ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- VI September  - 2022
Anthology The Research
आधुनिकता और भारतीय जीवन मूल्यबोध
Paper Id :  16479   Submission Date :  04/09/2022   Acceptance Date :  20/09/2022   Publication Date :  24/09/2022
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रीना रेवेना
शोध छात्रा
हिन्दी विभाग
विनोबा भावे विश्वविद्यालय
हजारीबाग,झारखंड, भारत
सारांश आधुनिक शब्द से परम्परा विच्छेद, रूढियों का त्याग तथा नई दृष्टि लेकर नई दिशाओं की ओर अग्रसर होने का भाव झलकता है| आधुनिक का भाव लेकर आधुनिकता का आविर्भाव हुआ| यह समय औद्योगीकरण, नगरीकरण, और बोद्धिकता से सम्बद्ध है, जिससे नवीन आशाएं उभरी और वर्तमान तथा भविष्य को नवीन संदर्भों में देखा जाने लगा| देश, धर्म, मनुष्य, समाज, साहित्य तथा ईश्वर आदि की नई-नई व्याख्याएँ की जाने लगी| जीवन तथा उससे सम्बद्ध अनेक क्षेत्रों में अत्याधिक तीव्रता से परिवर्तन हुए, अनुभूति और अभिव्यक्ति का ढंग बदल गया| ज्ञान विज्ञान तथा तकनीकों का विकास भी तेजी से हुआ| इसका दुष्प्रभाव आगे चलकर यह हुआ कि व्यक्ति व्यवस्था में ख़ो गया| मानव जीवन में मोहभंग ने साहित्यकारों को निरर्थकता बोध से भर दिया| तीव्र शहरीकरण हुआ, लोग शहर से गाँव आकर बसे, उन्हें रोजगार तो मिला किन्तु अकेलेपन और अलगाव जैसी समस्याओं ने उन्हें सम्बन्धहीन, एकाकी व निरर्थक जीवन जीने पर मजबूर कर दिया| तेजी से मध्यवर्ग का विकास हुआ जो सामाजिक दायित्व के स्थान पर अपने व्यक्तिगत हितों व सपनों को लेकर ज्यादा चिंतित रहने लगा| नारियाँ शिक्षित, आत्मनिर्भर और स्वतंत्र हुई जिसके कारण स्त्री-पुरूष संबंध में बुनियादी परिवर्तन आने लगा, पारिवारिक ढांचा टूटने लगा और यौन नैतिकता को खारिज किया जाने लगा| पारिवारिक संबंध भी उपयोगितावादी नजरिये से देखे जाने लगे| भारतीय समाज अपनी जडों से विच्छिन्न होकर पश्चिम की आधुनिकता से प्रभावित हुआ और यहीं कारण है कि ये समस्याएं व्यक्ति के भीतर उत्पन्न हुई|
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The word modern shows the sense of breaking tradition, renunciation of conventions and moving towards new directions with a new vision. Modernity emerged with the idea of modern. This time is associated with industrialization, urbanization, and intellectualism, from which new hopes emerged and the present and the future were seen in new contexts. New interpretations of country, religion, man, society, literature and God etc. started being made. Changes took place very rapidly in life and many areas related to it, the way of feeling and expression changed. The development of knowledge, science and techniques also happened rapidly. Its side effect later became that the person got lost in the system. Disillusionment in human life filled the writers with a sense of futility. There was rapid urbanization, people settled in villages from cities, they got employment, but problems like loneliness and isolation forced them to live a relationshipless, lonely and meaningless life. There was a rapid development of the middle class, which was more concerned about its personal interests and