P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- IX , ISSUE- XI July  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
राजस्थान में दुर्ग स्थापत्य: मारवाड़ के विशेष संदर्भ में
Paper Id :  16217   Submission Date :  18/07/2022   Acceptance Date :  22/07/2022   Publication Date :  25/07/2022
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विकास चौधरी
असिस्टेंट प्रोफेसर
इतिहास विभाग
राजकीय महाविद्यालय
जयपुर,राजस्थान, भारत
सारांश प्राचीन युद्ध परम्परा व भोगौलिक स्थिति के कारण राजस्थान में दुर्गों का अत्यधिक महत्त्व रहा है। इस संबंध में प्राचीन मान्यता है कि दुर्ग वह साधन है जिसमें रहने से गढ़पति को अपनी आत्मरक्षा का भरोसा रहता था तथा उसमें रहते हुए उसे बलवान शत्रु भी सहसा सता नहीं सकता। राजस्थान को गढ़ों और दुर्गों का प्रदेश कहा जाए तो इनमें कोई अत्युक्ति नहीं होगी। ये दुर्ग और इनसे जुड़े आख्यान राजस्थान के जनमानस के लिए सदैव प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। राजस्थान के प्रमुख दुर्गों में चित्तौड़, मारवाड़, रणथम्भौर, जालौर, सिवाणा, गागरोण, भटनेर, नागौर आदि दुर्ग ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत प्रसिद्ध रहे हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Forts have been of great importance in Rajasthan due to ancient war tradition and geographical condition. In this regard, there is an ancient belief that the fort is the means by which the Gadhapati was confident of his self-defense, and while living in it, even a strong enemy cannot easily harass him. There will be no exaggeration if Rajasthan is called the state of strongholds and fortifications. These forts and the stories associated with them have always been a source of inspiration for the people of Rajasthan. Among the major forts of Rajasthan, Chittor, Marwar, Ranthambore, Jalore, Siwana, Gagron, Bhatner, Nagaur etc. have been very famous from the historical point of view.
मुख्य शब्द दुर्ग स्थापत्य, मारवाड़, मेहरानगढ़, चिड़ियाटुंक, मंडोर, बुर्जपोल, नागौर दुर्ग, पृथ्वीराज चौहान, सोमेश्वर, सुदृढ़ प्राचीर, महल, प्रवेश द्वार, जालौर दुर्ग, तोपखाना, सिवाणा दुर्ग, जल दुर्ग, पर्वतीय दुर्ग, जलाशय, कुण्ड, बावड़ियाँ।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Fort Architecture, Marwar, Mehrangarh, Chidiyatunk, Mandore, Burjpol, Nagaur fort, Prithviraj Chauhan, Someshwar, Strong Ramparts, Palace, Entrance, Jalore Fort, Artillery, Siwana Fort, Water fort, Mountain Fort, Reservoir, Pool, Stepwell.
प्रस्तावना
दुर्ग स्थापत्य कला तत्कालीन समाज की स्थापत्य कला का दर्पण है। किसी भी राज्य के उत्कर्ष, उत्थान व पतन में दुर्गों का विशेष महत्त्व रहा है, जो आज भी प्रत्यक्षदर्शी बनकर उस समय के इतिहास की गौरवगाथा का वर्णन करते हैं। राजस्थान के हर भौगोलिक क्षेत्र या अंचल का विशिष्ट सांस्कृतिक व गौरवशाली इतिहास रहा है। इसी के तहत मारवाड़ प्रदेश में मेहरानगढ़, नागौर, जालौर, सिवाणा, सोजत, कुचामन आदि दुर्ग प्रमुख है। दुर्ग स्थापत्य कला इतिहास का एक अजीब आकर्षण एवं गौरव का अनूठा अहसास है जो अपने नामों से संचित स्थानों या प्रदेशों का राजनैतिक अस्तित्व विलुप्त हो जाने के बावजूद भी इन्हें किसी न किसी रूप में बचाए रखना चाहते हैं। राजस्थान में दुर्ग निर्माण की एक अतिशय समृद्ध परम्परा रही है। हमारे प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र और शिल्पशास्त्र के ग्रंथों में विभिन्न दुर्गों का विश्लेषणात्मक वर्णन प्राप्त होता है।
अध्ययन का उद्देश्य वर्तमान युग परिवर्तन का युग है जिसके कारण हमारे स्वर्णिम अतीत की यह अनमोल संपदा तेजी से नष्ट होती जा रही है। अनेक गढ़, दुर्ग तो वर्तमान समय में खंडहर भी हो चुके हैं और जो शेष बचे हैं वे अपने अवसान की प्रतीक्षा में है। इसी कारण समय रहते हमने इनकी सार संभाल नहीं की तथा इनसे संबंधित इतिहास नहीं लिखा तो वह दिन दूर नहीं कि जब ये सदा के लिए काल के गर्त में विलीन हो जायेंगे। इसी कारण हमें स्मरण रखना चाहिए कि हमारे ये गढ़ या दुर्ग उस युग की देन हैं जो अब वापस लौटकर नहीं आने वाला है। इसी कारण राजस्थान के गौरवशाली अतीत की संपदा पर इस शोध-पत्र में प्रकाश डाला गया है।
साहित्यावलोकन

