ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- V August  - 2022
Anthology The Research
सातवीं शताब्दीकालीन संस्कृत-साहित्य में सभा समवाय एवं समाज
Sabha Samvay and Society in Seventh-Century Sanskrit Literature
Paper Id :  16450   Submission Date :  07/08/2022   Acceptance Date :  20/08/2022   Publication Date :  25/08/2022
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रीनू पाल
शोध छात्रा
संस्कृत विभाग
मेरठ कॉलेज
मेरठ ,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात यहां की भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक स्थितियों को लेकर बड़े व्यापक रूप से अध्ययनकार्य किए गए हैं। इसी के साथ यहाँ की कला संस्कृति, सभ्यता, आचार-व्यवहार, भ्रष्टाचार और नीतिगत विचारों को लेकर पर्याप्त चिंतन किया गया है ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भी प्राचीन वैदिक साहित्य से लेकर वर्तमान साहित्य तक नाना प्रकार के अध्ययन एवं शोधकार्य संपन्न किए गए हैं किंतु विगत सहस्त्रों शताब्दी से भारत में निरंतर पठन-पाठन में रहने के पश्चात भी वर्तमान काल में आकर इन ग्रंथों की सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक रूप से बड़ी उपेक्षा की गई है आज शासन भारत के इतिहास के वार्षिक तत्व को तोड़-मरोड़कर जनता के समक्ष मिथ्या तथ्य प्रस्तुत कर भारतीय समृद्ध संस्कृति के साथ अन्याय किया जा रहा है वास्तविक संस्कृति को मिटाने का यह प्रयास घातक सिद्ध हो सकता है प्राचीन संस्कृति की महत्व उपलब्धियां और इनकी उपेक्षा उचित नहीं है हमारे पास ऋषियों, मुनियों, दार्शनिको, चिंतकों, चिकित्सकों और वैज्ञानिकों की बड़ी व्यापक धनराशि उपलब्ध है उसे प्रकाश में लाना वास्तविक तथ्यों से अवगत कराना और उसे उचित रूप में हृदयंगम कराना आधुनिक संस्कृतज्ञों और शोधकर्ताओं का प्रमुख कर्तव्य हैं। इसी को दृष्टि में रखकर यहाँ सातवीं शताब्दीकालीन संस्कृति साहित्य में भारत की वस्तुस्थिति को शोधकार्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जा रहा है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद After attaining independence in India Extensive studies have been done on the geographical, historical, social, political, economic, religious, philosophical and scientific positions. here with adequate thought was done about the art culture, civilization, ethics, corruption and policy ideas of From the historical and cultural point of view, from the ancient Vedic literature to the present literature, there are various types of the studies and research work of the Even after living in the present period, culturally and historically, these texts were neglected.
Today the government is presenting false facts before the public by distorting the annual element of the history of India.
Injustice is being done to Indian rich culture, this attempt to erase the real culture is fatal. It can be proved that the importance of ancient culture, achievements and neglect of them is not justified, we have sages, a huge wealth of sages, philosophers, thinkers, doctors and scientists are available in the light of that.
To make aware of the real facts and to make them heart-wrenching in a proper way. The main duties of researchers are Keeping this in view, here in the culture literature of the seventh century. The situation of India is being presented through research work.
मुख्य शब्द भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Extensive studies have been done on geographical, historical, social, political, economic, religious, philosophical and scientific situations.
