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भारत में बौद्ध कला की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि | |||||||
Historical Background of Buddhist Art in India | |||||||
Paper Id :
16162 Submission Date :
2022-06-06 Acceptance Date :
2022-06-17 Publication Date :
2022-06-25
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सारांश |
बौद्ध धर्म से ही बौद्ध कला का जन्म हुआ। यह हम सभी जानते हैं। शोधार्थी द्वारा लिखे गए लेख के अनुसार बौद्ध धर्म से तीनों कलाओं ने प्रगाढ़ता हासिल की है। चित्रकला में अजंता का काल (गुप्त काल) स्वर्ण काल कहा जाता है स्थापत्य में मौर्य काल मूर्ति कला में कुषाण काल (गांधार शैली) प्रमुख है। गांधार शैली की मूर्तियां विश्व में सबसे सुंदर कहीं जाती है लेख के अनुसार मध्य काल से लेकर आज तक हम बौद्ध कला का अनुसरण कर रहे हैं। यह सर्व विदित है कि बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार में बौद्ध कलाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है जिसमें चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्य कला, सभी की अपनी-अपनी भूमिका रही है। स्थापत्य में अशोक का काल स्वर्ण काल कहा जाता है। पोथी कला में पाल शैली उत्तम रही है। इसमें दो राजा महत्वपूर्ण है राजा महेंद्र पाल और धर्मपाल इन सभी राजाओं ने अपने-अपने तरीके से भगवान गौतम बुद्ध के प्रति अपनी सच्ची श्रद्धा का प्रदर्शन किया।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Buddhist art was born out of Buddhism. We all know this. According to the article written by the researcher, all the three arts have gained intensity from Buddhism. In painting, the period of Ajanta (Gupta period) is called golden period. The Gandhara style sculptures are the most beautiful in the world, according to the article, we are following Buddhist art from the medieval period till today. It is well known that Buddhist arts have contributed significantly in the spread of Buddhism, in which painting, sculpture, architecture, all have their own role. Ashoka's period in architecture is called the Golden Age. The Pala style has been excellent in Pothi art. Two kings are important in this, Raja Mahendra Pal and Dharmapala, all these kings in their own way demonstrated their true devotion to Lord Gautam Buddha. | ||||||
मुख्य शब्द | भगवान गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म एवं बौद्ध कला, मूर्तिकला, स्थापत्य कला, विभिन्न राजवंश, स्तूप। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Lord Gautam Buddha Buddhism, Buddhist Art, Sculpture, Architecture, Various Dynasties, Stupas. | ||||||
प्रस्तावना |
अपने देश में बौद्ध धर्म का उदय ईसा पूर्व 6वीं शती में हुआ था और तभी से यह हमारे भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत का एक न अलग होने वाला अंग बन गया है। हजारों वर्षों से पूरे भारत में हिंदू और बौद्ध विचार धाराओं का चमत्कारिक मिलन होता आया है और भारत के आर्थिक विकास व सांस्कृतिक प्रभुत्व में बौद्धों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। बौद्ध धर्म ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी से 8 वीं शताब्दी तक भारत में रहा। परंतु