P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- IX , ISSUE- IX May  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
नवीन परीक्षा प्रणाली का समाजशास्त्रीय अध्ययन
Sociological Study of New Examination System
Paper Id :  16056   Submission Date :  07/05/2022   Acceptance Date :  20/05/2022   Publication Date :  25/05/2022
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उदय पाल सिंह
सह - आचार्य
समाज शास्त्र विभाग
नेहरू पीजी कॉलेज छिबरामऊ
कन्नौज,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश सभ्यता की जिस मंजिल पर आज हम खड़े हैं, वहाँ से देखने पर ‘शिक्षा’ के विकास ने चेतना, मानवीयता, संवेदनशीलता और मनुष्य होने के एहसास को निरन्तर बल प्रदान किया है, वहीं शिक्षा से मासूम बच्चों की आँखों में भविष्य के सपनों को साकार होने की कहानी के पीछे पाठ्यक्रम का खौफ और असुरक्षित भविष्य के बीच जीने की मजबूरियों की बहती नदी में हमारा चेहरा भी कहीं न कहीं अवश्य परिलक्षित होता है। उनके जीवन के सबसे प्यारे दिन अविश्वास भरी शिक्षा प्रणाली और पद्धति के बदलते स्वरूप के दौर में व्यतीत होते हैं और इन्हीं बच्चों पर माता-पिता की उम्मीदों और आशाओं पर खरा उतरने, अभिभावकों की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने और समाज में फैले भ्रष्टाचार, बेईमानी, अपराध और नैतिक पतन की समस्याओं के जंगल और सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक व्यवस्थाओं की चालबाजियों के निराकरण करने के साथ-साथ इन बच्चों के कंधों पर ‘नवोदित’, ‘अविष्कार’ और ‘न्यायप्रिय समाज’ की जिम्मेदारी है। इन जिम्मेदारियों को पूर्ण करने के लिये भेदभावरहित, प्रभावी और नैतिक शिक्षा देकर भावी पीढ़ियों को तैयार किया जा सकता है। शिक्षा का विकास समाज के द्वारा होता है और इसके साथ ही शिक्षा समाज की संरचना को निश्चित स्वरूप भी प्रदान करती है। एक प्रभावशाली सामाजिक शक्ति के रूप में शिक्षा को दो महत्वपूर्ण कार्य करने होते हैं। सामाजिक नियंत्रण एवं सामाजिक परिवर्तन। प्रथम कार्य का सम्पादन शिक्षा सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों का संरक्षण करके करती है तथा द्वितीय कार्य ऐसी शक्तियों एवं विचारों को जन्म देकर करती है जिनमें सामाजिक परिवर्तन की क्षमता हो। शिक्षा किसी भी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के विकास की धुरी होती है। शिक्षा के बिना कोई भी राष्ट्र, समाज या व्यक्ति प्रगति नहीं कर सकता है। शिक्षा और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं। इस पूरक को पूर्ण बनाने का कार्य शिक्षक करते हैं। शिक्षा का कार्य केवल अवधारणाएँ या परिकल्पनाएँ प्रस्तुत करना ही नहीं है बल्कि प्रचलित शिक्षा प्रणाली तथा शैक्षिक अवधारणाओं की आलोचना करना भी है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Looking from the floor of civilization on which we stand today, the development of 'education' has given continuous strength to consciousness, humanity, sensitivity and the feeling of being human, whereas education has made future dreams come true in the eyes of innocent children. The fear of course behind the story of being and our face is also reflected somewhere in the river of compulsions to live in the midst of an insecure future. The loveliest days of their lives are spent in the era of mistrustful education system and changing nature of the system and it is on these children to live up to the expectations and hopes of the parents, fulfill the ambitions of the parents and spread corruption, dishonesty, corruption in the society. Along with solving the problems of crime and moral degradation and the gimmicks of social, economic and political systems, the responsibility of 'budding', 'inventing' and 'just society' lies on the shoulders of these children. To fulfill these responsibilities, future generations can be prepared by providing non-discriminatory, effective and ethical education.
Education is developed by the society and along with it education also gives definite shape to the structure of the society. As an effective social force, education has to perform two important functions. Social control and social change. The first function is accomplished by education by preserving socio-cultural values ​​and the second function is done by giving birth to such forces and ideas which have the potential for social change. Education is the pivot of development of any individual, society and nation. No nation, society or individual can progress without education. Education and society are complementary to each other. Teachers do the work of making this supplement complete. The function of education is not only to present concepts or hypotheses but also to criticize the prevailing education system and educational concepts.
मुख्य शब्द माध्यमिक शिक्षा, नयी राष्ट्रीय शिक्षा, नीति, शिक्षा का बाजारीकरण, कौशल परीक्षण।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Secondary Education, New National Education, Policy, Marketing of Education, Skill Test.
