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कवि चिरंजी लाल चंचल के काव्य संग्रह ‘‘हार नहीं मानूँगा’’ में सामाजिक जागृति (युवा प्रेरणा के विशेष सन्दर्भ में) | |||||||
Social Awakening in Poet Chiranji Lal Chanchals Poetry Collection “Haar Nahi Manunga” (With Special Reference to Youth Inspiration) | |||||||
Paper Id :
16299 Submission Date :
2022-08-08 Acceptance Date :
2022-09-09 Publication Date :
2022-10-25
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सारांश |
डॉ॰ चिरंजी लाल चंचल का व्यक्तित्व संत कबीर सरीखा तेज़ एवं सत्य स्पष्टवादिता से ओतप्रोत है। अपने रचना संसार के माध्यम से संत कबीर ने जो संदेश दिया ठीक वैसा ही संदेश लेखक चंचल जी की काव्य रचना में पाता है। लेखक स्वयं भी कई बार चंचल साहब से मिला है उनको देखते ही उसे प्राइमरी कक्षा में पढ़ा याद आता है कि पृथ्वी कभी आग का गोला थी धीरे-धीरे ठंडी हुई और जीवों की उत्पत्ति हुई। डॉ॰ चंचल साहब का व्यक्तित्व भी आग से धधकता हुआ गोला है लेकिन वह आग किसी का घर फूंकने के लिए नहीं बल्कि नवांतुकों को नयी दिशा, रोशनी प्रदान करने हेतु है। इस शोध-पत्र के सन्दर्भ में लेखक ने चंचल जी के काव्य की भूमिका और समीक्षा लिखने वाले डाॅ0 अरविन्द गौतम साहब से भी कई बार मुलाकात की चंचल जी के प्रखर व्यक्तित्व पर डॉ॰ गौतम वेबाक टिप्पणी में कहते हैं कि डॉ॰ चिरंजी लाल चंचल उत्साह का कभी न थकने वाला ख़ज़ाना है, युवाओं के प्रेरणा स्रोत हैं और साहित्यिक जगत के धधकते सूर्य हैं। डॉ॰ चंचल जी की यह पंक्ति ‘‘लुटा हूँ, कुटा हूँ फिर भी जुटा हूँ। लेखक को नयी प्रेरणा और स्फूर्ति से भर देती है।
चंचल जी की शैली बड़े ओजस्वी शब्दों से निर्मित है- ‘एक दम आ जाना भा जाना और छा जाना‘‘ चिंतन करने पर मजबूर कर देती है।
बातो ही बातो में चंचल जी अपने मन की बात कह जाते हैं-अपनी प्रहारक सृजनात्मक क्षमताओ को प्रक्षेपित करते समय यह देखाना भी नितान्त आवश्यक है कि वे लक्ष्य की दिशा में गमन कर रही है या उसका प्रक्षेपण लक्ष्यहीनता को दपर्ण दिखाने या अन्धविश्वास पूर्ण रूढ़ियों के प्रचारक और प्रसारकों को अथवा स्थितिवादी रूढ़ भीरूता को बढ़ावा देना है।’’
चंचल जी उद्देश्य हीन इंसान और समाज को पंसद नहीं करते हैं।
डॉ॰ चंचल एक उच्चकोटि के सर्जक हैं वे लिखते हैं - सर्जक का कार्य समीक्षा करना है। घटित घटनाओं को संकलित करना और सकारात्मक मूल्यांकन हेतु उछाल देना है।’’
कवि चंचल विश्व के कल्याण हेतु कामनारत हैं वे लिखते हैं- प्राणी मात्र का कल्याण हो राष्ट्र की एकता अखण्डता, सम्प्रभुता, क्षमता, समानता और सद्भाव पूर्ण सौहार्दता अक्षुण्य रहे ऐसी उनकी कामना है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The personality of Dr. Chiranji Lal Chanchal is full of sharpness and truthfulness like Saint Kabir. The author finds exactly the same message in the poetry of Chanchal ji, which