देशी- विदेशी धर्मों के खून खराबे हिंसक शक्तियों से लड़ते हुए बौद्ध धर्म भारत में 12वीं शताब्दी तक रहा और हिमालयी क्षेत्रों व प्रदेशों के बाद अन्य राज्यों में नहीं के बराबर हो गया। बीसवीं शताब्दी के मध्य सन 1956 में आधुनिक भारत के निर्माता और महामानव डॉक्टर भीमराव आंबेडकर द्वारा अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाकर बौद्ध धर्म को भारत में पुनर्जीवित किया। डॉक्टर भीमराव आंबेडकर जी के प्रभाव से एक सर्वेक्षण के अनुसार सन 1959 तक देश के करीब 2 करोड़ लोगों ने बौद्ध धर्म अपनाया था। बौद्ध धर्म के अनुसार धम्म जीवन की पवित्रता बनाए रखना व तथ्य ज्ञान को पूर्ण प्राप्त करना है। निर्वाण प्राप्त करना, तृष्णा का त्याग करना है। इसके बाद भी भगवान बुद्ध ने सभी संस्कारों को अनित्य बताया है भगवान बुद्ध के अनुसार धम्म यानी धर्म वही है जो सबके लिए ज्ञान के द्वार खोल दें और उन्होंने बताया कि केवल विद्वान होना ही काफी नहीं है। प्रकांड विद्वान वही है जो अपने ज्ञान की रोशनी से सभी को रोशन कर दें। इस पावन धर्म के अतिरिक्त इस धर्म से बौद्ध कला का उदय हुआ और भारत में बौद्ध कला की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तैयार हुई जिसके अनुसार स्थापत्य यानी कि भवन निर्माण कला चित्रकला मूर्तिकला विशेष रूप से वर्णित है। बौद्ध मूर्तिकला मुख्य तौर पर धर्म से संबंधित स्थापत्य हैं। चैत्य स्तूप व बिहार बौद्ध कला की ही देन है हम सबको। अमरावती, सांची, भरहुत, सारनाथ व कुशीनगर के अति प्राचीन स्तूप प्रसिद्ध है। नए स्तूपों मे धौली (उड़ीसा) वैशाली (बिहार) राजग्रह (बिहार) विश्व शांति के प्रतीक स्तूपों का निर्माण हुआ वहीं जापान के प्रसिद्ध बौद्ध प्रचारक फ्यूज़ी गुरु जी ने साधक बौद्ध भारत को सौंपे। 19 फरवरी 2004 को महा बोधि बोध गया, बिहार को वर्ल्ड हेरिटेज सूची में सम्मिलित किया गया। इसका अर्थ है कि अब यह विहार संसार के बौद्ध अनुयायियों की संपत्ति बन गया। अगर चैत्यो की बात की जाए तो कार्ल भाँजा चैत्य विश्व में प्रसिद्ध है। एलोरा पर्वत को काटकर जो तीन तीन मंजिले बनाए गए चैत्य हैं। उन गुफा मंदिरों को देखने के लिए दुनिया के कोने कोने से बौद्ध पर्यटक आते हैं। श्रावस्ती, कुशीनगर, वैशाली, सारनाथ, नालंदा आदि के उत्खनन में महा विहारों के अवशेष मिलते हैं। हम सभी जानते हैं कि पहाड़ों में कुएं नहीं होते हैं इसीलिए बरसात के पानी को ही इकठ्ठा व शुद्ध करके पूरे साल इसे ही पिया जाता था। पानी को एकत्रित करने के लिए पहाड़ों को काट छांट कर गहराई लिए हुए एक हौज बनाया जाता था और उसमें बरसात का पानी इकट्ठा किया जाता था। ऊपर से इसे एक गोल पत्थर से ढका जाता था जिससे कि इसमें कोई गंदगी या कूड़ा करकट ना गिरे और साल भर यह पानी पीने के लिए सुरक्षित रहें और यहां पर पानी पीने की, नहाने धोने की व हाथ पैर धोने की व्यवस्था अलग-अलग होती थी। चित्रकला के रूप में हमारे पास अजंता की गुफाएं हैं। यहां की चित्रकला एशिया से लेकर यूरोपीय देशों तक पहुंची जहां पर तुन्हवांग हमारी अजंता शैली से प्रभावित है। कई भाषाओं में लिखित व रचित बौद्ध साहित्य व आयुर्वेद के प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथ मिले हैं यह सब नालंदा विश्वविद्यालय की देन है और बौद्ध सम्पतियाँ भी है।
रूस और चीन की सीमा रेखा के नजदीक तुन्हवांग नाम की एक रमणीक मनोहारी पहाड़ी थी वहां पर भिक्षुको ने अजंता जैसी चित्रकला और भारत के नालंदा जैसा एक विश्वविद्यालय बनाया था। खुदाई में यहां से कपड़े पर हस्तलिखित बौद्ध शास्त्र और आयुर्वेद के कई ग्रंथ अधिक मात्रा में मिले हैं।
