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श्रीमद्भागवतपुराण में सांख्य दर्शन | |||||||
Sankhya Philosophy in Srimad Bhagavata Purana | |||||||
Paper Id :
16376 Submission Date :
27/09/2022 Acceptance Date :
20/10/2022 Publication Date :
24/10/2022
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सारांश | भारतीय ज्ञान विज्ञान परम्परा का मूल स्रोत वेद है। वैदिक ज्ञान विज्ञान ही पुराणों में पल्लवित हुआ है। पञ्चविध लक्षण वाले पुराणों में दर्शन सम्बन्धी तथ्य भी उपलब्ध होते हैं। श्रीमद्भागवतमहापुराण में अनेकत्र सांख्य दर्शन का वर्णन विशदता से उपलब्ध होता है, जिसकी सांख्य कारिका से तुलना अतीव रोचक है। इसमें विष्णु के अवतार महर्षि कपिल मुनि अपनी माता देवहूति के समक्ष सांख्य के तत्त्वों का वर्णन करते हैं, जिनके ज्ञान से बद्धपुरुष प्रकृति के गुणों से मुक्त हो जाता है। त्रिगुणात्मिका प्रकृति से महत् ,अंहकार एकादश इन्द्रियों, पञ्त तन्मात्राओं तथा पञ्च महाभूतों की सृष्टि होती है। इस पुराण में सांख्य को सेश्वर माना गया है। तृतीय स्कन्ध के दशम अध्याय में दशविध सृष्टि का उल्लेख है। एकादश स्कन्ध के 11 वें अध्याय में बद्ध, मुक्त तथा जीवन्मुक्त पुरुष के लक्षण वर्णित हैं। एकादश स्कन्ध का ही 24 वां अध्याय "सांख्य योग " के नाम से ही विख्यात है। इसी स्कन्ध के 25 वें अध्याय में सत्त्वादि तीनों गुणों का प्रस्फुटतया विवरण है। | ||||||
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The original source of the Indian knowledge science tradition is the Vedas. The science of Vedic knowledge has flourished in the Puranas. The facts related to philosophy are also available in the Puranas containing the five signs. The description of many Sankhya philosophy is available in the Shrimad Bhagwat Mahapuran, which is very interesting to compare with the Samkhya Karika. In this, Maharishi Kapil Muni, an incarnation of Vishnu, describes the elements of Sankhya in front of his mother Devahuti, by whose knowledge the conditioned person becomes free from the qualities of nature. From the Trigunatmika Prakriti, the ego, the eleven senses, the five tanmatras and the five great elements are created. In this Purana, Sankhya is considered as Sesvara. The tenth world of creation is mentioned in the tenth chapter of the third skandha. The characteristics of a conditioned, liberated and jivanmukt person are described in the 11th chapter of the Ekadash skandha. The 24th chapter of the eleventh skandha is known by the name of "Sankhya Yoga". In the 25th chapter of this skandha, there is a description of the three gunas of Sattva. |
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मुख्य शब्द | भारतीय, वेद, पुराणों , दर्शन, श्रीमद्भागवतमहापुराण, सांख्यदर्शन, सांख्यकारिका, कपिल मुनि, बद्धपुरुष, त्रिगुणात्मिका ,महत् ,अंहकार, एकादश इन्द्रियों, सृष्टि, सेश्वर, सांख्य योग, जीवन्मुक्त | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Indian, Vedas, Puranas, Philosophy, Srimad Bhagavata Mahapurana, Sankhya Darshana, Sankhya Karika, Kapil Muni, Baddha Purush, Trigunatmika, Mahat, Ahamkara, Eleven senses, Creation, Sesvara, Sankhya Yoga, Jeevmukta | ||||||
