P: ISSN No. 2394-0344 RNI No.  UPBIL/2016/67980 VOL.- VI , ISSUE- XI February  - 2022
E: ISSN No. 2455-0817 Remarking An Analisation
भूमण्ड़लीकरण और महिला अस्मिता के समक्ष चुनौतियॉं
Challenges before the Identity of Women and Globalization
Paper Id :  15743   Submission Date :  02/02/2022   Acceptance Date :  15/02/2022   Publication Date :  25/02/2022
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राजेश कुमार शर्मा
एसोसिएट प्रोफेसर
इतिहास (मध्यकालीन और आधुनिक)
राजकीय महाविद्यालय,
रूधौली, बस्ती,उत्तर प्रदेश,
भारत
पी0 एन0 डोंगरे
प्राचार्य

काशी नरेश राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
ज्ञानपुर, भदोही, उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश महिला अस्मिता के केंद्र में ‘अस्मिता’ केन्द्रीय धुरी है जिसने सदियों से हाशिये पर पड़ी महिला को बहस के केंद्र में ला दिया है। स्त्री-पुरुष में जैविक भेद तो प्रकृति प्रदत्त है, लेकिन लैंगिक(जेंडर) भेद के कारण उसकी अस्मिता संदिग्ध हो गयी है। किसी भी व्यक्ति को एक सीमा तक ही दबाया जा सकता है, अवसर पाते ही वह अपनी अस्मिता(पहचान), अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर उठता है, फिर महिला या स्त्री तो इस धरती पर मानवीय और बौद्धिक प्राणी है तो उसकी अस्मिता को शक्तिपूर्वक कब तक दबाया जा सकता है ? आज वर्षों से सुषुप्तावस्था में पड़ी महिला की सोई हुई भावना चेतन रुप से जाग उठी है और दुनिया में उसने स्वयं को स्थापित कर दिया है। महिला-विमर्श के केंद्र में ‘महिला-अस्मिता’ इसी भाव से परिचालित है। ‘महिला-अस्मिता’ एक व्यापक संकल्पना है जिसके तहत प्रत्येक महिला को उसकी शारीरिक और बैद्धिक क्षमता के विकास, प्रदर्शन और प्रयोग पर पूरी आधिकारिता प्राप्त है। वस्तुतः प्रकृति द्वारा दी गई खूबियों और सौन्दर्य को अपने सम्मान और आत्मसंयम के हिसाब से इस्तेमाल करना प्रत्येक व्यक्ति का जन्मजात अधिकार है लेकिन भूमण्डलीकरण की दौड़ में बिडम्बना यह है कि आगे निकले समूह अर्थात पुरुष हमेशा वैश्विक आबादी के ‘आधे हिस्से के अधिकारों का अतिक्रमण कर ही लेता है और महिलाएँ’ इसी अन्याय की शिकार है। अतः महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए व्यवस्था में परिवर्तन करना ही होगा। वैसे आज महिलाएॅ अपनी स्थिति को पहचान रही है, अपनी अवस्था को स्वयं आवाज़ दे रही है और खुद महसूस कर रही है कि अपने अधिकार की लड़ाई उसे खुद लड़नी है। वस्तुतः ‘स्त्री-अस्मिता’ महिला-सशक्तिकरण से जुड़ा सीधा प्रश्न है, महिलाओं को उनका सही स्थान पाने के लिए सबसे पहली शर्त यह होगी कि उन्हें समानता के धरातल पर ‘न्याय’ उपलब्ध हों, यथार्थ के धरातल पर समानता स्थापित हों। तभी विश्व की ‘आधी आबादी’ समाज के, देश के, विश्व के प्रभावी विकास में अपना अमूल्य योगदान कर पायेगी।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद At the heart of women's identity 'Identity' is the central pivot that has brought women who have been marginalized for centuries at the center of debate. The biological difference between men and women is given by nature, but due to gender differences, their identity has become doubtful. Any person can be suppressed only to a limit, as soon as he gets the opportunity, he struggles for his identity, his existence, then the woman or woman is a human and intellectual creature on this earth, then her identity is powerfully How long can it be pressed? Today, the sleeping spirit of a woman who has been dormant for years has awakened consciously and has established herself in the world. At the center of women's discourse, 'woman-identity' operates in this spirit.
