P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- IX , ISSUE- VI February  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में निम्नवर्गीय प्रसंग
Subultern Context in the Indian National Movement and Mahatma Gandhi
Paper Id :  15812   Submission Date :  12/02/2022   Acceptance Date :  15/02/2022   Publication Date :  25/02/2022
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पूजा शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर
इतिहास
गवर्नमेंट एन. के. कॉलेज, कोटा
बिलासपुर, ,छत्तीसगढ़,
भारत
सारांश भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में साम्राज्यवादी, राष्ट्रवादी और मार्क्सवादी इतिहास लेखन के विकास के बाद‘निम्नवर्गीय प्रसंग’ या‘उपाश्रयी अध्ययन’ प्रचलित हुआ। राष्ट्रीय आंदोलन इतिहास का निम्नवर्गीय प्रसंग इतिहास की उस धारा का प्रतिनिधित्व करता है,जिसमें आम जनता के राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी को प्रस्तुत किया गया। इतिहासकारों ने राष्ट्रवाद के निर्माण की प्रक्रिया में दो प्रकार के विचारों को प्रस्तुत किया है, एक ‘गांधीवादी राष्ट्रवाद’ जिसे निम्नवर्गीय इतिहासकार ‘अभिजन राष्ट्रवाद’ कहते हैं, दूसरा ‘लोक राष्ट्रवाद’ या ‘जन राष्ट्रवाद’जो आम जनता के राष्ट्रीय आंदोलन में प्रतिनिधित्व को प्रस्तुत करता है। उपाश्रयीदृष्टिकोण या निम्नवर्गीय प्रसंग में रणजीत गुहा,ज्ञानेंद्र पाण्डेय, शाहीद अमीन, बद्रीनारायण, रामचन्द्र गुहा, पार्थ चटर्जी, गौतम भट्ट, गायत्री चक्रवर्ती जैसे इतिहासकार राष्ट्रीय आंदोलन में जन राष्ट्रवाद की खोज करते दिखाई देते हैं। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में महात्मा गांधी के जन आंदोलन से निर्मित जनचेतना राष्ट्रवाद को एक नवीन अर्थ प्रदान करती है। गांधीवादी आंदोलन में आम जनता गांधीजी से न केवल प्रभावित थी, बल्कि उनमें राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति नवीन और अद्भुत उत्साह भी दिखाई देता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद After the development of imperialist, nationalist and Marxist historiography in the Indian national movement, the 'lower class context' or 'subterranean study' became prevalent. The lower-class context of the national movement history represents that stream of history, in which the participation of the general public in the national movement was presented. Historians have presented two types of ideas in the process of formation of nationalism, one 'Gandhian nationalism' which the lower-class historians call 'elite nationalism', the other 'folk nationalism' or 'people's nationalism' which is the representation of the common people in the national movement. presents to. Historians like Ranjit Guha, Gyanendra Pandey, Shaheed Amin, Badrinarayan, Ramchandra Guha, Partha Chatterjee, Gautam Bhatt, Gayatri Chakraborty appear to be searching for mass nationalism in the national movement in the sub-class perspective or subclassic context. The mass consciousness created by the mass movement of Mahatma Gandhi in the Indian independence movement gives a new meaning to nationalism. In the Gandhian movement, the general public was not only influenced by Gandhi, but they also see a new and wonderful enthusiasm for the national movement.