प्रस्तावना |
पुराण ज्ञान विज्ञान के स्रोत हैं, इनमें विविध दर्शनों का वर्णन मिलता है, श्री मदभागवत महा पुराण मेँ सांख्य दर्शन के सिद्धान्त प्रचुरतया उपलब्ध होते हैं , श्री ईश्वर कृष्ण द्वारा रचित सांख्य कारिका से इन सिद्धांतों की तुलना अतीव रोचक है |
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अध्ययन का उद्देश्य | एक समय पुराण बहुत प्रसिद्ध रहे हैं। आर्य समाज के उद्भव के अनन्तर इन्हें "गपोड़ पुराण" की संज्ञा मिलने से शनैः शनैः इनके प्रति रुझान अल्पतर होता गया। इस शोध पत्र का प्रथम उद्देश्य पुराणों के प्रति समाज में व्याप्त नकारात्मकता को दूर करना है। पुराण आज भी ज्ञान विज्ञान के भंडार हैं। आज के ज्ञान विज्ञान से पौराणिक ज्ञान विज्ञान को संबद्ध करके इस नकारात्मकता को दूर किया जा सकता है। द्वितीय उद्देश्य है - पौराणिक ज्ञान विज्ञान के प्रति सामाजिकों में अभिरुचि उत्पन्न कर उनके प्रति समालोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित करना। तृतीय उद्देश्य है - सांख्यकारिका में उक्त सांख्यदर्शन को सहजता, सरलता तथा विषदता से अवबोध कराना तथा पुराणोक्त सांख्यदर्शन एवं सांख्यकारिकोक्त सांख्यदर्शन का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत करना। | ||||||
साहित्यावलोकन | शोधपत्र की विषयवस्तु को स्पष्ट रूप से समझने, प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करने तथा अध्ययन के उद्देश्यों को अधिगत करने हेतु विविध ग्रन्थों का अध्ययन किया गया। श्रीमद्भागवतमहापुराण के अतिरिक्त अध्ययन हेतु श्री अमरसिंह रचित अमरकोष, श्रीमदीश्वरकृष्ण विरचित सांख्यकारिका, सांख्यसूत्र, डाक्टर बृजमोहन चतुर्वेदी द्वारा अनूदित व सम्पादित सांख्यकारिका तथा गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्रीविष्णुपुराण का प्रमुखतया आश्रय लिया गया है। लेखक की जानकारी के अनुसार इस विषय पर विगत कुछ वर्षों में कोई नया साहित्य प्रकाशित नहीं हुआ है अतः नवीनतम साहित्यवलोकन उपलब्ध नहीं है। |
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मुख्य पाठ | हमारी ज्ञान
परम्परा का मूल स्रोत वेद माना जाता है। “सर्वं वेदात् प्रसिध्यति”कह
कर यह बतलाया गया है कि वेद से समग्र ज्ञान सिद्ध और उद्भूत होता है। वैदिक ज्ञान
ही पुराणों में पल्लवित हुआ दिखाई देता है। सृष्टि,प्रलय,वंश,मन्वन्तर तथा
वंशानुचरित पुराणों का मुख्य विषय रहा है।[1] इसी क्रम में दर्शन सम्बन्धी तथ्य भी उद्घाटित
हुए हैं। यद्यपि पुराणों में इतिहास सामग्री के संकलन के साथ धर्म तथा दर्शन के
सिद्धान्तों के समन्वयन,तीर्थों के माहात्म्य
के वर्णन तथा सांस्कृतिक परम्पराओं के महत्त्व के कथन होने से उनका स्वरूप
मुख्यतः धार्मिक हो गया फिर भी यत्र-तत्र जिज्ञासापरक प्रश्नों के उत्तर देने में
तथा प्रसंगवश प्राप्त स्तुतियों में दर्शन के सिद्धान्त भी प्रस्फुटतया दृग्गोचर
होते हैं। अठारह पुराणों
