P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- IX , ISSUE- VI February  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
अभिलेखीय साक्ष्यों में उल्लेखित सामाजिक व्यवस्था में जाति और वंश परम्परा (जयपुर रियासत के विशेष संदर्भ में)
Caste and Lineage In The Social System Mentioned In The Archival Evidence (With Special Reference To The Princely State of Jaipur)
Paper Id :  15838   Submission Date :  14/02/2022   Acceptance Date :  20/02/2022   Publication Date :  25/02/2022
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मुकेश कुमार शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर
इतिहास विभाग
एस.एन.के.पी. गवर्नमेंट पी.जी. कॉलेज
नीम का थाना ,राजस्थान
भारत
सारांश जयपुर रियासत उत्तरी पूर्वी राजस्थान में अरावली पर्वत श्रृंखला के मध्य स्थित है। यह रियासत अपने गौरवशाली इतिहास समृद्धशाली सांस्कृतिक विरासत के लिए प्रसिद्ध रही है। इस प्राचीन और विस्तृत भाग ने अनेक संस्कृतियों के उत्थान से साक्षात्कार किया है। यहाँ का इतिहास, कला, संस्कृति, वैभव, जाति और वंश परम्परा दीर्घकालीन सामाजिक जनजीवन की वे अमूल्य धरोहर हैं जो तत्कालीन मानवीय जीवन के सभी रूपों का वर्तमान में परिचय कराती है। जयपुर रियासत में सत्रहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी तक अभिलेख निर्माण की एक दीर्घकालीन सुव्यवस्थित और सुदृढ़ परम्परा रही है। यहाँ के यशस्वी और प्रतापी शाासकों, सामन्तों एवँ समृद्ध व्यक्तियों के द्वारा अपनी रूचि एवँ उपलब्ध साधनों के आधार पर ये अभिलेख शिलालेखों, स्मारकों और ताम्रपत्रों के रूप में उत्कीर्ण करवाये गये। जिससे हमें तत्कालीन समय की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है। अभिलेखों में उत्कीर्ण सामाजिक व्यवस्था में जाति और वंश परम्परा के रूप में अतीत की यह समृद्ध विरासत न केवल रियासतकालीन जयपुर के सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था का ही ज्ञान कराते हैं, अपितु जयपुर के इतिहास निर्माण पर भी महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The princely state of Jaipur is situated in the middle of the Aravalli mountain range in north-eastern Rajasthan. This princely state has been famous for its glorious history and rich cultural heritage. This ancient and expansive part has interviewed the rise of many cultures. Its history, art, culture, splendor, caste and lineage are those invaluable heritage of long-term social life, which introduces all forms of human life to the present day.
मुख्य शब्द अभिलेख, जयपुर रियासत, सामाजिक, ताम्र्रपत्र, शिलालेख, बावड़ी, जाति वंश, सांस्कृतिक, व्यवस्था।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Records, Jaipur Princely State, Social, Copper Plate, Inscription, Stepwell, Caste Lineage, Cultural, System.
प्रस्तावना
