ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- III June  - 2022
Anthology The Research
समुद्रगुप्त के दक्षिणी अभियानों का आर्थिक अनुशीलन- रेशम मार्ग के विशेष परिप्रेक्ष्य में
Economic Pursuit of the Southern Campaigns of Samudragupta - With Special Reference to the Silk Road
Paper Id :  16173   Submission Date :  05/06/2022   Acceptance Date :  12/06/2022   Publication Date :  15/06/2022
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जय प्रकाश मिश्र
शोधार्थी
इतिहास विभाग
डी.बी.एस. कॉलेज
कानपुर,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश भारतीय इतिहास में रेशम मार्ग का महत्वपूर्ण स्थान है। विशेषतया आर्थिक क्षेत्र में यह भारतीय व्यापार के लिए स्वर्णिम अवसर प्रदान करता था। रेशम मार्ग का व्यापक उपयोग कुषाणकाल में किया गया। जिससे उस समय भारतीय व्यापार चरमोत्कर्ष पर था। किन्तु कुषाणकाल के पश्चात रेशम मार्ग के स्थलीय क्षेत्र राजनैतिक रूप से अस्थिर होने लगे और उन क्षेत्रों में वाह्य आक्रमण होने शुरू हो गए इन आक्रमणों ने कहीं न कहीं इस क्षेत्र से हो रहे व्यापार को बाधित किया। परिणामस्वरूप कुषाणकाल के पश्चात् आए प्रमुख वंशों में गुप्त वंश ही थे और किसी भी राष्ट्र के सकुशल संचालन के लिए आर्थिक क्षेत्र का मजबूत होना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि आर्थिक क्षेत्र राष्ट्र की राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक समृद्धि को बढ़ावा देने में अत्यन्त सहायक होता है। किन्तु पूर्ववर्ती महत्वपूर्ण रेशम मार्ग से व्यापार की सम्भावनायें अल्प होने के कारण गुप्तकाल के शासकों ने व्यापार के अन्य मार्गों एंव अन्य क्षेत्रों की ओर जाना शुरू किया। परिणामस्वरूप गुप्तकाल में भारतीय व्यापार दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ शुरू हुआ। साथ ही साथ भारतीय तटवर्ती क्षेत्रों के जरिए व्यापार के लिए अन्य क्षेत्रों में जाने का प्रयास किया गया। किन्तु समुद्रगुप्त के पूर्व गुप्त साम्राज्य का विस्तार उत्तर भारत के सीमित क्षेत्रों तक ही था किन्तु समुद्रगुप्त के समय गुप्त साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार तेजी से हुआ। जिसमें समुद्रगुप्त उत्तर भारत समेत दक्षिण भारत के कई क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की साथ ही साथ कुछ विदेशी शासकों को व अन्य राजाओं को हराकर गुप्त साम्राज्य को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान किया। किन्तु यहाँ चर्चा समुद्रगुप्त की दक्षिण विजय एवं उनके पीछे के उद्देश्यों की हो रही है तो यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि समुद्रगुप्त की दक्षिण विजय के पीछे कई उद्देश्य थे। कुछ भारतीय इतिहासकारों ने इस सामरिक अभियान को धर्म विजय की संज्ञा दिये हैं वहीं कुछ इसके पीछे के आर्थिक उद्देश्यों को भी दर्शाते हैं। किन्तु उनका सन्तुलित अध्ययन करना व इनके उद्देश्यों के कारण को जानना अत्यन्त आवश्यक है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The Silk Road has an important place in Indian history. It provided golden opportunities for Indian business especially in the economic field. The silk route was extensively used during the Kushan period. Due to which Indian trade was at its peak at that time. But after the Kushan period, the terrestrial areas of the Silk Road started becoming politically unstable and external invasions started in those areas, these invasions obstructed the trade going on from this area. As a result, the Gupta dynasty was among the major dynasties that came after the Kushan period and for the successful operation of any nation, it is very important to have a strong economic sector. Because the economic sector is very helpful in promoting the political, social and cultural prosperity of the nation. But due to less possibilities of trade from the earlier important silk route, the rulers of Gupta period started moving towards other routes of trade and other areas. As a result, Indian trade with the countries of Southeast Asia started during the Gupta period. Simultaneously, efforts were made to go to other areas for trade through the Indian coastal areas. But before Samudragupta, the expansion of the Gupta Empire was only in limited areas of North India, but during the time of Samudragupta, the boundaries of the Gupta Empire expanded rapidly. In which Samudragupta conquered many areas of South India including North India, as well as defeated some foreign rulers and other kings and gave the Gupta Empire an all-India form. But here it is being discussed about the southern conquest of Samudragupta and the motives behind them, so it is necessary to clarify that there were many objectives behind the southern conquest of Samudragupta. Some Indian historians have termed this strategic campaign as Dharma Vijay, while some also show the economic objectives behind it. But it is very important to do a balanced study of them and to know the reason behind their objectives.
