|
व्यक्तित्व विकास में कला व साहित्य की भूमिका |
Role of Art and Literature in Personality Development |
Paper Id :
16100 Submission Date :
2022-07-12 Acceptance Date :
2022-07-14 Publication Date :
2022-07-21
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.
For verification of this paper, please visit on
http://www.socialresearchfoundation.com/anthology.php#8
|
शिवानी वर्मा
शोधार्थी
चित्रकला विभाग
राजस्थान विश्वविद्यालय
जयपुर,राजस्थान, भारत
|
|
|
सारांश
|
कला सम्पूर्ण जीवन का साध्य मानी जाती है। केवल कला के लिए कला मान्यता भारतीय आदर्शो के अनुकूल नहीं है। कला किसी भी स्वरूप में हो वह समाज की आतंरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति अवश्य करती है। कला को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष कि प्राप्ति का साधन माना गया। कलाओं में यथा नाट्यकला जिसमे रंगमंच पर अभिनेता अभिनय के माध्यम से दर्शको में सौंदर्य की अनुभूति प्रेषित करता है। स्वयं के व्यक्तित्व का इस भाँति प्रदर्शन करता है की दर्शक का व्यक्तित्व भी इससे प्रभावित हो जाता है। नाट्यकला में भारतीय शास्त्रीय नृत्यों का स्थान सर्वोपरि रहा है। उदहारणस्वरूप शास्त्रीय नृत्य शैली कथकली जो १७ वीं शताब्दी के लगभग उत्पन्न हुई जो धार्मिक दृष्टिकोण का परिचायक रही है, इसे आध्यात्मिक विचार और शास्त्रीय सारांश की अभिव्यक्ति का रूप माना जाता है। कलाओं में काव्य, चित्र, मूर्ति, संगीत तथा अन्योन्य उपयोगी कला इत्यादि के द्वारा समाज में भिन्न - भिन्न व्यक्तिव का विकास होता है। जिसके ध्येय में कल्याणकारी समाज की निर्माण भावना होती है। कलाओं की भाँति साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य समाज के प्रत्येक वर्ग के रीति-रिवाज, समानता-असमानता, अच्छाई-बुराई, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व राजनितिक आदि सभी प्रकार की प्रमाणिकता हमारे समक्ष प्रकट करता है। जिसे पढकर समाज का एक व्यापक विकसित दृष्टि पथ प्रदर्शित होता है। इस प्रकार से साहित्य व कला स्वयं के क्षेत्र में व्यक्तित्व विकास में स्पष्ट - अस्पष्ट तरीके से योगदान देती है। साहित्य व कलाएं मानवसमाज की सामाजिकता को ही प्रतिबिम्बित करती है और मार्गदर्शन देने का कार्य करती है। दोनों ही सृजनात्मक व्यक्तित्व विकास व अभिव्यक्ति का प्रमाण प्रस्तुत करती है।
|
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद |
Art is considered the end of whole life. Art recognition just for the sake of art is not compatible with Indian ideals. Art is in any form, it definitely expresses the inner feelings of the society. Art was considered as the means of attainment of Dharma, Artha, Kama, Moksha. In the arts such as theatrical art, in which the actor on the stage transmits the feeling of beauty to the audience through acting. Demonstrates own personality in such a way that the personality of the viewer also gets affected by it. Indian classical dances have been paramount in the theatre. For example, the classical dance form Kathakali, which originated around the 17th century, which has been a symbol of religious outlook, is considered as an expression of