ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- III June  - 2022
Anthology The Research
”गांधीजी के सिद्धांतों एवं दर्शन की 21 वीं सदी में प्रासंगिकता -एक समाजशास्त्रीय अध्ययन”
Relevance of Gandhis Theories and Philosophy in the 21st Century - A Sociological Study
Paper Id :  16198   Submission Date :  2022-06-02   Acceptance Date :  2022-06-07   Publication Date :  2022-06-19
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अपर्णा तिवारी
असिस्टेंट प्रोफेसर
समाजशास्त्र विभाग
गोकुलदास हिंदू गर्ल्स कॉलेज
मुरादाबाद,उत्तर प्रदेश, भारत
हिमांशु शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर
अंग्रेजी विभाग
जे एस हिंदू पी जी कॉलेज
अमरोहा,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश
प्रस्तुत शोध पत्र ”गांधीजी के सिद्धांतों एवं दर्शन की 21 वीं सदी में प्रासंगिकता- एक समाजशास्त्रीय अध्ययन” के अंतर्गत शोधार्थी के द्वारा गांधीजी के सिद्धांत एवं दर्शन और उनके विचारों तथा कृत्यों का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से विश्लेषण कर 21 वीं सदी में उनके योगदान की प्रासंगिकता को ज्ञात करने का प्रयास किया गया है। प्रस्तुत शोध पत्र में अध्ययन पद्धति के रूप में विश्लेषणात्मक एवं वर्णनात्मक पद्धति का प्रयोग किया है तथा शोध अध्ययन हेतु द्वितीयक स्रोतों का उपयोग किया गया है। मानव जीवन से संबंधित उनकी समाज शास्त्रीय व्याख्या हेतु गांधी के मौलिक चिंतन पर आधारित अनेक उपयोगी कथनों का आश्रय लिया गया है। प्रस्तुत शोध में उनके द्वारा विभिन्न सामाजिक समस्याओं के निदानात्मक चिंतन को ज्ञात करने का प्रयास किया है। अस्पृश्यता निवारण, नारी सुधार, सहिष्णुता, नैतिकता, सत्य, अहिंसा, बुनियादी शिक्षा एवं समाज व्यवस्था संबंधी उनके विचारों एवं कार्यों के द्वारा सामाजिक व्यवस्था एवं संगठन और रामराज्य की अवधारणा का समाजशास्त्रीय विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Under the present research paper "Relevance of Gandhis principles and philosophy in the 21st century - A sociological study", the researcher analyzed Gandhi's theory and philosophy and his thoughts and actions from a sociological point of view, and the relevance of his contribution in the 21st century. An attempt has been made to find out. In the present research paper, analytical and descriptive method has been used as study method and secondary sources have been used for research study. For his socio-classical explanation related to human life, many useful statements based on Gandhi's original thought have been taken. In the present research, an attempt has been made by him to find out the diagnostic thinking of various social problems. A sociological analysis of the social system and organization and the concept of Ram Rajya has been presented through his ideas and works related to the removal of untouchability, womens reform, tolerance, morality, truth, non-violence, basic education and social system.
मुख्य शब्द सर्वोदय, वैदिक वर्णाश्रम, अस्पृश्यता, ग्रामीण समाज, समाजवाद, स्वराज्य, सत्याग्रह।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Sarvodaya, Vedic Varnashrama, Untouchability, Rural Society, Socialism, Swarajya, Satyagraha.
प्रस्तावना
मोहन दास करमचंद गांधीजी एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे, जिन्होंने मानव समाज की प्रत्येक पहलू पर चाहे वे नस्लीय एवं जातिगत भेदभाव हो, ग्राम स्वराज हो, आर्थिक विषमताएं या स्त्री शिक्षा, उनका चिंतन समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। जन जीवन की ऐसी कोई समस्या नहीं जिन पर उन्होंने चिंतन न किया हो। आज जब हम उनकी 150 वी जयंती मनाने जा रहे है, तब उनका समाजशास्त्र के क्षेत्र में योगदान को स्मरण कर उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करने का इस शोध पत्र के माध्यम से प्रयास किया गया है। गाँधीजी का सर्वस्व जीवन मानव समाज में सत्य और अहिंसा के मूल्यों की स्थापना और शोषण, नस्लीय एवं जातिगत भेदभाव रहित सर्वोदय की अवधारणा को विकसित करना, अस्पृश्यता निवारण, नारी सुधार, सहिष्णुता, नैतिकता, बुनियादी शिक्षा एवं वर्ण व्यवस्था संबंधी उनके विचारों एवं कार्यों के द्वारा एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था एवं संगठन की अवधारणा विकसित होती है जो रामराज्य की संकल्पना को परिकल्पित करता है। गाँधीजी का समाजशास्त्र आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख था जो विश्व समाज में अहिंसात्मक शोषणरहित नीति मूलक समाज की स्थापना उनका लक्ष्य था, वहीं दूसरी ओर वे औद्योगीकरण, पूँजीवाद, मशीनीकरण, वाणिज्यवाद, साम्राज्यवाद और पंथनिरपेक्षता के विरोधी थे तथा इन्हें रोग के रूप में उन्होंने रेखांकित किया है। उनका आदर्श एक ऐसे समाज की स्थापना का था जो शोषणरहित प्रेम एवं सहयोग पर आधारित हो।
अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोध अध्ययन का प्रमुख उद्देश्य महात्मा गाँधीजी द्वारा समाज को दिए उनके योगदान का एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण प्रस्तुत करना है, साथ ही उनके सिद्धांतों एवं दर्शन का व्यापक विश्लेषण एवं विवेचन कर वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में उनकी उपयोगिता एवं प्रासंगिकता को ज्ञात करना है। गांधीजी के सिद्धांतों एवं दर्शन के प्रभावों का भारत विद्याशास्त्र के संदर्भ में मूल्यांकन प्रस्तुत करना है।
साहित्यावलोकन

