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२१ वी सदी की महिला रचनाकारों के यात्रावृतों में लोक – संस्कृति की झलक | |||||||
Glimpses of Folk Culture in The Travelogues of Women Writers of The 21st Century | |||||||
Paper Id :
15666 Submission Date :
02/02/2022 Acceptance Date :
20/02/2022 Publication Date :
25/02/2022
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सारांश | इस शोध - पत्र में लोक – संस्कृति को साहित्यिक संदर्भ में समझाने की कोशिश की गई है साथ ही भारतीय संस्कृति की मुख्य विशेषताओं को भी चिन्हित किया गया है। यात्रा - साहित्य में महिला रचनाकारों द्वारा २१ वी सदी में लिखे गए मुख्य यात्रावृतांतों में देश - विदेश की लोक - संस्कृति का जिस प्रकार सजीव चित्रण किया गया है, उसका विस्तार से वर्णन इस शोध पत्र में किया गया है। | ||||||
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In this research paper, an attempt has been made to explain folk culture in literary context, as well as the main features of Indian culture have also been identified. The way in which the main travelogues written by women writers in travel literature in the 21st century, the folk culture of the country and abroad, has been described in detail in this research paper. | ||||||
मुख्य शब्द | महिला रचनाकारों , यात्रावृतों, लोक – संस्कृति, समाज , परंपराओं, रीति – रिवाजों, स्थितियों, धर्म, दर्शन, कला, देवी – देवता, विवाह की पद्धतियां, खान – पान, रहन – सहन, रूढ़ी परंपरा । | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | women writers, travelogues, folk culture, Society, Traditions, Customs and traditions, Situations, Religion, Visit, Arts, God and goddesses, Marriege rituals, Food and drink, Standard of living, Customary tradition | ||||||
प्रस्तावना |
महिला रचनाकारों ने अपने यात्रावृतों में न केवल भारत की लोक - संस्कृति बल्कि पूरी दुनिया की लोक संस्कृतियों को लेखनी के माध्यम से आमजन तक पहुंचाने की कोशिश की है। यात्राओं के माध्यम से ही किसी भी समाज की लोक - संस्कृति को नजदीक से देखने का मौका मिलता है। अगर हम भारत के विभिन्न स्थानों की लोक संस्कृतियों के बारे में जानने के लिए यात्रा करें तो शायद हमारी उम्र कम पड़ जायेगी। भारत में विभिन्न प्रकार की जन – जातियां निवास करती हैं जिनमें हिमालय क्षेत्र की और छत्तीसगढ़ की जन – जातियां प्रमुख हैं। इन सभी की अपनी – अपनी विशेषताएं हैं। आदिवासी समाज को जानने में भी यात्रा साहित्य हमारी मदद करता है।
यात्राओं के माध्यम से हमें ज्ञात होता है कि लोगों के जीवन में कितनी समस्याएं हैं और उन समस्याओं के रहते हुए कैसे सामान्य जीवन जिया जा सकता है। यह यात्राओं का ही परिणाम है कि भारत के बिहार राज्य का लोक पर्व “छठ पर्व” आज विश्व के प्राय सभी देशों में मनाया जाता है। इसी प्रकार गुजरात के कच्छ का रण, उदयपुर का शिल्पग्राम, जयपुर की चोखी ढाणी, आदि लोक संस्कृति के ही उदाहरण हैं जिनको अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है, क्योंकि किसी स्थान विशेष की लोक संस्कृति वहां के मूल निवासियों की रग - रग में बसी होती है। वह कहीं भी रह कर उसको जीना चाहता है।
भारत की विभिन्न लोक - संस्कृतियों को जानने एवं उनमें समन्वय स्थापित करने में लेखिकाओं द्वारा रचित यात्रवृतों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। किसी भी समाज को अपनी पहचान बनाए रखने के लिए अपनी लोक - संस्कृतियों को सहेज कर रखने की विशेष आवश्यकता होती है जिसके लिए यात्राओं केमाध्यम से प्रचार – प्रसार करना जरूरी है।
लोक संस्कृति एक प्रकार की जीवन शैली ही है। जिसको किसी स्थान विशेष के लोगों के दैनिक जीवन में देखा जा सकता है। मनुष्य अपनी ही लोक संस्कृति में सहज अनुभव करता है। लोक संस्कृति के अंतर्गत विभिन्न चकित करने वाले पहलू भी दृष्टिगोचर होते हैं, जैसे – जानवरों की पूजा करना, भाई - बहिन के बच्चों की आपस में शादी, एक पुरुष के एक से अधिक पत्नियां होना, जन्म और मृत्यु से संबंधित रोचक तथ्य आदि।
लोक - संस्कृति सांस्कृतिक परंपराओं, रीति - रिवाजों, स्थितियों, धर्म, दर्शन, कला, देवी - देवता, विवाह की पद्धतियां, खान - पान, रहन - सहन, रूढ़ी परंपरा आदि सामाजिक तत्वों से निर्मित होती है।
यह सर्व विदित है कि भारतवर्ष विविधताओं में एकता वाला देश है। प्रसिद्ध लोकोक्ति “कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी” के अनुसार बदलती लोक संस्कृति को चरितार्थ होते हुए यहां देखाजा सकता है।