में “श्रीमद्भागवतमहापुराण” अन्यतम तथा भक्तसमाज में व्यापक रूप से श्रुत व
पठित है। “विद्यावतांभागवतेपरीक्षा”उक्ति से भी स्पष्ट है कि वह विद्याओं
की परमनिधि है। श्रीमद्भागवतमहापुराण का अध्ययन करने पर सांख्य-सम्बन्धी
तथ्य प्रचुरता से उपलब्ध हो जाते हैं। प्रस्तुत आलेख में इसे स्पष्ट करने का
प्रयास किया गया है। सांख्यदर्शन के
प्रणेता—भारतीय दर्शनों में सांख्यदर्शन का स्थान विशेष महत्त्वपूर्ण है। इसके
प्रणेता कर्दम प्रजापति तथा देवहूति की सन्तान महर्षि कपिल
हैं। श्रीमद्भागवतमहापुराण के अनुसार स्वयं विष्णु ने कपिल के रूप में
अवतीर्ण होकर सांख्यशास्त्र की रचना की।[2] माता देवहूति द्वारा मोक्ष की जिज्ञासा
किये जाने पर कपिल मुनि सांख्य के तत्त्वों का वर्णन करते हैं,जिनके
स्वरूपतः ज्ञान से मनुष्य प्रकृति के गुणों से मुक्त हो जाता है।[3] सांख्य तत्त्व-मीमांसाऔरज्ञान- मीमांसा—सांख्यदर्शन पर उपलब्ध प्रामाणिक
प्राचीन ग्रन्थ ईश्वरकृष्ण विरचित सांख्यकारिका है। जिसके आरम्भ में
कहा गया है कि दुःखत्रय (आध्यात्मिक,आधिदैविक तथा आधिभौतिक) के अभिघात से पीडि़त
व्यक्ति की दुःखत्रय के अपघातक हेतु के विषय में जानने की इच्छा उत्पन्न होती है।[4] श्रीमद्भागवतमहापुराण में भी माता देवहूति दुष्ट
इन्द्रियों की विषय-लालसा से ऊबकर घोर अज्ञानान्धकार से निकलने तथा जन्म-परम्परा
को विराम देने के लिए कपिल मुनि की शरण में आती है।[5] सांख्यकारिका के अनुसार “व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्”अर्थात्
व्यक्त,अव्यक्त तथा ज्ञ के विशिष्ट ज्ञान से कैवल्य की प्राप्ति होती है। यही बात
कपिल मुनि माता देवहूति से कहते हैं कि अब मैं तुम्हें प्रकृति आदि सब तत्वों के
अलग-अलग लक्षण बतलाता हूँ;इन्हें जानकर मनुष्य प्रकृति के गुणों से मुक्त हो जाता
है।[6] आत्मदर्शन
रूप ज्ञान ही पुरुष के मोक्ष का कारण है और वही उसकी अहंकार रूप हृदय-ग्रन्थि का
छेदन करने वाला है।[7] भागवत के अनुसार
यह सारा जगत् जिससे व्याप्त होकर प्रकाशित होता है,वह आत्मा ही पुरुष है। वह अनादि,निर्गुण,प्रकृति
से परे,अन्तःकरण में स्फुरित होने वाला और स्वयं प्रकाश है। उस सर्वव्यापक पुरुष
ने अपने पास लीला और विलासपूर्वक आयी हुई अव्यक्त और त्रिगुणात्मिका माया को
स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया। प्रकृति अपने सत्वादि गुणों द्वारा सृष्टि करने लगी।
यह देखकर पुरुष ज्ञानाच्छादिका प्रकृति की आवरणशक्ति से मोहित हो,अपने स्वरूप को
भूलकर,अपने से भिन्न प्रकृति को ही अपना स्वरूप समझ,तद्गुणों द्वारा किये जाने
वाले कर्मों में स्वयं को कर्ता मानने लगता है। इस कर्तृत्वाभिमान से ही अकर्ता,स्वाधीन,साक्षी
और आनन्द स्वरूप पुरुष को जन्म-मृत्यु रूप बन्धन एवं परतन्त्रता की प्राप्ति होती
है।[8] जो त्रिगुणात्मक,अव्यक्त,नित्य
और कार्यकारणरूप है तथा स्वयं निर्विशेष होकर भी सम्पूर्ण विशेष धर्मों का आश्रय
है,उस प्रधान नामक तत्त्व को ही प्रकृति कहते हैं। सांख्यसूत्र के अनुसार
तीनों गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति है।[9] जिसे भागवतमें त्रिगुणात्मिका कहा गया है। भागवत के अनुसार पंच महाभूत,पंच तन्मात्रा,चार
