ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- IV July  - 2022
Anthology The Research
आदिवासी संस्कृति में सरहुल की उत्पत्ति
Origin of Sarhul in Tribal Culture
Paper Id :  16204   Submission Date :  18/07/2022   Acceptance Date :  18/07/2022   Publication Date :  22/07/2022
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रिमिल प्रिया
शोधार्थी
इतिहास विभाग
रांची विश्वविद्यालय
रांची,झारखण्ड, भारत
सारांश विश्व का मानव समाज अपने आरंभिक कालों से अब तक भिन्न-भिन्न विकास की अवस्थाओं को पार करता हुआ यहाँ तक पहुँचा है। क्रम विकास का एक स्तर था विवाहहीन आदिम कम्यून, जब मानव समाज मातृप्रधान था। लोगों की अवधारणा थी कि महिलाओं द्वारा प्रजनन प्रक्रिया से समूह में वंश वृद्धि तथा प्राकृतिक उत्पादन समान क्रियाएं हैं और महिलाओं की जननेंद्रिय उत्पादन, समृद्धि, पैदावारी, बहुतायत आदि की केन्द्रबिन्दु है। अतः समूह में महिलाओं का स्थान महत्वपूर्ण था। इस काल में उत्पादन और उपभोग सामूहिक था। समूह में उच्च-निम्न की कोई स्थिति नहीं थी। बाद में अन्यान्य कारणों से समूह में महिलाओं की स्थिति क्रमशः गौण होती गयी और पुरुषों का वर्चस्व बढ़ता गया। परिणामस्वरूप मातृप्रधान समूह धीरे-धीरे पितृप्रधान में बदलने लगा। विश्व के विभिन्न भागों में वास करने वाले आदिवासी समुदायों की तरह झारखण्ड का आदिवासी समुदाय भी उत्पादन संबंधी अपने पूर्व के अनुभवों, आस्था-विश्वासों, अवधारणाओं, मान्यता-परम्पराओं से पूर्णतः मुक्त नहीं हो सके हैं। अब भी इनके अन्तःकरण में महिलाओं की जनन क्षमता के कारण कृषि उत्पादन में भी प्रजनन प्रक्रिया को अपरिहार्य मानने की अवधारणा विद्यमान है, जिसकी व्यवहारिक अभिव्यक्ति है झारखण्ड में त्योहार की तरह मनाया जाने वाला सरहुल। प्रस्तुत लघु लेख में इसी आदिम मनोवृत्ति से उत्पन्न झारखण्ड के सरहुल त्योहार की उत्पत्ति के मूल कारणों को मानव वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दर्शाने का प्रयास है जिसके अनेकों प्रमाण विश्वभर के आदिवासी समुदायों की आदिम अवधारणाओं पर आधारित आस्था-विश्वासों, मान्यताओं-परम्पराओं, कर्मकाण्डों आदि में आज के आधुनिक युग में भी देखे-सुने जा सकते हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Like the tribal communities living in different parts of the world, the tribal community of Jharkhand has not been completely free from their earlier experiences, beliefs and traditions related to production. Even now, due to the reproductive capacity of women, there is a concept of considering the reproductive process as indispensable in agricultural production, whose practical expression is Sarhul, which is celebrated like a festival in Jharkhand. In the present short article, there is an attempt to show from anthropological point of view the root causes of origin of Sarhul festival of Jharkhand arising out of this primitive attitude, many evidences of which are based on the primitive concepts of tribal communities around the world in faith-beliefs, beliefs-traditions, rituals etc. can be seen and heard even in today's modern era.
मुख्य शब्द आदिवासी संस्कृति में सरहुल की उत्पत्ति, मातृप्रधान।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Sarhul Origin of Sarhul in Tribal Culture, Matriarchal.
