ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VI , ISSUE- XI February  - 2022
Anthology The Research
भारतीय लघु-चित्रण शैली में सुलिपी-कला की भूमिका
Role of Calligraphy in Indian Miniature Painting Style
Paper Id :  15739   Submission Date :  05/02/2022   Acceptance Date :  10/02/2022   Publication Date :  24/02/2022
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नीतू वशिष्ठ
कार्यवाहक प्राचार्या एवं अध्यक्ष
चित्रकला विभाग
श्री कुंद कुंद जैन महाविद्यालय, खतौली
मुज्जफ्फर नगर,उत्तर प्रदेश, भारत
नाज़िया नफीस
शोध छात्रा
ड्राइंग एंड पेंटिंग
के.के.जैन डिग्री कॉलेज, खतौली
मुज्जफ्फर नगर, उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश भारत के आदिम कालीन मनुष्य द्वारा निर्मित चित्रों के द्वारा ही हम मनुष्य की उदयबेला का इतिहास जानने में सक्षम हुए है । भारतीय चित्रकला का विकास इन्हीं के हाथों हुआ जिनके बहुत से उदाहरण भारतवर्ष के विभिन्न प्राचीन गुफाओं में प्राप्त होते है । कला, भाषा से भी प्राचीन मानवीय उत्पत्ति है, अतः एक दृष्टि से इसे मानव की सार्वकालिक, सर्वसम्मानित भावाभिव्यक्ति का साधन कहा जा सकता है । कला का महत्व इसी से सर्वसिद्ध है कि मानव ने उसे अपने विकास के आरम्भिक चरण में अपनाया था । भारतवर्ष के विभिन्न प्रागैतिहासिक चित्रों की खोज हो जाने पर यह स्वयंसिद्ध हो जाता है कि मनुष्य में कला की प्रवृत्ति शुरू से ही प्रबल थी।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद We have been able to know the history of Udayabela of man only through the pictures made by the primitive man of India. The development of Indian painting took place in the hands of whom many examples are found in various ancient caves of India. Art is of human origin even older than language, so from a point of view it can be called a means of everlasting, all-respected expression of human beings. The importance of art is well known from the fact that humans adopted it in the early stages of their development. On discovering the various prehistoric paintings of India, it becomes axiomatic that the tendency of art in man was strong from the beginning.
मुख्य शब्द साहित्य, कला अथवा शिल्प, स्थापत्य, संगीत, मूर्ति, नृत्य एवं नाटक।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Literature, art or craft, Architecture, Music, Sculpture, Dance and Drama.
प्रस्तावना
