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21वीं सदी की हिंदी कविता में चित्रित मानव जीवन | |||||||
Human Life Depicted in 21st Century Hindi poetry | |||||||
Paper Id :
16227 Submission Date :
2022-07-18 Acceptance Date :
2022-07-20 Publication Date :
2022-07-25
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सारांश |
वर्तमान समय भूमंडलीकरण और बाजारीकरण का है जिससे जीवन मूल्य पर भी बाजार और स्वार्थ प्रबल हो गया है जिसके फलस्वरुप संवेदना तत्व पलायन कर गया है । जिसका प्रभाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दिखाई देने लगा है फिर चाहे वह वर्ग भेद के रूप में हो, आर्थिक विषमता, बेरोजगारी और महामारी के रूप में ही क्यों न हो, यह चाहे किसी रूप में हो, यह मानवीय संवेदनाओं में हलचल पैदा कर रहा है । आज समाज ने भले ही भौतिक उन्नति कर ली हो लेकिन अब भी उसे मानसिक शुद्धि और शांति की नितांत आवश्यकता है । 21वीं सदी की कविता निरंतर विकसित होते मानवीय मूल्यों एवं पारस्परिक संबंधों में चेतना लाने के लिए लगातार रूप में प्रयासरत है । 21वीं सदी तक आते&आते साम्राज्यवादी शक्तियों का मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रवेश हो गया है । वैश्वीकरण, मुक्त बाजारवाद, विकृत उपभोक्तावाद, राजनीतिक अधिनायकवाद, मूल्यों का विघटन, संस्कृतियों का संघर्ष, पूंजीवाद का प्रभुत्व एवं भ्रष्टाचार आदि हमारे समाज में पनप गए हैं । 21वीं सदी की कविता पुरानी घिसी पिटी लकीरों पर चलने के बजाय अपना नया रास्ता चुनती है। नए तेवर अपनाती है। नवीनतम विषय वस्तुओं को अपनाती है। बेकारी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, व्यभिचार, अनाचार, दुराचार आदि तमाम विषयों को इस युग की कविता ने स्वीकार कर लिया है । 21वीं सदी की कविता मानव जीवन के सभी पहलू सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक को यथार्थ रूप से अभिव्यक्त करती है ।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The present time is of globalization and marketization, due to which the market and selfishness have prevailed even on the value of life, as a result of which the sensitive element has fled. The effect of which is visible in every sphere of life, whether it is in the form of class distinction, economic inequality, unemployment and epidemic, whether it is in any form, it is creating a stir in human sensibilities. Is . Today the society may have made material progress but still it is in dire need of mental purification and peace. The poetry of the 21st century is constantly striving to bring consciousness to the ever-evolving human values and interpersonal relationships. By the 21st century, imperialist powers have entered every sphere of human life. Globalization, free marketism, perverted consumerism, political authoritarianism, disintegration of values, clash of cultures, dominance of capitalism and corruption etc. have flourished in our society. The poetry of the 21st century instead of following the old worn out lines, chooses its own new path. adopts new attitudes. Adopts the latest themes & items. The poetry of this era has accepted all the subjects of unemployment, unemployment, corruption, atrocities, adultery, incest, malpractices etc. The poetry of the 21st century realistically expresses all aspects of human life, social, economic, religious, political. | ||||||