dreams instead of social responsibility. Women became educated, self-reliant and independent, due to which a fundamental change began to take place in the relationship between men and women, the family structure began to break down, and sexual morality was rejected. Family relations were also seen from a utilitarian perspective. The Indian society got disconnected from its roots and got influenced by the modernity of the West and this is the reason why these problems arise within the person.
मुख्य शब्द परम्परा, आधुनिकता, अलगाव, अवसाद, संस्कृति, व्यक्ति, संवेदना, विडम्बना|
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Tradition, Modernity, Alienation, Depression, Culture, Person, Sensation, Irony.
प्रस्तावना
आधुनिकता समय के साथ चलने वाली एक गतिशील प्रक्रिया है| इस प्रक्रिया के तहत नित्य पुराने मूल्य टूटते हैं और नए मूल्य बनते हैं|आधुनिकता जिसको कहीं से भी काटकर नितांत एकल और ठोस रूप में यह नहीं बतलाया जा सकता है कि यही आधुनिकता है| आधुनिकता की व्याख्या इस रूप में की जा सकती है कि एक ओर इसकी जडें परम्परा में होती है तो दूसरी ओर भविष्य के प्रति भी दृष्टि होती है| लेकिन अतीत का अंधानुकरण आधुनिकता की प्रकृति के विपरीत है इसलिए अतीत के प्रति आलोचनात्मक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधुनिकता में अनिवार्य रूप से निहित होता है, लेकिन इसकी मूल प्रकृति विकासमूलक होती है| आधुनिकता वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह मानता है कि मानव सभ्यता निरंतर विकास का परिणाम है| लेकिन यह विकास परम्परा से कटा जड़विहीन नहीं होता|परम्परा में कुछ चीजें अच्छी होती है और उनका विकास आधुनिकता में होता है|
अध्ययन का उद्देश्य औद्योगीकरण के दौर में उत्पन्न यांत्रिक सभ्यता तथा वैश्विक स्तर पर मानवता को नष्ट करने वाली युद्धोन्मादी प्रवृत्ति, विनाशकारी हथियारों की होड़ ने मनुष्य जीवन को जिस प्रकार संशयग्रस्त बनाया उससे जो अवसाद, संत्रास, अकेलापन, अजनवीयत तथा जीवन के प्रति क्षण बोध पैदा हुआ उससे एक विशिष्ट किस्म का आधुनिकता बोध उत्पन्न हुआ जिसको हम कतई सकारात्मक नहीं कह सकते|
साहित्यावलोकन
आधुनिक भावबोध एक अर्थ में समसामयिकता से अपनाया गया यथार्थ बोध है| इसने प्राचीन रूढि परम्परा एवं प्राचीनता के अंध मोह से मुक्त होकर वर्तमान मूल्यों, उपलब्धियों, आस्थाओं, तथा आकांक्षाओं पर नया प्रश्न चिन्ह लगाया| वर्तमान विसंगत स्थिति ही इस आधुनिकता बोध का मूल आधार है| उन्नीसवीं शताब्दी की इस संक्रांति- पूर्ण परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य में ज्ञान- विज्ञान तथा टेक्नोलॉजी के विकास अनेक प्रकार के ऐसे सत्यों को जन्म दिया, जिनके परिणामस्वरूप जीवन एवं जगत के प्रति एक नया दृष्टिकोण अपनाया गया| इस संक्रांत स्थिति में मनुष्य जीवन की चेतना अत्यंत जटिल होने के साथ साथ सर्वथा उलझी हुई रूखी एवं निस्तेज- सी हो गई| आधुनिक मानव तनाव, कुंठा और संत्रास में डूबने लगा| वह विश्वास और अविश्वास के बीचों बीच डावाडोल होने लगा| आदर्श एवं परंपरागत मूल्यों का इस आधुनिक मानव के जीवन में कोई महत्व नहीं रहा| एक प्रकार की अनिश्चितता ने उसके जीवन को ग्रस लिया था| इसलिए वह अपने आप को अकेला एवं अजनबी महसूस करने लगा|
मुख्य पाठ

