ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- I April  - 2022
Anthology The Research
मध्यवर्ती गंगा घाटी में नवपाषाण युग की कला का एक अवलोकन
An Overview of Neolithic Art in the Middle Ganges Valley
Paper Id :  16011   Submission Date :  04/04/2022   Acceptance Date :  20/04/2022   Publication Date :  25/04/2022
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मो॰ सरवर अंसारी
असिस्टेंट प्रोफेसर
इतिहास विभाग
पटना विश्वविद्यालय
पटना,बिहार, भारत
सारांश मध्य गंगाघाटी के नवपाषाणिक संस्कृति के पुरास्थलों और उत्खनन से प्राप्त पुरा सामग्रियों का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। विध्य क्षेत्र में इसके तुलनात्मक अध्ययन से इनके पारस्परिक सम्बन्ध या अन्तर्सम्बन्धों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्त होती है लघुपाषाण उपकरण भी प्राप्त होते है। कुछ पात्र परम्पराएं विशेषतः रस्सी की छाप वाले और चमकाई गई पात्र परम्परायें तथा कुछ पात्र प्रकार भी दोनों संस्कृतियों की सामान्य विशेषाएं हैं। चिरौद में मिट्टी के बर्तनों को परिचित थे। चिरौद से मिलने वाली मृणमूर्तियाँ भी कोलडिहवा, पंचोह, महगड़ा, इन्दारी, बरौधा, एवं टोकवा से नहीं मिली हैं। इसके अतिरिक्त चिरौद से मिलने वाले हड्डी के उपकरणों की विविधता और अधिकता का भी इन स्थलों पर अभाव है। उपरोक्त विश्लेषण सत्य प्रतीत होता है कि चिराद को नवपाषाणिक संस्कृति आधिक विकसित है जबकि विन्ध्य क्षेत्र की यह संस्कृति अभी भी शैशवावस्था में है। उपलब्ध कार्बन तिथियों के आलोक में चिरौद की नवपाषाणिक संस्कृति विन्ध्य क्षेत्र की संस्कृति के काफी बाद की प्रमाणित होती है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The details of the archaeological sites and excavations of the Neolithic culture of the Middle Ganga valley are being presented. Some important facts about their mutual relationship or interrelationship are obtained from its comparative study in the middle field, small stone tools are also obtained. Some character traditions, especially rope-printed and glazed pot traditions, and some character types are also common features of both cultures. Pottery was familiar in Chiroud. The idols found from Chirod have also not been found from Koldihwa, Panchoh, Mahgada, Indari, Baroudha, and Tokwa. Apart from this, the diversity and abundance of bone tools found from Chiroud are also lacking at these sites. The above analysis seems to be true that the Neolithic culture is more developed in Chirad while this culture of Vindhya region is still in its infancy. In the light of the available carbon dates, the Neolithic culture of Chirod proves to be much later than the culture of the Vindhya region.
मुख्य शब्द मध्यवर्ती गंगा घाटी, नवपाषाण युग, कॉलडिहवा ।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Intermediate Ganges Valley, Neolithic Age, Koldihwa.
प्रस्तावना
कॉलडिहवा सबसे पहला पुरास्थल है जिसके उत्खनन से विन्ध्य क्षेत्र की नवपाषाण काल की संस्कृति के विषय में जानकारी प्राप्त हुई है। कोलडिहवा की प्रथम संस्कृति नवपाषाण काल से सम्बन्धित है गोल समन्तात ताली प्रस्तर कल्दाहियाँ महाशीर्ष हदें एवं सिल-लोटे यहाँ से मिले चाल्सेडिनी अगेट क्वार्टज़ आदि के बने हुए लघु पाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं जिनमें से कोई भी दन्तुरित तकनीक पर निर्मित नहीं है। कोलडिहवा के नवपाषाण काल के लोगों का आर्थिक जीवन कृषि तथा पशुपालन पर आधारित था। कोलडिहवा से की खेती के तथा पुआल के टुकड़े चिपके हुए प्राप्त हुए हैं जिसके विश्लेषण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि यहाँ के लोग धान की खेती करते थे। गाय-बैल, भैंस तथा भेड़-बकरी प्रमुख पालतू पशु थे। सुअर तथा हिरण आदि जंगली पशुओं का शिकार होता था। कछुआ तथा मछली पकड़ने के संकेत भी मिले है। कोल्डिहवा से आवास सम्बन्धी उल्लेखनीय साक्ष्य नहीं मिले हैं। उत्खनन से सरकण्डों की छाप से युक्त जली हुई मिट्टी के टुकड़े मिले हैं जिनसे यह इंगित होता है कि बांस-बल्लियों से निर्मित झोपड़ियों में लोग निवास करते थे। महगड़ा के उत्खनन से 20 झोपडियों के फर्श प्रकाश में आ चुके है। स्तम्भ गता से घिर हुए ये फर्श गोलाकार या अण्डाकार हैं। जिसका क्षेत्रफल 6.70 X 6.25 मीटर से 50X3.50 मीटर है। इन फर्शों पर अत्यधिक संख्या में जली मिटटी के टुकड़े मिले हैं जिन पर बारा बल्ली और घास-फस के निशान है झोपडियों की फर्शाे पर मिटटी के बर्तनों के टुकड़े, सिललोढे, निहाई, लघु पाषाण उपकरण, हथगोले, कुल्हाड़ियाँ, गदाशीर्ष, हड्डियों के टुकड़े, मिट्टी के मनके