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स्वाधीनता संघर्ष में राजस्थान के समाचार पत्रों का अवदान | |||||||
Contribution of Newspapers of Rajasthan in Freedom Struggle | |||||||
Paper Id :
16140 Submission Date :
2022-06-14 Acceptance Date :
2022-06-22 Publication Date :
2022-06-25
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सारांश |
राजस्थान में राजनैतिक चेतना का उदय राष्ट्रीय जागृति के परिणामस्वरुप हुआ जिसमें समाचार पत्रों की भूमिका महत्पवूर्ण रही। देशी रियासतों की जनता की आवाज ब्रिटिश हुकूमत अधिक समय तक दबा नहीं पाई। भारतीय राजनैतिक परिदृश्य में घटित अनेक घटनाओं और गांधीजी के राजनैतिक मंच पर अवतरण का प्रभाव राजपूताना रियासतों पर भी पडा। राजस्थान में समाचार पत्रों ने आम जनता के शोषण और अत्याचार की घटनाओं तथा समतावाद और साम्राज्यवाद से उनकी मुक्ति की आस को जन-जन तक पहुंचाया और यहीं आवाज स्वराज के लिए संघर्ष का माध्यम बनी। राजस्थान में प्रकाशित विविध समाचार पत्रों यथा प्रताप, राजपूताना गजट, राजस्थान समाचार, राजस्थान केसरी, नवीन राजस्थान, तरुण राजस्थान, राजस्थान, नवज्योति, नवजीवन, जयपुर समाचार, त्यागभूमि, लोकवाणी आदि ने राजनैतिक जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वाधीनता समर में जननायकों ने आदिवासीयों, किसानों और आम लोगों की समस्याओं को जन-जन तक पहुंचाया और साम्राज्यवाद तथा सामंतवाद के साथ-साथ ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति की आवाज को भी प्रखर किया।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The rise of political consciousness in Rajasthan resulted from the national awakening in which the role of newspapers was important. The British rule could not suppress the voice of the people of the princely states for long. Many events that happened in the Indian political scene and Gandhi's landing on the political stage had an impact on the Rajputana princely states as well. Newspapers in Rajasthan carried the incidents of exploitation and atrocities of the common people and the hope of their emancipation from egalitarianism and imperialism to the people and this voice became the medium of struggle for Swaraj. Various newspapers published in Rajasthan like Pratap, Rajputana Gazette, Rajasthan Samachar, Rajasthan Kesari, Naveen Rajasthan, Tarun Rajasthan, Rajasthan, Navjyoti, Navjeevan, Jaipur Samachar, Tyagabhoomi, Lokvani etc. played an important role in political awakening. The freedom fighters took the problems of tribals, peasants and common people to the masses and intensified the voice of freedom from imperialism and feudalism as well as British rule. | ||||||
मुख्य शब्द | साम्राज्यवाद, देशी रियासत, लोक चेतना, प्रजामण्डल, स्वाधीनता-समर, पालिटिकल एजेंट, उत्तरदायी शासन। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Imperialism, Princely State, Public Consciousness, Praja Mandal, Independence-Summer, Political Agent, Responsible Government. | ||||||
प्रस्तावना |
किसी भी देश में राजनीतिक चेतना आकस्मिक घटना का परिणाम नहीं है इसके लिए युगों-युगों तक त्याग, साधना और प्रयत्न करने पड़ते हैं। भारत का स्वतंत्रता इतिहास और राजस्थान में राजनीतिक जागृति का विकास भी क्रम से इसी प्रकार धीरे-धीरे हुआ है।प्रारम्भ में राजस्थान में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ-साथ यहाँ के स्थानीय शासकों और सामंतों के दोहरे शोषण से मुक्ति प्राप्त करने के लिए जनता में राजनीतिक चेतना सुप्त अवस्था में थी। जन सामान्य इस दोहरे शोषण से मुक्ति की आस में था कि कोई शक्ति उन्हें स्वाधीनता दिलाएं, ऐसे में प्रेस और समाचार पत्र पत्रिकाओं ने जन जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई इन दिनों भारत में राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत राष्ट्रीय अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन बड़ी संख्या में हो रहा था। इन अखबारों में अंग्रेजी शासन के शोषण, उत्पीड़न व जनविरोधी नीतियों की कड़ी आलोचना की जाती थी और यह समाचार पत्र, पत्रिकाएं देशी रियासतों में होने वाले दमन उत्पीड़न की आलोचना करने से भी नहीं छूटते थे। 