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पुतलियों के विभिन प्रकार | |||||||
Different Types of Puppets | |||||||
Paper Id :
16143 Submission Date :
2022-06-03 Acceptance Date :
2022-06-18 Publication Date :
2022-06-23
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सारांश |
इस शोध पत्र में भारत के विभिन्न पुतलियों के प्रकार के बारे में वर्णन किया है, जिन का आधार है कथा, यह पुतलिया धार्मिक ,पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओ का प्रतिनिधित्व करती है, इस से पता चलता है कि पुतलियों के सभी रूपों जैसे दस्ताना पुतली, छड़ी पुतली, छाया पुतली और कठपुतली आदि की प्रस्तुति कथा के बिना अधूरी इस के साथ साथ समाज में फैली कुरीतियों को आधार बनाकर लोगों को जागरूक करने के लिए कथाओं की प्रस्तुति भी पुतलियों द्धारा की जाती है, इस सन्दर्भ में यह विषय पुतलियों के विभिन्न प्रकारों और उनके बनाने की विधि की चर्चा की गयी है ।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In this research paper, various types of puppets of India have been described. The basis of which is the story. Presentation of puppets and shadow puppets etc. is incomplete without the story, along with this, the presentation of stories is also done by the puppets to make people aware on the basis of the evils spread in the society. In this context, this topic has been discussed about the different types of pupils and the method of making them. | ||||||
मुख्य शब्द | पुतलियों के विभिन प्रकार, पौराणिक, ऐतिहासिक कथाए, कठपुतली । | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Different Types of Puppets, Mythology, Historical Stories, Puppets. | ||||||
प्रस्तावना |
जिस तरह कठपुतली की डोर सूत्रधार के हाथ में होती है, उसी तरह मनुष्य की डोर भगवान के हाथ है और वह अपनी मर्जी के अनुसार ही उसको चलाता है। पुतलियों के नृत्य नाटक को लोक जीवन में मनोंरजन का अच्छा साधन माना गया है, जिसकी परम्परा सदियों पुरानी है। मध्यकाल में यह विशेष प्रचलित रही है। “पुतलियों के नृत्य नाटक किसी प्रचलित लोक कथा या कहानी पर आधारित होते हैं। इस में मंच सज्जा, सूत्रधार अभिनय, अभिनेता, संवाद, नृत्य और गीत-संगीत इस में किसी न किसी रुप में मौजूद रहते हैं और सहायक होते हैं।”
भारत में आमतौर पर चार तरह की परंपरागत पुतलियां है। “वह पुतलियां जिनको नाटककर्ता दस्तानों की तरह हाथों पर चढ़ा लेता है, वह दस्ताना पुतली कहलाती है। जिनको छड़ी से नचाया जाता है, उन्हें छड़ी पुतली कहते हैं। डोर के साथ हरकत में आने वाली पुतलियों को डोर पुतली या कठपुतली कहते हैं। पारदर्शी सफेद पर्दे के पीछे गतिमय होने वाली पुतलियां, जिनकी छाया को दर्शक देखते है, छाया पुतली कहलाती है।”
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अध्ययन का उद्देश्य | इस शोध में शोधार्थी द्वारा भारत में पुतलियों के अलग-अलग प्रकार व उनकी प्रस्तुति में प्रयोग होने वाली कथाओं के बारे चर्चा की गई है। |