प्राप्त हुए हैं। महगड़ा के उत्खनन से गोल समन्तात वाली नवपाषाणिक कुल्हाड़िया, बंसुले, छेनी, मिल चोले मंगले अनन्दिका स - छिद्रक, त्रिभुज, समलम्ब चतुर्भुज और चैड़ी धार वाले बाणाग्र सम्मिलित हैं। कृषि उत्पादित धान के साथ-साथ जंगली धान का प्रयोग होता था, जिसकी भूसी मिट्टी के बर्तनों में सालन के रूप में मिलती है। उत्खनन में जंगली और पालतू दोनों प्रकार के पशुओं की हड्डियाँ प्राप्त हुई हैं। गाय, बैल, भेड़, बकरी, हिरण, जंगली सुअर, कछुए और मछली की हड्डियों के अतिरिक्त चिड़ियों की हड्डियों यहाँ से मिली हैं द्य महगड़ा से भी चार प्रकार के हस्तनिर्मित मिट्टी के बर्तन प्राप्त हुए हैं- डोरी छाप मृदभाण्ड, खुरदरे मृदभाण्ड, ओपदार लाल पात्र और ओपदार काले पात्र प्रमुख हैं। पात्र प्रकारों में छिछले अथवा गहरे कटोरे, टॉटीदार कटोरे, बड़े आकार के घड़े एवं नाँद आदि सम्मिलित हैं। इन्दारी में उत्खनन के फलस्वरूप घर्षित धूसर एवं फीके रंग की लाल मृदभाण्ड, गोलाकार छिछले कटोरे छिछली थालियाँ इत्यादि मिली हैं। खन्ती के पूर्वी किनारे में कुछ झोपड़ियों के साक्ष्य मिले हैं। यहाँ से जली मिट्टी के टुकड़े प्राप्त हुए हैं, जिससे यह प्रतीत होता है कि आवासों की फर्श को कड़ी लाल मिट्टी से पोता गया था। यहाँ से प्राप्त मृद्माण्ड बैलनघाटी में स्थित नवपाषाणिक स्थल कोलडिहवा एवं महगड़ा पुरास्थलों के समान है। कुछ मृदभाण्ड के टुकड़ों पर पुआल के कार्बनीकृत अवशेष चिपके हुए मिले हैं। यहाँ से ओराइजा सताइवा (Oryza Sativa) किस्म के धान के उत्पादन व उपयोग से स्पष्ट प्रमाण मिले हैं। पंचोह के आवासीय जमाव से मिट्टी के बर्तनों के अतिरिक्त गदाशीर्ष बांस बल्ली के निशान से युक्त जली मिट्टी के टुकड़े, कुल्हाड़ियाँ आदि प्राप्त हुई हैं। पंचोह के नवपाषाणिक पुरास्थल की तुलना अदवा घाटी के नवपाषाणिक पुरास्थलों से भी नवपाषाणिक उपकरण प्राप्त हुए हैं। कुनझुन में उत्खनन से नव पाषाणिक कुल्हाड़ियाँ, गदाशीर्ष, लघु पाषाण उपकरण एवं हस्तनिर्मित मृदभाण्ड प्राप्तहुए हैं। 14 मीटर क्षेत्रफल में किये गये उत्खनन के फलस्वरूप विभिन्न जानवरों की हड्डियाँ एवं लघुपाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं। मध्य गंगा घाटी की पाषाणिक संस्कृति का प्रसार क्षेत्र पूर्वी उत्तर और दक्षिण बिहार का क्षेत्र है। इसका सर्वप्रथम उत्खनित पुरास्थल सारन जिले में स्थित चिरोंद है। चिरौद के अतिरिक्त चेचर कुतुबपुर, सोहगौरा, सेनुआर लहुरादेव, भूनाडीह, वैना, झूसी, हेतापट्टी आदि स्थलों के उत्खनन से इस संस्कृति के विविध अवयवों पर प्रकाश पड़ता है। विरोध में नवपाषाण काल की कला के प्रमाण आपकार उपकरण हड्डी तथा श्रृंग पर बने उपकरण मृदभाण्डों के ठीकरे प्राप्त हुए हैं।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य मध्यवर्ती गंगा घाटी में नवपाषाण युग की कला का एक अवलोकन करना है।
साहित्यावलोकन
चिराँद में सन् 1969-70 में किये गये उत्खनन से भारतीय नवपाषाणकालीन संस्कृति पर नया प्रकाश पड़ा क्योंकि इस उत्खनन से पहली बार गंगा घाटी में एक पूर्ण विकसित नवपाषाणकालीन संस्कृति का पता लगा। इसके पहले तक यह स्थल ताम्रपाषाणकालीन संस्कृति को निर्देशित करती रही। परन्तु नवपाषाणकालीन पुरावशेषों की प्राप्ति से बिल्कुल यह स्पष्ट हो गया कि इस संस्कृति से पहले भी मानव आवास था। इस काल के मुख्य अवशेषों में अस्थि उपकरण, अस्थि निर्मित आभूषण, लघुपाषाण उपकरण, मनके, मिट्टी की वस्तुएं एवं मृदभाण्ड थे चिरौद में नवपाषाणकालीन आवास का लगभग एक मीटर मोटा जमाव प्रकाश में आया है। चिराद से प्राप्त कुल्हाड़ियों को घर्षण तकनीक से तैयार किया गया था तथा उसे चिकना बनाया गया था। लेकिन कभी-कभी इस उददेश्य के लिए कह दूसरी तकनीकों का भी प्रयोग किया जाता था। ऐसा माना जाता है कि गदा के सिर का उपयोग हथौड़े के रूप में किया जाता था। कुल्हाड़ियों का प्रयोग छोटे वृक्षों को काटने में तथा लकड़ी को काटने में किया जाता था और अन्त में उनमें लकड़ी के मूठ लगा दिया जाता था।
विश्लेषण

यह एक रोचक तथ्य है कि नवपाषाणकालीन प्रस्तर उपकरण जो क्वार्टजाइट बसाल्ट तथा ग्रेनाइट से बने थे ये वस्तुएं उत्तर बिहार में बिल्कुल ही नहीं पायी जाती थी। इसके अलावा यहाँ से नवपाषाण कालीन उपकरण भी बहुत थोड़े संख्या में मिले थे। उनके विकास की कोई प्रक्रिया भी दिखाई नहीं देती है। ये सभी तथ्य इस बात का संकेत देते हैं कि नवपाषाणकालीन संस्कृति चिरौद में उत्पन्न नहीं हुई थी बल्कि इसकी उत्पत्ति कहीं और हुई थी और धीरे-धीरे स्थानान्तरित होकर देश के इस भाग में विकसित हुई। इस तथ्य की दृष्टि इस बात से होती है कि चिरौंद के नवपाषाणकालीन संस्कृति के लोग फयांस के तथा स्टेयटाइट से परिचित थे जो विदेशी उत्पत्ति के थे क्योंकि ये वस्तुएं इस क्षेत्र के लिए दुर्लभ थी। इसके अलावा चिरोंद के ताम्रपाषाणकालीन स्तर से पकी मिट्टी से बनी ताबूत का एक लघु रूप प्राप्त हुआ था।जो इस प्रकार की एकमात्र विलक्षण प्राप्ति थी और सम्भवतः भारत में ताबूत का सबसे प्राचीन उदाहरण है। चिरोंद के उत्खनन से पाँच सांस्कृतिक कालों का पता लगा।