चित्र कला का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि मानव सभ्यता के विकास का इतिहास। सत्य तो यह है कि चित्र बनाने की प्रकृति सर्वदा से ही हमारे पूर्वजों में विद्यमान रही है। मनुष्य ने जिस समय प्रकृति की गोद में आँखे खोली, उस समय से ही उसने अपनी मूक भावनाओं की अपनी तूलिका द्वारा टेढी-मेढी रेखाकृतियों के माध्यम से अभिव्यक्ति की। अपना सांस्कृतिक विकास करने के लिए मानव ने जिन साधनों को अपनाया, उनमें चित्रकला भी एक साधन थी।[1] भारतीय चित्रकला की शुरूआत प्रागैतिहासिक काल से मानी जाती है। जब मानव कन्दाराओं में रहकर अपना जीवन व्यतीत करता था। आदिमानव ने अपने आराम के क्षणों को मनोरंजन पूर्वक बनाने के लिए कला का साहारा लिया तथा पत्थरों पर उस युग की कहानी लिखनी शुरू की, अपने चित्रों के माध्यम से उसने आने वाली पीढ़ी को उस समय की सभ्यता और संस्कृति को सौंप कर चित्रकला के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त किया। प्रागैतिहासिक काल के बाद मानव गुफाओं से निकल कर नगरों में रहने लगा, तथा जीवन को समझना आरम्भ किया। यह समय सिन्धु सभ्यता के नाम से जाना जाता है, यही से सभ्यता व संस्कृति का विकास होना आरम्भ हुआ था। मिट्टी की मूर्तियाँ बना कर उनकों देवी के रूप में पूजा जाता था। धर्म ने प्रारम्भ से ही कला को प्रोत्साहित किया है। एलोरा और अजन्ता के भित्ति-चित्रों तथा उनकी भित्ति-कारीगरी के बाद बौद्ध देवी-देवताओं से सम्बन्धित बौद्ध सिद्धातों की अनेक हस्तलिखित प्रतिलिपियाँ ताड़-पत्र पर लिखी गई व बीच में चित्रकारी की गई है। लघु-चित्रों में लाल रंग का अत्यधिक प्रयोग किया जाता था। दीवारों से निकल कर कला काग़ज़ों व ताड़-पत्र पर उतर आई थी, जिसे आज हम लघु-चित्रकला के नाम से जानते है। लघु-चित्रकला का समय 750 ई0 से 1900 ई0 तक माना जाता है। जिसके अन्तगर्त राजस्थानी लघु-चित्रकला शैली, मुग़ल कला-शैली व पहाड़ी शैलियाँ सम्मिलित हैं। भारत में सुलिपि-कला के इतिहास को जानने से पहले हम यह देखें कि भारत में चित्रकला का जन्म कब और कैसे हुआ, वैसे यह एक अत्यन्त विवादास्पद प्रश्न है। किन्तु प्रागैतिहासिक मानव ने किस प्रकार अपनी संस्कृति, सभ्यता और अपने भाव विचारों का विकास किया, सौभाग्यवश इसके बहुत-से तथ्य प्रकाश में आ चुके हैं।[2] भारत में लेखन का सर्वप्रथम उदाहरण पांचवी शताब्दी ई0पू0 पाली बौद्ध ग्रन्थों के रूप में पाए जाते है। जिसमें लेखन के लिए भिन्न-भिन्न सामग्री जैसे पत्ते, काष्ठ, बांस की खपच्ची और धातु का प्रयोग हुआ। जैसे-जैसे पीढ़ियाँ बीतती गई और बौद्ध तथा जैनियों में शाखायें निकलने लगी यह परम आवश्यक हो गया कि उनके अवतरित भगवान् ने जो उपदेश उन्हें प्रदान किये थे उन्हें आने वाली पीढ़ियों के लिए यथावत् सुरक्षित रखा जाए। अतः वैदिक रीति के विपरीत, साधारण मानव जाति के ज्ञान के लिए सुलेख की कला का पाण्डुलिपि और अलंकरण के रूप में विकास होने लगा। निश्चित रूप से कोई नहीं जानता कि भाषा और लेखन की स्थापना से पहले मानव का कितने युगों का इतिहास है। लेकिन अपने विचारों को चित्र एवं लेखन की अनेक प्रकार की कला द्वारा व्यक्त करने की इच्छा ने ही मानव को सभ्यता के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, जिसमें सुलिपि का योगदान कला को जानने के लिए