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भारत में दलित आंदोलन: एक अध्ययन | |||||||
Dalit Movement in India: A Study | |||||||
Paper Id :
16345 Submission Date :
2022-08-03 Acceptance Date :
2022-08-13 Publication Date :
2022-08-22
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सारांश |
वैश्वीकरण, उदारीकरण एवं निजीकरण के परिप्रेक्ष्य में जिस महानायक की चर्चाएँ निरंतर होते आ रही है एवंम अमेरिका जैसे प्रगति राष्ट्र ने जिस सामाजिक आंदोलन को और उसके प्रनेता को सहराया है या सहारानीयता प्रदान की है, वह आंदोलन माने दलित आंदोलन है। यह दलित आंदोलन किन किन सोपानो से गुजरा है, किन समस्याओं से गुजरा है, सामाजिक परिवर्तन में उसका रुतबा, उसकी प्रतिष्ठा, उसका मानक आज भी संदर्भो के साथ लिया जाता है। उस आंदोलन के महानायक, समता के पुजारी, इंसानियत के मसीहा, लोकतांत्रिक व्यवस्था के पुरोधा, इंसानियत के तारणहार भारतरत्न संविधान के निर्माता बुद्ध, कबीर, फुले के शिष्य बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर वे उच्च कोटी के आंदोलनकारी थे। जिन्होने भारतीय दलित आंदोलन को दिशा दी, आगे बढाया, इतना ही नही स्वयं महिलाओं को अपने आंदोलन में स्थान दिया। साथ ही आत्मसम्मान दिलाया। इन सोपानो से भारत में दलित आंदोलन उसका अतीत एवंम वर्तमान समझाने का नम्र प्रयास इस शोधालेख में किया गया है।
आधुनिक काल में दलित वर्ग युगव्यापी निद्रा से जागकर एक नवीन चेतना और अस्मिता की ओर अग्रक्रम कर रहा है। अपनी पहचान की तरह बढ़ रहा है जिसका श्रेय उन सभी चिंतको, समाज-सुधारकों, ऋषियों संतो तथा राजनेताओं विशेष कर भारतरत्न डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर को जाता है। जिन्होंने समय-समय पर अस्पृश्यता, जाति-भेदभाव, ऊँच-नीच तथा सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध आंदोलन का शंखनाद किया और समाज में प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार दिलवाने का भरसक प्रयास किया। यदि दलित आंदोलन की बात की जाए तो बहुत कम दलित आंदोलन इस देश में हुए है, जबकि भारत के स्वाधीनता संग्राम में दलितों का योगदान सराहनीय रहा। कभी कभी कहा जाता रहा कि, महाराष्ट्र के बौद्ध (महार) आंदोलन को ही अखिल भारतीय दलित आंदोलन कहा गया है और बाबासाहेब आंबेडकर को दलितों के मसीहा। किन्तु सत्यता यह है कि, दलित आंदोलन पर आज कोई खास महाराष्ट्र राज्य को छोडकर मुख्यत: जानकारी हमारे पास नही है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In the context of globalization, liberalization and privatization, the discussion of which is continuously Dalit movement and its leader supported by an advanced nation like America. Through which phases has this Dalit movement gone, what problems it has gone through, its status in social change, its prestige, its standard are taken with references even today. The great leader of that movement, the priest of equality, the Messiah of humanity, the leader of the democratic system, the savior of humanity, the creator of the Bharat Ratna Constitution, the Buddha, Kabir, Phule's disciple Babasaheb Bhimrao Ambedkar, he was a high-ranking agitator. Those who gave direction to the Indian Dalit movement, took it forward, not only that, but also gave women a place in their movement. Also gave self respect. With these steps, I have made a humble effort to explain the Dalit movement in India, its past and present, in this thesis. In the modern era, the Depressed Classes are moving towards a new consciousness and identity after waking up from the age-wide slumber. Growing like your own identity. The credit of which goes to all those thinkers, social reformers, sages and politicians, especially Bharat Ratna Dr. Bhimrao Ramji Ambedkar. From time to time, he concocted the movement against untouchability, caste-discrimination, high-low and social evils and made every effort to get equal rights for every person in the society. If we talk about Dalit movement, very few Dalit movements have happened in this country, while the contribution of Dalits in India's freedom struggle has been commendable. It is sometimes said that the Buddhist (Mahar) movement of Maharashtra has been called the All India Dalit movement and Babasaheb Ambedkar is the messiah of the Dalits. But the truth is that today we do not have the main information on the Dalit movement except in a particular state of Maharashtra. |
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मुख्य शब्द | आंदोलन सुधारवादी संस्कृतिकरण वैकल्पिक आंदोलन बहारी जाती प्राचीन वर्णव्यवस्था उपनयन वेदाध्ययन सुत्रपात सतनामी संप्रदाय जनजागरण बौद्ध परंपरा भारतीय रिपब्लिकन पार्टी दलित पँथर्स इंडिपेंडंट लेबर पार्टी, अस्पृश्यता, समाजहित, पारिवारिक व्यवसाय, महानिर्वान, चुनावी गठबंधन, सामर्थ्यवान, प्रतिपादन, प्रगतिशील, वास्तविकता, सामाजिक न्याय, क्रांतिकारी, स्थानांतरण, बुद्धिजीवि, जुझारु, संविधानात्मक, सफलता, अवसर, भाषावाद, आधारभूत, विचारधारा। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Movement Reformist Sanskritization Alternative Movement Bahari Jati Ancient Varna System Upanayana Vedadhyana Sutrapat Satnami Sampradaya Jan Jagaran Buddhist Tradition Indian Republican Party Dalit Panthers Independent Labor Party Untouchability Social Interest Family Business Mahanirvan Electoral Alliance Powerful Rendering Progressive Reality Social Justice Revolutionary , Transfer, Intellectual, Belligerent, Constitutional, Success, Opportunity, Linguism, Fundamental, Ideology. | ||||||