प्रस्तावना
सातवीं शती में सभा, समवाय एवं समाज के सम्बन्ध में विवेचन करने से पूर्व इनके वैदिक काल से इस शती तक के अर्थों एवं स्वरूप पर विचार करना आवश्यक है। ‘वामनशिवराम आप्टे’ ने ‘सभा’ शब्द पर विचार करते हुए लिखा है-सह भान्ति अभीष्टनिश्चयार्थमेकत्रयत्रग्रहे। 1. जलसा, परिषद, गुप्तसभा-पण्डित सभा कारितवान्-?, न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः-हि0 2. समिति, समाज, सम्मिलन, बड़ी संख्या, 3. परिषद्-कक्ष या सभा भवन, 4. न्यायालय, 5. सार्वजनिक जलसा, 6. जुआखाना, 7. कोई भी स्थान जहाँ लोग प्रायः आते रहते हों।[1]
अध्ययन का उद्देश्य लाखों करोड़ों वर्षों से भारतीय विद्वान ज्ञान-विज्ञान और साहित्य की साधना करते रहे हैं और अपने अनुभव के उज्जवल आदर्श प्रस्तुत करते रहे हैं, यही हमारा सांस्कृतिक दायभाग है जिसे सहेजकर रखना हमारा पवित्र कर्तव्य है। भारतीय संस्कृति बड़ी उर्जास्वती, स्फूर्तिमती और प्रणामयी रही है, इसका वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत करना इस शोधकार्य का उद्देश्य है।
साहित्यावलोकन

इस प्रकार यहाँ समस्त शोध विषय ग्रंथ सामग्री को आधार बनाते हुए शोधकार्य को तथ्यपरक सटीक एवं प्रमाणिक बनाने का प्रयास किया गया है। साथ ही सातवीं शताब्दीकालीन भारत की वस्तुस्थिति को यहाँ विशदता एवं सूक्ष्मता के साथ विवेचित करने का प्रयास किया गया है।

मुख्य पाठ

इस प्रकार यहाँ यह शब्द कई व्यापक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। सर्वप्रथम ऋग्वेदमें किसी अच्छे विषय पर शुभवाणी और सत्य को स्वीकारने के लिए विद्वानों के समूह को सभाकहा गया है भद्रं ग्रहं कृणुथ भद्रवाचो बृद्धोवय उच्यते सभासुअर्थात् कल्याण करने वाले शुद्ध वायु, जल और वृक्ष वाले ग्रह को करिये और आप्त विद्वानों से प्रकाशमान सभाओं में कल्याणकारी-सत्य भाषण से युक्त वाणियाँ स्वीकार कीजिए और जो आप लोगों का बड़ा जीवन कहा जाता है, उसे करिये।[2]
इस प्रकार यहाँ यह निर्देश दिया गया है कि परस्पर मिलकर विद्वान् मनुष्य जल, वायु और वृक्ष से युक्त एक सुन्दर, सभाभवन बनावें और उसमें बैठकर किसी विषय पर कल्याणकारी-सत्यभाषण से युक्त वाणियाँ स्वीकार करें। ऋग्वेद में ही अन्यत्र कहा गया है कि कर्मयोगी को प्रसन्न रखकर उससे जो मित्रता करते हैं वे अश्व, रथ, गौ आदि पशु और अन्नादि धनों से युक्त होकर सदा आनन्द पाते हैं, वे प्रतिष्ठित हुए सभा-समाज में मान पाते हैं।[3]ऋग्वेदमें ही अन्यत्र किसी विशेष प्रकार के समाज या समूह को भी सभाकहा गया है। जुआरी आवेश के वशीभूत होकर पुनः जुआरी-मण्डली में जीतने की आशा को संजोकर जाता है, उसकी भावना यह रहती है कि जुए के ये पाँसे ही मुझे प्रतिपक्षी पर विजय प्रदान करायेंगे।[4] इस प्रकार यहाँ जुआरियों की मण्डली को सभा कहा गया है। तत्पश्चात् मनुने न्याय सभाके लिए इसका लक्षण दिया है कि जिस देश में वेदों के जानने वाले तीन ब्राह्मण राजद्वार में रहते हैं और राजा के द्वारा अधिकार प्राप्त हुआ एक विद्वान ब्राह्मण रहता है, उसको ब्रह्म ही सभा अर्थात् न्याय सभाकहा गया है।[5]