यह पांडुलिपियाँ कई भाषाओं में लिखी गई है। जिनके ऊपर कई देशों के विद्वान खोज करने में लगे हुए हैं। भारत में बौद्ध कला की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के रूप में लुम्बनी (बुद्ध जन्मभूमि), बोधगया (ज्ञान प्राप्ति), सारनाथ (प्रथम उपदेश), कुशीनगर (महापरिनिर्वाण स्थल) ये चार महान तीर्थ है। इनके अतिरिक्त संकिसा (जिला फर्रुखाबाद), कौशांबी (इलाहाबाद के पास), वैशाली (बिहार), श्रावस्ती (उत्तर प्रदेश) नागपुर (महाराष्ट्र) भी प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ है। इन सभी बौद्ध धार्मिक जगहों पर सभी जातियों, धर्मों के जन एकत्रित होते हैं और श्रद्धा भक्ति समर्पित करते हैं। मूर्ति कला के क्षेत्र में महान आत्मा भगवान बुद्ध की ऐतिहासिक मूर्तियां इस जगत में सर्वश्रेष्ठ मानी गई हैं। इनमें सारनाथ की "धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा" जो उपदेश देती हुई बुद्ध की मूर्ति है। सारनाथ के पुरातत्व संग्रहालय में दर्शनार्थियों के लिए सुरक्षित हैं। दूसरी वाली मूर्ति जो खड़ी हुई "अभय मुद्रा" में मथुरा संग्रहालय में रखी हुई हैं। तीसरी वाली खड़ी हुई बुद्ध प्रतिमा हमारे भारत के राष्ट्रपति भवन की शोभा बढ़ा रही है। यह तीनों मूर्तियां गुप्त काल की है और मथुरा में बनकर तैयार हुई थी। उस वक्त मथुरा एक प्रसिद्ध बौद्ध कला केंद्र था और वहां की भूमि पर भगवान बुद्ध कम से कम 2 बार पधारे थे। मथुरा में कई जगहों पर खनन का काम हुआ तो वहां से हमें 28 बौद्ध स्थल अभिलेखों सहित प्राप्त हुए हैं प्राप्त हुई मूर्तियों के अलावा भगवान बुद्ध की महापरिनिर्वाण वाली मूर्ति (कुशीनगर) भी मथुरा में बनी है। मथुरा शहर में कुछ वर्ष पहले एक कॉलोनी में घर की नींव खोदते समय भगवान बुद्ध की मूर्तियां बड़ी भारी मात्रा में मिली है। इसी प्रकार भारत के इतिहास में बौद्ध कला का स्वर्णिम अध्याय जो कहा जाता है वह सम्राट अशोक का काल (स्थापत्य कला) कहा जाता है। इन्होने भगवान बुद्ध के प्रति सच्ची श्रद्धा रखते हुए इस धर्म को स्थापत्य कला के तहत हर जन तक पहुंचाया। इनके द्वारा बनाए गए स्तंभ, शिलालेख, अभिलेख दर्शनीय है। इनके द्वारा बनवाए गए सारनाथ का सिंह शीर्ष स्तंभ विश्व प्रसिद्ध है जो (एकाश्म) है, एक ही पत्थर से निर्मित व लाल बलुये पत्थर से बना है मौर्य कला की विशिष्ट पहचान चमकदार पॉलिश इन के ऊपर की गई है जो बहुत ही पुराने काल की कला साम्रगी थी वह आज उपलब्ध नहीं है क्योंकि ज्यादातर लकड़ी व मिट्टी पर बनाई जाती थी जिससे वे थोड़े समय के बाद खत्म हो जाती थी। इसलिए इस काम के लिए पत्थर का प्रयोग सर्वश्रेष्ठ था। क्योंकि यह नष्ट व खराब नहीं हो सकता था। भगवान बुद्ध से अगाध श्रद्धा होने के कारण महान सम्राट अशोक ने भगवान बुद्ध के धर्म का प्रचार हमेशा के लिए जीवित कर दिया या अमर कर दिया। सर्वप्रथम पाषाण का प्रयोग करने वाले शासक एकमात्र सम्राट अशोक ही थे। सम्राट अशोक के अभिलेखों से पता चलता है कि उन्होंने पाषाण का प्रयोग क्यों किया था ताकि भगवान बुद्ध और उनके धर्म सिद्धांत हमेशा के लिए अमर हो जाए। उसी प्रकार सम्राट अशोक से पहले के साम्राज्यों में भी बौद्ध कला का विकास हुआ था। जब भी अलग अलग संस्कृतियां आपस में मिली तब तब मनुष्य का जीवन व संसार ऊपर उठा। हमारे देश में ईरानियों का शासन बहुत लंबे समय तक सिंध व पंजाब पर