ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- IV July  - 2022
Anthology The Research
दलित महिला और सशक्तिकरण
Dalit Women and Empowerment
Paper Id :  16278   Submission Date :  09/07/2022   Acceptance Date :  18/07/2022   Publication Date :  27/07/2022
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सुभी धूसिया
प्रोफेसर
समाजशास्त्र विभाग
डी. डी. यू. गोरखपुर विश्वविद्यालय
गोरखपुर,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश प्रस्तुत शोध पत्र दलित महिला और सशक्तिकरण है जो स्वतंत्रता पश्चात दलित महिला के सशक्त बनने की प्रक्रिया के अवलोकन पर आधारित है इसमें शिक्षा, व्यवसाय , राजनीतिक स्थिति और हिंसा के आधार पर दलित महिला के जीवन में आने वाली समस्याओं को परखा जाएगा। तमाम प्रकार के वैधानिक संरक्षण के बावजूद दलित महिला आज भी त्रिस्तरीय शोषण ( जाति, लिंग ,गरीबी) का शिकार है। सामान्य जाति की महिला की तुलना में ज्यादा प्रतिबंधों का सामना करती है ।आधुनिक समाज में आर्थिक पृष्ठभूमि पर कमजोर होने के कारण शिक्षा, व्यवसाय के क्षेत्र में भी पिछड़ती है ,जो सफलता की राह में आगे बढ़ती हैं वह जाति भेद का भी सामना करती हैं, इसलिए दलित महिला को सशक्त बनाने में अन्य प्रयासों के साथ-साथ वैचारिक परिवर्तन की आवश्यकता है
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The present research paper 'Dalit Women and Empowerment,' is based on observation of the process of Dalit women becoming empowered after independence. Despite all kinds of statutory protections, Dalit women are still victims of three-tier exploitation (caste, gender, poverty). Faces more restrictions than women of general caste. Due to being weak on economic background in modern society, they also lag behind in the field of education, business, those who move forward in the path of success, they also face caste discrimination. Therefore, there is a need for ideological change along with other efforts in empowering Dalit women.
मुख्य शब्द दलित, सशक्तिकरण, शिक्षा, व्यवसाय।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Dalit, Empowerment, Education, Business.
प्रस्तावना
दलित शब्द का अनेक अर्थों मे प्रयोग होता है किंतु मुख्यतः उन वर्गों को दलित कहा जाता है, जो वर्तमान में अनुसूचित जाति के अन्तर्गत आते हैं। दलित शब्द का अर्थ पीड़ित, शोषित और दबाया हुआ होता। ये वही जातियाँ है जिन्हें हिन्दू समाज में "अछूत" कहा जाता था। भारतीय समाज की संरचना कुछ इस प्रकार की है कि अनुसूचित जातियाँ (दलित) सदैव ही अशिक्षा, अंधविश्वास और निर्धनता के कारण शोषण और दमन का शिकार हुई है। स्वतन्त्रता के पश्चात् संविधान निर्माताओं ने इस समुदाय के उत्थान के लिए अनु• 46, 15(4), 29 (2) और 350 (क) में विशेष उपलब्ध किए गए, ताकि उन्हें शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश के समान अवसर और अधिकार मिले। 