1925 ई. में अलवर में हुए नीमूचाणा कांड की खबर दूर-दूर तक राष्ट्रीय अखबारों में छपी। राष्ट्रीय प्रेस तत्कालीन शासन व्यवस्था की जनता विरोधी नीतियों की आलोचना करने के साथ-साथ भारतीय दृष्टिकोण को भी सामने रखता था। राजस्थान की देसी रियासतों में भी राष्ट्रीय प्रेस की भांति स्थानीय नेताओं, स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े विविध नायकों ने साम्राज्यवादी एवं सामंतवादी शोषण के विरोध में लिखना शुरू किया जिससे जनचेतना का तेजी से प्रसार हुआ।
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अध्ययन का उद्देश्य | राजनैतिक चेतना के उदय में समाचार पत्र-पत्रिकाओं के योगदान को प्रस्तुत करना। |
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साहित्यावलोकन |
देश और प्रदेश के विभिन्न भागों में आई चेतना की लहर के परिणाम स्वरूप जहां जन जीवन की विभिन्न हलचलों को प्रकाश में लाने वाले समाचार पत्रों का उदय हुआ वहां साहित्यिक एवं सांस्कृतिक पत्रों का शुभारंभ भी हुआ। इन पत्रों को प्रारंभ करने वाले वे प्रबुद्ध श्वेता व्यक्ति थे, जिनकी अनुरक्ति राजनीति की अपेक्षा साहित्य में अधिक थी और जो साहित्य की विभिन्न रचनात्मक विधाओं के माध्यम से विचार क्रांति की भूमिका निभाने और राष्ट्रीय चेतना का प्रसार करने के उदान्त दायित्व को उठाने के लिए तत्पर थे। इस प्रकार के प्रारंभिक पत्रों में विद्यार्थी सम्मिलित हरिश्चंद्र चंद्रिका और मोहन चंद्रिका, संदर्भ स्मारक और भारत मार्तंड आदि तथा बाद के साहित्यिक पत्रों में समालोचक, सौरभ, त्याग-भूमि आदि प्रमुख थे, तथापि यहां इन साहित्यिक पत्रों के अवदान की चर्चा अभीष्ट नहीं है यह अपने आप में एक पृथक शोध पत्र का विषय है। |
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मुख्य पाठ |
सन 1881 में उदयपुर से प्रकाशित विद्यार्थी सम्मिलित हरिश्चंद्र चंद्रिका, मोहन चंद्रिका ने ’स्वतंत्रता तंत्र तंतु’ शीर्षक से एक बड़ा प्रखर संपादकीय लेख लिखा जिसमें स्वाधीनता और समाचार पत्रों की आजादी को राष्ट्र की उन्नति और विकास के लिए अनिवार्य बताया गया। इस संपादकीय में कहा गया कि राज्य से प्रकाशित पत्रों को इतनी सी स्वाधीनता तो अर्जित करनी ही चाहिए कि वे ’राज्य प्रबंधों’ का दोष दर्शन करा सके। संपादकीय में कहा गया- ’’हमको बहुत दिनों से इस विषय में संदेह है कि
जितनी स्वतंत्रता हमारे अंग्रेजी भारत खंड के वर्तमान समाचार पत्रों को सब प्रकार
के लेख लिखने की है उतनी देषी रियासतों के समाचार पत्रों को उनके अधीशो की ओर से
है या नहीं? जो कदाचित कहे कि है तो ’उस स्वतंत्रता की छटा कुछ भी दिखाई नहीं देती क्योंकि इन सब
समाचार पत्रों में अपने राज्यों की प्रायः प्रशंसा ही लिखने पढ़ने में आती है और जो
कहे कि नहीं है तो देषी रियासतों के विद्वानों के अनुसार प्रश्न उत्पन्न होते हैं
कि क्यों नहीं है फिर भी ’क्यों नहीं है’ इसमें भी प्रष्न सताते हैं कि क्या स्वतंत्रता बुरी है? या स्वतंत्रता प्रदान करने से राजकोष में से कुछ न्यून हो
जाएगा? जो सच था बुरी है और देने से राज्य की कुछ हानि
होती है तो फिर ऐसे राज्य को क्या विद्वान लोग स्वतंत्र राज्य कह सकते हैं क्योंकि
जो शब्द या पदार्थ जिसका गुण बुरा है तो फिर वह गुणवाचक शब्द क्यों कर किसी के
विशेषण में प्रयोग किया जा सकता है। आजकल के विद्वानों ने तो यह निश्चय कर सिद्ध
किया है कि जिस देश, जिस राज्य और प्रांत में स्वतंत्रता भवानी नहीं
है उसमें अंधेरा ही रहता है और सर्व गुण सम्पन्नता वहां से दूही निवास करती है जो
सरकारी भारत खंड में हमारे बंधुओं को सरकार स्वतंत्रता न देती तो, जितनी कुछ उन्नति उस देश की आज दृष्टि में आती है वह क्यों होती है? इस पर भी अपने देशोन्नति करने को अपने अधीषों से लड़ लड़ कर
और झगड़ झगड़ कर वहां के समाचार पत्र विशेष स्वतंत्रता मांगते हैं और आशा है कि कुछ