सभा का ही पर्याय परिषद है। इसकी परिभाषा देते हुए कहा गया है कि तीन वेदों के विद्वान, चौथा हेतुक अर्थात् कारण-अकारण का ज्ञाता, पाँचवाँ तर्की अर्थात् न्यायशास्त्रवित, छठा निरुक्त शास्त्र का जानने वाला, सातवाँ धर्मपाठक अर्थात् धर्मशास्त्रवित्, आठवाँ ब्रह्मचारी, नववाँ गृहस्थ और दसवाँ वानप्रस्थ, इन दस की परिषद् होती है।[6]
कात्यायन ने सभाका लक्षण देते हुए कहा है कि कुल, शील, वय वृत तथा वित्तयुक्त सभ्यों, कुलवृद्ध एवं कुछ वणिग्जनों से अधिष्ठित स्थान को सभाकहते हैं।[7]
इस प्रकार सभाद्वारा न्याय प्रदान करने एवं प्रजापालन करने का उत्तरदायित्व होता था। अथर्ववेदमें सभा से मिलते-जुलते अर्थ वाली समितिका भी वर्णन हुआ है, जहाँ कहा गया है कि प्रजापति सम्राट की दो दुहिताओं के सदृश उनकी अभिलाषाओं को पूरा करने वाली, एकमत हुई सभा और समिति मेरी रक्षा करे। जिस सभ्य या समिति के सदस्य का संग करूँ, वह मेरे पास आकर मुझे शिक्षित करे, निज सम्पत्ति प्रदान करे, हे पितरो! तुम लोगों के संगमों में मैं रुचिकर शब्द बोलूँ। हे सभा! तेरे नाम को हम जानते हैं, निश्चय से साम्राज्य के नर-नारियों द्वारा तू चाही हुई है, तेरे जो कोई भी सभासद हैं वे मुझे सभापति के लिए एकवाणी (एकमत) वाले हों।[8] अगले मन्त्र में सभा और सभापति के कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि इस सभा में इकट्ठे हुए सभासदों के तेज को और निश्चय को मैं सभापति स्वीकार करता हूँ, हे सम्राट मुझे इस सब संसद का भागी कर।[9] आगे सदस्यों के एकमत होने के लिए बल देते हुए कहा गया है कि हे सदस्यो! जो तुम्हारा समुदित मन विषय से परे गया हुआ है, जो विषय के साथ इधर-उधर बंधा है, तुम्हारे उस समुदित मन को मैं सभापति तथा मन्त्रीगण लौटाते हैं ताकि तुम्हारा मन मुझ सभापति द्वारा प्रस्तावित विषय में रमण करें।[10]
इस प्रकार स्पष्ट है कि सभा में एकमत होना आवश्यक है। सभा से मिलते-जुलते दो शब्द समवायसमाजभी प्रयुक्त होते हैं। किन्तु इन दोनों के अर्थ में कुछ भिन्नता विद्यमान है। संस्कृत हिन्दी कोश में समवाय की परिभाषा इस प्रकार लिखी गयी है - समवाय - (सम्+अव+इ+अच्) 1. सम्मिश्रण, मिलाप, संयोग, समष्टि संग्रह-सर्वाविनयानामैकैकमप्येषमायतनं किमुत समवायः - का0, बहुनामप्यसाराणं समवायो हि दुर्जयः - सुभा0, 2. समुच्चय राशि, 3. घनिष्ठ सम्बन्ध, संसक्ति, 4. (वैशे0 में) प्रगाढ़ मिलाप, अविच्छिन्न तथा अविच्छेद्य संयोग, अभेद्य संलग्नता या एक वस्तु का दूसरी में अस्तित्व (जैसे पदार्थ और गुण, अंगी और अंग) वैशेषिकों के सात पदार्थों में से एक।[11]
इस प्रकार यहाँ समवाय शब्द समितिऔर सभासे भिन्न अर्थ में प्रयुक्त है। समाजकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है। समाज - (सम+अज्+घ), 1. सभा, मिलन, मजलिस, विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम्- भर्तृ0 2.7 2 मण्डल, गोष्ठी, समिति या परिषद, 3. संख्या, समुच्चय, संग्रह, 4. दल, आमोद-प्रमोद विषयक मिलन, 5. हाथी।[12]