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अध्ययन का उद्देश्य | इस शोध पत्र का मूल उद्धेश्य विभिन्न प्रकार की लोक - संस्कृतियों के मह्त्व को समझते हुये उनके अस्तित्व को बनाये रखने का मानव समाज से निवेदन करना है। यात्राओं एवम् लोक - संस्कृतियों के मध्य अनूठा सम्बंध है। यात्राओं को लोक संस्कृतियों का वाहक भी कहा जा सकता है। आज के दौर की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि भारतवर्ष की युवा पीढ़ी पाश्चात्य संस्कृति की ओर अग्रसर हो रही है जबकि भारतीय संस्कृति सभी संस्कृतियों की सिरमौर मानी जाती है। लोक संस्कृतियों के प्रचार - प्रसार, विस्तार एवं संरक्षण में यात्रा साहित्य का अभूतपूर्व योगदान है। लोक संस्कृति किसी भी समाज या देश की अति महत्वपूर्ण विरासत है। विश्व के सभी देश अपनी संस्कृति का संरक्षण करते हैं और उसको बढ़ावा देते हैं। लोक संस्कृति को बनाए रखने के लिए इसके मापदंडों का आकलन करते रहना जरूरी है। | ||||||
साहित्यावलोकन |
“लोक - संस्कृति” एक ऐसा शब्द है जो हर मनुष्य से किसी न किसी रुप में जुड़ा हुआ है। यात्रा - साहित्य में लोक – संस्कृति की उपस्थिति आरंभ से ही दर्ज की गई है। यात्राओं के माध्यम से लोक - संस्कृति की ताकत और उसके महत्त्व को जाना जा सकता है। महात्मा गांधी ने कहा कि, “एक राष्ट्र की संस्कृति लोगों के दिलों में और आत्मा में बसती है।”
साहित्य के क्षेत्र में लोक - संस्कृति विशेष स्थान रखती है। विशेषकर लोक - साहित्य में। यदि संस्कृति शरीर है तो लोक – साहित्य उसका एक अवयव। लोक – संस्कृति का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। लोक – संस्कृति की व्यापकता जन – जीवन के समस्त व्यापारों में उपलब्ध होती है। लोक – संस्कृति को अपना परिचय देने की जरुरत नहीं होती अपितु वह तो अपनी एक अलग पहचान लिए होती है। यात्रा वर्णनों, लोक – संस्कृति को पाठकों तक विस्तार से जानकारी देने का सशक्त माध्यम है। इस परम्परा को महिला रचनाकारों ने बराबर निभाया है जो कि उनके यात्रा वृतान्तों में परिलक्षित होता है।
हमारे देश भारत ने संस्कृति और परंपरा के संचित ज्ञान कोष से विश्व को अनेकों सांस्कृतिक, साहित्यिक और वैज्ञानिक रचनाएँ प्रदान की हैं। इन रचनाओं में आर्यभट्ट द्वारा शून्य का आविष्कार, चरक द्वारा आयुर्वेद की खोज, प्राचीनतम भाषा संस्कृत, योग, अध्यात्म, आदि अनेकों सृजन हैं। भारतीय संस्कृति की इन रचनाओं ने विश्व पट्ट में न सिर्फ अपनी अमिट छाप अंकित की है अपितु समस्त विश्व, इन रचनाओं का पथ – प्रदर्शक स्वरुप अनुकरण कर इन्हें अपने जीवन में अपना रहा है (यूनियन सृजन, अप्रैल – जून - २०१९)
मई 2018 में ‘मंडयाली टांकरी’ नाम से श्री जगदीश कपूर द्वारा रचित पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसे उन्होंने आज की व आने वाली पीढ़ी को अवगत करवाने के आशय से लिखा है। इसके अतिरिक्त डा. जगत पाल शर्मा का मंडयाली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन, शब्द और शब्द, आगरा द्वारा प्रकाशित किया गया है तथा यह मंडयाली भाषा को प्रमाणित करने के लिए उनका एक अनूठा प्रयास है। मंडी जनपद में भी विभिन्न कलाओं की झलक उसकी सभ्यता और संस्कृति में गूढ़ रूप में मिलती है तथा लोक संस्कृति व साहित्य की परंपराओं को सहेजने में समयपरक विभिन्न विभूतियों का अपना-अपना योगदान है। संगीत एवं काव्य कला में जन्म, संस्कार गीत, भ्याइयां, छिंज-छिंजोटियां, टप्पे, भ्यागड़े, बाल्लो, बारहमासा, झेह्ड़े, लोकगीत व वर्तमान में कविताएं गायन व काव्य के अनूठे उदाहरण हैं। (लोक संस्कृति व साहित्य में मण्डी का योगदान, दिसम्बर - २०२०) |
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मुख्य पाठ | परिभाषाए: समाजशास्त्रियो, दर्शनशास्त्रियो, राजनीतिज्ञो, काव्यकारो, शिक्षविदो, ने संस्कृति की अनेक परिभाषाए दी हैं, इनमे से
कुछ महत्व्पूर्ण परिभाषाए निम्न प्रकार हैं – 1. परिभाषा (के. एम. मुंशी) : [१] “हमारे रहन – सहन के पीछे जो हमारी मानसिक अवस्था, जो मानसिक
प्रकृति, जिसका उद्देश्य हमारे जीवन को परिष्कृत शुद्ध
और पवित्र बनाना है तथा अपने लक्ष्य की प्राप्ति करना है, वही संस्कृति है। संस्कृति जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण है।”[१] 2. परिभाषा (डॉ. सम्पूर्णानंद): [२] “निरंतर प्रगतिशील, मानव जीवन, प्रकृति और मानव समाज के जिन - जिन असंख्य
प्रभावों एवम् संस्कारों से संस्कृत प्रभावित होता है। मावन का प्रत्येक विचार,
प्रत्येक कृति संस्कृति नहीं है| पर जिन
कार्यों से किसी देश - विदेश के समस्या, कामों से किसी
देश - विदेश के समस्त समाज पर कोई अमिट छाप पड़े, वही
स्थाई प्रभाव ही संस्कृति है। संस्कृति वह आधारशिला है, जिसके आश्रय से जाति, समाज व देश का भव्य विशाल