मुख्य शब्द | बीजांकुर, वैश्वीकरण, बाजारवाद, अधिनायकवाद, भ्रष्टाचार, भूमंडलीकरण, व्यभिचार, अनाचार, पूँजीवाद, उदारीकरण। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Seedlings, Globalization, Marketism, Authoritarianism, Corruption, Globalization, Adultery, Incest, Capitalism, Liberalization. | ||||||
प्रस्तावना |
21वीं सदी की हिंदी कविता अपने साथ समय की परिवर्तनशीलता को लेकर साहित्य क्षितिज पर उदित होती हुई सामने आयी है। इक्कीसवी सदी की कविता की चर्चा की जाये तो बीसवीं सदी के अंतिम तीन दशकों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। क्योंकि इस कविता का बीजांकुर इन्ही दशकों की कविताओं में निहित है। इस सदी की हिंदी कविता के जितने भी महत्वपूर्ण कवि हुए हैं उनकी साहित्यिक पृष्ठभूमि बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ही बन गई थी। इस सदी की हिंदी कविता को बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की हिंदी कविता का ही विस्तार समझा जाये तो अनुचित नहीं होगा। साहित्य समाज सापेक्ष होता है इसलिए इस पर समाज का हाथ निश्चित रूप से होता है। रचनाकार समाज का अंग होने के कारण इस दिशा में सक्रिय रहता है और अपनी सृजनात्मक क्रियाशीलता के माध्यम से वह समय सापेक्ष परिस्थितियों को उजागर करता हुआ आगे बढ़ता है अर्थात उसके काव्य में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उसका युग बोलता है अतः किसी भी युग की परिस्थितियों को जानना है तो साहित्य का अध्ययन आवश्यक हो जाता है।
समय को समझे बिना साहित्य को समझना दुष्कर होता है। आधुनिक समय में तथाकथित विकास में कुछ उपकरण हमें निश्चित रूप से प्रदान किये हैं परंतु इन उपकरणों तक हमारी पहुँच उनके नियंत्रण से बाहर थी इसलिए हम तक पहुंच सकी। इसे उदारता तो नहीं कहा जा सकता है। बाजार हमारे घरों के भीतर प्रवेशित हो चुका है। उसकी नजरों में हम उपभोक्ता के सिवाय और कुछ नहीं है। समय कठिन है, नया है। कविता इस समय को कितना पकड़ पा रही है यह सोचने के साथ-साथ चिंता का विषय है। संख्यात्मक दृष्टि से भला ऐसी कविताएं कम है जिनमें समग्रता से समय को पढ़ा और समझा जा सकता है। 21वीं सदी की हिंदी कविता का स्वर केदार, बद्री, राजेश, मंगलेश तक सीमित नहीं है उसके किसी ग्रह-कोण में सुरेश, निशांत, आत्मारंजन, कमलजीत चौधरी जैसी आवाजें भी अपना आलाप साध रही है। आज की कविता को समझने की और आदमी की आंखों में पढ़े जाने की जरूरत है।
वर्तमान समय भूमंडलीकरण का होने के कारण बीसवीं सदी के अंतिम दशक और इक्कीसवी सदी का प्रथम दशक का सामयिक यथार्थ दोनों नितांत भिन्न है। साम्राज्यवादी शक्तियों का मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रवेश हो गया है। वैश्वीकरण, मुक्तबाजारवाद, विकृत उपभोक्तावाद, राजनीतिक अधिनायकवाद, मूल्यों का विघटन, संस्कृतियों का संघर्ष, पूँजीवाद का प्रभुत्व एवं भ्रष्टाचार आदि। पाश्चात्य प्रभाव के कारण भारतीय सभ्यता व संस्कृति का ह्रास होने लगा है। ऐसी स्थिति में भारतीय समाज की अपनी संस्कृति के मूल्यों से आस्था उठने लगी है। वर्तमान में भारतीय समाज चारों तरफ से अन्याय, शोषण व भ्रष्टाचार से घिरा हुआ है।