मुख्य शब्द उपाश्रयी वर्ग, अभिजन राष्ट्रवाद, नियंत्रित जनभागीदारी, लोकव्यापी आकर्षण, लामबंदी, सर्वोदय, एकताकारी छतरी वाली भूमिका।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Subaltern class, elite nationalism, controlled public participation, popular attraction, mobilization, Sarvodaya, unity umbrella role.
प्रस्तावना
अभिजन राष्ट्रवाद और लोक राष्ट्रवाद के वैचारिक द्वन्द्वों के मध्य राष्ट्रवादी आंदोलन को राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से परखने पर कुछ तथ्य विचारणीय प्रतीत होते हैं। गांधीवादी युग की विशेषता यह रही है कि इसमें स्वतंत्रता संघर्ष को आमजन के व्यक्तिगत हित का रूप दे दिया। ये संघर्ष आमजन को समाहित करते हुए जन आंदोलन बना। इसकी पृष्ठभूमि में कई तत्व हैं। जैसे- अब राष्ट्रीय आंदोलन के समानान्तर कई धारायें साथ-साथ चलने लगी थी, यथा- सामाजिक आर्थिक विषमता को दूर करने के व्यावहारिक प्रयास, भावी भारत निर्माण के लिए आमजन के जीवनस्तर और नैतिक उत्थान के प्रयास तथा रचनात्मक कार्यक्रम जिनसे समाज का हर वर्ग देश के साथ आत्मीयता स्थापित कर सके। इन अर्थों में गांधीवादी आन्दोलन का परिचय ही उसे अभिजात्य वर्ग से निकालकर आमजन के सुपुर्द करना है। विचारणीय तथ्य यह है कि गांधजी ने किस प्रकार हर आमजन को इससे जोड़ने का कार्य किया या अन्य शब्दों में कैसे उपेक्षित आम जन ने अपने सनातन संचालित विकिर्ण संघर्ष के लिए एक यथोचित राष्ट्रव्यापी नेतृत्व प्राप्त किया। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में गांधीजी का प्रवेश एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में देखा जाता है। गांधीजी का राष्ट्रीय आंदोलन केवल साधन, संपन्न मध्यमवर्गीय और शिक्षित लोगों तक ही सीमित नहीं था बल्कि उन्होंने इसमें गांव की साधारण जनता, कृषक, मजदूर, आदिवासी, महिलाओं और समाज में निचले तबके के माने जाने वाले लोगों को शामिल किया थां गांधीजी आंदोलन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक सशक्त अहिंसात्मक संघर्ष को प्रस्तुत करता है साथ ही भारतीय समाज में व्याप्त असमानता, अस्पृश्यता जैसी बुराइयों का विरोध करते हुए निम्नवर्गीय प्रसंग को भी सार्थक बनाता है।
अध्ययन का उद्देश्य इस शोध पत्र का उद्देश्य महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में निम्नवर्गीय प्रसंग बताना हैं।
साहित्यावलोकन
महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में निम्नवर्गीय प्रसंग”विषय के अध्ययन के लिए मैंने सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गाँधी, शाहिद अमीन एवं ज्ञानेन्द्र पाण्डेय का निम्नवर्गीय प्रसंग, विपिन चन्द्र एवं सुमित सरकार का आधुनिक भारत, विपिन चन्द्र का स्वतंत्रता संघर्ष, रामचंद्र गुहा का गाँधी:द ईयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड, शेखर बंद्योपाध्याय का आधुनिक भारत का इतिहास, महात्मा गांधी का मेरे सत्य के प्रयोग आदि पुस्तको का अध्ययन कर इसमें निम्न वर्गीय प्रसंग खोजने का प्रयास किया है। महात्मा गांधी के विषय में 2019-20 में प्रकाशित कुछ पुस्तको का भी अध्ययन किया है,इनमें’ द महात्मा एन्ड हिज़ लाइफ’ से उनकी विचारधारा का पता चलता है। ‘द स्टोरी ऑफ माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रुथ ‘ के नए संस्करण में मुख्य रूप से 1925 से 1929 तक नवजीवन में प्रकाशित घटनाओं और महादेव देसाई द्वारा 1940 में अनूदित हिस्सों की जानकारी मिलती है। रामचंद्र गुहा द्वारा लिखित’ गांधी बिफोर इंडिया’ में भी गाँधीजी की विचारधाराओं के विकास को प्रस्तुत किया गया है। इसमें गांधीजी से संबंधित प्राइवेंट पेपर और समसामयिक प्राथमिक स्त्रोतों का उपयोग किया गया है। ‘माई डियर बापू’ गाँधीजी के पोते गोपाल कृष्ण गांधी द्वारा लिखित है इसमें गांधीजी द्वारा 1920 से 1945 तक लिखित पत्रों का विवरण है।
मुख्य पाठ