प्रथम काल- चिरौद का प्रथम काल नवपाषाणकालीन संस्कृति को प्रदर्शित करता है। इस काल के दो उपकालों में बाँटा गया है। काल प्रथम अ तथा काल प्रथम ब काल प्रथम (अ)- (लगभग 2500-200 ई०पू०) इस काल से लोहित मृदभाण्डों के ठीकरे मिले हैं। जो अधिकांशतः हस्तनिर्मित हैं परन्तु कुछ ठीकरों से उनके मन्द गति से चलने वाले चाक पर बनाये जाने का संकेत मिलता है ये लोहित मृदभाण्ड सम्भवतः अधिक लोकप्रिय थे तथा ये मार्जित तथा अमार्जित दोनों प्रकारों से मिले है। मृदभाण्डो के मुख्य आकारों में कटोरेबेसिन तथा ऊँचे ग्रीवा वाले जार फैले किनारे के जार टॉटीदार पात्रकलशथालियाँ कलशाधार आदि उल्लेखनीय हैं। अधिकतर मृदभाण्डों की मिट्टी कंकरीली है। मिट्टी के पिण्ड में अभ्रक तथा ठीक है कालिख के निशान भी हैं जो इस बात को प्रमाणित करते हैं कि इनमें भोजन पकाया जाता होगा। जले हुए मिट्टी के लेप जिन पर सरकण्डों की छाप है जो इस बात का संकेत देते हैं कि चिरौद बॉस और सरकण्डों की झोपड़ियों में निवास करते थे जिसका था। जागी है। तत्कालीन चिरौंदवासी मुख्यतः आखेटक तथा मछली मारने वाले लोग थे जैस कि इस स्थल से बड़ी संख्या में पशु-पक्षी एवं मछलियों की हड्डियों की प्राप्ति से पता चलता हैं इस बात में कोई संदेह नहीं है कि काल प्रथम अ के निवासी इस स्थल के प्रथम निवासी थे जो वहा का प्राकृतिक पर बस थे। इस काल का अन्य उपलब्ध वस्तुओं में लघुपाषाण उपकरण सम्मिलित है जिनमें अर्धचन्द्रिक स्क्रैपरब्लेडसूई आदि थे। अस्थि उपकरणों में बाणाग्र शलाकाएं आदि मुख्य थे। पाषाण कुल्हाड़ियाँ हथौड़े आदि की प्राप्ति हुई है। इसके अलावा स्टेराइटअगेटचाल्सीडानी आदि के मनक तथा टेराकोटा से बनी मातृदयी एवं कूबड़ वाल वृषभ की लघु मूर्तियों भी प्राप्त हुई है। नवपाषाणिक संस्कृति के प्रमाण सोहगौरा के निचले धरातल से मिले हैं। जिसमें से प्रथम काल से रस्सी की छाप से यक्त हाथ से बने हुए मिटटी के बर्तन और कुछ अन्य नवपाषाणिक सामाग्रियों उपलब्ध हुई है नवपाषाणिक धरातल के लघु पाषाण उपकरणों के साथ-साथ हड्डी के बने उपकरण भी प्राप्त हुए लघु पाषाण उपकरणों में दन्तुर कटकब्लेड तथा हड्डी के उपकरणों में बाणाग्र का विशेष महत्व हैं मिट्टी के बने तकली उत्खनन से मिले मानविकासका है। निगन नोकेर पाल ने बताया है कि यहाँ का मानव प्रारम्भ में ही खेती करने लगा थाऔर पशुपालन भी उसका प्रमुख पेशा था। खेती के प्रमाण के रूप में गेहूँजौचनामटर उड़दमूंगमसूर आदि के दाने प्राप्त हुए है। उसके साथ ही गाय बैल आदि हुई। प्रमाण में अनेक कटी एवं जली हड्डियाँ प्राप्त हुई है।
विन्ध्य क्षेत्र एवं मध्य गंगा घाटी की नवपाषाणिक पुरास्थल के उत्खनन से प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर आवास नियोजन के तुलनात्मक अध्ययन से इसके पारस्परिक सम्बन्ध के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्त होते हैं। विन्ध्य क्षेत्र के नवपाषाणिक पुरास्थल महगड़ा के क्षैतिज उत्खनन से इस संस्कृति के आवास प्रक्रिया पर उल्लेखनीय प्रकाश पड़ता है। यहाँ की सभी बीस उत्खनित झोपडियों के फर्श गोलाकार अथवा अण्डाकार ही हैं। गोलाकार झोपडियों का व्यास 6.40 मीटर से 4.30 मीटर के नाच और अण्डाकार झोपडियों का न्यूनतम तथा अधिकतम दूरी क्रमशः 3.40 मीटर से 6 मीटर और 2.80 मीटर से 4.20 मीटर के बीच की थी। इन झोपड़ियों की छत टिकी थी। बांस बल्ली और घास-फूस से निर्मित दीवार भी बनाई जाती थी जिस पर मिटटी का मोटा लेप भी लगाया जाता था। जिसके प्रमाण जली मिट्टी के टुकड़ों के रूप में प्राप्त हुए हैं। चिरौद के उत्खनन से उपलब्ध वृत्ताकार अथवा अर्ध-वृत्ताकार झोपड़ी जिसका व्यास 2 मीटर का तथा जिसकी फर्श को मिट्टी से पीटकर बनाया गया था महराया के सम्बनित फर्म की स्थिति से ऐसा लगता है कि आवास पक्रिया में इन झोपडियों की केन्द्रीय भूमिका थीं। मकान प्रायः सीधी रेखा में न होकर गोलाई में स्थित होते थे। एक मकान में एक अथवा एक से अधिक झोपड़ियाँ सम्मिलित थीं क्योंकि दो या तीन झोपड़ियों एक दूसरे से जुड़ी हुई प्राप्त हुए हैं। तीन झोपड़ियों वाले बड़े पर्व की एड़ी के लिए संयुक्त की जाती भी नर्मण सामग्री भोजन आदि के लिए प्रयुक्त की जाती थी। महगड़ा के उत्खनन से उपलब्ध 12.5 मीटर से 7.5 मीटर के क्षेत्र में विस्तृत पशुओं का एक बाड़ा जिसे अधिवास सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है। निर्मित किये गये थे। इस बाड़े की चारों तरफ अट्ठाइस स्तम्भ गर्त प्राप्त हुए है। गों की दूरी के आकलन से प्रतीत होता है कि इसमें तीन प्रवेश द्वारा थे जो क्रमशः 2.25 मीटर 1.55 मीटर तथा 1.50 चैड़े थे। सम्भवतः बाड़े को बास बल्ला से निर्मित घास-फूस का दीवारों से घेरा गया था और उसके ऊपर