ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- VI September  - 2022
Anthology The Research
भारत में संगीत एवम् अन्य ललित कलाओं का संरक्षण एवम् संवर्धन
Protection and Promotion of Music and Other Fine Arts in India
Paper Id :  16440   Submission Date :  16/09/2022   Acceptance Date :  16/09/2022   Publication Date :  18/09/2022
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स्मृति कौशिक
सह - आचार्य
संगीत विभाग
श्री टीकाराम कन्या महाविद्यालय
अलीगढ़, ,यू.पी., भारत
सारांश कला के विभिन्न रूप एक दुखद तूफान के बाद पुनर्जीवित होने का बल देते हैं। कला को पूजा योग्य, मनोरंजन, विश्राम प्रदत्त, शौक या यहाँ तक कि एक उपचारक के रूप में माना जाता है। इसलिए यह आवश्यक है कि मानव को उनके बहुआयामी लाभों और प्रकृति के साथ उनके जुड़ाव के कारण ललित कलाओं का संरक्षण और प्रचार किया जाए। यह सम्पूर्ण विश्व और इसकी प्रत्येक गतिविधि नश्वर होती, यदि इसमें प्रकृति की सर्वाधिक अमूल्य और अद्भुत देन 'कला' न होती । जब रसहीन भाषा ने मधुर संगीत का साथ पकड़ा तब उन लययुक्त अक्षरों में भाव-विहृवल होकर वह झूम उठा। संगीत अन्य कला रूपों के समामेलन के साथ सद्भाव, शांति, चेतना, आध्यात्मिक जुड़ाव प्राप्त करने में योगदान देता है, और मनुष्य को प्रकृति और उसकी सुंदरता के साथ जुड़ने का अवसर देता है। विभिन्न लेखकों, कलाकारों, जिज्ञासु और दार्शनिकों के प्रदर्शन के साथ पिछले साहित्य पर आधारित; यह लेख ललित कलाओं के गहरे निहित दर्शन और मानव जाति के लिए उनके महत्व पर आधारित है और साथ ही इस बात पर केन्द्रित है कि आज के समय में कला का संरक्षण क्यों आवश्यक है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Various forms of art force one to regenerate after a tragic storm. Art is regarded as a form of worship, entertainment, relaxation, hobby or even a healer. It is therefore necessary that the fine arts be protected and promoted because of their multifaceted benefits to human beings and their association with nature. This whole world and every movement in it would have been mortal, if it had not been for the most invaluable and wonderful gift of nature, 'art'. When the uninteresting language caught up with the melodious music, he shuddered with emotion in those rhythmic syllables. Music along with the amalgamation of other art forms contributes to achieving harmony, peace, consciousness, spiritual connectedness, and gives man an opportunity to connect with nature and its beauty. Based on previous literature with exhibits from various writers, artists, inquisitors and philosophers; This article is based on the deeply rooted philosophy of fine arts and their importance to mankind and also focuses on why the preservation of art is essential in today's times.
मुख्य शब्द संगीत, कला, ललित कला।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Music, Art, Fine Arts
प्रस्तावना
निस्पन्दित सृष्टि में मधुर हलचल का समावेश तभी हुआ था, जब मानव कला के सौन्दर्य से परिचित हो चुका था। उसके पास अक्षर तो थे, किन्तु कोई लय नहीं थी। प्रकृति की सम्पूर्ण हलचलों में वह संगीत का ही सुन्दर रूप देखने लगा। उसने किसी मोहक चित्र को देखा तो खिंचता चला गया, किसी शिल्पकार की कल्पना को उसके हाथों का स्पर्श पाते ही एक सुन्दर प्रतिमा के रूप में परिवर्तित होते देखा तो, कल्पना के पंख लगाकर उड़ चला, हृदय इन अद्भुत कलाओं के सागर में गोते खाकर कुछ शब्दों को तलाशने लगा। जब शब्द मिले तो उन्हें छन्दों मे, दोहों में, काव्यों में बांधने लगा। जब अक्षर बंधने लगे तो फिर सोचने लगा कि अब कैसे उस सौन्दर्य को हृदय से लगाँऊ, उसे कैसे अपने अधरों की स्मित बनाँऊ। ऐसा क्या करूँ कि, मैं तो क्या सम्पूर्ण जगत का अस्तित्व ही सुन्दर चित्रों, पत्थर में तराशी हुई मनमोहक अनकही बातों को सुन सके, उसे महसूस कर सके (Garg, 1985)। अचानक उसके अधर कुछ गुनगुनाने को मचल उठे, उसके मुख से निकली स्वर लहरियों से मानों सभी कलायें जीवन्त हो उठी हों। चित्रों के इन्द्रधनुषी रंग, काव्य का सौन्दर्य, वो तराशी हुई सभी अनकही बातें समझ में आने लगीं संगीत का सामीप्य पाते ही जीवन कितना रसमय हो गया। षड़ज नाद सौं, ऋषभ दादर सौं, गैथन सौं गंधार। अज्या सौं मध्यम भणे, पंचम कोयल पुकार। धैवत मोर निषाद गज सौं, शंभू करे तैयार।।' 'सुर साधना ही सच्ची भक्ति है, क्योंकि स्वर की सृष्टि भगवान शंकर ने की है।' (उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ)
अध्ययन का उद्देश्य विभिन्न लेखकों, कलाकारों, जिज्ञासु और दार्शनिकों के प्रदर्शन के साथ पिछले साहित्य पर आधारित; यह लेख ललित कलाओं के गहरे निहित दर्शन और मानव जाति के लिए उनके महत्व पर आधारित है और साथ ही इस बात पर केन्द्रित है कि आज के समय में कला का संरक्षण क्यों आवश्यक है।
साहित्यावलोकन