न कुछ मिली होगी। आगे चलकर देसी राज्यों से प्रकाशित पत्र पत्रिकाओं से अभिव्यक्ति
की स्वाधीनता प्राप्त करने का विशेष आग्रह अग्रांकित शब्दों में किया है देशी रियासतों में राजा और प्रजा अर्थात पिता पुत्र कि समतुल्य स्नेही लड़ाई और झगड़ा वह
भी स्वदेशोन्नति करने के लिए स्वप्न में भी दृष्टि नहीं आता। अतःएव ही अन्य देश वाले इन राज्यों को नाम
धरते हैं।[1] अब हमारी
प्रार्थना हमारे देशी रियासतों के
वर्तमान समाचार पत्र सज्जन कीर्ति सुधाकर, मारवाड़ गजट और
जयपुर गजेटादी से यहीं है कि अंग्रेजी राज्य के समाचार पत्र तो लड़ लड़ और झगड़ झगड़
कर और अपने राजा को बुरा भला भी कह कर स्वतंत्रता लेते हैं, किंतु आप महाशय अपने-अपने आदेशों को हाथ जोड़कर उतनी नहीं तो
थोड़ी सी नियमित में स्वतंत्रता ही उपार्जन नहीं करते कि जिसके बल से सब लोग मिलकर
देशोन्नति कर करें और राज्य प्रबंधों के दोष कर कर के अपने अपने अधीशों के हाथों
से शोधन करावे और जो दोष कि देशी रियासतों के अंधेर नगरी और गर्वसेन राजा नामक
पुस्तकों में वर्णन किए गए हैं उनसे वे विमुक्त हो इसी के साथ यह भी सिद्धांत
स्मरण रहना चाहिए कि जो परम प्रसिद्ध सार सुधानिधि कवि वचन सुधा, भारत बंधु और
मित्रविलासादि समाचार पत्रों ने मनन कर विदित किया है कि स्वदेशोन्नति और सर्वगुण
संपन्नता ही के लिए साधन रूप शास्त्र केवल एक समाचार पत्रों की स्वतंत्रता ही है 100 हमारा भी सिद्धांत उक्त बंधुओं से सम्मत ही है।[2] लगभग इसी प्रकार के विचार बाबूलाल मुकुंद गुप्त ने व्यक्त किए उन्होंने देशी रियासतों के स्वामियों को परामर्श दिया कि पत्रों की स्वाधीनता से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं और वे यदि पत्रों के विकास में सहायक होंगे तो राज्य के लिए उनकी उपादेयता अवश्य प्रभावी होगी। गुप्तजी ने ’मारवाड़ गजट’ का विशेष रूप से उल्लेख करते हुए निम्नलिखित उद्गार प्रकट किए।[3] ’’समाचार पत्रों को स्वाधीनता न देने मे पुराने
विचार के उच्च कर्मचारी अवश्य ही कुछ भलाई समझते होंगे पर अब वह समय नहीं है कि
रियासतों के लोग पुराने विचारों पर अडे बैठे रहं। अब ऐसा समय आगया है कि देशी रईस
भी अपने अखबारों को स्वाधीनता दें और उनसे लाभ उठाएं। अब अंग्रेजी गवर्नमेंट की
देखा देखी देशी रियासतों में अखबार जारी किए हैं तो अंग्रेजी गवर्नमेंट की रीति पर
उन खबरों को स्वाधीनता देनी चाहिए। देशी रियासतों के विषय में जो यह शिकायत सुनी जाती
है कि जबरदस्त मारे, रोने न दे, इसको दूर कर देना चाहिए। अखबार कोई गनीम नहीं है जो स्वाधीन होकर रियासतों को
हानि पहुंचाए, वरंच यदि उसकी ठीक-ठीक सहायता की जाए और उसे
उन्नत होने के लिए अवसर दिया जाए तो वह राज्य के एक बहुत ही काम की वस्तु बना सकता
है। जब एक विदेशी गवर्नमेंट इस देश की प्रजा को प्रेस संबंधी स्वाधीनता देती है, तब देशी राजा महाराजा अपनी देशी प्रजा को स्वाधीनता न दें
यह कैसे दुःख की बात है। जोधपुर राज्य के कई एक प्रतिष्ठित सज्जनों से हमने सुना
कि वर्तमान ईडर नरेश महाराजा सर प्रताप सिंह जब जोधपुर मदारुल मोहल थे, तो बहुधा कहते थे कि अखबार में जो जी चाहे लिखा जाए हम
आज्ञा देते हैं, चाहे हमारी निंदा क्यों नहीं लिखी जाए पर श्री
हजूर साहब के विषय में स्वर्गीय जोधपुर महाराजा जसवंत सिंह जो महाराज प्रताप सिंह
के बड़े भाई थे। कोई अप्रतिष्ठा का शब्द न लिखा जाए उसे मैं न सह सकूंगा, पर दुःख यही है कि श्रीमान ने अपने इस वाक्य को कभी कार्य
में परिणत करके नहीं दिखाया। इन शब्दों को मुँह से ही कहते रहे, राज्य में उनके विषय में घोषणा कभी नहीं की। ’’दूसरी कठिनाई देशी रियासतों में यह है कि यदि
साधारण प्रजा में से भी कोई प्रेस या अखबार जारी करना चाहे, तो उसे आज्ञा नहीं मिलती बहुत तरह के संदेह किए जाते हैं जो
लोग अखबार या प्रेस जारी करना चाहते हैं उन बेचारों की कभी यह इǔछा नहीं होती कि वह ऐसे काम करें जिनसे उन पर संदेह किया
जाए। तथापि कोई उनकी इस इच्छा की ओर ध्यान
नहीं देता। भगवान जाने कब तक देशी रजवाड़ों की यह दशा रहेगी।[4] देशी रियासतों
में लोक चेतना का उदय - अपनी मंथर गति के बावजूद