प्रस्तावना
भारत में शिक्षा के पर्यायवाची शब्द के रूप में “विद्या” तथा “ज्ञान” शब्द का व्यवहार किया जाता है। विद्या शब्द का उद्गम संस्कृत की “विद” धातु से हुआ है, जिसका अर्थ होता है “जानना”, “पता लगाना” अथवा “सीखना”। बाद में विद्या शब्द का प्रयोग पाठ्यक्रम के रूप में होने लगा। शिक्षण प्रशिक्षण, ज्ञान संवर्धन और पथ प्रदर्शन करने का कार्य है। शिक्षा से व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होता है। नवरत्न स्वरूप सक्सेना के शब्दों में “शिक्षा वह प्रकाश है जिसके द्वारा बालक की समस्त शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों का विकास होता है। इससे वह समाज का एक उत्तरदायी घटक एवं राष्ट्र का प्रखर चरित्र सम्पन्न नागरिक बनकर समाज की सर्वांगीण उन्नति में अपनी संस्कृति तथा सभ्यता को पूर्नजीवित तथा पुनःस्थापित करने के लिए प्रेरित हो जाता है।” शिक्षा के व्यापक लक्ष्य को स्पष्ट करते हुए जैन मुनि कल्याण सागर जी ने कहा है- “शिक्षा का व्यापक लक्ष्य अज्ञानता को दूर करना है। मनुष्य में जो शारीरिक, मानसिक और आयात्मिक शक्तियां मौजूद हैं और जो दबी पड़ी हैं, उन्हें प्रकाश में लाना ही शिक्षा का यथार्थ उद्देश्य है, परन्तु इस उद्देश्य की पूर्ति तब होती है जब शिक्षा के फलस्वरूप जीवन में संस्कार उत्पन्न होते हैं। केवल शक्ति के विकास में शिक्षा की सफलता नहीं है; अपितु शक्तियों विकसित होकर जनजीवन के सुन्दर निर्माण में प्रयुक्त होती हैं तभी शिक्षा सफल होती है।” फ्रांस के प्रमुख समाजशास्त्री दुर्खीम की दृष्टि में आधुनिक समाजों में स्कूल वह कार्य करता है जो परिवार या मित्र मंडली (पीयरग्रुप) करने में समर्थ नहीं होता है। परिवार की सदस्यता रक्त सम्बन्ध पर आधारित होती है तथा मित्र मंडली की सदस्यता व्यक्तिगत पसंद पर लेकिन समाज की सदस्यता न तो रक्त सम्बन्ध आधारित होती है न ही व्यक्तिगत पसंद पर समाज के सदस्य के रूप में व्यक्ति को उन सबसे सामंजस्य स्थापित करना होता है जो न तो उसके परिवार के सदस्य हैं और न मित्र, विद्यालय ऐसे अवसर प्रदान करता है, जहाँ विभिन्न तरह के व्यक्तियों से सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता का विकास प्रारम्भ से ही होता है। शिक्षा में हम अनेक शब्दों, परिभाषाओं, विश्वासों, आदर्शों तथा अवधारणाओं को लेकर चलते हैं। गाँधी जी मानते थे कि शिक्षा जीवन भर- चलने वाली प्रक्रिया है। शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान अर्जन करने के साथ चरित्र निर्माण भी है। आज प्रत्येक बुद्धिजीवी चिन्तनशील विद्यार्थियों के जीवन में चारित्रिक पतन एवं मूल्यहीनता के साथ हिंसा की ओर बढ़ रहे समाज के अवमूल्यवन के प्रति चिन्तित है। यह चिन्ता स्वाभाविक भी है, क्योंकि भारतीय शिक्षा प्रणाली में मूल्यपरक व व्यावहारिक शिक्षा को सदैव महत्व दिया गया है। हमारे मनीषियों, चिन्तकों एवं शिक्षाविदों ने मूल्यों पर आधारित शिक्षा को ही ज्ञान माना है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा था कि “जो ज्ञान मन और हृदय को पवित्र करे, वही सच्चा ज्ञान है, बाकी सब अज्ञान है।” शिक्षा से जीवन निर्माण, मानव निर्माण, चरित्र निर्माण एवं समाज निर्माण तथा विचारों से व्यक्ति परिपक्व होता है। महात्मा गौतम बुद्ध का मानना था कि सच्चा ज्ञान तो आचरण और अभ्यास में निहित है। नैतिकता ही जीवन को सार्थक और गरिमामयी बनाती है। शिक्षा का महान उद्देश्य मानव व्यक्तित्वको निखारना और अपूर्णता से पूर्णता की ओर अग्रसर करना है। यह पूर्णता भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में शिक्षा से ही प्राप्त की जा सकती है। प्लेटो पुरुष-स्त्री दोनों को समान शिक्षा देने के पक्ष में है- उसका कहना है कि लिंग के आधार पर स्त्री को पुरुष से पृथक नहीं करना चाहिए। वस्तुतः स्त्री-पुरुष का मूल्यांकन आत्मा के आधार पर करना चाहिए। प्लेटो का कहना है कि स्त्री-पुरुष में समान आत्मा है। अतः आत्मा के विकास के लिए शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है। उनका मानना है कि स्त्री राज्य का शासन उतनी ही दक्षता से चला सकती है जितना की पुरुष। स्त्री-पुरुष दोनों की आत्मा पर वातावरण का प्रभाव पड़ता है। अतः स्त्री एवं पुरुष को समान शिक्षा मिलनी चाहिए। डाॅ॰ मुदालियर की अध्यक्षता में 1952-53 में शिक्षा में नैतिक मूल्यों की आवश्यकता महसूस की गई। इनके अनुसार “शिक्षा का उद्देश्य तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक कि नई पीढ़ी के मानस में कुछ नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठित न किया जाए।” 