2011 की जनगणनानुसार भारत की जनसंख्या में लगभग 16.6% या 20.14 करोड़ आवादी दलितों की है, जबकि दलित महिला की, संख्या 9.79 करोड़ है जो कि कुल दलित जनसंख्या का 48.59% है । प्रस्तुत शोधपत्र में दलित महिलाओं की स्थिति की समीक्षा की जाएगी, क्योंकि दलित महिलाएँ सामाजिक संस्तरण मे सबसे निचले पायदान पर आती हैं। इस प्रकार दलित महिला ना केवल सामान्य जाति की महिलाओ से दयनीय और विषम स्थिति का सामना करती है बल्कि दलित समाज मे भी स्त्री-पुरुष वर्गीकरण तथा पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण उनकी स्थिति कमजोर एवं संवेदनशील होती है इस संबंध में कुमार (2009 अ) और आलोथिसिस तथा अन्य (2011: XUIIl) कहते हैं कि वे त्रिस्तरीय शोषण का शिकार है, जिसका आधार जाति, वर्ग एवं लिंग भेद है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोध पत्र का उद्देश्य दलित महिला की सफलता की राह में आने वाली बाधाओं से समाज को परिचित कराना है ताकि नीति निर्माण में इस अनुरूप कोई व्यवस्था हो सके।
साहित्यावलोकन

1. अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक  "इकोनामी एंड फैमिली"  में भूमंडलीकरण और निजीकरण के पक्षधर होते हुए भी आर्थिक सुधारों का परिवार की लैंगिक व्यवस्था पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव का वर्णन किया है।
2. मंजू सुमन की पुस्तक" दलित महिलाएं " दलित महिला से जुड़े विभिन्न विषयों पर निबंधों का संकलन है। इसमें दलित महिला के समक्ष आने  वाली मनोवैज्ञानिक  समस्याएं,  दोहरे शोषण,  समाज, साहित्य में उनकी स्थिति आदि विषयों पर निबंध शामिल है।
3. सुशीला टाकभौरे की पुस्तक, शिकंजे का दर्द, दलित नारी के शोषण के विरुद्ध संघर्ष की गाथा है। प्रस्तुत पुस्तक गद्य में है। दलितों में भी दलित, नारी, किस तरीके से पितृसत्तात्मक शिकंजे में जकड़ी है, यह पुस्तक इसका वर्णन है।

मुख्य पाठ

1.यह शोधपत्र शिक्षा व्यवसाय हिंसा और राजनीति में भागीदारी के आयामों के आधार पर समाज में दलित महिला की स्थिति की समीक्षा करेगा।
सर्वप्रथम बात करते हैं लिगांनुपात की। राष्ट्रीय जनगणनानुसार दलित महिलाओ का लिगांनुपात 100 पुरुषों पर 945  है, जो कि 2001 लिगांनुपात जनगणना से बढ़ा है , साथ ही बाल लिंगानुपात (0-6 वर्ष ) का अन्तराल भी घटा है, जहाँ यह 2001 में 17.4% था, 2011 मे 14.5% हो गया।
साक्षरता दर
भारत सरकार, सेंसस ऑफ इंडिया 2011, प्राइमरी आवस्ट्रक्ट के अनुसार के अनुसार 2011 के जनगणनानुसार जहां कुल आबादी में से 64.6 फीसदी महिला शिक्षित है वही दलित महिलाएं महज 16.7 फीसदी ही शिक्षित है। दलित जातियों में साक्षरता में लैंगिक अंतर 18.7%। इन आंकड़ों से उधर जब हम ड्रॉप- आउट के आंकड़े देखते है। तो तस्वीर का दूसरा पहलू दिखता है। कक्षा 1- 10 तक  में 71.30% दलित महिलाओं का ड्रॉप आउट है जबकि सामान्यतया यह 64.82% है। इसक कारण गरीबी के अतिरिक्त जागरूकता का अभाव एवं कई संस्थागत कमियाँ भी है जैसे विद्यालय का दूर होना विद्यालय में शौचालय ना होना, विद्यालयों में मौजूद जाति भेद, रास्ते में होने वाली छेड़छाड़ जिसकी वजह से लोग लड़कियों को पढ़ाना नहीं चाहते।  प्राथमिक स्तर पर प्रवेश लेने वाली बालिकाओं में से 24.82% कक्षा पांच तक की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाती और उन्हें विद्यालय छोड़ना पड़ता है। उच्च शिक्षा मे दलित बालिकाओं की सकल नामांकन दर 1.8% है जबकी अनुसूचित जाति और जनजाति दोनो का कुल लिंगानुपात 943 के राष्ट्रीय औसत से बेहतर है