कोई छत नही थी क्योंकि बाड़े के भीतर स्तम्भ गर्त का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हुए है। इस बाड़े में खूटे के भी कोई प्रमाण नहीं उपलब्ध हुए हैं। बाड़े के भीतर की मिट्टी भी अपेक्षाकृत अधिक काली थी। इसमें कोई उपकरण अथवा मुदभाण्ड के अवशेष नहीं मिले। जैसा कि मध्य गंगाघाटी और इसके दक्षिणवती विन्ध्य क्षेत्र प्राप्त नवपाषाण- कालीन संस्कृति के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है कि ये दोनों ही पूर्वी संस्कृति समूह के विभिन्न अंग प्रतीत होते हैं। इसलिए दोनों ही क्षेत्र से उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर नवपाषाणिक संस्कृति के अधिवास प्रक्रिया के पुनर्निर्माण का प्रयास किया जा सकता है। मध्य गंगाघाटी और विन्ध्य क्षेत्र के नवपाषाणिक संस्कृति के उपकरणों के तुलनात्मक अध्ययन से इनके पारस्परिक सम्बन्ध के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्त होते हैं। दोनों ही क्षेत्रों के नवपाषाणिक पुरास्थलों के उत्खनन से नवपाषाणिक छोटे आकार तथा गोल समन्तान्तर की और त्रिभुजाकार कुल्हाड़ियाँ प्राप्त हुई हैं। प्रस्तर उपकरणों में कुल्हाड़ियों का प्रमुख स्थान है। विन्ध्य क्षेत्र से 1972 में सर्वप्रथम कोलडिहवा नामक पुरास्थल से नवपाषाणिक उपकरण प्राप्त हुए थे। क्षेत्र से काफी संख्या में नवपाषाणित कुल्हाड़ियाँबसुली एवं गदाशीर्ष आदि विभिन्न पुरास्थलों से प्राप्त हुए है। नवपाषाणकालीन लघुपाषाण उपकरण जो विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त हुए हैंउनके बारे में एक ध्यान देने योग्य बात है कि वे मध्यपाषाण काल के अवशेष के सिवाय कुछ नहीं है। इन छोटे उपकरणों का मुख्य उपयोग सम्भवतः वस्तुओं को काटने के लिए किया जाता होगा। कुछ का उपयोग छेदने वाले उपकरण के रूप में भी किया जाता होगा जहाँ तक इन उपकरणों के उपयोग करने के तरीके का सम्बन्ध हैउसके बार में ऐसा विश्वास किया जाता है कि उनका एक मात्र उपयोग छिद्रक के रूप में किया जाता होगा। इन्हें लकड़ी के हत्ये में एक समूह में जड़कर या अस्थि के हत्थे में लगाकर एक मिश्रित काटने व चीरने वाला किनारा बनाया जाता होगा। इस बात को साबित करने के लिए कुछ प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं। यद्यपि की लकड़ी तथा अस्थि के वे हत्थे जिनमें लघुपाषाण उपकरणों को मढ़ा जाता था अधिकतर नष्ट हो चुके है फिर भी सयोग से उनकी प्राप्ति उत्खनन के दौरान हुई द्य इस प्रकार के प्रमाण जइतुन से मिले है जिसम लकड़ी के हत्थे में लघुपाषाण उपकरण घुसाए गये थेतथा अप- कुपरूक में एक हँसिया जैसे ब्लेड़ पर घासों को काटने के कारण पड़े चमक के चिन्ह दिखाई पड़ते है। इसी प्रकार एक त्रिभुजाकार पिलण्ड एक मनुष्य के रीढ़ में धंसा हुए पाया गया जो टेविस द्वीर के किये गये उत्खनन में मिलाद्य पूर्वी डेनमार्क के विग में एक जंगली बैल का कंकाल भी मिला जिसे इसी प्रकार के नोंक वाले बाण से मारा गया था चैल्सिडनीचर्टअगेट आदि महीन कण वाले पत्थरों पर बने समानान्तर बाहु वाले ब्लेड खुरचनी वाणागस्वचित ब्लेड नोंक दन्तुरित नॉकअर्ध चन्दछिद्रक आदि लघु पाषाण उपकरण भी वहाँ से प्राप्त हुए हैं। कुछ ज्यामितीय उपकरण भी लघुपाषाण उपकरणों में सम्मिलित हैं। घिसकर पॉलिश किये गये गोलाकार नव पाषाणिक कुल्हाड़ियों की संख्या चिरौद से कम है लेकिन इंड्डियों एवं मृगश्रृंगों से बने हुए विभिन्न प्रकार के उपकरण यहाँ से प्राप्त हुए हैं। इन उपकरणों में सुईनॉकछिद्रकपिनपुच्छल एवं छिद्रयुक्त वाणाग्र खुरचनीछेनी हथौड़ाकुल्हाड़ियाँ आदि सम्मिलित है।
अस्थि उपकरण:
अस्थियों से बने उपकरणों की प्रचुरता चिराद की नवपाषाणकालीन संस्कृति की एक प्रमुख विशेषता हैं। उत्खनन में बड़ी संख्या में हड्डियों एवं मृगश्रृंग से बने उपकरण प्राप्त हुए हैं। अधिकतर हड्डियाँ हिरणों की है जो घने जंगली क्षेत्र में बहुतायत से मिलते हैं। चिरौद का स्थलगंगा की घाटी में स्थित थाजहाँ पत्थरों और चट्टानों का अभाव था। नवपाषाणकालीन लोगों के द्वारा कृषि कार्य को अपनाया गया। उनके इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक ऐसा उपकरण की आवश्यकता थी जो सुविधाजनक हो तथा आकार में काफी बड़े हों जो गंगा घाटी के मैदान के गाद भरे भूमि को हल्का करने का काम कर सके। अतः पत्थरों के अभाव में जानवरों की अस्थियों को विकल्प माना गयाजिसे मनुष्य खाने के अभ्यरत थे। अस्थियों को औजार बनाने के लिए शायद इस कारण चुना गया था क्योंकि इस पर काम करना आसान था तथा इनकी प्रकृति मजबूत थी। पहले तो अस्थियों का उनके मूल तथा प्राकृतिक रूप में ही प्रयोग किया गया होगा परन्तु बाद में उन्हें मनवांछित रूप दिया जाने लगा जैसा तीखे किनारे वाले भारी उपकरणों की जरूरत जलावन की लकड़ी काटने के लिए हिरण की सींग की नोंकमछली पकड़ने के लिए तथा लघुपाषाणा उपकरण लगाने के लिए हत्थे। चिराद के नवपाषाणकालीन स्तर से