ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- IV July  - 2022
Anthology The Research
हिंदी: मुगल दरबार में
Hindi: In The Mughal Court
Paper Id :  16265   Submission Date :  04/07/2022   Acceptance Date :  17/07/2022   Publication Date :  25/07/2022
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अनुपमा त्रिपाठी
एसोसिएट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
हिन्दी विभाग
डी0बी0एस0 (पी0जी0) कॉलेज
देहरादून,उत्तराखंड, भारत
सारांश मुगलकालीन सामाजिक सांस्कृतिक समन्वय में भक्ति और सूफी संतों का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। अकबर काल में हिन्दू - मुस्लिम शैली का समन्वय देखने को मिला। मुगल सम्राट साहित्य प्रेमी एवं विद्वान थे इसलिए उन्होंने फारसी भाषा के साथ साथ हिन्दी भाषा को भी प्रश्रय दिया। इस काल में ही बीरबल, तुलसीदास, सूरदास और रहीम जैसे कवियों ने हिन्दी को साहित्य सृजन का माध्यम बनाया।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The influence of Bhakti and Sufi saints is clearly reflected in the socio-cultural coordination of the Mughal period. During the period of Akbar, the harmony of Hindu-Muslim style was seen. The Mughal emperor was a lover of literature and scholar, so he gave shelter to the Hindi language along with the Persian language. It was during this period that poets like Birbal, Tulsidas, Surdas and Rahim made Hindi the medium of literary creation.
मुख्य शब्द मुगल दरबार, गंग कवि, रहीम, अकबर, तुलसीदास।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Mughal Court, Gang poet, Rahim, Akbar, Tulsidas.
प्रस्तावना
हिन्दी साहित्य का संपूर्ण मध्यकाल यद्यपि अपनी काव्य-सम्पदा तथा कलात्मक गरिमा में अनुपम एवं अद्वितीय रहा है, तथापि मुगल दरबार से हिन्दी को जिस प्रशय, प्रेरणा, प्रतिष्ठा तथा शक्ति की प्राप्ति हुई वह अविस्मरणीय है। वीरगाथा काल से चले आ रहे हिन्दी साहित्य को उदार एवं सहृदय मुगल सम्राट अकबर का विशिष्ट संरक्षण प्राप्त होना हिन्दी की श्रीसम्पन्नता के लिये एक मंगलमय पर्व था, जब धर्म, संप्रदाय, भाषा तथा संस्कृति के बन्धनों को तोड़कर सम्राट अकबर ने स्वयं ब्रज भाषा में काव्य रचना की - जाको जस है जगत में, जगत सराहै जाहि। ताको जीवन सफल है, कहत अकबर साहि।। तथा प्रधान सेनापति एवं मंत्री अब्दुर्रहीम खानखाना ने फ़ारसी संस्कृति को भारतीय संस्कृति में विलीन करके अपनी समस्त काव्य-प्रतिभा हिन्दी की आराधना में अर्पित कर दी। यह दो संस्कृतियों का मिलन-पर्व था जब खानखाना ने बरवै छन्द में नायिका-भेद लिखकर अवधी का अभिनन्दन किया तथा लोकमंगल हेतु नीतिकाव्य लिखकर ब्रज-भारती की आरती उतारी और ब्रज भाषा के सुकवि महाराज टोडरमल ने फ़ारसी के प्रचार-प्रसार में अपने को समर्पित कर दिया। अकबर का दरबार फ़ारसी के साथ-साथ ब्रज-काव्य की साधना-स्थली बन गया। सुरूचि-सम्पन्न उत्कृष्ट रीतिकाव्य, श्रृंगारकाव्य, प्रशस्तिकाव्य तथा नायिका-भेद, हास्य, उत्साह, नीति, सूक्ति, व्यंग्य, समस्यापूर्ति अध्यात्मज्ञान एवं काव्यशास्त्र की बहुमूूल्य सम्पदा से हिन्दी की श्रीवृद्धि होने लगी।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत षोधपत्र में मुगल दरबार में हिन्दी की भूमिका को दरशाने का प्रयास किया है। मध्यकाल में मुसलमान कवियों ने हिन्दी में लिखा है लेकिन मुगल दरबार में भी फारसी भाषा का प्रचलन होने के साथ साथ हिन्दी को प्रश्रय मिला।
साहित्यावलोकन