इस प्रकार प्रमुखता से समाजशब्द मनुष्यों के समाज के लिए प्रयुक्त हुआ है। यह बात तो निश्चित है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और किसी भी समाज की एक संस्कृति होती है। वैदिक काल से लेकर सातवीं शती और अभी तक कुछ न कुछ मान्यताओं, परम्पराओं, रीति-रिवाजों और सामाजिक व्यवस्थाओं से समाज जुड़ा रहा है। कुछ परम्पराओं में इतने दीर्घकाल के पश्चात् भी परिवर्तन नहीं हुआ है। सदाचार एवं शिष्टाचार सदैव प्रिय रहे हैं, झूठ एवं अनाचार अप्रिय रहे हैं। नैतिकता से समाज जुड़े एवं अनैतिकता से टूटे हैं। दशकुमारचरितमें समवायशब्द समाजके अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है, जहाँ कहा गया है कि वेश्या के चाहने वाले नायक के प्रिय मित्र, विट विदूषक और भिक्षुकी आदि के द्वारा नागरिकों के समवाय में अपनी कन्या के रूप, शील, कौशल, सौन्दर्य और माधुर्य का बखान करावे।[13] इसकी संस्कृत टीका में भी - नागरिकपुरुषसमवायेषु चतुरजनसमाजेषुकहकर समवायशब्द समाजअर्थ में ही स्पष्टतः प्रयुक्त किया गया है।[14] अन्यत्र इसी ग्रन्थ में सभाशब्द अपने प्रचलित अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है, यथा-एकदा हितैः सुहृन्मन्त्रिपुरोहितैः सभायां सिंहासनसीनो गुणैरहीनो ललाटतट न्यस्ताजलिना द्वारपालेन व्यज्ञापि।[15] इसी ग्रन्थ में सभाशब्द समाजके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जहाँ कहा गया है कि सर्वप्रथम मैं (वसुपालित) जुआरियों की मण्डली में घुसा और कुशल जुआरियों में घुल-मिल गया। अनुप्रविश्य च द्यूतसभामक्षधूतैः समगंसि।[16] अन्यत्र भी द्यूतसभाशब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।[17] एक अन्य स्थल पर समाजशब्द मानवसमूहअर्थ में प्रयुक्त है, जहाँ कहा गया है कि महादेव के मन्दिर में उत्सव समुदाय को ज्ञात करके शापरहित होकर कामपाल के पास जाने की इच्छा श्रावस्त्यामुत्सवसमाजमनुभूय।[18] अन्यत्र कन्यकासमाजेकहकर कन्याओं के समूहअर्थ को ग्रहण किया जाता है।[19] एक अन्य स्थान पर वण्ग्जिनसमाजशब्द वाणिक् समुदायअर्थ में प्रयुक्त हुआ है।[20]
बोधिचर्यावतारमें समुदायशब्द मानव समूहके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।[21]पदम्चरितमें सभाशब्द समुदायया मानवसमूहअर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जहाँ कहा गया है कि नर्तकी जिस-जिस स्थान में ठहरती थी, सारी सभा उसी-उसी स्थान में अपने नेत्र लगा देती थी।[22] सभा के लिए सदस्शब्द भी इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जहाँ कहा गया है कि सारी सदस् (सभा) के नेत्र उस नर्तकी के रूप से, कान मधुर स्वर से और मन, रूप तथा स्वर दोनों से दृढ़ता से बँध गये थे।[23] आगे भी कहा गया है कि वहाँ देव-सभा के समान सुशोभित सभा में नाना अलंकारों से भूषित यथायोग्य स्थापित विधाधारों और भूमिगोचरों की दोनों श्रेणियाँ सुशोभित हो रही थीं।[24]