प्रस्तावना
झारखण्ड की आदिवासी संस्कृति में सरहुल एक महत्वपूर्ण कर्मकाण्ड है जो अब यहाँ का एक प्रमुख त्योहार बन गया है। वैसे तो इसे अलग-अलग समुदायों में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है, जैसे - मुण्डा - बा पोरोब, उराँव - ख़द्दी, संथाल/हो - बाहा परब, खड़िया - जाङ्कोर आदि आदि परन्तु पूरे झारखण्ड को एक सूत्र में बांधते हुए सरहुल नाम ने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है।
अध्ययन का उद्देश्य सरहुल की उत्पत्ति की व्याख्या।
साहित्यावलोकन
अपने आरम्भिक काल से ही आदिवासी समाज प्राकृतिक आपदाओंहिंसक पशुओं से अपने को बचाये रखने के लिए समूह में रहता आया हैजहाँ परिवार का भी अस्तित्व था और परिवार तथा विवाहहीन समूह मातृप्रधान था जिसे विद्वान आदिम कम्यून का नाम देते हैं। आदिम कम्यून के काल में वैयक्तिक सम्पत्ति क्यासंघ से अपने अलग अस्तित्व का व्यक्ति का ख्याल भी न था। वहाँ ऊँच-नीचधनी-गरीब का भेद न था। उत्पादन सामूहिक था और भोग भी सामूहिक। वहाँ न वर्ग थान वर्ग-शासन।“[1] परवर्ती काल में अपने गर्भधारण की वजह से महिला उत्पादन के कुछ साधनों में अपेक्षाकृत कम उपयोगी होने लगी और उत्पादित साधनों पर पुरुषों का वर्चस्व बढ़ने लगा। फलस्वरूप वह अपने समूह या कबीला का नेतृत्व करने लगा और धीरे-धीरे समूह मातृसत्तात्मक से पितृसत्तात्मक में बदलने लगा। पृथ्वी के विभिन्न भागों की तरह भारत के इस पठारी भू-भाग में भी आदिकाल से आदिवासी समुदाय का वास है जो अभी तक भी आदिम कम्यून और कबिलाई अवस्था के अपने आस्था-विश्वासोंअवधारणाओंमान्यताओंपरम्पराओं जैसे प्राचीन विशेषताओं से बहुत दूर नहीं हट पाया है। यहाँ का आदिवासी समुदाय भी महिलाओं की अगुवाई में कृषि को अपनी जीविका के रूप में अपनाने से पहले उत्पादन की एक ही प्रक्रिया से परिचित हो पाई थी और वह थाअपने तथा अपने परिवेश के प्राकृतिक जीव-जगत में प्रजनन द्वारा अपनी जाति में वृद्धि। कृषि ने समुदाय को स्थायी वास के लिए प्रेरित किया फिर भी वे उत्पादन संबंधी अपने पूर्व के अनुभव और धारणाओं से पूर्णतः मुक्त नहीं हो सके। अतः स्वाभाविक है कि भूमि पर उत्पादन के लिए भी इन्होंने प्रजनन प्रक्रिया को अपरिहार्य माना। यहाँ मनाया जाने वाला सरहुल इसी धारणा की व्यवहारिक अभिव्यक्ति है। 
मुख्य पाठ

सरहुल कथा में दूसरे लोक की कल्पना को जोड़े जाने के बावजूद धरती और उसकी बेटी बिन्दि यानि स्त्री तत्व का ही उल्लेख मिलता है। आदिम मनोवृत्ति में जब तक प्रजनन के कारणात्मक संबंधों की जानकारी नहीं हो पायी थी तब तक प्रजनन यानि उत्पादन शक्ति धारण करने के कारण स्त्री को ही समूह में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। आदिम मनोवृत्ति के अनुसार स्त्री द्वारा मानव का प्रजनन तथा प्राकृतिक उत्पादन समान क्रियाएँ हैं। अर्थात स्त्री की प्रजनन शक्ति और धरती की उत्पादकता समान रूप से उत्पादन से जुड़ी हुई हैं। पूर्व पाषाण युग के अवशेषों में स्त्री की मूर्तियाँ भी कहीं-कहीं उपलब्ध हुई हैं। इन मूर्तियों में स्त्री की जननेन्द्रिय को विशेष रूप से प्रधानता दी गई है। इसका कारण क्या हो सकता है? विद्वान लोग इस पर बहस करके इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि उस (तत्कालीन) युग का मानव स्त्री की जननेन्द्रिय को उत्पादन, समृद्धि, बहुतायत, पैदावार का सूचक समझता था, और उसी लक्ष्य से इसकी उपासना करता था।