प्रस्तावना |
घनश्याम शाह[1] का कहना है कि, अनुसूचित जातियों (दलितो) के आंदोलन का कोई वर्गीकरण हमारे पास नही है। मोटे तौर से कहा जा सकता है देश में अनुसूचित जातियों ने जो भी आंदोलन किए वे दो तरह के है, सुधारवादी आंदोलन (Reformative Movement) और वैकल्पिक आंदोलन (Alternative Movement) सुधारवादी आंदोलन वास्तव में संस्कृतिकरण के आंदोलन है। इन आंदोलनो द्वारा यह प्रयास किया जाता है कि, अनुसूचित जाति के सदस्य धर्म विधि को अपनाएँ, शाकाहारी भोजन करें, धार्मिक उत्सव मनाएँ, व्रतपाठ करे और मद्यपान निषेध को अपनी जीवन पद्धति का आधार बनाएँ। इस तरह के सुधारवादी आंदोलन अनुसूचित जातियों को जाति-सोपान व्यवस्था में उँचे उठने का अवसर देंगे। वैकल्पिक आंदोलन का आग्रह दूसरे प्रकार का है। इस आंदोलन के अनुसार अनुसूचित जातियों को हिंदू धर्म ही छोड देना चाहिए। इसके द्वारा ही वे अस्पृश्यता से छूटकारा पा सकेंगे। एक अन्य पर्याय भी है, वह है आर्थिक। इसके अनुसार यादि अनुसूचित जातिया अपनी आर्थिक स्थिती में सुधार कर ले तो उनकी प्रतिष्ठा और परिस्थिती दोनो बदल जाएगी। श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण की अवधारणा प्रस्तुत की है वह भी अनुसूचित जातियों को जाति व्यवस्था के अंतर्गत ही सुधार का अवसर देती है। यह प्रक्रिया मुख्यतः समाज सुधारको की प्रक्रिया है। इसका उपागम अहिंसात्मक है और यह अनुसूचित जातियो में जातिव्यवस्था के अंतर्गत परिवर्तन लाना मुनासिब समझती है। विकल्पात्मक आंदोलन में जहाँ धर्म परिवर्तन प्रमुख था ऐसा ही दलित पँथर आंदोलन है जो, महाराष्ट्र में 1970 के सातवे दशक में हुआ। इस संदर्भ में बाबूराव बागूल[2] कहते है कि, इन्सान दलित साहित्य का केंद्रबिंदू है यह इन्सान अन्याय के खिलाफ निरंतर लड़ते आया है। वो इन्सान तमाम समाज परिवर्तन चाहता है। इस दलित पेंथर आंदोलन के प्रणेता है, नामदेव ढसाल, राजा ढाले। अब यह कहा जा सकता है की दलित आंदोलनो की दिशा पर्याप्त मात्रा में निर्धारित न होने के कारण यह संपूर्ण आंदोलन अनेक विभागों में बिखरा हुआ है।
सर्व प्रथम अनुसूचित जाति पद का प्रयोग साईमन कमीशन द्वारा 1935 में किया गया था जो कि अस्पृश्य लोगों के लिए प्रयोग मे लाया गया। अंबेडकर[3] के अनुसार आदिकालीन भारत में इन ’भग्न पुरुष’ (Broken men) या ’बाहî जाति’ (Out castes) माना जाता था। अंग्रेज उन्हे दलित वर्ग (Depressed class) कहते थे। गांधीजी ने इन जातियों को ’हरिजन’ के नाम से पुकारा था। कही-कही इन जातियों के लिए ’अस्पृश्य’ जातियों का भी प्रयोग किया गया। 1931[4] की जनगणना से इन्हे ’बाहरी जाति’ (exterior caste) के रुप वर्गीकृत किया गया।
वर्तमान दलित आंदोलन या दलित इतिहास का वास्तविक स्वरुप भारत की प्राचीन वर्णव्यवस्था मे खोजा जा सकता है। इस वर्ण व्यवस्था का उद्देश्य था व्यक्ति अपनी शक्तियों का उपयोग सामाजिक हित मे सामाजिक कल्याण के लिए वर्ण धर्म के अनुसार, स्वधर्म का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करते हुए करे। वैदिक काल में वेदों की रचना के आधार पर समग्र व्यवस्थित समाज की नींव स्थापित थी। मनुस्मृति[5] में ब्राहण को मुख, क्षत्रिय को बाहू, वैश्य को उरू और शुद्र को पादस्थानीय अवयवों से व्यक्त किया गया। इस काल दलितों की स्थिति ठीक ठाक दिखाई देती थी। परंतु वैदिक काल के बाद उत्तर वैदिक काल पर एक दूसरे को श्रेष्ठ मान लिया गया। जिससे वर्ण का वर्ण भाव समाप्त होकर जात्यार्थक हो जाते है। वर्ण व्यवस्था की इस जटिलता से वर्ण विभाजन संख्या का रुप धारण करके वर्ण के बीच ऊँच-नीच का भेदभाव प्रारंभ होता है। इससे एक संख्या के रुप में हिंदुओ में अस्पृश्यता का प्रादुर्भाव हुआ।
उत्तर वैदिककाल में सर्व प्रथम वर्ण व्यवस्था में चतुर्थ वर्ण शूद्रों का सामाजिक वर्ग के रुप में सुनिश्चित अस्तित्व दिखा दिया, जिन्हे सामाजिक दृष्टि से उपनयन, वेदाध्ययन, यज्ञ करने, सवर्ण बस्तियों में रहने, सार्वजनिक तालाब, कुओं से पानी लेने सवर्ण को स्पर्श करने, पूजा पाठ करने, मंदिरो में प्रवेश करने तथा समान नागरिक अधिकारों से वंचित रखा गया। जिससे यह वर्ण सामाजिक आर्थिक तथा शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ गए। उत्तर वैदिक काल की मुझे दो विशेषताएँ दिखाई देती है, एक ब्राम्हणों का संगठन और शुद्रों का अधःपतन। सर्व प्रथम इसी काल में ’जाति’ शब्द का प्रयोग हुआ, जो वर्ण और उनके अंतर्गत बननेवाली समुहों के लिए किया गया। मनु का मानना है की[6], जातियों के उत्पत्ति वर्णों में प्रतिलोम विवाह एवं वर्णसंकरता के आधार पर हुई है। कालांतर मे इन्ही वर्णो के कारण भारतीय समाज हजारों जातियों और उपजातियों में बँट गया था। आज भी उसकी तीव्रता भारत के सभी प्रांतों में दिखाई देती है। इन दिनो यह साधन-विहिन वर्ग वह था जो सामाजिक धरातल पर शोषित थे, आर्थिक धरातल पर गरीबी और ऋणग्रस्तता का जीवन जिने के लिए विवश थे, और शैक्षिक धरातल पर ज्ञान से वंचित तथा समाज द्वारा प्रत्येक वर्ग हेतू निर्धारित शिक्षा प्राप्त करने और अपने पारिवारिक व्यवसाय को अपनाने को बाध्य थे।