was given by Saint Kabir through his creation Sansar. The author himself has met Chanchal Saheb many times; on seeing him, he remembers having read in the primary class that the earth was once a ball of fire, gradually cooled down and the living beings originated. The personality of Dr. Chanchal Saheb is also a blazing fire, but that fire is not meant to burn anyone's house but to provide new direction and light to the newcomers. In the context of this research paper, the author also met Dr. Arvind Gautam, who wrote the role and review of Chanchal ji's poetry, many times. He is an inexhaustible treasure of literature, a source of inspiration for the youth and a shining sun of the literary world. This line of Dr. Chanchal ji “I am looted, I am beaten, still I am united. Fills the writer with new inspiration and enthusiasm. Chanchal ji's style is made up of very powerful words - 'Ek Dum Aa Jana Bha Jana and Chha Jana' compels one to contemplate. Chanchal ji speaks his mind in every talk - while projecting his striking creative abilities, it is absolutely necessary to see whether they are moving in the direction of the goal or its projection is a mirror of aimlessness or superstitious stereotypes. Propagandists and broadcasters or situational stereotypes have to be promoted. Chanchal ji does not like aimless people and society. Dr. Chanchal is a top class initiator, he writes - The work of the initiator is to review. To compile the incidents that have happened and to bounce for positive evaluation. The poet wishes for the welfare of the fickle world, he writes- He wishes that the unity, integrity, sovereignty, competence, equality and harmony of the nation should remain intact. |
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मुख्य शब्द | प्रेरणा, युवा मन, उमंग, अभिशाप, प्रपंच, लौकिक ज्ञान, याचक, परिवेश। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Inspiration, Young Mind, Enthusiasm, Curse, World, Worldly Knowledge, Petitioner, Environment. | ||||||
प्रस्तावना |
कवि की हर कविता युवा मन को नित नये आयाम छूने को प्रेरित करती है। इनकी ओजस्वी लेखनी मुर्दे में भी जान डाल दे ऐसी प्रतीत होती है। दौर चाहे कोई सा हो चंचल की कविता ने कभी दबना नहीं सीखा। इनकी कविता पढ़ते वक्त लगता है कि दो शेर परस्पर बात कर रहे हो। बिजली की गड़गड़ाहट, बादलों की चमक, उमंग की फुहारे ऐसा कुछ अनुभव करेंगे। प्रतीत होता है कि कवि खुद बहुत संघर्ष और पीड़ा से गुज़रा है। कविता में ज़मीनी बात करना, हक़ीक़त से जुडे़ रहना और होश बरकरार रखना प्रमुख रूप से देखने को मिलता है। कविता मूल रूप से हकीकत से जुड़ी रहना ही बड़ी बात है। इन्हीं गुणों के कारण लेखक को शोध पत्र लिखने की प्रेरणा मिली।
