P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- IX , ISSUE- VI February  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
दीनदयाल उपाध्याय के राजनीतिक विचारोँ की वर्तमान समय में प्रासंगिकता- एक विश्लेषण
Relevance of Deendayal Upadhyays Political Thoughts in Present Time - An Analysis
Paper Id :  15715   Submission Date :  10/02/2022   Acceptance Date :  15/02/2022   Publication Date :  25/02/2022
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सुरेन्द्र सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर
राजनीति शास्त्र विभाग
आर.के.एस.डी. (पी.जी.) कॉलेज
कैथल, ,हरियाणा,
भारत
सारांश भारतीय राजनीतिक चितंन में दीनदयाल उपाध्याय ने जनसंघ के संगठन और विचारधारा को आकार देने में जैसी भूमिका निभाई वह अविस्मरणीय है। यह तर्क दिया जा सकता है कि भारतीय राजनीति में उपाध्याय का योगदान मुख्य रूप से पार्टी निर्माण के क्षेत्र में था। इसमें कोई अतिश्योक्ति भी नहीं है, क्योंकि उन्होंने लगभग पंद्रह वर्षों तक पार्टी सचिव के रूप में काम किया और उन्होंने जनसंघ को एक महत्वपूर्ण राजनीतिक ताकत मंय बदलने हेतु अपने संगठनात्मक कौशल का परिचय दिया। वह निश्चित रूप से राजनीतिक मुद्दों में गहरी रुचि रखने वाले व्यक्ति थे और उन्होंने भारतीय राजनीतिक चिंतन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। दीनदयाल उपाध्याय के राजनीतिक एवं सामाजिक चितंन की मूल अवधारणा के साथ एकात्म मानववाद का विचार जुड़ा हुआ है। उन्होंने अप्रैल 1965 में पूना में दिए गए चार व्याख्यानों में इसे व्यवस्थित उपचार दिया है। इस मामले पर उनकी सोच के तत्वों को जनसंघ के सामने चर्चा के लिए पहले ही प्रस्तुत किया जा चुका था और उन्हें अपनाया गया था। उपाध्याय ने दिसंबर 1967 में कालीकट में जनसंघ के चौदहवें वार्षिक सत्र में अपने अध्यक्षीय भाषण में व्यावहारिक राजनीति में एकात्म मानववाद को लागू करने के लिए व्यवस्थित कदम उठाया। किंतु दो महीने बाद उनकी असामयिक मृत्यु ने इन बुनियादी सिद्धांतों पर विस्तार से चर्चा के लिए आगे के प्रयासों को कम कर दिया। पार्टी में जिन लोगों को उनकी विचारधारा विरासत के रूप में मिली, उन्होंने इस संबंध में उनके प्रयासों को जारी रखा। नतीजतन, यह विचारधारा राजनीतिक समीक्षा करने के लिए एक उपयोगी शस्त्र साबित हुई। राजनीतिक दार्शनिक का कार्य यह स्पष्ट करना है कि मनुष्य का स्वभाव वास्तव में कैसा है? इस आधार पर एक अच्छी राजनीतिक व्यवस्था की शर्तों को परिभाषित किया जा सकता है। उपाध्याय ने एकात्म मानववाद पर अपने पूना व्याख्यान में यह कार्य स्वयं के लिए निर्धारित किया था, जो आगे चलकर मनुष्य-मात्र के लिए अनुकरणीय बन गया। समाज में मनुष्य की भूमिका का निर्धारण करते हुए कहा था- "भारत में समकालीन राजनीति मनुष्य की समझ और समाज में उसकी भूमिका पर आधारित थी। स्वतंत्रता के बाद के भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने अच्छे समाज की पश्चिमी धारणाओं को भारतीय परिस्थितियों में लागू करने का प्रयास किया था, किन्तु उसके परिणाम असंतोषजनक थे। आर्थिक विकास धीमा था, बेरोजगारी और शोषण बढ़ गया था, राष्ट्रीय एकीकरण कमजोर हो गया था, और सांस्कृतिक प्रगति धीमी थी"। इसके अलावा, उनका मानना था कि पश्चिमी सामाजिक, राजनीतिक विचार के प्रमुख स्कूल पश्चिम में ही मानवीय स्थिति को मौलिक रूप से सुधारने में विफल रहे हैं। राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और समाजवाद, उनकी राय में, कई भारतीयों द्वारा अनजाने में स्वीकार किए गए थे। इन्होंने अच्छे जीवन के लिए मानवीय खोज को केवल आंशिक समाधान ही प्रदान किये हैं और राष्ट्रवाद ने विश्व शांति के लिए खतरा ही पैदा कर दिया। जब लोकतंत्र को पूंजीवाद से जोड़ा गया, तो उसने शोषण को शासन के साथ जोड़ दिया। समाजवाद, लोकतंत्र-पूंजीवाद से जुड़ी अवधारणा की प्रतिक्रिया ने व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता को लूट लिया। इन राजनीतिक अवधारणाओं में से प्रत्येक पर बल देते हुए उन्होंने कहा था, कि इन अवधारणाओं ने भौतिक अधिग्रहण को बढ़ा दिया। इस तरह लालच, वर्ग विरोध, शोषण और सामाजिक अराजकता को प्रेरित किया। यदि ऐसा है, तो भारत के लिए उपयुक्त मार्गदर्शक