1964-86 में दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में गठित “शिक्षा आयोग” ने स्पष्ट सिफारिश की थी कि शिक्षा को मूल्यपरक आयाम देना चाहिए। 1985-86 में “नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति” में भी कहा गया कि बुनियादी मूल्यों के उत्तरोत्तर क्षरण के संकट को दूर करने के लिये मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता है। नई शिक्षा नीति की समीक्षा रिपोर्ट में कहा गया है कि एक भव्य भारत के लिए विज्ञान और आध्यात्म दोनों के मूल्यों को शिक्षा में आत्मसात् किया जाना चाहिए। 1990 में आचार्य राममूर्ति जी की अध्यक्षता में गठित शिक्षा आयोग ने मूल्यपरक शिक्षा के साथ-साथ आदिवासी लोक कला एवं संगीत को विकसित करने पर जोर दिया। भारत नीति निर्धारण में विश्व में अग्रिम पंक्ति में है जबकि क्रियान्वयन में अन्तिम पंक्तियों में दूर खड़ा दिखाई देता है। यही वजह है कि स्वतंत्रता के स्वर्ण जयन्ती वर्ष में विश्व के आधे से अधिक निरक्षर इसी सरस्वती भूमि में हैं और इसमें नारी शिक्षा का स्तर और भी शोचनीय है। नैतिक मूल्यों के प्रति चिन्ता तो सभी जताते हैं, लेकिन इसके प्रति किसी के द्वारा सार्थक पहल नहीं की जाती है। आम आदमी से लेकर नीति निर्धारकों एवं प्राधिकरणों द्वारा इस दिशा में समुचित प्रयास नहीं किया जा रहा है। परिणामस्वरूप, आदर्श भारत की परिकल्पना कागजों और चरित्र प्रमाण-पत्रों में सिमटती जा रही है। स्वार्थ, लालच, पदलोलुपता और भ्रष्ट तरीकों से धन-संग्रह की प्रवृत्ति मानो सामान्य जन के नैतिक मूल्यों के पीछे हाथ धोकर पड़ी हुई है। जबकि सत्यता यह है कि “नैतिकता का आचरण ही मानवता का सर्वोत्तम पुरुषार्थ है।” कामचलाऊ शिक्षा प्रणाली, शिक्षक और विद्यार्थी के बीच बढ़ती हुई दूरी ही इसका दुष्परिणाम है। राष्ट्र की कुल जनसंख्या का 72.2 प्रतिशत भाग का लगभग 6,38,000 गाँवों, 5,480 कस्बों तथा शेष 27.8 प्रतिशत जनसंख्या शहरी क्षेत्र में रहती है। इन ग्रामीण क्षेत्रों के निवासियों में अधिकांश अनपढ़, गम्भीर लैंगिक भेदभाव, क्षेत्रीय एवं जातीय असमानताओं को अपने में मौजूद रखे हुए है और जब इन क्षेत्रों के स्नातकों को रोजगार की गारण्टी नहीं दी जाती है तो वहां शिक्षा विरोधी अपनी पकड़ मजबूत करता जाता है। इससे ग्रामीण निवासियों के बीच एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी लोकप्रिय है, “क्या आप पढ़-लिखकर डी॰एम॰ कलक्टर (जिलाधिकारी) बन जाओगे?” ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले बच्चे जो बहुत गरीब हैं वे भी शिक्षा प्राप्त करते हैं। फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का विस्तार विशेषतः उच्च शिक्षा का विकास निम्न है। इसका परिणाम स्पष्ट है कि बीच में या शुरूआती दौर में शिक्षा छोड़ने तथा वंचित रहने वालों में लड़कियाँ हैं, क्योंकि इनको माता-पिता और परिवार का काम पूरा करने के लिए मजबूर किया जाता है। ग्रामीण संस्कृति एवं परम्परा में ग्रामीणों का शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण काफी हद तक लड़कों के प्रति भी अनुकूल नहीं है। पारम्परिक रूप में व्यावसायिक कौशल प्रभुत्व के रूप में उच्च ख्याति प्राप्त है; जो आय प्राप्ति के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण है। भारत में यदि पारम्परिक व्यावसायिक कौशल के आधार पर शिक्षा दी जाती तो ग्रामीण क्षेत्रों में भी शिक्षा, परम्परा बन जाती। भारत में शिक्षा प्रणाली की समस्याओं के लिए कारण बहुमुखी है और वे अधिक समस्याओं के कुचक्र को स्वयं प्रकट करते हैं। जहां कुछ कारण अन्यकारकों को प्रोत्साहित करते हैं या दूसरे पर आश्रित हैं, वे औरों की तुलना में उन्हें घातक बना देते हैं। इसका क्या अर्थ है कि समस्याओं का कोई समाधान नहीं है?