2. फिर यह विरोधाभास क्यों? इसकी जड़े हमारे समाज की सामाजिक सांस्कृतिक पितृसत्तात्मक व्यवहार में निहित हैजिसमे लड़की की शिक्षा से ज्यादा महत्व उसके विवाह का है। उच्च शिक्षा के जिक्र के समय विश्वविद्यालयो के भेदकारी माहौल का जिक्र आवश्यक है। यहाँ अधिकतर उच्चजाति के व्यक्ति ही प्रशासन और प्रबन्धन में शामिल हैं। कई बार विश्व विद्यालय कैंपस में दलित छात्रों के उत्पीड़न की घटनाएं भी होती हैं विश्व बैंक की अर्थशास्त्री प्रियंका पांडे और सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडे ने पाया कि आईआईटी में दलित छात्रों ने जाति आधारित भेदभाव का सामना करने की सूचना दी। पब्लिक डाटा जर्नलिज्म प्रोडक्ट फैकेल्टी ने पाया कि अगड़ी जाति के छात्रों की तुलना में आईआईटी से ड्रॉपआउट दर अनुसूचित जाति के छात्रों में थोड़ी अधिक है। परंतु फिर भी आधुनिक शिक्षा ही दलितों ऑब्लिक दलित महिलाओं को सामाजिक आर्थिक सीढ़ी पर चढ़ने का वास्तविक मौका दे सकती है।
व्यवसायिक स्थिति- 2001 की जनगणनानुसार ग्रामीण क्षेत्र में 57% दलित महिलाएं कृषक मजदूर है।  शहरी क्षेत्र में 16% दलित महिलाएं दैनिक मजदूर का कार्य करती है जबकि सामान्य जाति की महिलाओं का प्रतिशत 6 है। केवल 21% दलित महिलाएं किसान है। जबकि 45% 'सामान्य जाति की महिलाए है। 2000 में दलित महिलाएं प्रतिदिन 37 रू० कमाती थीं जबकि सामान्य महिलाएं 56 रु0। राष्ट्रीय औसत पर 42 रू है दलित महिलाएं बड़ी संख्या में "अस्वच्छ व्यवसाय" से जुड़ी हैं। दलित महिलाएं सामाजिक आर्थिक क्षेत्र में  विभिन्न भेदभावों का सामना करती ( थोराट 2008)
3. भारत सरकार के श्रम एवं रोजगार  मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार के अनुसार हांलाकी बंधुआ मजदूरी को 1976 से ही एक कानून लाकर समाप्त कर दिया गया है बावजूद इसके 30 मार्च 2012 तक  2 लाख 94 हजार 155 बंधुआ मजदूरों की पहचान की गई, जिसमे से लगभग 20,000 को छोड़कर बाकी का पुनर्वास  कर दिया गया।
4. आज भी दलित महिलाओं को मजदूरी के लिए समान वेतन नहीं मिलता।
5. 2011 की जनगणनानुसार सिर्फ 4% अनु. जाति और जनजाति की महिलाएं सरकारी नौकरियों मे है। भारतीय समाज में सरकारी नौकरियों को अपनी विशिष्टताओं की वजह से प्रतिष्ठित माना जाता है। पैसा और जाति भारतीय समाज में प्रतिष्ठा के महत्वपूर्ण आधार पर है उसी तरह महिला का सामाजिक और आर्थिक स्थिति निर्णय में उसकी भागीदारी को बढ़ाता है। दुर्भाग्य से दलित महिलाएं इन आधारों पर सम्पन्न नहीं है। यहां तक की संगठित क्षेत्र में काम करने वाली अधिकतर दलित महिलाएं जाति की वजह से नीचा दिखाई जाती हैं।