समय या परिस्थिति के अनुरूप अपने आप को परिवर्तित करते हुए विकास की दिशा में अग्रसर होना ही आधुनिकता है। आधुनिकता का संबंध काल से न होकर जीवन की समस्याओं के प्रति नई दृष्टि से है। गति जीवन का धर्म है तो प्रगति आधुनिकता की आत्मा है। समय के प्रवाह से अपजी आधुनिकता का प्रसार मध्यकाल और आधुनिक काल के छोरों में दिखाई देता है। साहित्य के क्षेत्र में आधुनिक शब्द दो अर्थों को सूचित करता है - एक है मध्यकाल से भिन्नता और दूसरा है इहलौकिक दृष्टिकोण। मध्यकाल जहाँ ईष्वर के प्रति प्रचंड आस्था एवं विष्वास के साथ इहलोक के स्थान पर परलोक, नियतिवाद एवं कर्मफल पर बल देती है, वहाँ आधुनिकता मनुष्य और उसके जीवन को केन्द्र में रखकर सोचने और आगे बढ़ने का आहवन करती है।

आधुनिकता की व्याख्या इस रूप में की जा सकती है कि एक ओर इसकी जड़े परम्परा में होती है तो दूसरी ओर भविश्य के प्रति भी दृष्टि होती है। लेकिन अतीत का अँधानुकरण आधुनिकता की प्रकृति के विपरीत है इसलिए अतीत के प्रति आलोचनात्मक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधुनिकता में अनिवार्य रूप से निहित होता है, लेकिन इसकी मूल प्रकृति विकासमूलक होती है। आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह मानता है कि मानव सभ्यता निरंतर विकास का परिणाम है। लेकिन यह विकास परंपरा से कटा, जड़विहीन नहीं होता। परंपरा में कुछ चीजें अच्छी होती है और उनका विकास आधुनिकता में होता है। परंपरा पर रामविलास शर्मा ने विस्तार से विचार किया है। उन्होंने बतलाया है कि परम्परा में रूढ़ि होती हे किन्तु दोनों एक नहीं हैं। इस प्रसंग में रामविलास शर्मा के मत को स्पष्ट करते हुए गीता शर्मा कहती है -

‘‘परम्परा के मूल्यांकन में दृष्टिकोण और पद्धतियों के मतभेदों को समझने के लिए परम्परा, रूढ़ि और संप्रदाय इन तीनों शब्दों और उनसे निर्मित होने वाली अवधारणाओं को समझना आवश्यक है। रूढ़ि एक ऐसी वस्तु है, जो जड़ और त्याज्य होती है। इसके विपरीत परम्परा ऐसी वस्तु है जो ग्राह्य है, वांछनीय है और जो रूढ़ि के विपरीत जीवंत है जड़ नहीं हो गई है। इससे स्पष्ट है कि निरंतर निखरते जाने और प्रासंगिता की दृष्टि से परिष्कार की प्रक्रिया गतिशील परंपरा जिन अग्राहय और मृत तत्वों को छोड़ती चलती है, वे ही रूढ़िया है।’’[1] इस प्रकार राममविलास जी परंपरा का अर्थ स्पष्ट करते है। लेकिन परंपराबद्ध होकर कोई समाज विकास नहीं कर सकता। आधुनिकता ने दुनिया की परिस्थितियों को बदल दिया। परंपरा से जुडे रहने के बावजूद आधुनिकता मध्यकालीन मूल्यों से खुद को अलग करती है। रूढ़ियों से अलग होकर ही आधुनिकता वैज्ञानिकता और बुद्धिवाद से जुड़ती है। स्वयं निर्मल वर्मा का इसके संबंध में मत है कि परंपरा में किसी समाज की जड़े होती है और अपनी जड़ों से विहीन होकर कोई समाज जीवंत नहीं रह सकता। निर्मल वर्मा का यह कथन उल्लेखनीय है। ‘‘कोई राष्ट्र जब अपनी सांस्कृतिक जड़ों से उन्मूलित होने लगता है, तो भले ही ऊपर से बहुत सशक्त और स्वस्थ दिखाई दे............. भीतर से मुरझाने लगता है।’’[2] निर्मल के इस कथन का आशय यह है कि आधुनिकता मानव विकास के लिए जरूरी है पर इसके लिए अपने अतीत की बौद्धिक विरासतों और जड़ों से कटकर कोई समाज वास्तविक अर्थों में आधुनिक नहीं हो सकता क्योंकि इनके बिना जो आधुनिकता अपनाई जाएगी वह अंतविरोध ग्रस्त होगी। भारतीय समाज के साथ यही घटित हुआ। हमने आधुनिका का यूरोपीय मॉडल ग्रहण कर लिया। राजा राममोहन राय ने जो बंगाल में नवजागरण की शुरूआत की और जिसकी बहुत अल्प अवधि के दौरान ही समाप्ति हो गई, उसमें इसी प्रकार के अंतर्विरोध थे और इन्हीं के कारण यह नवजागरण आंदोलन आगे नहीं बढ़ सका। निर्मल वर्मा का कहना है कि राजा राममोहन राय पश्चिम की जीवन पद्धति और भारतीय जीवन पद्धति के टकराव को समझते थे किन्तु इसके लिए उन्होंने और उनके समय के बुद्धिजीवियों ने उन दिनों जिस समाधान की खोज की वह भ्रामक था। कारण यह था कि पश्चिम की आधुनिकता से ये बुद्धिजीवी आंक्रांत थे और इसके कारण इनमें कुंठा पल रही थी जिसकी भरपाई वे पश्चिम के साथ मेल बनाकर करना चाहते थे। निर्मल कहते है-