spiritual thought and classical summary. In the arts, different personalities develop in the society through poetry, pictures, sculptures, music and other useful arts etc. The aim of which is the creation of a welfare society. Like the arts, literature is the mirror of society. Literature reveals all kinds of authenticity of every section of the society like customs, equality-equality, good-evil, social, religious, economic and political etc. By reading which a comprehensively developed vision of the society is displayed. In this way, literature and art contribute to the development of personality in their own field in a clear and unambiguous way. Literature and arts reflect the sociality of human society and serve as a guide. Both provide evidence of creative personality development and expression. |
मुख्य शब्द
|
कला व साहित्य, मह्त्वशीलता, चित्रकला, मूर्तिकला, काव्यकला , संगीतकला, नाट्यकला, अंतर्संबंध, व्यक्तित्व विकास । |
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद |
Art and Literature, Significance, Painting, Sculpture, Poetry, Music, Drama, Interrelationship, Personality Development. |
प्रस्तावना
|
कला को काल में नहीं बांधा जा सकता है। कला कालातीत होती है तथा प्रत्येक युग और समय से प्रभावित होती हुई, अतीत में अपनी छवि छोडती हुइ, निंरंतर अबाध गति से वर्तमान में विचरण करती रहती है। कला का इतिहास मानव के इतिहास के साथ - साथ परिलक्षित होता है। कला का स्वरूप स्वयं में इतना व्यापक है की उसे शब्दों में तो बांधा जा सकता है परंतु उसकी आंतरिक अनुभूतियों और भावनाओं की व्याख्या करना सरल नहीं है। शिव स्वरूप विमर्शिणी में कहा गया है:-
विश्रान्तर्यस्याः सम्भोगे सा कला न कला मता।
लीयते परमानंदे ययात्मा सा परा कला ।।[1]
इसी भांति विष्णुधर्मोत्तर पुराण के चित्रसूत्र में भी कला को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष का माध्यम माना है तथा घर में चित्र जैसी कला को मंगलमय का प्रतीक माना है। कला के रूप भले ही अनेक हो परन्तु अंतिम उद्देश्य रसिक और दर्शको को अनुभूति प्रदान करना ही है। कलाओं का परिचय हमें अनेकों भारतीय प्राचीन ग्रथो में मिल जाता है।
उदाहरण के लिए वात्स्यायन के कामसूत्र में ६४ कलाएं, प्रबंध कोष में ७२ कलाएं, ललित विस्तार में ८६ कलाएं तथा शुक्रनीति में ६४ का उल्लेख किया गया है। कलाओं में प्रमुखता के आधार पर दो वर्ग कर दिए गये जिनमें ललित कला और उपयोगी कलाओं को स्थान मिला एवं इसमें आतंरिक अनुभूति के कारण ललित कलाओं को अन्य कलाओं से सम्मानजनक स्थान मिलता रहा है।[2]
कवि, संगीतज्ञ, चित्रकार, नृत्यकतार्, नाटककार, मूर्तिकार व स्थापत्यकार सभी अपने रचनाधर्मिता के गुण से काव्य, संगीत, चित्र, मूर्ति, वास्तु एवं नृत्य जैसी दृश्य और प्रदर्शनकारी कलाओं को जन्म देते है। कलाओं की तरह ही साहित्य भी रचानात्मकता, सृजनात्मकता से समाज का दर्पण बनकर मानवीय मूल्यों को संजोने का काम निरंतर करता रहता है। साहित्य की भी अनेक विधाएं रही है। साहित्य हमेशा समाज को सही दिशा देता है। कबीर, तुलसीदास व सूरदास जिन्होंने समानता, छुआ - छुत, धार्मिक पाखंडता के विरोध का साहित्य के माध्यम से प्रचार प्रसार किया। आगे