जयपुर रियासत के कछवाहा वंशी शासकों ने प्राचीन भारतीय शासकों की भाँति शिलालेख एवँ स्मारक निर्माण में अपनी महत्तीरूचि दिखाई है। यहाँ के शासकों ने अपने समय की विशिष्ट उपलब्धियों जैसे युद्ध में विजयी होने, यशोगाथाओं, वंशक्रम, तिथिक्रम और तत्कालीन सामाजिक व सांस्कृतिक स्थिति की जानकारी को चिरस्थायी बनाये रखने हेतु अभिलेखों को उत्कीर्ण करवाया। ये अभिलेख मुख्यतः हमें गढ़, महल, हवेली, मंदिर, स्मारक धर्मशाला, बावड़ी, कुएँ-तालाब आदि स्थानों से प्राप्त हुये है, जो कि तत्कालीन समय के इतिहास को जानने के सबसे प्रमाणिक एवँ विश्वसनीय स्रोत माने जाते है। वर्तमान में कुछ शिलालेख प्रशासनिक संरक्षण के अभाव में जीण-शीर्ण अवस्था में है, जबकि कुछ शिलालेख अपनी यथास्थिति में उपलब्ध होते है। शोध से प्राप्त अनछुये अभिलेखीय साक्ष्य जयपुर रियासत के इतिहास निर्माण मेंनवीन ऊर्जा और अर्न्तदृष्टि का संचार करते है।
अध्ययन का उद्देश्य 1. मौलिक तथ्यों और प्रमाणिक शोध सामग्री के आधार पर जयपुर रियासत की सामाजिक व्यवस्था में जाति और वंश परम्परा का व्यवस्थित अध्ययन करना। 2. अभिलेखों में उल्लेखित सामाजिक सांस्कृतिक जन-जीवन का अध्ययन करते हुए उसकी सुव्यवस्थाओं का पता लगाकर वर्तमान प्रासंगिकता को स्पष्ट करना। 3. जयपुर रियासत कालीन अभिलेखों में वर्णित जाति और वंश की परम्परा का तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व की दृष्टि से विश्लेषणात्मक अध्ययन करना। 4. नवीन अनुसंधान पर आधारित ऐतिहासिक एवँ पुरा महत्व के अभिलेखों से प्राप्त जानकारी का जयपुर के इतिहास निर्माण में नवीन अर्न्तदृष्टि प्रदान करना।
साहित्यावलोकन
जयपुर रियासत के इतिहास से संबंधित प्रमाणिक ग्रंथ व लेख प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। प्रस्तुत शोध-पत्र में राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर एवं शाखा जयपुर में उपलब्ध मूल स्रोतों, प्रकाशित एवं अप्रकाशित शोध सामग्री तथा शोध यात्रा के दौरान स्वयं के द्वारा अवलोकन कर संकलित किये गये अभिलेखीय साक्ष्यों का तथ्यपूर्वक अध्ययन कर उपयोग किया गया है। शोध प्रबन्ध में निम्न उपलब्ध साहित्य का भी अवलोकन एवँ विश्लेषण किया गया है - 1. रायबहादुर मुन्शी हरदयालसिंह की कृति रिपोर्ट मरदुम शुमारी राजमारवाड़ 1891 ई.का राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर से 2018 ई. में प्रकाशित हुई है। प्रस्तुत ग्रंथ में मारवाड़ व जयपुर रियासत में तत्कालीन समय की सामाजिक व्यवस्था में अनेक जातियों और वंशो के साथ-साथ उस समय में प्रचलित रीति-रिवाजों, परम्पराओं और संस्कारों का भी उल्लेख मिलता है। 2. राजपूत जातियों का इतिहास कर्नल जेम्स टॉड द्वारा रचित पुस्तक है जिसका अनुवाद व संपादन देवीलाल पालीवाल ने किया,राजस्थानी ग्रंथगार जोधपुर से 2005 ई. में प्रकाशित है। प्रस्तुत ग्रंथ में 18वीं 19वीं शताब्दी कालीन राजस्थान की राजपूत जातियों और वंशों के इतिहास का तथ्यपूर्ण और क्रमबद्ध वर्णन प्राप्त होता है। 3. डॉ. राघवेन्द्र सिंह मनोहर की पुस्तक जयपुर क्षेत्र के ऐतिहासिक स्मारक एवँ शिलालेख जो तारा प्रकाशन जयपुर से 1994 ई. में प्रकाशित है। इस ग्रंथ में उल्लेखित शिलालेखों से तत्कालीन जयपुर रियासत की समाज व्यवस्था में प्रचलित अनेक जातियों और वंशों की न केवल जानकारी प्राप्त होती है अपितु सांस्कृतिक रीति-रिवाजों व परम्पराओं का ज्ञान भी होता है। 4. डॉ. श्यामा प्रसाद की कृति राजस्थान के अभिलेखों का सांस्कृतिक अध्ययन राजस्थानी ग्रन्थागार जोधपुर से 1986 ई. में प्रकाशित है। इस ग्रंथ में अभिलेखों पर आधारित जाति, वंशों व सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं पर प्रकाश डाला गया है।
मुख्य पाठ