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साहित्यावलोकन | पुतली कला पर आधारित प्रमुख साहित्यों का अध्ययन किया गया है। राष्ट्रीय स्तर की शोध-पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों का अध्ययन किया गया है। |
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मुख्य पाठ |
दस्ताना पुतली-
राजस्थान में आज से तीस साल पहले एक ऐसी जाति निवास करती थी, जो भीख मांगने के लिए एक विशिष्ट पुतली के प्रयोग करती थी, जिसका नाम ‘लालुआ’ था। इस ललुआ के सब अंग टूटे होते थे। इनके दोनों हाथ और दोनों पैर व सिर बच्चे के आकार का है, जिससे उंगलियों में पहने जाते थे। छाती और पेट की मांसपेशियों की जगह एक रुमाल या पकड़ा होता था। जिससे हाथ की हथेली पर पड़ा बच्चा दिखाई देता था। यह भी दस्ताना पुतली का ही प्रकार है।” दस्ताना पुतली की प्रस्तुति में रामायण, महाभारत पर आधारित कथा, राधा कृष्ण, शिव पार्वती विवेकानंद, गांधी जी, व सामाजिक बुराईयों पर आधारित कथाओं का प्रयोग किया जाता है। दस्ताना पुतली बनाने की विधि- दस्ताना पुतली पेपरमेशी मेथीदाना, प्लास्टिक आफ पैरिस, खराद मशीन, लकड़ी का बुरादा अनुपयोगी वस्तुएं, हौजरी, कपड़े और पेड़ की टहनियों की मदद से बनाई जाती है। दस्ताना पुतली को बनाने के लिए सफेद, लाल, पीले और काले रंग का प्रयोग किया जाता है। काले रंग से बाल और आँख, सफेद और पीले रंग के मिश्रण से चेहरा व लाल रंग को मुँह की बनावट उभारते के लिए प्रयोग किया जाता है।” छड़ी पुतलीः- छड़ी पुतली उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल में ज्यादा प्रसिद्ध है। इसमें एक पुतली को छ़डी की नोक पर लगा दिया जाता है। उसके हाथ पैर छड़ी के सहारे लटकते छोड़ दिए जाते हैं। इस पुतली नृत्य में छड़ी पुतली मंच के उपरी भाग में नजर आती है और सूत्रधार इसे नीचे से चलाता है। “भारत में यह नृत्य नाटक उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, आसाम, बिहार आदि में प्रचलित हैं। पश्चिमी बंगाल में इस पुतली को “पुतल नृत्य” कहा जाता है। इसमें पुतलियों की लंबाई साढ़े चार फीट होती है। यह ‘जात्रा’ के साथ जुड़ा हुआ है और उसके कथानकों की वेशभूषा के अनुकूल यह नृत्य नाटक किया जाता है। उड़ीया की छोटी पुतली जिसकी लंबाई 12-18 इंच होती है, उनको काथी-कुड़ई नाच कहते हैं।” छड़ी पुतली की विशेषता यह है कि एक ही छड़ को सिर व वस्त्र बदलकर प्रयोग किया जा सकता है। इनकों नचाने वालों की विशेष जातीगत मंडली होती है, जो जीविका के लिए आज भी यह पुतलियां नचाते हैं।छड़ पुतली की प्रस्तुति के लिए रामायण, महाभारत, कृष्ण-राधा, वीर योद्धाओं और सामाजिक बुराइयों पर आधारित कथाओं से विषयों को चुना जाता है। छड़ी पुतली बनाने की विधि-