प्रासाद निर्मित होता है।”[२] 3. परिभाषा (रामधारी सिन्ह दिनकर): [३] “संस्कृति एक ऐसा गुण है जो हमारे जीवन में छाया हुआ है। एक आत्मिक गुण है जो
मनुष्य स्वभाव में उसी प्रकार व्याप्त है, जिस
प्रकार फूलों में सुगंध और दूध में मक्खन। इसका निर्माण एक या दो दिन में नहीं
होता, युग - युगान्तर में होता है।”[३] 4. परिभाषा (सुमित्रानंदन पंत): [४]
“संस्कृति को मैं मानवीय पदार्थ मानता हूं; जिसमें हमारे जीवन के सूक्ष्म स्थल दोनों धरातलों के सत्यों
का समावेश तथा हमारे ऊर्ध्व - चेतना शिखर का प्रकाश और समदिक जीवन की मानसिक
उपत्यकाओं की छायाएं गुम्फित हैं।”[४] 5. परिभाषा (मैथ्यू आर्नोल्ड): [५] “किसी
समाज और राष्ट्र की श्रेष्ठतम उपलब्धियां ही संस्कृति है। जिनसे समाज और राष्ट्र
परिचित होता है।”[५] 6. परिभाषा (डॉ. व्हाइट हेड): [६] “संस्कृति मानसिक प्रिक्रिया है और
सौन्दर्य तथा मानवीय अनुभूतियों को हृदयंगम करने की क्षमता है।”[६] 7. परिभाषा (सी. सी. नॉर्थ): [७] “अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के
लिये मनुष्य जिन साधनों और तंत्रों का प्रयोग करता है, वे
सभी संस्कृति के अंग हैं। संस्कृति में जिन विभिन्न भौतिक तथा अभौतिक वस्तुओं का
समावेश होता है, उसकी भी हम संस्कृति के क्षेत्र में
गणना करते हैं।”[७] उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृति मानव जीवन व उससे
संबंधित वस्तुओं पर आधारित है। संस्कृति का सीधा संबंध मानव की बुद्धि, स्वभाव और उसकी मनोवृतियों से होता है।व्यक्ति का विकास भी
इन्हीं मानवीय मूल्यों पर आधारित है। संस्कृति व्यक्ति से होकर समाज में एवं उसके
बाद राष्ट्र में प्रवेश कर उसको विकसित करती है। [८] “संस्कृति
किसी राष्ट्र के व्यक्तियों द्वारा प्रस्तुत किया गया ऐसा व्यवहार है, जो आने वाले व्यक्तियों का आदर्श है, उनके
द्वारा अनुकरणीय है और उन्हें सही अर्थों में सामाजिक बनाता है”। [८] भारतीय संस्कृति भारतीय संस्कृति “वसुधैव कुटुंबकम्” की भावना को जीवंत करती है। यह सर्वधर्म समभाव की भावना को आगे लेकर चलती
है। भारतीय संस्कृति की मुख्य विशेषता प्राचीनता, दीर्घजीविता, आध्यात्मिकता, आस्तिकता, धर्मपरायणता इत्यादि है। डॉ. किरण टंडन के अनुसार [९] “विश्व के सभी देशों की अपनी अपनी संस्कृति है और वह संबंधित देशवासियों के
लिए महत्वपूर्ण है। किंतु भारतीय संस्कृति विश्व की संस्कृतियों में सबसे प्राचीन
और विशिष्ट है। समय - समय पर विजेताओं ने भारतवर्ष पर अपनी संस्कृति को आरोपित
करने का प्रयत्न किया, किन्तु भारतीय संस्कृति ने उन
संस्कृतियों को आत्मसात करते हुए अपना अस्तित्व अक्षण्ण रखा”l [९] डॉ. प्रीतिप्रभा गोयल ने अपनी कृति “भारतीय
संस्कृति” में इसकी विशेषता को दर्शाते हुए लिखा है कि [१०] “विश्व में प्राचीन एवं अर्वाचीन अनेक संस्कृतियां हैं, किन्तु उन सबमें भारतीय संस्कृति का स्थान अनुपम एवं सर्वोच्च है। भारतीय
संस्कृति के अनूठे महत्व को पाश्चात्य अथवा पौरस्त्य सभी मनीषियों ने एकस्वर से
स्वीकार किया है”।[१०] विषयवस्तु २१वी सदी की प्रमुख महिला रचनाकारों द्वारा लिखे गए यात्रा वृतांतो में कृष्णा
सोबती का “बुद्ध का कमंडल लद्दाख”, कुसुम खेमानी कृत “कहानियां सुनाती यात्राएं”, शिवानी का व्यक्तिचित्र यात्रावृत्त “यात्रिक”, मृदुला गर्ग का यात्रावृत्तांत “कुछ अटके कुछ भटके”, यशस्विनी पांडेय का यात्रावृत्तान्त “य से यशस्विनी
य से यात्रा” एवम् नासिरा शर्मा द्वारा लिखित यात्रावृत्त “जहां फव्वारे लहू रोते हैं” मह्त्वपूर्ण हैं जिनमें
इन रचनाकारों ने प्रदेश, देश एवम् विदेश की लोक - संस्कृतियों को स्त्री स्वभाव के अनुरूप भरपूर एवम् पुरजोर तरीके से
प्रस्तुत किया है जिसकी विस्तार से आगे चर्चा की गई है। लेखिका कृष्णा सोबती ने अपने प्रसिद्ध यात्रावृत्त “बुद्ध का कमंडल लद्दाख” में लद्दाख
की लोक परंपराओं का सुंदर वर्णन किया है। लेखिका बताती है कि लद्दाखी समाज की
संस्कारी परंपरा भी बड़ी दिलचस्प है जैसे [११] “बचपन से लेकर
मृत्यु तक के दरमियान किए जाने वाले संस्कारों को अलग - अलग नाम दिए गए हैं। बच्चे
के जन्म के उपलक्ष्य में दी जाने वाली दावत को “दसासटोन”
कहते हैं। नामकरण पर भोज निमन्त्रण “मिंगटोन”
कहलाता है। विवाह के भोजन निमंत्रण को “बैंगटोन”
कहते हैं। मृत्यु के बाद दिया जाने वाला भोज “शिड्टोंन”
और अस्थियां चुनने के बाद का भोज “छोरटोन”
कहलाता है”[११] लद्धाख में भाषाओं की भिन्नता भी खूब पाई जाती है। लेखिका कृष्णा सोबती के
अनुसार यहां सेना की उपस्थिति होने से पूरे भारत का संवाद सुना जा सकता है। फिर भी
लद्दाख की कुछ अपनी लोक भाषाएं एवं लिपी भी हैं। लेखिका वहां के एक शिक्षा संस्थान
के निदेशक से बातचीतों के कुछ अंश को साझा करते हुए लिखती है कि [१२] “निदेशक साहिब ने लद्दाखी लेखकों के नाम बताए। अब्दुल गनी शेख