गांधीजी ने अहिंसा को असहयोग आंदोलन में एक शस्त्र की भांति उपयोग किया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरूद्ध इस आंदोलन में उन्होंने जनता से अपील की कि ब्रिटिश शासन यदि उनकी समस्याओं का समाधान नहीं करती है उन पर अत्याचार करती है तो उनका सहयोग करना सक्रियस्थिति होगी। यही सक्रियता गांधीजी की गतिमान चेतना है, जो निम्नवर्गीय राष्ट्रवाद से उन्हें जोड़ती है। उनके आंदोलन में सामान्य जन, कृषक, मजदूर, आदिवासी, महिलाओं की भूमिका आम जनता के राष्ट्रवाद को स्पष्ट करती है और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को जन आंदोलन में परिणित करती है।

अक्टूबर 1913 में गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में खदान श्रमिकों के समर्थन में एक अविस्मरणीय हड़ताल और देशव्यापी मार्च का नेतृत्व किया।दक्षिण अफ्रीका के अनुभवों को उन्होंने भारत में लागू किया अपने राजनीतिक जीवन के प्रारंभ में ही गांधीजी अन्य राजनीतिज्ञों की तुलना अखिल भारतीय स्तर पर अधिक मान्य हुए, क्योंकि उनके आंदोलन का आधार मूलतः स्थानीय और आंचलिक था।[2] उल्लेखनीय तथ्य यह है कि उनके आंदोलन की प्रणाली और स्वरूप ऐसा होता था कि वह स्वाभाविक रूप से जनआंदोलन में परिवर्तित हो जाता था। 

गांधीजी को आम जनता की संघर्ष क्षमता में पूर्ण विश्वास था।1915 में उन्होंने अपने दक्षिण अफ्रीका के संघर्ष के बारे में मद्रास मंे कहा था ‘‘बिना किसी प्रकार पुरस्कार की आशा में श्रद्धा के साथ इन सीधे-सादे लोगों ने मुझे प्रेरणा दी, अपनी जगह पर स्थापित रखा, स्वयं बलिदान कर मुझसे सबकुछ कराया।’’ इसी प्रकार आगे चलकर 1942 में जब उनसे पूछा गया कि वे साम्राज्यवाद की शक्ति का सामना कैसे कर सकेंगे तब उन्होंने उत्तर दिया था ‘‘लाखों लाख मूक जनता की शक्ति द्वारा।[3] वह भली-भॉति समझते थे कि एक लक्ष्य के लिए संघर्ष कर रहे विशाल जनसमूह में बड़ी से बड़ी सत्ता को झुकाने का सामर्थ्य होता है। अतः उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को वर्ग विशेष की अभिजात्य प्रयासों से आमजन की लड़ाई में बदल दिया। 

गांधीजी ने स्थानीय मुद्दों को लक्ष्य बनाकर राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता अर्जित की। फिर भी इन आंदोलनों पर गहराई से विचार करने पर पता चलता है कि कई बार गांधीजी को नेतृत्व के लिए तब आमंत्रित किया गया, जब स्थानीय पहल से जनता की लामबंदी ही हो चुकी थी यहां भी जनता ने गांधीजी के संदेश की अपने ढंग से व्याख्या की। मसीहाजैसे नेता की शक्तियों से जुड़ी अफवाहों ने जनता के भय को दूर किया।[4] उन्होंने जनशक्ति के अपेक्षित आकांक्षाओं को पूरा करते हुए, उन्हें सफल नेतृत्व और सही दिशा देने का कार्य किया। 

ऐसा प्रतीत होता है कि अपने दैन्य और आशा के कारण भारत के विभिन्न वर्गों के लोगों ने अपने मन में गांधीजी की अपनी अलग छवियां बना ली थी। विशेष रूप से आरंभ में जब अधिकतर लोगों ने दूर से उनकी एक झलक भर देखी थी या उनकी आवाज पर सुनी थी, या उनके चमत्कारी पुरुष होने की कहानी मात्र सुनी थी। इसी में स्थिति में कृषकों को भी विश्वास हो गया था कि गांधीजी उनकी समस्याओं को समाप्त कर देेंगे।[5] यह विश्वास सभी प्रकार के नकारात्मक संदेहों को दूर करने के लिए पर्याप्त था। अब यह संघर्ष सभी का व्यक्तिगत संघर्ष भी था, जिसमें उन्हें एक सर्वशक्तिमान, वरदहस्त के आत्मविश्वास के कारण अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में कोई संकोच न था। 