दलित महिलाओं की कामकाजी संख्या असंगठित क्षेत्र में जाता है। इस क्षेत्र में श्रम के शोषण के साथ ही उनका यौन शोषण भी जुड़ा है। आर्थिक या जातिगत स्तर का हाशिया इनके श्रम के साथ-साथ इन महिलाओं की शरीर को भी उपभोग की वस्तु में बदल देता है। भारत के कई इलाकों में "डाला प्रथा" बिल्कुल इसका प्रमाण है। दलित महिलाओं के व्यवसायिक स्थिति को समझने के लिए स्कूलों में बनने वाले "मध्याह भोजन" का जिक्र सभी चीन है, जिसमें "दलित रसोइयों" के साथ का खाना खाने से सवर्ण बच्चों ने मना कर दिया। जाति का इतना जहर "दलित महिला" की स्थिति को स्पष्ट करता है। की दलित महिलाएं अपने अधिकारों के बारे में बहुत जागरूक नहीं है इसलिए DWLAI (दलित महिला आजीविका जवाबदेही पहल) कार्यक्रम दलित महिलाओं के साथ काम कर रहा है, उनके अधिकारों को बनाने के साथ ही "मनरेगा" नामक रोजगार परक कार्यक्रम में उनकी भागीदारी उठा रहा। "सेवा" नामक गैर सरकारी संगठन भी निम्नस्थानीय महिलाओं को बचत- बैंक के माध्यम सशक्त बनाने का प्रयास कर रहा है।
दलित महिला और हिंसा
दलित महिलाएं मुख्यतः दो प्रकार की लैंगिक हिंसा का सामना करती हैं जाति आधारित यौन हिंसा और परिवारिक हिंसा। प्रस्तुत शोधपत्र में इन दोनों का वर्णन किया जाएगा।
दलित महिलाओं को उनकी जाति, लिंग और निम्न आर्थिक स्थिति के कारण कई प्रकार के भेदभाव के साथ ही समाज में यौन शोषण का शिकार होना पड़ता है। जाति पदानुक्रम में सबसे निचले पायदान पर होने के कारण उन्हें "वैध यौन लक्ष्य" माना जाता है। अधिकारिक आंकड़ों के अनुसार हाल के वर्षों में भारतीय दलित महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ अत्याचार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने 2019 में 5 साल पहले की तुलना में 46% अधिक घटनाएं दर्ज की । दर्ज बलात्कार के मामलों में वृद्धि 56% से भी अधिक थी।
6. 2014 में यूपी में 459 दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाओं को दर्ज किया गया जो कि 2013 में 319 थी हालांकि दर्ज की गई घटनाओं से वास्तविक अपराध की संख्या ज्यादा थी।  इसकी पुष्टि सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश से होती है जिसमें दलित महिलाओं से बलात्कार के 15000 मामले अदालत के आदेश के बाद दर्ज होते हैं।
7. हरियाणा राज्य में दलित महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा पर 2020 के अंत में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार "केवल कुछ ही मामले सामने आते हैं" नवगठित राष्ट्रीय संघ की प्रमुख मनोरमा जी की टिप्पणी उल्लेखनीय है "दलित महिलाएं चुकि समाज के सबसे निचले स्तर पर हैं", महिला आंदोलन ने दलित मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया, दलित महिला आंदोलन में भी महिला मुद्दों की उपेक्षा की गई।  जाति, वर्ग, लिंग को एकसाथ देखने की जरूरत' होती है। महिला श्रम को पहले ही कम आंका गया है, और जब वह दलित होती है, तो शून्य होती है, अत्याचार भी बहुत अश्लील होते है।8. दलित महिलाओं और पारिवारिक हिंसी- राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2006 के अनुसार अनुसूचित जाति/जनजाति के महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा अन्य जातियों से ज्यादा है। घरेलू हिंसा के  कारणो में  मद्यपान, दहेज की मांग, पति के विवाहेत्तर संबंध, अन्तर्जातीय विवाह से संबंधित जटिल स्थितियाँ, आदि है।