देखने पर स्वतंत्रता संग्राम की अलख भी साहित्य का ही प्रतिफल है। साहित्य, सत्य को प्रकट करता है। कुछ भी लिख देना मात्र साहित्य की श्रेणी में नही आता। जब तक इसके पीछे कोई प्रयोजन नहीं है। वह साहित्य का अंग नही माना जा सकता है। साहित्य की अनेको परिभाषाएं दी जाती है। जिनमें प्रेमचंद के अनुसार “साहित्य जीवन की आलोचना है”। भले ही उसका रूप कैसा भी हो हमारे जीवन को आलोचनात्मक दृष्टि देता है। साहित्य कला के जैसे काल का दर्पण समान प्रतिबिम्ब है। जो तथ्य मनुष्य को प्रभावित करते है। वही तथ्य साहित्य को भी प्रभावित करते है। साहित्य में रसिकता की प्रवृति में बदलाव आता रहता है। कहीं साहित्य सौंदर्य भावना तो कहीं जीवन को कठिनाइयों से उभारने का काम करता है। आधुनिक और समकालीन लेखकों की साहित्य के जरिये विकास की भूमिका जो रही उससे हम सब भली - भांति परिचित है तथा ध्यानपूर्वक विश्लेषण करे तो कलाएं और साहित्य दोनों ही मानवीय इतिहास के उद्गाता है। जिसमें कल्याण और संघर्षमय विकासशीलता का वर्णन दृष्टिगत होता है।
|
अध्ययन का उद्देश्य
|
प्रस्तुत लेख का उद्देश्य साहित्व व कला के महत्व का अवलोकन प्रदर्शन करना रहा है। साहित्य और कलाएं दोनों ही मानव समाज के व्यक्तित्व निर्माण में अहम मार्गदर्शक ही भूमिका अदा करते आये है। अतः इनके प्रति सजग और उन्नति के प्रयास करना होगा ताकि कला और साहित्य के माध्यम से समाज में विकसित व्यक्तित्व का निर्माण निरन्तर होता रहे। |
साहित्यावलोकन
|
गैरोला, वाचस्पति. भारतीय
चित्रकला, इलाहाबादः मित्र प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, १९६३ पुस्तक में लेखक ने कला सौन्दर्यबोध, चित्र प्रविधि, कला का इतिहास, जिसमें प्राचीनकाल से लेकर समसामयिक कला पर आधारित कला सामग्री को इसमें
समाहित किया गया है। लेखक ने संग्रहालय में सुरक्षित कला निधि का भी उल्लेख किया
है। सम्पूर्ण भारतीय चित्रकला के इतिहास का विवेचन पुस्तक अंतर्गत किया गया है।
कला के ग्रन्थों के साहित्य में उपलब्ध सामग्री, वास्तविक
चित्रों की सामग्री दोनों प्रकार का वर्णन यहां वर्णित हैं। भारतीय चित्रकला के
इतिहास की दृष्टि से यह पुस्तक सांगोपांग वर्णन प्रस्तुत करती है। मागो, प्राणनाथ. भारत की
समकालीन कला, भारतः राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, २०२१ प्रस्तुत पुस्तक के अंतर्गत कला का सार कला में समकालीन व
आधुनिक प्रभावशीलता, कला की भारतीय पृष्ठभूमि, भारतीय कला के क्षेत्र में आरम्भिक युगान्कारी घटनाएं, भारत में स्वतंत्रता से पूर्व कला की प्रवृतियां का वर्णन किया गया गया है
। लेखक ने बंगाल शैली से लेकर विविध कला समूह तथा भारत के महत्वपूर्ण कलाकार के
साथ ही वर्तमान युग की कला के सन्दर्भ में उल्लेख किया गया है। पुस्तक में सबसे
महत्वपूर्ण प्रकाश कला के उस इतिहास की जानकारी देना रहा है, जिसके कारण भारत में समकालीन व आधुनिक कला के प्रति सजगता उत्पन्न हुई। चतुर्वेदी, ममता. सौंदर्यशास्त्र, जयपुरः राजस्थान हिंदी
ग्रन्थ अकादमी, २०१७ यह पुस्तक का १३ वां संस्करण है। पुस्तक में लेखिका ने
सौंदर्यशास्त्र के इतिहास का अत्यंत ही रोचक वर्णन प्रस्तुत किया । पुस्तक में दो
खंडो के माध्यम से क्रमशः पाश्चात्य सौंदर्यशास्त्र और भारतीय सौंदर्यशास्त्र की ऐतिहासिक गाथा की जानकारी दी है। भारतीय कला व सौंदर्यशास्त्र का गहरा संबध रहा है