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अध्ययन का उद्देश्य | भारत में दलित आंदोलन एक अध्ययन मेरे इस अनुसंधान आलेख के निम्नलिखित उद्देश्य है।
1. भारतीय समाज व्यवस्था में अनादिकाल से आजतक दलितो की स्थिति दोयम रही है। इसका अध्ययन करना।
2. सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त एवं प्रभावी माध्यम दलित आंदोलन है। इसकी जाँचपडताल करना।
3. भारत में दलित आंदोलन विभिन्न सोपानों से गुजरा है इसका अध्ययन करना।
4. वैश्वीकरण, निजीकरण एवं उदारीकरण के बदलते परिवेश में भी दलित आंदोलनों का अध्ययन केंद्रस्थानी रहा हैं। इसका अध्ययन करना। |
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साहित्यावलोकन | 1. माईकेल एस.एम. - आधुनिक भारत
में दलित दृष्टिकोण एवं मूल्य, डायमन्ड पब्लिकेशन पुणे-2008 इस संदर्भ ग्रंथ में लेखक यह
मानकर चल रहे है की विश्व के समाजों में निरंतर प्राकृतिक समाजशास्त्रीय अध्ययन
में बढोत्तरी एवम बदल निरंतर हो रहा है। इस बदलाव में सामाजिक, आर्थिक एवम सांस्कृतिक संदर्भ कैसे कैसे बदले इसका पूर्णरूपेण अध्ययन इस संदर्भ ग्रंथ में किया गया है। साथ ही भारतीय समाज का दलितों के तरफ एवम
दलितो का भारतीय समाज की और देखने का दृष्टिकोण एवम श्रेष्ठ हिंदुओ का दलितों की और
देखने का नजरिया कैसा रहा उस से दलित आंदोलन कैसे उभरकर आया इसका रोचक अध्ययन इस
संदर्भ ग्रंथ में किया गया है। 2. डॉ. कठारे अनिल - आधुनिक
महाराष्ट्र का इतिहास, विद्याबुक पब्लिशर, औरंगाबाद छठा संस्करण-2020. इस संदर्भ ग्रंथ में लेख
कइस बात को स्वीकार करते है की भारत के इतिहास में एवं संस्कृति में महाराष्ट्र का
स्थान निरंतर अग्रसर रहा है। वैसे ही भारत के सांस्कृतिक विकास में भी महाराष्ट्र
का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस संदर्भ ग्रंथ में लेखक ने सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवम राजनीतिक
महाराष्ट्र के धर्म सुधारक, महाराष्ट्र के विभिन्न आंदोलन,
महाराष्ट्र के सामाजिक आंदोलन एवम महाराष्ट्र राज्य का निर्माण इसका
बहुत ही समर्पक अध्ययन इस संदर्भ ग्रंथ में किया गया है। 3. डॉ. भोले भास्कर लक्ष्मण- समाज
विमर्श लोकवाङमयगृह, पब्लिकेशन मुंबई-डिसेंबर 2010 इस संदर्भ ग्रंथ में लेखक
महोदय ने यह माना है की, वैश्विकरण की प्रक्रिया मूलतः
व्यापारिक रहने के कारण उसका चिंतन का केंद्र इन्सान के तुलना में बाजार पर अधिक
रहा है। साथ ही स्वार्थ लाभ एवम पैसा उसकी प्रेरणा रही है। वैश्विकरण के
परिप्रेक्ष्य में दलित आंदोलन की गरिमा, प्रतिष्ठा एवम
विश्वसनीयता के प्रति प्रश्नचिन्ह खड़े किये गये है। किंतु हाँ लेखक ने यह भी माना
है कि, वैश्विकरण के परिप्रेक्ष्य में दलित आंदोलन का महत्व
निखरकर उजागर हुआ है। 4. लिबाळे शरदकुमार - दलित आंदोलन - सुगावा
पब्लिकेशन - पुणे 2000 इस संदर्भ ग्रंथ में लेखक
यह मानते है की, भारतीय समाज व्यवस्था में,
वर्ण व्यवस्था में, ब्राम्हण वर्चस्ववादिता
में दलितो का दर्जा निश्चित तौर पर स्वीकार्य नही रहा। इसलिए दलित आंदोलन का केंद्रबिंदु भारतरत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर रहा है। साथ ही लेखक ने यह भी माना कि दलित आंदोलन का
कोई वर्गीकरण हमारे पास नही है, किंतु हा दलित आंदोलन
सुधारणावादी एवम यथार्थ के धरातल पर संस्कृतिकरण आंदोलन रहा है। यह आंदोलन अन्याय,
अत्याचार, आर्थिक उत्पीडन के खिलाफ एक विद्रोह
था और हमेशा रहेगा। |
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मुख्य पाठ |
स्वतंत्रता पूर्व दलित आंदोलन युरोप में वहाँ के निग्रो दलित के लिए मेरी वुलसन क्राफ्ट[7], इन्होंने स्कूलों की स्थापना करके शैक्षणिक
आंदोलन चलाया। उनके बाद सिमोन द् बोऊअर इन्होंने कार्य किये। भारतीय संदर्भ
महात्मा बुद्ध प्रथम सामाजिक सुधारक रहे जिन्होंने भेदाभेद और जातिगत
कनिष्ठ-वरिष्ठ के विरुद्ध जेहाद छेडा, तथा ब्राम्हणों
के वर्चस्व को कुछ समय तक चुनौती देने में भरसक प्रयास किया। उनके धम्म में
आम्रपालि, दस्यु अंगुलिमाल आदि दलित के लिए स्थान था, अर्थात वे मानव मात्र में कोई भेद नही मानते थे। कबीर, नानक, नामदेव, संत
रविदास आदि संतों ने जाति प्रथा का विरोध किया और कहा भगवान की भक्ति करना तो
प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है, इसमें ऊँची और नीची
जातियाँ बाधक नही हो सकती। 15 वी शताब्दी में
स्वामी रामानंद और उनके प्रमुख शिष्य रामानुज के उपदेशों के परिणाम स्वरुप कई
साधुसंत और धर्म प्रचारकों ने ब्राम्हणवाद द्वारा फैलाए गए अनैतिक के उन्मूलन का
प्रयास किया। परिवर्तित सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक
परिवेश के अनुरुप भारतीय समाज को बदलने की चुनौती को सर्वप्रथम बंगाल के राजाराम
मोहन राय ने स्वीकार किया। जिन्हे आधुनिक भारत में समाज सुधार और जनजागरुकता का
प्रणेता कहा गया। ज्योतिबा फुले महाराष्ट्र के धार्मिक व सामाजिक सुधार के
प्रणेता थे। उन्होंने सर्व प्रथम महाराष्ट्र में पिछडों व दलितों के उत्थान के लिए
महत्वपूर्ण पहल की। उन्होंने 1873[8] में ’सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की। सत्यशोधक समाज
के माध्यम से उन्होंने अपने धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक सुधारों को आगे बढाया तथा भारतीय जातीय भेदभाव एवं