वर्तमान युग बाजारीकरण का युग है जिससे जीवन मूल्य पर भी बाजार और स्वार्थ प्रबल हो गया है । जिसके फलस्वरूप संवेदना तत्व पलायन कर गया है, जिसका प्रभाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दिखाई देने लगा है फिर चाहे वह वर्ग भेद के रूप में हो आर्थिक विषमता, बेरोजगारी और महामारी के रूप में ही क्यों न हो, यह चाहे किसी रूप में हो, यह मानवीय संवेदनाओं में हलचल पैदा कर रहा है। आज समाज ने भले ही भौतिक उन्नति कर ली हो लेकिन अब भी उसे मानसिक शुद्धि और शांति की नितांत आवश्यकता है। 21वीं सदी की कविता निरंतर विकसित होते मानवीय मूल्य एवं पारस्परिक संबंधों में चेतना लाने के लिए लगातार रूप में प्रयासरत है परंतु युवा पीढ़ी पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के रंग में रंग कर दिग्भ्रमित हो गयी है जिसकी अंतिम परिणति कुंठा और हताशा के रूप में दिखाई देती है। आज पारिवारिक सामाजिक मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है। पारस्परिक रिश्तो को स्वार्थ ने घेर लिया है। शिथिल होते रिश्तो के प्रति चिंता की अभिव्यक्ति आज का कवि किस प्रकार करता है-
"रिटायर्ड पापा बूढ़ी माँ और लाडले छोटे की लाडली
नीलू में धीरे & धीरे प्रवेश करती उदासी से
भयभीत रहने लगा है घर
हर महीने की पहली शाम के अलावा।"
21वीं सदी की कविता कुछ पुरानी घिसी-पिटी लकीरों पर चलने के बजाय अपना नया रास्ता चुनती है, नए तेवर अपनाती है, नवीनतम विषय, वस्तुओं को अपनाती है। बेकारी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, व्यभिचार, अनाचार, दुराचार आदि तमाम विषयों को इस युग की कविता ने स्वीकार कर लिया है। 21वीं सदी के संदर्भ में प्रभाकर श्रोत्रिय अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं- "अपनी सदी की ओर हम कई संभावनाओं, आशंकाओं और प्रश्नों से देख रहे हैं। यह प्रश्न, विज्ञान, विचार, राजनीति, अर्थशास्त्र, जाति, धर्म, पर्यावरण, सूचना प्रौद्योगिकी, कला, संस्कृति, हमारी मिट्टी, हमारी जनता से जुड़े हैं और ये सभी चीजें साहित्य से जुड़ी है क्योंकि इन्हीं सब तत्वों और उपादानो से साहित्य अपना कथ्य और प्राणवायु ग्रहण करता है।[1]
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अध्ययन का उद्देश्य | इस आलेख का मुख्य उद्देश्य 21वीं सदी की कविता के माध्यम से मानव जीवन के सभी पहलु - सामाजिक जीवन, आर्थिक जीवन, धार्मिक जीवन और राजनीतिक जीवन के साथ नारी की स्थिति का यथार्थ चित्रण करते हुये तदयुगीन प्रवृतियों, समस्याओं, विकृतियों व मनोवृत्तियों को सामने लाना रहा है । यह बताने का प्रयास रहा है कि इस सदी की कविता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिवर्तन लेकर सामने आती है । इस सदी की कविता में चित्रित मानव जीवन तनाव, विसंगतियों एवं कुण्ठाओं से युक्त है। बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, दुराचार, अनाचार जैसे तमाम विषयों को इस युग की कविता ने स्वीकार किया है। वैश्वीकरण का युग होने के कारण हम आर्थिक गुलामी की ओर बढ़ रहे हैं। महंगाई बढ़ रही है तथा विदेशी ऋणग्रस्तता में वृद्धि हो रही है। |