अन्वेषित अस्थि के उपकरणों में हथौड़े सुईयालॉकशलाकाण्ड या पिनचापभेदकस्क्रैपरबरमेचिमटेमूसले सुआ आदि प्रमुख थे। अस्थि से बने उपकरणों के पुरावशेषों की संख्या चिरौद में लगभग 200 है। कार्य के आधार पर इन्हें 30 प्रकार के समूहों में रखा जाता है। इन उपकरणों के निर्माण में मृगश्रृंग की हड्डियो तथा हिरण एवं मवेशियों की बड़ी लम्बी हड्डियों का उपयोग किया गया है। कुछ उदाहरणों में कछुओं के कवच तथा हाथ पौत का भी उपयोग किया गया है। नर हिरणों के सीग लम्बे होते थे। इसकी संरचना पशुओं के अन्य अस्थियों की अपेक्षा अधिक होती हैं। इसकी मजबूती के कारण भारी काम के औजार बनाने के लिए अधिक पसन्द किया गया जैसे बॉस चीरने की फन्नी हथौड़े के दबाव द्वारा उपयोग करने वालीफन्नी हत्थे वाली कन्नीकुल्हाड़ीछेनियाँ कन्दमूल खोदने के लिए उपकरणहथौड़े चिमटे तथ छेद करने वाले उपकरण हथौड़े के दबाव द्वारा उपयोग किये जाने वाले फन्नियों का लाल हिरण के सींग की हड्डीसे बनाया जाता था। इसके तिरछे नोक को आग से पका करके प्राप्त किया जाता था। लकड़ी या बाँस को चीरने के समय इसे लकड़ी के चीरे हुये भाग में घुसा कर हथौड़े से ठोका जाता था। यह लकड़ी काटने का एक प्रभावी औजार था। इसका उपयोग हिरण के श्रृंगों की लम्बाई में काटने के लिए भी किया जाता होगा। काम करने वाले छोर पर अनियमित खरोंच से इस बात का संकेत मिलता है कि इस बहमुखी उपकरण का उपयोग बाँस काटने वृक्ष की शाखाओं को काटनेस्तंभगर्ताे को खोदने के लिए तथा जानवरों के मोटे और लम्बें जोड़ों को काटने में किया जाता था। मृगश्रृंग की पतली कड़ी खोदने के उपकरण के उद्देश्य की पूर्ति करता था। इसके आगे के ढलुए भाग की तरफ से काम लिया जाता था। इस तने वाले बाकी हिस्से को आधी दूरी पर आरी से काटा जाता था तथा लम्बाई में उसे तोड़ दिया जाता था ताकि उससे मूठ बनाया जा सकें। पास की जड़ों को खोदने के क्रम काम करने वाले छोएन में लगातार सपर्ण होनेपहने के कारण गिरहोते ऊपर की नुकीली मृगश्रंग की शाखा सम्भवतः छिद्र करने वाले उपकरण के रूप में प्रस्तुत होती होगी। चूल्हें के राख एवं कोयला को निकालने के लिए भी मृगश्रृंग से उपकरण बनाये जाते थे आग के निरन्तर सम्पर्क में आने के कारणों के अस्थियों से उपकरण ग सिलने की सूई, चमड़े को काटने का उपकरणसकरे सिरे की रूखानी वृत्त खीचने की लिए परकार या विभाजक सूआबरछे की नोकनुकीले बाणाग्र प्रक्षेपकनॉकलोलक कधे आदि बनाये जाते थे। स्थानीय नदी में उपलब्ध कछुए के कवच के निचले भाग में चमड़ा काटने के उपकरण बनाये जाते है। इसके तेज किनारों को एक पृष्ठीय रगड़ के द्वारा प्राप्त किया जाता था। गर्तिका वाले कंघों का निर्माण जानवारों की खाल से बालों को हटाने के लिए किया जाता था। कंधे की दातों को पत्थर की ब्लेड से अधिक दक्षता के साथ काटा जाता था। इसे बालों को विपरीत दिशा में परिचालित किया जाता था। बालों को हटाने के लिए यह एक प्राथमिक उपकरण था। चमड़े को काटने के लिए तेज धार के किनारे वाले उपकरण का प्रयोग किया जाता था। चमड़ा सीने की सूई का किनारे का समतल रखा जाता था शायद समतल किनारा गोल सिरे की सुई की अपेक्षा अधिक आसानी से चमड़ा काट सकता था। आधुनिक चमड़ा सिलने का उपकरण भी चपटा या समतल सिरे का होता है। बरछे की नॉक को बांस के सिर पर मढ़ दिया जाता था तथा इसका उपयोग मछली मारने के लिए किया जाता था। बिहार राज्य के उत्तरी भाग के मकुआरे आज भी बिल्कुल सके मारने के लिए करते है। हिरण के अस्थि से वोडकिन जो जाल बनने का उपकरण बनाया गया था। नुकीले बाणाग्र तथा प्रक्षेपक नोकों को छोटे जानवरों एवं पक्षियों आदि के मारने में अधिक प्रभावकारी प्रक्षेपास्त्र के रूप में प्रयोग किया जाता था। नवपाषाणकालीन कुल्हाड़ी के लघु प्रतिकृति जैसा लोलक बहुत सावधानीपूर्वक घर्षण विधि से बनाया गया था तथा इसमें छेद बनाने के लिए बरमें का उपयोग किया गया प्रतीत होता है।
चिरौद से प्राप्त लघुपाषाण उपकरणों में समानान्तर बाहुपाले पिरप्याइन्टब्लेडखाँचों वाले ब्लेडचन्द्रिका खुरचनी बाण छिद्रक तथा बेधक आदि है और विन्ध्य क्षेत्र के नवपाषाणिक स्थलों से प्राप्त लघुपाषाण उपकरणों में समानान्तर द्विवाहु ब्लेड भूधड़ेपाश्र्व ब्लेडदन्तुरित ब्लेडतिरछा पाश्र्वन्त ब्लेडशर बंधकस्कपरत्रिभुजसमलम्ब चतुर्भुज आदि अर्द्धचन्द्रक तथ ट्राचट आदि है। गंगा घाटी में दन्तुरित ब्लड त्रिभुज समलम्ब चतुर्भुज का अभाव है। विन्ध्य क्षेत्र में लघु पायाण उपकरण जिसमें उपकरणों के अतिरिक्त ब्लेडकोर तथा अनुपयोहित प्रस्तर सामग्री भी प्राप्त हुए है। विध्य क्षेत्र का नवपाषाणिक मानव अपने उपकरणों के निर्माण के लिए निर्माण के लिए चाल्सेडनीचर्ट अगेट कार्नेलियनक्वार्टज तथा क्रिस्टल आदि पत्थरों का प्रयोग करते थे। जबकि चिरोंद में चाल्सेडनीजैस्पर अग्रट तथा चर्ट आदि पत्थरों का प्रयोग किया गया है।