छाया पुतलीः- यह पुतली चपटे और पारदर्शी चमड़ें या कागज के टुकड़े के साथ बनाई जाती है। जिसके पीछे एक छड़ी को बांधा जाता है जिसके सहारे पुतली को चलाया जाता है। “आंध्र प्रदेश की छाया पुतली दो हजार साल पुरानी है। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी आंध्र प्रदेश के राजाओं के समय में यह पुतलियां अपने विकास की चरम सीमा पर थी। इन राजाओं ने छाया पुतली को हर तरह से सुरक्षित रखा और प्रोत्साहन दिया। इस समय के दौरान यह पुतलियां भारत की सीमा को पार करके सुमात्रा, जावा बेनरियू, बाली, बरमा, चीन और इडोनेशिया जैंसे देशों में प्रवेश कर गई।” इन देशों की पुतलियां भी रामायण, महाभारत और पौराणिक कथाओं पर आधारित है। यह सारी कथाएँ और पात्र भारत से ही आए है। छाया पुतली बनाने की विधिः- यह पुतलियां शुरु से ही गत्तों से बनाई जाती थी। जिन पर रोशनी डालने से काली छाया परदे पर गिरती थी पर बाद में यह चमड़े की बनाई जाने लगी। हिरण, बकरे व भेड़ के चमड़े को विशेष रुप से पकाया जाता था और उसे विशेष विधि से रगड़कर अलग-अलग आकृतियों में काटा जाता है। “इनको काटकर विधि अनुसार इन पर छड़ी बना लिया जाता है जिसके आगे सफेद चादर तानी जाती है। इसके पीछे यह पुतलियां सूत्रधार के हाथों में पकड़ी जाती है। इनके पीछे मशालों की रोशनी डाली जाती है, यह रोशनी इन पारदर्शी व रंगीन पुतलियों को पार करती हुई पर्दे पर विशाल छाया बनाती है।” पुतलीकार गीत, संवाद और मृदंग व दूसरे साजों की संगत से इन पुतलियों को छड़ी की मदद से संचालित करते है। पुतलियों को विशेष मुद्राओं और भावों से दर्शक मंत्र मुग्ध हो जाते हैं। आंध्र प्रदेश की छाया पुतलियों को सबसे पहले महाराष्ट्र की ‘बौड़लिया’ जाति द्वारा नचाई जाती थी। कठपुतलीः- कठपुतली का अर्थ है कठ-लकड़ी, पुतली-गुड़िया, लकड़ी की गुड़िया। कठपुतली का अर्थ है लकड़ी की बनी पुतली जिसको उसके रुप और कार्य के अनुसार सजाया जाता है। इस पुतली की विशेषता यह हैं कि इसको सूत्र के द्वारा चलाया जाता है। “लोक-नाटकों के विकास में कठपुतली का विशेष महत्व माना जाता है। राजस्थान में इस कला शैली की गौरवशाली पंरपरा रही है। कठपुतली प्रस्तुति में नृत्य, गायन और अभिनय का सुमेल रहता है।” कठपुतली नृत्य नाटक भारत के ज्यादातर क्षेत्रों में किया जाता है। पर यह नृत्य नाट्य राजस्थान की कुछ खास जाति के लोग ही प्रस्तुत करते है। इन्हें ‘भाट’ कहते हैं। “कटपुतली नृत्य नाटिका में लोक कथाओं को पुतलियों द्वारा नाट्य रुप दिया जाता है जिसमें अमर सिंह राठौर, सिंहासन बतीसी, आदि कहानियों को कठपुतलियों की मदद से बाखूबी कहा जाता है।” इसके अलावा कठपुतली की प्रस्तुति में रामायण, महाभारत, पौराणिक कथाओं, राधा-कृष्ण, सामाजिक विषयों आदि पर आधारित कहानियों को भी प्रस्तुत किया जाता है। कठपुतली नृत्य मंनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान का भी साधन है। कठपुललियों को चलाने वाले को सूत्रधार कहते है। सूत्रधार प्राचीन युग से लोक नाट्य मंच का निर्देशन और लोक अभिनय कर रहा है। सुत्रधार ही है जो भारतीय लोक कला के इतिहास, निकास और विकास में एक सूत्र के रुप में गिने जाते हैं। इनको सूत्रधार कहना इस लिए भी जरुरी हैं क्योंकि वह पुतलियों को सूत्र में बांधकर उंगलियों से नचाता है। वह कठपुतलियों को बड़ी खूबसूरती से बनाता है और सजाकर, पात्रों के अनुसार वेशभूषा पहनाता है। कठपुतली बनाने की विधि- “कठपुतली लकड़ी, पेपरपेशी, हार्डवुड, हौजरी आदि के साथ बनाई जाती है। लकड़ी के चैरस टुकड़े पर पुतली का रेखाचित्र बनाकर फिर आरी आदि की सहायता के साथ पुतली के हाथ-पैर, कमर, कुल्हा, जांघ आदि अंग तराशे जाते और फिर इन्हें आपस में जोड़ा जाता है।” कठपुतली पर रंग करने से पहले उसको सुखाकर, दानेदार रेगमार द्वारा घिसाई करके सही आकार में ढ़ालकर चाक मिटृी, फैविकोल, पोटीन से रहते छिद्रो को भरते हैं। पात्र के अनुसार रंगाई करके आँख, नाक आदि बनाकर पोशाक पहना देते हैं। |