9. इस संदर्भ मे सन् 2002 में डा0 म॑जूलता द्वारा अजमेर शहर में दलित जाति की महिलाओं पर किया गया अध्ययन "अनुसुचित जाति में महिला उत्पीड़न"  का जिक्र आवश्यक है। यह शोध 250 महिलाओं पर केन्द्रित था। शोध के अनुसार 10% महिलाएं मानसिक रूप से उत्पीड़ित होती है। - जैसे उनके द्वारा लिए गए निर्णयों की अवहेलना करना, जबरदस्ती बात मानने को विवश करना, अनेक सामाजिक परम्पराओं द्वारा दबाव बनाना, आलोचना करना, पुत्र प्राप्ति हेतु प्रताडित करना छीटा कसी, अपशब्दों आदि के द्वारा उन्हे मानसिक रूप से उत्पीडन किया जाता है। मानसिक उत्पीड़न सर्वाधिक छीटांकसी (14%) द्वारा होता है। कुल 250 महिलाओं में से 32% का शारीरिक उत्पीड़न घर में ही होती हैं। शोध के विश्लेषण अनुसार ससुराल में मुख्यता: परिवारिक निर्णय के मामले में महिलाओं की उपेक्षा की जाती है
लेखिका रितु  अहलावत ने अपने लेख" स्त्री पर पारिवारिक हिंसा का दंश और दलित आत्मकथा में तमाम उन लेखिकाओं एवं उनकी आत्मकथा का जिक्र किया है, जिसमें उन्हें परिवार में ही शारीरिक एवं मानसिक हिंसा का शिकार होना पड़े। महिला समाज में जातिवादी हिंसा के साथ ही पितृसत्ता के कारण परिवारिक हिंसा भी झेलती हैं।" स्त्रियों के मामले में सवर्ण पुरुषों की सोच एवं दलित पुरुषों की सोच एक ही हैं।"
10. पुस्तक 'दोहरा अभिशाप' में कौशल्य बसंती ने अपनी नानी के साथ होने वाली हिंसा का जिक्र कई स्थानों पर किया है। स्वयं अपने पति द्वारा की जाने वाली शारीरिक हिंसा का भी जिक्र किया है। श्योराज सिंह बेचैन अपनी आत्मकथा मेरा बचपन में मेरे कंधों पर मैं अपने पिता और चाचा द्वारा माता और चाची पर किए जाने वाले जुल्मों का वर्णन किया है सुशीला टकभैरो ने अपनी आत्मकथा में परिवार में लैंगिक भेद का भी जिक्र किया है।
11.  इस प्रकार की हिंसा पर डॉ मंजू सुमन के अनुसार 'दलित समाज सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत पिछड़ा है और परिवार में स्त्रियों की स्थिति कुछ ऐसी होती है की परिवार में किसी प्रकार का संकट, परेशानी या दिक्कत आने पर समस्या का समाधान लात - घुसा या डंडों से पिटाई करके किया जाता है स्थितियां सिर के ऊपर से गुजरने पर महिला आत्महत्या कर लेती हैं
12. पारिवारिक हिंसा की परख सदस्यों के स्वास्थ्य देखभाल में भी की जा सकती हैं एक अध्ययन के अनुसार सामान्य जाति की तुलना में निम्न जाति की महिला के लिए निजी चिकित्सा पर कम खर्च किया जाता है।13.अमर्त्य सेन ने भी परिवारो मे लैगिंक आधिकार को परखने का कार्य किया। सेन  के अनुसार "आय के साथ ही स्वास्थ्य का स्तर सुधार  की ओर प्रवृत्त होता है, पुरुषों की विशिष्टता महिलाओ की तुलना में कायम रहती है, और विकसित भी हो जाती है।" सेन मुम्बई के साथ ही उत्तर भारत मे भी महिलाओं के स्वास्थ्य, सुरक्षा और पोषण मे पक्षपाल का संकेत करते है। अमर्त्य सेन के अनुसार " मूल्य सिद्धान्त का परंपरागत आदर्श और बाजार व्यवहार, परिवार के विषय मे मौन है।
