ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- IV July  - 2022
Anthology The Research
प्राचीन भारतीय पुरालेख एवं मुद्राओं में पर्यावरण के बिम्ब: वृक्षों एवं वनस्पतियों के विशेष सन्दर्भ में
Images and Reflections of Environment in Ancient Indian Inscriptions and Numismatics: In Special Reference to Trees and Vegetations
Paper Id :  16206   Submission Date :  04/07/2022   Acceptance Date :  07/07/2022   Publication Date :  16/07/2022
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रुचि श्रीवास्तव
असिस्टेंट प्रोफेसर
प्राचीन इतिहास पुरातत्व और संस्कृति विभाग
महिला डिग्री कॉलेज
बस्ती,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश भारतीय परंपरा में मानव एवं प्रकृति के बीच पारस्परिक सहसंबंध रहा हैं। हड़प्पा काल तथा वैदिक काल से ही प्रकृति से संबंधित बिम्ब हमें प्राप्त होते हैं। भारतीय इतिहास के चित्रण में पृथ्वी, आकाश, वायु, जल तथा पृथ्वी आदि पर्यावरणीय घटकों तथा वृक्षों, वनस्पतियों, नदी, तालाब इत्यादि तत्वों की पूजा एवं स्तवन का प्रचलन देखने को मिलता है। ये समस्त अंकन भारत के लोकचित्त में विद्यमान रही व्यापक पर्यावरणीय संवेदना का आभास कराते है। हिंदू-धर्म से लेकर बौद्ध-धर्म तथा जैन-धर्म सभी में मानवों एवं पर्यावरण के मध्य घनिष्ठता एवं साहचर्य का प्रतिपादन है। प्राचीन मनीषियों को वृक्षों और वनों के महत्व की अनुभूति थी जिसके कारण उन्होंने उसे धर्म में सम्मिलित करके मनुष्य द्वारा उसके संरक्षण पर बल दिया। वृक्ष एवं वनस्पति पर्यावरण के महत्वपूर्ण घटक हैं जो अपनी स्वाभाविक प्रक्रियाओं से पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखते हुए जैव विविधता बरकरार रखते हैं। वर्तमान में औद्योगीकरण, वनों की निरंतर कटाई, जीवों का संहार आदि कारणों से पर्यावरण का प्रदूषण और निरंतर क्षय हो रहा है। जल, वायु, मृदा सभी प्रदूषित हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं, ग्लोबल वार्मिंग तथा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से ओजोन परत में छिद्र से समस्त विश्व चिंतित है। किन्तु हमारे भारतीय चिंतन में ऋषि, मुनि, आचार्य, मनीषी तथा कविगण आरंभ से ही पर्यावरण संरक्षण के प्रति सचेत थे। आज समय है कि हम पुनः अपनी जड़ो की ओर लौटें तथा पर्यावरण रक्षा के प्रति सचेत हो जाएं ताकि आने वाली पीढ़ियां हमसे प्रश्न न कर सकें कि हमने उन्हें विरासत में कुछ नही दिया।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In Indian tradition there has been a mutual correlation between man and nature. We get images related to nature from the Harappan period and the Vedic period itself. In the depiction of Indian history, the practice of worship and eulogy is seen in the environmental components of earth, sky, air, water and earth etc. All these markings give an impression of the widespread environmental sensitivity existing in the public mind of India. From Hinduism to Buddhism and Jainism, there is a rendering of closeness and companionship between humans and the environment. The ancient sages realized the importance of trees and forests, due to which they included them in religion and emphasized on its protection by man. Trees and vegetation are important components of the environment, which maintain biodiversity by maintaining ecological balance through their natural processes. At present, due to industrialization, continuous deforestation, destruction of living beings, etc., due to the pollution and continuous decay of the environment. Water, air, soil are all polluted. Glaciers are melting, the whole world is worried about the hole in the ozone layer due to global warming and emission of greenhouse gases. But in our Indian thought, sages, sages, acharyas, sages and poets were conscious of environmental protection from the very beginning. Today is the time to go back to our roots and become conscious about protecting the environment so that the coming generations do not question us that we have not given them anything in inheritance.
मुख्य शब्द प्राचीन भारतीय पुरालेख, मुद्राओं में पर्यावरण के बिम्ब, वृक्षों एवं वनस्पतियों के विशेष सन्दर्भ।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Ancient Indian Epigraphy, Images of the Environment in Postures, Special References to Trees, Plants.
प्रस्तावना
विश्व में विद्यमान प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक वनस्पति एवं प्रत्येक स्पन्दनशील प्रजाति पर प्रकृति का बराबर स्नेह है। प्रकृति से भिन्न मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं होता बल्कि प्रकृति के साथ ही मनुष्य का सहअस्तित्व संभव है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति का जन्म अरण्यों में परिलक्षित प्रतीत होता है। अथर्ववेद[1] में भूमि सूक्त के सृष्टा वैदिक ऋषि ने सहस्त्र वर्षो पूर्व उद्घाटित किया था, माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथ्वियाः अर्थात् वसुधरा जननी है, हम सब उसके पुत्र हैं। समस्त वैदिक साहित्य एवं लौकिक साहित्य में आकाश, वायु, जल तथा पृथ्वी आदि पर्यावरण के घटक तत्वों का स्तवन, उनकी विशेषताओं तथा विश्व के लिए उनकी उपयोगिताओं का चित्रण है। जब हम वैज्ञानिक दृष्टि से इन तत्वों का विश्लेषण करते हैं तो पर्यावरण से सम्बद्ध अनेक वैज्ञानिक रहस्यों का उद्घाटन होता है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोध आलेख में वृक्षों एवं वनस्पतियों को दृष्टि में रखते हुए भारत की सांस्कृतिक परम्परा में पर्यावरणीय चेतना का विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है।
मुख्य पाठ