रहा था। सम्राट अशोक से पहले (कुछ काल पहले) का समय ईरानियों का शासन था ईरान सुंदर मूर्तियां बनाने में संसार में अग्रणी स्थान पर था इनकी मूर्तियों में शेरों व सांडों की मूर्तियां हैं। इन पर शीशे जैसी चमक हैं इनके जैसी चमक सम्राट अशोक की लाट में दिखाई देती है। इरानी शासक दारा की तरह अशोक ने भी अपने लेख पत्थरो पर खुदवाये और स्तंभो पर भी, जहां दारा ने अपने जमाने की खूनी लड़ाईयां अपना महिमामंडन लिखवाया वही सम्राट अशोक ने अगाध स्नेह व अहिंसा के संदेश उकेरवाये। उसी प्रकार बौद्ध कला की प्रगति शुंग राजवंश में भी खूब हुई। उत्तर में पुष्य मित्र शुंग का और दक्षिण में आंध्र सात वाहनों का। अपितु दोनों ने ही कला को बहुत आगे बढ़ाया। शुंग काल में भरहुत व सांची के स्तूप बने जो सुंदर कढ़ाई युक्त है और आन्ध्रों ने अपने काल में नासिक में गुफाएं खुदवाई थी, मूर्तियां जो की खड़ी हुई अवस्था में है। मनोहारी है ऊंचे स्तंभ भी बनवाए गए इन राजवंशों में जितनी सुंदर मूर्तियां, चित्र, स्तम्भ आदि बने उतने ही मनभावन और सुंदर (मिट्टी) के खिलौने भी बने। बंगाल में पाल राजवंश ने पोती चित्रण से भगवान बुद्ध के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट की। शुंग काल के समय ही यूनानीयों ने पंजाब पर अपना कब्जा जमा लिया और दो सौ वर्षों तक शासन किया वहां रहकर यूनानीयों ने अपनी संस्कृति का विस्तार किया अपनी नाट्य मंडलियाँ आयोजित की इन सब चीजों से जो मूर्ति बनी उसी को हम गंधार कला के नाम से जानते हैं। जोकि कुषाण वंश की देन है कुषाण वंश ने भी हमारी भारतीय संस्कृति और कला को खूब पोषित किया। हमारे भारत के मथुरा और लखनऊ के संग्रहालय इस राजवंश की कलाकृतियों से भरे पड़े हैं हम बताते चलें कि कुषाण वंश के राजा कनिष्क ने बौद्ध धर्म अपना लिया था। इस तरह से यह देसी विदेशी कलाओं का मेल था। एक तरफ मथुरा शैली पूर्ण रूप से भारतीयता लिए हुई थी वहीं दूसरी तरफ यूनानी शैली ( गांधार शैली) मे एक देवता की तरह भगवान बुद्ध को दिखाया गया है। भारत में बौद्ध कला का वैभव गुप्त कला की चौथी से छठी सदी ईस्वी तक रहा इसी समय में यह विश्वविख्यात होता चला गया और भारत में भी यह प्रमुखता से अग्रणी रहा। बौद्ध धर्म व कला शालीनता व सौंदर्य बोध लिए हुए सुसज्जित थी। मथुरा के बलुआ गुलाबी पत्थर की मूर्तियां निष्पादन व कोमलता की पराकाष्ठा तक पहुंचने में कामयाब हुई। गुप्त काल की शैली संपूर्ण एशिया महाद्वीप में अत्यधिक प्रभावशाली रही। देश में प्रारंभिक बौद्ध कला के अवशेष दुर्लभतम है। अजंता गुफाओं के बाद के समय में ज्यादातर जीवित कार्य बनाए गए है यह लगभग 480 सी ई तक थोड़े कम समय में बने थे यह बहुत ही सुंदर ढंग से निर्मित हुए जो कि एक विकसित शैली में बने थे। सांची में एक जैसे ही बहुत से स्तूप हैं जो भगवान बुद्ध के चिन्ह प्रतीक आदि से सजाए गए हैं। स्तंभों पर भी कारीगरी की गई है।
यह भारत में बौद्ध कला के शुरुआती उदाहरण है। भरहुत की मूर्तियों में भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित चित्र कहानियां उकेरी गई है। सांची भरहुत अमरावती की मूर्ति कला में बोधि वृक्ष पूजा अवश्य दिखाई गई है जिससे यह प्रतीत होता है कि बोधि वृक्ष बहुत ही पूजनीय था। दक्षिण भारत में सबसे महत्वपूर्ण अमरावती महाचैत्य है जिसका रूप भरहुत की बौद्ध कला से मेल खाता है। अमरावती महाचैत्य स्तूप में भगवान बुद्ध को महामानव व भव्य पुरुष के रूप में दर्शाया गया है। भारत की पहचान है बौद्ध कला अजंता की