14 . दक्षिण भारत के अध्ययन के अनुसार सामान्य जाति की तुलना मे अनुसूचित जाति की महिला को प्रसवपूर्व कम देखभाल मिलती है। इन अध्ययनो के आधार पर कह सकते हैं कि आर्थिक विपन्नता लिंग-भेद पृष्ठ करती है परन्तु ध्यान रहे लिग-भेद सामाजिक सांस्कृतिक - पिछड़ापन भी निहित है। दलित समाज की बड़ी आबादी आर्थिक एवं सांस्कृतिक पिछडेपन से जकड़ी है।
अन्तर्जातीय विवाह एवं दलित महिलाएं
विशेष विवाह अधिनियम, 1954 में भारत के नागरिकों को अन्तर्जातीय-अन्तधार्मिक विवाह कहने की संवैधानिक अनुमति मिली हुई है। बावजूद इसके अभी भी ऐसे विवाह सामान्य नहीं है। भारत में प्रेम विवाहों की संख्या 3% ही है। 1,60,000 पर 2018 से किए गए सर्वे के अनुसार महज 3% प्रेम विवाह हुए और 2% लव कम अरेंज विवाह हुए। आखिर क्यों इतने वर्षों के बाद भी ऐसे विवाह प्रचलन में बहुत कम है वास्तव में भारत में सांस्कृतिक जड़ें बहुत गहरी हैं जिस पर आधुनिकता का भी अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ा है । तमाम सामाजिक और राजनीतिक प्रयासों के बावजूद भारतीय समाज में जाति अहंकार और उससे जुड़ी बुराइयां अब तक नहीं मिट पाई हैं। 2013 में  अम्बेडकर जी के नाम पर" scheme for social integration though intercaste marriage के तहत गैर दलित द्वारा दलित लड़की से विवाह करने पर ढाई लाख रुपए की मदद दी जाती है। यहां उल्लेखनीय है कि पहले अंतर्जातीय विवाह हेतु प्रोत्साहन राशि के तौर पर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा नवविवाहित जोड़े को 10000 की राशि दी जाती थी जिसे उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बढ़ाकर 50 हजार कर दिया था परंतु आज भी अंतरजातीय विवाह ना तो प्रचलन में है ना ही सरकार द्वारा विवाहित जोड़ों के लिए पर्याप्त सुरक्षा इंतजाम हैं। इन वजहों से भी अभी ऐसे विवाहों की संख्या कम है। अखबार पत्रों में छपने वाले कई वैवाहिक विज्ञापनों का उदाहरण ले सकते हैं, जिसमें विवाह हेतु जातियों में आपसी जाति बंधन नहीं होता यह जाति निषेध निम्न जातियों के लिए होता है। यह अनेक शिक्षतो में मौजूद जाति पूर्वाग्रह को दर्शाता है। वैसे आधुनिककरण से नए सामाजिक संरचना में धीरे-धीरे ऐसे विवाहों की स्वीकार्यता बढ़ रही है, जैसा कि मुंबई हाई कोर्ट के अधिवक्ता रवि श्रीवास्तव के अनुसार "परिवार की सामाजिक हैसियत में अंतर हो तो अधिकतर जोड़ों को समस्या आती है" उनके अनुसार "शहरी शिक्षक मध्यम वर्ग के लोग कानून या पुलिस में फंसने के बजाय जोड़ों को अपने हाल में ही छोड़ देते हैं"

इस संदर्भ में geographical studies  में प्रकाशित लेख" role of education in entercast marriage" उल्लेखनीय हैं। जिसमें उन्होंने शिक्षा और दलित जाति की महिलाओं के अंतरजातीय विवाह पर सर्वे करके निष्कर्ष निकाला। रविंद्र के अनुसार शिक्षा और अंतरजातीय विवाह का कोई सीधा और मजबूत संबंध नहीं है। शिक्षक लड़कियों को मनपसंद अंतर्जातीय जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता है परंतु इससे सास-ससुर से उनका संबंध अच्छा होने की गारंटी नहीं माना जाता है। उनकी तरफ से उसकी स्वीकारोक्ति नहीं होती। 