प्रस्थापित प्रभूता को खुली चुनौती दी। अनेक विरोधों के बावजूद उन्होंने पूणे में
दलितों के लिए सर्वप्रथम विद्यालय (1843) की स्थापना की
तथा क्रांतिकारी ग्रंथ गुलामगिरी (1873) में दर्द का
एहसास करवाया। 20 वी सदी के आरंभ में श्री नारायण
गुरु स्वामी (1856) ने केरल में दलितों की मुक्ति के
लिए ’एक जाति एक धर्म, एक
ईश्वर’ के नाम से एक नए धर्म की स्थापना की[9]। केरल की एक अछूत जाति ’इझावा’ में इनके द्वारा चलाया गया यह आंदोलन बहुत जनप्रिय हुआ। तामिलनाडु में
पेरियार रामास्वामी नायकर[10] (1879-1883) ने ’सेल्फ रिसपेक्ट’ आंदोलन प्रारंभ किया और अपने अनुयायियों से ब्राम्हण पुरोहित के स्थान पर
अपने मे से ही किसी को पुरोहित नियुक्त करने की सलाह दी, इन आंदोलनों ने न केवल ब्राम्हण पुरोहित और ब्राम्हण समाज अपितू संपूर्ण
आर्य संस्कृति और व्यवस्था का विरोध किया। ये आंदोलन द्रविड भाषा, द्रविड संस्कृति एवं द्रविड राष्ट्र की स्थापना पर बल देते थे।[11] ’’सामाजिक असमानता और जातिभेद के विरूध्द देश
के विभिन्न भागों में आदि आंदोलनों का सूत्रपात किया। इस प्रकार के आंदोलनों में
आदि धर्म आंदोलन (पंजाब, 1926) आदि हिंदू आंदोलन उत्तर
प्रदेश आदि आंध्र आंदोलन (आंध्र प्रदेश) आदी कर्नाटक आंदोलन (कर्नाटक) ये आंदोलन
देश के निचले जातियों में अधिक लोकप्रिय रहे।’’[12] वास्तव में हिंदू आंदोलन तो ब्राम्हणों तथा प्रस्थापित वर्गों के जागरण
ही था। जबकि महाराष्ट्र में फुले, केरल में नारायण, उत्तर भारत में स्वामी अछूतानंद (1879-1933), बंगाल
में चांदगुरू (1850-1930) और मध्य प्रदेश क्षेत्र में
गुरु घासीदास (1756) ने जातीय भेदभाव के खिलाफ तथा समता
मुक्त व शोषण मुक्त समाज की स्थापना के लिए जन-जागरण किए। चांद गुरु ने बंगाल के
दलित जाति को ’चंडाल’ कहने
के विरुद्ध 1891 में सफल आंदोलन चलाया।
परिणामस्वरुप ब्रिटिश सरकार के आदेशानुसार चंडाल बोलना दंडनीय अपराध घोषित किया
गया। वह एक बहुत बड़ी क्रांति थी जो सफल हुई थी। मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ में जागरण
की ज्योति गुरु घासीदास ने जलाई। उन्होने ’सतनामी
संप्रदाय’ स्थापित करके उनके माध्यम से दलित जातियों को
संप्रदाय में शामिल कर सतनामी बनाया। उनके आंदोलन के तीन गुरुमंत्र थे, सतनामी बनो, संगठन बनाओ और संघर्ष करो।[13] इन आंदोलनों ने जो सामाजिक परिवर्तन का वातावरण बनाया उसे
दलितों ने तो पसंद किया परंतु ब्राम्हण या गैरदलित व्यवस्था पर उसका कोई प्रभाव
नही पड़ा था। डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने लिखा है कि[14], इन आंदोलनों ने अपीलों और प्रतिरोधो पर जोर दिया, दलित आंदोलनों का प्रथम चरण था, जिसमें भविष्य
में होनेवाले आंदोलनों का मार्ग सुकर किया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी दलितो
के लिए भरसक प्रयास करने का सोचा था और कुछ हदतक किया भी। गांधीजी ने[15], अस्पृश्यता को हिंदू धर्म पर एक काला धब्बा
(कलंक) माना। उनका कहना था कि, यदि अस्पृश्यता रहती है
तो हिंदू धर्म मिट जाएगा। हिंदू धर्म को यदि जीवित रखना है तो अस्पृश्यता को
मिटाना होगा, अस्पृश्यता रहे इससे अच्छा है कि हिंदू
धर्म मिट सकता था। डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर, दलित समाज के पहले
व्यक्ति थे, जिन्होंने हिंदू व्यवस्था के विरुद्ध सीधी
कार्यवाही के रुपमें खुला विद्रोह किया और इसे आंदोलन को दलितों का आंदोलन बनाया
तथा ’’दलितों के मसीहा’’ के
रुप में जाने लगे। उन्होने नारा दिया कि, ’दलितों शिक्षित
बनो, संगठित रहा एवं संघर्ष करो’, दलितों कि मुक्ति, आत्मसम्मान, प्रतिष्ठा वजूद उनके जीवन का मकसद था। उनकी मान्यता थी की, जितनी अनिवार्य देश की स्वतंत्रता की है उससे कही ज्यादा अनिवार्यता
दलितों को सामाजिक आजादी की[16]। इसलिए वह कहते थे कि
राष्ट्र के स्वतंत्रता के लिए संघर्ष के साथ-साथ दलितों की मुक्ति के लिए लडना मैं
अधिक पसंद करता रहूँगा।[17] डॉ. बाबासाहब ने अपना संघर्ष
लगातार तीन दशकों से भी ज्यादा समय तक चलाया। बडे पैमाने पर हम तीन दशकों कि इस
काल को चार चरणों अथवा खंडों मे विभाजित कर सकते है। प्रथम 1917 से 1930 तक के काल में डॉ. बाबासाहेब
अंबेडकर ने जनजागरण की ज्योति जलाई और दलितों के सामाजिक, धार्मिक अधिकारों के लिए लंबा संघर्ष छेडा। दूसरा 1930 से 1940 तक दलित मुक्ति आंदोलन को
सुसंगठित बनाया। तीसरे चरण में उन्होंने दलितों को नागरिक अधिकार प्रदान किये जाने
के लिए संघर्ष किया तथा संविधान सभा में रहकर भारतीय संविधान की रचना में मुख्य
इंजीनिअर की भूमिका अदा की। संविधान सभा में रहते हुए उन्होने कमजोर वर्गो के हित
की रक्षा के लिए संविधान में विभिन्न खण्डों और उपखण्डों का समावेश करवाया तथा
चौथा और अंतिम चरण बौद्ध धर्म के प्रवर्तक का चरण था जिसमें डॉ. बाबासाहेब ने अपने
जीवन के अंतिम वर्ष समर्पित किए और भारत की महान बौद्ध परंपरा को नये सिरे से
पुनर्जीवित किया। डॉ. बाबासाहाब अंबेडकर का मानना था कि स्वतंत्रता और समानता
के खोए हुए अधिकार याचना से नही कठिन संघर्ष से प्राप्त होते है, दूसरो का मोहताज बनने की जगह अपने हक के लिए लडना अधिक सार्थक समझा। 20 मार्च 1927 की चवदार तालाब में पानी के
लिए ’महाड सत्याग्रह’ का
नेतृत्व मानव अधिकार के लिए किया।[18] 24 सितंबर 1927 के ब्राम्हण विशेषाधिकार व
जात-पात के विरोध स्वरुप मनुस्मृति जलाई। सार्वजनिक मंदिरों में अस्पृश्यों को
समान अधिकार प्रदान किए जाने के उद्देश्य से बाबासाहेब ने अमरावती (विदर्भ प्रांत)
