गया है।
दलहन की कृषि के अन्तर्गत क्षेत्रफल वर्ष 2000-01 में 3342 हेक्टेयर था, जो वर्ष 2019-20 में घटकर 2651 हेक्टेयर रह गया है। उड़द की कृषि के क्षेत्रफल में 262 हेक्टेयर क्षेत्र की वृद्धि हुई है, जबकि मूंग की कृषि के अन्तर्गत क्षेत्रफल 278 हेक्टेयर था, जो वर्ष 2019-20 में घटकर 91 हेक्टेयर रह गया है। यहां पर मसूर की कृषि का क्षेत्रफल उक्त अवधि में 119 हेक्टेयर, चना का क्षेत्रफल 248 हेक्टेयर, मटर का क्षेत्रफल 599 हेक्टेयर कम हुआ है, जबकि अरहर की कृषि का क्षेत्रफल 2000-01 से 2019-20 की अवधि में 200 हेक्टेयर बढ़ा है। वर्ष 2000-01 में तिलहन की कृषि का क्षेत्रफल 2595 हेक्टेयर था, जो वर्ष 2019-20 में बढ़कर 5416 हेक्टेयर हो गया है। उक्त अवधि में तिलहन के क्षेत्रफल में 2821 हेक्टेयर क्षेत्रफल की वृद्धि हुई है। गन्ने की कृषि के अन्तर्गत क्षेत्रफल वर्ष 2000-01 में 112861 हेक्टेयर था, जो वर्ष 2019-20 में बढ़कर 121936 हेक्टेयर हो गया है। उक्त अवधि में गन्ने की कृषि का क्षेत्रफल 9075 हेक्टेयर बढ़ा है, जबकि आलू की कृषि के क्षेत्रफल में 2855 हेक्टेयर की कमी अंकित की गयी है। अध्ययन क्षेत्र मेरठ जनपद में वर्ष 2000-01 से 2019-20 की अवधि में फसल प्रतिरूप तीव्र गति से परिवर्तित हुआ है।
बागवानी कृषि का ग्रामीण आर्थिकी पर प्रभाव
कृषकों ने बढ़ती बाजार की मांग के अनुसार कृषि फसलों के उत्पादन में परिवर्तन किया है। धान्य फसलों के स्थान पर फल-फूल एवं साक-सब्जी की कृषि को वरीयता प्रदान की है। बागवानी कृषि में लाभांश अधिक होने के कारण छोटे कृषकों ने धान्य, दलहन एवं तिलहन फसलों को कम करके उच्च मूल्य वाली फसलों के उत्पादन को वरीयता प्रदान की है। बागवानी कृषि से वर्ष में 3 से 5 फसलों का उत्पादन कृषक कर पाता है। इसके साथ ही बहु फसली कृषिके उत्पादन की प्रणाली को अपनाकर कृषकों ने आय में तीव्र गति से वृद्धि की है। अध्ययन क्षेत्र मेरठ जनपद में बागवानी कृषि में हुए परिवर्तन को निम्न सारणी में दर्शाया गया है-

सारणी-2
जनपद मेरठ में बागवानी कृषि क्षेत्र में परिवर्तन
(वर्ष 2000-01 से 2019-20)