मुख्य शब्द रेशम मार्ग, आर्थिक उद्देश्य, समुद्रगुप्त, दक्षिण अभियान।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद The Silk Route, Economic Purpose, Southern, Campaign Samudragupta.
प्रस्तावना
उपर्युक्त शोधपत्र के शीर्षक के दो मुख्य भाग हैं जिनमें एक है रेशम मार्ग एवं दूसरा है समुद्रगुप्त एवं उनका दक्षिणी अभियान। यहाँ इन दोनों भागों के बारे में जानना अत्यन्त आवश्यक है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य समुद्रगुप्त के दक्षिणी अभियानों का रेशम मार्ग के विशेष परिप्रेक्ष्य में आर्थिक अनुशीलन करना है।
साहित्यावलोकन

प्रस्तुत शोध विषय के क्षेत्र में किए गये कार्यों का व्यापक अध्ययन शोध को अत्यधिक प्रभावशाली बनाता है फलस्वरूप शोध पत्र विषय के क्षेत्र में विद्वानो द्वारा कार्यों की समीक्षा का चर्चा करना आवश्यक है क्योंकि प्रस्तावित विषय के दो महत्वपूर्ण भाग है पहला रेशम मार्ग है जिसके विषय में द्विजेंन्द्रनारायण झा एवं कृष्णमोहन श्रीमाली की पुस्तक प्राचीन भारत का इतिहास हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय द्वारा प्रकाशित महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराती है रेशम मार्ग का विभिन्न शाखाओ एवं उसका भारत पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में विस्तृत चर्चा की गई है वही डॉक्टर मोतीचन्द्र की पुस्तक सार्थवाह- प्राचीन भारत की पथ पद्धति ,बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा प्रकाशित भी भारत और रोम के व्यापार के बारे में विस्तृत चर्चा पुस्तक के छठे अध्याय में किया गया है |
वहीं विषय का दूसरा भाग समुद्रगुप्त का विजय अभियान है जिसकी विस्तृत चर्चा व प्रभावी स्त्रोत प्रयाग प्रशस्ति है | इसके अतिरिक्त समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ अभियान के उददेश्य को लेकर एच० सी० रायचौधरी जैसे इतिहासकारों ने अपने विचार व्यक्त किये है इसके अतिरिक्त परमेश्वरी लाल गुप्त की पुस्तक गुप्त साम्राज्य, शिवनन्दन मिश्र की पुस्तक गुप्तकालीन अभिलेखों से ज्ञात तत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक दशा, वासुदेव उपाध्याय की पुस्तक गुप्त साम्राज्य का इतिहास आदि शोध विषय के क्षेत्र में किये गए महत्वपूर्ण कार्यों से अवगत कराते है |

मुख्य पाठ

रेशम मार्ग 
रेशम मार्ग मानव सभ्यता की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। रेशम मार्ग एक अन्र्तमहाद्वीपीय मार्ग है। जो विश्व के कई सभ्यताओं एवं संस्कृतियों से होकर गुजरता है यह दुनिया के एक विस्तृत भू-भाग को संचार सुविधा प्रदान करता है क्योंकि यह एशिया, यूरोप एवं अफ्रीका महाद्वीप के क्षेत्रों से होकर गुजरता है। इस मार्ग के अन्तर्गत कहीं न कहीं दुनिया के