में अम्बादेवी मंदिर प्रवेश (1927) ठाकुर द्वार मंदिर
प्रवेश 1927, मुंबई में गणपती प्रांगण प्रवेश (1929) तथा नासिक में कालाराम मंदिर प्रवेश (मार्च 2 से अप्रैल 1930) हेतू दलितों को संगठित किया।
इसके साथही दलितों को हितों को ऊजागर करने के उद्देश्यसे मूकनायक (1920) तथा बहिष्कृत भारत (1927), स्वतंत्र मजूर दल, पत्रिका के प्रकाशन में सक्रिय योगदान दिया। दलितों की जनतंत्रीय
आकांक्षाओं को साकार करते हुए डॉ. बाबासाहेब ने सभी दलितों को एकमंच पर एकत्रित
करने और उन्हे राष्ट्रीय जीवन में समाज के एक पृथक तत्व के रुप में सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष करने हेतु 1942 में ऑल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की स्थापना की।[19] बाबासाहेब आगे कहते है कि, सामाजिक और आर्थिक
अधिकार तबतक प्रभावकारी नही हो सकते जबतक कि दलितों को शासन में हिस्सेदारी
प्राप्त नही होती। स्वतंत्र भारत के मंत्रिमंडल में कानून मंत्री की हैसियत से
शरीक होकर, उन्होंने भारत के संविधान निर्माण में दबे
कुचले दलित लोगों को प्रत्येक क्षेत्र की मुख्य धारा में मिलाने तथा उनके विरूद्ध
होने वाले अत्याचार, अन्याय, शोषण, छुआछूत अर्थात सामाजिक कुरीतियों को जड़
से मिटाने के लिए कडे नियम बनाए और उसके लिए आरक्षण की नीति का प्रावधान करके ’उचित न्याय’ व उचित प्रतिनिधित्व के साथ साथ
आत्मसम्मान सुनिश्चित कर संविधान में वर्णित ’’सामाजिक
न्याय’’ को प्राप्त करने का भरसक जिंदगी भर प्रयास करते
रहे। स्वतंत्रता के बाद लित आंदोलन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान में कमजोर लोगों के लिए
सुविधा प्रदान करना अनिवार्य था। परिणामस्वरूप संविधान में क्षतिपूर्ति के लिए
संवैधानिक सुविधाए और सुरक्षाएँ दी गई। संविधान में अनेक ऐसे प्रावधान किए गए
जिससें समाज में जन्म व जाति के आधारपर किसीभी प्रकार का विभेद न हो सके। भारत के
सभी लोगो के लिए अपने व्यक्तित्व का विकास करने के लिए समान अवसर और साधन प्रदान
किए गए। उसके लिए भारतीय संविधान निर्मताओं ने संविधान के अनुच्छेद 14,
15, 15(1), 16, 16(4), 17, 19, 21(ए), 23, 29, 45, 46, 243,
330, 332, 335, 338, 340, 341, 342 और 366 के आधार पर भारतीय समाज को संरक्षणात्मक, विभेदीकरण (Protective
discrimination) का ढाचा प्रदान
किया। इसके अंतर्गत राज्य एक समतावादी, समाज की स्थापना के लिए पिछडे वर्गो को अर्थात मुख्य रुप से दलित एवं
आदिवासिओं को समाज में प्रतिष्ठा, सन्मान, सभी के बराबरी का स्थान बढाने के साथ ही उन्हे राज्य की नीति निर्धारण, निर्णयन प्रक्रियाओं में सहभागी बनाना था। भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों
के अनुपात क्रमशः 15% और 7.5%
यानी कुल 22.5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया
गया।[20] सामाजिक न्याय को भारतीय संविधान की आत्मा के रुप
में देखा गया। संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक न्याय को मूल उद्देश्य के रुप
में प्रस्तुत किया गया। इससे सिद्ध होता है की, बरसों
से चला आ रहा दलित आंदोलन गांधी, अंबेडकर व दलित समाज
सुधारकों को सफलता भारतीय संविधान में आरक्षण व संरक्षण के प्रावधान के रुप में
मिली ऐसा मेरा मानना है। परंतु दलित मुक्ति आंदोलन को भारतीय स्वतंत्रता के बाद एक
बडा झटका 6 दिसंबर 1956 को लगा जब दलित आदिवासी अन्य पिछड़े एवं महिलाओं के महानायक डॉ. बाबासाहेब
अंबेडकर को महानिर्वाण प्राप्त हुआ। उनकी मृत्यू के बाद लगभग दो दशक दलित क्रांति
और दलित आंदोलन की दिशा में कई मोड आए। जिन महत्वपूर्ण घटनाओं का दलित इतिहास में
मुख्य स्थान दिया गया उनमें है बौद्ध धर्मांतर आंदोलन, भारतीय
रिपब्लीकन पार्टी की स्थापना, दलित साहित्य का सृजन।[21] कांशीराम के बामसेफ, डी.एस.फोर., प्रकाश अंबेडकर का भा.री.प. बहुजन महासंघ, अंततः
ब.स.पा. की स्थापना, बाबासाहाब अम्बेडकर के पुनरोत्थान
के रूप् में हुई। 20 वी शताब्दी के इतिहास की सबसे बडी
उपलब्धि डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के क्रांतिकारी सामाजिक दर्शन और धर्मांतरण को दलितों
में नई क्रांति मानी गयी।14 अक्तूबर 1956 दलित इतिहास में एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दिन माना गया। किन्तु वर्तमान
भारत में धर्मांतरण एक समस्या के रूप में उभर रहा है। पर बिना किसी बडे प्रलोभन के
धर्म परिवर्तन का आधुनिक समाज में कोई अर्थ नही रह गया। इसीलिए धर्मांतरण आंदोलन
वर्तमान 21 वी सदी में धीमा पडने लगा। वास्तविकता
यह है की, समान नागरिक अधिकारी आंदोलन, दलित स्वतंत्रता का प्रभावकारी साधन बन गया है। डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के
विचार में राजनीतिक सत्ता के बिना दलितों का विकास संभव नही था। इसीलिए वे दलित
आंदोलन के विभिन्न मोडो एवं पडावों पर अंबेडकर सामाजिक राज नीतिमंच बनाते रहे।
किन्तु उन्हे एहसास हुआ की, पुराने तरीके और दृष्टीकोण
आम-जनता में बढती प्रजातांत्रिक चेतना के कारण अपर्याप्त है। इसीलिए उन्होने सोचा
कि सिद्धांतो के निर्माण में सबका सहयोग लेना अनिवार्य है। लेकिन जैसा कि उनकी
सोच थी, वे अपनी असामायिक मृत्यु के कारण ’भारतीय रिपब्लीकन पार्टी’ की स्थापना का स्वप्न
पूरा होते नही देख सके।[22] परंतु डॉ. बाबासाहाब अंबेडकर के
अनुयायियों द्वारा भारतीय रिपब्लिकन पार्टी की विधिवत स्थापना 1957 में कि गई। इसका गठन अखिल भारतीय शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन (एस.सी.एफ.)