डॉ. हीराचन्द गौरीशंकर औझा ने अपने ग्रंथ जोधपुर राज्य का इतिहास’, भाग-1 में मेहरानगढ़ दुर्ग की स्थापना (नींव) पर प्रकाश डाला है तथा साथ ही मारवाड़ के विभिन्न दुर्गों जैसे जालौर दुर्ग के संस्थापक का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है।
रतनलाल मिश्र द्वारा कृत राजस्थान के दुर्ग’, जयपुर, 2008 नामक ग्रंथ में मारवाड़ में विभिन्न दुर्गों की स्थापना व स्थापत्य पर प्रकाश डाला गया है। मारवाड़ का इतिहासभाग-1, जोधपुर, 2009 नामक ग्रंथ में विश्वैश्वर नाथ रेऊ ने मेहरानगढ़ दुर्ग का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है।
डॉ. राघवेन्द्र सिंह मनोहर ने अपने ग्रंथ राजस्थान के प्रमुख दुर्गजयपुर, 2019 में राजस्थान के प्रमुख दुर्गों सहित मारवाड़ के मेहरानगढ़, नागौर, जालौर, सिवाणा, सोजत, कुचामन आदि दुर्गों की स्थापत्य का विस्तार पूर्वक विवेचन किया है।

मुख्य पाठ

दुर्ग निर्माण की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। शुक्रनीति[1] के अनुसार राज्य के सात अंग माने गये हैं, जिनमें एक दुर्ग भी है-

स्वाम्यमात्य सुहृत्कोश राष्ट्र दुर्ग बलानि च।
सप्तांग मुच्यते राज्यं तत्र मूर्धा नृपः स्मृतः।।

(अर्थात् स्वामी/राजा, अमात्य/मंत्री, सुहृद् कोश, राष्ट्र, दुर्ग तथा सेना)
राजस्थान में दुर्ग निर्माण की एक अतिशय समृद्ध परम्परा रही है। दुर्गों के विभिन्न प्रकार के भेद और लक्षण का वर्णन प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र और शिल्प के ग्रंथों में बताये गये हैं[2]-गिरि दुर्ग, जल दुर्ग, भूमि दुर्ग, धान्वन दुर्ग व वन दुर्ग।
शुक्रनीतिकार ने दुर्गों के नौ भेद बताये हैं[3]- एरण दुर्ग, पारिख दुर्ग, पारिध दुर्ग, वन दुर्ग, धन्व दुर्ग, जल दुर्ग, गिरि दुर्ग, सैन्य दुर्ग व सहाय दुर्ग। मारवाड़ में स्थित मेहरानगढ़ दुर्ग पर्वतीय दुर्गों में, जालौर का दुर्ग गिरि दुर्गों में, नागौर का दुर्ग भूमि दुर्गों में प्रमुख है।
मेहरानगढ़ दुर्ग