स्रोतः  जिला सांख्यिकी पत्रिका जनपद मेरठ, वर्ष 2001, 20112019
उपरोक्त सारणी के अनुसार अध्ययन क्षेत्र में वर्ष 2000-01 में रबी काल में बागानी कृषि के अन्तर्गत क्षेत्रफल 6085 हेक्टेयर, खरीफ काल में 1128 हेक्टेयर तथा जायद काल में 987 हेक्टेयर था, जो वर्ष 2010-11 में बढ़कर रबी कालीन बागानी क्षेत्र 6212 हेक्टेयर, खरीफ कालीन क्षेत्र 1236 हेक्टेयर तथा जायद कालीन क्षेत्र 1102 हेक्टेयर हो गया। वर्ष 2019-20 में बागानी कृषि का क्षेत्रफल रबी कालीन बागानी के अन्तर्गत 6394 हेक्टेयर, खरीफ कालीन 1200 हेक्टेयर तथा जायद कालीन 1586 हेक्टेयर हो गया है। इस प्रकार उपरोक्त आंकड़ों का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि बागवानी कृषि का क्षेत्रफल निरन्तर बढ़ रहा है। इसकी वृद्धि का प्रमुख कारण उच्च आय प्राप्त होना तथा नियमित रूप से आय प्राप्ति का प्रमुख स्रोत होना है।
बागवानी कृषि विकास के तकनीकी कारक
अध्ययन क्षेत्र जनपद मेरठ में कृषि विकास की अपार संभावनाऐं निहित हैं। कृषि विकास हेतु यहां पर उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी, भूमिगत जल की उच्च उपलब्धता, समतल क्षेत्र, सिंचाई के विकसित साधन, कृषि उपज की बाजार में मांग, नगरों की समीपता तथा उच्च जनसंख्या का संकेन्द्रण इत्यादि प्रमुख कारक विकसित अवस्था में हैं। यहां की कृषि पर हरित क्रांतिका प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। अध्ययन क्षेत्र में बागानी कृषि विकास के प्रमुख तकनीकी कारकों के स्थानिक संगठन को निम्न सारणी में दर्शाया गया है-
सारणी-3
जनपद मेरठ में बागवानी कृषि विकास के प्रमुख तकनीकी कारकों का स्थानिक संगठन (वर्ष 2019-20)


स्रोत जिला सांख्यिकी पत्रिका जनपद मेरठ, वर्ष 2020उपरोक्त सारणी के अनुसार अध्ययन क्षेत्र जनपद मेरठ में बागवानी कृषि विकास हेतु पर्याप्त तकनीकी कारक उपलब्ध है। उपरोक्त सारणी में अध्ययन क्षेत्र की वित्तीय सुविधाओं के मध्य औसत दूरी तथा उन पर जनसंख्या निर्भरता को दर्शाया गया है, जिसमें राष्ट्रीयकृत बैंक शाखाओं के मध्य औसत दूरी 4.46 किमी॰, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के मध्य 18.40 किमी॰, गैर-राष्ट्रीयकृत बैंक शाखाओं के मध्य 21.24 किमी॰ तथा कृषि ऋण सहकारी समितियों के मध्य 5.68 किमी॰ औसत दूरी प्राप्त हुई है। यहां बीज विक्रय केन्द्रों के मध्य औसत दूरी जिनमें सहकारिता विभाग के अन्तर्गत 4.67 किमी॰, कृषि विभाग के अन्तर्गत 15.02 किमी॰ तथा अन्य विभाग के अन्तर्गत 3.12 किमी॰ औसत दूरी प्राप्त हुई है। यहां पर उर्वरक विक्रय केन्द्रों के मध्य औसत दूरी सहकारिता विभाग के अन्तर्गत 4.67 किमी॰, कृषि विभाग के अन्तर्गत 15.02 किमी॰ तथा अन्य विभाग के अन्तर्गत 2.43 किमी॰ औसत दूरी प्राप्त हुई है। कीटनाशक विक्रय केन्द्रों के मध्य कृषि विभाग के अन्तर्गत 15.02 किमी॰ तथा अन्य विभाग के अन्तर्गत 2.13 किमी॰ औसत दूरी है। ग्रामीण गोदामों के मध्य औसत दूरी 5.71 किमी॰ सहकारिता विभाग के अन्तर्गत तथा 21.24 किमी॰ कृषि विभाग के अन्तर्गत, 3.06 किमी॰ की औसत दूरी अन्य विभागों के ग्रामीण गोदामों के मध्य प्राप्त हुई है। शीत भण्डार गृहों के मध्य औसत दूरी 15.02 किमी॰ तथा कृषि सेवा केन्द्रों के मध्य औसत दूरी 21.24 किमी॰ सहकारिता विभाग एवं 6.72 किमी॰ अन्य विभाग के कृषि सेवा केन्द्रों के मध्य प्राप्त हुई है।
उन्नत कृषि यंत्र उपलब्धता
अध्ययन क्षेत्र जनपद मेरठ में कृषि विकास में उन्नत कृषि यंत्रों का महत्वपूर्ण स्थान है। इनकी उच्च उपलब्धता बागवानी कृषि विकास को गति प्रदान करती है। अध्ययन क्षेत्र में उन्नत कृषि यंत्रों की उपलब्धता को प्रति 1000 जनसंख्या पर ज्ञात करने का प्रयास किया गया है। अध्ययन क्षेत्र में उपलब्ध कृषि यंत्र उपलब्धता को निम्न सारणी में दर्शाया गया है-
सारणी-4
जनपद मेरठ में उन्नत कृषि यंत्र उपलब्धता, (वर्ष 2019-20)