राजनीतिक सिद्धांत कौन से हैं? प्रस्तुत शोध-पत्र दीनदयाल उपाध्याय के विचारों की वर्तमान समय में क्या प्रांसगिता है विषय को लेकर लिखा गया है। सूचना, संचार एवं प्रौद्योगिकी के कारण बदलते परिवेश में क्या उनका दर्शन आज भी प्रासंगिक है? ये ऐसे ज्वलंत प्रश्न है जिन्हें इस शोध-पत्र में उठाया गया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The role played by Deendayal Upadhyay in shaping the organization and ideology of Jana Sangh in Indian political thought is unforgettable. It can be argued that Upadhyay's contribution to Indian politics was mainly in the field of party building. It is no exaggeration either, as he worked as the party secretary for almost fifteen years and he showed his organizational skills to transform the Jana Sangh into an important political force. He was certainly a man of keen interest in political issues and made a significant contribution to Indian political thought. The idea of ​​Integral Humanism is associated with the basic concept of political and social thought of Deendayal Upadhyay. He has given it a systematic treatment in four lectures he gave in Poona in April 1965. Elements of his thinking on the matter had already been presented to the Jana Sangh for discussion and were adopted. Upadhyay, in his presidential speech at the fourteenth annual session of the Jana Sangh at Calicut in December 1967, took systematic steps to introduce Integral Humanism into practical politics. But his untimely death two months later cut short further efforts to discuss these basic principles in detail. The people in the party who inherited his ideology continued his efforts in this regard. As a result, this ideology proved to be a useful tool for conducting political review. The task of a political philosopher is to explain what the nature of man really is. On this basis the conditions of a good political system can be defined. Upadhyay, in his Poona lecture on Integral Humanism, had set this task for himself, which later became exemplary for all human beings. Determining the role of man in society, he said- “Contemporary politics in India was based on the understanding of man and his role in society. The political leadership of post-independence India sought to apply the western notions of good society to Indian conditions. but the results were unsatisfactory. Economic growth was slow, unemployment and exploitation increased, national integration weakened, and cultural progress was slow". Furthermore, he believed that the dominant schools of Western socio-political thought had failed to radically improve the human condition in the West itself. Nationalism, democracy and socialism, in his opinion, were accepted unconsciously by many Indians. They have provided only partial solutions to the human quest for the good life and nationalism has only posed a threat to world peace. When democracy was linked with capitalism, it combined exploitation with governance. Socialism, a reaction to the concept associated with democracy-capitalism, robbed the dignity and freedom of the individual. Emphasizing each of these political concepts, he said that these concepts increased material acquisition. It thus inspired greed, class antagonism, exploitation and social anarchy. If so, what are the appropriate guiding political principles for India? The present research paper has been written about the relevance of the thoughts of Deendayal Upadhyay in the present times. Is his philosophy still relevant today in the changing environment due to information, communication and technology? These are burning questions that have been raised in this research paper.