‘‘राजा राममोहन राय और उनकी पीढी के उदारपंथी बुद्धिजीवी इस द्वंद्व को समझते थे, किंतु इसे सुलझाने का जो हल उन्होंने चुना वह एक भ्रामक हल था - वह हमें ऐसी दिशा में ले गया, जिसके परिणाम हम आज भुगत रहे है। पश्चिमी सभ्यता के विकासोन्मुख आदर्शों के सम्मुख ये बुद्धिजीवी अपने को कहीं बहुत छोटा पाते थे। इस हीन भाव से अपने को उबारने के लिए उन्होंने समूचे भारतीय अतीत की महिमा को पुनजीर्वित करने की चेष्टा की। वे विदेशी शासको के सामने यह प्रमाणित करना चाहते थे कि आधुनिक यूरोपीय मान्यताओं के मुकाबले उनकी विगत संस्कृति का गौरव भी कम नहीं है। किन्तु वे इन आधुनिक यूरोपीय मान्यताओं के प्रति आकर्षित भी थे, उन्हें उच्चतर सभ्यता का प्रतीक मानते थे, इसलिए उनके सामने अपने को सम्मानित और रेस्पेक्टेबल सिद्ध करना चाहते थे।’’[3] यही कुंठा इन बुद्धिजीवियों में थी जिसके कारण वे उपनिवेशादियों के आधुनिकतावादी विचारों का सामना उन्हीं के दृष्टिकोण को अपनाकर करना चाहते थे। भारत में आधुनिक राष्ट्रवादी विचारों का विकास इसी अंतिर्विरोध के बीच से हुआ और आधुनिकता के यूरोपीय मॉडल को ग्रहण करते हुए उन्होंने देशीयता की उपेक्षा कर दी जिसके बारे में निर्मल कहते है कि आज भी वही मनोवृत्ति कायम है। उनका यह कथन भी यहाँ उल्लेखनीय है-

‘‘उन्नीसवी सदी के भारतीय बृद्धिजीवियों के इस अभियान को प्रायः समन्वय अभियान कहा जाता है। यह ऊपरी और सतही समन्वय तो या था ही, बहुत भ्रामक और घातक भी था। वास्तव में आज हम जिसे पश्चिम शिक्षित आधुनिक एलीट कहते है इस वर्ग की जड़े सीधी इस समन्वय से जुड़ी है, एक ऐसा वर्ग जो एक तरफ भारतीय परम्परा का गुणगान करता है, दूसरी ओर अपने आदर्षों और सिद्धांतों में अपनी समूची जीवन पद्धति में पश्चिम की नकल करता है।[4]

इस प्रकार निर्मल वर्मा के अनुसार अनेक भारतीय लेखक इसी पश्चिमी शुश्क और असंवेदनशील यांत्रिकता के षिकार रहे है। इसके बरअक्स निर्मल वर्मा भारतीय संस्कृति के देसीवाद का पक्ष लेते है। देसीवाद में आधुनिकता की जो सोच है उसमें यांत्रिक विकासोन्मुख दृष्टि नहीं, बल्कि प्राणी मात्र, वनस्पतियों, नदियों, पेड़ों यानी पूरी प्रकृति के प्रति, करूणा, प्रेम और अपनत्व का भाव भरा हुआ है। दुर्भाग्य से आधुनिकता का जो मॉडल भारत में अपनाया गया वह औपनिवेशिक बुद्धिजीवियों और सत्ता के द्वारा जनता पर थोपा गया था और वही मॉडल देश में लागू हुआ। इसकी शुरूआत हालांकि और पहले हो गई थी मगर राजा राममोहन राय के समय यह पूरी तरह स्पष्ट रूप में दिखलाई देने लगा। इसके बाद 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से यह एक अभियान के रूप में चलने लगा। स्वामी दयानंद के आर्य समाज आंदोलन से बाकयदा नव जागरण की शुरूआत हुई और सन सत्तावन की क्रांति के बाद भारत सीधे ब्रिटेन का उपनिवेश बन गया। इसके बाद यहाँ आधुनिकता के नाम पर औद्योगिक पूंजी का खेल शुरू हुआ और यांत्रिक सभ्यता का प्रसार भारत में शुरू हो गया।