अविस्मरणीय है। अनेक संस्कृतियों और उनकी भाषाओं के इतिहास में सुलिपि ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। मानव संस्कृति में कलात्मक तथा आध्यात्मिक विकास का उतना ही महत्त्व है जितना वैज्ञानिक उपलब्धियों का। कलात्मक विकास में मुख्यतया, साहित्य, कला अथवा शिल्प, स्थापत्य, संगीत, मूर्ति, नृत्य एवं नाटक का विशेष महत्व है। अतः किसी देश की कलाओं का अध्ययन करने के लिये उस देश की कलाओं का ज्ञान परम आवश्यक है। कला के द्वारा देश के, समाज दर्शन तथा विज्ञान की यथोचित छवि प्रतिबिम्ब हो जाती है। भारतीय कलाओं में धार्मिक तथा दार्शनिक मान्यताओं की अभिव्यक्ति सरल ढंग से की गई है। भारतीय चाक्षुष-कलाओं में दार्शनिक तत्वों को प्रतीक रूप में संजोया गया है, और धार्मिक प्रसंगों को विस्तृत रूप में प्रतिबिम्बित किया गया है। इस प्रकार संस्कृति किसी देश की आत्मा है तो सभ्यता उस देश का तन है। हमारा रहन-सहन, मानसिक विकास तथा जीवनचर्या, हमारी सभ्यता का प्रतीक है। भारतीय कलाओं का जन्म ही धर्म के साथ हुआ है और धर्म ने कला के माध्यम से ही अपनी धार्मिक मान्यताओं को जनता तक पहुँचाया है। भारतीय कला धर्म, कला और संस्कृति का एक ऐसा पर्याय है, जिसमें भारत की प्राचीन सभ्यता का अनुभव किया जा सकता है। धर्म जीवन में एक महत्वपूर्ण तथ्य है, जिससे हमारी कला भी अछूती नहीं रही । जहाँ कला को धर्म ने विषय दिए वहीं धर्म को कला ने विस्तारित होने में सहायक भूमिका निभाई हैं। प्राचीन काल से ही चित्रकला के प्रमाण भारतीय संस्कृति में मिलते है । यदी हम प्रागैतिहासिक काल की कला को देखे तो प्रतीको के धार्मिक चिन्ह हमें देखने को मिलते हैं । प्रत्येक काल में कलाकार युग का प्रतिनिधित्व करता है और वह कला के उपदेशात्मक गुण का लाभ उठाते हुए जन-जन की कल्याणकारी भावनाओं से ओत-प्रोत कला का सृजन करता है और कला के सजृन के लिए धर्म सर्वाधिक मुख्य और प्रभावकारी साधन रहा है । कला के वहीं मुख्य संरक्षक थे । अतः स्वभाविक ही था कि धर्म प्रचार में कला सबसे प्रभावकारी भूमिका निभाती है ।[3] जैसे-जैसे संस्कृति का विकास होता गया, वैसे-वैसे लिपि का भी विकास होता गया और लिपि हमारी कला-संस्कृति से जुड़ती चली गई एवं कला के नए आयाम गढ़ती गई। सुलिपि-कला ने हमारी सांस्कृतिक धरोहरों को सजाने सवांरने का कार्य किया भी है, प्राचीन स्तूप, कुतुबमीनार, ताजमहल और अशोक के स्तम्भ और अन्य महत्त्वपूण ईमारतें, ये सभी भारत की प्राचीन धरोहर है जिसे प्रतिष्ठिटित बनाने में सुलिपि-कला ने ही हर युग में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। लघु-चित्रों के बीच में सुलिपि का प्रयोग करके उस समय के कलाकारों ने चित्रकला को सौन्दर्य के उच्च कोटि में लाकर खड़ा कर दिया है। तीसरी शताब्दी ई0पू0 के सम्राट अशोक के खुदे लेखों में ‘ब्राह्यी‘ (दैवीय लिपि) का प्रयोग हुआ है जो समस्त उपमहाद्वीप में पाई जाती है। इससे भारत में अनेक लिपियों का विकास हुआ तथा इन लिपियों की प्रशाखायें मध्य एशिया, तिब्बत और दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैल गई। अपवाद के रूप में ‘अरामैक‘ से उपजी खरोस्टी को छोड़कर जो उत्तरी पश्चिमी भारत में कुछ शताब्दी तक जीवित रहीं।