लोक चेतना का उदय धीरे-धीरे प्रारंभ हो गया और 1857 ई. के विह में पराभव के कारण जो अंगारे बुझ चुके थे, कुछ अवशिष्ट चिंगारियो से पुनः चैतन्य होने लगे। कर्नल टॉड द्वारा
लिखित राजस्थान के इतिहास में वर्णित वीरों की चरित-गाथाओं और उज्जवल कीर्ति कथाओं
ने भी आत्म विश्वासहीनता की स्थिति में बहे जा रहे जन सामान्य को एक बड़ा संबल
प्रदान किया। हिंदी और गुजराती आदि भाषाओं में इसके अनुवाद निकले तो जन जागरण की
दिशा में इसने बड़ा महत्वपूर्ण योगदान किया। इधर जागृति के अग्रदूत
दयानंद की राजस्थान यात्राओं ने भी राष्ट्रीय भावना और आत्म चेतना को जागृत करने
में अपनी सशक्त भूमिका अदा की। दयानंद की तेजस्वी वाणी में अपने गौरवपूर्ण इतिहास
का नवीन परिचय प्राप्त कर यहाँ के निवासी स्पूत हो उठे और अपनी राष्ट्रीय मर्यादा
के प्रति सजग होने लगे।[5] उधर मोहनदास करमचंद गाँधी द्वारा दक्षिणी
अफ्रीका में अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के प्रति किए जाने वाले दुर्व्यवहार के
प्रतिरोध के निरंतर प्राप्त होने वाले समाचारों से भी देश के सभी भागों में चेतना
की लहर फैलने लगी। 1896-97 के दुर्भिक्ष के समय
करोड़ों का अनाज इंग्लैंड ले जाने और भारत के समानता के बलबूते पर साम्राज्यवादी
युद्धों में लगे रहने के कारण भी अंग्रेजी शासन के प्रति आक्रोश उभरने लगा। इस तरह
राजनैतिक चेतना के जागरण में विभिन्न कारण उत्तररदायी रहे। इन्हीं परिवर्तित
परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में राजस्थान में लोक चेतना को जागृत करने वाली विशुद्ध पत्रकारिता की आधारशिला रखी जाने लगी। लोक चेतना का
पहला समाचार पत्र - राजपूताना हेराल्ड राजस्थान के यशस्वी पत्रकार और भूतपूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय जयनारायण व्यास के अनुसार इस धारा का सबसे पहला समाचार पत्र ’’राजपूताना हेराल्ड’’ था यद्यपि यह अंग्रेजी का पत्र था तथापि अपने ऐतिहासिक महत्व की दृष्टि से इसका यहाँ उल्लेख करना असंगत न होगा। रियासती दमन चक्र से बचने के लिए इस पत्र का प्रकाशन अजमेर से सन 1885 ई में प्रारंभ हुआ था। इसके संपादक हनुमान सिंह थे जिन्होंने ए.जी. जी. कर्नल पोलेट और जोधपुर के महाराजा सर प्रताप के विरुद्ध काफी आंदोलन किया। प्रकट जागीरदारों द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त इस पत्र के 30 मार्च 1885 के अंक के A cry of anguish from Rajasthan शीर्षक में जिक्र किया गया कि कर्नल पौलेट निमाज के ठाकुर को बुलाकर यह निर्देश दिया कि वह अपने बूढ़े कामदार से कोई संबंध नहीं रखे। इसी प्रकार के और भी कुछ समाचार बंदोबस्त की शिकायत के संबंध में पत्र में छपा है।[6] राजपूताना गजट - राजपूताना गजट के नाम से संज्ञायित यह पत्र सरकारी गजटों से बिल्कुल पृथक एक स्वतंत्र पत्र था। अजमेर से सन 1845 ई. में प्रारंभ किए गए इस पत्र के संचालक संपादक मौलवी मुराद अली बीमार थे।[7] डॉ राम रतन भटनागर और अंबिका प्रसाद बाजपेयी के अनुसार यह उर्दू का सप्ताहिक था किंतु बालमुकुंद गुप्त के अनुसार हिंदी भी थोड़ी बहुत उसके जन्म के साथ ही लगी हुई थी।[8] इसके 12 पृष्ठों में से 8 उर्दू में तथा चार हिंदी में मुद्रित होते थे। इस पत्र का उद्देश्य रियासती
अत्याचारों को मुक्त भाव से प्रकाशित करने का था। अपनी लेखनी की स्वाधीनता के कारण
मौलवी मुराद अली को जेल भी जाना पड़ा किंतु उन्होंने पराजय स्वीकार नहीं की और वह
बराबर अत्याचार और जुल्मों के विरुद्ध बेधड़क होकर लिखते रहें। एक संघर्षशील
पत्रकार की तरह वे अनेक रहस्यों का भंडाफोड़ करने में पीछे नहीं रहे एक उल्लेखनीय
बात यह थी कि मौलवी गौ रक्षा के क7र समर्थक थे पंडित अंबिका प्रसाद बाजपेयी ने उनकी निर्भीकता और अखंडता का
जिक्र करते हुए कहा कि उन जैसे लोग पत्रकारिता के क्षेत्र में कम ही देखने में आते
हैं। राजपूताना मालवा
टाइम्स - 1885 ई में ही प्रकाशित राजपूताना मालवा टाइम्स तथा
इसके हिंदी संस्करण ’’राजस्थान पत्रिका’’ ने भी प्रशासन की
विसंगतियों और देसी
रियासतों के अत्याचारों पर
प्रचार सामग्री प्रकाशित
की राजपूताना मालवा टाइम्स ने 8 अगस्त 1885 के अपने सम्पादकीय में यह स्पष्ट घोषणा की थी और उसका