मे से किया गया जो भारत के दलित और पिछडे वर्गो का नेतृत्व करता था। किन्तु यह
अनुसूचित जातियों का दल था। लेकिन आर.पी.आई. ने भूमिहीन श्रमिकों की समस्याओं पर
ज्यादा ध्यान दिया। इसका कारण भाऊराव गायकवाड, बॅ.
राजाभाऊ खोब्रागडे का नेतृत्व है, जिन्होंने आर.पी.आई.
के अन्य नेताओं के मुकाबले मजदूरों के संघर्ष धुलिया, जलगाँव, नासिक, नागपूर, भंडारा, अमरावती, अकोला के हिस्सो में आयोजित किए। 1959 में इन संघर्षो की वजह से लगभग 60,000 कार्यकर्ता
जेल गए। जब काँग्रेसने देखा कि, आर.पी.आई. एक ताकतवर
संगठन की रूप में उभर रही है तो 1967 के चुनावों
में काँग्रेस-आर.पी.आई. के चुनावी गठबंधन का निर्णय किया गया।[23] यही से आर.पी.आई. का पतन आरंभ हो गया। पार्टी राजनीति में इस प्रकार उलझ
गई की एक के बाद एक दल विभाजन हुए। इस प्रकार डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वारण के
उपरांत शोषित दलित क्रांति का जो आवाहन था वह टूटता बिखरता गया। डॉ. अंबेडकर के
बाद का दलित नेतृत्व आपस में गुत्थम-गुत्था होता रहा, उसने
डॉ. अंबेडकर का नाम तो बहुत आदर से लिया परंतु सत्ता, सम्मान
और संपत्ती के छोटे से हिस्सों के लिए वह सत्ता-प्रतिष्ठा से चिपकने में ही जुटा
रहा।[24] आर.पी.आई. का सालो से यही हाल दिखाई दे रहा है। यही
नही वह एक जाति विशेष और क्षेत्रीय दल बन कर गई। महाराष्ट्र में केवल आज प्रकाश
अंबेडकर का वजूद कैसा भी हो विदर्भ में दिखाई देता है, नही
वरन अकोला के दो विधायक एवं नगरनिगम, पंचायत समिति एवं
जिला परिषद में भा.रि.प. बहुजन महासंघ सत्ता में है। दलित वर्तमान आंदोलन- डॉ. बाबासाहाब अंबेडकर के महापरिनिर्वाण के बाद वर्तमान आंदोलन कई हिस्सों
में बाटा जा सकता है। अ. दलित पँथर- अमेरिका में बसे निग्रों ब्लँक पॅन्थर से गोरो की नस्ल और रंगभेद नीति के
खिलाफ क्रांतिकारी संगठन बनाया था। उसी तर्ज पर महाराष्ट्र के शिक्षित युवा एक वर्ग
ने 1973 (औपचारिक स्थापना) में अपने को दलित पँथर के
रुप में संगठित किया। दलित पँथर आंदोलन एक क्रांतिकारी आंदोलन था जिनमें नामदेव
ढसाल, राजा ढाले जैसे युवकों ने इसका निर्माण किया था।
जिस तरह पश्चिमी बेंगाल, आंध्र प्रदेश और बिहार में
नक्सलवादी आंदोलन चला वैसा ही अनुसूचित जातियों या यह आंदोलन महाराष्ट्र में चला।
किंतू दोनों आंदोलनों में मौलिक अंतर यह रहा की, नक्सलवादी
अधिक उग्र रह रहा। तुलना में पँथर आंदोलन सामाजिक न्याय का निरंतर पक्षधर रहा। इस
संगठन ने ’दलित’ शब्द कि
व्यापक व्याख्या की जिसमें धर्म और जाति को गौण मानते हुए तमाम शोषित और संत्रस्त
लोगों को दलित माना गया। यह सिलसिला मराठी में साहित्यिक पत्रिकाओं कि माध्यम से
प्रारंभ हुआ जिसने वर्तमान व्यवस्था का विरोध किया और मराठी साहित्य में प्रगतिशील
वामपंथी विचारधारा का प्रतिपादन किया। इन आंदोलन ने समाज में जाति व्यवस्था, पूंजीवाद, सामंतवाद तथा सूदखोरी के खिलाफ
संपूर्ण क्रांतिपर आधारित संघर्ष का आव्हान करता है। यह आंदोलन राजनीतिक दृष्टि से
जागरूक वैचारिक दृष्टि से सामर्थ्यवान, जुझारू और हर
प्रकार के शोषण के खिलाफ वैचारिक क्रांति का पर्यावरण बनाने के लिए कृतसंकल्प एवं
रचना धर्मी थे।[25] वास्तविकता में महाराष्ट्र के आर.पी.आई.
नेताओंने कभी भी दलित पँथरों की प्रमुखता से नही लिया। उनकी सर्वथा उपेक्षा कि
जबकि उसमें सभी बुद्धिजीवी प्रगतिशील विचारधारा के सूचक थे। मेरा मानना है कि, नव अंबेडकरवादियों
से टूटकर अलग हुआ दलित पँथर समूह अपने को जनवादी और क्रांतिकारी होने का दम तो
भरता है किन्तु जहाँ तक जातीय पहचान के वर्गीय पहचान में स्थानांतरण का सवाल है
इसे वह हल नही कर सका। प्रारंभ में तो इस आंदोलन ने अनुसूचित जातियों को झकझोर
दिया। परंतु आगे चलकर इस आंदोलन में बिखराव आ गया। पँथर्स का एक भाग जो अपने आपको
प्रगतिशील मानता था, वैचारिक दृष्टि से वामपंथी, राजनीतिक दलों के साथ जोडता है, पँथर्स का
दूसरा भाग उदार है जो संवैधानिक सुविधाओं के अनुसार अनुसूचित जातियों में सुधार
लाना चाहता है अंततः दलित पँथर्स और अनुसूचित जातियों का सम्पूर्ण आंदोलन कई भागों
में बँटा हुआ है। आ. बामसेफ- दलित राजनीति को अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाने का एक अवसर अस्सी के दशक
में मिला। दलित राजनीति के लिए यह दशक अत्यंत महत्वपूर्ण है। वास्तव में समकालिन
दलित विमर्श का उदय भी इसी काल में हुआ। कांशिराम ने 6 दिसंबर 1978 में बामसेफ की स्थापना की। नई
दिल्ली, चंडीगढ़ और नागपूर में उसके विशाल अधिवेशन हुए।
मराठवाडा के औरंगाबाद महानगर में भी बामसेफ का एक भव्य अधिवेशन 1991-92 में हुआ। कांशीराम ने बामसेफ के तहत हिंदी में बहुजन संगठन (साप्ताहिक)
तथा अंग्रेजी के ऑस्प्रेड इंडिया (मासिक) (डीएसफोर) पत्रिका का प्रकाशन किया।[26] बामसेफ रूपांतरण बसपा 1984 में हुआ और
अब भारत के सबसे बडे राज्य उत्तर प्रदेश में मायावती ही मुख्यमंत्री और बसपा
अध्यक्ष है। किन्तू कांशीराम के रहते जो आचार, आचरण
बसपा में था वो उनका महापरिनिर्वाण के बाद नही रहा और केवल आर्थिक बल बढाने में ही
इस का मुख्य उद्देश्य वर्तमान में दिखाई दे रहा है। बसपाने सामाजिक परिवर्तन के
अंतर्गत पाच कार्यक्रम घोषित किये थे। 1. आत्मसम्मान,
2. स्वतंत्रता, 3. समता,
4. जाति का विनाश, 5. अस्पृश्यता-सामाजिक
परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति के ये दोनो कार्यक्रम भारतीय राजनीति में एक नए युग का
सुत्रपात थे। ये कार्यक्रम क्रांतिकारी थे, क्योंकि
इन्होने दलित विमर्श को ही नही दलित राजनीति को नया आयाम दिया।[27] इ. भारीप बहुजन
महासंघ- भारीप बहुजन महासंघ का निर्माण डॉ.