इस प्रकार यहाँ सातवी शती के संस्कृत-ग्रन्थों में उपलब्ध सभा’, ‘समवाय’, ‘समाजके स्वरूप का विवेचन प्रस्तुत किया गया। ये शब्द जहाँ परम्परागत अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, वहाँ परस्पर एक-दूसरे के पर्याय के रूप में भी प्रयुक्त हुए हैं। बहुलता से जिस उद्देश्य से मानव-समूह एकत्र हुआ, वैसी ही सभा, समवाय अथवा समाज के नाम से पुकारा गया, यथा-नागरिकसमवाय, सुहृन्मन्त्रिपुरोहितसभा, द्यूतसभा, उत्सव समाज, कन्यकासमाज व वणिग्जनसमाज आदि। इस प्रकार यह विवेचन यहाँ प्रस्तुत कर इनके स्वरूप पर भली-भाँति विचार करने का प्रयास किया गया।

निष्कर्ष इस प्रकार यहाँ सातवीं शती के संस्कृत-ग्रन्थों में उपलब्ध ‘सभा’, ‘समवाय’, ‘समाज’ के स्वरूप का विवेचन प्रस्तुत किया गया। ये शब्द जहाँ परम्परागत अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, वहाँ परस्पर एक-दूसरे के पर्याय के रूप में भी प्रयुक्त हुए हैं। बहुलता से जिस उद्देश्य से मानव-समूह एकत्र हुआ, वैसी ही सभा, समवाय अथवा समाज के नाम से पुकारा गया, यथा-नागरिकसमवाय, सुहृन्मन्त्रिपुरोहितसभा, द्यूतसभा, उत्सव समाज, कन्यकासमाज व वणिग्जनसमाज आदि। इस प्रकार यह विवेचन यहाँ प्रस्तुत कर इनके स्वरूप पर भली-भाँति विचार करने का प्रयास किया गया।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. संस्कृत-हिन्दी कोश-वामन शिवराम आप्टे0 पृ0 1072 2. ऋग्वेद 6.286 3. अश्वीरथी सुरूप...... चन्द्रो याति सभामुप-ऋ0 8.4.9 4. सभामेति कितवः पृच्छमानो जेष्यामीति....... आकृतानि-ऋ0 10.34.6 5. यस्मिन् देशे निषीदन्ति विप्रा वेदविदस्त्रयः। राज्ञश्चाधिकृतो विद्वान ब्रह्मणस्तां सभां विदुः।। मनु0 8.11 6. त्रैविधो हैतुकस्तर्की नैरुक्तो धर्मपाठकः। त्रयश्चाश्रमिणः पूर्वे परिषत् स्याद्दशावरा।। मनु0 12.111 7. कुलशीलवयोवृत्तवित्तवदिभरमत्सरैः। वणिग्भिः स्यात् कतिपयैः कुलभूतैरधिष्ठितम्।। धर्मशास्त्र का इतिहास-द्वितीय भाग, पी0वी0 काणे, पृ0 721 8. सभा च मा समितिश्चावतां प्रजापतेर्दुहितरौ संविदाने। येना संगच्छा उप मा स शिक्षाच्चारु वदानि पितरः संगतेषु।। अथर्ववेद-7.12.1 विद्म ते सभे नाम नरिष्टा नाम वा असि। ये ते के च सभासदस्ते मे सन्तु सवाचसः।। - अथर्व0 7.12.2 9. एषामहं समासीनानां वर्चो विज्ञानमा ददे। अस्याः सर्वस्याः संसदो मानिन्द्र भगिनं कृणुः।। - अथर्व0 - 7.12.3 10. यद् वो मनः परागतं यद् बद्धमिह वेह वा। व आवर्त या मसि मयि वो रमतां मनः।। - अथर्व0 - 7.12.4 11. संस्कृत-हिन्दी-कोश-वामन शिवराम आप्टे- पृ0 1075 12. संस्कृत-हिन्दी-कोश-वामन शिवराम आप्टे- पृ0 1076 13. पीठमर्दविटविदूषकैर्भिक्षुक्यादिभिश्च नागरिकपुरुषसमवायेषु ..... प्रस्तावना-दश0 पृ0 134 14. नागरिकपुरुषसमवायेषु चतुरजनसमाजेषु-दश0 पृष्ठ - 134 15. दशकुमारचरितम् - पृ0 12 16. दश0 पृ0 154 17. द्यूतसभायामापणे च- दश0 पृ0 178 18. दश0 पृ0 - 301 19. दश0 पृ0 - 313 20. दश0 पृ0 - 372 21. बोधिचर्यावतार अनु0 शान्तिभिक्षुशास्त्री - 8.101 22. यत्र-तत्र समुद्देशे नर्तकी कुरुते स्थितिम्। तत्र-तत्र सभा सर्वा नयनानि प्रयच्छति।। पद्मचरित- 37.109 23. तस्या रूपेणचक्षूंषि स्वरेण श्रवणेन्द्रियम्। मनासि तद्द्वयेनापि बद्धानि सदसो दृढम्।। पदम्0 - 37.110 24. यथार्हं द्वे अपि श्रेण्यौ निविष्टे तत्र रेजतुः। सदसीव सुधर्मायां नानालङ्कारभूषिते।। पद्म0 - 110.8