उद्देश्य समाज और प्रशासन में व्याप्त बुराइयों की ओर ध्यान आकृष्ट करना और उन पर
प्रहार करना है। पत्र के संपादक बक्शी लक्ष्मण दास को अपनी इसी स्वतंत्र नीति के
कारण राजकोष का शिकार होना पड़ा और जयपुर रीजेंसी काउंसिल में मेंबर बाबू कांति चं
मुखर्जी द्वारा चलाए गए मान हानि के मुकदमे के फल स्वरुप उन्हें सजा तो भुगतनी पड़ी
टाइम्स और इसके हिंदी संस्करण राजस्थान पत्रिका का प्रकाशन भी सदा के लिए बंद करना
पड़ा।[9] राजस्थान सरकार
- लोक चेतना से जडा समाचार
पत्र हिंदी का पहला राजस्थान समाचार था, जिसका प्रारंभ 1889 ई. के आसपास हुआ। स्वामी दयानंद ने अजमेर में
जो ’वैदिक यंत्रालय’ खुलवाया था उसके प्रबंधक स्वामी जी के शिष्य मुंशी समर्थ दान ने निजी प्रेस ’राजस्थान यंत्रालय’ के नाम से स्थापित किया और इसी प्रेस से इस पत्र का साप्ताहिक प्रकाशन किया।
मुंशी समर्थदान अपने नाम के आगे उर्दू शब्द ’मुंशी’ के स्थान पर संस्कृत शब्द ’मनीषी’ का प्रयोग करते
थे। पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने संन् 1914 में मनाषी जी की मृत्यु पर उनके व्यक्तित्व और राजस्थान समाचार के बारे में
निम्नलिखित उद्गार व्यक्त किए थे।[10] मनीषी जी ने पत्र को अपने
से पृथक नहीं समझा सैकड़ों उसमें कमाए और हजारों उसी में होम दिए। पत्र पहले
साप्तहिक था फिर अद्र्वसाप्ताहिक हुआ। उन
दिनों उसमें एक अनंत कहानी चलाई गई थी जो जल्दी शांत हो गई रूस जापान के युद्ध की
उमंग में उन्होंने अपने पत्र को दैनिक कर दिया सच पूछिए तो यही हिंदी का पहला
व्यवसायी दैनिक था। भारत मित्र का पहला दैनिक रूप केवल परीक्षा के लिए था और
कालेकांकर का हिंदुस्तान, बड़ौदा की सोने चांदी की तोपो की तरह एक राजा के
शौक की चीज थी मनीषी जी ने मुंबई के तार, समाचार सीधे मंगवाने आरंभ किए हिंदी भाषा की अखबारनवीसी में और राजपूताना के
पत्र पाठको मैं उस दिन हर्ष और विस्मय का विचित्र संकर हुआ जब टशु सीमा के युद्ध
का समाचार आबू पहाड़ पर पायनियर के 8-10 घंटे पहले राजस्थान समाचार ने पहुंचा दिया। आजकल जब इधर उधर कई हिंदी दैनिक
पत्र निकलने और बिखरने की गूंज हो रही है इस गुपचुप काम करने वाले युद्ध साहित्य
सेवी के अध्यवमाय का उल्लेख
करना उचित है
चाहे उस समय
ईष्या से या
अपना ढोल आपन
पीटने वालो के साधारण भाग्य से इस बात की चर्चा भी नहीं
हुई हो। यही दैनिक पत्र मनीषी जी के लिए श्वेत हस्ति बन गया, अथाह् घाटे के कारण बंद करना पड़ा कुछ दिन साप्ताहिक होकर
सिसका अंत में मुक्त हो गया। आर्य समाजी विचारधारा से प्रभावित इस पत्र में
राजनीतिक लेख राजपूताना की विभिन्न रियासतों के समाचार और टिप्पणियां होती थी।[11] गजट और समाचार की भूमिका
ऊपर जिन दो प्रमुख पत्रों राजपूताना गजट और राजस्थान समाचार का उल्लेख किया गया वह
राजस्थान में ब्रिटिश शासन की अवांछनीय कारगुजारियो के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद
करने में जिस प्रकार अग्रणी बने और सारे खतरे मोल लेकर जिस प्रकार उन्होंने
तत्कालीन पोलिटिकल एजेंट की अवांछित गतिविधियों का विरोध किया उससे उनकी भूमिका
प्रेस की स्वाधीनता की दिशा में स्वतंत्र ही बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है रामरतन
भटनागर का यह कथन कि इन पत्रों में कोई
विशेष राजनीतिक चेतना के दर्शन नहीं होते निरा अनुमान मात्र है। राष्ट्रीय
अभिलेखागार मे इन पत्रों से संबंधित जो सामग्री सुरक्षित है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इन पत्रों ने चाहे एक सीमित
क्षेत्र में ही सही अपनी निर्भीक नीति द्वारा जहां जन साधारण के लिए प्रयत्न किए, वहां देश के अन्य पत्रों
का ध्यान भी राजस्थान की समस्याओं की ओर आकृष्ट किया। अपने इस कथन की
पुष्टि के लिए यहां झालावाड के तत्कालीन नरेश जालिम सिंह के गद्दी से उतारने के
कांड़ का उल्लेख करना अप्रसांगिक न होगा। जालिम सिंह जो अपनी कुशाग्र बुद्धि, कुशल प्रशासनिक क्षमता और स्वाभिमान के लिए चारों और
विख्यात था, अंग्रेज पोलिटिकल एजेंट का कोप भाजन केवल इसलिए
बना कि उसने अपनी सेना में पठानों की भर्ती की थी और अल्बर्ट मेमोरियल कोष में धन
देने के प्रति उदासीनता दिखाई थी। जब जालिम सिंह ने अपना पक्षवायसराय के सम्मुख