महत्वपूर्ण सभ्यताओं के अस्तित्व को देखा जा सकता है जिसमें चीन, मिस्र, भारत, मेसोपोटामिया और पर्सिया प्रमुख हैं। रेशम मार्ग विभिन्न व्यापारिक मार्गों का एक समूह था जिसमें विभिन्न दिशाओं से कई मार्ग आकर जुड़ते थे, रेशम मार्ग शब्द को सर्वप्रथम जर्मन भूगोलविद फर्डीनेन्ड वान रिचथोफेन ने 19वीं शताब्दी में प्रयोग किया जब वे मध्य एशिया में प्राचीन ट्रंक रोड को पार कर रहे थे। यह प्राचीन रेशम मार्ग विश्व का पहला अन्र्तमहाद्वीपीय एवं कूटनीतिक मार्ग था। रेशम मार्ग की शुरूआत चीन से होती थी जो कई देशों से होकर गुजरती थी तथा प्राचीन समय में भी यह कई साम्राज्यों के बीच से होकर गुजरती थी। फलतः इस मार्ग पर अधिकार करने वाली सत्ता का प्रभाव आर्थिक व सामरिक रूप से बढ़ जाता था। यह मार्ग चीन, मध्य एशिया, पश्चिम एशिया से होते हुए यूरोप तक जाती थी वही सामुद्रिक रेशम मार्ग को सम्मिलित कर लिया जाये तो इसका प्रभाव क्षेत्र अधिक विशाल क्षेत्र में दिखायी देता है। जहाँ यह दक्षिणी चीन सागर, हिन्द महासागर, लाल सागर से होते हुए भूमध्य सागर के द्वारा यह यूरोप तक जाता था। प्राचीन रेशम मार्ग के कई शाखाओं में तीन मुख्य शाखायें थीं जो निम्न थीं:- 
1. रेशम मार्ग की वह शाखा जो कैस्पियन सागर से होते हुए यूरोप तक जाती थी। 
2. दूसरी शाखा मर्व से फरात (यूफेट्स नदी) होते हुए रूम सागर पर बने बन्दरगाह तक जाती थी जहाँ की बन्दरगाहों से सामान जहाज के द्वारा यूरोप के विभिन्न भागों में पहुँचाया जाता था। 
3. वहीं तीसरा सामुद्रिक मार्ग था जो कैंटिन की खाड़ी से शुरू होकर दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के बीच हिन्द महासागर में भारतीय उपमहाद्वीप को जोड़ते हुए लाल सागर के द्वारा भू-मध्य सागर तक जाता था जहाँ से यूरोप को सामान भेजा जाता था। इस प्रकार रेशम मार्ग की विभिन्न शाखाओं को जामने के पश्चात् इसकी महत्ता को समझा जा सकता है कि यह मार्ग कितना महत्वपूर्ण था।

समुद्रगुप्त एवं उनका दक्षिणी अभियान
 समुद्रगुप्त न केवल गुप्त वंश के बल्कि प्राचीन भारतीय इतिहास के महानतम शासकों में से एक थे। समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य की राजनैतिक सीमा के विस्तार के लिए कई सैनिक अभियान किए जिसमें दक्षिणापथ का अभियान प्रमुख है। यहाँ दक्षिणापथ के अभियान के बारे में जानना अत्यन्त आवश्यक है। दक्षिणापथसे तात्पर्य उत्तर में विन्ध्य पर्वत से लेकर दक्षिण में कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों के बीच के प्रदेश से है। सुदूर दक्षिण के तमिल राज्य इसकी परिधि से बाहर थे। महाभारत में विदर्भ तथा कोशल के दक्षिण में स्थित प्रदेश को दक्षिणापथ की संज्ञा प्रदान की गयी है। गंगाघाटी के मैदानों तथा दोआब के प्रदेश की विजय के पश्चात् समुद्रगुप्त