बुर्जहोम की तुलना में चिराँत के अस्थि उपकरण अधिक परिष्कृत है। होम से जैसे- छोटे छूरे प्राप्त हुए है। वैसे चिरोद से प्राप्त नहीं होते बल्कि कुछ भाले एवं बरों की नोंक मिली है। बुर्जहोम में हारपून बार-बार दिखाई पड़ते है। परन्तु चिरौद में इनका नहीं मिलना काफी महत्वपूर्ण है। चिरौद में इनकी अनुपस्थित की समुचित व्याख्या नहीं की जा सकती है। डेपोटजाल जुझाने के सिंह भी पाये जाते है तथा यह स्थल भी नदी के किनारे अवस्थित हैं। अतः इस बात में सन्देह नहीं है कि चिरौंद के नवपाषाणकालीन निवासी मछुआरे रहे होगें। मछलियों को पकड़ने का काम जाल के द्वारा किया जाता रहा होगा इस प्रकार उपकरणों के विश्लेषणों तथा उनके क्रियात्मक उपयोग नवपाषाणकालीन चिरौद वासियों के जीवन शैली पर प्रकाश पड़ा है। बुर्जहोम एव गुफकराल के अस्थि उपकरण और उनके प्रकारों के विषय को ध्यान में रखते हुए उत्तर भारतीय नवपाषाणकालीन समुदाय के बीच कोई सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। इन दोनो क्षेत्रों के बीच के सम्भावित सम्बन्ध को स्थापित करने के लिए मध्यवर्ती क्षेत्र के अव्यवस्थित विस्तार की अच्छी तरह अन्वेषण तथा उत्खनन करना आवश्यक होगा। बुर्जहोम तथा गुफकराल के उत्खनन में मिले निवासगर्त कश्मीर एवं चीन के बीच कुछ सम्बन्ध का संकेत देते है। चीन में इसी प्रकार के निवास गर्त हेनवेम्ब के निकट देखे गयेपरन्तु चिरौद में इस प्रकार के गर्त नही पाये गये हैं। ऐसा पहले ही कहा जा चुका है कि जब तक आसाम व उड़ीसा के नवपाषाण कालीन स्थलों का विस्तृत उत्खन्न नहीं होता तब तक चीन के साथ उत्पत्ति मूलक सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता है। अन्य पुरापाषाण एवं मध्य पाषाण कालीन स्थलों के शिल्प तथा चिराँद से प्राप्त शिल्प तथ्यों के बीच कुछ साम्य देखा गया है। चिरौंद से अनेक ऐसी मिट्टी के ईंट जैसी वस्तुएँ मिली हैं। जिनमें अँगूठे की छाप है। इनकी समानता जोरिकों के नवपाषाणकालीन स्तर से प्राप्त एक मृतिका के साथ की जा सकती है। चिरौद से प्राप्त मृगश्रृंग से बना वालों को सीधा करने के उपकरण की समानता चीन से प्राप्त उदाहरण से कर सकते हैं। कु-हुवसिंगुल के नवपाषाणिक स्तर के टकुए छेनियों तथा सुइयाँ प्राप्त हुई हैं। चिरौंद के नवपाषाण कालीन स्तर से अच्छी संख्या में मनके प्राप्त हुए हैं। कई आकार- प्रकार के मनके विभिन्न पदार्थों से निर्मित हैं। ये मनके जिन अर्ध मूल्यवान पत्थरों के बने थे उनमें चाल्सीडनीजैस्परअगेट संगमरमरस्टेटाइस कन्यास प्रमुख हैं। इनके अलावा अस्थिसोप स्टोन के बने मनके भी प्राप्त हुए हैं। अर्ध मूल्यवान पत्थर के बने मनके लम्बे नालिकादार बड़े पीपाकारछोटे पीपाकर बेलनाकार तथा चकतीकार थे। मिट्टी के बने मनके अधिकतर नालिकादारलाशपत्याकार तथा घट के आकार के थे। मनकों एवं लोलकों का सूक्ष्म परीक्षण करने से पता लगता है कि मनके बनाने का उद्दोग यहाँ बहुत विकसित था। इनकी तुलना जब हम चिरौद से प्राप्त मनकों से करते हैं। तो इनकी संख्या एवं गुणवत्ता अन्य तुलना में अधिक समृद्ध है। उदाहरण के लिए फिकलीहल से केवल स्टेयटाइट तथा सीप से बने कुछ मनक मिले हैं। उत्तनूर एवं बुर्जहोम से मनका का एक भी साक्ष्य नहीं मिला है। गुप्तकाल से भी बहुत थोड़े मनके एवं लोलक प्राप्त हुए हैं। पाटलीपुत्र से भी अच्छी संख्या में मनके प्राप्त होने की सूचना है। अंतिचक से भी कुछ मनके प्राप्त हुए हैं। परन्तु ये सभी बाद के समय के हैं द्य मनके बनाने का उद्योग मुख्यतः स्थानीय उद्योग या जिसका प्रमाण इसके निर्माण में प्रयुक्त होने वाले कच्चे माल की प्राप्ति से होती थी। ये कच्चे माल इन्हें निकट बहने वाली सोन नदी के तल से प्राप्त होता था। यहाँ से मिले अर्धनिर्मित मनके भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि मनके स्थानीय स्तर पर निर्मित किये जाते थे। ऐसा जान पड़ता है कि नवपाषाण काल के चिरौद के शिल्प सोन नदी के तल से प्राप्त होता था। यहाँ से मिले अर्धनिर्मित मनके भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि मनके स्थानीय स्तर पर निर्मित किये जाते थे। ऐसा जान पड़ता है कि नवपाषाण काल के चिरौद के शिल्प सोन नदी के तल से अप्रैल मई के महीनों में पत्थरों के पिण्ड या टुकड़ों को एकत्र या संग्रहीत करते होंगे जब नदी सूखी रहती है। वर्तमान समय में यथेष्ट स्थानान्तरण के बाद यहां नदी चिरौद के उत्खनित स्थल से कुछ किलोमीटर दूर में बहती है। ऐसा मालूम होता है कि पत्थर के पिण्डों को पहले धूप में सुखाया जाता था फिर गहरे रंग की प्राप्ति के लिए सम्मवत मी के आग में तपाया जाता था। पकाने के बाद शिल्पियों द्वारा उन पिण्डों का निरीक्षण करके अच्छी तरह पके हुए टुकड़ों को छांट लिया जाता है। इन टुकड़ों को दुबारा तब तक पकाया जाता है जब तक कि संतोषजनक परिणाम प्राप्त नहीं हो जाता। तपान के बाद उन प्रस्तर पिण्डो का मनका का आकार देने के लिए कतरा जाता था। एक पिण्ड से केवल एक मनका गढ़ा जाता था। फिर अर्धनिर्मित मनकों को पूरा किया