भारत में आधुनिकता की शुरूआत 1857 के गदर से हुई और गदर के साथ ही नवजागरण की शुरूआत हो गई थी। अनेक लोगों को भ्रम है कि भारत में आधुनिकता पश्चिम से प्रेरित थी, मगर यह सत्य नहीं है क्योंकि भारत की आधुनिकता पश्चिम के विरोध में शुरू हुई थीं। रमेश कुंतल मेध कहते है- ‘‘एशिया और विशेष रूप से भारत की आधुनिकता की दशाएं पश्चिम से भिन्न है। एशिया के राष्ट्रों की निर्धनता एक त्रासदीय नाटकीय रोमांच है।’’[5]

औपनिवेशिक शासन ने आर्थिक बुनियाद और अधिरचना दोनों ही स्तरों पर बहुत ही बुनियादी परिवर्तन किये है। आर्थिक क्षेत्र में पूंजीवादी व्यवस्था की स्थापना हुई और उससे एक नये वर्ग बुर्जुआ वर्ग मध्य वर्ग का जन्म हुआ। भारत में इस वर्ग का जन्म और विकास उस सहज प्रक्रिया के रूप में नहीं हुआ जिस सहज प्रक्रिया के रूप में वह यूरोप में हुआ। यह एक जड़ से विच्छिन्न और फल से रहित उखड़ा हुआ बनावटी वर्ग है। इसकी वर्ग संरचना यथार्थ पर आधारित नहीं है।

मध्य वर्ग के उदय के अलावे भारत में आधुनिकता का दूसरा आयाम है पहले से चले आ रहे सामाजिक ढाँचे में बदलाव। भारत के सामाजिक ढाँचे के मुख्यता तीन घटक है- वर्ण व्यवस्था और जाति, परिवार व्यवस्था और ग्रामीण समुदाय। औद्योगिक समाज के आने से वर्ण व्यवस्था शिथिल जरूर पडी है लेकिन वर्ण और जाति से मुक्त उद्योग धन्धों और पेषों की रचना अब भी नहीं हुई है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, खत्री और बनियों ने पष्चिमी शिक्षा पायी और उसका लाभ भी उठाया जबकि दस्तकार, मजदूर और निचली जातियों के लोग जैसे धोबी, नाई, टोकरी बनाने वाले, तेली, कुम्हार आदि सब्जी, फल तथा दूध बेचने वाले बन गये। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण और राजपूत जैसी ऊँची जातियों का ही पश्चिमीकरण हो रहा है जिसमें नगरीकरण भी सम्मिलित है और निम्न जातियों के पास आधुनिक जगत में प्रवेश के लिए न तो साधन है, न प्रेरणा। मध्यदेश के अधिकांश भागों में ब्राह्मण और कायस्थ तथा उत्तर प्रदेश और पश्चिमी भारत में मुसलमान और खत्री आधुनिकीकरण की ओर पहले उन्मुख हुए।

पश्चिमीकरण और आधुनिकता का सबसे बड़ा प्रभाव भारत में परिवार की संरचना पर पडा है। संयुक्त परिवार लगभग टूट से गये है और उनका स्थान आणविक परिवार लेता जा रहा है। शहरी मध्यवर्ग में संयुक्त परिवार लगभग समाप्त हो गये है और आणविक परिवार ही रह गये है। मध्य्रदेश में दो ही जातियों ऐसी है जो भौगोलिक रूप से सारे देश में बिखरी होने पर भी पारस्परिक परिवार व्यवस्था को बचाये हुए है और वे है मारवाडी तथा सारस्वत ब्राह्मण। मारवाडी लोग नौकरी पेशा जाति नहीं है और संयुक्त परिवार के संगठन से उनको बाजार और व्यापार में सहायता मिलती है। किसी संयुक्त परिवार का युवक जब ऊँची शिक्षा प्राप्त कर लेता है और उसमें अपनी नौकरी आदि के कारण पेशेगत गतिशीलता आती है जब उसमें व्यक्तिवाद का उदय होता है और अधिक स्वाधीनता की भावना आती है। अधिक व्यक्तिगत स्वाधीनता की यह इच्छा उच्चतर जीवन स्तर की आकांक्षा को जन्म देती है। आणविक परिवार की रचना में नारी की महत्वाकांक्षा ने बड़ी भूमिका अदा की है। इससे एक लाभ तो यह जरूर हुआ है, स्त्री और पुरूष के रिश्ते अधिक समानता की भूमि पर उभरे है और सहयोगिता और प्रेम में विकास हुआ है। कदाचित इस आणविक परिवार में स्त्री ने वहीं सत्ता प्राप्त कर ली है जो पितृसतात्मक समाज में पिता को प्राप्त थी।