हड़प्पा काल से ही हमें भारतीय कला में वृक्ष पूजा के उदाहरण प्राप्त होते हैं। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ों से प्राप्त अनेक मुद्राकंनों पर ऐसे वृक्षों के उत्कीर्णन है जिनसे उनका पवित्र एवं पूज्य अस्तित्व असंदिग्ध रूप से प्रकट होता है। इन मुद्राओं (चित्र सं0 1) पर अश्वत्थ अथवा पीपल के पत्तों वाले कई अंकन इस तथ्य का प्रतिपादन करते हैं कि पीपल की उपासना भारत वर्ष में अत्यन्त प्राचीन थी मुद्रांकनों में वृक्षों से झांकते मानव-मुख, वृक्षों अथवा डालियों के बीच अवस्थित देवता, वृक्ष-देवता की उपासना करते नर-नारी तथा वेदिका से घिरे वृक्ष उस युग में प्रचलित वृक्ष पूजा के प्रबल साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।2

ज्ञातव्य है कि प्राचीन भारतीय आहत मुद्राओं पर अंकित चिन्हों एवं प्रतीकों में तत्कालीन जीवन के पर्यावरण के प्रति जागरूकता का ज्ञान स्पष्ट होता है। इनमें नदी, पेड़-पौधे, पशु एवं पक्षी, पादप, टहनियाँ, वेदिका युक्त वृक्ष आदि ऐसे अंकन हैं जिनका सीधा सम्बन्ध पर्यावरण से जोड़ा जा सकता है। प्राचीन भारतीय आहत सिक्कों की परम्परा में पांचाल, मथुरा, कौशाम्बी, यौधेय कुणिन्द, अर्जुनायन, औदुम्बर जन के सिक्कों पर वृक्ष अथवा वेदिका से घिरे वृक्षों का अंकन प्राप्त होता है। पांचाल सिक्कों के पुरोभाग पर अंकित तीन पांचाल चिन्हों में से एक वेदिका से घिरा वृक्ष भी है3।लक्ष्मी के साथ वृक्ष का अंकन ब्रह्ममित्र सूर्यमित्र और शिवदत्त के सिक्कों पर भी मिलता है।4मथुरा से प्राप्त मुद्राओं में गोमित्र तृतीय की मुद्रा पर लक्ष्मी की आकृति के दूसरी ओर वृक्ष का अंकन है जिसकी पहचान कदम्ब वृक्ष के साथ की गई है। नीचे नदी का अंकन है, जिमसें पाँच मछलियों का चित्र बना है।5  वृक्षों की पवित्रता के कारण ही औदुम्बरजन का नाम उदुम्बर वृक्ष ( गूलर ) के नाम पर पड़ा प्रतीत होता है।