उनमें अग्रणी हैं। बताया कि यहां लेखकों की अच्छी खासी रौनक रहती है। मुशायरे बहुत
लोकप्रिय हैं। विभाजन पर भी कहानियां लिखी गई हैं। लद्दाखी बोलियों की बात हुई तो
उन्होंने बताया कि यहां बोलियों की भी कमी नहीं है। विभिन्न इलाकों के हिसाब से
उनका ध्वनि संसार एक - दूसरे से बदल जाता है जैसे नूंबरा, चांग - थांग, कारगिल”।[१२] [१३] “लद्दाखी तिब्बत परिवार की भाषा है।
इसकी लिपी देवनागरी से मिलती है। दूसरी भाषा ‘बाल्टी’ है। यह तिब्बती भाषा के नजदीक है। कुछ अन्य भाषाएं भी यहां बोली सुनी जाती
हैं। दरदी, दाखी, डोगरी, नेपाली, यारकंदी, उर्दू
और इंग्लिश”।१३ लेखिका कुसुम खेमानी ने अपने यात्रावृत्त “कहानियां सुनाती यात्राएं” में अपने यात्रा के
अनुभवों बखूबी ढंग से प्रस्तुत किया है l लेखिका
ने अपने देश के मुख्य - मुख्य जगहों की और
विदेशो की अनेक यात्राएं की हैं l इस यात्रा
वृत्तान्त को पढ़कर प्रतीत होता है कि लेखिका पर यायावरी प्रवृति काफी हावी रही है l इस यात्रा वृत्तान्त के अनेक खण्ड हैं जिनमें इन्होंने भिन्न – भिन्न पहलुओं का जिक्र किया है जिनमें से एक लोक – संस्कृति
भी है l लेखिका इस यात्रावृत्तान्त के शीर्षक “मोत्जार्त
काफ्का का प्राग” में चेकोस्लेवाकिया के सुप्रसिद्ध शहर ‘प्राग’ की संस्कृति के लिए लिखती हैं कि,
[१४] “प्राग शहर के सौंदर्य के साथ यदि हम
उसके साहित्य और सांस्कृतिक संघर्ष का इतिहास भी देखें तो हमारी आंखें विस्मय से
विस्फारित हो अनिमेष हो जाएंगी l इसका संपूर्ण
इतिहास ही अपनी भाषा, अपनी सांगीतिक परम्परा और अपने
साहित्य को बचाने के मुद्दों से भरा है । यहां सात सौ वर्षों पहले जुलियास फूचिक
फासिज्म के बर्बर दर्शन को अस्वीकृत करने का टेस्टामेंट प्रस्तुत कर फांसी के
तख्ते पर झूल गया था l चेक भाषा की सूक्ष्मता,
लचीलापन, अर्थ देने की अद्भुत क्षमता इस
बात के प्रमाण हैं कि इस भाषा ने अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए सदियों तक अनवरत
संघर्ष किया है l आज भी मिलान कुंदेरा जैसे लेखक
चेक में ही लिख रहे हैं, यह इतर है कि वे यहां के
निवासियों (या सरकार) से मायूस रहे हैं l अतः
अपनी पुस्तक चेक में नहीं छपवाते”[१४] लेखिका अपनी कश्मीर यात्रा में श्रीनगर की डल झील के आस - पास बने हाउस बोट
वालों और मोटर बोट वालों के आतिथ्य भाव को देखकर लिखती है कि, [१५] “यहां का हाउस बोटवाला हो या मोटर
बोटवाला इनकी मेहमाननवाजी और कर्तव्यधर्मिता लाजवाब है l स्वयं भूखे रहकर भी ये आपका अद्भुत आतिथ्य करते हैं”[१५] वैसे ये देखा गया है कि निम्न वर्ग या निम्न मध्यम वर्ग में आतिथ्य
भाव तुलनात्मक रूप से अधिक पाया जाता है l इसी
विशेषता को लेखिका ने यहां स्पष्ट किया है l लेखिका ने भूटान की यात्रा को “जहां
सन्नाटा गाता है” शीर्षक दिया है। भूटान हमारा पड़ोसी देश है
तथा आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ भी है, बावजूद इसके भूटान में
कोई भिखारी नहीं पाया जाता है । जब लेखिका ने इसकी मूल वजह को जाना तो वह दंग रह
गई । वहां की सरकार में उच्च पदों पर आसीन व्यक्तित्व यथा; गृह
मंत्री तक भी ड्राइवर को रखना व्यर्थ का खर्चा मानते हैं तथा सभी उच्च पदस्थ लोग
जमीन से जुड़े हुए रहते हैं l उनके आम व्यवहार के
लिए लेखिका लिखती हैं कि, [१६] “उनका
सड़क पर लगी खुली नल को आगे बढ़कर बंद करना, हरेक से
झुक - झुक कर बातें करना, हमें परीलोक की अनुभूति करवा
रहा था। कहां तो आगे पीछे कनवाय के बीच में चलती मिनिस्टरी गाडियां (?) और कहां इनका सादापन? हमें रह – रह कर रश्क हो रहा था इन भूटानवासियों से; और तब तो
हद ही हो गई, जब घर पर उनकी पत्नी ने कहा ,
“ मेरी बेटी सहेली के यहां गई है, इसलिए
चाय लाने में देर हुई l” सच पूछिए तो एक बारगी तो
यह लगा ये लोग नाटक कर रही हैं । जरूर होंगे इनके भी वे तमाम अरदली और हरकारे!! पर
बाद की कई मुलाकातों में यह सच और सही बनाता गया। यह सपना, कि एक बड़े ओहदे की सरकारी
शख्सियत चालक और चाकर विहीन रहना पसंद करती है, हमारे
सामने सच बना खड़ा था…….. यथा राजा तथा प्रजा और शायद
यही वजह है कि भूटान में भिखारी खोजे नहीं मिलता”[१६]
भारतवर्ष के प्रत्येक नागरिक के लिए सपने सी लगने वाली इस कल्पना लेखिका अपने
पड़ोस में साकार होते देख रही थी। दक्षिण भारत के प्रसिद्ध नृत्य कुचीपुड़ी के उद्भव की गाथा को अपने यात्रा
वृत्तान्त के शीर्षक “हैदराबाद की कहानी गोलकुंडा की जुबानी”
में लेखिका इस प्रकार बताती हैं, [१७] “एक गांव के लोगों ने उनसे पानी के अभाव की चर्चा की, आका ने तुरत – फुरत उसका समाधान करवा दिया । गांव
वालों ने उन्हें पहचान कर , कृतज्ञता अभिव्यक्त
करने हेतु उनके समक्ष नाच प्रस्तुत किया । इस स्थानीय नाच का कोई नाम नहीं था
इसलिए राजा ने नाच को गांव का नाम कुचीपुड़ी दे दिया और कहा यह अद्भुत नृत्य