“[2] इस विश्वास के अनेकों प्रमाण विश्व के अधिकांश आदिवासी समुदायों के बीच अभी तक मौजूद उनकी आस्था/विश्वासों में ढ़ूँढ़ा जा सकता है, जैसे रेड इंडियनों के बीच यह विश्वास है कि चूंकि स्त्री ही जानती है कि कैसे पैदा किया जाता है, अतः वे ही जानती हैं कि फसल को कैसे रोपा जाए और उपजाऊ बनाया जाए। गौरतलब है कि झारखण्ड के आदिवासी समुदायों के बीच भी धान के बिचड़े उखाड़ना और खेतों में उसे रोपने का काम मूलतः स्त्रियाँ ही करती हैं। निकोबार द्वीप के आदिवासी समुदायों के बीच यह धारणा है कि यदि गर्भवती स्त्री बीज डालेगी तो वह भरपूर फसल देगी। ऐसा ही विश्वास ब्राजील, अफ्रीका आदि के आदिवासी समुदायों के बीच भी पाया जाता है। न्यूगिनी के पश्चिमी छोर पर ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी भागों के बीच लेती, सरमाटा तथा अन्य द्वीपसमूहों के असभ्य जंगली लोग सूर्य को पुरुष का और पृथ्वी को स्त्री का रूप मानते हैं और उनकी धारणा है कि सूर्य, पृथ्वी का उर्वर बनाता है। वर्षा ऋतु के आरंभ में हर साल श्री सूर्य अंजीर के वृक्ष में आते हैं और पृथ्वी को गर्भवती बनाते हैं।“[3]
       अच्छी फसल या उत्पादन के लिये पर्याप्त वर्षा आवश्यक है, इसीलिये जिस तरह स्त्रियों में प्रजनन/उत्पादन क्षमता का संकेत उनमें होने वाला ऋतुस्राव है, ठीक उसी तरह आदिम अवधारणा में वर्षा ऋतु के दौरान होने वाली पहली बारिश को धरती के ऋतुस्राव का संकेत माना गया है। आज तक भी आदिवासी समूहों के बीच अपने आदिम आस्था/विश्वासों के अवशेष अवचेतन मन में विद्यमान है और इसी आदिम अवधारणा के फलस्वरूप इनके बीच स्त्री और धरती की उत्पादकता को समान समझा जाता है। इसी आदिम अवधारणा के कारण ही वर्षा को नियंत्रित करने वाले प्रायः सभी अनुष्ठान मुख्यतः स्त्रियों द्वारा ही सम्पन्न किये जाते रहे हैं। इसकी अन्तर्निहित अवधारणा यही है कि अच्छी बारिश हो और स्त्रियों के प्रजनन अंगों की उत्पादकता धरती में भी आये।
       कृषि उत्पादन प्रक्रिया के दौरान हुए अपने अनुभवों से आदिवासियों ने जाना कि अच्छी उपज के लिए सिर्फ उपजाऊ भूमि और जल ही पर्याप्त नहीं है बल्कि सूर्य की रौशनी भी जरूरी है। तब प्रजनन क्षमता के कारण भूमि/धरती को स्त्री तत्व या माता का स्थान देकर सम्मानित किया गया और सूर्य का आह्वान पुरुष तत्व या सर्वशक्तिमान पिता सिंगबोंगा या धर्मेश के रूप में किया गया तथा अपने स्तर के अनुरूप इनकी संतुष्टि के लिए विभिन्न कर्मकाण्डों के माध्यम से उपाय किए जाने लगे। पूरे झाारखण्ड क्षेत्र में मनाया जाने वाला सरहुल इसी जनन क्षमता की उपासना की अभिव्यक्ति है और इसका समय है बसंत ऋतु, जब प्रकृति नये-नये कोंपल, पत्ते, फूलों से सजकर अपनी उत्पादकता/आसन्न गर्भाधान का संकेत देती है। न केवल प्रकृति बल्कि प्रारम्भिक अवस्था में अधिकांश जीव-जगत में भी जैविक प्रेरणा (यौन मिलन) ऋतु निर्धारित होती थी। इसीलिए मनुष्य भले ही जैविक या सामाजिक विकास की किसी भी अवस्था में रहा हो, वह बसंत ऋतु में भिन्न-भिन्न पर्व-त्योहारों के माध्यम से आज तक अपनी इसी आदिम मनोवृत्ति को व्यक्त करता आ रहा है। अब तो वैज्ञानिकों ने डी0एन00 तथा जीन संबंधी अपने शोध और अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला है कि आकर्षण का सिद्धांत सभी जीवधारियों में विद्यमान है। शोध रिपोर्ट यह दर्शाती है कि टेस्टोस्टेरोन हार्मोन के