ये समस्त अंकन भारत के लोकचित्त में विद्यमान रही व्यापक पर्यावरणीय संवेदना का आभास तो कराते ही हैं साथ ही देवताओं के प्रतीक के रूप मैं उपस्थित होकर सश्रद्ध भाव से उनकी विधिवत पूजा अर्चना तथा सुरक्षा के नियम शास्त्रीय व लौकिक परम्परा में प्रतिपादित कार्यरत रहे ये पर्याय पर्यावरण रक्षा की विधि की तरह प्रतीत होते हैं।

प्रकृति के प्रति बौद्धधर्म की दृष्टि सदैव मैत्री भाव से युक्त रही है। बुद्ध-धम्म-संघ का प्रकृति पर्यावरण के साथ मणि-कांचन का योग रहा है। भगवान बुद्ध का सम्पूर्ण जीवन प्रकृति के साहचर्य में ही व्यतीत हुआ। उनका जन्म लुम्बिनी वन मेंज्ञान की प्राप्ति पीपल वृक्ष के नीचेधर्मचक्र सारनाथ के ऋषिपत्तन मृगदाव में तथा महापरिनिर्वाण कुशीनगर में शाल वृक्षों के कुंज में हुआ।[6] उन्होंने अपने जीवन के वर्षावास उपवनों एवं संघारामों में व्यतीत किये जो शहर से कुछ दूर प्रकृति के अंक में शुद्ध जल की सुविधा को ध्यान में रखकर बनाए जाते थे। रूम्मिनदेई स्तम्भाभिलेख[7] से स्पष्ट होता है कि जिस क्षेत्र में वह स्तम्भ स्थापित हैवह क्षेत्र लुम्बिनी हैजहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था। शाक्यों का एक गाँव बेधंआ के पास आम्रवन था जहाँ भगवान बुद्ध ने पासादिक सुत्त का उपदेश दिया था। इसी आम्रवन में धनुर्वेद का शिक्षणालय था।[8] इसी प्रकार सम्राट अशोक9 ने सार्वजनिक मार्गों पर 27 मीटर की दूरी पर पांच प्रकार के वृक्ष- पीपलवरगदआमशाल तथा अशोक लगवाए थे। बुद्ध के जीवन में संबंधित जातक कथाएँ तो बहुधा पर्वत श्रंखलाओंनदियोंवृक्षों एवं वन्य पशु-पंक्षियों के साथ ही प्रस्तुत हुई हैं।[9]

भारतीय संस्कृति में विभिन्न वनस्पतियों यथाअश्वत्थशमीवटबबुलहरितकीआमलकी तथा तुलसी आदि वृक्षों को विभिन्न देवताओं के साथ सम्बन्धित करने की परम्परा मिलती है। बेसनगर[10] से प्राप्त स्तम्भ शीर्ष के ऊपर जो वृक्ष अंकित है उसे वट-वृक्ष कहा गया है। ग्रामीण अंचलों में स्त्रियाँ आज भी वट वृक्ष की पूजा करती हैं। इसी प्रकार तुलसी विष्णु प्रिया हैं अतः वैष्णव सम्प्रदाय में उनका विशेष आदर है। गुप्त कालीन कुछ मुद्राओं पर पौधे की आकृति भी अंकित प्रतीत होती है। अल्टेकर महोदय इसे तुलसी का पौधा स्वीकार करते हैं।[11] उल्लेखनीय है कि गुप्त शासक परम् वैष्णव थे। विष्णु पुजारियों के लिए तुलसी का पौधा पवित्र माना जाता है। इसी प्रकार आंवले के वृक्ष का महत्व कार्तिक मास में विशेष रहता है। भारतीय परम्परा में विल्व-वृक्ष को अमृत से उत्पन्न कहा गया है जिसके पत्ते पूजार्थ प्रयुक्त होते हैं। बेल के फल को श्रीफल भी कहा जाता है।[12]