और यह पुस्तक कला रसिको हेतु सौंदर्यशास्त्र के दृष्टिकोण को हमारे समक्ष निरुपित
करती है । प्रेमचंद. साहित्य का उद्देश्य, इलाहाबादः शिवरानी प्रेमचंद, १९५४ इस
पुस्तक में प्रेमचंद ने साहित्य के महत्व का अंकन किया है। समाज में साहित्य की
भूमिका का वर्णन अंतरतम की गहराइयों की साथ बहुत ही सफलतापूर्वक किया गया है।
पुस्तक में साहित्य की विभिन्न रचनात्मक विधाओं का विस्तृत माध्यम से स्पष्ट
उल्लेख समाहित है। साहित्य के उद्देश्य और महत्त्व को जानने हेतु पुस्तक अत्यंत ही
लाभदायक है।
|
मुख्य पाठ
|
कला व साहित्य की मह्त्वशीलता कलाओं में व्यापकता विद्यमान है। ये कलाएं जीवन के प्रत्येक
क्षेत्र में बिखरी है। घरों, मंदिरों, प्रासादों, वेशभूषाओं, अलंकरणों, दैनिक जीवन में तथा सार्वजानिक समारोह, उत्सव
ये कलाएं अपने वास्तविक रूप में प्रकट होती है। कलाओं को देखने ओर समझने के लिए
जरुरत एक दृष्टि की रही है जो भावनाओं को महसूस करती हो। भारतीय कला की विशेषता
रही है कि वह मूक भावनाओं का जरिया बनकर, धार्मिकता में
रंगकर, आधुनिक सामाजिक झलक को दिखाती हुई, वर्तमान में उत्कृष्ट स्वरूप से समाज के समक्ष व्यक्तिव का निर्माण कर रही
है। कला मानव मन की आंतरिक अमूर्त भावनाओं को मूर्त रूप में व्यक्त करने का माध्यम
रही है। कला की प्राचीनता ने यह सिद्ध कर दिया कि मनुष्य का जीवन कला से कितना
प्रभावित रहा है। कला ने हमेशा मानव को आनंद, सौंदर्यता, स्वतंत्र अभिव्यक्ति दी है। प्रागैतिहासिक काल में कला मनुष्य की वाणीं
बनीं। उसके पश्चात सभ्यता का विकास हुआ और चित्र, मूर्ति, वास्तु आदि विभिन्न स्वरूप धारण कर जन-जन को प्रभावित करने लगे। ऐतिहासिक
काल में कला को साहित्य रचनाओं में स्थान मिला और भित्ति चित्रो की समृद्ध परंपरा
ने चित्रकला को नए आयाम दिये। मध्यकाल तक आते-आते कला वैयक्तिक विशेषताओं का रूप
लेने लगी व कला की शैलियां बनने लगी। जिसने उत्तरोत्तर कला के हेतु पथ प्रदर्शक का
कार्य किया। पुरालेखीय स्रोत सामग्री के आधार पर कला इतिहास को तीन कालों में
विभाजित करते है। प्रागैतिहासिक काल, आघ ऐतिहासिक काल, ऐतिहासिक काल जिसमें
प्रागैतिहासिक काल से पुरातात्विक स्रोतो का मिलना प्रारम्भ हो जाता है। भारतीय
प्रागैतिहासिक चित्रकला की खोज का श्रेय आर्चिवाल्ड कार्लाइल व जॉन कॉकबर्न को
दिया जाता है।[3] जिसके फलस्वरूप चित्रकला का गौरवमय
इतिहास हमारे समक्ष है। भारतीय चित्रकला के आरंभ का यह काल, भाषा के अविकसित रूप की अवस्था जंहाँ मनुष्य अपने भावों व विचारों को
शब्दो में व्यक्त नही कर सका तब उसने चित्रकला को माध्यम के रूप में चुना और इस
चित्रण में उसने अपने दैनदिन जीवन सम्बन्धी घटनाओं को गुफाओं की शिलाओं पर उकेरा। आघ
ऐतिहासिक कालीन सिंधु सभ्यता प्रचुर मात्रा में कला के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। मृत पात्रों की सभ्यता रही सिंधु
सभ्यता के संबंध में भारतीय पुरातत्व विभाग के तत्कालीन निर्देशक सर जॉन मार्शल ने 1924 ई. में सिंधु सभ्यता की एक नई सभ्यता के रूप में घोषणा की। इससे पूर्व
चार्ल्स मेंसन 1826 ई. में इस सभ्यता की जानकारी
दी।[4] सभ्यता की शुरुआत का यह काल जब मानव ने सभ्यता के पथ पर कदम
रखा तथा लेखन का आविष्कार कर भाषा को जन्म दिया। तथापि इस युग की लिपि को अभी तक
पढा नही जा सका है। पर इतिहास के सुनहरे पन्नों पर मानव सभ्यता युग की जानकारी यही
