ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- V August  - 2022
Anthology The Research
भारतीय समाज एवं संस्कृति पर वैश्वीकरण का प्रभाव
Impact of Globalization on Indian Society and Culture
Paper Id :  16372   Submission Date :  2022-08-07   Acceptance Date :  2022-08-16   Publication Date :  2022-08-25
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राकेश कुमार
शोध छात्र
हिंदी विभाग
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
रामनगर, नैनीताल, ,उत्तराखंड, भारत
सारांश
वैश्वीकरण अब पहले की तरह जटिल शब्द नहीं रह गया है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि अब वैश्वीकरण को उसके आर्थिक आयामों के अलावा अन्य आयामों के आधार पर भी व्याख्यायित किया जाने लगा है जिनमें राजनीतिक, सामाजिक, साँस्कृतिक और साहित्यिक आयाम प्रमुख हैं। वैश्वीकरण के प्रभावों से मानव–जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिवर्तन हो रहा है। बदलाव की इस प्रक्रिया से सामाजिक और साँस्कृतिक क्षेत्र भी अछूते नहीं है। भारतीय समाज और संस्कृति के सम्बन्ध में यह बात और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि यहाँ परम्परा और आधुनिकता के बीच गजब का द्वंद मिलता है। यही कारण है कि वैश्वीकरण के प्रभावों को भारतीय समाज और समाज विश्लेषक अलग-अलग तरह से समाज के उन्नति और अवनति से जोड़कर देखते हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Globalization is no longer a complex term as it used to be. The biggest reason for this is that now globalization is being explained on the basis of other dimensions besides its economic dimensions, in which political, social, cultural and literary dimensions are prominent. Due to the effects of globalization, changes are taking place in every sphere of human life. Social and cultural spheres are also not untouched by this process of change. In relation to Indian society and culture, this thing becomes even more important because here there is a great conflict between tradition and modernity. This is the reason that the effects of globalization are seen by Indian society and social analysts in different ways by connecting them with the progress and decline of society.
मुख्य शब्द वैश्वीकरण, समाज, संस्कृति, परिवर्तन, विकृति, परिवार, विकास, मीडिया, बाज़ार, विज्ञापन।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Globalization, Society, Culture, Change, Perversion, Family, Development, Media, Market, Advertising.
प्रस्तावना
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य की विचारधारा के साथ साथ समाज भी परिवर्तित होता जाता है। समाज और संस्कृति के बीच पारस्परिक सम्बन्ध होने के कारण समाज के साथ संस्कृति भी परिवर्तित होती जाती है। समाज और संस्कृति के परिवर्तन के समय-समय पर अनेक कारण रहे हैं। वर्तमान में वैश्वीकरण सामाजिक-साँस्कृतिक परिवर्तन का सबसे प्रभावी कारण रहा है। वैश्वीकरणl का प्रत्येक समाज पर अलग-अलग तरह का प्रभाव पड़ा है। भारतीय समाज और संस्कृति को वैश्वीकरण ने अनेक प्रकार से प्रभावित किया है जिसकी विस्तारपूर्वक चर्चा आगे की जा रही है।
अध्ययन का उद्देश्य
वर्तमान समाज की दशा को देखते हुए एक प्रश्न उठा कि समाज की स्थिति के लिए कौन से कारण उत्तरदाई है। समाज हर समय बदलाव की प्रक्रिया से गुजरता है लेकिन वर्तमान में जब यह बदलाव व्यापक स्तर पर देखा गया तो वैश्वीकरण एक ऐसी विचारधारा मिलती है जिसने भारतीय समाज और संस्कृति के साथ वैश्विक समाज और संस्कृति को भी प्रभावित किया है। वैश्वीकरण के प्रभावों से भारतीय समाज और संस्कृति में हो रहे बदलाव और उन बदलावों से समाज को क्या दिशा मिल रही है यह इस शोध पत्र का उद्देश्य है प्रभावित किया है।
साहित्यावलोकन
वैश्वीकरण आर्थिक आधार पर शुरू हुई प्रक्रिया बाद में जीवन के प्रत्येक पहलू पर प्रभाव डालने लगी प्रभावित किया है। जब हमने इसके सामाजिक-साँस्कृतिक प्रभावों के लिए साहित्य खोजना शुरू किया तो रामगोपाल सिंह की पुस्तक ‘वैश्वीकरण मीडिया और समाज’, अमित कुमार सिंह की पुस्तक ‘भूमंलीकरण और भारत परिदृश्य एवं विकल्प’, नरेश भार्गव की पुस्तक ‘वैश्वीकरण समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य’, राजीव श्रीवास्तव की पुस्तक ‘वैश्वीकरण और समाज’ के साथ कई लेख और शोध पत्रों ने विषय को समझने की दृष्टि विकसित की जिनके आभाव में यह शोधपत्र पूरा कर पाना संभव नहीं था। वैश्वीकरण के भारतीय समाज और संस्कृति पर पड़ने वाले विविध प्रभावों को इन पुस्तकों में बताया गया है।
मुख्य पाठ