सब ही गढ़ां शिरोमणि अति ही ऊँचों जाण।
अनड़ पहाड़ां ऊपरां जबरो गढ़ जोधाण।।

जोधपुर का मेहरानगढ़ दुर्ग अपने अनूठे स्थापत्य और विशिष्ट संरचना के कारण अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। लाल पत्थरों से निर्मित और अलंकृत जालियों व झरोखों से सुशोभित यह दुर्ग राजपूत स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। राठौड़ों की वीरता और पराक्रम का साक्षी यह दुर्ग[4] विक्रम संवत् 1515 (1458 ई.) में जोधपुर संस्थापक राव जोधा द्वारा बनवाया गया था। यह किला चिड़ियाटूंक, पंचटेकरिया तथा विहंगकूट पहाड़ी पर बना हुआ है[5]। गौरी शंकर हीराचंद ओझा[6] ने अपने इतिहास लेखन में इस लोकविश्वास का उल्लेख किया है कि यदि किले की नींव में किसी जीवित व्यक्ति की बलि दे दी जाये तो वह दुर्ग अपने निर्माता के वंशजों के हाथों से नहीं निकलेगा। इसी विश्वास के कारण इस दुर्ग की नींव में राजिया नामक व्यक्ति को जिन्दा गाड़ दिया गया तथा उसके परिवार को इसके बदले जागीर प्रदान की गई [7]
जोधपुर का यह सुदृढ़ और विशाल दुर्ग भूमितल से लगभग 400 फीट ऊँचाई पर मध्यकाल में किसी भी शस्त्र (तीर, तलवार तथा भाला) को पहुँचाना असंभव था। किले के चारों ओर सुदृढ़ परकोटा है जो लगभग 20 से 120 फीट तक ऊँचा और 12 से 20 फीट चौड़ा है। किले का क्षेत्रफल लगभग 500 गज लम्बा तथा 250 गज चौड़ा है। किले की प्राचीर के मध्य स्थान पर गोल और चौकोर बुर्ज है। इन बुर्जों की मोटाई 12 से 70 फीट तक है इस प्राचीर पर 101 बुर्जे बनी हैं।[8]
उन्नत प्राचीर और विशाल बुर्जों ने जोधपुर के दुर्ग को एक दुर्भेद्य दुर्ग का स्वरूप प्रदान किया है। बुर्जों के समान ही दुर्ग के प्रवेश द्वार भी विशालता और मजबूती लिये हुए है। इसमें 6 बड़े पोल है[9]- गोपाल पोल, फतेहपोल, जयपोल आदि। इस दुर्ग के दो बाह्य प्रवेश द्वार हैं- उत्तर-पूर्व में जयपोल तथा दक्षिण-पश्चिम में शहर के अन्दर से फतेहपोल। जयपोल का निर्माण 1808 ई के लगभग महाराजा मानसिंह ने करवाया था जबकि फतेहपोल का निर्माण महाराजा अजीतसिंह के द्वारा करवाया गया था। दुर्ग का एक अन्य प्रमुख प्रवेश द्वार लोहापोल है जिसका निर्माण राव मालदेव ने प्रारंभ किया तथा इसे पूर्ण विजय सिंह ने करवाया था। किले के अन्य प्रवेश द्वारों में ध्रुवपोल, सूरजपोल, इमरतपोल तथा भैरोपोल प्रमुख है।[10]
पोल के दरवाजों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए मुख्य द्वार के आगे एक प्राचीर का निर्माण किया जाता था जिससे सामने की ओर से दरवाजे पर प्रहार न हो सके। दरवाजों के सामने वाली प्राचीर को पड़दी कहा जाता है।[11] पोल के दरवाजे अत्यन्त विशाल और मजबूत बने हैं। दरवाजे के ऊपरी भाग पर नियुक्त सैनिकों के पास बड़े गोल पत्थर, तेल गर्म करने के कडाव आदि रहते थे। दुर्ग के कुछ प्रवेश द्वार जैसे लखना पोल को अत्यन्त ही संकड़ा बनाया गया है जिससे सैनिक एक साथ दुर्ग में प्रवेश नहीं कर सके।[12] इस दुर्ग पर अनेक आक्रमण हुए परन्तु इस दुर्ग का पतन नहीं हो सका।
मेहरानगढ़ दुर्ग की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह मेहरानगढ़ संग्रहालय के रूप में अतीत की बहुमूल्य, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर को संजोये हुए हैं। इस संग्रहालय में मध्यकाल में लड़े गये भीषण और दुर्धर्ष युद्धों के स्मृतिचिह्न, विभिन्न प्रकार के आयुध, जिरह-बख्तर, परिधान, पालकियाँ, गलीचे इत्यादि दुर्लभ वस्तुएँ उसके विगत वैभव की सुंदर झलक प्रस्तुत करती है।