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साहित्यावलोकन | इक्कीसवी
सदी की हिंदी कविता पर अनेक लेखकों द्वारा पूर्व में कार्य किया जा चुका है।
उन्होंने उनके माध्यम से परिवेशगत यथार्थ को तथा
मानव जीवन की समस्याओं, विसंगतियों को
हमारे सामने प्रस्तुत किया है। मनोज कुमार श्रीवास्तव का आलेख 21वीं सदी का साहित्य और सांस्कृतिक चेतना में उन्होंने 21 वी सदी से साक्षात्कार करवाया है तथा यह बताने का प्रयास किया है कि
साहित्य जीवन, समाज और राष्ट्र की ज्वलंत समस्या हमारे
सामने प्रस्तुत करता है। डॉ- राजेंद्र कुमार सिंह जी ने इक्कीसवी सदी का पहला दशक
हिंदी कविता लेख में 21वीं सदी के
यथार्थ को प्रस्तुत किया है & डॉ- पंडित बत्रे ने 21वीं सदी की हिंदी कविता बदलते सरोकार में झ्स सदी के जीवन व उससे जुड़ी
तमाम समस्याओ, विसंगतियो व समय के यथार्थ को प्रस्तुत
किया है। डॉ- बबीता तंवर ने 21वीं सदी की हिंदी कविता में
परिवेश में तत्कालीन परिवेश को निरूपित किया है परन्तु अभी तक इक्कीसवी सदी की
हिन्दी कविता व मkनव जीवन पर विद्वानों का ध्यान नहीं गया
था। अतः इस आलेख में इस सदी के यथार्थ को प्रस्तुत करते हुये तत्कालीन सामाजिक
जीवन, आर्थिक जीवन, धार्मिक जीवन
व राजनीतिक जीवन को निरूपित करने का प्रयास किया गया है। |
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मुख्य पाठ |
सामाजिक जीवन साहित्य और समाज एक दूसरे के पूरक होते हैं। साहित्य समाज का दर्पण है तो समाज भी साहित्य का दर्पण होता है।साहित्य हृदय की भावनाओं के प्रकटीकरण का उत्तम और सशक्त माध्यम है।प्रत्येक साहित्यकार अपनी भावनाओं को व्यंग और चिंतन अथवा समसामयिक विषयों के माध्यम से उजागर करता है।अन्य कालो की अपेक्षा 21वीं सदी के समाज में समस्याओं की विविधता व व्यापकता हैं। इसलिए साहित्यकार अपने आस-पास जो भी देखता है और भोगता है उसे अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत कर समाज को दिशा देने का कार्य करता है।समाज की सबसे बड़ी कुरीति 'दहेज प्रथा' को श्री महेंद्र श्रीवास्तव अपनी रचना 'दहेज' के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त करते है- दर्द भरा एक सा प्रलय, भाग्यविधाता क्यों कर लाता, अबलाओं पर यह भय। सच है जली थी लंका, लेकिन कब तक कितनी सीताएं, देंगी अग्नि परीक्षा। नीर बहाकर नारी हर क्षण सहकर भीषण पतझड़ लिखती है मौन कहानी ।।[2] इसी प्रकार विवाहों के अवसर पर बाराती प्रथा के मनमाने ढंग
से चलन में बरती जाने वाली असावधानियाँ और दुर्घटनाओं पर सुजीत नवदीप ने लिखा है - गाँव-गाँव शहर - शहर शोर है, मेटाडोर, जीप बस ट्रैक्टर में बाराती भरे जा रहे हैं, दुर्घटनाएं रोज हो रही है, फिर भी लोग बारात के लिए मरे जा रहे हैं।[3] बेरोजगारी के साथ-साथ बदलते परिवेश में पढ़े -लिखे युवाओं
की बदलती मानसिकता पर भी कवि ने लिखा है - "अब पढ़ - लिख कर बच्चे पैकेज हो गये हैं, विदेशों में नौकरी करनी है इसलिए हर क्षेत्र में तेज हो गए हैं ।[4] वर्तमान युवा पीढ़ी पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगकर अपने
संस्कारों को भूल गयी है । रमेश कुमार सिंह चौहान ने अपनी कृति ' दो रंगी तस्वीर 'में लिखा है - "फैशन के चक्कर में, पश्चिम के चक्कर में, भूले निज संस्कारों को, हिंदी नर - नारियां, अश्लील गीत - गान को, नंगाय परिधान को, शर्म - हया के देश में, मिलती क्यों तालियाँ ।"[5] 21वीं सदी की कविता स्त्री पीड़ा की भी