वैश्वीकरण– वैश्वीकरण को शुरुआत में एक अर्थ आधारित प्रक्रिया के आधार पर परिभाषित किया गया लेकिन धीरे-धीरे जीवन के अन्य पक्षों पर वैश्वीकरण के प्रभावों को देखते हुए इसकी परिभाषा और अवधारणा भी व्यापक होती चली गयी। वैश्विक स्तर पर पूँजी, सेवा और ज्ञान के स्वछंद प्रवाह को वैश्वीकरण कहलाता है। “वैश्वीकरण वस्तुतः एक आर्थिक प्रक्रिया है, जो उदारीकरण तथा वस्तुओं, सेवाओं, पूँजी एवं वित्त के राष्ट्रीय सीमाओं के बाहर स्वतंत्र संचालन को अभिव्यक्त करती है, जिसके चलते आज देश में विदेशी फर्में बहुत कुछ स्वतंत्र रूप से काम करने लगी हैं, लोग विदेशी वस्तुएं खरीदने लगे हैं और स्थानीय बचत का काफी हिस्सा देश के बाहर निवेश किया जाने लगा है।”[1] लेकिन आर्थिक आयामों के प्रभाव में वैश्वीकरण के अन्य क्षेत्रों में पड़ने वाले प्रभावों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है इसलिए समाजशास्त्रियों ने सामाजिक-साँस्कृतिक दृष्टिकोण से वैश्वीकरण को समझने का प्रयास किया है। “विश्व के प्रति व्यवहारिक दृष्टिकोण के फलस्वरूप जब विभिन्न देशों के बीच सामाजिक और सांस्कृतिक संबंधों में वृद्धि होने लगती है तब इसी दशा को हम वैश्वीकरण कहते हैं।"[2]

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वैश्वीकरण को प्रसारित करने में तकनीकी, बाज़ार और विज्ञापन महत्वपूर्ण है।

भारतीय समाज, संस्कृति और वैश्वीकरण – समाज और संस्कृति दोनों गत्यात्मक हैं इसलिए इनमें समय सापेक्ष बदलाव आता रहता है। यह बदलाव कभी आधुनिकीकरण से आया तो कभी औद्योगिकीकरण से और वर्तमान में वैश्वीकरण के कारण से समाज और संस्कृति में बदलाव आता जा रहा है। वैश्वीकरण के कई आयाम हैं लेकिन उसके मूल में अर्थ ही है इसलिए आज मनुष्य के सम्बन्ध आर्थिक आधार पर ही टिके हुए हैं या यूँ कहें कि पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्ध आर्थिक शक्तियों के शिकार होते जा रहे हैं। जिसका सीधा प्रभाव सामाजिक और साँस्कृतिक मूल्यों पर पड़ रहा है। इन मूल्यों में लगातार आ रही गिरावट इसी का परिणाम है। लेकिन इसके समान्तर इस दिशा में कुछ सकारात्मक सामाजिक-साँस्कृतिक परिवर्तन भी हुए हैं। सामाजिक परिवर्तन की शुरुआत ही पारिवारिक संरचना के विघटन के साथ हुई।