बाबासाहाब अंबेडकर के पोते अड. प्रकाश अंबेडकर ने 1993 में किया। वतन भूमि का प्रश्न, गायरान भूमि का
प्रश्न और साथ ही ओबीसीओं को मंडल आयोग में आरक्षण के लिए प्रयास किया। साथही
उन्होंने न केवल दलित जातिओं को ही प्रतिनिधित्व दिया बल्कि अकोला के धनगर, बंजारा, माली, मुस्लिम
जातियों को भी सत्ता में हिस्सेदारी प्रदान की। 1994 मे खुद प्रकाश अंबेडकर लोकसभा सीट चुनकर खासदार बने थे। उसके बाद इ.स. 1999 में 3 आमदार, 2004 में 1 आमदार, 2009 में 1 आमदार और 2014 में 1 आमदार महाराष्ट्र विधानसभा में चुनकर गये थे। आज वर्तमान समय में विदर्भ के अकोला जिले के जिला परिषद में भारीप
बहुजन महासंघ सत्ता मे है।[28] इस भारीप बहुजन महासंघ आंदोलन
सबसे बडी विशेषता यह है की अकोला जिला परिषद में अध्यक्ष एक मुस्लिम महिला बनाई
थी। दलित आन्दोलन के तमाम आंदोलनों का अध्ययन करने के बाद ऐसा लगता है की अन्य के
तुलना में अड. प्रकाश अंबेडकर ने डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के विचारधारा, कार्यक्रमों पर चलने का कुछ हदतक प्रयास किया। दलित आंदोलन के समक्ष समस्याएँ दलित आंदोलन के दलितों द्वारा इंडिपेंडंट लेबर पार्टी, शेड्यूल्ड कास्ट्ास फेडरेशन और धर्म परिवर्तन के प्रयोग किए जा रहे है।
रिपब्लिकन पार्टी, दलित पँथर, बहुजन समाज पार्टी, भारीप बहुजन महासंघ और अब
दलित मानवाधिकारों से संबंधित राष्ट्रीय मुहीम के प्रयोग अभी जारी है। परतु फिर भी
दलित आंदोलनों को पूर्णतः सफलता नही मिल पाई। क्योंकि एक आंदोलन की सफलता मुख्य
रूप से चार बातोंपर निर्भर करती है।[29] सर्व प्रथम आंदोलन
के लक्ष्य स्पष्ट, प्रासंगिक होने चाहिए। दूसरे आंदोलन
के पीछे एक सशक्त विचारधारा होनी चाहिए जो सबद्ध अर्थात आंदोलनकारी लोगों को एकजूट
होने के लिए बौद्धिक व नैतिक आधार प्रदान कर सके। तीन इन उद्देश्यों की प्राप्ति
के लिए जनसंख्या का एक उल्लेखनीय भाग सामाजिक रूप से सक्रिय (सोशियली मोबिलाईज्ड)
हो। उनकी अपनी एक नीति पहचान हो, जिसके आधारपर लोगों का
संगठित होने में आसानी हो। इसके अलावा लोगों में लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष
करने कि शक्ति और बलिदान, त्याग की भावना हो। लोगों का
एकजुट होना काफि सीमा तक आंदोलन के नेतृत्व की क्षमता व कुशलता पर निर्भर करता है, चौथा तत्व यह कि आंदोलन में अपनाई जानेवाली रणनीति या तो निर्णायक संघर्ष
की हो सकती है। या संघर्ष व समझौते की अथवा संविधात्मक सौदेबाजी या शांतीपूर्ण
समझौते की। लेकिन दलित आंदोलन की प्रकृति एवं स्वरुप में भले भिन्नता हो किन्तु उनके लक्ष्य सुनिश्चित व स्पष्ट है। सामाजिक दासता, शोषण
उत्पीडन एवं प्रवचन से मुक्ति। संक्षेप में छुआछूत और जात-पात का अंत। फिर भी उनके पीछे एक सुनियोजित आदर्श और एक सर्वमान्य पहचान का अभी अभाव है परिणाम स्वरूप यह
आंदोलन अनेक खेमों में बिखरा हुआ है। वर्तमान दलित आंदोलन की सफलता में बहुत से ऐसे तत्व है
जिससे दलित आंदोलन पूरी तरह सफल नही हो सका। सर्व प्रथम दलित आंदोलन को यह स्पष्ट
करना होगा कि, आंदोलन समाज से उपजे अस्मिता, समता, सन्मान, छुआछूत, पदसोपान व भेदभाव के प्रति है या सरकार से शिक्षा, अवसर, सहभागिता, विकास
बराबरी तथा सकारात्मक पक्षपात को प्रभावी कराने या प्राप्त करने के लिए है। इस
आंदोलन में सभी दलित, बुद्धिजीवी, दलित राज नेता, दलित उद्योगपति, दलित अभिजन, दलित मध्यम वर्ग तथा दलित मजदूरों
को शामिल करना ही होगा जबकि दलित आंदोलन में इसका स्पष्ट रूप से अभाव दिखता है।
इससे भी प्रभावी कारण निम्नलिखीत बताए जा सकते है। 1. दलित जातियों में उपजातिवाद तीव्र
दिखाई देता है (विदर्भ में अमरावती, अकोला, बुलढाणा, वर्धा में तीव्रता अधिक है जैसे बावने, सोमस, लाडवण, कोचरे, बारके, सूर्यवंशी और आंधवन यह भेदभाव अधिक है, यह अपने आप में ऊँच नीच मानते है।) 2. संपूर्ण भारत में दलितों कि जनसंख्या
आंदोलन के लिए अपर्याप्त है। 3. विभिन्न राजतीतिक दलों के
दलित-प्रतिनिधी अपनी दलित विचारधारा तक सीमित रहते है। 4. दलितों में जातीय पदसोपान पद्धती। 5. दलित आंदोलन जातिय अस्मिता का
राजनीति हा शिकार। 6. दलित नेतृत्व तथा राष्ट्रीय मंच का
अभाव है। 7. दलितो के मध्य समन्वय, सहयोग व विश्वास का अभाव है। 8. दलितों में स्वार्थी राजनीति कि भावना