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोध अध्ययन के निम्नलिखित उद्देश्य हैं- 1. प्रदेश के ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में स्थित माध्यमिक विद्यालयों में अध्ययनरत् छात्रों के सामाजिक-आर्थिक स्थिति का अध्ययन करना। 2. शिक्षा व्यवस्था एवं परीक्षा प्रणाली का तुलनात्मक अध्ययन करना। 3. छात्रों एवं शिक्षकों के बीच पारस्परिक सम्बन्धों में हो रहे, क्षय के कारणों का अध्ययन करना। 4. नवीन परीक्षा प्रणाली के राष्ट्रीय शिक्षा नीति के उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक होने की सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्षों की जाँच करना।
साहित्यावलोकन
शिक्षा के चार प्रमुख लक्ष्य होते हैं- ज्ञान प्राप्त करना, समानान्तरण, स्वतंत्रता प्रदान करना और चरित्र निर्माण। जब तक इन चारों लक्ष्यों को ध्यान में रखकर शिक्षा प्रणाली लागू नहीं की जाएगी तब तक शिक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता महसूस की जाती रहेगी। स्कूली शिक्षा का स्तर सुधारने केक पूर्व शर्त यह है कि लोग उत्तीर्ण हो जाएँ और उन्हें संगठित क्षेत्र में रोजगार मिल जाए। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर रोजगारोन्मुखी शिक्षा प्रणाली लागू की जाने लगी है। यह एक सुखद बात है कि शिक्षा को रोजगार-परक बनाने के लिए औद्योगिक विकास में तेजी, कृषि के आधुनिकीकरण और इस मामले में भी एक हद तक जुड़ाव होना चाहिए कि शिक्षण संस्थाओं में छात्र क्या सीखते हैं और जब से काम की दुनिया में दाखिल हों तो उनके लिए क्या कुछ करना अपेक्षित है और शिक्षा के द्वारा छात्र अपने लक्ष्य को किस प्रकार प्राप्त करे। “शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है जो समाज के दुर्गुणों का बहिष्कार करती है तथा गुणों को संजोती है। वह मनुष्य को अपने सामाजिक संदर्भों में आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है।” समाज आज भी शिक्षक को आदर्श मानता है। विद्यार्थी उन शिक्षकों का कभी भी आदर नहीं करते जो कत्र्तव्यनिष्ठ न हों, जिनमें योग्यता और क्षमता उतनी नहीं होती जितनी कि अपेक्षित होती है, समाज शिक्षक और विद्यार्थी के बीच बनते-बिगड़ते रिश्तों की ओर सदैव संकेत करता है, शिक्षकों का यह दायित्व है कि समस्त शिक्षक “गुरु” होने की प्रतिष्ठा प्राप्त करे। आज भी पूरा समाज आशा भरी नजरों से शिक्षक की ओर देखता है कि फिर कोई गुरु वरिष्ठ आए तो राम जैसे संस्कारित और महापुरुष बनाकर समाज को सौंपे, फिर कोई ‘गुरु’ संदीपनी बन जाए जो श्रीकृष्ण और सुदामा को साथ-साथ ज्ञान दे या रविन्द्र नाथ टैगोर जैसा महामानव आए जो छात्रों में ज्ञान संस्कार एवं विश्वबन्धुत्व की भावना भर सके या डाॅ॰ राधाकृष्णन जैसा शिक्षा का पुरोधा आए जो समन्वयी व सामंजस्यवादी विचारधारा को प्रवाहित कर अपनी गुरुता का आभास कराए। चाल्र्स डी॰, बेबल (1976) ने अपने शोध में एक और समस्या का सामना करते हुए बताया है कि जो विद्यार्थी मात्र प्राथमिक स्तर तक पढ़ाई किया है वह न तो पर्याप्त रूप से अच्छी अंग्रेजी, न ही हिंदी, न ही बंगाली पढ-लिख सकता है और न ही सही प्रकार से काम कर सकता है। इस प्रकार इस शिक्षा व्यवस्था में शिक्षा देना न तो शिक्षा देना है न ही अशिक्षित करना है, बल्कि यह एक कुशिक्षा ;डपेजमंबीपदहद्ध है। बुच, एम॰बी॰ (1988-92) प्रस्तावित राष्ट्रीय उच्च शिक्षा तथा अनुसंधान परिषद इसका पहला उदाहरण है, दूसरा योजना आयोग का निजी-सार्वजनिक साझेदारी पर दस्तावेज: तथा तीसरा विदेशी निजी शैक्षिक प्रदाताओं के प्रवेश हेतु बिल। यह कदम दो दशक पहले उठाये गये आर्थिक सुधारों के अनुरूप है। इस नई नीति के पीछे मुख्य कारण निजीकरण है जो कि वैश्विक शिक्षा तथा बौद्धिक लेन-देन में प्रभावी भागीदारी हेतु आवश्यक दशा है। नई नीति के क्रियान्वयन हेतु लिये गये प्रारंभिक कदमों में सह संभावना स्पष्ट रूप से झलकती है। अजेयरियादिस तथा ड्राॅजन (1990) नेयह नतीजे दर्शाते हैं कि प्रारम्भिक साक्षरता दर विकास के विभिन्न स्तरों पर विकास में विभिन्न भूमिका निभाती है। साक्षरता विकासशील देशों में विकास की भिन्नता से रिश्ता रखती है, परन्तु यह विकसित देशों के विकास से संबंध नहीं रखती है। अग्रवाल, यश (2004) के शोध प्रतिवेदन में बताया गया है कि भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत संस्तरण ने शैक्षिक अवसरों की उपलब्धता को अपने ढंग से प्रभावित किया है। ब्रिटिश काल में अधोमुखी निस्पंदन के सिद्धान्त ने अभिजात वर्ग को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित करने पर जोर दिया तथा जनता की शिक्षा की उपेक्षा की। परिणामतः गरीब निचले वर्ग से वंचित रहे और इस प्रकार शिक्षा को उच्च जातियों का विशेषाधिकार ठहराने वाली परंपरागत जाति, प्रथा और अभिजात वर्ग को शिक्षा देने की ब्रिटिश नीति ने एक दूसरे को बल पहुँचाते हुए भारत में एक अत्यधिक असमान शिक्षा व्यवस्था को जन्म दिया और इसके परिणाम स्वरूप ऐसी अनेक अनुसूचित जातियां हैं जिनमें साक्षरता दर शून्य है जैसे कथनों के पीछे छुपे सामाजिक संबंधों व असमान अवसरों की पोल खुलती है। अग्रवाल, कुसुम (2009) के द्वारा शैक्षिक रूप से असफल या अनुत्तीर्ण किशोरों पर अध्ययन किया गया। अध्ययन में पाया गया कि असफल एवं उपेक्षित विद्यार्थियों की तुलना में माता-पिता का सहयोग प्राप्त करने वाले सफल विद्यार्थियों का समायोजन तथा शैक्षिक उपलब्धि का स्तर उच्च था। इसके अनुसार अभिभावकों का व्यवहार विद्यार्थियों के समायोजन तथा शैक्षिक उपलब्धि को सार्थक रूप से प्रभावित करता है। झा एवं सिंगरन (2018) के अध्ययन में आजाद मुल्क में जहां संविधान प्रत्येक नागरिक को समान अवसर एवं अधिकार मुहैया कराता है वही आज भी वर्चस्वशाली तबके के लिए दलितों पर होने वाले अत्याचार सामान्य घटना की तरह ही है। हरियाणा का गोहाना हो या महाराष्ट्र का खैरलांजी, दलितों पर होने वाले अत्याचार एक-सी मानसिक अवस्था को दर्शाते हैं। सामाजिक स्तरीकरण सभी मानवीय समाजों की सार्वभौमिक विशेषता है। भारत में सामाजिक स्तरीकरण एक विशिष्ट व्यवस्था है जोकि हिन्दू धर्म व दर्शन प्रोत्साहित/अनुमोदित है के रूप में उपस्थित है। भारतीय समाज की विशेषता इसका स्तरों में विभक्त होना है जोकि मुख्यतः धर्म या कर्मकाण्डीय असमानता पर आधारित है। उपरोक्त संदर्श मूलतः और गैर-बराबरी पर आधारित समाज की उच्च चारित्रिक विशेषता का ही प्रकटन है जो यह दिखाता है कि किस प्रकार एक मानव को दूसरे मानव से केवल जाति या जन्म के आधार पर कमतर या श्रेष्ठतर होने का अधिकार मिल जाता है। सिर्फ जन्म या सामाजिक मूल्य तथा उसके विचार व नियम मानवीय अस्मिता को निर्मित करने के आधार (शक्तिशाली) हैं। सामाजिक असमानता