'Women-identity' is a broad concept under which every woman has full authority over the development, display and use of her physical and intellectual potential. In fact, it is the innate right of every person to use the qualities and beauty given by nature according to his respect and self-restraint, but in the race of globalization, the irony is that the leading group i.e. men always encroach on the rights of 'half of the global population'. and women are the victims of this injustice. Therefore, to improve the condition of women, changes have to be made in the system. By the way, today women are recognizing their position, giving voice to their position and themselves realizing that they have to fight for their rights themselves. In fact, 'Stree-Asmita' is a direct question related to women-empowerment, the first condition for women to get their rightful place would be that 'justice' should be available to them on the ground of equality, equality should be established on the ground of reality. Only then 'half the population' of the world will be able to make an invaluable contribution to the effective development of society, country and world.
मुख्य शब्द महिला, अस्मिता, वैश्विक, समाज, उत्पीडन, सशक्तिकरण, उपभोक्तावादी, शोषण, विकास, समानता, न्याय, व्यवस्था आदि।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Women, identity, global, society, oppression, empowerment, consumerist, exploitation, development, equality, justice, order etc.
प्रस्तावना
सभ्य समाज को किसी भी अवघारणा में सामाजिक न्याय, मानवीय एवं समता के आदर्श आस्थाओं, परम्पराओं, विश्वासों तथा अहमवादी उद्वोशों से निश्चय ही श्रेश्ठ है। महिला आदर्शो और अघिकारों का प्रश्न उक्त आदर्शो का पारदर्शी मानदण्ड है। हमारे समाज में जब स्त्री के स्थान और महत्व का प्रश्न उठता है तब समाज के साथ स्त्री पुरुष के परस्पर महासम्बन्घ की बात शुरू हो जाती है। 21वीं शताब्दी इस यथार्थ का साक्षी है कि समाज का आघा हिस्सा महिलाएॅं अवांछित भेदभाव और अन्यायपूर्ण व्यवस्था की शिकार है। सन्देह इस तथ्य में भी नहीं है कि परिणामस्वरूप सम्पूर्ण प्रगति व विकास विकलांग प्रतिफलों संे ग्रस्त है क्योंकि किसी भी व्यवस्था में जब उसके समस्त धटक अभिष्ट परिस्थितीयों का उपभोग करते हुए अपना अवदान प्रदान करते है तभी वह व्यवस्था प्रगति के वांछनीय मानकों को स्पर्श कर पाती है। महिला-अस्मिता वास्तव में है क्या ? एक महिला का अस्तित्व, उसकी अपनी पहचान है। उसका यह अस्तित्व, उसकी यह पहचान समाज में किसके द्वारा तथा किन मापदंडों द्वारा और कैसे निर्धारित की जायेगी ? इस सन्दर्भ में महादेवी वर्मा के वक्तव्य को उदधृत करना समीचीन प्रतीत होता है कि- “हमें न जय चाहिए, न किसी से पराजय; न किसी पर प्रभुता चाहिए, न किसी का प्रभुत्व। केवल अपना वह स्थान, वह स्वत्व चाहिए जिनका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है, परन्तु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग बन नहीं सकेंगी।
