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लोकतंत्र राजनीतिक दल और सामाजिक अंतर्विरोध | |||||||
Democracy Political Parties and Social Contradiction | |||||||
Paper Id :
16272 Submission Date :
2022-07-18 Acceptance Date :
2022-07-22 Publication Date :
2022-07-25
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सारांश |
समाज में लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना वैश्विक इच्छा है। बदलती दुनिया और विभिन्न देशो की राजनीति में प्राथमिकता,परिवर्तन की दृश्टि से लोकतांत्रिक स्थापनाओं की रही हैं यह आह्वान सदैव किया जाता रहा है कि सारे समाज लोकतांत्रिक आधार पर स्थापित हों और जो समाज लोकतांत्रिक नही है उन्हे लोकतंत्र अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। इसका एक प्रभाव यह भी है कि समाजो की राजनीतिक संरचना के स्वरूप लोकतांत्रिक हो विश्व के 90 प्रतिशत राज्य स्वयं लोकतांत्रिक व्यवस्था स्वीकार करते है। लोकतंत्र आदर्श रूप में भी इसलिए स्वीकार किया गया । लोकतंत्र के इतिहास से पहले तानाशाही एकाधिकार और व्यक्ति की प्रधान्नता सर्वोपरि रही। यहीं से राजनीति दल उन आदर्शो तथा सामाजिक नीतियों के पोषक है जो समता तथा समानता के प्रयासों के प्रतिक कहे जा सकतें है। प्रस्तुत लेख में उन अंतर्विरोधों की चर्चा है जिनके राजनीतिक दल स्वयं पोषक है, और लोकतंत्र को चुनौती दे बैठते है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The establishment of a democratic order in the society is a global desire. In the changing world and the politics of different countries, the priority has been for democratic establishments with a view to change, it has always been a call that all societies should be established on democratic basis and those societies which are not democratic should be encouraged to adopt democracy. It also has an effect that the political structure of societies should be democratic in nature, 90 percent of the world's states themselves accept democratic system. Democracy was accepted ideally also because of this. Before the history of democracy, dictatorship, monopoly and the primacy of the individual were paramount. From here, the political party is the nurturer of those ideals and social policies which can be said to be a symbol of the efforts of equality and equality. The present article discusses the contradictions whose political parties themselves are fostering, and challenge democracy. | ||||||
मुख्य शब्द | लोकतंत्र राजनीतिक दल, सामाजिक अंतर्विरोध, वैश्वीकरण। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Democracy Political Parties and Social Contradiction. | ||||||
प्रस्तावना |
यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में लोकतंत्र संचालन का भार राजनीतिक दलों पर है। एक प्रकार से राजनीतिक दल एक आवश्यक आधार है। सामाजिक निर्णयों के आधारों और संरचना में दल एक महत्वपूर्ण अंश के रूप में स्वीकार किए जाते है। वैश्विक स्तर पर दल, शासन के बदलने के बाद ज्यादातर पूरे विश्व मै देशो के संबंधों के बदलने पर चर्चा प्रारंभ कर देते है। देशो में परस्पर चुनावी चर्चा इसका बडा उदाहरण है। इसलिए ये संगठन बडी आलोचनाओं के पात्र भी हैं। राजनीतिक समाजशास्त्र द्रष्टि राजनीतिक दलों की विचारधाराओं,कार्यक्रमों तथा कार्यप्रणालियों के यथावत तथा परिवर्तित स्वरूप लगातार रही है। राजनीतिक दलो की संरचनात्मक विविधता पर ड्यूरोगन(1965) ने राजनीतिक दलों के बारें में चर्चा को नए स्वरूप दिए।