राजस्थान हिस्ट्री काँग्रेस के विभिन्न प्रोसेडिंग्स, अभिलेखागारों से प्राप्त पुरालेखीय एवँ अपुरालेखीय रिकॉर्ड द्वितीयक स्रोतों एवँ अन्य अध्ययन सामग्री के आधार पर जयपुर रियासत के अभिलेखीय साक्ष्यों में उल्लेखित सामाजिक व्यवस्था में जाति और वंश परम्परा का तथ्यपरक अध्ययन किया गया है, भारतीय संस्कृति में वर्ण व्यवस्था का प्रावधान अति प्राचीन है। भारतीय समाज का ढांचा इसी वर्ण व्यवस्था पर आश्रित रहा है। जाति प्रथा का उदय बाद का है। [1] 
यद्यपि जाति प्रथा की उत्पत्ति कब हुई यह एक विवाद का विषय रहा है। परन्तु प्रायः यह समझा जाता है कि भारत में आर्यो के आगमन के उपरान्त वर्ण व्यवस्था का जन्म हुआ और कालान्तर में वर्ण व्यवस्था का स्थान जाति प्रथा ने ले लिया और अनेक उप जातियाँ बन गई। कालान्तर में जातियों का आधार जन्म एवँ वंश परम्परा बन गया। [2]
स्मृतिकारों ने वर्णों के सामाजिक कर्तव्यों पर बल दिया है न कि जन्म से प्राप्त अधिकारों एवँ विशेषाधिकारों पर। इसके विपरीत जाति व्यवस्था जन्म तथा आनुवांशिकता पर बल देती है इसमें कर्तव्यों के पालन पर जोर न देकर विशेषाधिकारों पर बल दिया गया है [3] धर्मशास्त्रों व स्मृतियों के अनुसार वेदाध्ययन करना, यज्ञ करना एवँ दान देना ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य के आवश्यक कर्तव्य थे वेदाध्ययन, यज्ञ करवाना तथा दान लेना ब्राह्मणों के, युद्ध करना एवँ जन रक्षा क्षत्रियों के तथा कृषि कर्म, पशुपालन एवँ व्यापार करना वैश्यों के विशेषाधिकार माने गये थे।[4] शुद्रों का कर्त्तव्य द्विजातियों की सेवा करना माना गया है।[5]
जयपुर रियासत से प्राप्त किसी भी शिलालेख का उद्देश्य वर्ण
धर्म का वर्णन करना नहीं था। इनमें केवल प्रशासन और दान के प्रसंग में वर्णों की चर्चा की गई है। जयपुर से लगभग ६५ कि मी. की दूरी पर स्थित नारायणा से प्राप्त संवत् 1733 (1676 ई.) के अभिलेख में राव खंगार के पौत्र भोजराज की दानशीलता का प्रमाण मिलता है।[6]
तत्कालीन समाज में ब्राह्मणों का आदर व सम्मान था। वे धर्म-कर्म, शिक्षा-दीक्षा, शासन आदि में समाज का पथ प्रदर्शन  करते थे।उनकी विद्वता, बुद्धि चातुर्य, विशुद्ध आचरण, विशाल हृदय और जन व्यवहार कुशलता आदि गुणों से अन्य सभी वर्ग प्रभावित थे।[7] तत्कालीन ब्राह्मणों की श्रेष्ठता की समाज में मान्यता की पुष्टिसमकालीन विदेशी यात्रियों द्वारा भी होती है। अरबयात्री अलमसूदी 10वीं शताब्दीं में भारत आया। उसने ब्राह्मणों को सभी जातियों में श्रेष्ठ बतलाया है।[8] अल्बरूनी ने भी भारतीय समाज में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता मानी है।वह लिखता है कि ब्राह्मण अन्य जातियों की भांति राजा की सेवा करने के लिए बाध्य नहीं थे[9] राजपूतों के सामाजिक एवँ सांस्कृतिक आदर्श अन्य हिन्दुओं सेभिन्न नहीं है, परन्तु हमारे अध्ययन कालीन जयपुर रियासत से प्राप्त अनेक अभिलेखीय साक्ष्यों से तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के अन्तर्गत विभिन्न जातियों और वंशो की परम्परा को स्पष्ट करने का उल्लेख किया गया हैजो हमें समकालीन सामाजिक व्यवस्था के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करने में सहायक है। जिसको निम्न प्रकार से समझा जा सकता है:-
महाजन
चौमूँ (जयपुर) स्थित सीताराम जी के मंदिर के शिलालेख [10] संवत् 1803 (1746 ई.) से हमें महाजन वर्ग का उल्लेख मिलता है। जिससे हमें तत्कालीन समाज में महाजन वर्ग के वर्चस्व की जानकारी मिलती है। साथ ही शासक वर्ग में महाजनों की विशिष्ट स्थिति का बोध भी होता है।
चारण