से मिलना प्रारम्भ होती है। चित्रकला में ऐतिहासिक साक्ष्य के प्रमाण शास्त्रीय युग 300 ई. - 800 ई. से मिलना प्रारंभ होते हैं।
चित्रकला संबंधित स्वर्णिम काल का यह दौर है। कला से संबंधित ग्रंथों की रचना भी
इस दौर में होती रही है। जिनमें ललित विस्तार, कामसूत्र, मानसार, पुराणों में विष्णुधर्मोत्तर पुराण का
चित्रसूत्र, चित्रलक्षण, पाणिनि
का अष्टाध्यायी जिसमें कला के लिए चारु व कारू जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ।[5] इस अवधि के समस्त ग्रंथ कला में
सौंदर्यता का बखान करते प्रतीत होते हैं। शास्त्रीय युग में चित्रकला के दर्शन
हमें भित्ति चित्रों के रूप में प्राप्त होते हैं। इनमें जोगीमारा, एलोरा, एलिफेंटा, उदयगिरि, खंडगिरि, सिगिरिया गुफाएं हैं जो वास्तु व
मूर्तिकला से संबंध रखती हैं व भित्ति चित्रण की शुरुआत जोगीमारा गुफा भित्ति
चित्र परंपरा से मानी जाती है। उसके बाद अन्य गुफाओं में चित्रण प्रारंभ हुआ।
सैकड़ों वर्षो तक अज्ञात बनी रही अजंता की कला इतिहास की अनुपम धारा है। साहित्य की
महत्वशीलता का पता हम इस बात से लगा सकते है की संस्कृति को चिर-परिचित रखने में
तथा विरासत को समय के पन्नों पर लिख कर साहित्य समाज को हमेशा सही मार्गदर्शन देता
आया है। साहित्य ने सत्य, अहिंसा कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी, मानवीयता, सामाजिकता जैसी सभ्यता और संस्कृति की रचना करके बर्बरता को नष्ट किया है
तथा वर्तमान में भी जनमानस को साहित्य मूल्यों का ज्ञान करने का सफल प्रयास कर रहा
है। ज्ञान से लेकर आमोद-प्रमोद तक कुरीतियों से लेकर संस्कार तक, बर्बरता से लेकर सभ्यता तक, चेतन से अचेतन की
गहराइयों तक, कल्पनाओं से लेकर वास्तविकता तक, साहित्य विभिन्न भाषाओं में होकर भी सामान ध्येय जो मानव समाज की व्यक्तिव
विकास की अविरल धारा है उसे प्रवाहमान बनाए हुए है। साहित्य भी समाज को आंतरिक और
बाहरी दोनो रूपों में प्रभावित करता है। साहित्य सभी विषयात्मक समाग्रियों के अथाह
संसार को शब्दों के जरिये सरलीकरण करके मानवीय अन्तर्द्वन्द को सुलझाने का प्रयास
भली-भाँति करता है। कला हो या विज्ञान हर क्षेत्र को साहित्य ने अपनी परिभाषा दी
है और इस बात का परिचय हम लगा सकते है की दैनिक जीवन में हम कहाँ तक साहित्य के
अनेक विधाओं का अध्ययन - अध्यापन करते है। अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने हेतु
साहित्य आनंद का प्रदाता होने के साथ - साथ प्रयोजन उद्देश्य भी लेकर चलता है और
इसका मूल प्रयोजन सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे सन्तु निरमया की भावना रहा है। साहित्य
समीक्षा दर्शाता है। प्रशंसा तथा आलोचना करके कल्याणकारी संदर्भो को समाज के सामने
प्रकट करता है। कला व साहित्य अंतर्संबंध कला व साहित्य में समानता है। कला व साहित्य में निहित
विभिन्न सृजनात्मक प्रक्रिया को किसी भी दायरे में नही बाँधा जा सकता है। परन्तु
कला व साहित्य जिस समय परिप्रेक्ष से प्रभावित रहते है, उसी के आधार पर उन्हें अनेकों विधाओं में विभाजित कर दिया जाता है। विद्यानिवास मिश्र के मतानुसार “साहित्य कला में समाहित नहीं है। वह तो संयोजक की भांति है। भारतीय कला
आख्यानों का दृश्यीकरण है। भारतीय जीवन शैली में साहित्य कला संनिविष्ट है। उनकी
जगत में कोई अलग स्थिति नहीं है। इसलिए कला के लिए कला अथवा कला जीवन के लिए ऐसी