अकबर के दरबार में अनेक उच्च कोटि के हिन्दी कवि हुए हैं। इनमें सबसे श्रेष्ठ खानखाना अब्दुर्रहीम हैं जिन्हें तुर्की, फारसी, अरबी, संस्कृत और हिन्दी भाषाओं का पूर्ण ज्ञान था। रहीम को मुगल दरबार के कई राजाओं का आश्रय प्राप्त करने का सौभाग्य मिला। अकबर के दरबार में एक और कवि गंग थे। जिनके फुटकल पद व कवित्त प्राप्त हुए हैं। अकबर के दरबार में कई कवि हिन्दी कविता के उन्नायक रहे स्वयं सम्राट अकबर भी हिन्दी में कविता लिखा करते थे मुगल काल में धार्मिक आन्दोलनों में प्राचीन तथा नवीन मतों का समन्वय मिलता है। मुगलकालीन साहित्य में सहिष्णुता, व्यापक एवं उदार दृष्टिकोण के साथ साथ समन्वयपूर्ण रचनाएं मिलती हैं।

मुख्य पाठ

अकबर के दरबारी कवि नरहरि ने रूक्मिणीमंगल, छप्पयनीति तथा कवित्तसंग्रह नामक ग्रंथों की रचना की और करनेस ने कर्णभरण, श्रुतिभूषण तथा भूपभूषण नामक अलंकार ग्रंथों का प्रणयन करके हिन्दी को अलंकृत किया। कवि गंग तथा वीरबल ने काव्य-साधना के साथ-साथ हिन्दी को, फारसी से पृथक अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखने में पूर्ण सहयोग प्रदान किया। टोडरमल, पृथीराज, मनोहर तथा होलराय ने भी अकबरी दरबार के हिन्दी काव्य की अभिवृद्धि की। चिन्तामणि ने शाहजहाँ, दाराशिकोह तथा शाहशुजा का प्रशस्तिगान किया और उनके संरक्षण में रसचन्द्रिका, रामाश्वमेघ, रसविलास, छन्दविचार, कविकुल-कल्पतरू, काव्यविवेक, रसमंजरी तथा श्रृंगारमंजरी लिखकर हिन्दी में रीतिकाव्य की अनवरत परंपरा का प्रारम्भ किया।
फ़ारसी की प्रतिस्पर्द्धा में इस समय हिन्दी को अपने अस्तित्व की रक्षा करनी थी। भक्ति की दुनिया में धूनी रमाने वाला कवि यह दायित्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता था। अतः राज्याश्रय में रहकर स्थिति के अनुकूल काव्य-रचना करना ही हिन्दी की सच्ची सेवा थी। मुगल दरबार में हिन्दी कविता को उर्दू शायरी के साथ मोर्चा लेना पड़ता था।
उधर शेर और ग़जल पर वाह-वाह, तो इधर कवित्त, सवैया, छप्पय और दोहों की झड़ी दरबार को तन्मय बना देती थी। ब्रज भाषा की मिठास फ़ारसी के गढ़ में प्रवेश करने के साथ-साथ सहृदय मुसलमानों के हृदय में भी स्थान पा चुकी थी। उत्तराखण्ड से लेकर पंजाब, पूना तथा सतारा तक के राजे-रजवाड़े अमीर-उमरा तथा सामान्य जन-जीवन तक को ब्रज-माधुरी अनुप्राणित करने लगी थी। शेख नामक रंगरेजिन की ब्रजकाव्य-प्रतिभा पर ही मुग्ध होकर बादशाह मुअज्जम शाह के आश्रित कवि आलम ने उसके साथ विवाह कर लिया तथा स्वयं ब्राह्मण से मुसलमान बन गए, यह घटना लोकप्रसिद्ध है।
फ़ारसी राज्यभाषा अवश्य थी किन्तु ब्रज जन-जन के मन की भाषा बन गई थी। हिन्दी के लोक-साहित्य की ओर अकबर तीव्र गति से प्रवृत्त हुआ। उसने राजस्थानी लोकगीतों का संग्रह कराया तथा नल-दमयन्ती की प्रेमकथा को फ़ारसी के प्रसिद्ध कवि फ़ैजी द्वारा अनूदित कराया। अनुकरण स्वरूप इब्राहिम आदिलशाह द्वितीय ने किताब-ए-नवरसनाम से एक उत्कृष्ट संगीत-ग्रंथ की रचना ब्रजभाषा में की।
मुग़ल शासन में हिन्दी को राजकीय मान्यता भी मिली। मुग़ल सूबेदार आसफ़ खाँ ने दक्षिण-विजय पर कुछ युद्ध सहायकों को ब्रजभाषा में प्रमाण पत्र प्रदान किए। औरंगजेब द्वारा मिर्जा राजा जयसिंह को भेजा गया पत्र ब्रजभाषा में ही है। मुग़ल शाहज़ादियों की काव्य-शिक्षा ब्रजभाषा के कवियों द्वारा ही सम्पन्न होती थी। इस प्रकार ब्रजभाषा को वैभवसम्पन्न बनाने में मुग़ल शासनतंत्र की भूमिका प्रमुख थी, मन्दिरों और मठों की गौण।
मुग़ल दरबार की हिन्दी कविता में भाव एवं भाषा दोनों का ही मणिकांचन योग है। यदि कहीं पाण्डित्य-प्रदर्शन है तो वहाँ जीवन की गहराई एवं मर्यादा अवश्य सुलभ है। समन्वय के इस युग में ब्रज के साथ अवधी, कन्नौजी, बुन्देलखण्डी तथा राजस्थानी का मिश्रण भी दृष्टिगोचर होता है। गंग की कविता ऐसी ही है। भिखारी दास कवि के शब्दों में-