चौमूँ के समीप मोरीजा स्थित सीताराम जी के मंदिर स्थित शिलालेख[11] संवत् 1830-35 (1773-1779 ई.) में चारण जाति की महिमा का बखान किया गया है।उस समय में चारण- भाटों को राजा महाराजाओं के दरबार में आश्रय प्राप्त था और ये जातियाँ तत्कालीन शासकों की यशोगाथाओं और उपलब्धियों का गुणगान किया करती थी। ऐसा प्रतीत  होता है कि चारण जाति इस समय की महत्वपूर्ण जातियों में से एक थी। 
कारीगर
जयपुर के काणोता के समीप स्थित सांभरिया में सीताराम जी के मंदिर के शिलालेख[12] संवत् 1792 (1735 ई.), जयपुर के समीप स्थित जमवारामगढ़ में प्राचीन गणेश जी के मंदिर के शिलालेख संवत् 1819 (1762 ई.), बस्सी के समीप तूँगा स्थित सूरजमल शेखावत की छतरी के शिलालेख[13] संवत् 1886 (1829 ई.), सिकन्दरा के समीप  स्थित गीजगढ़में छतरी वाले शिव मंदिर का लेख संवत् 1952 (1895 ई.), करौली के गंगापुर सिटी सिकन्दरा मार्ग पर स्थित शहर (करौली) कस्बे में ही ठाकुर गुमान सिंह के स्मारक शिलालेख [14] संवत् 1891 (1834 ई.), दूदू स्थित गढ़ के प्रवेश द्वार पर उत्कीर्ण शिलालेख संवत् 1938 (1881 ई.) और जयपुर फुलेरा मार्ग पर स्थित हिरनोदा में ठाकुर गुमान सिंह जुझार शिलालेख संवत् 1843 (1786 ई.) से हमें कारीगर नामक जाति की जानकारी मिलती है जिससे यह स्वतः ही प्रमाणित हो जाता है कि तत्कालीन सामाजिक एवँ सांस्कृतिक जीवन में कारीगर जाति का विशेष महत्वपूर्ण स्थान था। 
पुजारी (ब्राह्मण)
जयपुर दौसा राजमार्ग पर बस्सी के समीप स्थित बाँसखो में बिहारी जी के मंदिर के शिलालेख [15] संवत् 1937 (1880 ई.) और बाँसखो के निकट की झिर बावड़ी के प्रवेश द्वार के  शिलालेख संवत् 1769 (1712 ई.) से हमें पुजारी (ब्राह्मण) जाति का उल्लेख मिलता है, साथ ही तत्कालीन समाज में पुजारी या ब्राह्मणों का आदरणीय और पूजनीय स्थान प्राप्त होने की जानकारी भी मिलती है।
मुसलमान
दौसाशहर में स्थित नरसिंह जी के मंदिर के बाहर उत्कीर्ण महाराजा सवाई जयसिंह के शिलालेख [16] संवत् 1876 (1819 ई.) से और पूर्व में उल्लेखित प्राचीन कस्बे बाँसखों के समीप स्थित लवाण में तालाब के शिलालेख से मुसलमान जाति का उल्लेख मिलता है।
नाई
पूर्व में वर्णित बाँसखो के निकट ही झिर बावड़ी के प्रवेश द्वार के शिलालेख [17] संवत् 1769 (1712 ई.) से हमें नाई जाति को तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में उचित स्थान प्राप्त होने के साक्ष्य मिले है।
सिलावट
जयपुर के समीप स्थित जमवारामगढ़ में प्राचीन गणेश जी के मंदिर के शिलालेख [18] संवत् 1819 (1762 ई.) और जयपुर-फुलेरा मार्ग पर स्थित हिरणोदा के सती शिलालेख संवत् 1770 (1713 ई.) से सिलावट जाति का उल्लेख भी मिलता है।
राजपूत
सातवीं शताब्दी के मध्य से बारहवीं शताब्दी के मध्य एक नवीन जाति का उदय हुआ जो 'राजपूत' नाम से प्रसिद्ध हुई प्राचीन क्षत्रियों की भाँति देश के वर्णाश्रम धर्म तथा हिन्दू संस्कृति की रक्षा करना उन्होनें अपना कर्तव्य समझा।
"ललित विग्रहराज" के अनुसार राजपूतों का मित्र राजाओं, ब्राह्मणों, देवस्थानों और तीर्थ-स्थलों की तुर्को से रक्षा करना विशेष  कर्तव्य था [19] यद्यपि कर्त्तव्य की दृष्टि से वह जाति क्षत्रिय ही थी परन्तु इसे प्राचीन क्षत्रियों की सन्तान मान लेना उचित नहीं होगा। राजपूत जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक मत प्रचलित है। [20]