भारतीय पारिवारिक परम्परा को देखें तो पारिवारिक संरचना सयुंक्त परिवारों की ही मिलती है। जहाँ सम्बन्धों में स्थिरता और मजबूती दिखाई देती है। इस पारिवारिक संरचना में परिवार के सभी सदस्य सुरक्षित रहते हैं। भारतीय सयुंक्त परिवार के सम्बन्ध में कक्कर & कक्कर कहते हैं कि “भारतीय परिवार बड़े व शोरगुल वाले होते हैं, जिसमें माता-पिता और बच्चों के अतिरिक्त चाचा-चाची और कभी-कभी ममेरे-फुफेरे भाई-बहन एक ही छत के अन्दर रहते हैं, जिसमें दादा-दादी की अहम् भूमिका हुआ करती थी।"[3] इस पारिवारिक संरचना में विधटन तो औद्योगीकरण ने ही शुरू कर दिया था जब आजीविका कि तलाश में नौजवान गाँवों से महानगरों की और पलायन करने लगे थे। वैश्वीकरण जनित उन्मुक्त की नीतियों ने इसकी गति में तीव्रता ला दी है। यह बिडम्बना ही है कि जो वैश्वीकरण विश्व परिवार और विश्व गाँव कि बात करता है वही तीन पीढ़ियों के परिवार को एक साथ नहीं रख पाया। सयुंत परिवार विघटित होकर एकाँकी परिवार में तब्दील होते गए।

वैश्वीकरण से विघटित होते परिवारों में सबसे ज्यादा मार परिवारी के वृद्धों और बच्चों पर पड़ी है। सयुंत परिवारों के मुखिया और समाज के वटवृक्ष कहे जाने वाले वृद्ध अब हाशिए पर धकेले जाने लगे और अपनी संतान के प्रेम और सम्मान के लिए वे मोहताज हो गए। उन वृद्धों का कुछ सम्मान कुछ हद तक बचा है जो आर्थिक आधार पर अपनी संतान कि मदद कर पा रहे हैं। किसी समाज और संस्कृति के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक बात और कुछ नहीं हो सकती है न्यायालय को कहना पड़ रहा है कि यदि आपने अपने माता-पिता को साथ नहीं रखा तो आपको दण्डित किया जाएगा। वैश्वीकरण ने समाज का यह भ्रम भी तोड़ा है कि वृद्ध ज्ञान का भण्डार होते हैं, क्योंकि उनका ज्ञान तकनीकी युग में अप्रासंगिक हो गया है। आज पारिवारिक सम्बन्धों और मूल्यों में इतनी ज्यादा गिरावट आ गयी है कि जिन माता-पिता ने पाल-पोस कर बड़ा किया है उनसे देश के वृद्धा आश्रम भरे हुए हैं।

वैश्वीकृत समाज में जो स्थिति वृद्धों की है बच्चों कि स्थिति उससे कुछ अलग नहीं है। आज पैसा कमाने कि अंधी दौड़ में माता-पिता इतने मशगूल हो गए हैं कि उन्हें अपनी संतान के प्रति कोई लगाव ही नहीं रह गया है। बच्चों को खिलाने-पिलाने से लेकर स्कूल लाने-ले जाने तक के लिए नौकर रखे हुए हैं। इस स्थिति में बच्चों को अपने माता-पिता से किसी प्रकार का लगाव नहीं रहेगा तो भविष्य वृद्धा आश्रम कि ओर ही संकेत करता है। यह मनुष्य की गजब कि बेबकूफी है कि महीने भर एक जगह से कमा कर लाता है और दूसरी जगह दे देता है। इस कमाने और देने के बीच का नफा नुकसान तो वही जाने लेकिन इससे सामाजिक संकट अवश्य पैदा होता है। यह वैश्वीकरण के आर्थिक प्रभाव का ही परिणाम है।