समाज के स्वयं के विचारों मूल्यों तथा मान्यताओं का प्रतिफलन है। समाज के किसी वर्ग विशेष के प्रति यह संवेदनहीनता मानवीयता के विरूद्ध एक क्रूर प्रतिक्रिया है जो मनुष्य की मनुष्यता पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देती है। त्रिपाठी कुमुद (2004) ने माध्यमिक स्तर के विद्यार्थियों की उपलब्धि अभिप्रेरणा का शैक्षिक उपलब्धि पर प्रभाव का अध्ययन में विद्यार्थियों की शैक्षिक उपलब्धि पर लिंग, परिवेश व उपलब्धि अंतःक्रियात्मक तुलनात्मक उद्देश्य पर कार्य किया। इसमें पाया कि विद्यार्थियों की शैक्षिक उपलब्धि पर उपलब्धि प्रेरणा का अधिक प्रभाव पड़ता है, जबकि लिंग व परिवेश का प्रभाव नहीं पड़ता है। शर्मा, संजय (2015) शिक्षा में भेदभाव को समस्या के आधार पर अध्ययन में पाया कि आज भी यह तमाम घटनाएँ इस बात के चिंतन के लिए विवश करती है कि आखिर समाज-व्यवस्था के भीतर ऐसे क्या है और क्यों है कि संवैधानिक बनती है या नहीं? समाज में व्याप्त यह विषमता या विभेद को किस तरह से किसी समुदाय विशेष में होने वाले संचरण या गतिशीलता के स्वरूप प्रकार, प्रकृति और आयाम आदि को प्रभावित करता है और अन्य समुदायों के समक्ष किस तरह से संचरणीय बनाता है तथा इनमें शिक्षा की क्या भूमिका है।
निष्कर्ष इंडिया टुडे (2011) छात्र अब अधिक अंक हासिल करने के लिए चाहे सोपान क्रम व्यवस्था (Grading System) हो या अंक श्रेणी (Number Division System) या अभिरूचि या कौशल परीक्षण (Apptitude Test) हो या परिषदीय परीक्षा (Boar Examination) देखा सिर्फ यही कहा जाता है कि छात्र ने कितने अंक हासिल किए। दिल्ली की एक सरकारी स्कूल के अंग्रेजी की टीचर कहती है, मौजूदा लचर मार्किंग योजना के तहत अंग्रेजी में भी सौ फीसदी अंक पा लेना सम्भव है। इस साल मेरे स्कूल ने अप्रत्याशित परिणाम दिया है, 92 फीसदी बच्चों ने अंग्रेजी में 90 फीसदी से अधिक अंक हासिल किए हैं। इतने अंक उन छात्रों ने भी हासिल किए हैं जो अंग्रेजी के तीन वाक्य नहीं लिख सकते। केन्द्रीय बोर्ड या राज्य बोर्ड के पर्चे में असली शिक्षा की परीक्षा नहीं ली जाती, इसमें एक तय उत्तर-पुस्तिका के मुताबिक जवाब देने की क्षमता की ही परीक्षा ली जाती है। राज्य शिक्षा परिषद् एवं केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद् से मेरा सवाल यह है कि परम्परागत (Conventional Type) प्रश्नपत्र में कोई उत्तर कुंजी (Answer Key) अभिव्यक्ति की कला या ज्ञान कैसे व्यक्त करवा सकता है? उत्तर के अंक देने के विभिन्न स्तर (Value Point) से किसी छात्र की समझ और क्षमता का पर्याप्त आंकलन नहीं हो पाता। इससे केवल नियम के अनुसरण की ही परीक्षा हो सकती है। सिंह, जोगेन्दर (2012) ने अपने लेख नो टेंशन में लिखा है कि जब भी हम कोई काम करते हैं तो यही सोच-समझकर तनावग्रस्त रहते हैं कि हम सफल होंगे या नहीं। इससे आपकी सफलता संदेहात्मक हो जाती है और तनाव भी बढ़ता जाता है। माध्यमिक शिक्षा परिषद्, उत्तर प्रदेश की स्थापना सन् 1921 में हुई थी, जिसका उद्देश्य शिक्षा का विकास करना था एवं इसके द्वारा शैक्षणिक विकास के लिए समय-समय पर नई-नई पद्धतियाँ लागू की गई, जिससे बच्चों का चहुँमुखी विकास, समाज के निम्न वर्ग के द्वार तक पहुँचाना था तथा देश के भावी नागरिकों के लिए शैक्षणिक नींव को आधार देना था, जिसमें उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद् कुछ सीमा तक सफल रहा है। माध्यमिक शिक्षा परिषद्, उत्तर प्रदेश को विश्व के सबसे बड़े माध्यमिक शिक्षा परिषद् की गरिमा प्राप्त है, रन्तु 2010 के केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद् (C.B.S.E. Board) की तर्ज पर लागू परीक्षा परिणाम के श्रेणी (Division) प्रणाली के स्थान तक “सोपान क्रम प्रणाली” (Grading System) ने माध्यमिक शिक्षा परिषद्, उत्तर प्रदेश के सरकारी (Government) और स्ववित्तपोषित (Self-Financed)] विद्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षकों, मेहनती एवं शिक्षा में अग्रणी विद्यार्थियों तथा विद्यालय प्रबन्ध समितियों एवं शिक्षाविदों में यह बहस का मुद्दा बना हुआ है कि सोपान क्रम प्रणाली (Grading Systems) से शिक्षा के विकास का भविष्य क्या होगा? क्या इस परीक्ष प्रणाली से देश के भावी नागरिकों के शिक्षा के अधिगम, बौद्धिक एवं तार्किक क्षमता का विकास सम्भव है? निरन्तर पाठ्यक्रम संशोधन, परीक्षा प्रणाली में बदलाव या प्रचलित अध्यायों को सम्पादित करने से क्या प्राप्ति होने वाली है? प्रस्तुत शोध में शैक्षणिक विलम्बना से तात्पर्य यह होगा कि वर्तमान भारतीय परिवेश में शिक्षा क्षेत्रों तथा शिक्षा स्तरों का विकास हुआ है। एक क्षेत्र वह जहां अंग्रेजी भाषा माध्यम, विदेशी पाठ्यक्रम प्रारूप और विदेशी माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में शिक्षा देने की व्यवस्था तथा उनके मानसिक, बौद्धिक, चारित्रिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक विकास आदि के विभिन्न प्रकार के भावी प्रवृत्तियों, वैज्ञानिक विधियों, भौतिक वस्तुओं और अधिसंरचनात्मक संसाधनों की उपलब्धता के साथ-साथ उच्चीकृत विद्यालयी वातावरण और सुविधाओं में शिक्षा दी जा रही है। अर्थात् समाज का एक वर्ग ऐसा है जिसको शिक्षा से सम्बन्धित सभी सुविधाएं दी जा रही हैं, ताकि वह शिक्षित और तार्किक हो जाए।दूसरा शिक्षा क्षेत्र और शिक्षा स्तर जहां पारम्परिक विधियों, स्थानीय भाषा, खस्ताहाल आधारित संरचनाऐं तथा वैज्ञानिक तकनीकी और भौतिक वस्तुओं की अनुपलब्धता में जैसे-तैसे शिक्षा देने की गणपूर्ति की जा रही है अर्थात् समाज का एक वर्ग जिसको शिक्षा से सम्बन्धित सभी सुविधाओं से वंचित किया जा रहा है ताकि उसे अक्षर ज्ञान हो परन्तु उस ज्ञान से वह कुछ नया अविष्कारिक कार्य न कर सके। भारत में लगभग 90 प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूलों में जाते हैं; जो सामाजिक गतिशीलता के हमारे सबसे अच्छे इंजन, वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए सबसे अच्छे दांव तथा हमारे देश के भविष्य की कुंजी साबित हुए हैं, लेकिन वर्तमान समय में उनकी दशा हतोत्साहित करने वाली है। हमें यहां यह समझने की जरूरत है कि हमारे बच्चों की शिक्षा से बढ़कर कुछ नहीं है। जब तक विभिन्न पक्ष जैसे राजनेताओं के राजनैतिक हित, राष्ट्रीय शिक्षा नीति नियामक अभिकरणों के वर्चस्व की लड़ाई, आय पर आधारित विभिन्न बोर्डों, जैसे- माध्यमिक शिक्षा का अंतर्राष्ट्रीय पाठ्यक्रम परिषद् (I.C.S.E. Board), केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद् (C.B.S.E. Board) और राज्य स्तरीय परिषदों के अपने संकीर्ण हित तथा द्विभाषीय शिक्षा (हिंदी माध्यम एवं अंग्रेजी माध्यम) पद्धति को लेकर आपस में झगड़ते