मुख्य शब्द जनसंघ, एकात्म, मानववाद, लोकतांत्रिक, अंत्योदय, समाजवाद, अखंड, भारत, राष्ट्रवाद, राजनीतिक, आर्थिक।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Jana, Sangh, Integral, Humanism, Democratic, Antyodaya, Socialism, Akhand, Bharat, Nationalism, Political, Economic.
प्रस्तावना
दीनदयाल उपाध्याय एक महान राजनीतिज्ञ और सामाजिक चिंतक थे, जिसने भारत के विकास और सुशासन हेतु भारतीय प्रतिरुप प्रदान किया। अंधाधुंध पाश्चात्य व्यवस्था का प्रयोग न तो उचित है और न ही व्यवहारिक, क्योंकि प्रत्येक देश की सभ्यता, संस्कृति और प्रशासनिक ढांचे में अंतर पाया जाता है।
अध्ययन का उद्देश्य इस अध्ययन के निम्न उद्देश्य हैं; 1. दीनदयाल उपाध्याय के राजनीतिक विचारों का अध्ययन करना। 2. वर्तमान समय में उनके विचारों की उपयोगिता का विश्लेषण करना। 3. वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में उपाध्याय के सामाजिक, आर्थिक चिंतन पर प्रकाश डालना। 4. उपाध्याय के राष्ट्र, राष्ट्रवाद, लोकतंत्र तथा समाजवादी चिंतन पर प्रकाश डालना।
साहित्यावलोकन
पंडित उपाध्याय अपने समय के सबसे कम प्रसिद्धि वाले भारतीय राजनेताओं में से एक हैं जिन पर ओर अधिक अध्ययन किए जाने की जरूरत है। वह ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने राजनीति में एक व्यवहारिक विकल्प प्रदान करने का प्रयास किया। नई पीढ़ी उस विकल्प की प्रतीक्षा कर रही थी जिसके लिए दीनदयाल उपाध्याय ने जमीन तैयार की। उनके दर्शन के निशान इस देश के सांस्कृतिक लोकाचार में पाए जा सकते हैं जो हजारों साल पुराने हैं। उन्होंने न केवल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा के लिए एक कैडर तैयार किया बल्कि अपने द्वारा प्रतिपादित आदर्शों को साकार करने के लिए संगठन का एक मजबूत आधार भी दिया। समाज के वंचित वर्गों को सशक्त बनाने और सभी के लिए सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए दीनदयाल उपाध्याय के विचारों का अध्ययन करना अधिक अनिवार्य हो जाता है। अतः वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में उपाध्याय के विचारों का अवलोकन विद्वानों ने निम्न रुप में किया है। सी. एम. दुबे ने अपने अध्ययन में उपाध्याय को भारत रत्न के रुप में परिभाषित किया है। उसने प्रतिपादित किया कि दीन दयाल उपाध्याय एक महान भारतीय दार्शनिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, इतिहासकार, पत्रकार और राजनीतिक वैज्ञानिक थे तथा वह भारतीय जनसंघ के सबसे महत्वपूर्ण नेताओं में से एक थे। दीनदयाल उपाध्याय को उनके विचार एकात्म मानववाद के रूप में रुप में ज्यादा जाता है। यह वह अवधारणा है जो भारतीय जन मानस में गहराई से अंतर्निहित है। एकात्म मानवतावाद का दर्शन प्रत्येक मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा सभी के एक साथ ओर एकीकृत कार्यक्रम की वकालत करता है। राजकुमार भारद्वाज ने अपनी सम्पादित पुस्तक में बताया कि उपाध्याय जी ने भारतीय राजनीतिक चिंतन और दर्शन को एक नई दिशा दी है। मनोज के सिंह ने उपाध्याय के राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन पर प्रकाश डालते