सम्पूर्ण कलायें प्राचीन काल से ही भारत देश का गौरव रही हैं। सम्पूर्ण ललित कलायें रसानुभूति का साधन मानी गई हैं।

कला का उद्देश्य आनन्द दान है। कलायें मानव सभ्यता तथा संस्कृति की उपज हैं। पकवान और सुवासित द्रव्यों का अविष्काररंगोली कला आभूषणों का वैचित्रयचित्रकलामूर्तिकलाकथा और काव्य यह सब मानव की ही विकसित की हुई कलायें हैं जो आदिकाल से बालरूप की अठखेलियों से लेकर आज मस्त यौवन की आभा से परिपूर्ण हैं। मानव के भाव-जगत को निरन्तर उसकी चेष्टाओं तथा कुछ और करने की लगन ने ही कलाओं को सुन्दर रूप प्रदान किया है। इस प्रकार 'कर्म की कुशलता को ही कला कहा जाता है' (Ranade, 1989) 

मुख्य पाठ

आज हम सभी भलीभाँति जानते हैं कि हमारे भारत देश की सम्पदा प्रारम्भ से लेकर आज तक क्या रही हैवेदों तथा पुराणों से जन्मी हुई सम्पूर्ण कलाओं को मानव ने समय के भयावह हिलोरों से संरक्षित करते हुये हमारे समक्ष एक इतिहास रचा और कहा कि हमें इसे दूर ले जाना है और इतना विकसित करना है कि अब उसे कोई भी झंझावत हिला न सकेकिन्तु आज के युग पर हम दृष्टिपात करेंउसे अनुभव करें तो लगभग उपर्युक्त सभी बातें सारहीन सी लगती हैं। हमें सोचने पर विवश करती हैं कि क्या इन सब बातों का कोई अस्तित्व था या किताबी बातें थीं। पूर्वजों ने सम्पूर्ण कलाओं के उद्भव और शनैः शनैः उसके विकसित होने का इतिहास बताकर समाज का मार्ग प्रशस्त किया। तदुप्रांत उसका भविष्य आज की पीढ़ी के कर्णधारों के मानस-पटल पर अंकित करके अपने कर्तव्यों के प्रति सचेष्ट किया। सभी कला के पुजारियों की भाँति एकजुट होकर उसे विकसित करने के लिये प्रयत्नशील हो गये (Jain, 1991) 

समय का चक्र कुछ ऐसा चल रहा है कि समाज दिनोंदिन जीवन की सुख-शान्तिअमन-चैन सब खोता सा जा रहा है। अब किसके पास समय हैजो घर आकर अपनी आंखों को बन्द करके मीठा संगीत सुनना चाहेकौन है जो इन्द्रधनुषी रंगों को देखकर उसमें स्वयं को लिपटा सा महसूस करेतराशी हुई विरह की व्यथाउन्माद और प्रेम को अपने हृदय की धड़कनों में महसूस कर सके। हम इतने अधिक भौतिकता की ओर उन्मुख हो चुके हैं किअपने ही कारणों से स्वयं को तनाव देकर अपनी मानसिक शान्ति का हनन कर रहे हैं। इस भौतिक जगत की भौतिकता वाद से दूर भी एक दुनिया है जिसे हम बहुत पीछे छोड़ते जा रहे हैं। प्रत्यक्ष पर्दे पर अब हम ऐसा देखना चाह रहे हैंजो गलत मानसिकता को जन्म दे सकेहम ऐसा सुनना चाह रहे हैं जो केवल हमारी सुप्त वासनाओं को जागृत कर सकेहम ऐसा पढ़ना चाह रहे हैंजो हमें केवल पल-भर को आनन्दित कर सके। यानी हमारी अनुभूतियाँ अब ऐसी होने लगी हैं किजो हमें क्षणिक सुख दे सकेइसलिये हमारा प्रयास भी लगभग उसी दिशा की ओर अग्रसर है (Sharma, 1993)