दक्षिणी भारत की विजय के लिये निकल पड़ा। प्रशस्ति की उन्नीसवीं तथा बीसवीं पंक्तियों में दक्षिणापथ के बारह राज्यों तथा उनके राजाओं के नाम मिलते हैं। इन राज्यों को पहले तो समुद्रगुप्त ने जीता किन्तु फिर कृपा करके उन्हें स्वतन्त्र कर दिया। उसकी इस नीति को हम धर्म-विजयी राजा की नीति कह सकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वह उनसे भेंट-उपहारादि प्राप्त करके ही संतुष्ट हो गया। इसी लेख में एक अन्य स्थान पर वर्णित है कि उन्मूलित राजवंशों को पुनः प्रतिष्ठित करने के कारण उसकी कीर्ति सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त हो रही थीरायचौधरी ने समुद्रगुप्त की इस विजय की तुलना रघुवंश में वर्णित मंहायज रघु की धर्मविजय से की है जिसमें उन्होंने महेन्द्रपर्वत के राजा को पराजित कर उसकी लक्ष्मी को हस्तगत किया, राज्य को नहीं। इन राज्यों के नाम इस प्रकार मिलते हैं-
(1) कोसल का राजा महेन्द्र
(2) महाकान्तार का राजा व्याघ्रराज
(3) कौराल का राजा मण्टराज
 (4) पिष्टपुर का राजा महेन्द्रगिरि
 (5) कोट्टूर का राजा स्वामीदत्त
(6) एरण्डपल्ल का राजा दमन
 (7) कांची का राजा विष्णुगोप
 (8) अवमुक्त का राजा नीलराज
 (9) वेंगी का राजा हस्तिवर्मा
 (10) पालक्क का राजा उग्रसेन
 (11) देवराष्ट्र का राजा कुबेर
 (12) कुस्थलपुर का राजा धनंजय
 
उपर्युक्त राज्यों में कोसल से तात्पर्य दक्षिणी कोसल से है जिसके अन्तर्गत आधुनिक रायपुर, विलासपुर (म0प्र0) तथा सम्भलपुर (उड़ीसा) के जिले आते हैं। महाकान्तार सम्भवतः उड़ीसा स्थित जयपुर का वनप्रदेश था जिसे महावनभी कहा गया है। कौराल के समीकरण के विषय में पर्याप्त मतभेद है। बार्नेंट तथा रायचैधरी मे इसकी पहचान दक्षिण भारत के कीराड़ नामक ग्राम से किया है। पिष्टपुर, आन्ध्र के गोदावरी जिले का पिठारपुरम् है। कोट्टूर संभवतः उड़ीसा के गजाम जिले में स्थित कोठूरनामक स्थान था। एरण्डपल्ल की पहचान आन्ध्र के विशाखापट्टनम् जिले में स्थित इसी नाम के स्थान से की जाती है। काञ्ची, मद्रास स्थित काञ्चीवरम् है तथा विष्णुगोप संभवतः पल्लववंशी राजा था। अवमुक्त की पहचान संदिग्ध है। संभवतः यह काउचीवरम् के पास ही कोई नगर रहा होगा। वेंगी, कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के बीच स्थित नेल्लोर के उत्तर में पेड्डवेगीनामक स्थान है तथा हस्तिवर्मा सालंकायनवंशी राजा था। पालक्क, नेल्लोर (तमिलनाडु) जिले का पालक्कड़ नामक स्थान है तथा. देवराष्ट्र की पहचान इतिहासकार डूब्रील ने आधुनिक आन्ध्र प्रदेश के विजमापट्टम (विशाखापट्टनम) जिले में स्थित एलमंचिली नामक परगना के साथ की है। कुस्थलपुर की पहचान वार्नेट ने उत्तरी आर्काट में पोलूर के समीप स्थित कुट्टलपुर से की है। इतिहासकार डूब्रील का विचार है कि समृद्रगुप्त