अन्तःकरण और दस इन्द्रिय-इन 24 तत्त्वों के समूह को विद्वान् लोग प्रकृति का कार्य
मानते हैं।[10] मन, बुद्धि, चित्त
एवं अहंकार इन चार के रूप में एक ही अन्तःकरण अपनी संकल्प, निश्चय, चिन्ता और
अभिमानरूपा चार प्रकार की वृत्तियों से लक्षित होता है। विचार करने पर
यहाँ आपाततः 26 तत्त्व प्रतीत हो रहे हैं। जबकि सांख्य में पच्चीस तत्त्व ही
प्रसिद्ध हैं। सांख्यकारिका के अनुसार प्रकृति से महत् अर्थात् बुद्धि, महत् से
अहंकार, अहंकार के वैकृत (सात्त्विक) भेद से मन सहित एकादश इन्द्रियाँ, अहंकार के
भूतादि (तामसिक) भेद से पंचतन्मात्राएँ तथा पंचतन्मात्राओं से पंच महाभूतों की
सृष्टि होती है।[11] भागवतोक्त
चित्त का मन में अन्तर्भाव करने पर 25 तत्व ही होते हैं। सृष्टि की प्रक्रिया के अन्तर्गत भागवत कहता
है कि जिनकी प्रेरणा से गुणों की साम्यावस्था रूप निर्विशेष प्रकृति में गति
उत्पन्न होती है,वे पुरुषरूप भगवान् ही 25वें तत्त्व हैं। यहाँ यह विशेष है कि
सांख्यदर्शन निरीश्वर है,जबकि श्रीमद्भागवतपुराण,विष्णुपुराण,महाभारत आदि
में प्रकृति और पुरुष का नियन्ता ईश्वर बताया गया है, जिसकी आराधना या
उपासना करने से जीव का कल्याण होता है। इसे ही आधुनिक विद्वान् ‘एपिकसांख्य’ की
संज्ञा देते हैं। एपिकसांख्य की एक विशेषता यह है कि उसे सेश्वरसांख्य
भी कहा जाता है।[12]
जब परम पुरुष परमात्मा ने जीवों के अदृष्टवश क्षोभ को प्राप्त हुई सम्पूर्ण जीवों
की उत्पत्तिस्थान रूपा अपनी माया में चिच्छ्वसित रूप वीर्य स्थापित किया, तो उससे
तेजोमय महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ। सत्त्वगुणमय, स्वच्छ, शान्त और भगवान् की उपलब्धि का
स्थान रूप चित्त ही महत्व है। उस महत् के विकृत होने पर उससे
क्रियाशक्ति प्रधान अहंकार से मन तथा इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता हुए। तैजस
से उभयविध इन्द्रियाँ तथा तामस से सूक्ष्म भूतों का कारण शब्द तन्मात्र
हुआ। शब्द तन्मात्र से आकाश, आकाश से स्पर्शतन्मात्र, उससे वायु, वायु
ने आकाश सहित विकृत होकर रूप तन्मात्र की रचना की। उससे संसार का
प्रकाशक तेज हुआ। वायुयुक्त तेज से युक्त जल,जल से गन्धगुणमयी पृथ्वी
उत्पन्न हुए हैं, उनमें क्रमशः अपने पूर्व-पूर्व भूतों के गुण भी अनुगत समज्ञने
चाहिए।[13] सांख्यकारिका
से तुलना करने पर स्पष्ट है कि वहाँ वैकारिक से एकादश इन्द्रियाँ तथा तामस से
पंचतन्मात्राओं की उत्पत्ति प्रदर्शित करके तैजस को प्रवर्तक बताया गया है। पुनः
तन्मात्राओं से क्रमशः पंचभूतों की उत्पत्ति दिखलाई है।[14] श्रीमद्भागवतमहापुराण के तृतीयस्कन्ध के ही दसवें
अध्याय में दस प्रकार की कही गई सृष्टि इस प्रकार है। प्रथम सृष्टि महत्तत्त्व की
है। भगवान् की प्रेरणा से सत्त्वादि गुणों में विषमता होना ही इसका स्वरूप है।
दूसरी सृष्टि अहंकार की है,जिसमें भूतों एवं इन्द्रियों को उत्पन्न करने वाला
तन्मात्र वर्ग रहता है। चैथी सृष्टि इन्द्रियों की है,यह ज्ञान और क्रियाशक्ति से
उत्पन्न होती है। पाँचवीं सृष्टि
सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न हुए इन्द्रियाधिष्ठाता देवताओं की है,मन भी इसी
सृष्टि के अन्तर्गत है। छठी सृष्टि अविद्या की है। इसमें तामिस्र,अन्धतामिस्र,तम,मोह