2011 में हुए एक सर्वे जो कि 384 जिलों के 42152 घरों पर किया गया। सर्वे के अनुसार 4.54% दलितों का अंतर्जातीय विवाह हुआ परंतु चंडीगढ़ ,गोवा पांडिचेरी ,मध्यप्रदेश में एक भी अंतर्जातीय विवाह दर्ज नहीं हुआ। इस सर्वे में अंतर्जातीय विवाहों को सामाजिक एकता का संकेतक माना गया ,जिसमें शिक्षा एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, बावजूद उसके उत्तर भारत के अधिकतर राज्यों में विवाह में लड़कियों के निर्णय को बहुत मान्यता नहीं देते, जबकि दक्षिण में ऐसे प्रतिबंध कम है। इस सर्वे के अनुसार शिक्षित लड़कियों को वर चुनने की स्वतंत्रता ने अंतर-जाति विवाह को बढ़ावा दिया है अर्थात शिक्षक युवा पीढ़ी विवाह के मामले में जातीय संरचना को तोड़ने को तैयार है परंतु पुरानी पीढ़ी इसके लिए तैयार नहीं है। एक अन्य सर्वे के अनुसार अंतर्जातीय विवाह पर पति की मां की शिक्षा का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। पति की मां की शिक्षा में 10 साल की वृद्धि के साथ ही अंतरजातीय विवाह की संभावना 36% बढ़ जाती है।
15. दलित महिलाओं की राजनीतिक भागीदारीन किसी भी समाज या समूह को मुख्यधारा में शामिल होने के लिए शिक्षा,आर्थिक स्थिति एवं राजनीतिक शक्ति की आवश्यकता होती है। प्रस्तुत विषय में स्वतंत्रता के वर्षों बाद राजनीति में दलित महिलाएं कहां हैं इसको परखा जाएगा। केंद्रीय स्तर पर मीरा कुमार,कुमारी शैलजा तो राज्य स्तर पर मायावती बेबी रानी के अतिरिक्त गिनती की दलित महिलाएं ही राजनीति में दिखती हैं।शिक्षा व्यवसाय में महिलाओं का प्रतिशत अपेक्षाकृत बड़ा जरूर है परंतु उनका राजनीतिकरण नहीं हो पाया,कारण अंतर्निहित और बाहरी दोनों हैं। दक्षिण भारत के स्वर्ण विरोधी आंदोलन और महात्मा फूले,अंबेडकर के अथक प्रयासों से महाराष्ट्र, तमिलनाडु कर्नाटका, आंध्रप्रदेश जैसे राज्यों में दलित महिलाएं उत्तर भारत के अपेक्षा ज्यादा शिक्षित होने लगी परंतु उनका राजनीतिकरण नहीं हो सका क्योंकि दलित समाज ने स्वयं ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक मूल्यों को अपनाना शुरू कर दिया। जैसे जैसे दलित समाज मध्य वर्गीय उच्च मध्य वर्ग में तब्दील हुआ उन्होंने ऊंची जाति के मानव को अपनाकर अपनी महिलाओं को घर तक सीमित करना शुरू कर दिया इलाहाबाद में दलित महिलाओं की एक सभा में महिलाओं का तर्क था कि जो दलित हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म अपना रहे हैं उनमें भी वहीं कर्मकांडओं का बोध महिलाओं पर लादा जा रहा है जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था में दिखाई देता है। यह तो दलित समाज के अंतर्निहित कारण हैं परंतु वाहे समाज में मौजूदा जातिभेद राजनीति में आगे आने वाली दलित महिलाओं को लगातार नीचे गिराने की कोशिश ही करता है।