व्यापक चर्चा हुई है । भारतीय समाज की विद्रूपताओं में नारी के साथ समानता का
व्यवहार नहीं किया गया है ।आज भी बेटी जैसे- जैसे बड़ी होती जाती है सामाजिक
बंधनों की बेड़ियों से उसे बांध दिया जाता है। उसके सपनों का, हंसी का, दु:ख का व पीड़ा का मोल नहीं होता है ।नारी
को हमेशा ही पीड़ा उपहार स्वरूप मिलती रही है चाहे वह बड़े घर की बेटी हो
या छोटे घर की । बड़े घर की बहू को कार से उतरते देखा । और फिर अपनी । पाँव की बिवाइयाँ । फटी जुराब से ढँकी हुई । एक बात तो मिलती थी । फिर भी उन दोनों में ।। दोनों की आँख के पोर गीले थे ।[6] नारी संघर्ष आज भी कायम है। वह अपने अस्तित्व की रक्षा करने
के लिये तत्पर रहती है।आज भी स्त्री अपने अधिकारों के प्रति जागृत होने का प्रयास
करती हुई दिखाई देती है। यहां तक कि वह स्वयं गर्भपात करवाने की भी हिम्मत रखती
है- भाई साहब! हम उस देश के रक्षक है, परिवार नियोजन के पक्के समर्थक है । उन्होंने जब - जब भी जन्म लेना चाहा है, तब & तब मैंने स्वयं ही गर्भपात करवाया
है।।[7] धार्मिक जीवन 21वीं सदी में भूमंडलीकरण और बाजारवाद के साथ
एक प्रमुख विकृति ने इस दशक में जन्म लिया, वह है-
धर्मोन्माद। जहां सभ्यता को भी धर्म का पर्याय बनाकर प्रस्तुत कर दिया गया है।
फलत-घृणा, हिंसा और प्रतिशोध की आग में बस्तियां जल रही है
और उसकी आँच एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँच रही है। इस उन्माद के पश्चात जो
बचता है - कि कहीं मिलता है आधा जला हुआ दुपट्टा, कहीं आधा जला हुआ खिलौना, कहीं अधजली बीड़ी, कहीं दमकलो के पाइप कहीं दिलजले कहीं-कहीं तो केवल जलन मालूम होते हैं।[8] अनुपम वर्मा ने अपनी कृति 'दस्तक' में देश में धार्मिक रूप से भड़कने वाले दंगों का उल्लेख कर लिखना है - दंगों में हजारों लोग मारे गये, बस्तियां लुट गई, जलते चूल्हे जलकर, खाक हो गये।[9] श्री सुजीत नवदीप ने वर्तमान में लगातार हो रहे धार्मिक
आयोजनों के बाद भी व्यक्तियों के मन में किसी भी प्रकार का कोई पवित्र परिवर्तन
नहीं होने को लेकर लिखा है - गाँव - गाँव में, धार्मिक आयोजन हो रहें है, अपने अन्दर के कलुष को, धो रहें है। राम की कथा सुन रहे हैं, पवित्रता कैसे आयेगी, गुन रहे है।[10] ऐसे टकराहट व तनावपूर्ण धार्मिक उन्माद के समय में गुजरे
समय के उस सौहार्द की याद मनोमस्तिष्क में उमड़नेलगती है, जहां संगीत व कविता पर देश का सम्राट मुग्ध होता था और उसके सदके में अपना
सिर झुका लेता था उनके सदके में अपना सिर झुका लेता
था- यह जानते हुए कि बादशाहों के महलों से दूर भी एक सल्तनत हुआ करती है एक साम्राज्य का खजाना बिखरा रहता है। जहाँ कोई अकबर सादे लिबास में जाता है। और एक दीवानी मीरा की आवाज के सदके में। चुपचाप अपना सिर नवाता है।[11] आर्थिक जीवन 21वीं सदी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में
परिवर्तन लेकर सामने आती है। इस सदी की कविता में चित्रित मानव जीवन तनाव,
विसंगतियों एवं कुण्ठाओं से युक्त है।बेकारी, बेरोजगारी,
भ्रष्टाचार, अत्याचार, व्यभिचार,
अनाचार, दुराचार जैसे तमाम विषयों को इस युग
की कविता ने स्वीकार किया है। वैश्वीकरण का युग होने के कारण हम आर्थिक गुलामी की