गांधीजी के लोकव्यापी आकर्षण के इस सहस्त्राब्दिक पक्ष की अनदेखी करना सरल नहीं है,गांधीजी केवल जनता को उभारना नहीं चाहते थे बल्कि एक नियंत्रित जन आंदोलन चलाना चाहते थे, जो उनके निर्धारित किए हुए मार्ग पर कठोरता से चले। जनता ने गांधीवादी राजनीति की सीमाओं का बार-बार उल्लंघन किया और उनके आदर्शों से अलग हटी, पर साथ ही यह विश्वास भी करती रही कि वह अपने मसीहा के पीछे पीछे चलकर गांधीराज के एक नए स्वर्गलोक में पहुंचेगी।[6] गांधीजी के लिए साध्य के साथ-साथ साधन का प्रवित्र होना भी महत्वपूर्ण था। ऐसे में एक विशाल जनसमूह को अनुशासन में रखना और नियंत्रित आंदोलन का संचालन, करिश्माई व्यक्तित्व तथा आत्मीय स्पर्श से ही संभव था। 

सुमित सरकार का मानना है कि गांधीवादी आंदोलन नियंत्रित जनभागीदारी को भारत के सामाजिक रूप से निर्णायक वर्गों के हितों और भावनाओं से वस्तुनिष्ठ ढंग से जोड़ता था। गांधीजी के पूर्ववर्ती राजनीतिक अनियंत्रित जन आंदोलनों के प्रति सामाजिक रूप से भयभीत रहते थे। गांधीवादी पद्धति व्यापारी वर्गों को साथ ही कृषकों अपेक्षतःसमृद्ध अथवा स्थानीय प्रभुता सम्पन्न भागों को भी स्वीकार थी। ये वे लोग थे, जिन्हें राजनीतिक संघर्ष के उच्चश्रृंखल एवं हिंसक सामाजिक क्रांति में परिवर्तित हो जाने से पर्याप्त हानि उठाने का भय था।[7] इतिहास के ऐसे कई अराजक क्रांति के उदाहरणों में लोगों में चिंता उत्पन्न की, परन्तु यहांॅ का आन्दोलन कई लक्ष्यों को एक साथ साधने का था। यह न सिर्फ विदेशी शक्तियों का विरोध अपितु अपने ही समाज में समानता का संघर्ष, रचनात्मक कार्यक्रमों और भावी भारत की सुदृढ़ नीति के निर्माण के उद्देश्यों की भी प्रतिपूर्ति कर रहा था।

गांधीजी की जयकृषकों की संगठित शक्ति की उम्र की स्वीकारोक्ति थी। यह एक ऐसा नारा था जो न केवल लामबंदी कर रहा था बल्कि दुश्मनों और समर्थन नहीं करने वालों के मन में डर बैठा रहा था। उत्तर भारत के कृषकों के लिए यह व्यावहारिक रूप से गांधीवादी नहीं रह गया था, अब यह वह रणभेरी था, जिसके साथ इसी हाट या थाने पर धावाबोला जाता था।[8] यदि यह कहा जाये कि यह सभी पूर्ववर्ती सफल आंदोलनों के पश्चात शक्ति प्रदर्शन और सफलता के आत्मविश्वास का चिन्ह था, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। 

पुनः शाहिद आमीन ने लिखा है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी बिहार में कृषक समाज में महात्मा गांधी का कोई विशेष प्राधिकृत रूप प्रचलित नहीं था। यहां तक कि गांधीजी के आदेशों एवं शक्तियों के बारे में कृषक विचार न सिर्फ स्थानीय कांग्रेसी और खिलाफत के नेतृत्व के विरोध में थे अपितु गांधीवाद के मूल सिद्धांतों से भी टकराते थे चौरी-चौरा में हुई हिंसा की जड़ें इसी विरोधाभास में निहित थीं।[9] असहमति का तत्व अंततः आंदोलन का दृढ़ता ही प्रदान करता है। चौरी-चौरा के बाद के वर्षों में लोगों ने सशक्त आंदोलन की उस ऊर्जा के अभाव को जब महसूस किया तो उन सिद्धांतों की महत्ता स्वतः स्वीकार्य हुई, जो बाकी था, उसकी कसर बाद के आंदोलन में पूरी होती दिखाई देती है। 