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अध्ययन का उद्देश्य | कवि चिरंजी लाल चंचल के काव्य संग्रह ‘‘हार नहीं मानूँगा’’ में युवा प्रेरणा के विशेष सन्दर्भ में सामाजिक जागृति का अध्ययन करना है। |
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साहित्यावलोकन | हिन्दी साहित्य के विकास में सच्चे अर्थो में उन्हीं साहित्यकारों का अभूतपूर्व योगदान माना जायेगा जिन्होंने क्या है और क्या होना चाहिए को चरितार्थ करने को श्रेयस्कर माना है। साहित्कार अध्ययन और अनुभव से जो कुछ परिवेश में पाता है, यदि व उससे संतुष्ट है तो उसे अपने सृजन से संस्तुति करता है और यह वह संतुष्ट नहीं है तो उसमें परिवर्तन, और कभी-कभी आमूल चूल, परिवर्तन को महत्व देता है। कवि की सोच सकारात्मक है तो उसमें स्वानुमोदित सोच को रूपायित करेगा और यदि इसके विपरीत है तो नकारात्मक को बढ़ावा देगा। इस स्थिति में यह आवश्यक नहीं है कि उसका परिवेश, उसका समाज और सामीप्य उसे स्वीकारें। यदि कोई साहित्यकार तर्क की कसौटी पर रखकर समय सापेक्षता को ध्यान में रखकर और लोकहित को सहेजकर एक नई दिशा देता है, तो प्रायः उसे लोक स्वीकृति भी मिलती है, हां यह हो सकता है। इस स्वीकार्य में विलम्ब लेगा। डाॅ0 चिरंजी लाल चंचल द्वारा सृजित काव्य ऐसा ही है। युग दृष्टा सन्त कवि कबीर ने अपनी विचारधारा ही प्रचलित नहीं कर दी बल्कि इसे प्रचलित करने के लिए पर्याप्त संघर्ष करना पड़ा। शैव, वैष्णव, नाथ अघोरी आदि अनेक वर्णो एवं सम्प्रदायों के प्रहारों को झेलना और मुहँ तोड़ जबाब देना पड़ा और ऐसी सोच और चिन्तन को सामने लाना पड़ा जो तर्क सम्मत है, अकाट्य है और अटूट है। यदि ऐसी प्रसांगिकता नहीं होती तो समाज का यह वर्ग जो छाया हुआ था दबे कुचले वर्ग को कैसे स्वीकारता? इस स्वीकार्य में कबीर का धैर्य, कठोर साधना, दृढ़ता। |
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मुख्य पाठ |
वैष्णवेत्तर सन्त साहित्य की यह एक उल्लेखनीय विशेषता है कि
उन्होंने सकारोपासना से अधिक निराकरोपासना पर और भक्ति से अधिक ज्ञान एवं योग
साधना पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिया। ज्ञान के क्षेत्र से प्रविष्ठित व्यक्ति में
तर्क की शक्ति का उदय होता है वह तथ्य तक पहुँचने का प्रयास करता है, सफ़लता कितनी
मिलती है,
यह लगन,
साहस,
परिस्थितियों और साधनों आदि की एकजुटता पर निर्भर करता है।
कबीर के युग में जिस सामाजिक चेतना का उदय हुआ उसकी गति समतल में उतर आयी नदी की
भाँति हो गई। बीसवी सदी में विकासात्मक चिन्तन की धारा को पुनः गति मिली है। इस
गति से सन्त कवि कबीर जैसे दूरदर्शी व्यक्त्तिव की छवि विचारकों में दिख रही है।
ऐसे विचारक कवियों में एक नाम डॉ0 चिरंजी लाल चंचल का भी है। कदाचित इसीलिए
उन्होंने अपने प्रस्तुत काव्य संग्रह का नाम ‘‘हार नहीं मानूँगा’’ रखा है। इस निश्चिय में सन्त कवि कबीर की विनम्रतापूर्ण