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अध्ययन का उद्देश्य | लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों की भागीदारी कई संदर्भो में है जिनकी चर्चा आगें विस्तार से करेंगे । लेकिन इससे पहले कुछ अवधारणात्मक चर्चा की जा सकती है। कोई भी राजनीतिक दल, चुनावी प्रक्रिया के आधार पर किसी समाज में सत्ता और शक्ति संचालन के कार्यो का एक संगठन कहा जा सकता है। ये दल ऐसे संगठन है जों जन के आधार पर सता में प्रतिनिधित्व का कार्य करतें है। ड्यूरोगन मानते है कि किसी भी संवैधानिक संविदा में ये ही संगठन सता संचालन या विरोंध पक्ष का कार्य करतें है। दलों की सामूहिक गतिशीलता के स्वरूप में भी परिभाषित किया गया है, जैसे सामाजिक आन्दोलन हित समूह,दबाव समूह आदि। इन सब आधारों को देखते हुए राजनीतिक दल सामूहिक क्रियाओं के स्वरूप भी है। समाज की विभिन्न व्यवस्थाओं में राजनीतिक व्यवस्था का अंग है। एक ओर जहाँ तरह-तरह की राजनीतिक दलों की व्यवस्थाए भी है। राजनीतिक दलों के इन्ही आधारों से उपजे नेतृत्व का अपना मनोविज्ञान है, और यही मनोविज्ञान नेतृत्व के राजनीतिक चरित्रों का निर्माण भी करता है। राजनीतिक नेतृत्व तथा राजनीतिक दलों का चरित्र, दोनो ही एक दूसरे के साथ जुडे हुए है। |
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साहित्यावलोकन |
राजनीतिक-सामाजिक लक्ष्यों को राजनीतिक दल तथा नेतृत्व दोनो
ही प्राप्त करना चाहते हैं। राजनीतिक दलों की रचना तथा उनकी कार्यप्रणाली की
आलोचनात्मक परिपेक्ष्य का भाग रही है। दल के सदस्यों और मतदाताओं की पृष्ठभूमि & nbsp; से उन सामाजिक आधारों का पता
चलता रहा है जों किसी दल का सामाजिक परिचय भी होता है। दलों की सामाजिक पृष्ठभूमि प्रायः उनके चरित्र क्रियाओं और
कार्यप्रणालियों का परिचय भी देती है। कुछ दल समाज में सांस्कृतिक सामाजिक
गतिविधियों से परिचय कर देते है। यह तथ्य का भी परिचायक है कि विभिन्न
परिस्थितियों में किस प्रकार शक्ति और सत्ता को प्राप्त करने के लिए राजनीतिक दल इन
सामाजिक-सांस्कृतिक आधारों का प्रयोग करते है। यह भी स्पष्ट हो जाता है कि
संवैधानिक दृष्टियों को इन संदर्भो में कैसे प्राप्त किया जा सकता है। स्वयं
राजनीतिक दलों द्वारा संवैधानिक इच्छाएं व्यक्त की जाती है। राजनीतिक दल इस प्रकार
उद्द्येश्य भी है और विषय भी। सामाजिक परिवर्तन का एक साधन भी इसमें जोडा जा सकता
है। तीसरी दुनिया के देशो में उन राष्ट्रीय लक्ष्यों को भी सम्मिलित किया जाता है जिन्हे समाज निर्माण के लिए स्वीकार किया जा चुका है। |
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मुख्य पाठ |
भारतीय लोकतंत्र 72 वर्ष पुराना है। 72 वर्ष पूर्व भारत ब्रिटिश उपनिवेशवाद का भाग था। ऐतिहासिक
क्रम में हिन्दू साम्राज्य,दिल्ली
सल्तनत ,
मुगल सल्तनत और ब्रिटिश उपनिवेशवाद इस देश में स्थित थे।
भारतीय स्वतंत्रता और लोकतंत्र की स्थापना के पूर्व भारत आधुनिक परिपेक्ष्य में राष्ट्र नही था। इस रूप में भारत की स्थापना स्वतंत्रता के बाद हुई थी। 1950 में राजनीतिक दलों की स्थापना के स्वरूप बनने प्रारम्भ हुए थें। लेकिन इससे भी पहले राजनीतिक दलों के स्वरूप राष्ट्रवादी आन्दोलन और विशेष वर्गो तथा क्षेत्रीय आधारों के साथ जुडे हुए थे। स्वतंत्रता के लिए युद्धरत इन दलों में अखिल भारतीय कांग्रेस एक प्रमुख राजनीतिक दल था। स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान अनेक राजनीतिक दल उभरें। धार्मिक विभेदीकरण और पारस्परिक संघर्ष भारतीय राजनीतिक