किसानों के बीच गांधीजी की लोकप्रियता बढ़ाने में उनकी राजनीतिक शैली की पर्याप्त सहायक सिद्ध हुई, उनके द्वारा तीसरे दर्जे में यात्रा किया जाना, बोलचाल हिन्दी भाषा कारोचक आसान शैली में बोलना,1921 के पश्चात अत्यंत कम वस्त्र पहनना और रामचरितमानस जैसे ग्रंथों की विधानों को प्रयुक्त करना उत्तर भारत के हिंदू जनमानस में गहरा बैठा हुआ था।[10] इन छोटी-छोटी घटनाओं ने लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन तथा उसके नेताओं में आत्मीय तत्व ढूंढ़ने और व्यक्तिगत रूप से उनसे जुड़ने में सहायता की।

गांधीजी ने मेरे सपनों का भारतनाम से एक आदर्श भारत की परिकल्पना की जिसमें ग्राम स्वरूप एक आदर्श गांव का चित्रण था। इसी प्रकार किसानों के लिए भी स्वराज्य का अर्थ स्वर्गलोक था, जहां कोई लगान, कोई मालगुजारी, कर्ज अदायगी, जमींदार और ताल्लुकदार नहीं होंगे। यह एक ऐसी स्थिति थी जिसकी कल्पना किसान हमेशा करते थे। इसलिए गांधीजीने उनके मन को छू लिया और उनको कार्यवाही में झोंक दिया।[11] उनके हित की बात करने वाले व्यक्तित्व से उनका प्रथम बार साक्षात्कार हुआ और उस व्यक्तित्व के उद्देश्यों की पूर्ति में उन्हें अपनी विजयश्री का आभास हुआ।

किसान आंदोलन के समान आदिवासी आंदोलन में भी गांधीजी का प्रभाव महत्वपूर्ण था। एक ही स्थान पर देवी आंदोलन का उल्लेख आता है। आदिवासियों द्वारा स्वीकृत हो जाने के बाद गांधीवादियों ने देवी आंदोलन को और अधिक संशोधित करने का प्रयास किया गांधीजी को विश्वास था कि आंदोलन का असली मूल आदिवासियों की आत्मशुद्धि में है। आचरण का नया वस्त्र धारण करके वे स्वतंत्र भारत के योग्य नागरिक हो सकेंगे।[12] किसी पुरातन व्यवस्था में इस प्रकार का परिवर्तन कोई आसान कार्य नहीं, यह तभी संभव है जब वर्ग विशेष का विश्वास जीता जा सके। यह दुष्कर कार्य उनके हित की बात करने, उन्हें आत्मीयता का भाव महसूस कराने, तथा उनके संघर्ष में उनके साथ खड़े रहने से आती है। 

गांधीजी किसान, आदिवासी श्रमिक और अन्य सभी प्रकार के आंदोलनों के न केवल समर्थक थे बल्कि उन्होंने इन आंदोलनों को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का अभिन्न अंग बनाया। इन आंदोलनों में कानून की अपेक्षा के विषय में उनका विचार था कि कानून का सविनय भंग उन्हीं के द्वारा किया जा सकता है जिन्होंने सदैव विनयपूर्वक और स्वेच्छा से कानून का सम्मान किया था।गांधीजी ने लिखा है कि अधिकतर हम कानून का पालन इसलिए करते हैं कि उसे तोड़ने पर जब दंड मिलता है, उससे हम डरते हैं और यह बात उस कानून पर विशेष रूप से घटित होती है जिसमें नीति-अनीति का प्रश्न नहीं होता।[13]

गांधीजी श्रम पर आधारित पूंजी के विकास पर बल देते हैं, जिसका विशुद्ध लाभ ग्रामीण, किसान व मजदूर भी आसानी से प्राप्त कर सकते हों, सबका समान आर्थिक दर्जा, चाहे वह मजदूरी करने वाला हो या स्वघोषित सभ्य समाज के लोग। गांधी जी की राय में न केवल भारतीय बल्कि पूरे विश्व की आर्थिक संरचना इस प्रकार की होनी चाहिए कि किसी को भी अनाज और वस्तु का अभाव न झेलना पड़े। सबके पास इतनी सम्पत्ति हो कि वह अपनी बुनियादी जरूरतों को पूर्ण कर सके।[14] गांधीजी के इस समाजवाद में लोगों को अपनी भावी पीढ़ी और भारत के भावी आर्थिक परिदृश्य में समानता के संबंध में आश्वास्त कर दिया। 