दृढ़ता के दर्शन होते हैं,
एक लक्ष्यपथी की भाँति निश्चय के दर्शन होते हैं और एक कठोर
साधना में लगे साधक की अटूट अनवरतता के दर्शन होते हैं। ‘‘हार नहीं मानूँगा‘‘
की रचनाएं दृढ़ता एवं अनवरतता के दर्शन कराती है जिससे कुछ
कर दिखने का अथवा परिवर्तन का अनुमान होता है। यथार्थ के धरातल पर उतर कर कवि-श्रेष्ठ डॉ0 चचंल विचार प्रधान
काव्य-सृष्टि के संलग्न होने के लिए ‘‘हार नहीं मानूँगा’’ की प्रथम रचना से ही क्रमिक विकास, सर्वमोन्मुखी
जागृति और दृढ़ता के लिए उत्साहित नज़र आते है - सिर देंगे, स्वाभिमान पे शासन करने ना देंगे।[1] प्रपंचों के देन अलौकिक, लौकिक सत्य
खरा है। भीरू शरण अलौकिक में रहे, जो लौकिक से
डरा है।। भावुक धन्धे बाजों के, फन्दे से फंस
के मरा है। समय सदा बलवान रहा, वह टारे नहीं
टरा है।। प्रण से पृथक वरण कोई अब, वरने न
देंगे। सामाजिक जीवन का महत्व ही तब है जब स्वाभिमान स्वाभाविक गति
से जी रहा हो,
शांति और सन्तोष की सुधा पी रहा हो। विसंगतियों से परिपूर्ण
समाज ने,
बल्कि समाज के वास्तविक रूप से अल्संख्यक समाज ने उस बड़े
अंश को अपने खोखले आदर्शो से दिग्भ्रमित किया जो स्वयं बहुसंख्यक होते हुए
प्रपंचों में फँसता रहा,
स्वाभिमान को आर्त होने देता रहा। इस स्थिति से अवगत होता
हुआ डॉ0 चंचल का कवि एक और स्वाभिमान की रक्षा को कटिबद्ध होता है और दूसरी ओर उस
प्रपंचात्मक झूठी सृष्टि की विश्वसनीयता में लाने का यत्न करेंगे। यहां
विश्वसनीयता को स्पष्ट करना अपेक्षित प्रतीत हो रहा है। लौकिक ज्ञान के क्षेत्र
में समाज का एक विशिष्ट वर्ग न केवल प्रविष्ट हुआ बल्कि उसने आडम्बर आदि के माध्यम
से अलौकिक जगत की सृष्टि समाज पर थोप दी जबकि सर्प-रज्जु के भ्रम से अधिक नहीं थी।
स्वयं को सुखी बनाने और प्रतिष्ठित करने के लिए ऐसे रज्जु में बंध गया जिसमें से न
निकल पाना मानो उसकी एक नियति हो गई। कुशल विचारक डॉ0 चंचल ने जागृति की बात को बल
पूर्वक कहा जिससे स्वाभिमान की रक्षा हो सके। पाहन पूजे हरि मिलै तौ मैं पूजँ पहार।[2] पण्डित बाद बंदते झूठा। राम कहँया दुनिया गति पावै, खण्ड कहे मुख
मीठा। पावक कहँया पाँव जे दाझे, जल कहि
त्रिखा बुझाई। भोजन कह्याँ भूख जे भाजै, तौ सब कोई
तिर जाई।। अर्थात प्रस्तर-प्रतिमा पूजने से परमात्मा मिल जाये तो कबीर पर्वत (पत्थर का प्रकट विशाल रूप) को पूजने को तैयार हैं, ये खोखली और मिथ्या बाते हैं जिसमें कहा गया है कि राम का नाम मात्र लेने से मुक्ति मिल जायेगी इस विचार की खिल्ली उड़ाते हुए कहा गया कि यदि यह सम्भव है तो खाण्ड खबद के उच्चारण मात्र से मुँह मीठा होना चाहिए, पावक शब्द बोलने से पांव जलना चाहिए, जल शब्द के उच्चारण से प्यास बुझनी चाहिए और भोजन शब्द के कहने मात्र से भूख की समस्या का निदान होना चाहिए। तर्क के बल से कबीर ने पण्डितों के कथन का थोथापन प्रकट कर दिया है। इसी प्रकार डॉं0 चंचल कहते हैं- तर्क युक्त चिन्तन को चंचल जरने ना देंगे। जो अभिशाप समाज को घेरे हुए है उनमें परिवर्तन लाने के लिए