वैश्वीकरण का यह प्रभाव और परिवर्तन दाम्पत्य सम्बन्धों में भी प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। भारतीय परिवार और संस्कृति की पति परमेश्वर वाली अवधारणा को आज की महिलायों ने सिरे से खारिज कर दिया है जो बहुत हद तक सही भी है। पति क्रूर, अत्याचारी जैसा भी हो उसे स्वीकारना कोई समझदारी भी नहीं है। अब वह इस परम्परागत दासता को तोड़ती दिखाई देती है। इस सम्बन्ध में राम गोपाल सिंह का मत है कि “जहाँ तक महिलाओं का प्रश्न है कमोबेश मध्यकाल तक प्राय: सभी समाजों  में परम्परागत नियम एवं विधान के चलते वे बहुत कुछ दासतापूर्ण जीवन व्यतीत करने को विवश थीं। चूँकि वैश्वीकरण सैद्धांतिक रूप से जन्म, जाति, वस्त्र, लिंग एवं राष्ट्रीयता से परे वैयक्तिक स्वतंत्रता, योग्यता व गुणवत्ता का पक्षधर है, इसलिए यह महिलाओं के हितों के विपरीत नहीं है।”[4] तकनीकी का व्यापक प्रसार इसका प्रमुख कारण है। महिलाओं कि दशा में हो रहे परिवर्तन में एक प्रमुख परिवर्तन यह चिन्हित किया गया कि परम्परागत पारिवारिक परम्परा में जो माँ पूजनीय थी वैश्वीकृत समाज में वह स्थान पत्नी ने ले लिया है। इसका परिणाम यह हुआ कि माँ अपना सम्मान खोती चली गयी। एक ही प्रक्रिया किस प्रकार महिलाओं की स्थिति को बदल देती है यह इसका एक प्रमाण प्रस्तुत करता है। परिवार के सम्बन्धों पर पड़ने वाले प्रभावों के सम्बन्ध में अमित कुमार सिंह का वक्तव्य काफी कुछ बयाँ कर एटा है - “शहरों, नगरों व महानगरों के व्यक्तिगत परिवार में पति-पत्नी और बच्चे अब एक सयुंक्त इकाई नहीं रह गये हैं। सफलता की दौड़ में भागते पति के पास समय का अभाव रहता है और धन की प्रचुर उपलब्धता के बाद भी महिलाएँ अकेलेपन और बच्चे तनाव से ग्रस्त देखे जा सकते हैं। ऐसे परिवार में बुजुर्ग स्वयं ही त्याज्य बन जाते हैं ।”[5]

स्त्री के सबंध में भारतीय संस्कृति की अवधारणा ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ को भी वैश्वीकरण ने नकार दिया है। जिस भारतीय समाज और संस्कृति में स्त्री को देवी तुल्य समझा जाता है आज वैश्वीकरण ने उस स्त्री को अपना उत्पाद बेचने मात्र का एक जरिया बना दिया है। जिस समाज में एक लम्बे समय तक प्रदा प्रथा प्रचलित रही है (जो कई अर्थों में गलत भी थी) और जहाँ के लोक जीवन में स्त्री अपने से बड़ों के सामने घूंघट डालती थी उस समाज में आज स्त्री अर्धनग्न होकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पाद बेच रही हैं। आज सौन्दर्य प्रसाधन से लेकर खाने पहनने कि वस्तुओं के विज्ञापन में महिलाएँ ही नजर आती हैं। “फलतः यह नारी, उसकी देह, बुद्धि व सौन्दर्य को भी बाज़ार में ज्यादा से ज्यादा भुनाने में लगा है। हीरो साइकिल से लेकर मेंस अंडरवेयर तक के विज्ञापन में एक खूबसूरत लड़की जरूर देखी जा सकती है।”[6]