अध्ययन का उद्देश्य आज के उदारीकरण और वैश्वीकृत युग में हमारे जीवन मूल्यों के साथ-साथ हमारा समाज इस कदर प्रभावित हुआ है कि इससे कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है। पुरुष के साथ जीवन के हर क्षेत्र में महिलाएँ भी भागीदारी कर रही है जो उनकेे स्वावलंबन का प्रतीक है। लेकिन इन सब के बावजूद यह एक विडंबना है कि जिन्होंने अपने परिवार तथा समाज के विकास के लिए अपने को मिटा दिया है वही सर्वाधिक उपेक्षित है और उन्हें अपनी पूर्ण क्षमता दिखाने का अवसर नहीं दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट, (2016) में लैंगिक असमानता सूचकांक को देखा जाए तो भारत 159 देशों में 125वें स्थान है। विश्व आर्थिक फोरम के जेंडर गैप इंडेक्स पर भी भारत 144 देशों में 108वें स्थान पर है। विशेष कर भारत मे ंहालांकि कुछ महिलाएं अचछा कर रही हें लेकिन अभी भी हम वास्तविकता से कोसो दूर है इसका कारण महिलाओं के सामने आने वाली वे सभी बाधाएं हैं जिनका सामना काम करने या घर से बाहर निकलने पर करना पड़ता है। प्रस्तुत शोधपत्र के माध्यम से हमने उन परिस्थितियों की तलाश करने का प्रयास किया है जिसके कारण महिलाओं के समक्ष उनकी अस्मिता को लेकर प्रश्न खडा होता है। साथ ही साथ वैश्वीेकरण और बाजारवाद के प्रभाव से किस प्रकार भारतीय महिलाओं को सचेत रहना है, इन चुनौतियों को भी ढूढने का हमने प्रयास किया है।
साहित्यावलोकन
प्रस्तुत शोध-पत्र को लिखने के क्रम में इस शोध का उद्देश्य तथा शोध पद्धति का विवरण प्रस्तुत करते हुए इस विषय पर लिखे गये साहित्य का अवलोकन, विश्लेषण और मूल्यांकन भी किया गया है। जैसे - किरण वेदी की पुस्तक ‘गलती किस की‘ (2017) में उन व्यक्तियों के आख्यानों को संग्रहित किया गया है जिन्होने अपनी जिन्दगी की दास्तान निर्भय और निर्बाध रुप से खुलकर सुनाई। यह पुस्तक उन वास्तविकताओं को उन समस्त व्यक्तियों के समक्ष उजागर करती है जो इन घटनाओं की रोकथाम में अपनी भूमिका निभा सकते है। इस पुस्तक में उद्धरित उन लोगों के जीवन में क्या गलत हुआ, इसके लिए किस सीमा तक वे स्वयं जिम्मेदार थे और बाह्य परिस्थितियॉ किस हद तक जिम्मेदार थी, इसका विवरण दिया गया है। रेखा कस्तवार की पुस्तक ‘स्त्री चिन्तन की चुनौतियॉ‘‘ (2009) में 20 शताब्दी के हिन्दी महिला और पुरुषों के उपन्यासों में वर्णित महिलाओं के स्वरुप, स्थिती और दशा का आलोचनात्मक चित्रण किया गया है। इस पुस्तक में पुरूष का स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण और नजरिया को बेहतर ढंग से चित्रित करने का प्रयास किया गया है। महादेवी वर्मा की पुस्तक ‘श्रृंखला की कडियॉ‘ (2010) में अनेक निबन्धो का संग्रह है जिसमें भारतीय नारी की विषम परिस्थितियों को अनेक दृष्टि बिन्दुओं से देखने का प्रयास किया गया है। भारतीय नारी के प्राणवेग जागृत करते हुए महादेवी वर्मा जी ने कहा है कि जबतक भारतीय नारी रुपी प्रकृति व्यक्त नही होगी तबतक विकृति के ध्वन्स में वह अपनी शक्तियों को उलझा कर ही रखेगी। यशस्वी कथाकार-सम्पादक राजेन्द्र यादव की रचित पुस्तक ‘आदमी की निगाह में औरत‘ (2007) में स्त्रियों के मुक्ति के मार्ग में मौजूद समस्याओं पर विश्लेषण करते हुए उसके निदान पर भी प्रकाश डाला गया है। उनकी दृष्टि में स्त्री हमारा ही अंश और विस्तार है लेकिन हमने उसे अपना उपनिवेश बना लिया है, उनकी मुक्ति हमारी मुक्ति है अर्थात गुलाम बनाये रखने वाली मानसिक गुलामी से मुक्ति है। लेखक यह भी घोषणा करता है कि वर्ष 2017 के बाद इस शीर्षक पर जो कार्य किये गये है, वह लेखक के संज्ञान में अबतक नही आये है।
मुख्य पाठ

ऐतिहासिक विकासक्रम
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से यदि देखा जाय तो वैदिक काल में भारत में स्त्रियों की सामाजिक स्थिती पुरुषों के समकक्ष थी। कालान्तर में वर्णव्यवस्था और श्रमविभाजन के अनुपालन में समाज व्यवस्था धीरे-धीरे रूग्ण होती गई। श्रम विभाजन के आधार पर जीविकोपार्जन सम्बन्धी श्रम पुरूषों और गृह संचालन व पालन पोषण श्रम स्त्रियों के भाग में आया। इसका सबसे बडा दुष्परिणाम यह हुआ कि भारतीय स्त्रियों का दायरा घर की दीवारों तक सीमित होकर रह गया। अशिक्षा और भरण पोषण के लिए पुरूष वर्ग पर निर्भरता उसके जीवन में आधारभूत समस्या के रूप में स्थापित हो गई। पीढी दर पीढी चली इस रूढिगत व्यवस्थाओं के कारण समाज में स्त्री का स्थान गौड होता चला गया। 21वीं शताब्दी में प्रबुद्ध पुरुष वर्ग के साथ स्वयं स्त्रियों ने अपनी आन्तरिक शक्ति को पहचानना शुरु किया और तबसे उनकी विकास यात्रा निर्वाध गति से चल रहीं है। लेकिन इन सब के वावजूद वास्तविकता तो यह है कि महिलाओं के जितने सकारात्मक विश्लेशण व पर्यायवाची हो सकते है, उनसे कहीं अधिक महिला उत्पीडन के विभिन्न स्वरूप है। 
उत्तर आधुनिक काल में स्त्री
विज्ञान की प्रगति व कला के विकास के पतनोन्मुख प्रभाव के साक्ष्य क्रमशः कन्या भ्रूण हत्या तथा नारी देह प्रदर्शन पर आधारित मनोरंजन में देखा जा सकता हैं। इस तथ्य के साथ विडम्बना यह जुडी है कि इस घातक प्रवृति का निर्वाह प्रायः शिक्षित परिवारों द्धारा किया जाता हैं। कन्या समाप्ति का अभियान जिस प्रकार शिक्षित, आधुनिक व सभ्य समाज द्धारा चलाया जा रहा है उसका सर्वोपरि कारण पुत्र प्रेम है जो अपनी जडें सदियों पुरानी उस धारणा में पाता है जिसमें पुत्र को कुलतारणकी उपाधि प्राप्त थी। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि कन्याओं से मुक्ति की जो भावना सशक्त हो रहीं है उसका एक बडा कारण कन्या के पालन पोषण से लेकर उसके पूरे जीवन काल में असुरक्षा का जो ताना बाना घिरा दिखाई देता है, वह भी है। कन्या भ्रूण हत्या जैसी अमानवीय प्रवृतियॉ यदि नहीं रोकी गई तो उसका सबसे पहला प्रभाव भारतीय सामाजिक व्यवस्था की आधारभूत संस्था विवाह के स्वरूप  पर पडना अवश्यंभावी है। समाज में संतुलन हेतु यह आवश्यक है कि स्त्री पुरूष अनुपात में भी संतुलन बना रहे। यदि यह अनुपात असंतुलित हो रहा है तो संबंधित समाज इसके दुष्प्रभाव से अछूता नहीं रहेगा। क्या कोई समाज मात्र पुरूषों के आधार पर जीवित रह सकता है। चिन्तन का प्रश्न यह भी है कि क्या मॉं, बहन, बेटी, पत्नी, और प्रेमिका का कोई स्वस्थ विकल्प उपलब्ध है। इन सम्बन्धों पर आधारित कोमल भावनाओं की तृप्ति का कोई दूसरा रास्ता है और क्या कोई पुरूष इन भावनाओं से रहित होकर स्वस्थ जीवन जी सकेगा।