मानो कवि पूरी तरह से संकल्पित होता है कि जब तक लक्ष्य को हस्तगत नहीं कर लिया जाता
है तब तक हार मानने का प्रश्न ही नहीं उठता है - समय के सब अभिशापों को उपहार नहीं मानूंगा।[3] अन्तिम सांस तक लडूंगा इससे हार नहीं
मानूंगा। याचक बनकर जीने से उत्तम जीवन खो देना। ये भी तो न उचित, देखकर बाधाएं
रो देना। उत्साहहीन जीवन में अब बस है जीवन बो देना। मानव उप से भाग्यवाद की पंक हरेक धो देना। विवेक शून्य बौद्धिकता को, आधार नहीं
मानूंगा।। पद्यांश की प्रथम पंक्ति में उपहार शब्द ध्यान देने योग्य
है, पुरानी
परम्पराएं उपहार नहीं है,
उनके अधिकांश को बदलना अपेक्षित है, स्पष्ट है कि
कवि उन्हीं को परिवर्तन के दायरे में लाना चाहता है, जिनमें बदलाव अपेक्षित हे। जिस याचकता ने स्वाभिमान को खो
दिया है, उसके बदलाव में यदि बाधाएं आती है तो यहां रोने से भाग्यवादी बनने से काम
नहीं चलेगा बल्कि इस कोटि की कींच को हटाना होगा तथा विवेक शून्य होकर बुद्धि को
प्रयोग में लाना समझदारी नहीं है। कविवर चंचल की यह विशेषता है कि उन्होंने बुद्धि
को अधिक महत्व दिया है और आवेश में डूबने की भावना पर अंकुश लगाया है। संसार में
वहीं कुशल विचारक कहलाता है जो यथार्थ और आदर्श को ऐसे प्रस्तुति दे जैसे दर्पण
सभी कुछ स्पष्ट कर देता है। नर जंग-रक्षक, उसका रक्षक, उसके सिवा न कोई।[4] कर्म काण्डियो ने हर उर में, हीन भावना
बोई। सर्वशक्ति सम्पन्न मनुष्य को, घेर दिया
घेरों में विवेक शून्य किया भय फैलाकर बाँध दिया फेरो
में।। सच से आँख मिलाते डरता, घूमें वह
अन्धेरों में। तज यथार्थ को, रहता है जो माया के डेरों में। इसे कबीर समझाते थक गये, साथ थक गई
लोई।। मनुष्य जिस युग में जी रहा है, उसमें उसकी
रक्षा उसका सदाचरण ही कर सकता है,
कर्म काण्डियों ने ऐसी शक्ति अपने अन्तर में आडम्बर से
उत्पन्न की और शेष समाज में हीन-भावना भर दी जिससे स्वाभिमान का निरन्तर क्षय होता
चला गया। इस क्षय-रोग से मुक्ति का उपाय सामान्य मुक्तियों से बल्कि सशक्त
शक्तियों के प्रयोग से,
असाधारण जागृति से, रूढ़ियों के तोड़ने से और अनेक बार मरोड़ने से ही सम्भव है।
बुद्धि के योगदान को नकारना नहीं बल्कि स्वीकारना है। प्रतिभा सम्पन्न कवि चचंल ने
एक हिन्दी कवि को स्मरण में रखा,
उस कवि की एक पंक्ति है - वसै बुराई जासु उर ताही को सनमान। अर्थात जिसके हृदय में व्यवहार में और सेाच में बुराई
समावेषित हो चुकी है,
उसने समाज को ऐसा ग्रसित किया है कि समाज उसे सम्मान देने
मेें कोई संकोच नहीं करता है। कवि ने इस यथार्थ के रहस्य को भली भाँति समझ लिया है
जिसमें बदलाव लाने के लिए कठोर पग उठाना ही मानो ठीक उपाय है। एक आदर्श वाक्य है
समस्त विश्व एक परिवार है लेकिन इसी वाक्य को आदर्श मानने वाले की स्थिति को सामने
रखते हुए डॉ0 चंचल ने विचार किया है जो यथार्थ से अनुमोदित है। द्वेष वाले के साथ द्वेष व्यापार नहीं करना है बल्कि
शल्य-चिकित्सा का उपाय करना है- एक थे, एक हैं,