[4] भारत की भूमि में जन्में इसकी संस्कृति व सस्कारों को अपने व्यक्तित्व में समेटे हुऐ लोग भारतीय हैं। और यही भारतीय जब अपने आचरण- व्यवहार से अपने देश की संस्कृति व संस्कारों को सम्प्रेषित करते हैं तो भारतीयता पोषित होती है, फलती-फूलती हैं। प्रत्येक सभ्यतायें एवं संस्कृतियाँ अपने सांस्कृतिक उत्कर्ष एवं आध्यत्मिक विकास हेतु कला एवं साहित्य का उपयोग अतीत से करती आ रही हैं।
अध्ययन का उद्देश्य इस शोध पत्र का उद्देश्य भारतीय लघु-चित्रण शैली में सुलिपी-कला की भूमिका का अध्ययन करना' हैं।
साहित्यावलोकन
1 प्रताप रीता, भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास, 2 कुमार डाॅ० सुनील, भारतीय छापाचित्र कला।
मुख्य पाठ

सुलिपि ने प्रत्येक युग में अपनी प्रतिष्ठिता को बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सुलिपि संस्कृति के साथ चलते हुए अपनी छाप हर युग में छोड़ती चली गई। भारत में मुग़लों के आगमन के बाद लिपि कला में जैसे बहार-सी आ गई थी। उन्होंने सुलिपि का प्रयोग चित्रों व स्थापत्य में कर कला के प्रति अपनी अप्रतिम आस्था को भी प्रकट किया। 12वीं शती में कागज़ के आविष्कार के साथ-ही-साथ ग्रन्थों के निर्माण एवं चित्रण में उल्लेखनीय प्रगति हुई। भारत में कागज का आयात विदेशी व्यापारियों और आक्रान्ताओं के द्वारा हुआ। 14वीं शताब्दी तक गुजरात द्वारा इसका आयात प्रमुख रूप से होने लगा और इसने चित्रण एवं लेखन कार्य के लिए ताड़पत्र का स्थान ग्रहण कर लिया । ताड़पत्र तथा कपड़े पर सुलेख एवं चित्रण करने में बड़ी कठिनाइयाँ होती थीं । कागज पर चित्रांकन सुविधानुसार विस्तार में हो सकता है । इन्हीं कारणों से कागज के उपलब्ध होते ही सचित्र ग्रन्थों की संख्या में विशेष उन्नति हुई ।[5]


चित्र-01 मुगलकाल, जहाँगीर और शाह अब्बास दरबार में,1618

मध्यकालीन भातीय चित्रकला विश्व की चित्रकला में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। 15वीं शती को भारत में सांस्कृतिक साहित्य तथा चित्रकला के पुनरून्थान का युग माना जाता है, जब चित्रकला व साहित्य एक साथ चरम पर थी 

इस युग में धर्म और साहित्य के साथ-साथ कला के विभिन्न अंगों का भी विकास हुआ । चित्रकला की दृष्टि से राजस्थानी शैली का निर्माण मध्य युग की सबसे बड़ी देन है शिक्षा ग्रंथों के क्षेत्र में भारतीय पुस्तक पंचतंत्र बहुत प्रसिद्ध रही है । इसके दो पात्रों कर्कटक तथा दमनक के नामों के आाधार पर ईरान में इसे कलीला व दम्नाकहा जाता था । इसका भी वहाँ अनेक बार चित्रण हुआ हैं। इसके अरबी अनुवाद भी हुए और सभी फारसी तथा अरबी अनुवाद चित्रों से अलंकृत किये गये।[6] चित्र संख्या-01 जो 1618 0 में बना तथा वाशिंगटन संग्रहालय में संग्रहित है, जहाँगीर कालीन चित्र है जिसमें जहाँगीर को ईरान के शाह अब्बास के साथ मुगल दरबार में राजनीतिक व सामाजिक पक्ष को लेकर एक बैठक करते हुए दिखाया गया । चित्र में बैठक से सम्बन्धित लेख स्पष्ट रूप से देखे जा सकते है जिसमें वार्ता से सम्बन्धित तथ्य लिखे गये है । 