संयुक्त परिवार के ह्रास और आणविक परिवार के विकास को आधुनिकता की उपलिब्ध बतलाने के लिए बहुत कुछ साहस और थोड़ी बहुत मूर्खता की जरूरत है। दादा-दादी, ताऊ, भाई-बहन सबसे विच्छिन्न होकर भारतीय पारम्पारिक जीवन की प्रसन्नता नष्ट हो गयी है। हर आदमी बेचैन, परेशान, सन्त्रास से युक्त और प्रेम के अभाव में मानसिक गरीब सा दिखता है। इसमें ऊर्जा के धरातल पर मर्द कमजोर बना है और औरत की ममता बहुत घटी है।

सामाजिक ढाँचे का तीसरा महत्वपूर्ण घटक है ग्रामीण समुदाय और किसानों का समाज। भारत किसानों का ही देश है और किसानों का जीवन पद्धति ऐसी समस्याएँ प्रस्तुत करती है जिनका समाधान कदाचित मार्क्सवाद के पास नहीं है। भारत में बढ़ रहा आधुनिकीकरण सृजनात्मक नहीं वरन् अनुकरणात्मक है। इसका दृश्परिणाम यह है कि ये किसान न तो परम्परागत रह गये है और न आधुनिक बन सके है। मध्य्रदेश में किसानों की स्थिति और मानसिकता एक समान भी नहीं है। इसलिए भारत में यदि ग्रामीण समुदाय और किसानों के संदर्भ में विचार करें तो आधुनिकता केवल तकनीक के नवीकरण में ही नहीं वरन् उससे भी अधिक मानव के नवीकरण में निहित है। यह आधुनिकता निहित है सामाजिक समुदाय और उसके साथ व्यक्ति की निजी आकांक्षाओं को स्पर्ष करनेवाले नये मूल्य बोध की रचना में। मनुष्य के चेतन, अवचेतन और अचेतन मानस में औद्योगिक युग पर आधारित समाज से रिश्ता कायम कर जब तक भारत के विशाल ग्रामीण समुदाय के मानस में एक बुनियादी परिवर्तन नहीं लाता है, तब तक केवल तकनीक और संस्थाओं के स्थानान्तरण से ही उनका आधुनिक बनना सम्भव नहीं। यह बर्हिजगत के परिवर्तन से अन्तर्जगत के पुनर्गठन की एक सांस्कृतिक चुनौती है।

आधुनिकता का संबंध नयी शिक्षा यानी अंग्रेजी शिक्षा से जोडा जाता है। असल मे अंग्रेजी राज के आरम्भिक दिनों में बड़े पैमाने पर लूट से देश विपन्न हो गया था। कुटीर उद्योग नष्ट हो गये थे, लगान वसूल करने के लिए जमींदारियाँ बनायी गयी और पुराना बनिया मध्यवर्ग अंग्रेज बनिया की रणनीति में उन्मूलित हो गया था, तब विदेशी शासन और व्यवसाय का सहारा देने के लिए एक नये पगारजीवी वर्ग को बनाने की जरूरत थी। सत्ता यह जानती थी कि एक स्थानापन वर्ग की रचना की जरूरत है। इंग्लैंड और चीन में अपने मध्यवर्ग थे लेकिन ईस्ट इंडिया कम्पनी पर ऐसे वर्ग को बनाने और शिक्षित करने का दुहरा दायित्व था। ऐसे वर्ग को गढ़ने का सिद्धांत दिया मैकाले ने। उसका कहना था कि हमें चाहिए जो करोड़ों शासितों और हमारे बीच दुभाशिये का काम कर सके। एक ऐसे लोगों का वर्ग जो खून और रंग में भारतीय हो लेकिन आस्वाद, विचार, नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेज हो। इसी वर्ग पर भारतीय भाषाओं को समृद्ध करने का दायित्व आ पड़ा है और वे उसे समृद्ध करने के लिए पष्चिम से विज्ञान की पारिभाषिक शब्दावली की नकल कर रहे है। इस क्षेत्र में मैकाले की सफलता इतनी बड़ी है कि भारत का बड़े से बड़ा देशभक्त कवि और लेखक भी टी. एस. एलियट, कामू और सार्त्र के प्रभाव में अपने मुहावरों वाक्य विन्यासों तथा भावबोध और विचारबोध को गढ़ रहा है।