बलात्कारके स्थान पर ‘‘यौन हिंसा‘‘ शब्द का प्रयोग इस अपराध की गंभाीरता व संवेदनशीलता का समुचित प्रदर्शन करता हैै। इस प्रकार की हिंसा की सबसे बडी बिडम्बना यह यह है कि इसकी भुक्तभोगी शारीरिक कष्ट के साथ साथ मानसिक यंत्रणा का दारूण दुख भी भोगने को विवश होती है जबकि वह पूरी तरह निर्दोष होती है। एक सर्वेक्षण के रिपोर्ट के अनुसार जहॉ बलात्कार की एक खबर सामने आती है वहीं 68 मामले रोशनी में आते ही नहीं है। छेडछाड की एक घटना की प्राथमिकी दर्ज की जाती है तो 374 मामलों का जिक्र तक नहीं होता है। एक अन्य सर्वेक्षण में शामिल लगभग 52 प्रतिशत लोगो ने पीडित महिला को उसके अनुचित पहनावे, व्यवहार और चाल से बलात्कार, अथवा छेडखानी का न्योता देने के लिए जिम्मेदार माना, 54 प्रतिशत लोगों ने बलात्कार के लिए पुरूषों के दुराचार की जगह शराब को जिम्मेदार ठहराया। ऐसे विचारों को मात्र पुरूषवादी दृष्टिकोण कहकर अस्वीकार करना अत्यन्त शीध्रता के आरोप से तो ग्रसित नहीं है, यह देखना अनुचित नहीं होगा।
बाजारवाद का प्रभाव
उपभोक्तावादी संस्कृति के सहउत्पाद के रूप में टीवी चैनलों द्वारा जिस प्रकार की कहानियॉ, दृश्य, संगीत और गीत प्रस्तुत किये जा रहे है, उनके प्रभाव तब और घातक हो उठते है जब उफनते हुए मनोभावों को व्यस्तता, आवास की संकीर्णता, आयु की अपरिपक्वता, नशे की प्रवृति और विस्तृत होती उन्मुक्तता के कारण समाज व विधि सम्मत राह प्राप्त नहीं होती है। ऐसे में यौन हिंसा को अस्तित्व में आने से रोक पाना असंभव हो जाता है। निःसन्देह यौन हिंसा वह घृणित अपराध है जो पीडित को शेष जीवन के लिए अपमान के गरम रेत पर तडपने को विवश कर देता है तो कुकृत्यकर्ता पूरे सामाजिक व वैधानिक ढॉचे पर अमानवीयता व अपरिपक्वता का कालिख पोत देता है।
कुपोषण, अशिक्षा, मातृत्व मृत्युदर, अत्यधिक कार्यं, अभद्रता, भेदभाव और दमन आदि वे शब्द है जो प्रत्येक महिला के प्रारब्ध में प्रायः अंकित होते है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अघ्ययन के अनुसार औसतन 06 महिलाओं में से 01 घरेलू हिंसा का शिकार होती है। अध्ययनकर्ता का कहना है कि इस प्रकार के हिंसक वातावरण में पलने वाले बच्चे ऐसी घटनाओं को सामान्य दिनचर्या मानकर बाद में स्वयं इसे व्यवहार में लाते है। यह कहना भारतीय महिला की दुर्दशा से पूरी तरह असम्बद्ध है, यह सोचना उचित नहीं है। एक अघ्ययन के अनुसार महिला अपनी आय को स्वेच्छानुसार व्यय भी नहीं कर सकती है। दिल्ली में 22 प्रतिशत, मुम्बई में 21 प्रतिशत, कोलकाता में 70 प्रतिशत, चेन्नई में 18 प्रतिशत और हैदराबाद में 21 प्रतिशत महिलाएॅ ही अपनी आय का स्वेच्छानुसार उपयोग कर पाती है। 17 में से एक लडकी अनिवार्य रूप से बाल विवाह की शिकार हो रही है।