जाता था तथा उनको अन्तिम आकार दिया जाता था। इसके लिए उसे बलुए पत्थर के टुकड़े से लगातार सगड़ा जाता था फिर किसी अन्य कड़ी सतह वाली वस्तु से रगड़ कर चमकाया जाता था। इस प्रक्रिया में शिल्प अपने हाथों में मनकों को पकड़ कर उसे सूखे सतह पर रगड़ कर चमकाते थे। नवपाषाण काल में जबकि लोगों को धातु का ज्ञान नहीं था इन पत्थर के बने मनकों में छिद्र कैसे किया जाता था इस गुत्थी का सुलझाना अभी बाकी है। सिन्धु के चन्हुदड़ों से प्राप्त मनकों में छिद्र करने के लिए पाषाण से निर्मित बरमों का उपयोग किया जाता था। परन्तु चिराद नवपाषाण कालीन स्तर से इस प्रकार के उपकरण प्रकाश में आये हैं। बहुत सम्भव है कि इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए चिरौद वासी अस्थि निर्मित वरमों का उपयोग करते हो तीसरी शताब्दी ई०पू० में सिन्धु क्षेत्र में पाषाण वरमें के अलावा अस्थि बरमें का भी प्रयोग किया जाता था। अतः चिरौद के नवपाषाणकालीन शिल्पियों ने भी सम्भवतः इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अस्थि निर्मित बरने का उपयोग किया हो। मनकों को विद्रित करने के लिए शायद उसे पहले खोखले वस्तु से लकड़ी के फ्रेम पर स्थिर करके मनकों मेंछिद्र किया जाता था। छिद्रित करते समय अपधर्मी के रूप में बालू चूर्ण का उपयोग चिकनाई के लिए किया जाता था। आधे दूर तक छिद्र करने के बाद मनके को उलट दिया जाता था। कई अधनिर्मित मनकं चिरौद से प्राप्त हुए हैं जो उत्पादन के विभिन्न स्तर के हैं। इन मनकों के अध्ययन से पता चलता है कि मनकों को अन्तिम मार्जन से पहले ही छिद्रित किया जाता था। क्योंकि छिद्रित करने की प्रक्रिया में कभी-कभी मनके टूट भी जाते थे चिराँद से प्राप्त मनके बहुत अच्छी तरह मर्जित हैं। इनको चमकाने की कला में चिराद के शिल्पी बहुत ही कुशल थे। लम्बे मनकों के किनारे अच्छी तरह चिकने बनाये गये थेताकि उनके तेज किनारों से डोरिया न कट जायें अर्ध मूल्यवान पत्थरों के अलावा अन्य माल स्थानीय तौर पर उपलब्ध था। फ्यांस स्टेयराइट स्थल पर संगमरमर अन्य संस्कृतियों के साथ के सम्बन्ध का संकेत करती है। नवपाषाण कालीन स्तर के बाद चिरौद से फ्यांस के मनके प्राप्त नहीं होते है। चिराँद के स्टेयटाइट या सेलखड़ी के बने मनके इस क्षेत्र के लिये विदेशी हैं। हड़प्पा के निवासी भी मनके तथा मुहरों को बनाने के लिए सेलखड़ी का उपयोग करते थे। हड़प्पा निवासियों के लिए स्टेटाइट पाने का स्त्रोत राजस्थानगुजरात जब घाटी थी अतः चिरौद से प्राप्त स्टेटाइट से बनेमनके हड़प्पा निवासियों के साथ इनके सम्पर्क को प्रमाणित करते हैं। ऐसा देखा गया है कि स्टेटाइट के मनके निद के दिमाग कालीन तथा ताम्रपाषाणकालीन स्तर तक सीमित थे लघु मनकों को बनाने के लिए यह चिरौदवासियों का बहुत पसंदीदा पदार्थ था क्योंकि यह एक मुलायम पत्थर होता है। इस पदार्थ में केवल चकती के आका के मनके ही बनाये जाते थे। पशु अस्थियों से बने कुछ मनके भी चिरौद से प्राप्त हुए हैं। सीरो के नगके विरौद में ताम्रपाषाण काल के तुरन्त बाद प्रकट हुए हैं। इन्हेंसने और गुण्डली तकनीक से बनाया जाता था। इस उद्देश्य के लिए पारदर्शीरंगहीनकालेहरेनीलेलालपीले तथा हिपवर्णी शीशे का उपयोग किया जाता था। शीशे के मनकों में गोलाकार मनके अधिक लोकप्रिय थे। मध्यगंगा घाटी की नवपाषाणिक पुरास्थल से हड्डा एवं श्रृंग पर बने उपकरण बहुत अधिक संख्या में प्राप्त हुए हैं जो इस संस्कृति को प्रमुख विशेषता है। झुंसी के नवपाषाणिक धरातल से भी लघुपाषाण उपकरणों के साथ ही हड्डी के बने उपकरण प्रकाश में आयें हैं। विन्ध्य क्षेत्र के नवपाषाणिक पुरास्थलों से हड्डी से बने उपकरणों की संख्या कम है। महगड़ा स्थल से स्कंधित हड्डी के शर प्राप्त हुए हैं। हड्डी के उपकरणों से मध्य गंगा घाटी में नवपाषाण कालीन मानव के विशिष्ट उद्योगों का पता चलता है क्योंकि गंगा के मैदान में उपकरणों के निर्माण के लिए पत्थरों की कमी थी इसलिए बड़े पैमाने पर पशुओं की हडिडयों और सींगों के उपकरणों का निर्माण किया गया आवास के लिए गोलाकार झोपड़ियों के प्रयोग झुंसी के उत्खनन से प्रकाश में आये हैं अनेक प्रकार के सांस्कृतिक पुरावशेषों में जैसे हस्तनिर्मित मृदभाण्डआखेटपशुपालन करनाखाद्यान्न उत्पादन केउपकरण आभूषण एवं झोपड़ियों वाले अभिनास गई स्पष्ट करते हैं कि क्षेत्र एवं गंगा मैदान की नृत्याधाणिक समाज वर्णन आत्म निर्भर थ गंगाघाटी की नवपाषाण कालीन संस्कृति से प्राप्त मात्र परम्परायें उनके कलात्मक पक्ष को उद्घाटित करती हैं। इस संस्कृति के लोग चार प्रकार के हस्त निर्मित मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करते थे।

1. डोरीछाप
2. खुरदरे मृदभाण्ड
3. चमकाये हुए लाल मृद्भाण्ड
4. चमकाये हुए काले मृदाण्ड