हुए सार्वजनिक जीवन में उसके योगदान का विश्लेषण किया है। शिव शक्ति नाथ बख्शी ने अपनी रचना के माध्यम से स्पष्ट किया कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय के आदर्शों और मूल्यों के प्रचार और अभ्यास के कारण ही भारतीय जनसंघ का विकास हुआ और बाद में भाजपा का जन्म हुआ। इस पुस्तक में यह अच्छी तरह से बताया गया है कि कैसे उसने आरएसएस के तरीकों से पूरी तरह तालमेल बिठाते हुए, अपना जीवन संघ के माध्यम से राष्ट्र की सेवा के लिए समर्पित कर दिया। यह पुस्तक न केवल उन प्राथमिक नेताओं में से एक के रूप में उनकी यात्रा का पता लगाती है, जिन्होंने देश में राष्ट्रीयता की भावना पैदा की, बल्कि राज्य द्वारा शोषण की निंदा करने वाले व्यक्ति के रूप में भी। इसके माध्यम से उसके योगदान, व्यक्तित्व और सिद्धांतों की समझ सामान्य पाठकों तक पहुँचाने का एक प्रयास लेखक द्वारा किया गया है।
मुख्य पाठ

उपाध्याय ने प्रस्तावित किया कि भारतीय विचार समाधान में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। वास्तव में, उन्होंने तर्क दिया कि भारत सहित प्रत्येक राष्ट्र का एक अनूठा राष्ट्रीय आदर्श था, जिसे उसके भौतिक वातावरण और उसके सामूहिक अनुभव द्वारा आकार प्रदान किया गया था, जो उसके राजनीतिक और सामाजिक जीवन के आदर्श को सूचित करता है। तत्पश्चात एक दार्शनिक का कार्य इस राष्ट्रीय आदर्श को प्रतिपादित करना है और राजनीतिज्ञ का कर्तव्य, उचित रूप से मानना है, अपने समय के लिए आदर्श को लागू करने के तरीकों पर काम करना है। भारतीय सामाजिक विचार का केंद्रीय राजनीतिक प्रश्न और यह अधिकांश सामाजिक विचारों के लिए सच है कि प्राकृतिक न्याय क्या है? उपाध्याय का तर्क है कि मनुष्य स्वाभाविक रूप से एक सामाजिक प्राणी है जो शरीर की जरूरतों भूख, आश्रय, इच्छाएँ, आदि को पूरा करने के लिए सामूहिक रूप से प्रयास करता है। धर्म, ठीक से समझे जाने वाले, वे नियम हैं जो मनुष्य को इन जरूरतों को पूरा करने और सद्भाव से रहने के लिए सक्षम बनाते हैं। वास्तव में सामाजिक समरसता के बिना मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति असंभव है। इस प्रकार एक अच्छा समाज वह है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति या समूह राष्ट्र की भलाई को बनाए रखने के लिए कार्य करता है। न्याय में प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुकूल सामाजिक रूप से उपयोगी कार्य करता है। दूसरे, उनका प्रस्ताव है कि प्रत्येक राष्ट्रीय इकाई की अपनी पहचान है तथा राष्ट्रीय संस्कृति - जो एक विशिष्ट भौगोलिक स्थान के भीतर लोगों के एक साथ लंबे जुड़ाव से विकसित हुई है।

ऐतिहासिक रूप से राष्ट्र से जुड़े भौगोलिक क्षेत्र के भीतर लोगों की प्राकृतिक इच्छा राजनीतिक रूप से एकजुट होने की है। प्रत्येक राष्ट्र मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने स्वयं के संस्थान बनाता है। संपत्ति, संघ, धार्मिक संप्रदाय, उत्पादन के साधन, यहां तक कि राज्य भी केवल राष्ट्र के उपकरण हैं और इस प्रकार राष्ट्र द्वारा बदला जा सकता है क्योंकि यह पर्यावरण में परिवर्तन के प्रति प्रतिक्रिया करता है। यह बहुत