ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VI , ISSUE- XI February  - 2022
Anthology The Research
आमेर में जल प्रबन्धन की परम्परा - बावडियाँ
Tradition of Water Management in Amer - Stepwells
Paper Id :  15783   Submission Date :  02/02/2022   Acceptance Date :  19/02/2022   Publication Date :  25/02/2022
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महेश कुमार दायमा
असिस्टेंट प्रोफेसर
इतिहास एवं भारतीय संस्कृति विभाग
राजस्थान विश्वविद्यालय
जयपुर ,राजस्थान, भारत
सारांश आमेर रियासत में जल प्रबन्धन की परंपरा अति प्राचीन काल से प्रचलित रही है। यहां कूप, सरोवर व बावड़ी निर्माण के कार्यों को शासकों का सामाजिक एवं धार्मिक दायित्व माना जाता था। ग्रामीण इलाकों में वर्षा जल को संग्रह करने के लिए गाँवों-घरों में कुण्ड़ी, टांका, नाडी, जोहड़, बावड़ी आदि बनाकर उसका वर्षभर के लिए उपयोग में लिया जाता था। इन परंपरागत जल स्रोतों के निर्माण के पीछे पुण्यार्थ एवं कुल शौर्य प्रदर्शन की भावना का एक बड़ा योगदान था। इस कर्म को चिरस्थायी रखने की प्रबल ईच्छा के कारण बावड़ियों पर लेख उत्कीर्ण कराने की परंपरा प्रारम्भ हुई। राजस्थान, भारत का सर्वाधिक सूखा प्रान्त होने के साथ-साथ क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य है। जल की अल्प उपलब्धता की स्थिति को देखते हुए भविष्य में बढ़ती हुई जनसंख्या को पानी उपलब्ध करवाने के लिए जल विरासत को सहेज कर रखना अति आवश्यक है। जल संरक्षण परंपरा को आमेर की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में देखने पर ज्ञात होता है कि नाहरगढ़ पहाड़ी से बहकर आने वाली जलराशि एवं वर्षा जल को संरक्षित करने की दिशा में आमेर रियासत के कच्छवाहों, शासकों ने कई जन कल्याणकारी कदम उठाये जिसमें बावडियाँ भी एक थी।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In the princely state of Amer, the tradition of water management has been prevalent since time immemorial. Here the works of construction of well, lake and stepwell were considered as social and religious responsibility of the rulers. To store rain water in rural areas, it was used for the whole year by making kundi, tanka, nadi, johad, stepwell etc. Behind the creation of these traditional water sources, a great contribution was made by the spirit of charity and total valor. Due to the strong desire to keep this karma everlasting, the tradition of engraving articles on the stepwells started. Rajasthan is the driest state in India as well as the largest state in terms of area. In view of the situation of low availability of water, it is very important to preserve the water heritage in order to provide water to the increasing population in future. Looking at the water conservation tradition in the context of the historical background of Amer, it is known that the Kachhwahas, rulers of Amer princely state took many public welfare steps in the direction of preserving the water and rain water flowing from the Nahargarh hill, in which the stepwells were also one.
मुख्य शब्द बावड़ी, कूप, वापी, नाड़ी, कुण्ड।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Stepwell, Well, Vapi, Nadi, Kund.
प्रस्तावना
जल प्रकृति की अलभ्य, अनुपम और संजीवनी संपदा है, जिसके हर कण में प्राणदायिनी शक्ति है। जहां जल है वहां जीवन है प्राण और स्पन्दन है, गति है, सृष्टि है और मानव सभ्यता का आधार स्तंभ है। आमेर राज्य में जलस्रोतों के प्रति हमेशा ही आस्थासूचक भाव परिलक्षित होता है। यह भाव मानव मन के उस आवश्यक संसाधन के प्रति सम्मान का द्योतक है जो कि विकल्पहीन है। जल को देवतुल्य स्वीकार किया गया है। आप, आपः, अर्ण, सरस, उदक, वरुण, सलिल, नीर, अमृत, योनि, रेतस, पूर्ण, नभस, वारि, अंबु, तोय इत्यादि सौ नाम जल के पर्याय के रूप में निरूक्तादि ग्रंथों में ऋग्वेद से लेकर परिवर्ती साहित्य स्रोतों में उपलब्ध है।[1]