और महामोह—ये पांच गांठें हैं। ये जीवों की बुद्धि का आवरण और विक्षेप करने वाली
हैं।[15] सांख्यकारिका में इसका संकेत प्रत्ययसर्ग
के अन्तर्गत आने वाले विपर्यय के पंचभेदों में किया गया है।[16] उक्त
छः प्राकृत सृष्टियाँ हैं। सातवीं प्रधान वैकृत सृष्टि छः प्रकार के स्थावर
वृक्षों की है। आठवीं सृष्टि 28 प्रकार की तिर्यग् योनियों की है। नवीं सृष्टि
मनुष्यों की है। दसवीं सृष्टि अष्टविध देवसृष्टि है। अन्तिम चार सृष्टियाँ वैकृत
कहलाती हैं। तृतीय स्कन्ध के
26वें अध्याय में सृष्टि-प्रक्रिया बताते हुए 25 तत्त्वों को स्वरूपतः स्पष्ट किया
गया है। 27वें अध्याय में प्रकृति-पुरुष के विवेक ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति का
विस्तृत वर्णन भी द्रष्टव्य है। भागवत के एकादश स्कन्ध के ग्यारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण
और उद्धव के वार्तालाप में बद्ध,मुक्त व जीवनमुक्त पुरुष के लक्षण बताये
गये हैं। सांख्यकारिका में इसे संक्षेप में परिष्कृत स्वरूप में स्पष्ट
किया गया।[17] एकादश स्कन्ध का
24वाँ अध्याय ‘सांख्ययोग’ के नाम से जाना जाता है। उद्धव के समक्ष
भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा किया गया है। अध्याय के अन्त में सृष्टि के लीन
होने की प्रक्रिया बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्राणियों के शरीर अन्न में,अन्न
बीज में,बीज भूमि में और भूमि गन्धतन्मात्र में लीन हो जाती है। गन्ध जल में,जल
अपने गुण रस में,रस तेज में और तेज रूप में लीन हो जाता है। रूप वायु में,वायु
स्पर्श में,स्पर्श आकाश में तथा आकाश शब्द तन्मात्रा में लीन हो जाता है।
इन्द्रियाँ अपने कारण देवताओं में और अन्ततः राजस् अहंकार में समा जाती है। राजस्
अहंकार अपने नियन्ता सात्त्विक अहंकार रूप में,शब्द तन्मात्रा पंचभूतों के कारण
रूप तामस अहंकार में और सारे जगत् को मोहित करने में समर्थ त्रिविध अहंकार
महत्तत्त्व में लीन हो जाता है। ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति प्रधान महत्तत्त्व अपने
कारण गुणों में लीन हो जाता है। गुण अव्यक्त प्रकृति में और प्रकृति अपने प्रेरक
अविनाशी काल में लीन हो जाती है। काल मायामय जीव में और जीव मुझ अजन्मा आत्मा में
लीन हो जाता है। आत्मा किसी में लीन नहीं होता,वह उपाधिरहित अपने स्वरूप में ही
स्थित रहता है। जो इस प्रकार विवेक दृष्टि से देखता है,उसके चित्त में यह प्रपंच
का भ्रम हो ही नहीं सकता,यदि कदाचित् उसकी स्फूर्ति हो भी जाय,तो वह अधिक काल तक
हृदय में ठहर कैसे सकता है?क्या सूर्योदय होने पर भी आकाश में अन्धकार ठहर सकता है?सृष्टि
से प्रलय तथा प्रलय से सृष्टि तक की इस सांख्यविधि के ज्ञान से सन्देह की गाँठ कट
जाती है और पुरुष अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है।[18] सांख्य में प्रकृति त्रिगुणात्मिका बताई गई
है। वे तीन गुण हैं—सत्त्व,रज तथा तम। श्रीमद्भागवतमहापुराण के एकादश
स्कन्ध के 23वें अध्याय में तीनों गुणों की वृत्तियों का निरूपण सरल तथा सविस्तार
रूप में किया गया उपलब्ध होता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में
अलग-अलग गुणों का प्रकाश होता है। उनके कारण प्राणियों के स्वभाव में भी भेद हो