वैश्वीकरण का प्रभाव संस्कृति के अन्य पहलुवों पर भी आसानी से देखा जा सकता है। आज के मनुष्य का खान-पान आज वैश्विक होता जा रहा है। ऐसा कहा जा सकता है कि वैश्विक होते समय में परम्परागत खान-पान पिछड़ते जा रहे हैं। आज लोगों के मन में चाउमिन, मोमोज, बर्गर, पिज्जा, सेंडबिच इतनी गहराई से जगह बना गए हैं कि इनके अलावा बाज़ार में और कुछ दिखता और बिकता ही नहीं है। छोले, जलेबी, समोसा और पकोड़ी जैसे परम्परागत खाद्य सामग्री बाज़ार से नदारद ही मिलती है। यही स्थिति शीतल पेय पदार्थों की भी है पेप्सी, कोकाकोला और लिम्का ने लस्सी और नीम्बू पानी को बाज़ार और प्रचलन से बाहर कर दिया है। जो वस्तुएं समाज के अभिजात वर्ग के उपयोग की हुआ करती थी वह आज जनसामान्य की पहुँच में आसानी से है। वैश्वीकरण के समर्थक इसको साँस्कृतिक आदान-प्रदान के रूप में देखते हैं उनका मानना है कि इस प्रक्रिया में यदि हम विश्व की अन्य संस्कृतियों को अपना रहे हैं तो विश्व स्तर पर हमारी संस्कृति को भी अपनाया जा रहा है इस सम्बन्ध में अनूप चतुर्वेदी लिखते हैं कि “वैश्वीकरण की प्रक्रिया द्वारा भारत वैश्वीकृत और अंतरनिर्भर विश्व के सम्पर्क में आया। शौकत मियाँ की प्रसिद्ध चिकन-बिरयानी की जगह केंटुकी चिकन फ्राई की दुकानें दिखने लगी और लस्सी की जगह कोका-कोला की बोतलें।”[7]

संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पहलू परिधान भी है जिस पर वैश्वीकरण का प्रभाव ज्यादा देखा जा सकता है। यह पहनावा कई अवसरों पर इतना वैश्विक हो जाता है कि वह अश्लीलता और फूहड़ता की सीमा तक पहुँच जाता है। प्रश्न यह नहीं है कि अपने परिधानों को क्यों छोड़ा जा रहा है बल्कि प्रश्न यह है कि जो अपनाया जा रहा है वह समाज में किस हद तक स्वीकार्य है। संस्कृति निरंतर परिवर्तित होती रहती है इसलिए इसके अवयवों में भी परिवर्तन लाजमी है लेकिन स्वीकार किये जाने की सीमा तक ही। जींस, टी-शर्ट पहनना कोई गुनाह नहीं है लेकिन साड़ी, धोती, सलवार, सूट और पैंट-कमीज़ को पहनना भी नहीं छोड़ना चाहिए। अपनी संस्कृति के साथ अन्य संस्कृति को अपनाना संस्कृतियों का दोहरा प्रवाह है जो विश्व की संस्कृतियों को संबर्धित करता है। इस प्रक्रिया में विश्व स्तर पर भारतीय संस्कृति को अपनाए जाने के सम्बन्ध में मधु पूर्णिमा लिखती हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप में भी श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे देश में शादी के अवसर पर भारतीय परिधानों की लोकप्रियता बढ़ रही है।”[8]

भाषा संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है। भाषा अभिव्यकरी के माध्यम से किसी भी व्यक्ति के संस्कारों का पता आसानी से चल जाता है। वैश्वीकरण के प्रभावों से मनुष्य का भाषा संस्कार भी बदल गया है। अपने से बड़ों के प्रति जो सम्मान भाषा में झलकता था वह भाषा का शील अब गायब है। यह समाज और संस्कृति की अजीब बिडम्बना है कि अपने से उम्र में बड़े लोगों कोसीधे नाम लेकर बुलाया जा रहा है और उम्र में अपने से छोटों को आप से संबोधित किया जा रहा है। आज का भाषा संस्कार बहुत हद तक सिनेमा, मीडिया और विज्ञापन द्वारा निर्मित किया जा रहा है जिनके मूल में मुनाफ़ा है और मुनाफे की दौड़ में संस्कार और शालीनता नहीं देखी जाती है। इसके साथ वैश्विक बाज़ार ने जो भाषा संस्कार तैयार किया है उससे भाषा में कई विकृतियाँ जन्म ले रही हैं।