गुफाओं में भगवान बुद्ध के जीवन काल का वर्णन विस्तार पूर्वक बताया गया है व एलोरा में भगवान बुद्ध और बौधिसत्व की मूर्तियां विराजमान है। सातवीं शती में भारत पर हूणो के आक्रमण से भारत के उत्तरी क्षेत्र से यह बौद्ध कला शनै शनै विलुप्त हो गई। सिर्फ भारत के बंगाल और नालंदा बिहार में ही इसके थोड़े बहुत निशां रह गए। देश में अपनी बौद्ध कला के अंतिम चरण का विस्तार केवल दो राजवंशों ने ही संभाला था वह थे पाल व सेन राजवंश भारतवर्ष में बौद्ध धर्म व बौद्ध कला का अंतिम और महत्वपूर्ण स्थल बिहार राज्य का नालंदा विश्वविद्यालय था। भवन निर्माण व विश्वविद्यालय बनाने की एक वस्तु कला शैली का ज्ञान प्राप्त हुआ जिससे पता चलता है कि जो शैली गुप्त राजवंश ने चलाई थी वह वास्तुकला शैली नालंदा विश्वविद्यालय तक निरंतर बहती रही।
भगवान बुद्ध के इस समता सभी को साथ लेकर चलने वाले, सभी प्राणियों का सम्मान करना, समान अधिकार, सभी को एक समान जीने का हक, जीव जंतुओं की देखभाल करना, असहाय गरीब, बच्चे, बूढ़े आदि को समान रूप से प्यार करना सिखाने वाले इस धर्म व बौद्ध कला का अंतिम पड़ाव बंगाल में आक्रमणकारियों द्वारा धर्म व कला के नाश करने के बावजूद फला-फूला। इस प्रकार भारत में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाली बौद्ध कला और धर्म अपनी वाम गति से बारहवी शताब्दी आते-आते समाप्ति की ओर बढ़ गयी परंतु भारत से बाहर इसने अपनी जड़ें फैला दी थी और जिस प्रकार यह भारत में शनै-शनै समाप्त हुआ उसी प्रकार यह विदेशों में फैलता गया।
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अध्ययन का उद्देश्य | लेखक ने बताया है कि जिस प्रकार प्राचीन काल में विभिन्न राजवंशों ने भगवान गौतम बुद्ध को कला के द्वारा पूरे विश्व में पहुंचाया और उनका महिमामंडन किया उसी प्रकार मेरा भी कर्तव्य बनता है कि शोधार्थी के इस लेख के द्वारा भावी पीढ़ी इसका लाभ उठाएं और अपने ज्ञान को विस्तृत करें और अपने भारत की इस बौद्ध कला के प्रति अपनी उत्सुकता व श्रद्धा बनाए रखें यही शोधार्थी का उद्देश्य है। |
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साहित्यावलोकन | गैरोला वाचस्पति (2006) "भारतीय संस्कृति और
कला" |
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निष्कर्ष |
बौद्ध धर्म और बौद्ध कला हमारे भारत की सांस्कृतिक विरासत है। इसके होने से ही भारत का सुंदर इतिहास है। जो सदियों से संजोते आ रहे हैं हम। भगवान बुद्ध इस संपूर्ण एशिया के ज्ञान भंडार के प्रकाश पुंज कहे जाते हैं। ऐतिहासिक काल में राजाओं ने अपने अपने तरीकों से इस धर्म व कला को प्रचारित प्रसारित किया। इस प्रकार इस पवित्र कला व धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हुए इस समय में भी बौद्ध कला से प्रेरणा लेकर भारतीय कला ही नहीं अपितु विश्व की कलाएं आगे बढ़ रही हैं। नित नए शोध इस कला पर हो रहे हैं और आने वाली पीढ़ियों का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। देशी विदेशी लोग इनकी कला, तकनीकी, गुफाओं, चित्र, म्यूरल आदि पर खोज में लगे रहते हैं। शोध पत्र द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. पाण्डे के एस "प्राचीन भारत" पृष्ठ सं 305
2. गैरोला वाचस्पति “भारतीय संस्कृति और कला” पृष्ठ सं 253-258 तक।
3. उपाध्याय भगवत शरण “भारतीय संस्कृति की कहानी”
Website
http://www.wisdomindia.news
https://www.gktoday.in
https://www.hmoob.in
https://www.mpgkpdf.com |