मानसिक प्रदूषण से भी मानवीय व्यक्तित्व का निरन्तर विघटन होता जा रहा है। काव्यों मेंछन्दों मेंगीतों मेंनृत्य की भाव-भंगिमाओं में अंगारिकता होते हुये भी एक सम्पूर्ण जीवन का दर्शन होता थाएक सुखद पावन अनुभूति होती थी। जिसमें किंचित मात्र भी वासनाओं का स्थान नहीं थावह सब लुप्त होता जा रहा है। हमारे लिये यह एक अत्यन्त दुखद स्थिति है।

आगामी शोधकर्ता पूर्व कही गई ग्रन्थीय विचारों को अपना आधार मानकर आगे बढ़ेंगेयहाँ तक तो उचित है कि हमारे विद्वज्जनों के अनुभवों को अपने मार्ग के प्रशस्त होने के कारण का निर्माण कर रहे हैं। तद्उपरान्त इस काल मेंइस घराने मेंइस राजनैतिक शासन में इस-इस प्रकार की गतिविधियाँ रचनात्मक कार्यों के लिये हुईइसका जिक्र करेंगे। उसके बाद निष्कर्ष निकलेगा ये-ये संस्थायें कलाओं को उभारने में प्रयत्नरत हैंसरकार इस दिशा में यह प्रयत्न कर रही हैआकाशवाणी और दूरदर्शन सम्पूर्ण कलाओं को देश-विदेश में पहुंचाने के लिये प्रयत्नशील हैं। बस इतना कहकर और लिखकर हो गई कर्तव्यों की इतिश्री। अनुसन्धान में ईमानदारी का होना अत्यन्त आवश्यक हैजो कुछ भी तथ्य एकत्र किये जायेंउनके प्रति ईमानदार होना चाहिए।

हमारी युवा पीढ़ी जिनसे हमें उम्मीदें हैंवे अधिकांश बेहूदे गीतों पर खुशी से सिर हिलाते देखे गये हैं। शिक्षकों का यह उत्तरदायित्व बन जाता है कि विद्यार्थियों के मस्तिष्क एवम् विवेक को इतना जागृत कर दें किवे पूरी ईमानदारी से अपने शोध को सही अंजाम दे सकें। हमारे भारत देश में हमारे महान कविवरोंकलाकारोंसंगीतकारों उनका अन्त क्या होता हैऐसे अनेकों उदाहरण पड़े हैंइनसे हमें सबक लेना चाहिए। कितने ही कलाकार गुमनामियों के अंधेरों में खो गये। इसलिये हम चाहें कि अब शायद इस राजनैतिक दल का शासनकाल आयेगा या उसका शासनकाल आयेगा तो हमारी कलाओं का चहुंमुखी विकास होगा तो यह एक गलत सोच है। कलाओं के मध्य कलाकारों के मध्य किसी भी प्रकार की व्यापारिक स्पर्धा या अन्य किसी भी स्पर्धा का आना सम्पूर्ण कलाओं का हनन हैकुछ और नहीं (Shukl, 1995)

चाहे कोई राजनैतिक पार्टी हो या कोई संस्था वह केवल यह आंकलन कर रही है कि इसे आगे बढ़ायेंगे तो हमें यह व्यापार मिलेगा और हमें अरबों का मुनाफा मिलेगा। यह तो एक ऐसी अन्धी दौड़ है कि जिसका कोई अन्त नहीं है मानव का सम्पूर्ण अस्तित्व ही अब उद्योगमय हो चुका है। अनेकों का दृष्टिकोण केवल व्यापारिक है और चाहे कोई भी माध्यम हो उसी के जरिये केवल व्यापार करने की होड़ है। चाहे वह न्यायोचित हो या नहीं। ऐसे लोगों और ऐसे समुदायों से यह उम्मीद की जाय कि वह हमारी कलाओं को विकसित करेंगेतो व्यर्थ है।

निष्कर्ष समस्त कलायें जिसे पूर्व गुणीजनों ने अपने संघर्षों का सामना करते हुये संरक्षित कर सकते हैं और इस प्रकार से हम संवर्धित कर सकते हैं। प्रकारों को छोड़कर हमें इसके संरक्षण की जड़ तक पहुंचना होगा तभी संवर्धन की नीति प्राप्त होगी। क्योंकि समुद्र से मोती प्राप्त करने के लिये उसके झंझावतों व तूफानों को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। प्रथम संरक्षण फिर संवर्धन यही आज की आवश्यकता है और हमारा नैतिक कर्तव्य भी है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. Garg, L. (1985). Bhatkhande sangeet Shastra. Sangeet Karyalaya, Hathras 2. Jain, N. (1991). Ras Siddhant aur saundaryashastra. National Publishing house, New Delhi. 3. Ranade, G.H. (1989). Hindustani Music: An outline of its physics and aesthetics. S. Lal & Company, Delhi 4. Sharma, B.S. (1993). Sangeet Nibandh Manjari. 5. Shukl, R. (1995). Bhartiya Saundaryashastra ka tatvik vivechan evam lalit kalayen. National Publishing house, New Delhi.