तक्षशिला से प्राप्त एक मुद्रा के पुरोभाग पर लिंग का अंकन प्राप्त होता है तथा पृष्ठ भाग पर भाडमेरू के दोनों ओर भीतर से निकलते हुए वृक्षों का अंकन तथा पर्वत के ऊपर छत्र का अंकन प्राप्त होता है जो शिव से अभिन्न धार्मिक पूजा का प्रतीक प्रतीत होता है।[13] इस प्रकार शिवलिंग से पर्वत एवं वृक्ष की सम्बद्धता प्रकट होती है। शिवलिंग से वृक्ष की सम्बद्धता का महत्वपूर्ण प्रमाण धीर सिंह नाहर द्वारा प्रस्तुत मिट्टी की मुहर है जिस पर वृक्ष एवं शिवलिंग के साथ ब्राह्मी में ‘पादपेश्वर‘ लेख अंकित है। शिवलिंग के लिए ‘पादपेश्वर‘ लेख बहुत महत्वपूर्ण है जो वृक्ष के साथ शैव धर्म की गहरी सम्बद्धता प्रकट करती है।[14] आम का फल भी पवित्र माना गया है। जन्मविवाह आदि शुभ सामाजिक अवसरों पर घरों के द्वारों के ऊपर लटकती आम्र-पल्लव से बनी बन्दनवारें मांगलिकता का आह्वान करती हैं। मंगलघट भी आम्र-पल्लव से ही पूर्ण-घट बनते हैं (चित्र सं0 2)।

बौद्ध कला में बोधिवृक्ष (चित्र सं0 3) के अंकन भरहुतसाँचीबोधगयामथुराअमरावती तथा नागार्जुनीकोण्ड के उत्कीर्ण शिल्पों में देखे जा सकते है। उन्हें प्रायः चौकोर वेदिकाओं से घेर दिया गया है तथा मालाओं एवं छत्रों से सजाया गया है।[15] स्तूपों में न केवल गौतम बुद्ध वरन् उनसे पहले के अन्य बुद्धों के बोधिवृक्षों का भी अंकन है। भरहुत के एक दृश्य में जंगली हाथी बोधि वृक्ष की पूजा करते हुए दर्शनीय है। इस पर एक लेख उत्कंटित है[16]- बहुहत्थिकी निगोदोअर्थात् बहुत से हाथियों का न्याग्रोध या वट वृक्ष।‘‘ विशेषतः भरहुत एवं साँची पर उत्कीर्ण सात वट वृक्ष सात मानुषी बुद्धों के प्रतीक माने गयें हैं। भरहुत के प्रतीकों में जिन वृक्षों के साथ बुद्धों का सम्बन्ध था उनके नाम संबंधी लेख भी उत्कीर्ण किये गये हैं। बुद्धों में सर्वाधिक प्राचीन विपस्वी हैं जिनका बोधिवृक्ष पाटलि है। विश्वभू का बोधिवृक्ष शाल अंकित है-भगवतो वेसभुनो बोधि सालो। क्रकुक्छन्द का बोधिवृक्ष शिरीष वृक्ष हैकनक मुनि का बोधिवृक्ष उदु्म्बर हैकश्यप मुनि का बोधिवृक्ष वट वृक्ष है तथा शाक्य मुनि का बोधिवृक्ष पीपल का वृक्ष है आदि।[17] श्री वृक्ष का सर्वोत्तम उदाहरण हमें बेसनगर (विदिशा) से एक स्तम्भ शीर्ष के रूप में प्राप्त हुआ है जो कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में प्रदर्शित है। लगभग तीसरी शती ई0पू0 के इस स्तम्भ शीर्ष को एक वट-वृक्ष के रूप में उत्कीर्ण किया गया है जिसके चारों ओर वेदिका है।[18]

जैन धर्म में भी मानवों एवं पर्यावरण के मध्य घनिष्ठता प्रतीत होती है। तीर्थंकरों में ऋषभ से महावीर तक सभी तीर्थंकरों ने प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखने का उपदेश दिया। जैन साहित्य में उल्लिखित हेै किवायु प्रदूषण और वनों का विनाश महारंभ (महापाप) है जो अधोगति के परिणाम लाते हैं। वेदिका वृक्षों को ‘यक्ख चेतिय‘ कहा गया है। ऐसे वृक्षों को तोड़ना वर्जित था। इन पर वन देवों अथवा विभिन्न स्तर की आत्माओं का निवास माना जाता था।[19]