साहित्य पुनरावलोकन शोधकर्ता को उसके शोधकार्य में मार्गदर्शन का कार्य करता है। प्रस्तुत शोध लेख हेतु भी कुछ संबंधित साहित्य का अध्ययन किया गया हैजिनमें से कुछ प्रमुख है-

गाँधीजी का सर्वोदय दर्शनसमसामयिक उपादेयता” नामक इस शोध पत्र के द्वारा बंदना जी ने गांधीजी के सर्वोदय दर्शन की प्रासंगिकता को आज के युग के संदर्भ में स्पष्ट किया है। उनके अनुसार गांधीजी के सर्वोदय की अवधारणा वर्तमान सदी को एक कल्याणकारी देन हैं।

गांधी की प्रासंगिकता” प्रोफेसर महावीर सरन जैन जी ने अपने इस लेख में गांधीजी के दर्शन और सिद्धांतों पर प्रकाश डालते हुए उसकी प्रासंगिकता पर विचार प्रस्तुत किए हैं। इनके अनुसार गाँधीजी का व्यक्तित्व बहुआयामी था और इस व्यक्तित्व का मूल आधार धार्मिकता था।

गांधीज कंटेम्प्ररी रैलीवैन्स” इस लेख का प्रकाशन विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन के डायरेक्टर अरविंद गुप्ता ने गाँधी जयंती के उपलक्ष्य में किया था। उनके अनुसार गांधीजी आज के दौर में भी प्रासंगिक है। उन्होंने भारतीय चिंतन और दर्शन के आधार पर एक व्यावहारिक जीवन दर्शन विकसित किया था।

गांधी और स्त्री विमर्श” नामक शोधपत्र में किरण झा ने गांधीजी के स्त्री विमर्श पर प्रकाश डाला है और उनकी प्रगतिशीलता एवं स्त्री जाति के प्रति संवेदनशीलता को उद्घाटित किया हैजो आज के परिदृश्य में अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