73 वाँ संविधान संशोधन में पंचायत चुनाव में दलितों और महिलाओं के लिए सीट आरक्षण का प्रावधान है परिणाम स्वरूप आरक्षित सीटों पर दलित महिलाएं आने लगी परंतु जातिवादी समाज को उन को स्वीकारने में समय लग रहा इसलिए आए दिन दलित महिला ग्राम प्रधानों को बेइज्जत करने की घटनाएं सामने आती रहती हैं। तमिलनाडु के जिले कुड्डालोर में महिला ग्राम प्रधान को बैठक में जमीन पर बैठाया गया बाकी सभी कुर्सी पर बैठे। बुंदेलखंड के महोबा जिले में दलित महिला ग्राम प्रधान को दबंगों ने हाथ खींचकर कुर्सी से उतार दिया।बांदा में दलित महिला प्रधान के पति की हत्या कर दी गई। स्थानीय सरकारी कार्यालयों में खुले तौर पर ऐसी भेदभाव पूर्ण स्थितियां  प्रचलित हैं। फॉरवर्ड प्रेस नामक समाचार पत्र ने दिल्ली की दलित महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी पर हाल ही में एक अध्ययन किया ,जो कि 20 महिला दलित निगम पार्षदों पर आधारित है इसका मुख्य उद्देश्य निर्वाचित दलित महिला प्रतिनिधियों(दिल्ली निगम पार्षद) के वार्ड में होने वाले जातिगत भेदभाव और उनके द्वारा साझा किए गए जातिगत भेदभाव के अनुभवों को जानना था। अध्ययन में 90% निर्वाचित दलित महिला निगम पार्षदों ने स्वीकारा कि राजनीतिक जीवन में समान रूप से उन्हें जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा जबकि राजनीतिक कर्तव्य निर्वहन में 75% दलित महिला पार्षदों ने स्वीकारा कि उन्हें गैर दलित पार्षदों का सहयोग मिलता है। दिल्ली जैसे विकसित राज्यों में भी आवास का जातीय पृथक्करण दिखता है। संविधान में प्रदत्त अधिकारों से दलित महिलाएं स्थानीय स्तर की राजनीति में प्रवेश जरूर कर रही हैं परंतु अभी भी जागरूकता, संसाधनों की कमी आदि के कारण वे निर्णय की प्रक्रिया में स्वावलंबी नहीं हुई है। उपयुक्त अध्ययन के अनुसार 75% निगम पार्षदों ने बताया कि वह परिवार के सदस्यों से चर्चा के बाद ही निर्णय लेती हैं ।संभवत इसका कारण सामाजिक राजनीतिक जीवन में उनका सीमित दखल है।

निष्कर्ष हाल के शोधों से पता चलता है कि कुछ जातियां अक्सर दलित महिलाओं को प्रॉक्सी उम्मीदवार के रूप में खड़ा करती हैं यहां निरीक्षण महिलाएं आजीविका के लिए उच्च जातियों पर निर्भर है इसलिए चुनावी खर्च के माध्यम से उच्च जातियां इन पर नियंत्रण रखते हैं संक्षेप में दलित महिला की राजनीतिक सहभागिता का मूल्यांकन करें तो राष्ट्रीय स्तर पर चुनिंदा दलित महिला नेता हैं परंतु स्थानीय स्तर पर संविधान में मिले आरक्षण के कारण कई दलित महिलाएं आगे आ रही हैं। उनके समक्ष सामाजिक, परंपरागत, परिवारिक चुनौतियां हैं क्योंकि यह परिवर्तन का संक्रमण काल है इसलिए तमाम समस्याएं परिलक्षित हो रही हैं। दलित महिला को जब हम सशक्तिकरण के पैमाने पर परखते हैं ,तो अभी वह इस दौड़ में पीछे हैं ।वैसे भी सशक्तिकरण वह प्रक्रिया है जिसमें संसाधनों पर अधिकार के साथ-साथ विचारधारा को भी बदलना होगा। बिना विचार बदले दलित समाज तमाम सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं ले पा रहा है और बिना विचार बदले समाज दलितों को स्वीकार नहीं कर पा रहा है ।संसाधन तक पहुंच, आय पर नियंत्रण और कानूनी बैशाकी वे तरीके हैं जिससे दलित महिलाओं को मजबूत स्थिति में लाया जा सकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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