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोध पत्र का उद्देश्य आमेर में जल प्रबन्धन की परम्परा - बावड़ियों का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन
जल से ही भारतीय संस्कृति को जीवन और स्वर-स्पंदन मिला है, जल के साथ उनके भारतीय संस्कार, रीति-रिवाज व लोकाचार संपृक्त है। मानव शरीर का निर्माण पाँच तत्वों से निर्मित है, इस संदर्भ में ’’पाँच तत्व का पींजरा तामे पंछी पौन’’ वाली उक्ति सुप्रसिद्ध है। इन पाँच तत्वों में जल प्रमुख है क्योंकि इससे ही सृष्टि की रचना हुई है। जलस्रोत ही मानव सभ्यता के पालने कहे गए हैं। नदियाँ इसी अर्थ में जीवनदायिनी मानी गई है और आदिकाल से ही उनके प्रति प्रणभ्य भाव प्रकट किया गया है। आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः। ता यदस्यायनं पूर्व तेन नारायणः स्म तैः।।[2] जल सृष्टि का मूल स्रोत होने के साथ-साथ जीवन की एक अहम आवश्यकता है। जहां सभ्यता की विकास यात्रा जल एवं जल स्रोतों के साथ ही शुरू होती है वहीं भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में जल को देवतुल्य माना गया है। राजस्थान विपरित भौगोलिक स्थिति, उष्ण व शुष्क जलवायु, थार मरूस्थल तथा अरावली का मानसूनी हवाओं के समान्तर होने की वजह से कम व अनियमित वर्षा होती है, जिसकी वजह से यहां वर्षपर्यंत जल संकट बना रहता है। इस जल संकट के समाधान हेतु यहां के कर्मठ लोगों ने जल के बहुमुखी जल प्रबंधन के अनेकों प्रयास किये। इन प्रयासों ने समयान्तर के साथ-साथ जल-प्रबंधन व संचय की एक वैभवशाली व गौरवशाली परंपरा का रूप ले लिया। इसी परंपरा के मध्यनजर स्थान व जलवायु को ध्यान में रखते हुए अनेक प्रकार से जल को सहेज कर रखने के लिए कई स्थाई निर्माण किये गये, इनमें सर, सरोवर, टोबा, खड़ीन, तालाब, जलाशय, झील, बांध, सागर, समन्द्र, कुआँ, जोहड़, कुण्ड, नाड़ी, टांका, वापी अथवा बाव या बावड़ी प्रमुख है। बावड़ियों को संस्कृत में ’वापी’ कहा जाता है। प्राचीन शिलालेखों में बावड़ी के संस्कृत रूप वापी शब्द का उल्लेख मिलता है। संस्कृत के वापी या वापिका से ही हिन्दी में बाव या बावड़ी बना है। इसे बावली झालरा, बाव या बाओ आदि नामों से भी जाना जाता है। मराठी में इसे बारव, कन्न्ड़ में इसे कल्याणी व पुष्करणी तथा अंग्रेजी में स्टेपवेल भी कहा जाता है।[3] राजस्थान में जल संचय की परंपरा को अनावृष्टि, अकाल व सूखा ने ही प्रभावित नहीं किया बल्कि इनके विकास में धार्मिक, लोक मान्यताओं व सांस्कृतिक मान्यताओं का प्रमुख योगदान रहा है। थार मरूस्थल में स्थित जिलों के निवासियों ने जल के महत्व पर निम्न पंक्तियाँ लिखी है, जिसमें पानी को घी से भी बढ़कर बताया गया है - घी ढुल्याँ म्हारा की नीं जासी। पानी ढुल्याँ म्हारो जी बले।।[4] आमेर राज्य में जल प्रबंधन की परंपरा अति प्राचीनकाल से ही प्रचलित रही है। यहां कूप, सरोवर एवं बावड़ी निर्माण के कार्यों को शासकों का सामाजिक एवं धार्मिक दायित्व माना जाता था। आमेर शहर में स्थित बावड़ी स्थापत्य की एक विस्तृत श्रृंखला स्थापित है जिसके प्रत्यक्ष उदाहरण आमेर शहर में दृश्य है। यह बावड़ियाँ विविधता युक्त स्थापत्य की उत्कृष्ट उदाहरण है। इनमें ताकों, छतरियों, स्तम्भों व मण्डपों का सुदृढ़ एवं कलात्मक स्वरूप देखने को मिलता है।[5] बावड़ियाँ आमेर राज्य की अनुपम निधि है। इतिहास के परिप्रेक्ष्य में इन बावड़ियों का वही स्थान है जो अन्य ऐतिहासिक स्रोतों का माना गया है। बावड़ियों में अंकित शिलालेख विभिन्न ऐतिहासिक संदर्भों को अपने में समेटे हुए इतिहास लेखन में नवीन भूमिका प्रस्तुत करते हैं।
मुख्य पाठ
जल स्रोत तथा कला की दृष्टि से उत्कृष्ट आमेर शहर में स्थित इन बावड़ियों को इनके ऐतिहासिक महत्व के अनुकूल इतिहास में स्थान प्राप्त नहीं हुआ है। स्थापत्य कला की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट पाँच प्रमुख बावड़ियों का उल्लेख किया जा रहा है -[6]
1. पन्ना मीणा का कुण्ड़ (पन्ना मिया का कुण्ड़)  