नयी शिक्षा सबसे पहले बंगाल में चली और बाद में मध्य्रदेश में इसका प्रसार हुआ। बंगाल में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे प्रबुद्ध सुधारकों के प्रभाव में इसका सम्बन्ध थोड़ा बहुत विज्ञान से जुडा लेकिन मध्य्रदेश में जो कि हिन्दी भाषी क्षेत्र है इसका तत्व साहित्यिक अतिरेक से भरा रहा। साम्राज्यवाद की आर्थिक नीति के कारण जिसका मुख्य लक्ष्य इस देश में उद्योग धन्धों को पनपने नहीं देना था, पेशेगत प्रशिक्षण की पूरी उपेक्षा कर दी गयी। तकनीकी षिक्षा को प्रोत्साहन देना अंग्रेजों के आर्थिक हितों के विरूद्ध पड़ता था। यही कारण है कि इस शिक्षा में ब्राह्मण तथा अन्य साहित्यिक जातियों जैसे कायस्थ को अधिक लाभ हुए। इस शिक्षा से एक मानसिकता यह बनी कि विज्ञान पढ़ने की भाषा अंग्रेजी ही हो सकती है और यदि अंग्रेजी नहीं हो तो रूसी या जर्मन आदि पढ़नी चाहिए। इसका परिणाम यह हुआ कि इस देश के वैज्ञानिक देशी भाषा में कामचलाऊ अभिव्यक्ति भी नहीं कर सकते। यह गौर करने की बात है कि ‘‘गाँधी की आधुनिकता में व्यक्ति स्वातंत्रय के लिए जगह नहीं थी।’’[6]

यूरोप के सम्पर्क से विज्ञान भारत और मध्यदेश में भी आया लेकिन हमारे वैज्ञानिक और विज्ञान के छात्र प्रयोगशाला के बाहर शायद ही कहीं आलोचनात्मक मिजाज का निदर्षन कर पाते हो। भारत में नये रहस्यवाद का मूल स्रोत बंगाल है। पता नहीं कैसे यहाँ विज्ञान के साथ धार्मिक रूढ़ियाँ और जादू टोने के इन्द्रजाल सब स्वीकार हो गए हैं। छापेखाने का मजदूर अपना काम आरम्भ करने के पहले रोली का टीका लगाता है। लगभग सारे भारत में दुर्गाष्टमी के दिन औजारों की पूजा भगवत् भक्तिवाली निष्ठा के साथ की जाती है। औजारों की सफाई करने के साथ उनके आगे सिन्दूर, धूप तथा फूल चढ़ाने का आम रिवाज है। यह कह देना कि यह रिवाज गँवई गाँव के कुम्हार, लोहार, सोनार, बढ़ई, आदि के बीच ही प्रचलित है, वास्तविकता को झुठलाना है। तात्पर्य यह है कि पश्चिम की तकनीक और औद्योगीकरण का उपयोग करनेवालों ने वैज्ञानिक विश्व दृष्टि और बुद्धिवाद को स्वीकार नहीं किया है। इसका अर्थ यह है कि भारत भौतिक और सामाजिक दृष्टि से तो औद्योगिक युग में आ गया है लेकिन मानसिकता और आध्यात्मिकता के धरातल पर वह खतरा उठाना नहीं चाहता है। भारत में मध्यवर्ग ने विज्ञान को जिस तरह अपनाया, उससे यह अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है।