ओर बढ़ रहे हैं। देश की अर्थव्यवस्था जर्जर हो गई है। महंगाई आम जनता को मार रही
है तथा विदेशी ऋणग्रस्तता में वृद्धि हो रही है। इसी क्रम में धीरेंद्र मिश्र ने
समाज में व्याप्त रिश्वतखोरी का चित्रण करते हुए लिखा है - नीलगगन सा बेकारी का साया है। कुछ निशा सी महंगाई की छाया है। शासन का दीपक मरघट सा जलता है। रिश्वत का रथ राजमार्ग पर चलता है।[12] वैश्वीकरण के फलस्वरुप बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आविष्कार
ने पूंजीवादी व्यवस्था को एक नयी सोच दी। इसी सोच ने विखंडित मानसिकता को जन्म
दिया। इस प्रकार बाजारवाद से अनेक विचारों, भावनाओं और इच्छाओं की अन्तहीनता का
जन्म हुआ। साथ ही नई-नई जरूरतों को भी बढ़ावा मिला ।इस संदर्भ में राजेश जोशी
ने लिखा है - "बाजार से लेने जाता हूँ जरूरत की कोई
चीज। तो साथ ही थमा दी जाती है एक और चीज मुफ्त। उस चीज की कोई जरूरत नहीं मुझे। पर लेने से इंकार नहीं कर पाता उसे। और बस इसी एक पल में पकड़ लिया जाता हूँ। उसी अतिरिक्त के लिए जरूरत की चीजों के बीच। थोड़ी जगह बनाता हूँ। जो जरूरी चीजों की जगह थोड़ा। सिकुड़ जाता हूँ।[13] वैश्विक स्तर पर आर्थिक उदारीकरण आधारित नई विश्व व्यवस्था, उच्च तकनीक, जनसंचार का प्रसार, विश्वग्राम के जन्नत
की हकीकत को पूरी दुनिया नव-उपनिवेशवाद के रूप में
पहचानने लगी है।[14] यह सब अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक व अमेरिकी प्रभुत्व की त्रयी का परिणाम है। जिसने आम आदमी से
पानी, सड़क, बिजली जैसी मूलभूत सुविधाओं
को भी छीन लिया है- 'दरअसल अनाज है इस देश में और पृथ्वी पर, बहुतायत औषधियाँ पर्याप्त हैं, योग्य और कुशल हाथ और दिमाग भी सभी जानकारियाँ अवसर और स्थितियाँ उपलब्ध हैं कंप्यूटर और आंकड़ों में *** यदि नागरिक के पास नहीं है पानी , सड़क और बिजली तो यह सिर्फ समस्याएँ हैं।"[15] 21वीं सदी का मध्यमवर्ग चकाचौंध की दुनिया
में आकर भ्रम और अनिर्णय का शिकार हो गया है। जैसे ही उसे मुनाफा दिखाई देता है वह
दौड़ लगाने शुरू कर देता है।जबकि उसे गंतव्य का ज्ञान नहीं होता है। आडम्बर युक्त
संस्कृति को ही वह जीवन की खुशहाली मान रहता है तथा अपनी मौन - प्रतिक्रिया में ही
शांति चाहता है।विसंगतियों का प्रत्युत्तर न देकर वह चुप हो जाता है- एक गन्दी अंधेरी गली में परिवार पालता। वह अपनी नहीं दूसरों के सम्पर्क की। अन्तहीन कथा कहता है और एक दिन कर जाता है। हम कुछ नहीं कहते।[16] राजनीतिक जीवन 21 वी सदी की कविता युगीन यथार्थ को लेकर
अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। इसमें वर्तमान राजनीति के सभी पहलू झूठ, छल-प्रपंच, कपट, षड्यंत्र और
बैर भावना प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती है।वर्तमान में राजनेताओं
द्वारा किया जा रहा भ्रष्टाचार और को उदय भानु हंस जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है- "सभी क्षेत्रों में पनप रहा है
भ्रष्टाचार निरंतर] आज अधिक जो भीड़ जुटा ले, नेता वही धुरंधर। पद की ही पूजा और अब तो सत्ता का सम्मान, स्वार्थ & सिद्धि ही ध्येय बन गई, पैसा ही भगवान।।[17] वर्तमान के नेता राजनीति के सिद्धांतों को छोड़ अपनी
महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में ही लगे रहते हैं । उनकी कथनी और करनी में अंतर हो