महत्वपूर्ण बात है, क्योंकि इसका मतलब है कि एक विशेष राजनीतिक व्यवस्था या संस्था व्युत्पन्न है - वे स्वाभाविक नहीं हैं। उपाध्याय के विचार में, राज्य एक प्रकार के सामाजिक अनुबंध द्वारा अस्तित्व में आता है जिसका उपयोग राष्ट्र अपनी रक्षा और बुनियादी मानवीय जरूरतों को पूरा करने के लिए करता है। यदि सरकार का एक विशेष रूप उन लक्ष्यों को पर्याप्त रूप से पूरा करने में विफल रहता है, तो राष्ट्र को सरकार का एक नया रूप अपनाने का अधिकार है। यही बात किसी अन्य संस्थान पर भी लागू होती है। मूल प्रवृत्तियों के लिए साम्यवाद और पूंजीवाद नाजायज हैं, क्योंकि ये दोनों मनुष्य की आधारभूत प्रवृत्ति को आकर्षित करके सामाजिक संघर्ष को प्रोत्साहित करते हैं। इसी तरह, वर्तमान जाति व्यवस्था एक त्रुटिपूर्ण संस्था है क्योंकि यह सामाजिक तनाव को बढ़ावा देती है, भले ही यह पहले के युग में मान्य हो, जब स्थितियां अलग थीं। उनका तर्क है कि वर्तमान आर्थिक प्रणाली, जो आय में व्यापक असमानता और उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण की अनुमति देती है, अप्राकृतिक है, क्योंकि इसके परिणामस्वरूप शोषण, शारीरिक पीड़ा होती है जो देश को एक साथ जोड़ने अर्थात भाईचारे के बंधन को कमजोर करता है। सामाजिक सौहार्द के लिए जनसंघ ने प्रस्तावित किया कि अधिकतम आय न्यूनतम से दस गुना अधिक नहीं होनी चाहिए। उपाध्याय राजनीतिक शक्ति और आर्थिक व्यवस्था के विकेंद्रीकरण के पक्षधर थे। इसी मकसद ने उन्होंने उत्पादन के साधनों पर श्रमिकों के नियंत्रण का समर्थन करने के लिए प्रेरित किया। वो छोटे पैमाने के उद्यमों के व्यक्तिगत स्वामित्व तथा बड़े जटिल उद्योगों के सहकारी स्वामित्व के पक्षधर थे। किसी तरह के लोकलुभावन मकसद को उनकी मातृभाषा में शिक्षा के लिए उनके आह्वान में पहचाना जा सकता है। उनके विचार में, अंग्रेजी शिक्षा ने वर्ग भेद पैदा करने का प्रयास किया, जिसने समुदाय की भावना को कमजोर कर दिया।

दीनदयाल उपाध्याय एक सफल आयोजक, कुशल राजनीतिज्ञ, राष्ट्र सेवा में समर्पित धनी व्यक्तित्व थे, और भी बहुत कुछ। युवावस्था में पढ़ाई के दौरान ही वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) में शामिल हो गए और बाद में पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में काम किया। दो संगठनों के बीच एक परंपरा और सामंजस्य बनने के लिए, उपाध्याय को भारतीय जन संघ (बीजेएस) का दायित्व दिया गया था। जब डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने आरएसएस नेतृत्व के साथ परामर्श के बाद पार्टी की स्थापना की थी तब उन्हें पार्टी का महासचिव बनाया गया। 1951 में डॉ. एस. पी. मुखर्जी बीजेएस के अध्यक्ष बने, लेकिन दो साल बाद रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु होने के कारण अगले 16 वर्षों तक, दीनदयाल उपाध्याय ने पार्टी को उसका प्रतिष्ठित राष्ट्रीय कद, वैचारिक जड़ें और सार्वजनिक मंच प्रदान करने का अथक प्रयास किया। 