लडकियों के प्रति असमानता का जो व्यवहार हो रहा है, उसके पीछे भी वही दृष्टिकोण है कि निवेश लाभप्रद नहीं होगा। यह दृष्टिकोण भी प्रभावकारी होता है लडकी पराया घन होता है और पराया घन अस्पृश्य होना चाहिए। इसके अतिरिक्त लडकों का महत्व जन्मसिद्ध ही होता है और उपेक्षा लडकियों के लिए आरक्षित रहती है। महिलाओं के प्रति असमानता के व्यवहार का तात्कालीक परिणाम होता है कि उनमें आत्मविश्वास व स्वाभिमान की कमी हो जाती है। फलस्वरूप  समाज का आधा हिस्सा हीनभावना से ग्रसित हो जाता है जिसका नकारात्मक प्रभाव समाज के समस्त अंशों पर पडता हैं।
नारी मुक्ति
20वीं शताब्दी का आरम्भिक वर्ष अन्तर्राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में मनाया गया और यहीं से नारी मुक्ति की बात की जाने लगी। प्रश्न यह उठता है कि आखिर नारियों को किससे मुक्ति। पुरूष से, परिवार से, समाज से, अर्थात स्वयं से। नारी मुक्ति आन्दोलन के नाम पर समाज के बडे पक्ष को हम कहॉ ले जाने का प्रयास कर रहे है। उपभोक्तावादी और विखण्डनवादी उत्तर आधुनिकता के दौर में नारी को एक बाजार में खडा किया जा रहा है। टी0वी0 के विज्ञापन से लेकर बाजार में सामानों के वितरण का कार्य आज स्त्रियॉ कर रही हैं। इससे नारी कहने के लिए तो स्वतंत्र हुई है लेकिन वह किस जकडबंदी में रहती है वह उनके हृदय भाव ही बतायेगें। इस बाजारी युग में सब कुछ दूषित-प्रदूषित है प्रकृति भी, संस्कृति भी। एक नये किस्म की परतंत्रता उसके जीवन को आबद्ध कर लेती है। 
प्रभावी नियम
जब हम महिला-अस्मिता की बात करते है तो सबसे जरूरी है कि पहले पुरुष स्वयं पितृसत्तात्मक संस्कारों से मुक्त हो, क्योंकि स्वामी-पालिता का भाव आते ही स्त्री एक पालतू पशु या उपभोग्य वस्तु में परिवर्तित हो जाती है। प्रथमतः हमें इस पूर्वाग्रह से मुक्त होना आवश्यक होगा कि पुरुष, स्त्री से श्रेष्ठ है।
भूमण्डलीकरण के बोध ने महिलाओं की शक्ति को उभारा है, उर्मिला शिरीष का कथन बहुत सटीक है कि ‘‘इधर भूमण्डलीकरण ने सारे परिदृश्य को ही बदल दिया है। भूमण्डलीकरण बाजार ने कई चीज़ों में समानता ला दी है। पूरा विश्व एकीकृत हो गया है। जंक फूड से लेकर डिज़ाइनर कपड़ों, फैशन, सुई-धागा से लेकर एयर लाइन्स तक में स्त्री दिखायी दे रही (जनसंचार के माध्यमों में आयी क्रान्ति ने इस बदलाव को दुनिया के कोनों-कोनों में पहुँचा दिया) है। नये वैश्वीकरण ने स्त्री को अलग ढंग से स्वावलम्बी बनाकर उन्हे आत्मविश्वास से भर दिया है। उन्हे अपनी क्षमताओं, अपने अधिकारों, अपने सौन्दर्य और अपनी बुद्धि से परिचित करवा दिया है।’’ रचनात्मक दिशा में भूमण्डलीकरण के बोध ने महिलाओं की शक्ति को उभारा है। अस्मिता और अस्तित्व का प्रश्न केवल भारतीय स्त्री को ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की स्त्रीको भी उतना ही हैरान, परेशान कर रहा है। 
वर्तमान उपभोक्तावादी और बाजारीकरण, भूमण्डलीकरण के युग में स्त्री-पुरूष सम्बन्धों के समीकरण बदलना शुरू कर दिया है। इस समय स्त्री के महत्व को तो रेखांकित किया जा रहा है लेकिन महिलाएँ स्वयं परिवार एवं समाज में अपनी स्थितीजन्य समस्याओं से जुझते हुए उनके समाधान की तलाश में आगे बढ रहीं है। अबला, असहाय, बेवस, कमजोर जैसे विश्लेषणों से मुक्ति की अभिलाषा लिए महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति अधिक सचेत और मुखरित भी है जिनसे उनके जीवन में निश्चित रूप से गुणात्मक सुधार हुआ है।