अधिक होना। 9. आर्थिक स्थिति का कमजोर अर्थात
निर्धनता होना। 10. दलित अभिजन में एक दूसरे को नीचा
दिखाना अधिक। 11. दलितों में अपने अपने प्रांतों में
अन्य प्रांतों के दलित का अपने प्रांत में प्रभाव न होने कि भावना तीव्र। 12. दलितों में एकता का अभाव। 13. पारिवारिक संघर्ष का सामूहिक बनाकर
बदनाम करने कि भावना दीनबदिन बढ़ रही है। 14. दलितों का शांतीप्रिय स्वभाव व
अंधविश्वासी होना। 15. दलित राजनेताओं का स्वार्थता से
लिप्त होना तथा अपने अपने, प्रभावी एरिया में अन्य
नेताओं की चुनावी राजनीति में एकदूसरे के खिलाफ एक प्रचारयंत्रणा चलाना। 16. प्रभावी राजनीतिक इच्छा का अभाव। दलित आंदोलन का उपरोक्त क्रमियों को तभी दूर किया जा सकता
है तब शिक्षा अनिवार्य हो, अधिकारों का प्रचार-प्रसार हो, एकता हो, दलित अभिजनों का सहयोग मिले, आर्थिक स्थिती मजबूत हो, राष्ट्रीय दलित
राजनीतिक दल हो, ताकतवर नेतृत्व हो, उपजातिवाद की तीव्रता कम हो, पारिवारिक समस्या
का सामुहीकरण ना हो। जनसंचार, प्रेस आदि से सहायता हो, विभिन्न राजनैतिक दलों के दलित प्रतिनिधियों में एकरूपता हो।
बुद्धजीवियों द्वारा जागरूकता अभियान चलाया जाए। प्रत्येक दलित का आत्मसम्मान, आत्मविश्वास व आत्मबल बढाया जाए, तथा
विद्यालयों, महाविद्यालयों व उच्च विद्यालयों में दलित
समस्या के बारे में संगोष्ठिया, सेमिनार किए जाए। सबसे
महत्वपूर्ण बात, सरकार, समाज
अर्थात गैर दलित समाज को भी दलित आंदोलन में सहयोग लिया जाए। यह सब करके ही दलित
आंदोलन सफल होगा। क्योकि इस सत्य को नकारा नही जा सकता कि सवर्ण व अवर्ण एक दूसरे
के पूरक है न विरोधक। उपरोक्त के अनुसार महाराष्ट्र राज्य में विदर्भ प्रांत के
बाबासाहेब के पोते अॅड. प्रकाश अंबेडकर महनीय कार्य रहे है, उन्होंने अपने दल में दलितों के साथ साथ अन्य जाति समाज को जोडने का कार्य
एवं उन्हे राजनीतिक सत्ता में भागीदारी दी। पूर्व विदर्भ में प्रो. जोगेंद्र कवाडे
इनका भी योगदान नकारा नहीं जा सकता। अमरावती विभाग में अमरावती महानगर निगम के
नगरसेवक प्रकाश बन्सोड, नगरसेवक सुरेश मेश्राम, माजी विधायक अनिल गोंडाणे, डॉ. गंगाधर पानतावणे
(दलित साहित्यिक), पूर्व विदर्भ में चरणदास नंदागवळी, विधायक दिलीप बन्सोड, विधायक रामरतन राऊत
इन्होंने न केवल उपजातिवाद कम किया बल्कि समाज में अन्य समाज के प्रति स्नेहभाव
आदर को उजागर किया। |
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निष्कर्ष |
1. एक लोकतांत्रिक समाजवादी राज्य में पिछडों का उत्थान करना, राज्य तथा उसके प्रबुध्द नागरिकों का कर्तव्य है। राष्ट्र में किसी भी वर्ग में यदि कोई निर्धन और पिछडा हुआ है भले ही वह किसी भी जाति का क्यो न हो, वह विशेष सुविधाओं को प्राप्त करने का अधिकारी होंगा। परंतु दुःख कि बात है कि, आरक्षण का उद्भव और विकास जिन आधारभूत सिध्दांतो को होकर सामाजिक न्याय की स्थापना और मानव अधिकारों के पोषण के लिए हुआ, वह समय के साथ साथ राजनीतिज्ञ के हाथ की कठपुतली, वोट बँक और स्वार्थ सिद्धि का साधन बन गया।
2. 21 वीं सदी मे जहाँ विश्व में तेजी से घटनाएँ घट रही है और परिवर्तन हो रहे है, वहाँ भारत को भी विकास के पथपर आगे बढ़ना होगा।
3. उदारीकरण, भूमंडलीकरण, निजीकरण, वैज्ञानिकरण एवं तकनीकी उन्नति तथा यातायात एवं संचार के विकास ने देश को गंभीर रूप से प्रभावित किया है जिससे मानव संसाधनों में परिवर्तन आवश्यक हो गया है।
4. अब सभी को मिलकर एकजूट होकर अपनी योग्यता और क्षमता के विकास के मार्ग को प्रशस्त कर कदम से कदम मिलाकर चलता होगा। और यह विश्व के अन्य राष्ट्रों को प्रदर्शित करना होगा की भारत किसी भी रूप् में एक पिछडा देश नही है।
5. दलित नेतृत्व अनेक खेमे में बटा हुआ है परिणाम स्वरूप अखिल भारतीय स्तर पर दलित एक नही हो सकते, इससे दलितों पर अन्याय, अत्याचार बढ रहे है।
6. भारत के विकास में बाधक जातिवाद, संप्रदायवाद, भाषावाद, धर्मांतरण, जाति-जाति में उपजातिवाद आदि समस्याओं को समाप्त कर संभव हो सकती है, आवश्यकता है कि, सभी के लिए शिक्षा का अधिकाधिक विस्तार और रोजगार के ज्यादा तादात में अवसर उपलब्ध कराए जाए। नई मानसिकता का विकास हो। |
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