2. नाकू बावड़ी

यह बावड़ी आमेर रोड़ से दिल्ली बाईपास रोड़ की तरफ जाने से आमेर महल से लगभग किलोमीटर दूर दाएँ ओर सत्यम कुंज गार्डन के पास से एक संकीर्ण रास्ता वहाँ तक जाता है। यह पश्चिम में देखती हुई बावड़ी है। बावड़ी का प्रवेश द्वार दक्षिण-पश्चिमी दिशा की ओर है। बावड़ी में प्रवेश करने पर 10 सीढ़ियाँ उतरने के बाद एक पाट बना हुआ है। उसके बाद 10वीं सीढ़ी उतरने पर दूसरा पाट बना हुआ है। इन सीढ़ियों व पाट के समानान्तर दोनों तरफ लम्बे पाटयें लगे हैं। सीढ़ियों के उतरने के बाद उर्द्धगुम्बुदार प्रवेशद्वार बना हुआ हैजिसमें दाएँ-बाएँ ताके बने हुये हैं। यह बावड़ी तीन खण्ड़ों में निर्मित है। 10-10 फीट के अंतराल पर तीन अर्द्धगोलाकार गुम्बदनुमा प्रवेशद्वार बने हैं। बावड़ी के पार्श्व भाग में पानी खींचने का ढाणा बना हुआ है जिस पर एक घिरणी लगी हुयी है। बावड़ी अलंकृत है जिस पर छोटे-छोटे अलंकरण बने हुये हैं। बावड़ी के पीछे एक पत्थर निर्मित कुआँ बना हुआ है जिसमें पानी उपलब्ध है। बावड़ी के चारों ओर पत्थर की ऊँची-ऊँची दीवारें बनी हुई हैं। संपूर्ण बावड़ी आयताकार है। इसमें तीन वर्गाकार कुण्ड बने हुये हैंदो कुण्डों में पानी उपलब्ध है। बावड़ी के पीछे परिसर में  वीर हनुमानजी का मंदिर तथा दाऐं ओर शिवालय बना हुआ है। बावड़ी का पनघट पूर्वी ईशान कोण में हैजिस पर कभी दो मशकों से पानी निकाला जाता था। बावड़ी में पानी भरा हैजिसका उपयोग पूजा के काम में लिया जाता है। बावड़ी कुएं के पीछे तक फैली हुयी है।

3. तेलियों की बावड़ी

 