एक रहना हमें,[5] सोचे जो बाँटने की वह बँट जायेंगे।। आँच सम्प्रभुता पर आई जो राष्ट्र की, कौन कहता है हम पीछे हट जायेंगे।। इसलिए प्रत्येक पग सजगता और स्पष्टता सामने रहनी चाहिये।
सबलों को लक्ष्य करके कवि कहता है - जो सबल है पथी वह न भयभीत हों। वह इसलिए भयभीत न हो जिनका सोच संकुचित है उन्हें ही अधिक
सावधान रहने की आवश्यकता है- क्षेत्र चिन्तन का जिनका है व्यापक नहीं,[6] अपनी सीमा में निज को रखें घेर कर। जो ना चलते समय से मिलाकर कदम, अपना अस्तित्व रखते स्वयं ढेर कर।। उक्त उद्धरण में तीसरी पंक्ति विशेष रूप ज्ञान देने योग्य
है। समय की अपेक्षा को समझना अत्यधिक आवश्यक है, इस ओर जिनका ध्यान नहीं जाता है समझ लिजिए कि वह अपने
अस्तित्व को ही प्रश्न-चिह्न के दायरों में खड़ा कर देते हैं। इसलिए ऐसी जड़ता की
परिवेश में जीने वालो को कवि की सजगता पूर्ण चेतावनी समयोचित है, इसे आवेश या
आक्रोश की परिधि में रखकर नहीं देखना चाहिए- सिर हथेली पर रखकर, घर से निकले
हैं हम,[7] सोच लो हमको कैसे हरा पाओगे।। कविवर चंचल कबीर को ध्यान में रखते हुये कहते हैं- स्वयं को कहते वैभव से भरा, जो जड़ तक
रीते हैं।[8] इनके जीवन पीढ़ी साथ से पाखण्डों में बीते
हैं।। नर जिन को बनाकर भेजा गया, मांगे वे कर
नर दो। निज की जो रक्षा कर न सका, मिट वह
सिन्दूर गया। विश्वास किया श्रम पर जिसने भीरू हो शूर गया। रात्रि से कहे, विनती सुन लो, दूर जीवन तम धर दो।। यथार्थ और अनुभव को शब्दायित करने की कला कविवर चंचल में
विलक्षण है जो स्वयं निर्द्धन्द्ध नहीं है उनसे वरदान मांगना बुद्धि का खोखलापन ही
कहा जायेगा। कुछ पंक्तियों का अवलोकन समीचीन प्रतीत होता है- जो विमुख रहे नैतिकता से, सिद्धान्त
जला डाले।[9] निष्ठा बदली, चिन्तन बदला, सब नियम गला डाले।। पीछे मुड़कर देखना न कभी, दुर्भाव चला
डाले। बर्बरतापूर्ण व्यवहार रहा, चिन्तन सब
हिला डाले।। इसलिए स्वयं की शक्ति पर भरोसा, साधना, दृढ़ता और
साहस की निरन्तरता ही व्यक्ति को आगे बढ़ाने में सार्थक हो सकती है- अपने पथ पर वन दीप स्वयं, जो जले
प्रकाश मिला।[10] अज्ञान से आशा करते जो, उनको उपहास
मिला।। विश्वास स्वयं पर, जिसने किया
उसके सम्मान रहे। जो अपने बाहुबल पर, मेधाबल और सूझ-बूझ पर भरोसा नहीं करते हैं, उनके सामने
प्रायः दो मार्ग होते हैं- प्रथमतः पराजित होकर बैठ जाये अथवा प्रतिशोध-सोच की
ज्वाला में धुँध आते रहे और द्वितीय उस मार्ग की ओर अग्रसर हो जाये जहाँ
चाटुकारिता,
हाँ-हजूरी अथवा दास-वृत्ति के सम्बल कुछ प्राप्त लें। इन
दोनों ही प्रकार के लोगों से लोक दृष्टा डॉ॰ चंचल भली भाँति परिचित रहे हैं। तभी
तो वह यह कहने में सहायक हो सके हैं। इन लोगों की ओर बिल्कुल भी नहीं देखना है जो निम्नकोटि के
हथकंडों से आगे बढ़ने में अपने बुद्धि कौशल को लगाते हैं, यथा- सफलताएँ जिन्हें मिल गई यहाँ, वैशाखी के बल
पर। वह क्या जाने श्रम क्या होता? विश्वास करे
छल पर।। धन का बल जिन्हें रसातल से, ले आया स्वयं