प्रस्तुत करने की इǔछा प्रकट की तो
पोलिटिकल एजेंट ने मिलने की अनुमति नहीं दी। इसी घटना पर व्यंग्य करते हुए ’राजपूताना गजट’ ने लिखा-पोलिटिकल एजेंट के साथ अपनी पटरी बैठाने के लिए एक राजा को चाहिए कि
वह प्रतिदिन उसके घर पर जाकर सलाम करे सप्ताह में 2 दिन के लिए उसके शिकार का बंदोबस्त करें और एक अच्छा खासा घोड़ा उसकी हाजिरी में तैनात करें। जब राजा बीमार हो
तो वह एजेंसी के सर्जन को ही बुलाए। जरूरी नहीं कि वह उस डॉक्टर की दवा पिए किंतु
पोलिटिकल एजेंट को खुश करने के लिए यह जरूरी है। अगर वह यह सब करता है, तो पोलिटिकल एजेंट उसके बारे में सब अच्छा रिपोर्ट देगा, भले ही उस का शासन कितना ही बुरा क्यों नहीं हो।[12] झालावाड़ कि इस घटना का
संकेत ’’राजस्थान समाचार’’ के संवाददाता ने एक सप्ताह पूर्व ही दे दिया था और यह स्पष्ट किया था कि
भाक्तरापाटन पर संकट के बादल घिरे हैं वे कब बरस पड़े, कुछ कहा नहीं जा सकता।[13] राजपूताना गजट ने स्पष्ट
रूप से ब्रिटिश सरकार को चुनौती दी कि यदि जालिम सिंह का कोई अपराध हो तो सारे
मामले की विस्तार से जांच होनी चाहिए। राजा न तो पोलिटिकल एजेंट से डरता है मैं
उसकी खुशामद करता है और न राज्य के मामलों में उसकी सलाह ही लेता है। राजपूताना
गजट ने यह भी लिखा कि पोलिटिकल एजेंट इसलिए क्रुद्ध है कि राजा उसकी दखलंदाजी का
विरोध करता है। जब यह विवाद चल रहा था, तो विदेशी विभाग की ओर से ’राजपूताना गजट’ के संपादक को एक पत्र मिला जिसमें कहा गया था कि आवश्यकता
अनुभव होने पर मामले की जांच के लिए एक आयोग नियुक्त किया जा सकता है। इस पर पत्र
ने लिखा कि यदि ऐसा कर दिया जाए तो इससे लॉर्ड एल्गिन की सरकार के लिए अधिक
न्यायोचित होगा। पत्र ने सुझाव दिया कि जो जांच आयोग नियुक्त हो उसमें राजपूताना
का कोई अफसर न हो और राजा को अपना बचाव पक्ष प्रस्तुत करने के लिए विधि
परामर्शदाता नियोजित करने की अनुमति दी जाए। पोलिटिकल एजेंट गोर्डन झालावाड़ में न
रहे और राजनीतिक मामलों में निपुण यूरोपियन इसके सदस्य हो। हिंदुस्तानी सदस्यों की
नियुक्ति राजाओं में से की जाए, सरकारी अफसरों
में से नहीं। पत्र नें इस बात की भी शिकायत की कि अंग्रेजी फौज की झालावाड़ में
उपस्थिति होने के कारण बाजार भावो में काफी तेजी आ गई हैं।[14] अन्ंतगोगत्वा वायसराय के
पक्षपातपूर्ण रवैये के कारण 1896 ई. में जालिम
सिंह को गद्दी से उतार दिया गया और उसके निष्कासन की तैयारी हो गई। इस घटना के
समाचारों को ’राजस्थान समाचार’ ने बड़ी प्रमुखता से प्रकाशित किया और सारी कार्यवाही को अवांछित बताते हुए कहा
कि यह देश का दुर्भाग्य है, किंतु किया क्या जा सकता है।[15] ’राजपूताना गजट’ ने इस घटना पर विस्तार से प्रकाश डालने के लिए एक विशेषांक प्रकाशित किया और
कहा कि यह निर्णय पॉलिटिकल डिपार्टमेंट के यूरोपियन अधिकारियों के पक्ष में इसलिए
गया कि यदि ऐसा नहीं होता, तो भारत के राजा लोग पोलिटिकल एजेंटस को गांठना
बंद कर देते। पत्र ने स्पष्ट कर दिया कि जालिम सिंह के साथ अन्याय हुआ है और अनेक
राजाओं के साथ यही दुर्व्यवहार हुआ है। भरतपुर के राजा को भी इसी प्रकार गद्दी से
उतार दिया गया और पटना के राजा की अपनी पत्नी को मारकर आत्महत्या करनी पड़ी क्योंकि
पोलिटिकल एजेंट ने उसके साथ दुर्व्यवहार किया था।[16] पत्र ने यह भी मांग की कि
झालावाड़ कांड को पूरी तरह जनता के समक्ष रखा जाना चाहिए और तथ्यों की जानकारी दी
जानी चाहिए और अगर ऐसा नहीं किया गया तो राजा लोग यह अनुभव करने लगेंगे की सरकार
और उनके बीच जो संधि है उसका पालन नहीं हो रहा है, और वे अपने पोलिटिकल एजेंटस के प्रति शंकालु भी होंगे। इस अवसर
पर ’राजपूताना मालवा टाइम्स
ने राजाओं का
आग्रह किया कि
उनकी स्थिति बहुत दयनीय होती जा रही है यदि उन्हें अपने
अधिकारों की रक्षा करनी है तो उन्हें संगठित होना होगा और इसके लिए एक ऐसा सशक्त
संगठन बनाने की आवश्यकता है जो विदेशी विभागों के राजनीतिक नौकरशाहों के षड्यंत्र