जाता है। शम, प्रयत्न, घमंड, तृष्णा, अकड़, तप, सत्य, दया, स्मृति, संतोष, त्याग, विषयानिच्छा,
श्रद्धा, लज्जा, आत्मरति, दान, विनय, सरलता आदि सत्त्वगुण की वृत्तियाँ हैं। इच्छा,
प्रयत्न, घमंड, तृष्णा, अकड़, देवों से धनादियाचना, भेदबुद्धि, विषयभोग, यश के
प्रति रुचि, हास्य, पराक्रम, हठपूर्वक उद्योग आदि रजोगुण की वृत्तियाँ हैं। तमोगुण
की वृत्तियाँ हैं— क्रोध, लोभ, मिथ्याभाषण, हिंसा, याचना, पाखण्ड, कलह, श्रम, शोक,
मोह, विषाद, दीनता, निद्रा, आशा, भय, अकर्मण्यता आदि। सत्त्वगुण प्रकाशक,निर्मल और शान्त है। जिस समय
वह रजोगुण और तमोगुण को दबाकर बढ़ता है,उस समय व्यक्ति सुख,धर्म और ज्ञान का पात्र
हो जाता है। रजोगुण का स्वभाव है—आसक्ति और प्रवृत्ति। शेष दोनों को दबाकर
जब यह बढ़ता है,तब मनुष्य दुःख,कर्म,यश और श्री सम्पन्न होता है। तमोगुण का स्वरूप है अज्ञान। उसका स्वभाव है
आलस्य और बुद्धि की मूढ़ता। जब तमोगुण शेष दो को दबाकर बढ़ता है,तब प्राणी शोक-मोह
में पड़ता है,हिंसक होता है या निद्रा-आलस्य के वशीभूत होकर पड़ा रहता है। जब चित्त
प्रसन्न हो,इन्द्रियाँ शान्त हों,शरीर निर्भय हो, मन अनासक्त हो, तब सत्त्वगुण की
वृद्धि समझनी चाहिये। जब बुद्धि चँचल, ज्ञानेन्द्रियाँ असन्तुष्ट, कर्मेन्द्रियाँ
विकारयुक्त, मन भ्रान्त और शरीर अस्वस्थ हो जाय, तब समझना चाहिये कि रजोगुण जोर पकड़
रहा है। जब चित्त ज्ञानेन्द्रियों द्वारा शब्दादि-विषयों को ठीक-ठीक समझने में
असमर्थ हो, खिन्न हो, मन शून्य-सा हो तथा अज्ञान और विषाद की वृद्धि हो, तब समझना
चाहिये कि तमोगुण वृद्धि पर है। इन सभी को सांख्यकारिका में सूत्ररूप में गुम्फित
हुआ समझा जा सकता है।[19] भागवत में यह भी
स्पष्ट किया गया है, इन्हीं गुणों द्वारा जीव शरीर, धनादि में आसक्त होकर बन्धन में
पड़ जाता है। जो जीव इन पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह मेरे वास्तविक स्वरूप को
प्राप्त कर लेता है। |
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निष्कर्ष | निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि श्रीमद्भागवतमहापुराण में सांख्यशास्त्र की तत्त्वमीमांसा तथा ज्ञानमीमांसा अनेक स्थानों पर दृग्गोचर होती हैं। हाँ,सांख्योक्त प्रमाणमीमांसा स्फुटरूप में दृष्टिगोचर नहीं होती है,वैसे भी पुराण केवल दर्शन विशेष के प्रत्येक तत्त्व की मीमांसा क्यों करने लगे,क्योंकि उनका उद्देश्य ज्ञान को सरस,सरल व रोचक रूप में प्रस्तुत करना होता है। इसी प्रसंग में यह बताना भी उचित लगता है कि श्रीविष्णुपुराणमें भी सांख्योक्त तत्त्वों के विचार के साथ जगत् का उत्पत्तिक्रम[20],अविद्यादि विविध सर्गों का उल्लेख[21],प्राकृत प्रलय[22]तथा त्रिविध तापों[23] का सुन्दर वर्णन उपलब्ध होता है। | ||||||
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. अमरकोष, लेखक - श्री अमरसिंह, संपादक - पं. हरगोविंदशास्त्री, संस्करण - वि.सं. - 2068, प्रकाशक - चौखम्बासंस्कृतसंस्थान,
उत्तरप्रदेश, काण्ड -1, वर्ग - 6, श्लोक - 5, पृ.सं. - 84 तथा श्रीमद्भागवतमहापुराण - लेखक श्री वेदव्यास, संपादक -
श्रीहनुमानप्रसाद पोद्दार, संस्करण - वि. सं.- 2077, प्रकाशक - गीताप्रेस गोरखपुर, स्कन्ध - 2, अध्याय -10, श्लोक -1, पृ.