सत्रहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी कालीन जयपुर रियासत में उपरोक्त जातियों के अतिरिक्त राजपूत जाति,घरानों और उनकी अनेक शाखाओं की जानकारी प्राप्त होती है।इन राजपूत वंशों में एक से बढ़कर एक यशस्वी और पराक्रमी शासकों का समय- हुआ जिन्होनें अपनी विजय पताकाओं का परचम लहराते हुए नवीन आयाम स्थापित किये।[21] ये शासक सामरिक उपलब्धियों के साथ समय समय पर अवतरण साथ कला साहित्य और जन कल्याण व परोपाकारार्थ सदैव समर्पित रहे इन राजपूत घरानों में कछवाहा वंश व इसकी शाखाओं बलभद्रोत, नाथावत, कुम्भावत, शिव ब्रम्हपोता, पच्चाणोत कुम्भाणी, धीरावत, खंगारोत, शेखावत राजावत, चाँपावत, गोगावत, सोलंकी वंशराठौड़ वंश आदि सम्मिलित है। [22]

निष्कर्ष अध्ययन कालीन रियासत में समाज में अनेक जातियों यथा महाजन, चारण, ब्राह्मण, मुसलमान, नाई, कारीगर, सिलावट और राजपूत का अभिलेखीय साक्ष्यों में उल्लेख मिलता हैजो कि इतिहास निर्माण में सहायक है। जयपुर रियासत के इन अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि तत्कालीन समाज व्यवस्था में जाति और वंश परम्परा का महत्वपूर्ण योगदान था। उस समय का सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन धार्मिक सहिष्णुता पर आधारित था। सभी सम्प्रदायों के व्यक्तियों को राजदरबार में समान प्रश्रय प्राप्त था। समाज में सामाजिक समरसता की भावना विद्यमान थी। सभी जाति व सम्प्रदायों के लोग आपस में मिल-जुल कर रहते थे। अतः साम्प्रदायिक सौहार्द की भावना व्याप्त थी जो कि जयपुर रियासतकालीन शासकों के लिए किसी विशिष्ट उपलब्धि से कम नहीं थी।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. श्रीमद्भगवतगीता अध्याय 18, श्लोक 41। 2. सिंह, रायबहादुर मुन्शी हरदयाल, रिपोर्ट मरदुमशुमारी राजमारवाड़ 1891 , पृ. 21 । 3. काणे, पी.वी., धर्मशास्त्र का इतिहास , भाग 1, पृ. 2। 4. गौतम 10/1-3, द. वशिष्ठ 2/13-19, मनु 1/88-90 । 5. आपस्तम्ब 1/1/1/7-8 । 6. मनोहर, राघवेन्द्र सिंह, खंगारोत कछवाहों का इतिहास , पृ.61। 7. वशिष्ट 1/10/41 । 8. हिस्ट्री ऑफ इण्डिया एज टोल्ड बाई इट्स ऑन हिस्टोरियन्स, अनुवाद इलियट एण्ड डाउसन, भाग 1 , पृ. 19 । 9. साउच, अल्बरूनीज इण्डिया, भाग 1 , पृ. 101 , भाग 2 , पृ. 149 । 10. चौमँू (जयपुर) स्थित सीताराम जी के मंदिर का शिलालेख, संवत् 1803 (1746 ई.)। 11. मोरीजा (जयपुर) स्थित सीताराम जी के मंदिर का शिलालेख, संवत् 1830-35 (1773-1778 ई.) । 12. सांभरिया (जयपुर) स्थित सीताराम जी के मंदिर का शिलालेख संवत् 1792 (1735 ई.) । 13. तूँगा (जयपुर) स्थित सूरजमल शेखावत का स्मारक-शिलालेख, संवत् 1886 (1829 ई.)। 14. शहर (करौली) स्थित ठाकुर गुमान सिंह का स्मारक-शिलालेख, संवत् 1891 (1834 ई.) । 15. बाँसखों (जयपुर) स्थित बिहारी जी के मंदिर का शिलालेख, संवत् 1937 (1880 ई.)। 16. दौसा स्थित नरसिंह जी के मंदिर के बाहर उत्कीर्ण महाराजा सवाई जयसिंह का शिलालेख संवत् 1876 (1819 ई.) । 17. झिर (बाँसखों ) स्थित बावड़ी के प्रवेश द्वार का शिलालेख, संवत् 1769 (1712 ई.)। 18. जमवारामगढ़ (जयपुर) स्थित गणेश मंदिर का शिलालेख, संवत् 1819 (1762 ई.)। 19. इण्डियन एण्टिक्वेरी, भाग 20 , पृ. 210 । 20. औझा, गौरीशंकर हीराचन्द , राजपूतानें का इतिहास, भाग 1, पृ. 41-76 । 21. प्रसाद , डॉ. श्यामा , राजस्थान के अभिलेखों का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 78 । 22. मनोहर , डॉ. राघवेन्द्र सिंह , जयपुर क्षेत्र के ऐतिहासिक स्मारक एवँ शिलालेख, पृ.1, 4, 7, 9 आदि।