भविष्य में बहुत प्रसिद्ध होगा । सही कहा था उन्होंने आज दक्षिण के कुचीपुड़ी
नृत्य की धाक संपूर्ण विश्व में है”[१७] कनाडा के प्रसिद्ध शहर वेंक्यूवर की यात्रा में लेखिका यह महसूस करती है कि
जितना प्यारा यह शहर है उतने ही प्यारे यहां के लोग हैं। [१८] “वेंक्युवर एक प्यारा शहर इसलिए भी है कि यहां के लोग इंग्लैंड
और अमेरिका की तरह घमंडी नहीं हैं । यहां अनजान आदमी भी एक - दूसरे से आगे बढ़कर
यों मिलते हैं हेलो! हाऊ आर यू? मे गॉड ब्लैस यू। कीप वेल।…….. या कि हाई! नाईस टू मीट यू। यू आर सच्च ए फाइन पर्सन”[१८] किसी भी स्थान को आकर्षित और सुंदर बनाने में वहां के निवासियों का
अहम योगदान होता है। इस प्रकार के व्यवहार को विकसित कर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी
में स्थानांतरण करने की जिम्मेदारी एक बुद्धिजीवी वर्ग की होती है। मॉरिशस को मिनी भारत की उपाधि प्रदान की गई है जिसका कारण वहां रह रहे
भारतीयों की जनसंख्या है। मॉरिशस में रहकर आपको यह महसूस नहीं हो सकता की आप भारत
से बाहर हैं। लेकिन मॉरीशस ने अनेक ऐसी संस्कृतियों, सुव्यहारों
को जन्म दिया है जिसको आज हमें अपनाने की जरूरत है। मॉरिशस एक धार्मिक उदारवादी
भावनाओं का देश माना जाता है, [१९] “इतिहास
गवाह है कि यहां कभी भी…… किसी भी क्षण……. धर्म को लेकर हंगामा नहीं हुआ । शिवरात्रि के पर्व पर कांवड़िये कंधो पर
कांवड़ रख गंगा तालाब जाते हैं तो क्रिश्चियन और मुसलमान मित्र साथ - साथ चलते
दिखते हैं । दिवाली, ईद, उगादी
(तेलुगुपर्व), गणेश चतुर्थी आदि के समानांतर ही
ईसाइयों का फादर लवाल एवम फरवरी में चीनियों का नववर्ष ‘वसंत उत्सव’ के नाम से खूब धूमधाम से मनाये
जाते हैं”[१९] लेखिका बंगाली परिवारों में विराजमान अतिथि देवो भव के मनोभाव को चरितार्थ
करते हुए लिखती है कि जब वह एक अध्यापक की तलाश में एक जीर्ण – शीर्ण मकान के सामने खड़ी हुई तो अंदर से एक महिला उनको अंदर
लिवा ले गई। २० “उन्हें मेरे बारे में कुछ भी पता नहीं था ।
वे भी नहीं जानती थी कि मैं उनके पति से कुछ खसोटने आई हूं या कोई नुकसान पहुंचाने?...... सुदामा के तंदूल खाते कृष्ण, उनके बालसखा थे —
पर मैं कोई निशाचारी भी हो सकती थी? ………… ऊपर से उनकी आर्थिक हालत ऐसी?.......... अतिथि
देवो भव मंत्र मैंने भी सुना है, पर इसके उलट, देव तो दूर, मैंने लोगों के मुंह पर दरवाजे भी
बंद किए हैं। क्या कोई सतयुग का दृश्य रिले हो रहा है, या
कि यह इस बंगाल की धरती की महिमा?” [२०] लेखिका शिलांग यात्रा के दौरान वहां की संस्कृति के लिए लिखती है कि, [२१] “खासी, गारो, और जैंतिया जातियों के अपने नृत्य हैं जो प्रकृति से उपजे हैं । मुख्यत:
फसल होने से, मौसम बदलने पर, अति वर्षा होने पर या आपद – विपदा आने पर उन्हे
मनाया जाता है । जिसका नाम है ‘नोंगकेम नृत्य’। खासी महिलाएं गहनों से लद- फंद कर बीच के घेरे में नाचती हैं और
पुरुष बाहर बड़ा घेरा बनाकर पारंपरिक हथियार से लैस होकर बड़े घेरे में नाचते हैं
। भीतरी घेरा नदी की लहर की तरह और बाहरी घेरा समुद्र की तरंगों सा दृश्यमान होता
है।[२१] लेखिका ने गोवा की यात्रा को भी अपने इस महत्वपूर्ण यात्रा वृत्तान्त का
हिस्सा बनाया है। इसके शीर्षक ‘और एक समुद्र
भीतर का’ में गोवा की संस्कृति के बारे में काफी लिखा है ।
गोवा में पूर्वी और पश्चिमी सभ्यताओं और संस्कृतियों का अद्भुत सामंजस्य दिखाई
देता है। गोआनियों ने विदेशी संस्कृतियों से बहुत कुछ सीखा मगर अपनी मूल – संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखा।[२२] “पांच – छह दिनों तक बड़ी धूम धाम से
मनाया जाने वाला ‘गोआनी कार्नीवाल’ सैकड़ों
पर्यटकों को लुभाकर अपने सौंदर्य से बेधकर बंदी बना लेता है।…….. वे इस शर्त पर छूटते हैं कि । आगामी वर्ष भी आयेंगे हालांकि शर्त बदने
वाला और कैदी दोनों एक ही हैं। ‘फेनी’ (गोवा की कच्ची शराब) सा ही यह कार्नीवाल एक ऐसी लत है जिसके काले जादू से
कोई बच नहीं सकता । गोवा में इसके अलावा भी नृत्य की भरमार है। ईसाइयों का ‘घोड़े मोड़नी’ , ‘युद्ध नृत्य’
, और ‘मांडो – नृत्य आश्चर्यजनक ढंग से ईसाई प्रेम तत्वों से आरंभ होकर हिंदू भजन -
कीर्तन में समाप्त होते हैं । ‘मूसल खेल’ (हिन्दू नृत्य) ‘टोनोमेल किसान नृत्य’
, ईसाइयों का ‘जागौर नृत्य’
‘सुवारी’ (विदेशी ताल पर आधारित हिन्दू
लोक नृत्य), ‘देंखनी नृत्य’, ‘गोफ’, ‘तालगड़ी नृत्य’, ‘दीपक
नृत्य’, मराठी एवं कोंकणी संगीत से परिपूर्ण ‘फुगड़ी ढालो नृत्य’, ‘सौराष्ट्री धांगड़ नृत्य’ एवं ‘वीरभद्र नृत्य’ यहां बहुत लोकप्रिय है l इन सारे नृत्यों
से अलग गोवा का एक प्राचीन नृत्य है ‘कुनबी’।”[२२] यात्राकार शिवानी के व्यक्तिचित्र यात्रावृत्त “यात्रिक”
में लोक – संस्कृतियों का जिक्र
मिलता है। लेखिका इंग्लैंड में अपने पुत्र की शादी को देख स्वदेशी पण्डित की