परिभाषाओं के मोल का प्रश्न करना समय व्यर्थ करना है। कला और साहित्य इस जगत के उसी
प्रकार से अवर्गीकृत हिस्सा है। जिस प्रकार से रक्त, श्वास, शरीर का है। शरीर के सभी अंग एक - दूसरे की शोभा को बढ़ाते है उसी तरह कला
और साहित्य के स्वरूप भी एक - दूसरे को शोभायमान करते रहते है।”[6] साहित्य और कलाए एक-दूसरे से अंर्तसम्बन्ध रखती है। साहित्य से
कलाओं के निर्माण में सहायता मिलती है तो एक कला पूरा साहित्य का बखान करने की
क्षमता रखती है। साहित्य को सुनकर मन में अनगिनत रूपों की छवि उभरने लगती है।
साहित्य को पढ़़कर कला में विषय चयन का मार्ग प्रशस्त होता है। एक नाटक के रंगमंच
पर अभिनीत होने से पूर्व उसे शब्दों में रचा जाता है जो साहित्य का ही भाग होता
है। साहित्य शब्दों के बिना रचा नहीं जा सकता और संगीत काव्य जैसी कलाएं भी शब्दों
की मोहताज होती है। चित्र एक मूक काव्य है तो संगीत और काव्य सुनकर प़ढ़कर कलात्मक
कल्पना का निर्माण होता है। साहित्य और कला दोनों में ही अभिव्यंजना की जाती है।
जिसमें रचनाकार अपनी अहं भावना, आत्मिक वृति परम्परागत नियमों का
विरोध जैसी भावनाओं का प्रदर्शन करता है एवं जनमानस के व्यक्तिव को प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष तरीके से प्रभावित अवश्य करता है। साहित्य और अन्य कलाओं के अंतःसम्बन्ध की सार्थकता किसी एक
कला कृति को दूसरी विधाओं में स्पष्ट कर देने पर ही निर्भर नही करती है। प्रत्येक
कला स्वयं में सत्य की अनुभूत्यात्मक अन्वेषण है। जिससे वह अपना विशिष्ट सत्य
बरामद करती है। उसके अपने माध्यम और प्रक्रिया का महत्व इस बात की वह किसी अन्य
कलाकृति को भी एक स्त्रोत सामग्री के रूप में इस्तेमाल करती हुई अपने ऐसे विशिष्ट
सत्य तक पहुँचती है। जिसकी अनुभूति केवल उसी के माध्यम में ही संभव है। यदि कोई
कलाकार किसी अन्य माध्यम की कलाकृति को अपने माध्यम में अंतरित करना चाहता है तो
उसके पीछे उसकी प्रेरणा एक कलाकृति में अन्तर्निहित सत्य के एक और रूप और माध्यम
की अनुभूति संभव कराना है जो माध्यम के बदलने से ही संभव हो पाती है। इसीलिए उसका
माध्यम केवल सम्प्रेषण या खोज तक नहीं रह जाता। क्रोचे के कथनानुसार विभिन्न
अभिव्यंजना की अवधारणा से कला माध्यम अपनी सार्थकता ले पाते है।[7] इस प्रकार कलाकृति के माध्यम सम्प्रेषण की प्रदर्शनी मात्र
न होकर एक विशेष सौंदर्यात्मक अनुभूति अनुभव करते है। साहित्य को ही हम कला
विषयों का भण्डार नहीं मान सकते है। कुछ कलाएं भी साहित्यिक रचनाओं की सर्जन
क्षमता को प्रभावित करती है। रसानुभूति साहित्य और कला दोनों में ही निहित है। रस
को ही काव्य की श्रेष्ठता की आधारशिला कहा जाता है और कलाओं में यही रसानुभूति विद्यमान है। जनजातीय कला की आत्मा के रूप में रस को ग्रहण किया जा सकता है। रस ही
इन्हें दीर्घकालीन यात्रा प्रदान करता है। दृष्टिपात करे तो स्पष्ट होगा की
रसात्मकता साहित्य और कला का महत्वपूर्ण भाग है। इसे के कारण हमारा सम्बन्ध
रचनात्मक विधाओं से बना रहता है। कला व साहित्य में व्यक्तित्व विकास भूमिका मानव समाज में वैयक्तिक जीवन व्यतीत करने के बावजूद समूह का
भागीदार रहता है और वह दैनिक जीवन में किसी न किसी तरह से एक दूसरे का सहयोग जरूर
देता है। कवि रवीन्द्रनाथ कहते है की कला में मनुष्य अपने भावों की
अभिव्यक्ति करता है तो प्लेटो का कहना है की कला सत्य की अनुकृति है। कलाएं हो या