1967 में वे बीजेएस के अध्यक्ष बने लेकिन कुछ महीनों बाद उनका निधन हो गया। उनका पार्थिव शरीर 11 फरवरी, 1968 को वाराणसी के पास मुगल सराय (अब दीनदयाल नगर) के एक मंच पर पाया गया था। पंडित उपाध्याय ने अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख और कई अन्य नेताओं को तैयार किया, जिन्होंने बीजेएस और बाद में भारतीय जनता पार्टी को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा तब परवान चढ़ी, जब उपाध्याय जी के करीबी सहयोगी और विश्वासपात्र अटल बिहारी वाजपेयी 1996 में देश के प्रधान मंत्री बने और वे इस पद को संभालने वाले भारत के पहले गैर-कांग्रेसी नेता थे। पंडित उपाध्याय एक चतुर राजनीतिक रणनीतिकार थे, जिन्होंने गठबंधन की राजनीति के महत्व को महसूस किया, जिसे आने वाले दशकों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी थी। राम मनोहर लोहिया, चरण सिंह और अन्य के साथ, उन्होंने पहले 1963 में और बाद में 1967 में कांग्रेस के खिलाफ गठबंधन किया, जिसके परिणामस्वरूप नौ राज्यों से कांग्रेस की सरकारों का पतन हुआ। यह भारतीय राजनीतिक इतिहास में एक मील का पत्थर था क्योंकि इसने राजनीतिक प्रचलन में बहुलता के लिए जगह बनाई और इस विश्वास को तोड़ दिया कि कांग्रेस अजेय थी। सन् 1977 में, गैर-कांग्रेसी विकल्प के उनके सपने ने आकार लिया, जब मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी ने केंद्र में सरकार बनाई। पंडित दीनदयाल उपाध्याय उन असाधारण व्यक्तित्वों में से एक थे जिन्होंने आधुनिक भारतीय राजनीति को मानवता की जैविक नींव पर खड़े होने के लिए प्रेरित किया। उपाध्याय की महानता को उनके अनुयायियों और विरोधियों ने उनकी मृत्यु के बाद भी समान रूप से सराहा। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता नाथ पई ने उन्हें तिलक, गांधी और सुभाष की परंपरा की एक कड़ी बताया। भाकपा नेता हिरेन मुखर्जी ने उन्हें 'अजात शत्रु' (किसी का दुश्मन नहीं) और आचार्य कृपलानी ने उन्हें 'दैव संपदा' (दिव्य संपदा) कहा। लेकिन विडंबना यह है कि दीनदयाल उपाध्याय को अभी तक भारत के बौद्धिक और राजनीतिक इतिहास में उचित स्थान नहीं मिला है, जिसका वह वास्तव में हकदार था।

1. राजनीतिक दर्शन संबंधी विचार 

पंडित उपाध्याय बीसवीं सदी के महान विचारक और राजनेता थे जिन्होंने भारतीय राजनीति क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने का प्रयास किया। एक महानायक की भांति भारत की सभ्यता, संस्कृति और परम्परा को सहजने का अतुल्य प्रयास किया। वह भारत की प्रकृति और परंपरा के अनुरूप एक राजनीतिक दर्शन विकसित करना चाहते थे, जो भारत की सर्वांगीण प्रगति सुनिश्चित कर सके। उन्होंने 'एकात्म मानववाद' के राजनीतिक दर्शन को प्रतिपादित किया जो भारतीय जन संघ और बाद में भाजपा के प्रत्येक कार्यकर्ता के लिए आधारशिला बन गया। अमेरिकी सामाजिक वैज्ञानिक नॉर्मन पामर ने उनके बारे में कहा, "भारत में प्रभावशाली रूप से बड़ी संख्या में राजनीतिक नेता रहे हैं, जिनके पास राजनीतिक दार्शनिक कहे जाने के कुछ दावे भी हैं। दीनदयाल उपाध्याय इस समूह से संबंधित हैं। एक राजनीतिक विचारक और दीनदयाल की क्षमता के नेता उपाध्याय केवल एक आंदोलन, पार्टी या राष्ट्र के नहीं हैं, बल्कि विचार और अनुभव की व्यापक दुनिया से संबंधित हैं।" अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक वाल्टर एंडरसन ने संयुक्त राज्य अमेरिका में दीनदयाल की दशवीं पुण्यतिथि पर एक संगोष्ठी में यह कहा था, "राजनीतिक दार्शनिक का कार्य यह स्पष्ट करना है कि मनुष्य का स्वभाव वास्तव में क्या है और इस आधार पर एक अच्छे की स्थितियों को परिभाषित करना है। राजनीतिक व्यवस्था में एकात्म मानववाद पर अपने पुणे व्याख्यान में उपाध्याय ने यह कार्य स्वयं के लिए निर्धारित किया था।"