तल पर। क्या जाने वह बलिदानों को, जो चलते हैं
मखमल पर।। ऐसे चंचल-मन कर्मियों को कवि प्रबोधित करता हुआ कहता है- बिना विजय पाये कोई योद्धा, लेता विश्राम
नहीं। एक पथिक को ध्येय अतिरिक्त कोई होता है धाम
नहीं।। रहे रगड़ एडियाँ जो चचंल चलते जाना होगा। उक्त पंक्तियों पर ध्यान देने से स्पष्ट है कि कवि
महापुरूषों की भाँति उपदेश की भाषा नहीं बोलता बल्कि सीधे-सीधे वह मार्ग प्रशस्त
करता है जिसमें रूकने,
झुकने,
टूटने या भटकने के लिए कोई स्थान नहीं है, कर्म ही
सच्चा,
कर्म ही पूजा है जिससे स्वाभिमान की रक्षा हो सके और
आदमी-आदमी बन कर जी सके। कविवर चचंल आडम्बरपूर्ण और खोखले पूर्ण चिन्तन से दूर
रहने के लिए तर्क सहित आह््वान करते हैं - कर रहा विनय, जड़ से चेतन, उसकी जड़ता हर दो।[11] सुख मांग रहा प्रतिमाओं से, कहे कर्महीन
वर दो।। जलना था जिसे दीपक बनकर, जग से प्रकाश
बांटने को। सिर झुका लिया तम बना स्वयं, पैरो को लगा
चाटने को।। बुद्धि करे कुछ कार्य नहीं, चिन्तन
निर्मूल काटने को। सत् खोले मुख तो त्वरित उसे, लगता अविवेकी
डॉंटने को।। प्रकाश कहे तम से जग को, उसको उज्ज्वल
कर दो। याचना उससे की जानी चाहिये जो समक्ष है, समर्थ है और
उदार है। यदि याचना किसी ऐसे के सामने की जाये जो स्वयं ही अक्षम है, सहृदयता से
शून्य है उससे प्राप्त ही क्या होगा? जब तक स्वयं के पास साधन है, शक्ति है,
लगन है और जागृति का मन है तब तक किसी के भी सामने जाने का
मन नहीं बनाया जाना चाहिए। जहां तर्क के स्तर पर बात खरी नहीं होती है, जहां जो है
ही नहीं वहां उसी की याचना करना,
अविवेक की श्रेणी में गिना जायेगा। जागृति के मार्ग को
प्रशस्त करता हुआ कवि कहता है- निर्मूल हुआ शंका-तिमिर, जला दीपक जो
अनुराग का।[12] लिख दे जो गगन परविर्तन, देखे न कभी
मुड़ के। हो खण्ड-खण्ड पर हो न विग, उद्देश्य से
जो जुड़ के। त्रुटि से रहित सत्-पथ पर जो है कौन उसे
घुड़के। वास्तव में जो सत्-पथ के मार्ग से स्वयं को विचलित करता है
उसी को संसार में दूसरों की,
विशेष कर नैतिकता से विहीन वर्ग की घुड़कियां सुननी पड़ती है, देखनी पड़ती
है। इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि वह ऐसा जीवन जिए जो जलती हुई मशाल की तरह हो। अब
प्रश्न यह है कि जीवन कैसे जिया जाये? कविवर चंचल सुझाव देते हुए कहते हैं - जो भार लगे, उसको त्यागो, लेकर सामर्थ्य जिओ।[13] संवाहक वन सुख और दुख के, जीवन न
व्यर्थ जिओ।। कृत्यों रखो गहराई विपुल, बनकर न तदर्थ
जिओ। सार्थकता पूर्ण अभिव्यक्ति करो, कुछ कर न
अनर्थ जिओ।। कुछ कर न अनर्थ जिओ, पद्यांश विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। शब्दों के भाव
कवि के सकारात्मक सोच को सामने लाते है उसका विश्वास व्यक्त होता है कि सृष्टि के
विकास के लिए,
जीवन को सुन्दर से सुन्दरतम बनाने के लिए जीवन का अर्थ
रचनात्मक हो,
सत्-पथ पर अग्रसर होने वाला हो। सकारात्मक सोच ही जीवन को
सार्थकता दे सकती है। अप्रतिम-प्रतिभा-सम्पन्न-कवि डॉ॰ चिरंजी लाल चचंल की