से उत्पन्न आपत्तियों में उनकी रक्षा कर सकें। इस प्रकार प्रारंभिक युग में भी राजस्थान के इन कतिपय पत्रों ने इस सीमा तक राजनीतिक चेतना का संचार करने में बहुत योगदान किया कि वे ब्रिटिश शासन की करतूतों के विरुद्ध रियासती शासकों कों और जनता को सजग करने लगे। उन्हें यह आन कराया जाने लगा कि जिस ब्रिटिश सत्ता के भरोसे वे निश्चय होकर आत्मा प्रवचना की स्थिति में जी रहे हैं, वह सर्वथा त्याज्य और वांछनीय और इस स्थिति से जितनी जल्दी मुक्ति प्राप्त की जाए, उतना ही उनके लिए श्रेयस्कर है। इन पत्रों ने चेतना के जो बीज बोए, उन्होंने आगे अंकुरित होकर प्रादेशिक राजाओं से भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अर्जित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। जन आंदोलनों का
जोर और नए पत्रों का जन्म - एक और जब समालोचक और सौरभ
जैसे पत्र प्रबुद्ध और सुरुचि संपन्न नागरिकों को नवीन चेतना का संदेश दे रहे थे
राजस्थान में कुछ ऐसे समाचार साप्ताहिकों ने जन्म लिया जिनके जनक सही अर्थों में
प्रदेश के विभिन्न भागों में आरंभ किए गए जन आंदोलन हीे थे इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण घटना 19 दिसंबर 1919 को घटित हुई, जब दिल्ली में ’राजपूताना मध्य भारत सभा’ की स्थापना
रियासतों में उत्तरदायी शासन की मांग को पूरा करने तथा कांग्रेस
की गतिविधियों से अपने को संबंद्व करने के उद्देश्य से की गई। नागपुर कांग्रेस
सत्र के दौरान सभा कांग्रेस से संबधव हो गई और वर्धा से सन 1920 में विजय सिंह पथिक के संपादन में ’राजस्थान केसरी’ नामक पत्र निकाला जाने लगा।[17] बाल गंगाधर तिलक के मराठा, केसरी का सहधर्मी यह पत्र राजस्थान को मध्य भारत की जनता के
अभाव अभियोगों उनकी पीड़ाओं और दमन की कथाओं को मुखर करने लगा। श्री अर्जुन ने लाल
सेठी, केसरी सिंह बारहठ और विजय सिंह पथिक की
त्रिमूर्ति इस पत्र को संघर्षों के बीच निरंतर प्राण-वायु प्रधान करती रही। श्री
रामनारायण चौधरी इस पत्र के प्रकाशक और सहायक संपादक थे। ठाकुर केसरी सिंह बारहठ
के जामाता श्री ईश्वरदान आसिया और सागरमल गोपा भी इस पत्र के संपादक से संबंद्ध थे। पहले यह पत्र वर्धा से और अजमेर से निकलने लगा।[18] पत्र की निर्भीक वाणी से
घबराकर ब्रिटिश सरकार और रियासती राजाओं ने अपना दमन चक्र आरंभ कर दिया। श्री राम
नारायण चौधरी को मानहानि के एक मुकदमे में 3 माह की सजा भुगतनी पड़ी। परिणाम तेजस्वी पत्र स्वल्प किंतु सार्थक जीवन बिता
कर समाप्त हो गया। इस पत्र के बंद हो जाने के बाद पथिक जी ने ’राजस्थान संदेश’ निकाला किंतु इसे भी दमन चक्र का शिकार होना पड़ा। संग 1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन के बाद राजस्थान सेवा
संघ की स्थापना हुई। क्योंकि देशी रियासतों के मुकाबले में ब्रिटिश शासित
क्षेत्रों में अपेक्षाकृत थोड़ी स्वतंत्रता प्राप्त थी अजमेर को मुक्ति सैनिकों ने
रियासती जनता पर किए जा रहे अत्याचारों के विरुद्ध जिहाद बोलने के लिए अपना गढ़ बनाया। देशभक्ति और स्वतंत्रता का संदेश पहुँचाने के लिए अजमेर से ही पत्रों के
प्रकाशन का भी निश्चय किया गया और फलतः 1922 में ’नवीन राजस्थान’ साप्तहिक का जन्म हुआ। नवीन राजस्थान ऐसी संस्था का मुख्य पत्र था, जो रियासतों में अनेक सामूहिक आंदोलन चलाती थी अतः राजस्थान
में उसका तेजी से प्रसार होने लगा, वह राजस्थान की मूक जनता की वाणी बन गया। उसका आदर्श वाक्य यह था। यश वैभव सुख की चाह नहीं, परवाह नहीं जीवन न रहे। यदि इच्छा है यह है जग में स्वेच्छाचार दमन ना रहे। इस पत्र ने विजय सिंह पथिक द्वारा
संचालित बिजौलिया सत्याग्रह को पूरा समर्थन प्रदान किया सन् 1921 में ब्रिटिश सरकार ने महाराणा उदयपुर पर कुछ प्रशासनिक
सुधार लागू करने के लिए जोर डाला किंतु महाराणा ने एक न सुनी, परिणामतः जन आंदोलन हुए बिजौलिया के किसान अपने अधिकारों के
लिए आवाज उठाने वालों में अग्रणी थे। वे लोग नाना प्रकार के करों और बेगार के शिकजों में जकडे थे। 1918 में उन्होने आन्दोलन शुरु किया था, जो 4 साल के लंबे संघर्ष के बाद सफल हुआ अधिकांश
अवांछित कर हटा लिए गए और न्याय के लिए पंचायतों के माध्यम को स्वीकार कर लिया
गया। तरुण राजस्थान -
नवीन राजस्थान पर प्रतिबंध
लग जाने के बाद पत्र के संचालकों ने इसी पत्र को नए रूप में तरुण राजस्थान के नाम