राजस्थानी व मुग़ल शैली का निर्माण एवं विकास एक ही समय हुआ, किन्तु दोनों शैलियों में काफी विभिन्नताएं भी है, जो दोनों को एक दूसरें से भिन्न-भिन्न दर्शाती है । जहाँ राजस्थान कला धाार्मिक भक्ति और श्रृंगार से ओत-प्रोत है वहीं मुग़ल चित्रकला दरबारी वैभव से स्पर्शित व अलंकरण प्रधान है । एक की आत्मा भारतीय है तो दूसरी मुस्लिम भावना से भरी हैं । एक यथार्थवादी है तो दूसरी कल्पना प्रधान । राजस्थानी चित्रकला भारतीय काव्यों के सूक्ष्म अर्थ को व्यक्त करने वाली है तो मुग़ल शैली मुगल इतिहास तथा उसकी संस्कृति का विवरण प्रस्तुत करती है । मुगल चित्रकला में श्रृंगार से सम्बन्धित चित्रों की रचना दरबारी शान शौकत के आधार पर हुई है दसमें मुगल सल्तनत की उद्दाम वासना और सामन्तीय परिवेश की झलक स्पष्ट देखी जा सकती है । रीतिकालीन साहित्य पर आधारित नायक-नायिकाओं के स्फुट चित्रों का चित्रण ही इस शैली की विशेष देन है । 

चित्र-02 राजस्थानी कलाराधा-कृष्ण उपवन में मिलते हुए,1700

राजस्थानी शैली मूल रूप से भारतीय है परन्तु राजनीतिक स्तर पर इस पर मुगल कला का प्रभाव पड़ा है, विशेष रूप से चित्रगत वास्तु, वेशभूषा तथा चित्रों में सुलिपि या लिपि के प्रयोग पर । कुछ राजस्थानी चित्रों पर मुगल प्रभाव इतना ज्यादा हावी होता हुआ नज़र आता है कि देखने वाला भ्रम में पड़ जाता है । रंगों के प्रयोग, विषयों के प्रयोग तथा पृष्ठभूमि के अंकन में इस शैली के चित्र भारतीय परम्परा का प्रयोग करते हैं । जयपुर, हैदराबाद, बीजापुर की शैलियों पर भी मुगल प्रभाव प्रचुर मात्रा में दिखाई पड़ता हैं । राजस्थानी शैली विशेषतः रागमाला, राधा-कृष्ण की कहानी व पहाड़ी विषय प्रधान है । राजस्थानी शैली मध्यकालीन हिन्दी साहित्य की प्रत्येक प्रवृत्ति को चित्रित करती हैं । उसके चित्र बिना भारतीय महाकाव्यों, पुराणों, रामायण, महाभारत, भागवत्पुराण, संगीत शास्त्र, कामसूत्र और रीतिकालिन काव्यों को जाने भली प्रकार नहीं समझे जा सकते । उसमें कला व साहित्यबोध का अद्भुत संगम देखा जा सकता है और यही संगम या सम्बन्ध लिपि के द्वारा पूर्ण रूप से पूरा किया जाता था । चित्रों के ऊपर-नीचे या बीच में दोहों को लिखा जाता था । इन्हीं में संस्कृत के श्लोक व उक्तियां का भी प्रयोग किया गया है । मुगल कला में दोहों, छन्द या श्लोक के स्थान पर नक्काशी युक्त कुरान की आयतों को सुलिपि के रूप में सुलिपिकार चित्रों में  लिखा करते थे । लिपिकार के लिए यह साहित्य रचनाएं महत्वपूर्ण होती थी जो उन्हें विषय प्रदान करते थे । चित्र संख्या-02 राजस्थानी शैली की उपशैली