प्रस्तुत काव्य कृति ‘‘हार नहीं
मानँूगा’’
में विभिन्न प्रकार की बहारों में सृजित मात्र 66 कवितायें
जिनमें यर्थाथ को समाने रखते हुये, एक सकारात्मक परिवर्तन की इच्छा व्यक्त की गई है, ऐसे परिवर्तन
की जिसमें समय-सापेक्षता है और बहु-संख्यक वर्ग को जागृति की आवश्यकता है। इस
महत्-उद्देश्य की पूर्ति में ही घर बैठे-बैठाये सम्भव नहीं है बहुत बार जैसे
स्वस्थ होने के लिए कठोर पग उठाने पड़ते है जिनकी कल्पना से रोगी घबराता है लेकिन
जब उसे यह पता चलता है कि जीवन इस विधि से ही मिल सकता है तब तैयार हो जाता है।
कुछ ऐसी ही स्थिति (विषय-वस्तु) कवि श्री चंचल ने यथार्थ को सामने रखकर, संत कवि कबीर
की सोच को साथ रखकर जागृति की बात कही है। प्रशंसनीय तथ्य यह है कि कवि ने अपना
अभिमत प्रस्तुत करने के लिए वैचारिक निर्भीकता का परिचय दिया है और परिचय ओजस्वी
स्वर में है। ओजस्वी स्वर की एक झंकार सुनते हुए आगे कहा जाये - धन्य वे जो अन्धेरों में दीपक लिए, [14] पथ दिखाते मिले जग में अन्जान को। जो पढ़ा उसको ले आये व्यवहार में, नष्ट जड़ से किया सारे अज्ञान को। सबने देखा वे जलते उबलते मिले, ढालते वे हकीकत ने ढलते मिले।। |
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निष्कर्ष |
उपर्युक्त तथ्यों को विश्लेषित करने के पश्चात हम भलिभाँति कह सकते हैं कि ‘‘हार नहीं मानूँगा’’ की समस्त कविताएं आधुनिक युग के पथ प्रदर्शक हैं। इस मुक्तक काव्य की छियासठ कविताएं नित नयी उर्जा और उमंग देने वाली है। यह काव्य संग्रह निश्चित तौर पर थके, हारे, हताश और निराश लोगों में नयी उर्जा का नया संचार करके उन्हें सफलता के नये मक़ाम छूने के लिए प्रेरित करेगा। ‘‘हार नहीं मानूँगा’’ की कविताएं पाठक के मन में तब तक प्रवेश नहीं करती हैं जब तक वह अपनी चित्तवृत्ति को जागरूक कर चिन्तनशीलता और मननशीलता पर नहीं ले जाता है। वास्तव में शोधपरक दृष्टि से ‘‘हार नहीं मानूँगा’’ एक महान मुक्तक काव्य है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. हार नहीं मानूँगा-डॉ. चिरंजी लाल चंचल, पृष्ठ सं॰ 106
2. प्राचीन एवं मध्य कालीन हिन्दी काव्य-सम्पादक डॉ. रामानन्द शर्मा (भूमिका से साभार)
3. हार नहीं मानूँगा- डॉ. चिरंजी लाल चंचल, पृष्ठ सं॰ 13
4. हार नहीं मानूँगा- डॉ. चिरंजी लाल चंचल, पृष्ठ सं॰ 103
5. हार नहीं मानूँगा- डॉ. चिरंजी लाल चंचल, पृष्ठ सं॰ 108
6. हार नहीं मानूँगा- डॉ. चिरंजी लाल चंचल, पृष्ठ सं॰ 106
7. हार नहीं मानूँगा- डॉ. चिरंजी लाल चंचल, पृष्ठ सं॰ 109
8. हार नहीं मानूँगा- डॉ. चिरंजी लाल चंचल, पृष्ठ सं॰ 24
9. हार नहीं मानूँगा- डॉ. चिरंजी लाल चंचल, पृष्ठ सं॰ 25
10. हार नहीं मानूँगा- डॉ. चिरंजी लाल चंचल, पृष्ठ सं॰ 30
11. हार नहीं मानूँगा- डॉ. चिरंजी लाल चंचल (पृष्ठ सं॰ 07 भूमिका से साभार)
12. हार नहीं मानूँगा- डॉ. चिरंजी लाल चंचल पृष्ठ सं॰ 38
13. हार नहीं मानूँगा- डॉ. चिरंजी लाल चंचल पृष्ठ सं॰ 41
14. हार नहीं मानूँगा- डॉ. चिरंजी लाल चंचल पृष्ठ सं॰ 89 |