नागौर दुर्ग

खाटू तो स्याले भलोऊँध्याले अजमेर।
नागाणो नित ही चलोसावण बीकानेर।।

राजस्थान के स्थल दुर्गों में नागौर का प्राचीन दुर्ग उल्लेखनीय है। नागौर का प्राचीन शिलालेखों और साहित्यिक ग्रंथों में नागदुर्ग, नागउर, नागपुर, नागाणा और अहिछत्रपुर[13] इत्यादि नाम मिलते हैं। इनमें अहिछत्रपुर नगर का वर्णन महाभारत में मिलता है।[14]
पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर के एक सामंत कैमास ने वि.सं. 1211 में नागौर दुर्ग की नींव रखी। इसके निर्माण की विशेषता यह है कि बाहर से छोड़ा गया तोप का गोला प्राचीर पर से होकर किले के महल को नुकसान नहीं पहुँचा सकता था यद्यपि महल प्राचीरों से ऊपर उठे हुए हैं। इसी विशेषता के कारण डॉ. दशरथ शर्मा ने नागौर दुर्ग को चौहानों के अधीन सबसे सुदृढ़ दुर्गों की श्रेणी में रखा है।[15] इस दुर्ग के निर्माण में प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन हुआ है। दुर्ग की दोहरी सुदृढ़ प्राचीर और उसके चतुर्दिक जल से भरी गहरी खाई या परिखा इस दुर्ग को सुरक्षा का अभेद्य कवच प्रदान करती है। इस दुर्ग का परकोटा लगभग 5000 फीट लम्बा है तथा इसकी प्राचीर में 28 विशाल बुर्जे निर्मित हैं। यहाँ परकोटे का निर्माण दोहरा है जिसमें पहला भूमितल से 25 फीट तथा दूसरा 50 फीट ऊँचा है। यह दुर्ग लगभग 2100 गज में विस्तृत है जिसमें 6 विशाल दरवाजे निर्मित हैं- सिराईपोल, बिचलीपोल, कचहरीपोल, सूरजपोल, धूपीपोल और राजपोल। इतिहासकार जगदीशसिंह गहलोत[16] ने नागौर के किले की नाप को निम्न प्रकार उल्लेखित किया है-
लम्बाई 499 गज, चौड़ाई 494 गज, ऊँचाई 25 गज।
बुर्ज 818 गज, कंगूरा 818 गज, कुल घेरा 2100 गज।।[17]
नागौर दुर्ग ही नहीं नागौर शहर के चतुर्दिक भी एक सुदृढ़ परकोटा निर्मित था। नगर प्राचीर में 6 विशाल भव्य प्रवेश द्वार हैं जो क्रमशः जोधपुरी, अजमेरी, नाकास, माही, नया और दिल्ली दरवाजा कहलाते हैं।
नागौर दुर्ग में सुन्दर भित्तिचित्र बने हुए हैं इनमें बादल महल और शीश महल के चित्र विशेष रूप से दर्शनीय हैं जिनमें पेड़ की छांव में संगीत सुनते प्रेमी युगल, राजदरबार के दृश्य, पुष्पलताओं का चित्रण, उद्यान में विहार करती नायिकाओं का चित्रण बहुत सुन्दर और कलापूर्ण है। दुर्ग के भीतर एक सुन्दर फव्वारा बना है जिसका निर्माण अकबर ने (फव्वारे पर उत्कीर्ण शिलालेख के आधार पर) करवाया था।
जालौर दुर्ग
पश्चिमी राजस्थान का सबसे प्राचीन और सुदृढ़ दुर्ग जालौर का किला सूकड़ी नदी के दाहिने किनारे मारवाड़ की पूर्व राजधानी जोधपुर से लगभग 75 मील दक्षिण में अवस्थित है जिसे प्राचीन साहित्य और शिलालेखों में जाबालिपुर, जालहुर आदि नामों से भी जाना जाता था।[18] डॉ दशरथ शर्मा के अनुसार प्रतिहार नरेश नागभट्ट प्रथम ने जालौर में अपनी राजधानी स्थापित की उसने ही संभवतः इस दुर्ग का निर्माण करवाया।[19] इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझा[20] ने परमारों को जालौर दुर्ग का संस्थापक माना है परन्तु उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार इस दुर्ग का निर्माण प्रतिहारों ने करवाया व परमारों ने इस दुर्ग का जीर्णोद्धार या विस्तार करवाया।