प्रासंगिकता को इस प्रकार बयां करती है– [२३]“विवाह के अवसर पर उनके सुरीले कंठ का शाखोच्चार की सुनने सदा भीड़ लग जाती
थी। जब वे विपक्षी पुरोहित के शाखोच्चार की अपने जवाबी शाखोच्चर से धज्जियाँ
उड़ाते तो घरातियों को विशेष आनंद आता था। बाराती अपने पक्ष के पुरोहित को लाख
उकसाएं, लछिका सदा अपराजित ही रहते। जैसा ही कंठ स्वर, वैसा ही आत्मविश्वास और वैसा ही सरल तेजोमय व्यक्तित्व। गबरूनी बन्द गले
का कोट, ठेठ पहाड़ी टोपी और घुटनों तक की धोती। एक
जीर्ण, लाल वस्त्र के बटुआ नुमा बस्ते में अपनी पुस्तकें
काँख में दाबे, लम्बी - लम्बी
डगें भरते चले आते तो लोग दूर से पहचान लेते – पुरोहितजी आ
गए, और पुरोहितजी आ गए तो समझ लीजिए कि शुभ कार्य स्वयं
ही निर्विघ्न सम्पन्न हो गया।”२३ इसी प्रसंग को लेखिका आगे
बढ़ाती हुई लिखती हैं कि – [२४]“अपने
बचपन में हमें उनके पार्थिव पूजन में सबसे अधिक आनंद आता था जब मिट्टी – चावल के बने सहस्त्र नन्हे शिवलिंग बड़ी – सी
परात में धरकर घंटों पूजे जाते। हमें उस क्षण की बड़ी आतुरता से
प्रतीक्षा रहती, जब समापन किश्त में लक्षिका शिवजी से
स्वग्रह जाने का विनम्र अनुरोध करते, मुंह से एक विचित्र
ध्वनि निकालकर! गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ स्वस्थानम परमेश्वर।”२४
लन्दन प्रवास में लेखिका को इतालवी व्यंजनों की अनभिज्ञता से हुई परेशानी को इस
तरह बताया कि – [२५]“उन अपरिचित इतालवी
व्यंजनों की अनजानी भी ड़में एक–दो ही नामों से मेरी जिव्हा
पूर्व परिचय थी। वे ही चीजें मैंने मंगवाई। किन्तु अपना दुर्भाग्य न्योतने ही
मंगवा बैठी ‘मशरूम चिली सॉस’। मैं तो
सोचती थी, हम भारतीय ही तीखी मिर्च से अपनी आंतों को भस्म
करने की कला में पारंगत हैं, पर यह तो अच्छा – खासा आंध्र का रसम निकला। एक क्षण को लगा, किसी ने
आग का पलीता गले से लेकर पेट तक घुमा दिया है।”[२५] आगे
लेखिका लंदन के ‘बकिंघम पैलेस’ की
एक विशेष संस्कृति से रूबरू कराती हैं – [२६]“इस बुलंद इमारत के बीचोंबीच एक मेहराबदार झरोखा है, जिसमें विशेष अवसरों पर प्रजा का अभिनंदन ग्रहण करने पूरा राज्य परिवार
आकर खड़ा होता है। जब महारानी प्रासाद में रहती हैं तो राजसी झंडा फहरा कर उनके
नगर में रहने की सूचना दी जाती है। ठीक साढ़े ग्यारह बजे यहीं ‘चेंजिंग द गार्ड्स’ होता है जब मिट्टी की मूरत –
से लाल वस्त्र और झब्बेदार काली टोपी में संवरे राजप्रासाद के
संत्री अपना स्थान बदलते हैं।”[२६] लेखिका लंदन के आधुनिकतम
व्यवसायी विज्ञापनों से प्रभावित होकर भारतीय विज्ञापनों पर तंज करती हैं कि –
[२७]“हमारा यही पक्ष दुर्बल है। किसी दंतमंजन
के विज्ञापन में या तो हम एक ही बूढ़े को बरसों दांत से अखरोट तोड़ते देख ऐसे ऊब
जाते हैं कि स्वयं हमारी दाढ़ दुखने लगती है या हल्दी – चंदन
के लेप से किसी कंचन सी काया को बरसों से उसी उबाऊ घघिघिस में घिसा जाता देख
झुंझलाने लगते हैं।”[२७] अंत में लेखिका भारतीय संस्कृति की मूल्यवान विशेषता के कुछ अंश साझा करती हैं
– [२८]“हमारी संस्कृति ने सदा संस्कारों
को ही महत्व दिया। व्यक्ति हो या समाज, उसे श्रेष्ठ बनाने
में संस्कारों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, यह हम सदा
मानकर चलते हैं। आज अनेक पाश्चात्य विद्वान ‘यूजेनिक्स’
के शोध कार्य में संलग्न हैं। ‘यूजेनिक्स’ अर्थात सुसंतान शास्त्र। इसमें विवाह, परिवार, परंपरा आदि पर शोध कार्य कर विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि केवल
भारतीय संस्कृति में ही उन सभी तथ्यों का समावेश है जो व्यक्ति एवं समाज को
परिष्कृत रूप देते हैं।”[२८] मृदुला गर्ग ने भी देश-विदेश की अनेक लोक - संस्कृतियों को अपने
यात्रावृत्तांत ‘कुछ अटके कुछ भटके’ में बखूबी वर्णित किया है। लेखिका ने जापान के ओसाका शहर में स्थित ‘बुनराकु कठपुतली थियेटर’ की कलाकृति का वर्णन
करती हुई लिखती है, [२९]“बुनराकु की
प्रस्तुति देखी तो समझ में आया कि अनजाने में ही उसका मर्म खूब पकड़ा गया था। उसकी
सरंचना, वाकई महीन फुलकारी वाली बुनाई की तरह थी। जिस
तरह जापान दुनिया के अन्य सभी देशों से अलग है, उसी तरह
बुनराकु का शिल्प भी अन्य अभिनय कलाओं से सर्वथा अलग है। ऐसा कठपुतली नाटक, जहां हमारे देखते – देखते निर्जीव पुतले अभिनेता नजर
आने लगते हैं और सजीव संचालक पुतलों में तब्दील हो जाते हैं।”[२९] बुनराकु में लेखिका ने अनेक नाट्य प्रस्तुतियां देखी जिनमें से एक का
वर्णन इस प्रकार है – [३०]“जो नाट्य
प्रस्तुतियां मैंने देखी, उनमें एक का नाम था यारी –
नो - गोंजा कसाने काटाबिरा, यानी बर्छी
चलाने वाला योद्धा गोंज़ा। उसमें एक प्रसंग आता है जहां सामुराई गोंजा पर स्त्री
गमन के गलत आरोप को खारिज करने के लिए आत्महत्या को प्रस्तुत है। पर स्त्री उससे