जहॉ तक महिला उत्पीडन निषेध हेतु संभावित समाधान का प्रश्न है, आर्थिक उत्तरदायित्व से पलायन की प्रवृति कन्या भ्रूण हत्या का मुख्य कारण है अतः महिलाओं को आर्थिक बोझ के स्थान पर आर्थिक उपलब्धि के रूप में स्थापित कर दिया जाय तो इस घातक परम्परा को क्षीण किया जा सकता है। उदाहरण के रुप में शुल्क मुक्त शिक्षण, राशनकार्ड पर कन्या संतान को अधिक राशन, बैंको में महिलाओं के खातों में अधिक लाभ व सुविधा देना, ड्राइविंग लाइसेंस, टेलीफोन कनेक्शन, आयकर, व्यवसाय से सम्बन्धित सेवा शर्तो तथा चल-अचल सम्पति के निर्धारण में महिलाओं को उल्लेखनीय सुविधा व प्राथमिकता देने से महिलाओं के रूप में असुरक्षा का जन्म ही नहीं होगा। शिक्षण, प्रशिक्षण और प्रचार प्रसार के माध्यम से महिलाओं को मात्र उनके अधिकारों के बारें में ही नहीं उनकी अपनी अस्मिता के बारें में भी जागरूक बनाया जाना चाहिए। भ्रूण के लिंग का पता लगाना और नष्ट करना वैधानिक अपराध होते हुए भी जिस प्रकार व्यवहार में हो रहा है उससे स्पष्ट है कि संबंधित कानून और निरीक्षक अभिकरणों में आवश्यक सजगता व शक्ति का अभाव है। अतः इन कानूनों की इमानदारी से समीक्षा होनी चाहिए तथा अत्यन्त सख्ती से इसकों कार्यान्वित किया जाता चाहिए।
किरण वेदी का यह कथन महत्वपूर्ण है कि- ‘‘कानून क्या करेगा जब पीडित स्वयं कोई कार्यवाही नहीं चाहती हैं।‘‘ लाविया एग्नेस का यह कथन विचारणीय है कि उन्होने मध्यम और उच्च वर्ग की बहुत कम महिलाओं को बलात्कार की शिकायत करते देखा, इससे जुडी कानूनी प्रक्रियाओं के मद्देनजर वे इसके लिए हिम्मत नहीं जुटा पाती। राष्ट्रीय महिला आयोग की भूतपूर्व अध्यक्ष पूर्णिमा आडवानी का विचार है कि न्यायपालिका को जागरूक बनाकर आधी लडाई जीती जा सकती है।
वास्तव में पुलिस चौकसी बढाना और महिलाओं के लिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पृथक व पुरूष अस्पृश्य व्यवस्था निर्मित करना समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। कदाचित यह सब पुरुष श्रेष्ठता ग्रन्थि के विस्तार का सूचक भी हो सकता है। मनोवैज्ञानिकों तथा समाजशास्त्रियों का सुझाव अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि विशेषकर युवा पुरुषों को यह समझाने का अभियान चलाया जाना चाहिए कि महिलाएं बस्तु नहीं व्यक्ति है। यह विचार भी उल्लेखनीय है कि औरतों के प्रति शारीरिक और यौन हिंसा मनोवैज्ञानिक सोच और आर्थिक विषमता से सीधे जुडी हुई है। वस्तुतः इस प्रकार की हिंसा अपने तमाम रुपों में अचानक नहीं होती और न ही सेक्स से कोई सम्बन्ध है। बल्कि यह उस सोची समझी सामाजिक व्यवस्था का एक अंग है जिसका मकसद न केवल औरतों की जिन्दगी को अपनी मुट्ठी में कैद करके रखना है अपितु यह अहसास भी कराना है कि तुम आर्थिक रुप से हम पर निर्भर हो। अशिक्षा अथवा नाममात्र की शिक्षा, अन्याय तथा अत्याचार के खिलाफ लडने तथा आवाज उठाने के लिए उनके विकल्प को और अधिक संकुचित कर देती है।