1909-10 में हिन्द स्वराज्यमें गांधीजी ने रेलवे को अंग्रेजों द्वारा भारत में आधुनिक सभ्यता के विकास हेतु लाई गई बेहतर सुविधा कहा। लेकिन उन्होंने अपनी अंतहीन रेल यात्राओं के द्वारा देशव्यापी आंदोलनों को प्रेरित व संगठित की और रेल सदैव उनके लिए महत्वपूर्ण बनी रही। उन्होंने साधारण भारतवासियों का दुखदर्द प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करने के लिए जानबूझकर तीसरे दर्जे में पूरे देश का दौरा भी किया। उनका मानना था रेलों ने किसी एक भारतीय पहचान को जन्म नहीं दिया बल्कि अनेक और अवसर आपस में टकरा रही एकजुटताओं के निर्माण में मदद पहुंचाई, जिनमें जैसा कि हिन्द स्वराज्य में पारखी ढंग से पेश किया गया था, क्षेत्र, भाषा, वर्ग, जाति और धर्म पर आधारित पहचानें भी शामिल थीं।[15]

गांधीजी ने भारत को एक साम्राज्य से राष्ट्र में, निरंकुशता से लोकतंत्र में बदल दिया। एक ऐसे समाज को बदल दिया, जिसके कानूनों ने उस देश के लिए भेदभाव के सबसे चरम रूप को स्वीकार कर लिया था। उसके संविधान में जाति, लिंग, भाषा या धर्म की परवाह किये बिना सभी नागरिकों की समानता को अनिवार्य बनाया गया है।[16] भारतीय संविधान में कल्याणकारी और समाजवादी तथ्यों को इसी के परिणाम के रूप में देखा जा सकता है। 

गांधीजी का मानना था सच्चे अर्थशास्त्र सामाजिक न्याय की हिमाकत करता है, वह समान भाव से सबकी भलाई का, जिसमें कमजोर भी शामिल है, प्रयत्न करता है और सभ्य जनोचित सुंदर जीवन के लिए है।[17] वस्तुतः गांधजी सर्वोदयके समर्थक थे और सर्वोदय का अर्थ होता है सबका उदय या सबका विकास। मानव द्वारा निर्मित विषमता के वह महान विरोधी थे, उनका मानना था कि जब तक धनवान और धनी, तथा गरीब और गरीब होते रहेंगे अहिंसा के नींव पर चलने वाली राज व्यवस्था स्थापित करना संभव नहीं होगा।

हिन्दू मुस्लिम एकता की आवश्यकता एवं संभावना के गांधजी आजीवन समर्थक रहे, इसका आधार निश्चित ही दक्षिण अफ्रीका में रह रहे जिन भारतीयों के संबंध अभी तक भारत से बने हुए थे, उन्होंने सारे भारत में गांधीजी के नाम को फैला दिया। साबरमती आश्रम के प्रथम 25 वासियों में 13 तमिलनाडू के थे। यह एक ऐसी बात थी जो तब तक किसी भी अन्य नेता के संबंध में सोची भी नहीं जा सकती थी।[18] गांधीजी ने एक स्थान पर कहा था ‘‘मेरे विचार से एक व्यक्ति का अंतर्राष्ट्रीयतावादी होना तब तक संभव नहीं है, जब तक कि वह एक राष्ट्रवादी न हो। जब विभिन्न देशों के लोग अपने को एक मनुष्य के रूप में संगठित करते हैं, तब अंतर्राष्ट्रीयतावाद का जन्म होता है।[19]