स्रोतः  जिला सांख्यिकी पत्रिका जनपद मेरठ, वर्ष 2020
उपरोक्त सारणी के अनुसार अध्ययन क्षेत्र में उन्नत कृषि यंत्र उपलब्धता में लकड़ी के हल की उपलब्धता 53.02 प्रति 1000 जनसंख्या, लोहे के हल की उपलब्धता 7.80, उन्नत हैरो एवं कल्टीवेटर की उपलब्धता 5.47, उन्नत थ्रेसिंग मशीन की उपलब्धता 12.39, उन्नत बोआई यंत्र उपलब्धता 0.49 तथा टैªक्टर की उपलब्धता 10.40/1000 प्राप्त हुई है। प्रति हजार जनसंख्या पर यह उन्नत कृषि यंत्र उपलब्धता उच्च स्तर की प्राप्त हुई है, जो बागवानी कृषि विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
बागवानी कृषि एवं कृषक
प्रस्तुत शोध पत्र को पूर्ण करने हेतु 300 सेम्पल कृषकों के लिये गये हैं, जिनके आधार पर यह परिणाम प्राप्त करने का प्रयास किया गया है कि बागवानी कृषि को कितने कृषक वरीयता प्रदान करते हैं। साथ ही साथ यह भी ज्ञात करने का प्रयास किया गया है कि बहु फसली कृषिको कितने कृषक करते हैं। अध्ययन क्षेत्र में बागवानी कृषि को करने वाले कृषकों के विवरण को निम्न सारणी में दर्शाया गया है-
सारणी-5
चयनित कृषकों में बागवानी कृषि करने वाले कृषकों का विवरण,
(अप्रैल-2022)

स्रोतः  शोधार्थी द्वारा सर्वेक्षित आंकड़ों की गणना पर आधारित।
अध्ययन क्षेत्र से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि चयनित कृषकों में 41.00 प्रतिशत कृषक बागवानी कृषि को करते हैं, जबकि 13.33 प्रतिशत कृषक सामान्य कृषि (खाद्यान्न उत्पादन), 25.00 प्रतिशत कृषक मिश्रित कृषि तथा 20.67 प्रतिशत कृषक बहु फसली कृषि करते हैं। उपरोक्त आंकड़ों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि अध्ययन क्षेत्र में कृषकों ने फसलों के प्रतिरूप में परिवर्तन किया है। उन्होंने खाद्यान्न फसलों के स्थान पर बागवानी फसलों के उत्पादन को वरीयता प्रदान की है ताकि आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ किया जा सके।

सामग्री और क्रियाविधि
प्रस्तुत शोध पत्र को पूर्ण करने हेतु प्राथमिक एवं द्वितीयक दोनों प्रकार के आंकड़ों का प्रयोग किया गया है। प्राथमिक आंकड़े एकत्र करने हेतु प्रश्नावली एवं अनुसूची का प्रयोग किया गया है। व्यक्तिगत साक्षात्कार तथा क्षेत्रीय भ्रमण विधि के आधार पर प्राथमिक आंकड़े एकत्र किये गये हैं। द्वितीयक आंकड़े सम्बन्धित विभागों, कार्यालयों, पुस्तकालयों, शोध ग्रंथों, शोध पत्रों, पत्रिकाओं तथा समाचार पत्रों से प्राप्त किये गये हैं। इसके साथ ही जिला सांख्यिकी पत्रिका जनपद मेरठ तथा विभिन्न वेबसाइट्स का प्रयोग द्वितीयक आंकड़े एकत्र करने में किया गया है। प्रस्तुत शोध पत्र को पूर्ण करने हेतु ‘वर्णनात्मक शोध विधि’ का प्रयोग किया गया है।
न्यादर्ष
प्रस्तुत शोध पत्र को पूर्ण करने हेतु 300 कृषकों का चयन किया गया है। इन सेम्पलों का चयन यादृच्छिक विधि के माध्यम से किया गया है।