के विरुद्ध पूर्वी दकन के राजाओं ने एक संघ बनाया जिसका नेता विष्णुगोप था। यही कारण है-कि उसका नाम भोगोलिक क्रम की उपेक्षा कर अवमुक्तक नीलराज तथा वेंगी के हस्तिवर्मा के पहले दिया गया है। इस संघ ने कोल्लेर झील के पास समुंद्रगुप्त को पराजित किया था जिसके परिणामस्वरूप वह उड़ीसा की तंटवर्ती भागों में की गयी विजयों को छोड़कर अपनी राजधानी वापस लौट गया। परन्तु यह निष्कर्ष तर्कसंगंत नहीं लगता क्योंकि प्रशस्ति का स्पष्ट उल्लेख है कि वह कांची तक विजय करते हुए बढ़ गया था। कुछ विद्वानों की धारणा है कि समुद्रगुप्त पूर्वी घाट से अभियान प्रारम्भ कर वापसी में पश्चिमी घाट से लौटा था। परन्तु यह मत भी मान्य नहीं है। पश्चिमी घाट में वाकाटकों का शक्तिशाली राज्य था। यदि समुद्रगुप्त का वाकाटकों के साथ कोई युद्ध हुआ होता तो उसका उल्लेख प्रशस्ति में अवश्यमेव होता। समुद्रगुप्त वाकाटकों की शक्ति से परिचित था और उनके साथ व्यर्थ का संघर्ष मोल लेना हितकर नहीं समझता था। यद्यपि उसने पश्चिमी दकन के वाकाटक राज्य पर आक्रमण तो नहीं किया किन्तु फिर भी उसने मध्य भारत में वाकाटकों के अधिकार को समाप्त कर दिया। यहाँ वाकाटकों के सामन्त शासन करते थे। इस समय यहाँ वाकाटकनरेश पृथ्बीसेन का सामन्त व्याघ्रदेव शासन करता था। यह प्रयाग प्रशस्ति का व्याघ्रराज है जिसे समुद्रगुप्त ने अपने दक्षिणापथ अभियान में पराजित किया था। एरण का लेख भी मध्य भारत के ऊपर समुद्रगुप्त का अधिकार प्रमाणित करता है। इस विजय ने मध्य भारत में वाकाटकों के स्थान पर गुप्तों की सत्ता कायम कर दिया तथा इसके बाद वाकाटक राज्य पश्चिमी दकन श्में सीमित हो गया। अतः ऐसा लगता है कि वह जिस मार्ग से अभियान पर गया उसी से वापस भी लौट आया। उसने सुदूर दक्षिण में अपनी विजय पताका फहरा दी परन्तु दक्षिण के राज्यों को उसने अपने प्रत्यक्ष शासन में लाने की चेष्टा नहीं की। यह उसकी महान् दूरदर्शिता थी। ये राज्य उसकी राजधानी से दूर पड़ते थे तथा तत्कालीन आवागमन की कठिनाइयों के कारण उन्हें प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखना कठिन था। अतः समद्रगुप्त ने बुद्धिमानी की कि उसने इन राज्यों को स्वतन्त्र कर दिया तथा उन्होंने उसे अपना सम्राट मान लिया। लेवी का विचार है कि दक्षिण भारत में इस समय अनेक समृद्ध बन्दरगाह थे और समुद्रगुप्त उन पर अपना नियंत्रण स्थांपित करना चाहता था। संभव है उसके दक्षिणापथ अभियान का उद्देश्य आर्थिक ही रहा हो। समुद्री व्यापार के द्वारा दक्षिण के राज्यों ने प्रभूत सम्पत्ति अर्जित कर रखी थी। ईसा पूर्व प्रथम शती में कलिंग के शासक खारवेल ने भी पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण कर वहाँ के शासक से मुक्तिमणियों का उपहार प्राप्त किया था। मध्यकाल के अनेक लेखकों तथा यात्रियों ने दक्षिणी राज्यों की विपुल सम्पत्ति का उल्लेख किया है। अतः यह अनुमान लगाना स्वाभाविक है कि समुद्रगुप्त को दक्षिणी भारत के अभियान में बहुत अधिक धन उपहार अथवा लूट में प्राप्त हुआ होगा।