मुख्य पाठ

अध्ययन के प्रासंगिकता

वैश्वीकरण के इस दौर में जब मानव जगत विकास की अंधी दौड़ में लगा हुआ हैतब गरीबीबेरोजगारीनस्लीय भेदभावजातिगत एवं आर्थिक असमानतासामाजिक अन्यायभ्रष्टाचारतीव्र औद्योगीकरण के दुष्परिणाम एवं राजनीतिकआर्थिकसामाजिक और राजनैतिक अधिकारों के साथसाथ मूल्यों का उन्नयन और शोषण जैसी अनेकों सामाजिक समस्याओं का सामना संपूर्ण विश्व को करना पड़ रहा है। ऐसी विषम परिस्थितियों मेंमहात्मा मोहनदास करमचंद गांधीजी के सिद्धांत और दर्शन का शोध अध्ययन वैश्विक स्तर पर अधिकतम लोगों के कल्याण के भाव को प्रसारित करने एवं पूंजी और शक्ति के विकेंद्रीकरणआर्थिक समानता तथा स्वावलंबनस्वतंत्रतासामाजिक समानता और बंधुत्व एवं न्यायिक सिद्धांतों को स्थापित करने में महत्वपूर्ण हो सकता है। 20 वीं सदी के कालखंड में गाँधीजी का व्यक्तित्व और कृतित्व जितना तब प्रासंगिक थाउतना ही इस 21 वीं सदी में भी अत्यंत प्रासंगिक है एवं  विश्व में कल्याणकारी समाज स्थापित करने में महत्वपूर्ण प्रेरणाश्रोत एवं उपयोगी सिद्ध हो सकता है क्योंकि गांधीजी का दर्शन और सिद्धांत प्राचीन भारत के शाश्वत मूल्यों पर आधारित एक ऐसे समाज की स्थापना पर बल देता है जो मानव जनित विभिन्न समस्याओं के निराकरण में प्रभावशाली भूमिका का निर्वाहन कर सकेगा ।

आज देश गांधीजी की 150 वीं जयंती मनाने जा रहा है जिसका मुख्य उद्देश्य गांधीजी के व्यक्तित्व और उनके कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए वर्तमान समय में उनके विचार दर्शन और सिद्धांतों की प्रासंगिकता को समाज के संदर्भ में एक बार पुन उजागर करना है। गाँधीजी जी ने जहाँ एक तरफ संपूर्ण राष्ट्र की सोच को ध्यान में रखकर देश की स्वतंत्रता के लिए अहिंसात्मक लड़ाई लड़ीवहीं दूसरी तरफ तत्कालीन समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियोंछुआछूतसामाजिक मूल्यनारी शिक्षा एवं सम्मानआदर्श व्यवहारसाम्राज्यवादनस्लवादज्ञान -विज्ञान और राजनीति जैसे कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाईइसलिए शायद उन्हें देश के राष्ट्रपिता के नाम से संबोधित किया जाता है।

वैश्विक समाज को गाँधीजी द्वारा प्रदान किया गया एक सर्वप्रमुख योगदान सर्वोदय चिंतन है। आज के युग में सर्वोदय समाज की कल्पना अत्यधिक प्रासंगिक प्रतीत होती हैं। गांधीजी के सर्वोदय की जड़ें प्राचीन भारतीय दर्शन में निहित थी। उन्हें वेदांत की इस धारणा, “सभी प्राणियों में आध्यात्मिक एकता है” और गीता तथा बुद्ध के ‘सर्वभूतहित’ के आदर्श से प्रेरणा मिली थी। सर्वोदय का व्यापक आदर्शवाद मार्क्स के जातीय एवं वर्ग संघर्षलॉक के ‘बहुसंख्यावाद’ तथा बेंथम के ‘अधिकतम सुख के आदर्श’ से सर्वदा विपरीत था यद्यपि प्लेटो द्वारा ‘लॉज’ एंड ‘स्टेट्समेन’ में दिए मानव स्वभाव तथा सामाजिक व्यवस्था की यथार्थवादी आवश्यकता संबंधी विचारों से साम्यता मिलती है। सर्वोदय गांधीजी का एक यथार्थवादी सिद्धांत था और एक आदर्शवादी सिद्धांत भी था जिसका उद्देश्य मानव जाति के सामूहिक जीवन में नैतिक कार्यप्रणाली को पूर्ण रूप से समाविष्ट करना था। गांधीजी के सर्वोदय संबंधी चिंतन पाश्चात्य चिंतक जॉन रस्किन की पुस्तक ‘अन्टू दिस लास्ट’ से प्रेरित था। उन्होंने इस पुस्तक को गुजराती भाषा में अनुवादित किया तथा सर्वोदय शीर्षक के नाम से प्रकाशित किया। उन्होंने अपने ‘हरिजन’ समाचार पत्र में 18 जनवरी 1948 के प्रकाशित लेख में सर्वोदय समाज की रूपरेखा प्रकाशित करते हुए लिखा था कि, “यदि हम चाहते हैं कि हमारा सर्वोदय यानी वास्तविक प्रजातंत्र का सपना सच साबित हो तो हम छोटे से छोटे भारतवासी को भारत का उतना ही शासक समझेंगे जितना देश के बड़े से बड़े आदमी को।” गांधीजी ने सर्वोदय समाज की स्थापना के लिए अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में सर्वोदय के निम्न नियमों की व्याख्या की है:-