जाँच - परिणाम प्रस्तुत अध्ययन से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि अध्ययन क्षेत्र जनपद मेरठ में कृषि प्रतिरूप में परिवर्तन तीव्र गति से हुआ है। कृषकों ने खाद्यान्न फसलों को छोड़कर बागवानी कृषि को वरीयता प्रदान की है, ताकि उच्च लाभांश प्राप्त हो सके।
निष्कर्ष प्रस्तुत अध्ययन से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि अध्ययन क्षेत्र जनपद मेरठ में कृषि प्रतिरूप में परिवर्तन तीव्र गति से हुआ है। कृषकों ने खाद्यान्न फसलों को छोड़कर बागवानी कृषि को वरीयता प्रदान की है, ताकि उच्च लाभांश प्राप्त हो सके। छोटे कृषकों ने बागवानी एवं मिश्रित कृषि को अधिक वरीयता प्रदान की है, जिन कृषकों ने बागवानी कृषि को अपनाया है, उनकी आर्थिक स्थिति सामान्य कृषि करने वाले कृषकों से सुदृढ़ है। यहां पर 41.00 प्रतिशत कृषक बागवानी (हार्टीकल्चर) कृषि को अपनाते हैं। खाद्यान्न फसलों का क्षेत्रफल 2000-01 से 2019-20 की अवधि में कम हुआ है, जबकि बागवानी कृषि के क्षेत्रफल में उक्त अवधि में वृद्धि हुई है। अध्ययन क्षेत्र में बागवानी कृषि विकास के उच्च अवसर उपलब्ध हैं, जिस कारण यहां पर बागवानी कृषि का विकास हो पा रहा है। इसके साथ ही साथ बाजार में बागवानी उत्पादों की मांग अधिक होने के कारण भी इस कृषि का विकास हो रहा है।
भविष्य के अध्ययन के लिए सुझाव बागवानी कृषि के विकास तथा कृषकों की आर्थिक स्थिति में सुधार हेतु शोधार्थी द्वारा कुछ उपाय सुझाये गये हैं, जिनको अपनाकर न केवल बागवानी कृषि का विकास संभव होगा, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था विकसित होगी। उक्त संदर्भ में प्रमुख सुझाव निम्नवत् हैं-
1.बागवानी कृषि में उन्नत किस्म के बीजों का प्रयोग कर उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है, जिससे उच्च उत्पादन होने से कृषकों की आय में वृद्धि होगी।
2. कृषक उच्च मूल्य वाली फसलों का उत्पादन कर अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बना सकते हैं।
3. फसलों का अगेती उत्पादन प्राप्त कर उच्च लाभांश प्राप्त किया जा सकता है।
4. कृषि में रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर जैविक खादों का प्रयोग कर मृदा की उर्वरा क्षमता को लम्बी अवधि तक बनाये रखा जा सकता है।
5. लघु कालिक फसलों, शुष्क कृषि पद्धति को अपनाकर भूमिगत जल के गिरते स्तर को बचाया जा सकता है।
6. ग्रामीण स्तर पर कृषि मण्डी विकसित कर कृषकों को परिवहन व्यय से मुक्ति दिलायी जा सकती है।
7. बागवानी कृषि विकास हेतु कृषकों को अनुदान प्रदान किया जाये, ताकि उक्त कृषि को विकसित कर कृषक उच्च लाभांश प्राप्त कर सके।
8. उच्च रोग प्रतिरोधक क्षमता वाले बीजों का प्रयोग कर उच्च लाभांश प्राप्त किया जा सकता है।
9. ग्रामीण स्तर पर कृषकों को कृषि विकास हेतु सुझाव देने वाली संस्था का विकास किया जाये, ताकि कृषक नवीनतम कृषि तकनीकी का अधिकांश लाभ प्राप्त कर सकें।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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