भारतीय राजनीति को भारत की संस्कृति और जीवन दर्शन से अलग करके नहीं देखा जा सकता। भारतीय संस्कृति एकीकरणवादी है। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में और जीवन के विभिन्न पहलुओं में सतही मतभेदों को स्वीकार करने के बावजूद यह उनकी आंतरिक एकता की तलाश करता है। समाजवाद और लोकतंत्र दोनों वर्ग-संघर्ष के परिणाम हैं। यद्यपि दोनों का उद्देश्य इस संघर्ष को समाप्त करना और एकता स्थापित करना है, जिस तरह से उन्होंने इस उद्देश्य के लिए अपनाया है, उसने केवल इन वर्गों का रूप बदला है, उन्हें समाप्त नहीं किया है और इसलिए यह संघर्ष और भी तीव्र हो गया है। लोकतंत्र ने माना कि राजा और प्रजा के बीच का संघर्ष शाश्वत है और इसलिए इसने राजा को समाप्त कर दिया। लेकिन लोगों के विभिन्न वर्गों के बीच संघर्ष को लोकतंत्र ने स्थायी रूप से स्वीकार कर लिया है। समाजवाद ने धनवानों और अपाहिजों के बीच के संघर्ष को अपना आधार बनाया। वर्ग बदल गए लेकिन संघर्ष समाप्त नहीं हुआ, क्योंकि पश्चिम के विचार की सभी प्रणालियां डार्विन के सबसे 'योग्य के अस्तित्व के सिद्धांत' से निकलती हैं। संसार संघर्ष के कारण नहीं बल्कि समन्वय और सहयोग से चलता है। संसार 'पुरुष' और 'प्रकृति' के बीच संघर्ष के कारण नहीं बल्कि उनकी अन्योन्याश्रयता के कारण निर्मित और जारी है। इसलिए सभी कार्यों पर चर्चा और विश्लेषण वर्ग संघर्ष और वर्ग विरोध के आधार पर नहीं बल्कि अन्योन्याश्रयता, पूरकता और आपसी सहयोग के आधार पर किया जाना चाहिए। यदि आप एक लोकतांत्रिक हैं तो किसी और के द्वारा नहीं बल्कि अपनी अंतरात्मा के द्वारा निर्देशित किया जाए। जनता के लिए खड़े होने वाले राजनीतिक दल भी जनता के बल पर खड़े होते हैं। अगर लोग चाहते हैं कि कोई उन्हें झुकाए नहीं तो लोगों को उन्हें अपनी ताकत देनी चाहिए। यह लोग ही हैं जो राजनीतिक दलों के निर्माता हैं, और उनके माध्यम से उनके राजनीतिक भाग्य का निर्माण करते हैं। एक अच्छी पार्टी कौन सी है? स्पष्ट रूप से वह जो केवल व्यक्तियों का एक संग्रह नहीं है, बल्कि एक विशिष्ट उद्देश्यपूर्ण अस्तित्व वाला एक निकाय है जो सत्ता पर कब्जा करने की अपनी इच्छा से अलग है। ऐसी पार्टी के सदस्यों के लिए राजनीतिक सत्ता एक साधन नहीं होनी चाहिए। पार्टी के रैंक और फाइल में एक कारण के प्रति समर्पण होना चाहिए। भक्ति समर्पण और अनुशासन की ओर ले जाती है। एक पार्टी के लिए अनुशासन वही है जो एक समाज के लिए धर्म है। राजनीतिक दलों के लिए दर्शन विभिन्न राजनीतिक दलों को अपने लिए एक दर्शन विकसित करने का प्रयास करना चाहिए। उन्हें कुछ स्वार्थी उद्देश्यों के लिए एक साथ जुड़े व्यक्तियों का समूह मात्र बनने दें। यह एक वाणिज्यिक उपक्रम से कुछ अलग होना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि दल के दर्शन को दल के घोषणापत्र के पन्नों तक ही सीमित रखा जाए। सदस्यों को इसे समझना चाहिए और इसे अमल में लाने के लिए खुद को समर्पित करना चाहिए।