जालौर दुर्ग को अपनी सामरिक स्थिति के कारण प्राचीन काल से ही आक्रांताओं के भीषण प्रहार झेलने पड़े थे। इस कारण यह दुर्ग मारवाड़ के राजाओं का आश्रय स्थल रहा था। जालौर का गिरी दुर्ग क्षेत्रफल की दृष्टि से 800 गज लंबा व 400 गज चौड़ा है जो 1200 फीट ऊँचाई पर स्थित है।[21] इस दुर्ग के स्थापत्य की मुख्य विशेषता यह है कि उन्नत प्राचीर और बुर्जों से निर्मित है इसका प्रवेश द्वार विशाल है जो सुदृढ़ दीवार से ढ़का हुआ है जिसमें शत्रु प्रवेश द्वार पर आक्रमण नहीं कर सकता है।    
इस दुर्ग का मुख्य मार्ग शहर के भीतर से 5 कि.मी. लम्बा टेढ़ा-मेढ़ा व घुमावदार है। इस मार्ग में दुर्ग का प्रथम प्रवेश द्वार सूरजपोल है जिसकी धनुषाकार छत स्थापत्य व शिल्पकला के कारण आकर्षण का प्रमुख केन्द्र है। दुर्ग का दूसरा प्रवेश द्वार ध्रुवपोल, तीसरा चाँदपोल व चौथा सिरेपोल भी सुदृढ़ व विशाल है। इस दुर्ग में महाराजा मानसिंह के महल और झरोखे, रानी महल, जैन मंदिर, चामुण्डा माता व जोगमाया मंदिर, दहियों की पोल, संत मल्लिकशाह की दरगाह आदि प्रमुख ऐतिहासिक स्थल है।
दुर्ग के भीतर तोपखाना, अन्न भण्डार, सैनिकों के आवासगृह तथा अश्वशाला आदि भवन निर्मित है। यहाँ निर्मित अनेक जलाशय, कुण्ड तथा बावड़ियाँ जल आपूर्ति का प्रमुख स्रोत हैं।[22]
सिवाणा दुर्ग 