कुल मिलकर वर्तमान समय संस्कृतियों के टकराहट और संक्रमण का है। इसलिए कुछ विचारकों को लगता है कि वैश्वीकरण के इस दौर में क्षेत्रीय संस्कृतियों को संकट पैदा हो गया है। इसके ठीक विपरीत कुछ विचारकों का मानना है कि यह प्रत्येक संस्कृति के लिए खुला अवसर है कि वह विश्व पटल पर स्वयं को सिद्ध कर सके। वैश्वीकरण का यह प्रवाह एकतरफा नहीं है बल्कि इसमें संस्कृतियाँ क्षेत्रीय से वैश्विक और वैश्विक से क्षेत्रीय दोनों दिशा में प्रवाह करती हैं। । “एक विश्व संस्कृति का निर्माण भी इस प्रसार के लक्ष्यों के साथ जुड़ा हुआ है। यह बात दूसरी है कि अलग-अलग संस्कृतियाँ इस प्रसार को कैसे देखतीं हैं। सम्भावना है कि कुछ संस्कृतियाँ इसे अपने विस्तार के रूप में देखें और कुछ संस्कृतियाँ इसे संकट का दौर समझें।[9]

निष्कर्ष
कोई भी अवधारणा या सिद्धांत अपना एक तरफ़ा प्रभाव लेकर नहीं आता है। उसके मानव जीवन पर कुछ सकारात्मक आयर कुछ नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं। भारतीय समाज और संस्कृति पर वैश्वीकरण का प्रभाव भी कुछ इसी तरह का है। वैश्वीकरण के प्रभावों में भिन्नता का एक सबसे बड़ा कारण इसको समझने और स्वीकार करने में असमानता भी है। भारतीय समाज और संस्कृति पर वैश्वीकरण का मिला-जुला प्रभाव रहा है, कहीं उसने भारतीय समाज में प्रचलित स्त्रीवादी और जातिवादी जड़ता को तोड़ा है तो कहीं पारिवारिक संबंधो को विघटित किया है। संस्कृति के लिए वैश्विक द्वार खोलने का काम वैश्वीकरण ने ही किया है जिसके परिणामस्वरूप क्षेत्रीय संस्कृति विश्व स्तर पर अपनी पहचान बना रही है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. सिंह, राम गोपाल, 2011, ‘वैश्वीकरण मीडिया और समाज’, पृष्ठ -2 2. श्रीवास्तव, डा० राजीव, 2012-13, ‘वैश्वीकरण एवं समाज’,पृष्ठ – 6 3. कक्कर, सुधीर & कैथरीना, 2007, ‘द इंडियन पोरट्रेट ऑफ़ अ पीपुल’, पृष्ठ-8 4. सिंह, राम गोपाल, 2011, ‘वैश्वीकरण मीडिया और समाज’, पृष्ठ -59 5. सिंह, अमित कुमार, 2010, ‘भूमंडलीकरण और भारत परिदृश्य और विकल्प’, पृष्ठ-108 6. सिंह, अमित कुमार, 2010, ‘भूमंडलीकरण और भारत परिदृश्य और विकल्प’, पृष्ठ-111 7. चतुर्वेदी, डॉ० अनूप, 2013, ‘वैश्वीकरण का भारतीय समाज एवं संस्कृति पर प्रभाव’ 8. किश्वर, मधु पूर्णिमा, 2005, हिन्दुस्तान – नारी से साड़ी छूटी, पन्त शर्ट पर जोर’ 9. भार्गव, नरेश, 2014, ‘वैश्वीकरण समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य’, पृष्ठ-91