नाकू बावड़ी से दो किलोमीटर दक्षिण दिशा में पारखों का मोहल्लामेंहदी का बास में चारों ओर आवासीय मकानों से यह बावड़ी घिरी हुई है। तंग रास्तों से गुजरते हुये यहां तक पहुँचा जा सकता है। यह पश्चिमी मुखी आयताकार बावड़ी है जो दो मंजिला है। प्रवेशद्वार से दोनों तरफ 20-20 सीढ़ियां कुण्ड में उतरने के लिए बनी हुई है। बावड़ी में 12 सीढ़ियों के बाद 4 X 12 वर्ग फीट की प्रथम पाट है एवं उसके बाद नीचे उतरते ही पानी का आयताकार कुण्ड बना हुआ हैजिसमें पानी भरा हुआ है। दोनों आयताकार कुण्ड के आगे 4-4 स्तंभों पर स्थित एक X 12 वर्ग फीट की कलात्मक तिबारी है। यह तिबारी दोनों तरफ से खुली हुई है। उक्त सीढ़ियों से तिबारी तक जाने के लिए कुण्ड की दीवार के सहारे दोनों तरफ 2-2 फीट चौड़े पाटिये लगे हुये हैं। तिबारी के आगे आयताकार कुण्ड बना हुआ है जिसमें गोलाकार कुआँ है। कुएं के ऊँपर ढाणा बना है। बावड़ी मुख्यतया तीन भागों में आगेमध्य एवं पीछे के भाग में विभाजित हैं। आगे के भाग में विभिन्न स्तरों पर सीढ़ियां बनी है। बावड़ी के चारों दिशाओं में चूने-पत्थर निर्मित ऊँची-ऊँची दिवारें बनी हुई हैं। बावड़ी घनी आबादी के मध्य स्थित होने के कारण अतिक्रमण युक्त है। बावड़ी के तीनों ओर ऊँची-ऊँची मंजिलें बनी हुई हैं।

4. छीला बावड़ी

 

मेंहदी का बास में सराय रोड़ पर तेलियों की बावड़ी से लगभग एक किलोमीटर दूर छीला बावड़ी स्थित है। यह पश्चिमीमुखी आयताकार बावड़ी है। बावड़ी के प्रवेशद्वार के दक्षिणी कोने में एक मंदिर निर्मित है। मंदिर के पास से बावड़ी में उतरने के लिए पाषाण निर्मित सीढ़ियां बनी हुई है। बावड़ी दो मंजिला तथा तीन खण्डों में निर्मित है। प्रथम दो खण्डों में वर्गाकार कुण्ड बने हुये हैं तथा अंतिम चरण में पक्का कुआँ बना हुआ है। यह बावड़ी 80 फीट लंबी तथा चौड़ाई 15 फीट है। प्रवेश द्वार के दोनों तरफ चौखटे बनी हुई है। बावड़ी में कुल 30 सीढ़ियां व पाटे हैं। अंतिम पाट पर 12 फीट ऊँचा, 10 फीट चौड़ा व फीट मोटा अर्द्धगुम्बादार दरवाजा बना हुआ हैजिसके दोनों तरफ रिक्त ताके बने हुए हैं। दरवाजे पर मुख्य पाट से दोनों दीवारों के सहारे-सहारे फीट चौड़ी पाटों के द्वारा दूसरे कुण्ड तक पहुँचा जा सकता है। बावड़ी की कुल गहराई 60 फीट है। बावड़ी के पीछे पानी खींचने का ढाणा बना हुआ है जो घिरणी रहित है। बावड़ी में दो वर्गाकार कुण्ड बने हुये हैं। दोनों कुण्डों के मध्य अर्द्धगुम्बादार दिवार व प्रवेश द्वार निर्मत है। बावड़ी अलंकृत है जिस पर छोटे-छोटे अलंकरण उकेरे गये हैं। बावड़ी में भरपूर पानी भरा हुआ है जिसमें आज भी आमजन स्नान करते हुऐ देखे जा सकते हैं। बावड़ी के पानी का उपयोग पूजा व स्नान के लिये किया जाता है।