प्रार्थना करती है कि वह ऐसा न करे। अगर उसने झूठे आरोप के कारण प्राण त्याग दिए
और बाद में सबको आरोप के झूठ होने का पता चला तो उसके पति की प्रतिष्ठा को आघात
पहुंचेगा। उसके आत्मसम्मान को खंडित होने से बचाए रखने के लिए वह चाहती है कि
गोंजा उसके साथ फरार हो जाए और उसके पति को दोनों की हत्या करने दे। यही होता भी
है। नाटक समाप्त होने पर यह अंत चाहे जितना शोचनीय और तर्कहीन मालूम पड़ा हो, प्रस्तुति के दौरान बाकी दर्शकों के साथ में भी आत्मविभोर थी। जैसे जो
कलात्मक था, वही तर्कसंगत भी था। इसके साथ ही प्रस्तुति में
जापानी संस्कृति के अनेक विशिष्ट और विलक्षण पहलू, पूरे
ब्यौरे के साथ कलाबद्ध थे। जैसे जटिल केश – सज्जा, शामिसेन संगीत, सामुराई जीवन पद्धति और जापानी
चाय - अनुष्ठान। गोंजा पर जिस स्त्री से प्रेम करने का अभियोग लगा था, दरअसल रात के समय उसने उसे चाय – अनुष्ठान के गुप्त
नियम सीखने बुलाया था और उसके बदले में वह उससे अपनी बेटी का विवाह करने का वचन ले
चुकी थी। इस प्रसंग से अन्य सिद्धांतो के साथ जापानी संस्कृति में चाय – अनुष्ठान की महत्ता भी समझ में आती है। जापान के जगप्रसिद्ध काबुकी थियेटर
का जनक भी बुनराकु ही है। काबुकी तक आते – आते पुतलों का
स्थान, शास्त्रीय अभिनय शैली में ढले पुरुष अभिनेताओं ने ले
लिया, पर कथ्य और भाव संवेग वही रहा।”[३०] लेखिका ने अपने इसी यात्रावृत्तांत के शीर्षक ‘काली
मिर्च बनाम ईश्वर’ में केरल के प्रसिद्ध लोकपर्व ओणम की
पूर्व तैयारियों का वर्णन करते हुए लिखती हैं कि, [३१]“ओणम आने में दो सप्ताह शेष थे। पर बाजार सज चुके थे, खरीदारी पर छूट मिलनी शुरू हो गई थी, जोश धीरे
- धीरे उफान पर आ रहा था। तो तर्कसंगत ही था कि ओणम की नौका - दौड़ के स्थल पर
पहुंच कर, बाप - बेटे आंखों - आंखों में सलाह करें और वीर रस
के ओतप्रोत, वे गीत गा उठें, जो
इरट् चुंडन में सवार प्रतियोगी नाविक गाते हैं। एक – एक नौका
पर दोनों तरफ दर्जन - भर नाविक पतवार खेल रहे होते हैं। गीत अपनों को गति बढ़ाने
को उकसाता है; तो दूसरों को चुनौती देता है। सुनने वालों की
भुजाएं फड़क उठती हैं। यूं भी केरल अपनी सामरिक कलाओं के लिए मशहूर है।
प्रतिद्वंदी सामने हो तो खेल भी समर बन जाता है। जो हो, कुछ क्षणों के लिए, एक बूढ़े और एक जवान कंठ ने नौका
दौड़ का वह समां बांध दिया जिसे दृश्य रूप में कई बार देखकर भी मैं अहसास में उतार
न पाई थी।”[३१] लेखिका असम के लोक नृत्य ‘बिहू’ को भी देखती हैं, [३२]“डिब्रूगढ़ में बिहू नाच देखा तो बतलाया गया था, उसके
ढोल की थाप से शाल्मली की पकी फलियां फट जाती। वहां सुन भर लिया था। काजीरंगा आई
तभी कल्पना कर पाई कि वह कैसा लोमहर्षक दृश्य होता होगा। नीचे ढोल बजे नहीं की
सैकड़ों पेड़ों पर लटकी हजारों फलिया तमक कर एक साथ फटी और चारों और कपास ही कपास
हो गई। वाह! पर होने नहीं दी जा सकती, नए जंगल बाबू ने
कहा, कपास जंगल को ढक लेगी तो वनस्पति नष्ट हो जाएगी, फिर गैंडे, हाथी, भैंसे
जैसे शाकाहारी जानवर क्या खाकर जिएंगे? इसीलिए बिहू का
त्यौहार आने से पहले फलियां काट ली जाती हैं।”[३२] यशस्विनी पांडेय ने अपने यात्रावृत्तान्त ‘य
से यशस्विनी य से यात्रा’ के शीर्षक “कोलकाता
: गंदगी, गरीबी और जगमगाते पंडालो का शहर” लोक पर्व दुर्गापूजा का विस्तार से वर्णन किया है। लिखा है कि [३३]“दुर्गापूजा पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, असम, बिहार, झारखंड,
त्रिपुरा आदि राज्यों का प्रमुख त्यौहार है”[३३]
दुर्गापूजा के अवसर पर पांडलों की विशिष्टता का बखान करते हुए लेखिका ने बताया कि,
[३४]“पंडालों की भव्यता का ध्यान यूं तो
शादियों में दिया जाता है, लेकिन कोलकाता की दुर्गापूजा
ऐसा धार्मिक उत्सव है, जहां दुर्गा की मूर्तियों के साथ
- साथ पंडालों को सजाने में भी बेहद मेहनत की जाती है। पूरा शहर दुर्गा पूजा के
छोटे – बड़े भव्य पंडालों से भरा हुआ था, लग रहा था जैसे पांच दिनों तक मैं यहां किसी विवाह उत्सव में रहने वाली
हूं। कोलकाता की सिर्फ दुर्गापूजा ही देखने लायक नहीं है, बल्कि दुर्गापूजा से पहले की तैयारियां भी देखने लायक होती हैं। मूर्तियां
बनने से लेकर पंडाल सजने, आरती और फिर विसर्जन, हर एक चीज आपको कुछ अलग ही उल्लास और पूर्णता से भरती है।”[३४] इस लोकपर्व को भिन्न - भिन्न जगह अलग - अलग नामों से पुकारा जाता है
जैसे:– [३५]“बंगाल, असम और उड़ीसा में दुर्गा पूजा को अकालबोधन (दुर्गा का असामयिक जागरण), दुर्गोत्साब, मायेर पूजो अर्थात् मा की पूजा आदि
नामों से भी जाना जाता है। दुर्गापूजा अश्विन शुक्ल पक्ष की छठी तिथि को शुरु होकर
विजयादशमी तक चलती है। दुर्गा पूजा के समय यूं तो शिव, लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश, कार्तिकेय आदि की पूजा होती है, लेकिन मुख्य