सबके कल्याण में ही हमारी भलाई निहित है।

नाई तथा वकील सब के कार्यों का पारिश्रमिक एक समान होना चाहिए क्योंकि जीविकोपार्जन का अधिकार दोनों को एक जैसा है।

सादगी से जीवन यापन करने वाले किसान का जीवन ही वास्तविक जीवन है।

इस प्रकार सर्वजनहितसमान जीविकोपार्जन अधिकार तथा श्रमयुक्त जीवन के महत्त्व को गाँधीजी ने स्थापित करने का प्रयास किया। उनका सर्वोदय वेदान्तबौद्ध दर्शनजैन दर्शनईसाई दर्शन आदि के समन्वित विचारों का अद्भुत समागम है। उनकी सर्वोदयी अवधारणा में अनिवार्य रूप से मानवीय जीवन के सभी पक्ष समाहित है जो शोषणरहित समानता पर आधारित समाज की स्थापना पर बल देता है।

वैश्विक वर्णाश्रम गांधीजी के आदर्श समाज का एक महत्वपूर्ण चिंतन है। वे मानते थे कि एक ऐसे समाज की स्थापना की जाए जो पारस्परिक प्रेम एवं सामंजस्य पर आधारित हो। इसलिए उन्होंने वर्णाश्रम पर आधारित समाज व्यवस्था को स्वीकार किया किंतु वे वर्णो के बीच भेदभाव और ऊँच नीच को मानने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने वर्णाश्रम का समर्थन पुरातनवादी दृष्टि से नहीं किया था बल्कि वे मानते थे कि कुछ सामाजिक संस्थाएँ जो देश के ऐतिहासिक विकास में लगभग सदैव व्याप्त रही है अतः वास्तव में वे बुद्धिसंगत है इसलिए उन्हें अपनाया जाना चाहिए। वैदिक वर्णाश्रम में गाँधीजी पूर्ण विश्वास रखते थे। वे अपने जीवन के प्रारंभ से ही परंपरावादी थे और वे वर्ण को जन्म पर आधारित मानते थे। वर्णाश्रम का तात्पर्य उस वैश्विक व्यवस्था से है जिसमें मनुष्य के गुण कर्म और स्वभाव के अनुसार उसके धर्म का निर्धारण हो। वैदिक वर्णाश्रम जन्म पर आधारित नहीं था किंतु गांधीजी ने गीता पर लिखे ‘अनाशक्तियोग’ नामक भाष्य में जन्म मूलक वर्णाश्रम धर्म का समर्थन किया है। वैदिक वर्णाश्रम के समर्थक होकर भी वर्तमान भारत में जो जातिगत संकीर्णता हैउसका गांधीजी ने बड़ा जोरदार खंडन किया। उन्होंने जाति प्रथा की कुरीतियों और  क्रूरव्यवहारों के प्रति बड़ा प्रबल विरोध किया और उनके निराकरण हेतु एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया। कालान्तर में सैद्धांतिक दृष्टि से वर्णाश्रम का विरोध नहीं किया और न ही इसके समर्थन में लिखे गए लेखों में संशोधन किया किंतु वे वर्गहीनके समर्थक बन गए और अंतर्जातीय विवाह का समर्थन करने लगे। अस्पृश्यता रूपी अभिशाप को दूर करने हेतु उन्होंने अनेक सृजनात्मक कार्य किये। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘मेरे सपनों का भारत’ की पृष्ठ संख्या 228-229 मैं लिखा है, “शास्त्रों में एक तरह की हितकारी अस्पृश्यता का विधान अवश्य है परन्तु उस तरह की अश्पृश्यता तो सब धर्मों में पाई जाती है। वह अस्पृश्यता तो स्वच्छता के नियमों का ही एक अंग हैवह तो सदा रहेंगी लेकिन भारत में आज हम जैसी अस्पृश्यता देख रहे हैंवह  एक भयंकर चीज़ है और उसके हर एक प्रांत मेंयहाँ तक कि हर एक जिले में अलग अलग कितने ही रूप हैउसने अस्प्रश्य और स्प्रश्य दोनों को ही नीचे गिराया है। उसने लगभग 4,00,00,000 मनुष्यों का विकास रोक रखा है। उन्हें जीवन की सामान्य सुविधाएं भी नहीं दी जाती है। इसलिए इस बुराई को जितनी जल्दी निर्मूल कर दिया जाएउतना ही हिंदू धर्मभारत और शायद समग्र मानव जाति के लिए वह कल्याणकारी होगा”, इस प्रकार गांधीजी जहाँ वैदिक वर्णाश्रम पर आधारित समाज व्यवस्था पर ज़ोर देते हैंवही जातिगत अस्पृश्यता की भर्त्सना करते हैं।