सं.-228
2. श्रीमद्भागवतमहापुराण - स्कन्ध 1, अध्याय 3, श्लोक 10 पृ. सं. - 89 तथा स्कन्ध 3, अध्याय 21, श्लोक 32 पृ.सं.- 338
3. श्रीमद्भागवतमहापुराण - 3.26.1, पृ. सं. - 362
4. सांख्यकारिका, लेखक - श्रीमदीश्वरकृष्ण, संपादक - डा.बृजमोहन चतुर्वेदी, प्रथम संस्करण 1969 ईस्वी, नेशनल पब्लिशिंग
हाउस, दिल्ली - 6, कारिका - 01, पृ. सं. - 01
5. श्रीमद्भागवतमहापुराण - 3.25.7 -11, पृ. सं.- 357
6. श्रीमद्भागवतमहापुराण - 3.26.1, पृ. सं. - 362
7. श्रीमद्भागवतमहापुराण - 3.26.2, पृ. सं. - 362
8. श्रीमद्भागवतमहापुराण - 3.26.3-7, पृ. सं.- 362
9. श्रीमद्भागवतमहापुराण - 3.26.10, पृ. सं. - 363 तथा सांख्यसूत्र, संपादक - श्रीराम शर्मा आचार्य, संस्करण 1967, प्रकाशक -
संस्कृति संस्थान बरेली, उत्तरप्रदेश, अ.-1, सू.- 61, पृ. सं.- 60
10. श्रीमद्भागवतमहापुराण - 3.26.11, पृ. सं.- 363
11. सांख्यकारिका - कारिका -22, 24, 25, पृ.सं.- 96,103,105
12. साख्यकारिका - भूमिका - पृ. सं.- 61
13. श्रीमद्भागवतमहापुराण - 3.5.26 - 36, पृ. सं.- 256 - 257
14. सांख्यकारिका - 22 पृ. सं.- 96
15. श्रीमद्भागवतमहापुराण - 3.10.13-17, पृ. सं.- 279- 280
16. सांख्यकारिका - कारिका 46-47, पृ.सं.-157,160
17. सांख्यकारिका - कारिका 62-68, पृ. सं.-195-207
18. श्रीमद्भागवतमहापुराण - 11.24.22-29, पृ. सं.- 866
19. श्रीमद्भागवतमहापुराण - 11.25.2-4 तथा 13-18, पृ. सं.- 867 तथा 868
20. श्रीविष्णुपुराण अनुवादक - श्री मुनिलाल गुप्त, संस्करण - वि.सं.-2053, सत्रहवां संस्करण, प्रकाशक - गोविंद भवन कार्यालय,
गीताप्रेस गोरखपुर, अंश -1, अध्याय -2, श्लो.-1-70, पृ. सं.- 3-8
21. श्रीविष्णुपुराण - 1.5.1-25, पृ. सं.-15-17
22. श्रीविष्णुपुराण - 6.4.1-50, पृ. सं.- 433-436
23. श्रीविष्णुपुराण - 6.5.1-8, पृ. सं.- 436-437 |