5. गंगादासजी की बावड़ी


यह बावड़ी दिल्ली बाईपास रोड़ के बाएँ ओर किलोमीटर दूर ठाठर रोड़ से सराय रोड़ की तरफ जाने पर मुख्य सड़क पर स्थित है। बावड़ी का मुख्य प्रवेश द्वार पश्चिमीमुखी है। बावड़ी का प्रवेश द्वार 15 फीट ऊँचा तथा फीट चौड़ा हैद्वार में अर्द्ध मेहराब बना हुआ है तथा दाएं-बाएं तीन रिक्त ताखे बने हुऐ हैं। द्वार पर लोहे का मजबूत द्वार बना हुआ है। प्रवेशद्वार पर ही एक सुन्दर तिबारी बनी हुई है जिसमें एक मुख्यद्वार के साथ दो खिड़कियां बनी हुई है। तिबारी के छत पर जाने के लिए दाएँ-बाएँ सीधी सीढ़ियां बनी हुई है। तिबारी में सुन्दर कंगूरे बने हुये हैं। तिबारी का फर्श मजबूत तथा दिवारों को सफेद रंग करके चिकना किया गया है जो इसकी सुन्दरता बढ़ा रहे हैं। दिवारों पर साधारण अलंकरण बने हुए हैं। तिबारी के बाहर पत्थर का लंबा चौड़ा पाट बना हुआ हैवहीं से बावड़ी में उतरने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं। बावड़ी द्विस्तरीय है। बावड़ी एवं कुएं के मध्य एकदो मंजिला तिबारी 24 फीट ऊँची बनी हुई है उसके पीछे कुआँ स्थित है जो बावड़ी से जुड़ा हुआ है। तिबारी तीन स्तंभों से तीन भागों में बंटी है व तीन तरफ से खुली है। तिबारी के आगे की ओर कंगूरे व बेलबूटों की डिजाइन बनी है। प्रवेशद्वार के आगे के भाग में विभिन्न स्तरों पर सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। शुरूआत में एक चौड़ा चबूतरा बना हैउसके बाद सिढ़ियां सीधे पानी के कुण्ड तक जाती हैं। कुण्ड वर्गाकार बना हुआ हैउसके बाद एक ओर कुण्ड हैजिसके ऊपर एक तिबारी बनी हुई है। तिबारी आगे-पीछे से खुली हुयी है। तिबारी का फर्श बना है एवं तिबारी के अन्दर दोनों तरफ बड़े आले बने हैं। ऊपरी तिबारी से नीचे तिबारी में जाने के लिए दोनों तरफ सीढ़ियां बनी हुयी है। पीछे की तिबारी के पास एक अष्टकोणीय कुआँ बना हुआ है जिस पर दो ढेाणे बने हुऐ है तथा वहां पर एक घिरणी लगी है जिसका उपयोग पानी खींचने के लिए किया जाता था। बावड़ी व दिवार के मध्य फीट चौड़ी पाटे बने हुये हैं। बावड़ी की दीवारों पर कलात्मक डिजाइन बनी हुई है। 

निष्कर्ष इस बावड़ी का प्रयोग आमेर रियासत में आने वाले व्यापारियों के विश्राम स्थल व स्थानीय निवासियों के जलापूर्ति के लिए इसका निर्माण करवाया गया था। यह बावड़ी आज भी आमेर रियासत कालीन कुशल जल प्रबन्धन का उदाहरण है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. ऋग्वेद 10, 129, 1-3 2. सोलंकी, कुसुम, भारतीय बावड़ियाँ, सुभद्रा पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, 2013, पृ. 19 3. पूर्वोक्त, पृ. 20 4. भागीरथ, जुलाई-सितम्बर 2011, राजस्थान में जल संरक्षण की परम्परागत विधियाँ, केन्द्रीय जल आयोग, भारत, 2011, पृ. 08 5. सिंह, वाई.डी., राजस्थान के कुएँ एवं बावड़ियाँ, जोधपुर, 2002, पृ. 20 6. मौलिक शोध सामग्री