कृषि पर आधारित इस देश की अर्थव्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए औद्योगीकरण और वैज्ञानिक शिक्षा अनिवार्य है। विज्ञान का यह उपयोग केवल औद्योगिक उन्नति के लिए आवष्यक नहीं है। वह शताब्दियों से चली आती हुई रूढ़ियों की जड़ काटने के लिए, समाज और मानव के रिश्ते को सही- सही समझने के लिए, प्रकृति के रहस्य जानने के लिए बहुत जरूरी है। लेकिन वैज्ञानिक मिजाज के विकास के बिना यह शिक्षा एक सांस्कृतिक विभाजन को जन्म देती है और इसका असर हमारे इतिहास दर्शन और अर्थशास्त्र इत्यादि पर भी पडा है और वे बहुत ही सरल ढंग से यांत्रिक बन गये है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का यह सिद्धान्त नकारा नहीं जा सकता कि चीजें एक-दूसरे से जुडी होती है सामाजिक संस्थाएँ, विज्ञान, धर्म, राजनीति, नीतिशास्त्र और मूल्य एक-दूसरे से निरपेक्ष नहीं बल्कि परस्पर सम्बद्ध होते है और यदि वे परस्पर सम्बद्ध है तो एक में परिवर्तन से दूसरे में भी परिवर्तन आता है।

असल में हमारी आधुनिकता हमारे पेशों के संकीर्ण दायरे के बाहर नहीं गयी है। जीवन के बाकी सभी क्षेत्रों में हम पुराने मूल्यों और विश्वासों से चिपके हुए है और इनका हम केवल उसी समय परित्याग करते है, जब कोई आत्मलाभ की बात हो। इससे व्यक्ति मानस और सामाजिक मानस के बीच एक बड़ी दरार पैदा हुई है, यही कारण है कि अपने युग की महान समस्याओं से हम निरपेक्ष रहते है। हम तात्कालिक विशेष और क्षुद्र समस्याओं से जूझने में ही अपनी ऊर्जा समाप्त कर देते हैं। जिसका परिणाम यह हुआ है कि आज लोगों के बची की आपसी दूरी बढ़ गयी है, पारिवारिक संबंध टूट रहे है। कुंठा, निराशा, संत्रास, मानसिक तनाव, अजनबीपन, अकेलापन जैसी नियतियाँ मानव जीवन में षामिल हो गई है जिनका प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा है।

निष्कर्ष निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि आधुनिकता बोध मानव मन की उन विसंगतियों को दर्शाता है जिसने स्वतंत्रता के बाद सामाजिक परिवर्तनों के कारण, आर्थिक विषमताओं, औद्योगीकरण, नगरीकरण, पाश्चात्य परिवेश तथा इच्छित कार्यों की पूर्ति के कारण मनुष्य के जीवन में हर रूप में परिवर्तन लाया| इसका परिणाम यह हुआ कि लोगों में आपसी दूरी बढती गई| मानव जीवन में मोहभंग, कुंठा, संत्रास, आर्थिक दबाव, संबंधों के टूटते परिवेश, मानसिक तनाव, अकेलापन तथा अजनबीपन की स्थिति जैसी नियतियां शामिल हो गई| वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हमारी आधुनिकता हमारे संकीर्ण दायरे के बाहर नहीं गयी है| जीवन के सभी क्षेत्रों में हम आज भी पुराने मूल्यों और विश्वासों से चिपके हुए हैं| हम उन मूल्यों का परित्याग तभी करते है जब उसमें कोई आत्मलाभ की बात हो| जिसका गहरा प्रभाव समाज पर पडता है|
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. शर्मा, गीता. डॉ. रामविलास शर्मा और परम्परा का मुल्यांकन दिल्ली: वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 1991, पृ०15. 2. वर्मा, निर्मल. आदि, अंत और आरंभ. दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2001, पृ० 13. 3. वर्मा, निर्मल. पत्थर और बहता पानी. सं० नंदकिशोर आचार्य, बीकानेर: वाग्देवी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2000 पृ० 16-17. 4. वर्मा, निर्मल. पत्थर और बहता पानी. सं० नंदकिशोर आचार्य, बीकानेर: वाग्देवी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2000, पृ० 17. 5. मेघ, रमेश कुंतल. मिथक से आधुनिकता तक. दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2008, पृ० 71. 6. वर्मा, निर्मल. पत्थर और बहता पानी. सं० नंदकिशोर आचार्य, बीकानेर: वाग्देवी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2000, पृ० 159.: वाणी प्रकाशन, 2008, पृ० 71. 6. वर्मा, निर्मल. पत्थर और बहता पानी. सं० नंदकिशोर आचार्य, बीकानेर: वाग्देवी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2000, पृ० 159.