गाँधीजी का ‘नैतिक निरपेक्षतावाद’ संबंधित चिंतन का बीज वेद की इस धारणा में विद्यमान हैंजिसे ‘ऋत’ कहते हैं। ‘ऋत’ के सिद्धांत के अनुसार कुछ ऐसे ब्रह्मांडीय तथा नैतिक अध्यादेश है जो मनुष्य और देवताओं दोनों पर शासन करते हैं। गांधीजी के अनुसारमानवप्राणियों एवं पशुओं के प्रति निर्दयता के विरुद्ध संघर्ष आवश्यक है। यजुर्वेद के इस मंत्र “ईशावास्यामिदम सर्वं” अर्थात “संपूर्ण विश्व में ईश्वर व्याप्त है” में पूर्ण श्रद्धा रखते थे। 2 फरवरी, 1937 के ‘हरिजन’ समाचार पत्रिका के लेख में उनका कथन है कि “इस मंत्र में समाजवाद और यहाँ तक कि साम्यवाद भी निहित है” ।  इस प्रकार उन्होंने इतिहास में धर्म की सृजनात्मक भूमिका पर प्रकाश डाला है। गांधीजी के अनुसारधर्म का अर्थ यह विश्वास है कि विश्व व्यवस्थित रूप से नैतिक नियमों के अनुसार शासित होना चाहिए। इसलिए उन्होंने बॉल्शेविकवाद और अनीश्वरवाद दोनों का खंडन किया। वे संकीर्ण सांप्रदायवाद पर विश्वास नहीं करते थे बल्कि उन्होंने धर्म के नैतिक और आध्यात्मिक सार को ग्रहण किया। नैतिक आधार के विनष्ट होते ही मनुष्य की धार्मिकता भी विलुप्त हो जाती है। अतः गांधीजी के अनुसार मनुष्य स्वेच्छा से ‘स्व’ धर्म को अंगीकार करेगीता में वर्णित कर्मयोगी का निष्काम तथा निर्लिप्त जीवन बिताए।