पर्यावरणीय अंकनों में वट वृक्षकल्प वृक्षकमल फुल्लेलता के बेलपूर्णघटùमालाùपत्र आदि का अंकन विशेष दर्शनीय है। पù केा सृष्टि का प्रतीक कहा गया है। पù के अष्टदल अष्ट दिशाओं के प्रतीक हैं। अस्तु पù (चित्र सं0 4अस) सर्वव्यापकता का बोध कराता है।[20]

दूसरी शती ईसापूर्व से सातवीं शती तक की कलावधि में प्राप्त मुद्राओं पर लक्ष्मी का पद्दम के साथ अंकन किया गया है। द्वितीय शती ईसापूर्व की कोशाम्बी से प्राप्त मुद्राओं के पुरो भाग पर अभिषेक लक्ष्मी के दोनों ओर पद (कमल) पर खड़े गजों का सुन्दर अंकन है।[21] गुप्तों की स्वर्ण मुद्राओं पर भी सर्वत्र महादेवी लक्ष्मी का अंकन पद के साथ प्राप्त होता है। समुद्र गुप्त की ध्वजधारी मुद्राओं[22] में लक्ष्मी दाहिने हाथ में कमल लिए प्रदर्शित हैं। चन्द्रगुप्त द्वितीय के सिक्कों पर भी लक्ष्मी कमल पर आसीन बाएं हाथ में कमल लिए हुए प्रदर्शित हैं।[23] कुषाण युगीन मूर्तियों में पुष्पमालाओं द्वारा सौन्दर्य-विधान का सूत्रपात महत्वपूर्ण रूप से मिलता है। मथुरा की विष्णु मूर्तियों में चौथीं शती के प्रारम्भ तक की मालाओं के उदाहरण मिलते हैं। सम्भवतः गुप्त काल में कमल के फूलों की उत्कृष्ण अथवा किंजल्किनी-माला का प्रयोग प्रचलित था। बसराझुँसीनगर भुक्तिराजगृहमगध भुक्तिराजघाटकौशाम्बीअहिच्छत्र तथा एरण से प्राप्त मुहरों पर गजलक्ष्मी (चित्र सं0 5) के चित्रण में पù प्रतीक के कलात्मक अंकन महत्वपूर्ण हैं।[24]

श्रीसूक्त के अनुसार श्रीदेवी का वृक्ष बिल्व है जो देवी के तप से उत्पन्न निजी वृक्ष के रूप में उल्लिखित है।[25]  अग्रवाल के अनुसारतालवृक्ष के कोए भरे फलों की तुलना में सबसे निकट कोयों से पूर्ण बिल्व फल आता है। इसी से ताल वृक्ष का प्रतिरूप बिल्व-वृक्ष माना जाता है।[26] ताल वृक्ष नाग सिक्कों पर भी मिलता है। जनखतपवाया तथा भूमरा आदि के प्रथम शती ई0 के कलावशेषों में ताड़ की आकृति में अलंकरण विधान विशेष उल्लेखनीय है। भूमरा के मंदिर में पूरे ताड़वृक्ष के तने के द्वार-स्तम्भ मिले हें।[27] तालवृक्ष नागों का राज चिह्न था।

इन्हीं के साथ प्राचीन भारत के पर्यावरणीय अंकनों में उद्यान क्रीड़ाओं का समुह भी दर्शनीय है। इनमें शालभंजिका एवं अशोक पुष्पप्रचायिका विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अशोक वृक्ष नायक का प्रतीक था तथा ‘अशोक- दोहद‘ का अर्थ यह था कि नायक तब तक अनुरक्त या प्रसन्न नहीं होता थाजब तक उसे युवती स्त्री के वामपाद का आघात न मिले। भरहुत-कला में पुष्पित अशोक वृक्ष का आलिंगन करते हुए चुलकोका देवता (क्षुद्रकोका) तथा चंद्रायक्षि (चित्र सं0 6) को भी दिखाया गया है।[28] अशोक पुष्पप्रचायिकाओं के बहुसंख्यक उदाहरण मथुरा कला शैली में विशेष उल्लेखनीय हैं।