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सामग्री और क्रियाविधि | प्राथमिक स्रोत में पुतली के मूल पाठ का अध्ययन किया गया है। इस खोज के विशेषज्ञों और गुरुओं से मुलाकात की है। द्वितीय स्रोत में पुतलियों से सबंधित पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाऐं का अध्ययन किया गया।
पुतलियों का तमाशा लोक रंग के लोक नाटक का रुप है, जो मूल रुप से राजस्थान के इलाके से सबंध रखता है लेकिन लोक नाटक के किसी भी रुप को प्रांतीय सीमाओं तक बांध कर रखा नहीं जा सकता। इसलिए यह नृत्य नाटक पूरे उत्तरी भारत में लोक प्रसिद्ध है, बहुत सारे विद्वान लोक नाटक का जन्म ही पुतली नाटय से हुआ मानते हैं। पुतलियों के तमाशे में परमात्मा और दुनिया के जीवों के आपसी सबंध की तुलना की गई है, इस लोकमत के अनुसार सब जीव पुतलियां है और परमात्मा उनका सूत्रधार है। सूत्रधार जैसे चाहता है, पुतलियां वैसे ही नाचती है और कार्य करती है। मनुष्य ने जब इस संकल्प को कला में साकार किया तो पुतलियों के नाच का आरंभ हुआ। |
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निष्कर्ष |
पुतलियों के सभी रुपों व उनकी प्रस्तुतियों के बारे में मूल अध्ययन से, पुतलियों से सबंधित साहित्य को पढ़ने से, पुतलियों के विशेषज्ञों से बात करके, पुतलियों के सभी रुपों की प्रस्तुतियाँ देखने के बाद यह स्पष्ट रुप से पता चलता है कि पुतलियों के सभी भेदों की प्रस्तुतियों में ही रामायण, महाभारत, पार्वती-शिव, राधा-कृष्ण, वीर-योद्धाओं, पौराणिक कथाओं, सामाजिक विषयों व बुराईयों, देश भक्तों आदि पर आधारित कथाओं का मंचन किया जाता है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. डा. रविन्द्र भ्रमक,लोक साहित्य की भूमिका, साहित्य सदन, कानपुर, पृ.96
2. हैलन हैमिंगवे (विलीयन बेंटन), इनसाइक्लोपीडिया, ब्रिटेनिका पृ.291
3. सेमुएल एल लेटर ,इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ असम थिएटर पृ.568
4. साक्षात्कार , डॉ. महेन्द्र भानावत , उदयपुर
5. डा. महिन्द्र भानवत, शिक्षा कठपुतली नाटिकाऐं, सबुध्रा पब्लिशरस एंड डिस्ट्रीब्यूटर, दिल्ली पृ.16
6. सेमुएल एल लेटर ,इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ असम थिएटर पृ.568
7. डा. अगियात, कठपुतली, विज्ञानिक अनुसंधान और संस्कृतिक कार्य मंत्रालय, दिल्ली पृ.30
8. डी. आर. आहूजा, राजस्थानः लोक संस्कृति और साहित्य, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया पृ. 122
9. डी. आर. आहूजा, राजस्थानः लोक संस्कृति और साहित्य, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया पृ.122
10. डॉ. मोहिंदर भानावत ,हमारी कठपुतली ,लोक रंग ,जयपुर |