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में गांधीजी के योगदान को कई नजरियों से देखा जाता है। सुमित सरकार के शब्दों में गांधीजी जी एवं गांधीवादी कांग्रेस में जिस अनिवार्यतः एकताकारी और छतरीवालीभूमिका को अपनाया था। उसके केन्द्र में अहिंसा का सिद्धांत ही था। इस भूमिका के तत्व थे, आंतरिक सामानताएं, संघर्षों में मध्यस्थता करना, विदेशी शासन के विरूद्ध संयुक्त राष्ट्रीय आंदोलन में बड़ा योगदान करना, किन्तु साथ ही कभी-कभी पीछे भी हटना पड़ता था और जिसके फलस्वरूप कभी-कभी बड़े भारी धक्के भी लगते थे।[20] गांधीजी का मानना था कि राजनीतिक स्वतंत्रता का उस समय तक कोई अर्थ नहीं, जब तक कि इसके साथ धार्मिक सद्भाव, जाति और लैंगिक समानता तथा प्रत्येक भारतीय में आत्मसम्मान की भावना का विकास न हो।[21] राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ समाजिक, आर्थिक, धार्मिक स्वतंत्रता अपरिहार्य थी।

गांधीजी भारत में सामाजिक और सार्वजनिक जीवन के हर महत्वपूर्ण पहलू से सक्रिय रूप से जुड़े रहे। उपनिवेशवाद का प्रभाव, जाति व्यवस्था, धार्मिक संघर्ष, महिलाओं की मुक्ति, सामाजिक जीवन में राज्य की भूमिका, आर्थिक पुनर्निर्माण में प्रौद्योगिकी की भूमिका, सामाजिक और राष्ट्रीय नवीनीकरण में भाषा की भूमिका आदि पर उनका जुड़ाव, देश और उसके इतिहास के लिए महत्वपूर्ण था।[22] भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में सामाजिक सरोकार गांधीवादी आंदोलन को दूसरों से अलग बनाता है।

गांधीजी भेड़चाल अंधविश्वास को नहीं बल्कि भावको उजागर करते हैं, ऐसा भाव जिसमें केवल भावनाओं की ही अभिव्यक्ति नहीं कार्यशील होने की लालसा भी है।[23] वस्तुतः गांधीजी ने अपने अनुभवों से जनता के साथ घनिष्ठ संबंध बना रखा था। आम जनता के हितों की रक्षा करते हुए उन्होंने अपने जीवन और जीवनपद्धति को साधारण जनता के जीवन से एकीकृत कर लिया था। गांधीजी गरीब, किसान, मजदूर आदि सभी के नेता थे, साथ ही वह विद्रोही भारत के प्रतीक थे। छुआछूत विरोधी संघर्षों और महिलाआं की स्थिति सुधारने के प्रचार की प्रक्रिया में जनता का हर वर्ग उनके साथ था।

अपने सक्रिय सामाजिक जीवन के 40 वर्षों के दौरान गांधीजी के मूल आदर्शों में कोई परिवर्तन नहीं आया, लेकिन उनकी अभिव्यक्ति और अनुप्रयोग परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहे।[24] वास्तव में गांधीजी का जीवन अन्य बातों के अलावा अकसर तीव्र और लंबे समय तक चलने वाले तर्कों की एक श्रृंखला थी। गांधीजी ने अपने चार आह्वानों में से प्रत्येक में नवोन्मेषी तरीके अपनाया, जो कुछ लोगों को साहसी और क्रांतिकारी लगे तो बाकी लोगों को भयकारी और सुधारवादी भी।[25] गांधीजी का उद्देश्य भारत को स्वतंत्रता दिलाना ही नहीं था, बल्कि एक आदर्श राज्य की स्थापना भी था। 

निष्कर्ष निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि गांधीजी एक नैतिक सामाजिक व्यवस्था की वकालत करते थे। उनके विचार कई स्थानों पर पारंपरिक ही थे। लेकिन उन्होंने सदैव जाति, धर्म, नस्ल और रंग पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का विरोध किया। लोगों को इस बात पर आश्चर्य होता है कि इतने धार्मिक होते हुए भी गांधीजी इतने तर्कसंगत कैसे थे। उन्होंने सभी धर्मों के लिए बहुलतावाद और सम्मान के सिद्धांत को महत्व दिया। उन्होंने भारतीय संस्कृति में विभिन्न समुदायों के योगदान को मान्यता दी और सभी समुदायों की समानता पर विश्वास किया। साम्प्रदायिक सद्भाव और शांति गांधीजी की सबसे महत्वपूर्ण चिंताएं थीं। उनके बारे में सबसे ज्यादा गलत सूचनाएं व पूर्वाग्रह इन्हीं पहलूओं पर आधारित है, इसके विषय में और अधिक अनुसंधान की आवश्यकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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