इस प्रकार हम देखते हैं कि गांधीजी मानव सभ्यता के वर्तमान भौतिकवादी दौर में गीता के उपदेशों पर आधारित कर्म योग के सिद्धांत को स्थापित करते हैं और धर्म को मनुष्य की बर्बर प्रवृत्ति का निग्रह करने वाला तथा मनुष्य को मनुष्य से और ईश्वर से जोड़ने वाली संस्था के रूप में प्रस्तुत करते हैं।  भविष्य का अहिंसक समाज जिसे गांधीजी पंचायतीराज अथवा रामराज्य भी कहा करते थेधर्म पर आधारित होगा। जब समाज की नैतिक व्यवस्था का इस प्रकार मानसिक परिमार्जन होगा तो उसके फलस्वरूप उन भद्दे और अश्लील अंधविश्वासों और रूढ़ियों का जिन्होंने धर्म का स्थान ले लिया है स्वतउन्मूलन हो जाएगा। परोपकारसहनशीलतान्यायबंधुत्वशांति तथा सर्वव्यापी प्रेम के अर्थ में धर्म ही केवल विश्व के अस्तित्व का आधार बन सकता है । वे मानते थे कि समाज से धर्म का उन्मूलन करने का प्रयत्न कभी सफल नहीं हो सकता और यदि वह कभी सफल हो सका तो उससे समाज का विनाश हो जाएगा।

गाँधीजी ने आधुनिक सभ्यता के आधारों को भी चुनौती दी। इस आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता की कृत्रिमताऔद्योगिक प्रगतिसेक्युलरिज़्मआक्रामकता तथा लोलुपता से गांधीजी घृणा करते थे। पश्चिम की औद्योगिक सभ्यता को दुर्बल राष्ट्रों के शोषण पर आधारित मानते थे। अतः प्लेटोरूसो तथा टॉलस्टॉय की भाँति गांधीजी प्रकृति की ओर लौटने और स्वेच्छा से अपनी आवश्यकताओं को कम करके ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के सिद्धांत को वास्तविक सभ्यता मानते थे। इसलिए स्पेंगलर से पहले ही गांधीजी ने पश्चिमी सभ्यता के पतन और विनाश की भविष्यवाणी कर दी थी। गाँधीजी ने राजनीतिक समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र को आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख करने पर बल दिया। गाँधीजी का समाजवाद ‘मार्क्सवादी समाजवाद’ से भिन्न था यद्यपि दोनों ही आर्थिक समानता पर आधारित समाज की स्थापना करना चाहते थे। गाँधीजी का समाजवाद अनुभवातीतसंन्यास मूलक तथा नैतिक है जो सत्य और अहिंसा पर आधारित है वही इसके विपरीत मार्क्सवादी समाजवाद का आदर्श मुख्यता भौतिकवादी और सेक्युलर है जो उत्पादन की वृद्धि पर अधिक ज़ोर देता है। गाँधीजी का ‘सोशलिज्म एंड सत्याग्रह’ नामक लेख 20 जुलाई 1947 को हरिजन समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा है, “सत्य और अहिंसा को समाजवाद के रूप में मूर्तिमान होना चाहिए क्योंकि अहिंसा की पहली शर्त यह है कि सर्वत्र तथा जीवन के हर क्षेत्र में न्याय की स्थापना की जाए किंतु समाजवाद का पाश्चात्य सिद्धांत हिंसा के वातावरण में उत्पन्न हुआ है। इसलिए सिर्फ सत्याग्रह ही सच्चा समाजवाद लाने का एकमात्र साधन है” इस प्रकार गाँधीजी ने आध्यात्मिक समाजवाद के आदर्श को स्वीकार किया और धन के विवेकपूर्ण नियमन और सामाजिक न्याय का समर्थन किया और आधुनिक समाजवाद जो की शोषण और हिंसा पर आधारित थाका विरोध किया।