डोरी छाप मृदभाण्ड सबसे प्रमुख हैं जिनकी बाहरी सतह पर डोरी अथवा बटी हुई रस्सी की छाप या निशान मिलते हैं। इस प्रकार के अलंकरण कछुआ की खोपड़ी की छाप से भी बनाये जा सकते थे द्य बर्तनों का रंग हल्का लाल है तथा अधिकांश पात्र मोटी कढ़न के है। छिछल एवं गहर कटोरटोटादार कटार तथा घड़े अन्य प्रमुख पात्र प्रकार हैं। खुरदरे मृदभाण्ड भी लाल रंग के हैं जिनकी बाहरी भाग को जानबूझ कर खुरदरा बनाया गया है। कटोरेछिछले तसले तश्तरियाँचैड़े मुँह की हडिडयां तथा घड़े प्रमुख पात्र प्रकार हैं। बर्तनों की बाहरी सतह को आड़ी तिरछे तथा अंगुष्ठनख डिजाइनों से अलंकृत किया गया है। लाल तथा काले मृदभाण्डों की भीतरी तथा बाहरी सतहों को पकाने से पूर्व किसी वस्तु से रगड़कर चिकना किया गया है। कटोरेतश्तरियांतसले एवं घड़े प्रमुख पात्र प्रकार हैं जिन पर उत्कीर्ण तथा चिपकावा दोनों प्रकार के अलंकरण मिलते हैं। विन्ध्य क्षेत्र के नवपाषाण संस्कृति की कुछ पात्र परम्परा के बर्तनों के ऊपरी सतह पर रस्सी की छाप अथवा कछुए की हड्डी पीटकर अलंकृत किया गया है और कुछ की ऊपरी सतह को खुरदरा बनाया गया है। डोरी छाप पात्र इस संस्कृति के विशिष्ट पात्र हैं। ये पाउबाल रंग के तथा गोटी गन के हैं। कुछ पत्रों के ऊपरी सतह को घॉटकर चिकना और चमकीला बनाया गया है। पात्रों को घोंटकर चिकना बनाने की प्रथा से दोनों ही संस्कृतियों का परिचय था। मध्य गंगाघाटी की नवपाषाणिक संस्कृति की मुख्य पात्र परम्परा लाल रंग की है। लेकिन भूरे काले और कृष्ण-लोहित पात्र भी मिलते हैं। एक ही तरह के बड़े और कटोरे तथा टॉटीदार वर्तन दोनों संस्कृतियों से प्राप्त हुए है। इसके अलावा विन्ध्य क्षेत्र के नवपाषाणिक पुरास्थलों से गहरे अथवा छिछले कटोरे थाली तथा हाण्डी उल्लेखनीय हैं और मध्य गंगा घाटी के चिरौद पुरास्थल सेओष्ठयुक्त कटोरे छिद्रयुक्त और गोडेयुक्त कटोरेसाधार कटारेचम्मच कलछी आदि मिल है। बर्तना पर अलंकरण करने की परम्परा दोनो क्षेत्रों में मिलती है। विन्ध्य क्षेत्र से पट्टी चिपकाकरआड़ी खड़ी रेखाओं तथा उत्कीर्णनों द्वारा बर्तनों पर अलंकरण किया गया है। विन्ध्य क्षेत्र से कोई भी रंग से चित्रित पात्र नहीं मिले हैं जबकि मध्य गंगा घाटी में अलंकरण अभिप्रायों में पाँच से सात तिरछी रेखाएं संकेन्द्रित अर्द्धवृत्त एवं वृत्त आदि से किया गया है। चिरौद में नवपाषण काल में पात्रों को पकाने के बाद चित्रित किया जाता था। लेकिन विन्ध्य क्षेत्र में पात्रों को पकाने के बाद चित्रित करने की परम्परा नही थी और न ही उन्हें पकाने के बाद खरोंच कर अलंकत ही किया गया था। चिरौद में स्लेटी और कृष्ण लोहित पात्रों को पकाने के बाद गैरिक रंग से चित्रकारी की गयी थी। चिपकवा तथा उत्कीर्ण अलंकरण बनाने की परम्परा दोनो क्षेत्रों में मिलती है। टोटीयुक्त बर्तनों का प्रयोग सम्भवतः पानी अन्य द्रव्य पदार्थों के लिए किया जाताचिरौंद के उत्खनन से प्लेट या तश्तरी जैसे बर्तनों की संख्या कम है जबकि कटोरे हाण्डी और टोटीदार बर्तन अधिक है। इस आधार पर यह अनुमान किया गया है कि इस क्षेत्र का नवपाषण कालीन संस्कृति का मानत अपने भोजन में तरल पदार्थों का अधिक प्रयोग करता था। उपरोक्त विवरण से यही प्रतीत होता है कि चिरौद की नवपाषाणिक संस्कृति अधिक विकसित है जबकि विन्ध्य क्षेत्र की यह संस्कृति अभी भी शैशववस्था में है। हड्डी के बने उपकरणों में छेनीसूईप्पाइण्टपुकाल एवं खपिदार बाणकुदाल बरगे भालाग्र और वाणाग्र आदि प्राप्त हुए। है। बैल के एक कन्धे की हड्डी का प्रयोग बेलचे के रूप में किया गया है। उपकरणों का उपयोग शिकार में किया जाता था इनका खेती में जमीन के लिए इस्तेमाल होता था। हड्डी की एक तिहाई भी मिली है। चिरोंद के नवपाषाणकालीन स्तर से हाथी दाँत से निर्मित हुआ कंधा मिला है। इसके मूठ पर सिर्फ बारह दाँत बचे हुए है।

निष्कर्ष एक अन्य ध्यानाकर्षक वस्तु जो इस स्तर से प्राप्त हुआ है वह बरछीनुमा वस्तु है जिसमें उसकी परिधि के साथ में दो छिद्र बने हुए है तथा एक छिद्र केन्द्र बना है। इसकी परिधि में बने हुए प्रत्येक छिद्र के बीच में एक अस्थि वाला दात मिला है। जब कोई इस छिद्र से बाल को एक सीध में रखकर देखता है तब यह सर्व करने के उपकरण का उद्देश्य पूरा करता है। इस वस्तु का नवपाषाणकालीन स्तर से प्राप्त होना विलक्षण है तथा उस काल के लोगों के तकनीकी ज्ञान की उन्नति का संकेत देता है। अस्थि निर्मित चूड़ी का एक टुकड़ा भी इस काल का एक महत्वपूर्ण आविष्कार है। विन्ध्य क्षेत्र एवं मध्य गंगा घाटी के नवपाषण कालीन लोगों के कलात्मक अभिरूचि को अभिव्यक्त करने वाले पुरावशेषों में उपरत्नों पर बने सुन्दर मनके प्राप्त हुए है। चिरौद से मनकों के अतिरिक्त उपरत्नों पर बने लटकन, टेराकोटा और हड्डियों की चूड़ियाँ एवं पशु-पक्षी तथा नाग की मृणमूर्तियों का उल्लेख किया जा सकता है तथा महगड़ा से छिद्रयुक्त चकरी गोलाकार मिट्टी की गुरियाँ, छिद्रयुक्त सीपी की लटकन हड्डी के मनके आदि प्राप्त हुए हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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