रहेंगे; तब तक ‘जन शिक्षा’ उस स्तर तक नहीं पहुँच पाएगी; जहां शिक्षा का हित राष्ट्र में निहित रहता है या जहां शिक्षा नीति से शिक्षा का विस्तार एवं विकास होना चाहिए। मैं अपने आस-पास के अभिभावकों को देखता हूँ जो अपने बच्चों के लिए सरकारी विद्यालयों के बजाए निजी विद्यालयों में शिक्षा देने पर वरीयता देते हैं और अपने बच्चों को हर सम्भव सुविधा देने के लिए अपने बैंक खातों को खंगाल डालते हैं, लेकिन ज्यादातर परिवार इतने खुशनसीब नहीं होते हैं। अतः सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या दिनो-दिन कम होती जा रही है, लेकिन जो बच्चे इन स्कूलों में पढ़ते हैं, वे राष्ट्र, चरित्र निर्माण, सकल राष्ट्रीय उत्पादन, सामाजिक विकास तथा सार्वजनिक जीवन-यापन स्तर पर सीधा प्रभाव डालते हैं। इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि शिक्षा व्यवस्था तथा शिक्षा नीति के साथ-साथ परीक्षा प्रणाली, सशकत एवं त्रुटिरहित होनी चाहिए, जो विद्यार्थियों की बौद्धिक क्षमता के विकास का सशक्त माध्यम बन सके, जिससे विद्यार्थियों के आत्मविश्वास का स्तर उच्च हो सके, जिसके परिणामस्वरूप वे राष्ट्र जिम्मेदार, कर्मठ, उद्यमी एवं जोखिम उठाने और सहन करने वाले साहसी नागरिक बन सकें, परन्तु देश की शिक्षा व्यवस्था एवं शिक्षा प्रणाली में हो रहे नित नए-नए प्रयोग एवं बदलाव शिक्षा के सामाजिक एवं राष्ट्रीय हित, उद्देश्य एवं विकास की भावना को नष्ट कर रहा है। इन प्रयोगों से विद्यार्थियों का बौद्धिक स्तर भी क्षीण हो रहा है। शिक्षाविद् यह मानते हैं कि शिक्षण कार्य संचालन के महत्व के साथ शिक्षा अधिगम (Learning) स्तर को जाँचने हेतु परीक्षा प्रणाली प्रभावी एवं कारगर होनी चाहिए, न कि गणपूर्ति (Quorum) के लिए। प्रायः नई शिक्षा प्रणाली लागू करते समय ‘नीति नियामक अभिकरण’ परीक्षा प्रणाली द्वारा उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों की संख्या को महत्वपूर्ण मानते हैं, परन्तु उनका परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों के सीखने की गुणवत्ता से कोई सरोकार नहीं होता और परीक्षा परिणाम को लेकर वे स्वयं अपनी पीठ थपथपाते हुए खुश होते हैं, “इस नवीन परीक्षा प्रणाली से बच्चों के उत्तीर्ण होने की संख्या बढ़ी हैं।” परन्तु वे इस बात को भूल रहे हैं कि हम राष्ट्र के लिए कैसे नागरिक तैयार कर रहे हैं? साक्षर अथवा शिक्षित? तार्किक आक्रामक अथवा धैर्यवान? समन्वयकारी अथवा विनाशकारी? राष्ट्र भावना से ओत-प्रोत अथवा अपने स्वार्थ के प्रति अति-महत्वाकांक्षी? यदि हम उपर्युक्त समस्याओं के संदर्भ में शिक्षा को परीक्षा प्रणाली व राष्ट्र एवं समाजहित में विश्लेषण करें तो नई परीक्षा प्रणाली अश्रेष्ठकर साबित हो रही है, क्योंकि इससे विद्यार्थी, दसवीं कक्षा तक पास तो हो रहे हैं तथा साक्षरता के उद्देश्यों को भी पूरा कर रहे हैं, परन्तु शिक्षा के महत्व का क्षय हो रहा है। शिक्षा गुणवत्ता में कमी आ रही है, विद्यार्थी शिक्षित एवं तार्किक नहीं हो पा रहे हैं और विद्यार्थियों के बौद्धिक विकास का स्तर इतना निम्नतम् होता चला जा रहा है कि इन विद्यार्थियों को 10+2 की पढ़ाई करना, सीखना एवं परीक्षा उत्तीर्ण करना चुनौती साबित हो रहा है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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