शालभंजिकाओं की आकृतियाँ प्रायः स्तूपों के तोरणों की कड़ियों अथवा उनके चारों ओर की वेदिका के स्तम्भों पर उत्कीर्ण पायी गयी हैइसीलिए इन्हें तोरण शालभंजिकाएं और स्तम्भ शालभंजिकाएँ कहा जाता है। तोरण शालभंजिकाए साँची[29]मथुरा[30]एरण[31] सोंख[32]जनखत[33] और नागार्जुनकोण्ड[34] से तथा स्तम्भ शालभंजिकाएँ भरहुत[35]साँची[36]कुम्हरारमेहरौलीनागोदभुवनेश्वर तथा कतिपय गांधारकला के फलकों[37]  पर भी शालभंजिकाओं के विम्ब द्रष्टव्य है। वस्तुतः शालभंजिका उस मूर्ति शिल्प को कहते हैं जिसमें एक रूपसी तरूणी को एक वृक्ष के नीचे त्रिभंग मुद्रा में खड़े अंकित किया जाता था। युवती प्रायः अपने एक हाथ से वृक्ष की एक शाखा को पकड़ कर झूलती सी दिखाई देती है। कभी-कभी उसे वृक्ष का फूलफल या पत्ती पकड़े हुए भी अंकित किया जाता है। अपने दूसरे हाथ से वह बहुधा वृक्ष के तने को लपेटती अथवा आलिंगन सा करती है। ऐसा करने के साथ-साथ वह नारी अपने पैर से वृक्ष के तने को या तो लपेटती है या उस पर प्रहार करती है (चित्र सं0 7)।

शालभंजिका प्रतीक दोहद से भी संबंधित दिखाई पड़ता है। दोहद एक प्रकार का कवि विश्वास माना जाता थाजिसके अनुसार यह समझा जाता था कि तरूणी के पाद प्रहार से अथवा स्पर्शालिंगन से असमय में भी वृक्ष कुसुमित हो उठते हैं।[38] शालभंजिका मुद्राएँ प्राकृतिक सौन्दर्य का सजीव चित्रण प्रस्तुत करती हैं। ये अपने अंदर अनेकानेक अभिप्रायों को समेटे हुए है। वस्तुतः स्त्री एवं वृक्ष का सान्निध्य प्रकृति और स्त्री का सम्बन्ध है जिसमें स्त्री को सृष्टिकर्ता समझा गया और इन्हें प्रकृति के समानान्तर अभिव्यक्त किया गया है।



निष्कर्ष अस्तु, प्राचीन मनीषियों को वृक्षों और वनों के महत्व की अनुभूति थी जिसके कारण उन्होंने उसे धर्म में सम्मिलित करके मनुष्य द्वारा उसके संरक्षण पर बल दिया। प्रकृति में सभी मनुष्यों के भरण-पोषण की अद्भुत क्षमता है और वह सभ्यता के उषाकाल से करती भी आ रही है किन्तु मनुष्य के अतिशय लाभ एवं दुराकांक्षा की पूर्ति वह नहीं कर सकती। प्रकृति की विस्मयकारी विराटता और अभिभूत कर देने वाली जटिलता का बोध हमारे प्राचीन मनीषियों को था। इसी कारण प्रकृति के विभिन्न अवयवों का दैवीकरण कर देवरूप में उनकी आराधना की गयी। कला में वृक्षों एवं वनस्पतियों के अंकन से शिल्पी की वह मनोदशा स्पष्ट झलकती है जिसमें भौतिक एवं प्राकृतिक संपदा तथा आध्यात्मिक ज्ञान रहस्य को साधारण जनमानस के लिए सुग्राह्य बनाने तथा उनके प्रति इन्हें जागरूक रखने की अनूठी लगन प्रतीत होती है। वृक्ष एवं वनस्पति पर्यावरण के महत्वपूर्ण घटक हैं जो अपनी स्वाभाविक प्रक्रियाओं से पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखते हुए जैव विविधता बरकरार रखते हैं। आज पर्यावरण का प्रदूषण और निरंतर क्षय हो रहा है। जल, वायु, मृदा सभी प्रदूषित हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं, ग्लोबल वार्मिंग तथा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से ओजोन परत में छिद्र से समस्त विश्व चिंतित है। किन्तु हमारे भारतीय चिंतन में ऋषि, मुनि, आचार्य, मनीषी तथा कविगण आरंभ से ही पर्यावरण संरक्षण के प्रति सचेत थे। अतः वर्तमान परिस्थितियों में यह अत्यावश्यक है कि हम इनका संरक्षण करें।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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