पूजा शक्ति स्वामिनी दुर्गा की ही होती है।[३५]” यशस्विनी पांडेय ने अपने यात्रावृत्तान्त ‘य
से यशस्विनी य से यात्रा’ के शीर्षक “एक
म्यूजियम; जिसने एक छत के नीचे नॉर्थ ईस्ट बसा लिया है”
में नॉर्थ ईस्ट के लोकनृत्य की विशेषताओं को बताती है कि, [३६]“नॉर्थ ईस्ट के लोगों या जन – जातियों के पास नृत्य की भी वृहत परम्परा है जो उनके पारंपरिक ताल, लय, आवर्तन हाव – भाव और
मुद्राओं के द्योतक हैं। उनका नृत्य तरह –तरह की भंगिमाओं से
अपनी परम्परा, मिथक, कहानी और
इतिहास कहता है। और इनके गीत जो इनके लिए प्रार्थनाएं और भजन की तरह आस्था और
आत्मा से जुड़ें हैं, वो उनके जीवित होने के संघर्ष की
दास्तां बताते हैं।”[३६] लेखिका नासिरा शर्मा ने अपने यात्रा वृत्त “जहां फव्वारे लहू रोतेहैं” में जिन देशों की यात्राओं का विवरण लिखा है वहां एक प्रकार की क्रांति का वातावरण रहा है तथा आम आदमी को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते देखा है। अत: लेखिका के इस यात्रावृत्त में गृह - युद्ध, तानाशाही, दो देशों की आपसी समस्याओं को ही केंद्र में रखा है फलस्वरूप लोक – संस्कृति का जिक्र कम ही जगह पर मिलता है। लेखिका ने ईरान, जापान, पेरिस, लंदन, नेपाल, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, इराक, फिलिस्तीन, कुर्दिस्तान आदि देशों की यात्रा की है। ईरान की संस्कृति के लिए लिखा है कि, [३७]“ईरान मुझे जर्दुश्ती एवम् इस्लाम संस्कृति का मिला – जुला देश लगने लगा था। आतशकदे ठंडे होने के बावजूद वहां पर कुरुश महान का महत्व था। उनके यहां ‘नौ रोज’ का जश्न ठीक होली की तरह मनाया जाता था। उनकी शबेरात हमारी दीवाली की तरह थी। धर्म में भी एक खुला दर्शन एवम् खुलापन था। तेहरान में और मशहद में दो पवित्र स्थानों पर जाने का मौका मिला। वहां की काशीकरी देखकर दंग रह गई। कला एवम् वास्तुशिल्प का संगम बड़ा ही लुभावना था।”[३७] लेखिका पाकिस्तान की जीवन पद्धति को देखकर लिखती हैं कि, [३८]“पाकिस्तान में उस जिन्दगी की झलक नजर आती है जो स्वतंत्रता संग्राम से पहले भारत में थी, जिसको हम सामंती व्यवस्था कह सकते हैं। भारत में चकबंदी, जमींदारी उन्मूलन, जमीन का सही बंटवारा और कई तरह के प्रगतिशील कदम ने भारत के समाज का पूरा ढांचा बदल दिया है; मगर पाकिस्तान में वह आज भी एक अलग तरह की बानगी के साथ मौजूद है।”[३८] जो भारतीय जीवन की पुरानी यादों को ताजा कर देता है। |
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निष्कर्ष | यात्रावृतांतों में संस्कृतियों का वर्णन आम बात है जैसा कि हमने उक्त वर्णन में देखा है। चूंकि, संस्कृति सामाजिक सरोकारों का प्रतीक है अत: महिला रचनाकारों ने इसे अधिक मार्मिक ढंग से यात्रावृतों में लिखा है। अधिकांश लेखिकाओं ने संस्कृति में सामंजस्य भाव को ढूंढने की कोशिश की है। किसी भी समाज को परखने से पहले उसकी संस्कृति का अध्ययन आवश्यक है। संस्कृति, समाज की आत्मा स्वरुप होती है। संस्कृति, सामाजिक मानवीय जीवन की सीमाओं को भी तय करती है अर्थात् संस्कृति मनुष्य का विकास भी करती है तथा अंकुश भी लगाए रखती है। यात्राएं, संस्कृति की संवाहक मानी जाती है। संस्कृति की व्यापकता का मूल कारण यात्राएं ही हैं। यात्रावृत्तांतों में संस्कृतियों के बखान के पीछे यही उद्देश्य छिपा है कि किसी भी संस्कृति की अच्छाई को अपना लेना चाहिए और कमी को सुधार कर लेना चाहिए। बेहतर जीवन पद्धति के लिए संस्कृतियों में समन्वय आवश्यक है। | ||||||
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | १. डॉ. किरण टंडन : भारतीय संस्कृति, पृ.स. १-२
२. वही : पृ.स. २
३. वही : पृ.स. २
४. वही : पृ.स. २
५. वही : पृ.स. ३
६. वही : पृ.स. ३
७. वही : पृ.स. ४
८. वही : पृ.स. ४
९. वही : पृ.स. ७
१०. डॉ. प्रीति प्रभा टंडन: भारतीय संस्कृति, पृ.स. २
११. कृष्णा सोबती: बुद्ध का कमंडल लद्दाख, पृ.स. १०६
१२. वही : पृ.स. १४४-१४६
१३. वही : पृ.स. १४७
१४. कुसुम खेमानी: कहानियां सुनाती यात्राएं, पृ.स. ६९-७०
१५. वही : पृ.स. ७३
१६. वही : पृ.स. ८२-८३
१७. वही : पृ.स. ८८
१८. वही : पृ.स. ९५
१९. वही : पृ.स. १०१
२०. वही : पृ.स. १३०
२१. वही : पृ.स. १५३
२२. वही : पृ.स. १५८-१५९
२३. शिवानी : यात्रिक, पृ.स. ६४-६५
२४. वही : पृ.स. ६५
२५. वही : पृ.स. ८१
२६. वही : पृ.स. ८१-८२
२७. वही : पृ.स. ९०
२८. वही : पृ.स. ८९
२९. मृदुला गर्ग : कुछ अटके कुछ भटके, पृ.स. ५९
३०. वही : पृ.स. ६२-६३
३१. वही : पृ.स. ७८-७९
३२. वही : पृ.स. १५७
३३. यशस्विनी पांडेय : य से यशस्विनी य से यात्रा, पृ.स.-१२
३४. वही : पृ.स. १२
३५. वही : पृ.स. १२
३६. वही : पृ.स. ३७
३७. नासिरा शर्मा : जहां फव्वारे लहू रोते हैं, पृ.स.–२३
३८. वही : पृ.स.-२९२
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