गया है। राजनीतिक मूल्यों का अवमूल्यन हो गया है। चुनाव के समय अनेक वादो और
घोषणाओं के साथ जनता के बीच में जाते हैं, लेकिन चुनाव के उपरांत विजय
प्राप्त करने के बाद उन सब को भूल जाते हैं। नेताओं की इसी मनोवृत्ति को हंस जी ने
इस प्रकार व्यक्त किया है- मिट ना सकेगी कभी गरीबी, कागज पर योजना बनाकर, कैसे खाली पेट भरेंगे, आकर्षक आंकड़े चबाकर। कितना गीता ज्ञान सुनाओ, या समता का शोर मचाओ। जब तक हो ना हृदय परिवर्तन, युग परिवर्तन व्यर्थ रहेगा।।[18] *** *** *** राजनीति के रंगमंच पर नाच रहे हैं खलनायक। आज दल -बदल की, दलदल में गिरगिट बने विधायक। बिक जाते दो पल में, सुनकर चांदी की झंकार।[19] |
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निष्कर्ष |
21वीं सदी की कविता अपने समय के यथार्थ को अभिव्यक्त करने में पूर्ण सफल है। इस सदी के कवि अपनी कविताओं में तत्कालीन समस्याओ,विद्रूपताओं के प्रति आक्रोश रखने के साथ-साथ मौजूदा व्यवस्था में परिवर्तन के आकांक्षी रहे है। एक तरफ तो वे नवीन जीवन-मूल्यों और विचारों को महत्त्व देना चाहते है, दूसरी तरफ समाज और संस्कारों के प्रति उसका मोह देखने को मिलता है। इस सदी की कविता ने कुछ पुरानी घिसी-पिटी लकीरों पर चलने के बजाय अपना नया रास्ता चुना है । नए तेवर अपनाया है, नवीनतम विषय-वस्तुओं को अपनाया है। बेकारी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, व्यभिचार, अनाचार, दुराचार आदि तमाम विषयों को इस युग की कविता ने स्वीकार कर लिया है। 21वीं सदी के संदर्भ में प्रभाकर श्रोत्रिय अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं- "अपनी सदी की ओर हम कई संभावनाओं, आकांक्षाओं और प्रश्नों से देख रहे हैं। यह प्रश्न विज्ञान, विचार, राजनीति, अर्थशास्त्र, जाति, धर्म, पर्यावरण, सूचना प्रौद्योगिकी, कला, संस्कृति, हमारी मिट्टी, हमारी जनता से हैं और यह सभी चीजें साहित्य से जुड़ी है क्योंकि इन्हीं सब तत्वों और उपादान उसे साहित्य अपना कथ्य और प्राणवायु ग्रहण करता है। इस सदी की कविता मानव जीवन के सभी पहलु सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीति को समेट हमारे सामने आती है। युगीन प्रवृत्तियाँ और विकृतियों सें साक्षात्कार करवाती हैI |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. बागार्थ पत्रिका दिसंबर 2009 पृष्ठ संख्या 70
2. महेंद्र श्रीवास्तव और दहेज कविता
3. सुरजीत नवदीप और रावण कब मरेगा
4. सुरजीत नवदीप और रावण कब मरेगा
5. रमेश कुमार सिंह चौहान और दो रंगी तस्वीर
6. वर्तिका नंदा और बहूरानी तद्भव अंक, 20 पृ- 132
7. डॉ- एनसिंह और सतह से उठते हुई, पृ- 24
8. अष्टभुजा शुक्ल और बस्ती एक धीमा जहर है । अंक 10 पृ -113
9. अनुपम वर्मा और दस्तक
10. सुजीत नवदीप और रावण कब मरेगा
11. यतींद्र मिश्र और तानसेन के बहाने अंक 9 पृ- 195
12. वीरेंद्र मिश्र और हिंदी साहित्य का आधुनिक काल
13. ज्ञानरंजन और पहल 90 पृ-104 सितंबर, अक्टूबर 2006
14. राजाराम भादू और मधुमति फरवरी 2003 पृ- 65
15. नवल शुक्ल और संरचनाओं के बदले समय अंक 13 पृ- 160
16. ऋतुराज और हम कुछ नहीं कहते अंक 21 पृ- 150
17. डॉ- रामजन पांडे उदयभानु हंस के प्रतिनिधि गीत समय की चुनौती पृ- 85
18. उदयभानु हंस के प्रतिनिधि गीत और अमृत कलश पृ- 28
19. उदयभानु हंस और नैया कौन लगाए पार पृ- 47 |