निष्कर्ष उपर्युक्त बातों से यह स्पष्ट है कि महिला अस्मिता के विरुद्ध मात्र एक ही चुनौती है और वह है- वर्चस्ववादी पुरूष मानसिकता। यही मानसिकता अनेक स्वरुपों में महिला अस्मिता को जर्जर करने का प्रयास करती रहती है। प्रत्युत्तर में यह कहा जा सकता है कि स्वयं महिला अपनी अस्मिता को सिद्ध कर सकती है। महिला को स्वयं को प्रज्ञा का पर्याय बनाना होगा। समाज में पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता यदि नतमस्तक होगी तो मात्र प्रज्ञावान व विदुशी मानसिकता के समक्ष। वस्तुतः शिक्षा, खेल, सेना और राजनीति के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की चुनौती के कारण बाहरी दुनिया में पुरुष का एकाधिकार टूटा है। प्रतिस्पर्धा, विशेशकर पीढीयों से शासित और वह भी महिला से पराजय पुरुष के दम्भ को खण्डित कर उसे कुण्ठाग्रस्त बना देने के लिए पर्याप्त कारण है। मेरी दृष्टि में उ0प्र0 सरकार द्वारा चलाए गए ‘‘मिशन-शक्ति‘‘ एक सराहनीय प्रयास माना जा सकता है। समाज में आज भी महिलाओं को लेकर नकारात्मक सोच रखी जाती है और इसी सोच में बदलाव करने के लिए उ0प्र0 सरकार द्वारा वर्ष 2020 में यह अभियान चलाया गया। प्रदेश की महिलाओं और बेटियों को स्ववलम्बी और सुरक्षित बनाने के उद्देश्य से इसमें विभिन्न प्रकार के जागरूकता एवं प्रशिक्षण प्रोग्राम का आयोजन किया जाता है जिससे कि महिलाओं को उनके अधिकारों से सम्बन्धित जानकारी प्रदान की जा सके। महिलाओं को भी अपनी भूमिका निभानी होगी और उन्हे बाजारीकरण के इस दौर में अपने देह प्रदर्शन व स्वयं को विज्ञापन का माध्यम बनने से बचाना होगा। हमें यह भली-भॉती समझना होगा कि पुरुष और स्त्री पृथक रहकर सृष्टि को नहीं चला सकतें। हम सभी लोगों को सम्मिलित होकर संयुक्त होकर सामूहिक प्रयास करना होगा तभी एक समुन्नत और उत्कृष्ट समाज की संकल्पना की जा सकती है। हमारी संयुक्त चाह ही मानव और मानवता का सतत विकास कर सकते है।
अध्ययन की सीमा प्रस्तुत शोध-पत्र हेतु शोधकर्ता की पद्धति ऐतिहासिक, समालोचनात्मक तथा व्याख्यात्मक रही है। ज्ञात तथ्यों तथा इस विषय पर उपलब्ध पूर्ववर्ती लेखकों के विचारों और सरकारी दस्तावेज का विश्लेषण और आलोचनात्मक मूल्यांकन करते हुए प्राप्त परिणामों का सत्य की कसौटी पर परीक्षण करने का प्रयास किया गया है। शोध अध्ययन में सबसे महत्वपूर्ण वस्तु प्रस्तुत अध्ययन की विषय और सामग्री की होती है। इस विषय पर प्राथमिक स्रोत के रूप में विभिन्न रिपोर्ट तथा विद्वानों और लेखकों की विभिन्न रचनाओं में पर्याप्त मात्रा में सामग्री मौजूद है जिसका प्रयोग इस शोधपत्र में किया गया है। इसके अतिरिक्त पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित विभिन्न सम्पादकों के विचारों को विश्लेषण करते हुए सामग्री एकत्र कर उसका प्रयोग द्धितीयक स्रोत के रूप में किया गया है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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