साहित्य मनुष्य की आत्मा को तृप्त जरुर करती है। अनुभूतियों का सम्प्रेषण साहित्य
और कला मे समान भाव से होता है। साहित्य में देखने पर नाटक विधा शब्दों का ताल -
मेल, नृत्य, गीत
- संगीत व चित्रण सब एक समय में एक साथ हो जाता है और इनका दर्शक के व्यक्तित्व से
सम्प्रेषण होता है। कलाएं और साहित्य कभी भी मानवता को पतन की ओर नहीं लेकर जाते है। इनका काम मनुष्य के हृदय का रंजन करना है। मानव
सभ्यता का विकास ही कला और संस्कृति के साथ हुआ है और सर्वप्रथम मनुष्य ने भावनाओं
की अभिव्यक्ति हेतु कला को चुना। जिसका उदाहरण हम आदिम कला में चित्रित गुफाओं में
बने चित्रों में देख सकते है। उसके बाद जैसे - जैसे भाषा का विकास होता गया। कला
के साथ साहित्य रचित होने लगा और इस प्रकार मानव अपने व्यक्तित्व की अभिव्यंजना
करने लगा। वर्तमान में लोक कलाकार है जो परम्परों को संजोये हुई है। यथा भूरी बाई
आदिवासी महिला कालाकार है जो कि मध्य प्रदेश की पिथोरा शैली में प्रशंसनीय कार्य
कर रही है और दूसरो के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बन गयी है। साहित्य का उद्देश्य समाज की तीव्रता की अनुभूतियों को बढ़ाना होता है। समाज में मानव का जीवन केवल स्त्री - पुरुष का जीवन नहीं है। वह
साहित्य जो मात्र श्रृंगारिक विषयों तक सीमित हो जिसमें जीवन की कठिनायिओं से दूर
रहने में ही भलाई समझता हो वह साहित्य कहने का हकदार नहीं है। श्रृंगारिक जीवन का
एक हिस्सा मात्र है और जो साहित्य श्रृंगारिक को महत्व सर्वाधिक देता है वह गर्व
की वस्तु नहीं माना जा सकता है।[8] हमारे समाज की साहित्यिक अभिरुचियाँ दिन - प्रतिदिन
परिवर्तित होती रहती है। अब वह केवल मनोरंजन की सामग्री न होकर वर्तमान की
समस्याओं को उजागर कर उन्हें दूर करने का सन्देश प्रसारित कर रहा है। साहित्य और
कला में जीवन की आधारशिला छिपी रहती है। हम मानव समाज निरंतर आनंद की खोज में लगे
रहते है और इसी आनंद को दिखाना साहित्य और कला में अंतर्निहित होता है। साहित्य
में नव रस होते है। कला में भी नव रसों की अभिव्यक्ति होती है। सत्य से आत्मा का तीन प्रकार से जुड़ाव रहता है। प्रथम
जिज्ञासा दूसरा प्रयोजन तथा तीसरा आनंद। परन्तु जिज्ञासा का सम्बन्ध दर्शन का विषय
हो जाता है। प्रयोजन का सम्बन्ध विज्ञान का विषय है। साहित्य का विषय आनंद का है।[9] सत्य जो आनंद का स्त्रोत बन जाए वो साहित्य हो जाता है और
कला में भी हमें यही समानता देखने को मिलती है। इसलिए इनके सन्दर्भ में सत्यम्
शिवम् सुन्दरम् की कहावत प्रचलित है की साहित्य और कलाएं दोनों को सत्यम् शिवम्
सुन्दरम् की अभिव्यक्ति कहा जाता है। कला की ही भांति साहित्य का सम्बन्ध भावों से
है और भावों के लिए जैसे कलाओं में चित्रकला, नृत्य कला, मूर्तिकला, संगीतकला होती है। उसी प्रकार
साहित्य में होते है उपन्यास, कविताएं, कहानियां, गद्द - पद्द, काव्य। आलोचक कहते है की साहित्य में काल्पनिकता होते हुए भी वह सत्य का
आभास कराती है। साहित्य की विधाओं में मानव चरित पर प्रकाश और उसके रहस्यों का
उद्घाटन होता है। जिससे व्यक्तित्व की अवधारणाओं का विकास होता है। सम्पूर्ण भारत
कलाओं का आश्रयदाता रहा है। हमारे देश के किसी न किसी हिस्से में कला के अन्योन्य
रंग रूप देखने को मिल जायेंगे और सभी कलाएं व्यक्तित्व विकास में भूमिका निभा रही