से निकाला। शोभा लाल गुप्त (संपादक) रामनारायण चैधरी ऋषि मेहता ने समाचार पत्र से राजनीतिक जागृति का तेजी से
प्रचार किया। बूंदी जन आंदोलन अलवर का नीमूचाना कांड, सिरोही और मारवाड़ लोक परिषदों की घटनाओं का उल्लेख इसमें
प्रखरता से किया गया। श्री जय नारायण व्यास अचलेश्वर प्रसाद शर्मा आदि ने भी अपना
योगदान इसमें दिया। राजस्थान से प्रकाशित राजस्थान (1922) अखंड भारत, आगीवाण (राजस्थानी
भाषा का प्रथम
पाक्षिक पत्र), मीरा (1930
1962
ई) प्रभात, नवज्योति नवजीवन, प्रजा सेवक, जय भूमि, जयपुर समाचार
(मान सूर्योदय) प्रचार, लोकवाणी, अलवर पत्रिका
आदि समाचार पत्र पत्रिका ने राजस्थान की विविध देशी रियासतों में बहुत ही उद्देश्य
और वस्तुपरक दृष्टिकोण से
राजनैतिक जन जागृति का कार्य किया। 1938 ई के पश्चात देशी रियासतों में प्रजामंडल की स्थापना ने जोर पकड़ा जिससे
नागरिक अधिकारों और उत्तरदायी शासन की मांग उठने लगी। गांधीवादी
आंदोलन देशी रियासतों में तेजी से
लोकप्रिय हुए जिससे स्वाधीनता संघर्ष में उग्रता आई। इन पत्र-पत्रिकाओं ने रियासती
शासकों और सामंतों के शोषण अत्याचार और निरंकुशता के खिलाफ आवाज बुलंद की साथ ही
सामाजिक विद्रूपताओं के खिलाफ भी लिखा। जनजीवन की समस्याओं को गंभीरता के साथ इनमे
लिखा गया। इनका उद्देश्य राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने के साथ-साथ सदियों से
शासकों, सामन्तों और ब्रिटिश सत्ता द्वारा दवाई गई जनता
की आवाज को उठाना था। उन्हे पराधीनता से मुक्त करना था। |
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निष्कर्ष |
राजस्थान में राजनैतिक चेतना का उदय राष्ट्रीय जागृति के परिणामस्वरुप जिसमें समाचार पत्रों की भूमिका महत्पवूर्ण रही। देशी रियासतों की जनता की आवाज ब्रिटिश हुकूमत अधिक समय तक दबा नहीं पाई। भारतीय राजनैतिक परिदृश्य में घटित अनेक घटनाओं और गांधीजी के राजनैतिक मंच पर अवतरण का प्रभाव राजपूताना रियासतों पर भी पडा। राजस्थान में समाचार पत्रों ने आम जनता के शोषण और अत्याचार की घटनाओं तथा समतावाद और साम्राज्यवाद से उनकी मुक्ति की आस को जन-जन तक पहुंचाया और यहीं आवाज स्वराज के लिए संघर्ष का माध्यम बनी। राजस्थान में प्रकाशित विविध समाचार पत्रों यथा प्रताप, राजपूताना गजट, राजस्थान समाचार, राजस्थान केसरी, नवीन राजस्थान, तरुण राजस्थान, राजस्थान, नवज्योति, नवजीवन, जयपुर समाचार, त्यागभूमि, लोकवाणी आदि ने राजनैतिक जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वाधीनता समर जननायकों ने आदिवासीयों, किसानों और आम लोगों की समस्याओं को जन-जन तक पहुंचाया और और साम्राज्यवाद तथा सामांतवाद के साथ-साथ ब्रिटीश सत्ता से मुक्ति की आवाज को भी प्रखर किया। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. विद्यार्थी सम्मिलित हरिषचन्द्र चन्द्रिका-मोहन चन्द्रिका, कला 8, किरण-1, संवत 1938, पृष्ठ 1-6
2. विद्यार्थी सम्मिलित हरिषचन्द्र चन्द्रिका-मोहन चन्द्रिका, कला 8, किरण-1, संवत 1938, पृष्ठ 5-6
3. वही
4. दृष्टव्यःगुप्त निबन्धावली एवं अम्बिका प्रसाद वाजपेयी कृत समाचार पत्र का इतिहास
5. मेहता, पृथ्वीसिंह, हमारा राजस्थान, हिन्दी भवन, जालन्धर और इलाहाबाद, 1950, पृष्ठ 260-261 6. राजपूताना हैराल्ड, 30 मार्च, 1885
7. भटनागर, रामरतन, राइज एण्ड ग्रोथ ऑफ हिन्दी जर्नलिज्म, 1826-1945, किताब महल, इलाहाबाद, 1947 पृ. 130
8. गुप्त ग्रन्थावली, पृ 375
9. सक्सेना, के.एस., द पोलीटिकल मूवमेंट एण्ड अवेकनिंग इन राजस्थान, 1857-1947, एस.चंद एण्ड कम्पनी, नई दिल्ली, 1971, पृ 118
10. पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, गुलेरी ग्रन्थ, पहला खंड, पहला भाग, नागरी प्रचारिणी सभा, काषी, 1943,
पृ 275-76
11. भटनागर, रामरतन, रा.ग्रो. हि. ज., पृ 131 12. राजपूताना गजट, 8 फरवरी,1896
13. राजस्थान समाचार, 1 फरवरी 1896
14. राजपूताना गजट, 8 फरवरी 1896
15. राजपूताना गजट 15 जनवरी, 1896
16. राजपूताना गजट, 8 मार्च, 1896
17. राठौड, एल.एस., पोलीटिकल एण्ड कान्सटीट्यूषनल डवलपमेंट इन दी प्रिन्सली स्टेट्स आॅफ
राजस्थान, 1920-1949, जैन ब्रदर्स, 1970, दिल्ली, पृ. 40
18. श्रमजीवी पत्रकार संघ परिचय पुस्तिका, पृ. 61 |