किलो अणखलो यूं कहेआव कल्ला राठौड़।
मो सिर उत्तरे मेहणोतो सिर बांधै मौड़।।

वीरता और शौर्य का साक्षी सिवाणा का दुर्ग जोधपुर के राजाओं की विपत्ति में आश्रय स्थल रहा है। इस पर्वतीय दुर्ग का निर्माण परमार वंशीय राजा भोज के पुत्र वीर नारायण के द्वारा 954 ई. में करवाया था।[23]
यह दुर्ग 1050 फीट ऊँची पहाड़ी पर स्थित है जिसके नीचे से चक्करदार 5 फीट का रास्ता है जो दुर्ग के ऊपर जाता है। यह दुर्ग मध्यकाल में सघन वृक्षों से घिरा हुआ था जो वर्तमान में काँटेदार झाड़ियों से घिरा है। इस किले का शीर्ष भाग नीचे के तल पर छाया होने के कारण इस किले पर अचानक आक्रमण संभव नहीं  है।
सोजत दुर्ग
सोजत का किला मारवाड़ और मेवाड़ के लगभग मध्य में स्थित होने के कारण युद्ध व संघर्ष के काल में विशेष सामरिक महत्त्व रखता था। इस दुर्ग का निर्माता राव जोधा के जेष्ठ पुत्र नीम्बा ने नानी सीरड़ी नामक डूंगरी पर 1460 ई. (वि.सं. 1517) में करवाया था। जोधपुर राज्य की ख्यात’[24] के अनुसार राव मालदेव ने सोजत के किले का निर्माण किया था।
सोजत का किला एक लघुगिरि दुर्ग है जो सम्प्रति भग्न और खण्डित अवस्था में है। इस किले के प्रमुख भवनों में जनानी ड्योढ़ी, दरीखाना, तबेला, सूरजपोल तथा चाँदपोल प्रवेश द्वार इत्यादि उल्लेखनीय है। किले की सुदृढ़ बुर्जें तथा विशेषकर उसका सूरजपोल प्रवेश द्वार बहुत सुंदर और आकर्षण का केन्द्र है।[25]
कुचामन दुर्ग
गढ़ों और दुर्गों के प्रदेश राजस्थान में पूर्व रियासतों के तो किले और गढ़ प्रसिद्ध हैं ही पर साथ ही जागीरी ठिकानों के भी अपने गढ़ व किले विद्यमान हैं। वीरता और शौर्य का प्रतीक कुचामन का किला ऊँची पहाड़ी पर निर्मित गिरी दुर्ग का प्रमुख उदाहरण है।
प्रचलित लोक मान्यतानुसार यहाँ के पराक्रमी मेड़तिया शासक जालिम सिंह ने वनखण्डी नामक महात्मा के आशीर्वाद से इस दुर्ग की नींव रखी जिसका कालान्तर में उनके यशस्वी वंशजों द्वारा विस्तार एवं परिवर्द्धन किया गया। यह भी मत प्रचलित है कि गौड़ शासकों द्वारा निर्मित किले का जालिम सिंह ने जीर्णोद्धार व विस्तार करवाया था।
इस विशाल दुर्ग में लगभग 18 बुर्जें, भव्य महल, रनिवास, शस्त्रागार, अन्न भंडार, पानी के विशाल 5 टांके, देव मंदिर आदि प्रमुख आकर्षण के केन्द्र हैं। दुर्ग के भवनों में सुनहरी बुर्ज सोने के बारीक व सुन्दर काम के लिए उल्लेखनीय है। यहाँ निर्मित हवामहल राजपूत स्थापत्य कला का सुन्दर उदाहरण है। इस दुर्ग के भीतर चौक में घोड़ों के प्रसिद्ध अस्तबल, सूरतखाना और हस्तशाला भी विद्यमान है। सूर्यवंशीय राठौड़ों की आस्था का परिचायक सूर्य मंदिर दुर्ग के पूर्व में एक छोटी सी डूंगरी पर निर्मित है।[26]

निष्कर्ष राजस्थान गढ़ों और किलों के रूप में अतीत की अनमोल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संपदा से सम्पन्न है। यहाँ वास्तुशास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में वर्णित प्रायः सभी कोटि के छोटे-बड़े दुर्ग विद्यमान हैं जिनका अपना गौरवशाली इतिहास रहा है। यह दुर्ग उसी प्रतिहास का एक मूर्त उदाहरण है जो अपने इतिहास की स्वयं व्याख्या करते हैं। इस शोधपत्र में उसी अतीत के इतिहास पर प्रकाश डालकर उसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सजीव रूप प्रदान किया गया है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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