अधिक स्राव से किसी के प्रति चाहत की स्थिति हो जाती है। इस समय मस्तिष्क में स्नायु कोशिकाओं को सक्रिय करने वाला फॉस प्रोटीन निकलता है। प्राकृतिक रूप से यह समय है बसंत ऋतु। वैज्ञानिकों का मानना है कि अन्य जीवों के साथ-साथ मानव में भी बसंत ऋतु मादकता पैदा करती है। जापान के निगोदा विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों तथा हारवर्ड विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिकों का भी यही मानना है। जापानी शोधकर्त्ता कस्तुरा कैमुरा अपने शोध निष्कर्ष में बताते हैं कि जीवधारियों में सर्वाधिक गर्भ भी इसी बसंत ऋतु में धारण किए जाते हैं।“[4] आदिम मनोवृत्ति में स्त्री ही प्रजनन और उत्पादकता की प्रतिनिधि थी, तब यह भी स्पष्ट है कि आदिम आदिवासी समाज में स्त्रियों की प्रधानता थी, यानि समाज मातृ-सत्तात्मक था। इसी तरह स्थान, काल, अवस्था, पात्र आदि की भिन्नता के फलस्वरूप विभिन्न आदिवासी समुदायों के बीच बसंतोत्सव की अभिव्यक्ति के रूपों में भले ही भिन्नता दिखाई देती हो मगर सभी उपरोक्त उत्पादन/प्रजनन की मूल अवधारणा की ही अभिव्यक्तियाँ हैं।
       भारत की कई जातियाँ फाल्गुन के अंत में इस बसंत पर्व को होली के रूप में मनाती हैं जो मादकता से पूर्ण बसंत का ही स्वागत करता है, अर्थात यह सर्वव्याप्त बसंतोत्सव का ही एक रूप है। क्रुक का कहना है कि होली के त्योहार का मूल उद्देश्य पुरुषों, पशुओं और खेती की उत्पादकता में वृद्धि करना था और इस दिन अत्यंत स्वतंत्रता के साथ भ्रष्ट आमोद-प्रमोद होता है। ... उस दिन भारत में निश्चित रूप से दुराचार का वातावरण बन जाता है।“[5] आगे पुनः आर0 ब्रिफो का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है विश्वास किया जाता है कि दैवी उत्पादन शक्ति, जो प्रकृति, पशुओं और स्त्रियों को उर्वरा बनाती हैं, न केवल यौन संभोग से बल्कि कामासक्त तथा वासनात्मक भाषा या क्रिया से भी उद्दीप्त होती हैं। इसलिए अश्लील हास परिहास तथा वार्तालाप पुरातन आदिम उर्वरता अनुष्ठान का एक महत्वपूर्ण पक्ष था।“[6] भारतीय धर्म ग्रन्थों में तो इस ऋतु को कामदेव की ऋतु का ही नाम दिया गया है। इसका एक नाम रतिकाम महोत्सव भी है। प्राचीन भारतीय साहित्य में कामसखा या मदनोत्सव मनाने का उल्लेख इसी ऋतु में मिलता है।

निष्कर्ष निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि तथाकथित सभ्यता के आवरण से खुद को चाहे जितना भी सुसज्जित कर लें मगर हमारे अन्तःकरण में आदिम प्रवृत्ति विद्यमान है जो अवसर मिलते ही इस आवरण को तोड़कर भिन्न-भिन्न अवसरों पर, भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होती ही रहती है। यहाँ मनाया जाने वाला सरहुल महोत्सव भी इसी का एक रूप है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. राहुल सांकृत्यायन, मानव समाज, लोक भारती प्रकाशन, 2009, इलाहाबाद, पृष्ठ 35 2. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, सामाजिक मानव-शास्त्र, प्रकाशकः विजयकृष्ण लखनपाल एण्ड कम्पनी, देहरादून, 1954, पृष्ठ 132 3. देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय, लोकायत, राजकमल प्रकाशन, 2005, नई दिल्ली, पृष्ठ 247 4. दैनिक हिन्दुस्तान, राँची, 14.02.2011 5. देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय, लोकायत, राजकमल प्रकाशन, 2005, नई दिल्ली, पृष्ठ 249 6. वही, पृष्ठ 251