बूंदी से लिया गया है। चित्र 17वीं शती का बना हुआ है तथा मुम्बई में संग्रहीत है । यह चित्र रचना केशवदास द्वारा रचित रसिकप्रियापर आधारित है । इस चित्र में सघन वन में राधा-कृष्ण को मीटिंग करते हुए चित्रित किया गया है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा से बातचीत करते हुए दर्शाये गए है । चित्र के ऊपर जो लेख लिखा है उसमें सुहावने मौसम में दोनों एक-दूसरे से विहार करते हुए अपने मन का हाल बता रहें है । इस प्रकार काव्य लेख तथा चित्रकला का संगम सहज ही इन लधुचित्रों में एक साथ देखा जा सकता है जो दोनों कलाओं को एक करता हुआ प्रतीत होता है । भित्ति और प्रतिकृति दोनों प्रकार के चित्रों का भारतीय साहित्य में निरन्तर उल्लेख हुआ है । जातक कथाओं और पालि साहित्य से लेकर प्राकृत और हिन्दी साहित्य तक सर्वथा इनका वर्णन मिल जाता है । वस्तुतः साहित्य और चित्रकला का परस्पर इतना घना सम्बन्ध रहा है कि एक का आदर्श दूसरें में सदा अन्वित होता आया है । कालिदास, श्रससाचि, माघ, भवभूति आदि सभी ने अनेक बार इन दोनों प्रकार के चित्रों की ओर संकेत किया है ।[7]

राजस्थान हमेशा से ही अपनी कला कृतियों हवेलियों एवं कलात्मक सुन्दरता के  कारण लोगों को अपनी और आकर्षित  करता आया हैै।  इसके आकर्षण से कोई भी अछूता ना रहा। किशनगढ़ के रंग वैभव, साज सज्जा, राजा सावन्त सिंह  और बनी-ठनी ऐसी कलात्मक विशेषताएं  हैं जिसने सबको अपनी ओर खींचा हैं। 

रागिनी चित्रण तो कला और साहित्य की गंगा-यमुना में सरस्वती का संगम कर त्रिवेणी का संयोग उपस्थित कर देता है । मुगल शैली एक लघुचित्रण  है, राजस्थानी शैली एक भित्ति चित्रण की शैली में थी परन्तु वह भी धीरे-धीरे लघुचित्रण की श्रेणी में अपना स्थान रखने लगी । मुगल चित्रों की काया बंधी है राजस्थानी व पहाड़ी शैली के चित्रों के  प्रवाहयुक्त, छन्दयुक्त कलेवर के साथ । भारतीय लघुचित्रों में राजस्थानी, पहाड़ी व मुगल शैली का काव्य ही इनके चित्रों को सुन्दर बनाता है । कला की ये तीनों शैली भारतीय लघुचित्रों की प्राण प्रतिष्ठता कहलाती हैं । इन लघुचित्रों में दिन-रात के प्रकाश को रंगों के उतार-चढ़ाव से उनमें व्यक्त नहीं किया जाता है, बल्कि मशाल व दीपक से उसका बोध करा दिया जाता है । रागमाला के चित्रों में संगीत खुल पड़ा है । संसार के किसी भी देश की कला में साहित्य, संगीत तथा चित्रण का इतना घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं दिखाई देता हैं । इसमें रागों व रागनियों को प्रवाहमान अवयव दिये गये हैं कि कल्पना के द्वारा लय को रूप देने का सफल प्रयास किया गया है । छः रागों व तीस रागनियों के अलग-अलग अथवा एकत्र ग्रन्थचित्रण के रूप में इनका अंकन हुआ है । किस अवसर पर कौस सा राग या रागिनी गाई जाती है यह उनमें लिखा होता है । साथ ही अनेक चित्रों पर रीतिकालीन कवियों की तद्विषयक कविता, श्लोक व दोहें भी लिखे होते हैं तथा अनेक बार रागों के लक्षण भी लिखे होते हैं । मुगल चित्रणलिपि की भांति ही अन्य लघुचित्रण शैली के कलाकारों ने भी अपने चित्रों में भी लिपि के प्रयोग द्वारा प्राण डालने का कार्य किया है । 

16वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में  हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू की सुरम्य घाटियों में प्रस्फुटित होने वाली पहाड़ी शैली मुगल काल शैली से सर्वथा भिन्नव भावपूर्ण तथा कलात्मक थी । सम्पूर्ण पहाड़ी चित्रकला में कांगड़ा शैली एक सर्वोत्तम उपलब्धि रही है। भारतीय संस्कृति को मुखरित करने वाली इस शैली में श्रृंगार के उभय पक्षों का ऐसा मनोहारी चित्रण हुआ है कि दर्शक ठगा सा उस रूपराशि को देखता रह जाता है । रंगों के माध्यम से प्रेम का ऐसा अनुठा अंकन शायद ही कहीं देखने को मिलता है। काव्य का चित्रकला में रूपांतर ही कांगड़ा कला का अद्धितीय गुण है । काव्य की पीठिका में प्रवाहमान लयात्मक रेखाओं ने कागड़ा कला को गेयता दी है। इसे सहज ही शास्त्र संगीत कहा जा सकता है।[8]

यहाँ की कलाकृतियों में पहाड़ी वैभव, उसका सौन्दर्य और सौकुमार्य एवं पहाड़ी का चिरयौवन मुखरित हो उठा है । पहाड़ी शैली के चित्रों में विषय की दृष्टि से वैष्णव धर्म की प्रधानता है जो रीतिकालीन एवं भक्तिकालीन कवियों के काव्यों से ली गई है । विशेष रूप से रीतिकालीन साहित्य नायक-नायिका भेद, संयोग तथा विप्रलम्भ श्रृंगार के मनोहारी प्रसंगों तथा बारहमासा आदि का चित्रण बहुत ही प्रभावीपूर्ण ढ़ंग से हुआ हैं । चित्रकला व संगीत के सुन्दर समन्वय के रूप में रागमालाका चित्रण भी पहाड़ी कलाकारों का प्रिय विषय रहा हैं । संस्कृत साहित्य में चित्रकला सम्बन्धि सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रही है । संस्कृत के खण्डकाव्य, महाकाव्य, पुराण तथा कोश आदि अनेक विषयों के ग्रन्थों द्वारा भारतीय चित्रलेखन की प्राचीन परम्परा और उसकी लोकप्रियता का पता लगता है । इसके अतिरिक्त संस्कृत में कुछ ऐसे भी ग्रन्थ है जिनमें स्वतन्त्र रूप से चित्रकला के विधि-विधानों की व्याख्या की गई है ।[9] कांगड़ा लघुचित्रण शैली का विकास और प्रसार कांगड़ा के अन्तिम राजा संसारचन्द के संरक्षण में हुआ । राजस्थानी शैली की तीसरी व आखिरी परम्परा थी । इस शैली में रागिनी राजस्थानी शैली की भांति रागिनी चित्रण नहीं हुआ है । इसके प्रिय विषय कृष्ण लीला, नायक-नायिका भेद तथा रामायण व महाभारत की कथाएं रही हैं । इन चित्रों के लेख सदा नागरी लिपि में लिखे होते हैं, ज्यादातर जाने-माने कवियों की रचनाओं पर आधारित विशेषतः केशवदास द्वारा रचित रसिकप्रिया व कविप्रिया पर चित्र बने हैं । इनमें प्रासादों और पहाड़ी उद्यानों का आलोचन भली प्रकार रहता है, जहाँ हिमालय के शिखरों व देवदारों का भी अंकन होता हैं । नल-दमयन्ती की सीरिज़ की सीरिज़ उनमें चित्रित मिलती हैं । इसमें उनकी प्रेम कहानियों को दर्शाया गया है । इन चित्रों के रंग शान्त हैं और शीतलता का भाव उत्पन्न करते हैं । इनकी रेखाओं में बड़ी तरलता है खासकर परिधानों की रेखाओं में । राजस्थानी रागमाला की भांति वे पुंसत्व की नहीं नारीत्व की धनी है । पहाड़ी कला भाव प्रधान है, आवेग प्रधान रहीं । 