है। कला और साहित्य दोनों को सम्मान मिलता रहा है प्राचीन में विभिन्न राजवंश मौर्य, गुप्त, शुंग, कुषाण, मध्यकाल में आते है तो मुगल, राजपूत, सल्तनत ने साहित्य और कलाओं को आश्रय
और महत्व दिया। आधुनिकता में जब हम प्रवेश करते है जहाँ बाहर से आये विद्वान
जिनमें अंग्रेज अधिकारियों का ध्यान हमारी कला और संस्कृति की और गया तथा उन्होंने
इसकी महत्ता का बखान पूरे विश्व के समक्ष किया और उसके पश्चात भारत में कला
संस्थान और अकादमियों की स्थापनाएं होने लगी। उदहारण हेतु साहित्य अकादमी की स्थापना १२ मार्च १९५४, भारत सरकार संगीत नाटक अकादमी की स्थापना १९५३ में तथा मद्रास, बम्बई, कोलकाता, लाहौर
में कला विद्यालयों की स्थापना ने कलाओं और साहित्य का अध्ययन अध्यापन प्रारम्भ
किया।10 इन सब संस्थाओं के उद्घाटन से भारतीय संस्कृति और सभ्यता का
गौरव हमारे प्रत्यक्ष प्रकट हुआ और लोगो की रुचियां इनमें बढ़ने लगी। इसके पश्चात
भी कई संस्थान स्थापित हुए। जैसे कला भवन वाराणसी, भारत भवन भोपाल इत्यादि
स्थापित हुए। जिनसे कला और साहित्य दोनों महत्ता बढ़ने लगी। इस तथ्य से इनकार नहीं
किया जा सकता की एक कला के परिमार्जित रूप के पीछे अन्य कला का प्रभाव होता है।
साहित्य और कलाएं समान आदर के पात्र है और व्यक्तित्व विकास में अहम् भूमिका
निभाते रहे है।
|
निष्कर्ष
|
कला और साहित्य दोनों ही नेतिक और भौतिक दृष्टि से सुधारात्मक मार्ग का अनुसरण समाज को प्रदान करते है। समाज के प्रत्येक पक्ष पर अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से एक कलाकार और साहित्यकार समाज को ही सही और गलत के भेद का ज्ञान करवाता है तथा उन्हें व्यक्तित्व निर्माण में सहयोग भी देता है। राजनीतिक सामाजिक आर्थिक हो या धार्मिक वर्तमान आधुनिक समय में साहित्य और कलाएं अन्योन्य भूमिका का निर्वाह कर रही है। सरकार को समाज को कला और साहित्य के उत्थान की और हमेशा अग्रसर रहना चाहिए तथा इनके निर्माण व संरक्षण में पूर्ण योगदान देने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि साहित्य और कलाएं हमारी संस्कृति और सभ्यता का द्दोतक है। कला और साहित्य समाज के प्रत्येक व्यक्तिव पर विभिन्न प्रभाव छोड़ते हुए निरंतर हमे मार्गदर्शन देती रहती है। अतः हमे इनके महत्व की सराहना व संरक्षण को बनाए रखने का अक्षुण प्रयास करते रहना चाहिए। |
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
|
1. Agrwaal, G. K. (1989-90). Kala Or Kalam. Aligad Uttarpradesh: Ashok Prakashan Mandir.2
2. Geirola, V. (1963). Bhartiya Chitrakala. Ilaahbad: Mitra Prakashan Privat Limited.42-43
3. Gupt, J. (1960). Pragaitihasik Bhartiya Chitrkala. Delhi: National Publishing House.28-56
4. Joshi, C. (1995). Yug Yugeen Bhartiya Kala. Jodhpur: Rajasthani Granthagaar.23
5. Chaturvedi, M. (2017). Sondryashaastra. Jaipur: Rajasthan Hindi Granth Akadmi.208
6. Bachchan, M. K. (2018). Lokgatha Lokgeet Ka Chitralekhan. Aakriti , 60.
7. Aachary, N. (2018). Sahity Evam Anya Kalaon Ke Antsambandh. Aakriti, 14.
8. Premchand. (1954). Sahity Ka Uddeahy. Ilaahba: Shivraani Premchand.3
9. Premchand. (1954). Sahity Ka Uddeahy. Ilaahba: Shivraani Premchand.3
10. Maango, P. (2021). Bharat Ka Samkalin Kala Ka Pariprekshya. Delhi: Rashtriya Pustak Nyaas Bharat.45-58 |