समुद्रगुप्त के दक्षिणी अभियानों का उद्देश्य
समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ के विजय को लेकर विद्वानों ने विभिन्न मत दिए हैं किन्तु समुद्रगुप्त के दक्षिण अभियानों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने के पश्चात् इसके पीछे के आर्थिक उद्देश्य भी नज़र आते हैं। इस आर्थिक उद्देश्य की व्याख्या भी उस समय की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर की जा सकती है। समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ विजय को केवल धर्म विजय के रूप में नहीं देखा जा सकता क्योंकि तत्कालीन समय में समुद्रगुप्त के पूर्व कहीं न कहीं भारतीय साम्राज्य के एक बड़े हिस्से को कुषाण वंश का आधिपत्य था और वे अपना विस्तार मध्य एशिया तक किये हुए थे जिससे वे रेशम मार्ग जैसे महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग पर अपना अधिकार स्थापित किये हुए थे। जिससे वे चीन के द्वारा हो रहे रेशम व्यापार पर अपना एकाधिकार बनाये हुए थे साथ ही साथ भारतीय व्यापारी भी इस मार्ग का उपयोग अपने व्यापारिक लाभ के लिए कर रहे थे, इस प्रकार चीन-भारत-रोम के त्रिकोणीय व्यापार ने कुषाणकाल के समय को आर्थिक रूप से सम्पन्न बनाया इस सम्पन्नता में रेशम मार्ग जैसे रणनीतिक मार्ग पर एकाधिकार ने इस कार्य को और अधिक सहज कर दिया। किन्तु कुषाणकाल के पतन के समय उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में अनेक छोटे राज्यों का उदय होना शुरू हुआ और गुप्तवंश के आने के पूर्व उत्तर भारत में अनेक छोटे-छोटे राजतंत्र व गणतंत्र शासन कर रहे थे। फलतः कुछ समय के लिए आर्थिक गतिविधि की रफ्तार में कमी आयी। इसके पश्चात उत्तर भारत के राजनीतिक मानचित्र में एक बड़ा बदलाव गुप्तवंश के उद्भव से हुआ। गुप्तवंश की उत्पत्ति के पश्चात् जब उसका राजनीतिक विस्तार की चर्चा की जाती है तो समुद्रगुप्त के सैन्य अभियानों की चर्चा प्रमुखता से होती है क्योंकि समुद्रगुप्त के समय में ही गुप्तवंश का विस्तार तेजी से हुआ किन्तु उत्तर पश्चिम भारतीय साम्राज्य का हिस्सा कहीं न कहीं राजनीतिक रूप से अस्थिर बना हुआ था जिसका परिणाम यह हुआ कि रेशम मार्ग का उपयोग करना सम्भव नहीं था। साथ ही साथ मध्य एशिया व अन्य व्यापारिक साझेदारों तक पहुंचने के स्थलीय संचार मार्ग में बाधा उत्पन्न हुई। परिणामस्वरूप आर्थिक क्रिया-कलाप में बाधा उत्पन्न हुई और किसी भी साम्राज्य को शक्तिशाली बनाने के लिए उसको आर्थिक रूप से सम्पन्न होना अत्यन्त आवश्यक है ऐसे में जब व्यापार के लिए