तुलसी गंग दुवौ भए, सुकविन के सरदार।

जाकी कविता में मिली, भाषा विविध प्रकार।।

मध्ययुगीन कविता की समस्त उत्कृष्ट कलात्मक विशेषताओं से सम्पन्न मुग़ल दरबार का हिन्दी-काव्य युगगत दोषों से मुक्त है। इसमें स्वाभाविकता, प्रभावोत्पादकता तथा औचित्य के प्रति दृढ़ता उच्च कोटि की है। आश्रयदाताओं के सद्गुणों की इन कवियों ने जहाँ मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है, लोकविरूद्ध नीतियों के प्रति उन्हें सजग भी किया है। नरहरि की काव्य-प्रतिभा ने गोवध बन्द कराकर महामानव अकबर को गोसेवक दिलीप के सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया तथा मीना बाजार समाप्त कराकर कवि को अकबर द्वारा दुर्लभ सम्मान प्राप्त कराया। सम्राट ने नरहरि की पालकी अपने कन्धे पर उठाकर इस औचित्य-बोध के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा एवं कृतज्ञता ज्ञापित की। नरहरि के शब्द आज भी भारतीय जनता का मार्गदर्शन कर रहे हैं -

जिय जाय जदपि भलपन करत,

तदपि न भलपन चुक्किये।

इस प्रकार मुगल दरबार का हिन्दी कवि आश्रयदाता का कोरा प्रशंसक न होकर उसका पथप्रदर्शक था, गुरू तथा जनकल्याण का प्रहरी था। कवीन्द्राचार्य सरस्वती ने शाहजहाँ तथा दाराशिकोह की प्रशस्तियों का संकलन करके उन्हें प्रसन्न किया और काशी तथा प्रयाग के तीर्थयात्रियों पर लगाये गये करों को समाप्त कराया। प्रशंसा के शब्द भी उपकृत जनमानस के पुनीत  आशीर्वचन हैं -

यह राजसमाज रहै थिर तौलौं, जौलों जमुना गंग।

मुग़ल दरबार की हिन्दी कविता में वीरत्व का निष्पक्ष तथा यथार्थ चित्रण मिलता है। गंग कवि ने युद्ध-वर्णन के सन्दर्भ में अकबर को जहां अर्क (सूर्य) कहा है, वही महाराणा प्रताप को ही, एकमात्र, उस तेज के समक्ष खड़ा होने में समर्थ बताया है। गंग कवि की इस समन्वयप्रधान, लोककल्याणकारी तथा निष्पक्ष काव्य-प्रतिभा पर प्रसन्न होकर प्रोत्साहनस्वरूप रहीम ने उन्हें छत्तीस लाख रूपये का पुरस्कार दिया था। इस अहंकारहीन दानशीलता के प्रति आभार-प्रदर्शन में गंग ने जो कुछ कहा उसका मूल्य इस पुरस्कार से कम नहीं है -

सीखे कहाँ नवाब जू, ऐसी देनी दैन।

ज्यों-ज्यों कर ऊँचे करौ, त्यों-त्यों नीचे नैन।।

इस छोटे से दोहे में व्यंजना की अद्भुत शक्ति भरी पड़ी है।

निष्कर्ष वस्तुतः मुगल दरबार में हिन्दी को प्राप्त प्रश्रय, प्रेरणा, प्रतिष्ठा एवं शक्ति वर्तमान परिस्थितियों में भारतीय जनता के समक्ष एक अनुपम आदर्श प्रस्तुत करने तथा साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं सामाजिक समन्वय तथा राष्ट्रीय एकता के अभियान में हमारा मार्गदर्शन करने में पूर्ण सक्षम है। अकबर के शासनकाल में हिन्दी साहित्य को विकसित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ ।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी - हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास 2. लक्ष्मी सागर वार्श्णेय - हिन्दी साहित्य का इतिहास 3. भिखारीदास - काव्य निर्णय 4. गंग कवि - गंग कवित्र 5. डॉ0 श्याम सुन्दर दास - हिन्दी भाषा और साहित्य 6. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - हिन्दी साहित्य का इतिहास