इतिहास में सदैव रहा । ऐसे विभेद प्रतिरोधक पैदा करते है।ऐसे प्रतिरोध आंतरिक दलीय
भी है और सम्पूर्ण राजनीति के हिस्से भी ये प्रतिरोध राजनीतिक भी है और
सामाजिक-सांस्कृतिक भी। धर्म के आधार पर प्रतिनिधियों के चुनाव और मतदान का विभाजन
राजनीतिक व्यवस्था का एक आधार बना था और कुछ अर्थो में अभी भी है। दलित राजनीति के
संदर्भ दलितों की अपनी पहचान से है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में असमानता और
अस्पृस्यता के विरूद्ध आन्दोलन उपनिवेश काल में उभरें थें और विकसित हुए थें। राजनीतिक दल समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और शोषण के आधारों
के साथ संबंद्ध है। दलितो की राजनीति पहचान की राजनीति है। भारतीय राजनीति के
सामाजिक पक्षों में पहचान का संघर्ष दलित और महिला दृश्टिकोणों के साथ अधिक जुडा
हुआ है। यदि धार्मिक संदर्भो में देखा जाए तो विभिन्न धार्मिक समूहों की समीपताए
अलग-अलग है। राजनीतिक दलों में सदस्यता तथा नेतृत्व भी इन धर्मो का अलग-अलग है।
राजनीतिक दलों के स्वरूप भी इन्ही आधारों पर अलग-अलग है। जहाँ एक और राजनीतिक दल निम्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करते है।, वही उच्च वर्ग और जातियों के प्रतिनिधि दल भारतीय राजनीति के प्रमुख तथा निर्माता दल थे।जाति या वर्ग की संरचना की तरह ये प्रमुख राजनीतिक दल है। उच्च जाति तथा वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधियों की निम्न तथा दलित वर्गो के साथ संबंधों की संरचना प्रायः सामाजिक संरचना की तरह है। इन्ही से कई अंतर्विरोध भी उभरें। राजनीतिक दलों का एक संबंध राजनीतिक नीतियों से भी है। राजनीतिक दलों की नीतियाँ प्रायः घटना चक्रों पर आधारित होती है। लेकिन यदि संदर्भो को देखे तो राजनीतिक दलों की नीतियों और सामाजिक परिस्थितियों में विचित्र विरोधाभास दिखाई देते है। इसीलिए ये अंतविरोध राजनीतिक दलों के चरित्र कार्य प्रणालियों और चिन्तन पर प्रश्न उठाते हैं। राजनीतिक दलों की जाति विहीनता की अवधारणा जाति एकाधिकार में परिवर्तन होता राजनीतिक दल, घोषणा की गई अंहिसा की उपलब्धि पर हिंसा, उनके साधन हो गए इसी प्रकार के अंतर्विरोध प्रायः राजनीतिक दलों के साथ जुड जाते है और लोकतंत्र के मूल प्रश्न ही विरोधाभास बन जाते है। ये ही अंतविरोध किन्ही स्वरूपों में सामाजिक अंतर्विरोध बन जाते । |
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निष्कर्ष |
भारतीय परिस्थितियो की यदि चर्चा करें तो, राजनीतिक दलों में अंतर्विरोध ने सामाजिक व्यवस्था पर व्यापक प्रभाव डाला है। व्यापक रूप से समाजशास्त्र मै जिन विस्तृत समस्यों का उल्लेख किया जाता है, उसके कई अंश इन अन्तर्विरोध के साथ जुडे हुए है। क्योकि राजनीतिक व्यवस्थाए राजनीतिक दलो द्वारा संचालित होती है अतः ये सामाजिक समस्याओं का आदिरूप बन जाती है। भारतीय समाज की सामाजिक संरचना में आधुनिकता के संदर्भ में राजनीतिक दल स्वयं अपनी नीतियों का रचते है। दलो के अन्तर्विरोध दलो की कार्यप्रणाली पर प्रभाव डालते है, इसलिए राजनीतिक दलो के व्यापक अध्ययन के लिए ऐसे अंतविरोधो की समीक्षा आवश्यक । जो अंततः सामाजिक व्यवस्था पर प्रभाव डालते है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. Bhazgava N.K(1995)-Democratization in feudal system.
2. Kaviraj A (1997) sociology.
3. कुमावत ललित (2008) पंचायती राज एंव वंचित समूह का उभरता नेतृत्व
4. ओमवेट गल (2009) दलित और प्रजातान्त्रिक क्रान्ति
5. Castles,J(1986)-impact of political parties. |