कागड़ा की घाटी की शान्तएकान्त प्रकृति से प्रेरणा प्राप्त कर वहाँ के कलाकारों ने जिन कृतियों का निर्माण किया उनका चिरस्थाई महत्व है । लघु आकार में बनाए गए कांगड़ा शैली के चित्र अपनी मौलिक विशेषताओं के कारण बहुत अधिक लोकप्रिय हुए और देश-विदेश के विभिन्न संग्रहों में इनको विशेष सम्मान मिला । कांगड़ा शैली में भक्तिकाव्य एवं रीतिकाव्य सम्बन्धी चित्रों का अंकन प्रमुखता से हुआ है । इसका एकमात्र कारण वैष्णव सम्प्रदाय की बढ़ती लोकप्रियता ही कही जा सकती है । कृष्ण के प्रेम और श्रृंगार की भावना कलाकारों का प्रमुख प्रेरणा-स्रोत रहीं है ।[10]

निष्कर्ष इस प्रकार मनुष्य ने अपने विचारों को सुरक्षित रखने के लिए किसी ना किसी रूप में सुलिपि का विकास किया है। रीतिकालीन युग में काव्य-कला के माध्यम से लेखन-कला और चित्रकला एक-दूसरे के जितने निकट आई इतनी निकट वह कभी नहीं रहीं। यही कारण है इस युग के लेखन-कला व चित्रकला में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध बना तथा वे एक-दूसरे की परिपूरक बन गयीं । इसलिए कभी-कभी यह कहना कठिन हो जाता है कि कौन किस से प्रभावित हैं । लेखन व चित्रकला दोनों कलाएं मानवीय भावनाओं को व्यक्त करने के साधन हैं । कविता वर्णमय चित्र है तो चित्र मौन मधुर संगीत । इस दोनों का प्रमुख कार्य ‘रसनिष्पत्ति’ है । प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल तक लिपि का प्रयोग अपने स्तर पर होता आया है। आधुनिक काल में इसकी महत्त्व की भूमिका और अधिक बढ़ गई है। प्रत्येक क्षेत्र में सुलिपि या लेखन-कार्य का विस्तार बढ़ता ही जा रहा है। लेखन-शैली अब एक व्यवसायिक रूप लेती जा रही है। इसके प्रयोग के अवसर बढ़े हैं। तथा लेखन-शैली के कलाकारों का बाज़ार भी बढ़ा है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. प्रताप रीता, भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास, जयपुर 2008 2. कुमार डाॅ० सुनील, भारतीय छापाचित्र कला, दिल्ली, 2000 3. निहार रंजन राय, भारत के आयाम, पूर्वोदय प्रकाशन नई दिल्ली, 1984, पृष्ठ संख्या-153 4. शर्मा अविनाश बहादुर, भारतीय चित्रकला का इतिहास, बरेली, 1999 5. डा0 श्यामबिहारी अग्रवाल, भारतीय चित्रकला और काव्य, इलाहाबाद, 1996, पृष्ठ संख्या-48 6. अशोक, ईरान की चित्रकला, अलीगढ़, पृष्ठ संख्या-89 7. भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय कला की भूमिका, नई दिल्ली, 1980, पृष्ठ संख्या-79 8. एम0एस0 रंधावा, कांगड़ा पेन्टिग्स आफ भागवत पुराण 9. डा0 श्यामबिहारी अग्रवाल, भारतीय चित्रकला और काव्य, इलाहाबाद, 1996, पृष्ठ संख्या-11 10. डा0 श्यामबिहारी अग्रवाल, भारतीय चित्रकला का इतिहास भाग-2, इलाहाबाद, पृष्ठ संख्या-154-155