गांधीजी साम्यवाद की अवधारणा के प्रति विकर्षण की भावना रखते थे वे। साम्यवाद में निहित अनीश्वरवाद और हिंसा के घोर विरोधी थे। इसलिए उन्होंने बोलसेविकवाद का कभी समर्थन नहीं किया। उन्होंने भारतीय साम्यवादियों द्वारा अपनाए गए मार्ग और विचार की कभी प्रशंसा नहीं की। वे साम्राज्यवाद के घोर विरोधी थे और मानते थे कि निर्मल व्यक्तियों का शोषण और राजनीतिक दासता का प्रतीक साम्राज्यवाद है और ये साम्राज्यवाद समानता तथा सामाजिक न्याय में बाधक होता है जो समाज में नस्लवादभेदभावअन्यायहिंसा एवं शोषण को बढ़ावा देता है और जो सामाजिकआर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था को संघर्ष एवं विनाश की ओर ले जाता है। 18 मई 1940 को प्रकाशित ‘हरिजन’ समाचार पत्र में गांधीजी ने लिखा था कि, “पाश्चात्य के लोकतांत्रिक राजनीति के अंतर्गत पूँजीवाद का असीम प्रसार हुआ जिसके फलस्वरूप दुर्बल जातियों का डटकर शोषण किया गया। लोकतंत्र का जो व्यावहारिक रूप हमें आज देखने को मिलता हैवह शुद्ध नाजीवाद और फासीवाद है। अधिक से अधिक वह साम्राज्यवाद की नाजीवादी और फासीवादी प्रवृत्तियाँ को छिपाने का आवरण है।” वर्तमान वैश्विक परिदृश्य पर अगर हम नजर डालें तो गांधीजी का यह कथन आज भी साम्राज्यवादी शक्तियों के कुत्सित व्यवहारों को उद्घाटित करता है।

सामग्री और क्रियाविधि
अध्ययन पद्धति प्रस्तुत शोध पत्र हेतु वर्णनात्मक एवं विश्लेषणात्मक शोध पद्धति का उपयोग किया गया है और दितीय स्रोतों का उपयोग किया गया है।
विश्लेषण

वास्तव में गांधीजीने समाज में व्याप्त शोषणकारी विघटनकारी एवं हिंसावादी शक्तियों को बहुत अच्छी तरह से पहचान लिया था और इनके विरुद्ध समानतासामाजिक न्यायअहिंसासत्यनैतिकताऔर धर्म संबंधित चिंतन को प्रस्तुत कर एक ऐसी कल्याणकारी समाज की स्थापना का मार्ग समस्त विश्व जगत को दिखायाजिस पर चलने से अन्यायभेदभावशोषणअस्पृश्यताभौतिकवादी लिप्सा आदि से न सिर्फ मानव समाज को मुक्ति मिल सकती है बल्कि नैतिकता एवं मानवीय मूल्यों पर आधारित शोषण रहित समाज की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। वास्तव मेंउन्होंने मानव समाज में व्याप्त कुरीतियों और समस्याओं का समाधान भारतविद्याशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया। उन्होंने समाज की समस्याओं का निराकरण प्राचीन भारतीय इतिहासपुराणधर्म ग्रंथ एवं शास्त्रों के आधार पर करने का प्रयास किया। उनके सिद्धांतों और दर्शन में आध्यात्मवाद एवं धर्म का प्रमुख स्थान है। उनके अनुसारधर्म और आध्यात्मिकता के अभाव में शोषणरहित समानतावादी समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

निष्कर्ष
संक्षेप में, गांधीजी ने जीवनपर्यंत आर्थिक समानता, अस्प्रश्यता निराकरण, नारी उत्थान एवं शिक्षा, कुटीर उद्योगों का विकास, सत्याग्रह, अपरिग्रह, आत्मसंयम, सर्वधर्म समभाव, सर्वोदय, अहिंसा, स्वदेशी, आत्मसंयम, आध्यात्मिक समाजवाद जैसे सिद्धांत एवं दर्शन को स्थापित करने का प्रयास किया, वे जितनी प्रासंगिक 20 वीं सदी में थे, वे वर्तमान में भी उतने ही प्रासंगिक है ।उन्होंने भारत विद्याशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में तत्कालीन समाज की समस्याओं की व्याख्या और समाधान प्रस्तुत किया। वह वर्तमान में, विद्यमान समस्याओं के निदान में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। उनके द्वारा की गई पश्चिमी सभ्यता के पतन ओर विनाश की भविष्यवाणी उस समय सत्य सिद्ध हुई जब यूरेशिया का विघटन हुआ। अतः गांधीजी के सिद्धांत और दर्शन का समाजशास्त्रीय विवेचन कर वर्तमान में संपूर्ण विश्व समाज द्वारा उनके नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण को अंगीकार कर ले तो गांधीजी के अहिंसात्मक समाज का स्वप्न साकार हो सकता है और वर्तमान की आतंकवाद आर्थिक एवं सामाजिक विषमता युद्ध शोषण आदि से संपूर्ण विश्व मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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