उत्तर पश्चिम हिस्सा कारगर साबित नहीं हुआ तो समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत की ओर ध्यान आकृष्ट किया क्योंकि उस समय दक्षिण भारत के अनेक राज्य सामुद्रिक रेशम मार्ग का उपयोग करके आर्थिक सम्पन्नता हासिल कर चुके थे साथ ही साथ उनका व्यापार दक्षिण पूर्व एशिया के राज्यों से भी हो रहा था। फलतः समुद्रगुप्त का दक्षिणापथ अभियान इन राष्ट्रों से आर्थिक लाभ लेने एवं अपने राज्य के व्यापारियों एवं सार्थवाहों के लिए व्यापार के लिए मार्ग एवं बन्दरगाह उपलब्ध करवाने के लिए किया गया क्योंकि समुद्रगुप्त ने इन राज्यों को अपने साम्राज्य में मिलाया नहीं बल्कि ग्रहणमोक्षअनुग्रह की नीति के आधार पर राज्यों के साथ व्यवहार किया गया। इस प्रकार समुद्रगुप्त की दूरदर्शिता ने न केवल व्यापार करने के लिए नये क्षेत्रों की ओर ध्यान आकृष्ट किया बल्कि व्यापारिक गतिविधि को बढ़ाने एवं आर्थिक सम्पन्नता लाने के लिए दक्षिणापथ का अभियान भी किया। शोध के उद्देश्य- प्रस्तावित शोधपत्र का उद्देश्य समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ अभियानों का आर्थिक अनुशीलन करना है। जिसमें समुद्रगुप्त की आर्थिक दूरदर्शिता को भी समझने का प्रयास किया गया है। साथ ही साथ इस अभियान के पीछे के कारणों को भी जानने का प्रयास किया गया है। इस अभियान के प्रमुख कारणों में रेशम मार्ग के क्षेत्र का राजनीतिक रूप से अस्थिर होना भी था। फलतः अपने साम्राज्य की आर्थिक सम्पन्नता के लिए समुद्रगुप्त के द्वारा दक्षिणापथ का अभियान किया गया।

सामग्री और क्रियाविधि
प्रस्तुत शोधपत्र के आकड़े प्राथमिक एवं द्वितीयक दोनों स्रोतों से प्राप्त किये गये। प्राप्त आकड़ों का विश्लेषण ऐतिहासिक विधि से समीक्षात्मक रूप में किया गया है। प्राथमिक एवं द्वितीयक आकड़ों के संकलन में साहित्य का स्थान प्रमुख है। शोधपत्र के अध्ययन में प्राथमिक स्रोत के रूप में प्राचीन साहित्य का उपयोग किया गया है जो विषय से सम्बन्धित प्राचीनतम जानकारी उपलब्ध कराती है। द्वितीयक स्रोत के रूप में विद्वानों द्वारा लिखी गई पुस्तकें एवं शोधपत्र शामिल है।
निष्कर्ष निष्कर्षतः समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ अभियान को धर्म विजय के दृष्टिकोण के अतिरिक्त आर्थिक दृष्टिकोण से देखने की भी आवश्यकता है क्योंकि यह अभियान कई मायनों में तत्कालीन परिस्थितियों को रखते हुए, आर्थिक उद्देश्य को साथ में लेकर चली थी। जिसका परिणाम हमें गुप्तकाल के चहुमुँखी विकास के रूप में दिखाई देता है। गुप्तकाल भारतीय सांस्कृतिक समृद्धि के विकास का सुनहरा काल था। किसी भी साम्राज्य में कला एवं साहित्य का विकास तभी सम्भव है जब वह साम्राज्य आर्थिक रूप से सम्पन्न हो।
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