अनुशासन का प्रश्न केवल दल को पूर्ण स्वास्थ्य में रखने के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि सामान्य रूप से लोगों के आचरण पर इसके प्रभाव के कारण भी महत्वपूर्ण है। एक सरकार मुख्य रूप से संरक्षण और सुरक्षा का एक साधन है कि विनाश या परिवर्तन का। यह लोगों में कानून के प्रति श्रद्धा पैदा करने की मांग है कि कानून के संरक्षक बनने की इच्छा रखने वाले पक्ष खुद इस दिशा में एक उदाहरण पेश करें। लोकतंत्र का सार स्वशासन की भावना और क्षमता है। यदि दल स्वयं शासन नहीं कर सकते हैं तो वे समुदाय में स्वशासन की इच्छा उत्पन्न करने की आशा कैसे कर सकते हैं? जहां एक ओर समुदाय के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी और रक्षा करना आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर व्यक्ति के लिए स्वेच्छा से सामान्य इच्छा को प्रस्तुत करना वांछनीय है। यह जितना अधिक होगा, राज्य की जबरदस्ती उतनी ही कम होगी। एक ऐसे दल में जिसके मामलों को किसी राज्य के कानून द्वारा नहीं बल्कि पार्टी इकाइयों द्वारा स्वेच्छा से स्वीकार किए गए निर्णयों द्वारा नियंत्रित किया जाता है, कोई एक उदाहरण स्थापित कर सकता है कि कैसे सर्वोत्तम व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक जिम्मेदारी को संतुलित किया जा सकता है। इसलिए दलों के लिए यह आवश्यक है कि वे अपने सदस्यों के लिए एक आचार संहिता निर्धारित करें और उसका सख्ती से पालन करें। निर्वाचक का कर्तव्य एक बुरा उम्मीदवार का विरोध करना है क्योंकि वह यह दावा नहीं कर सकता, कि वह जिस पार्टी से संबंधित है वह अच्छी है। कहावत है कि एक बुराई की तरह खराब हवा, कहीं भी किसी का भला नहीं कर सकती। ऐसे व्यक्ति को टिकट देने में पार्टी आलाकमान ने पक्षपातपूर्ण आधार पर कार्य किया हो, जो कि एक निर्णय की त्रुटि हो सकती है। ऐसी गलती को सुधारना एक जिम्मेदार मतदाता का कर्तव्य है। वोट एक जनादेश है लोगों को यह भी महसूस करना चाहिए कि वोट किसी भी उम्मीदवार के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का एक साधन नहीं है, बल्कि उनकी इच्छाओं को पूरा करने के लिए एक जनादेश है। दूसरी ओर अल्पसंख्यक फ्रैंक एंथनी का कहना है कि अंग्रेजी को भारतीय संविधान में जगह मिलनी चाहिए क्योंकि यह अल्पसंख्यक यानी एंग्लो-इंडियन की भाषा है। यदि श्री एंथनी अपने आप को एक राष्ट्रवादी के रूप में महसूस करते हैं तो उन्हें अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के संदर्भ में सोचना बंद कर देना चाहिए। आखिरकार, संसदीय लोकतंत्र में इस द्विभाजन का एक सीमित उद्देश्य है। हम अपने पूरे राष्ट्रीय जीवन को प्रभावित करने के लिए इसका विस्तार नहीं कर सकते। यदि हम ऐसा करते हैं तो कई अल्पसंख्यक होंगे क्योंकि हम अपने वर्गीकरण के आधार को बदलते रहेंगे, जिसके परिणामस्वरूप हर कोई किसी किसी अल्पसंख्यक से संबंधित होगा। यहां धार्मिक अल्पसंख्यक, भाषाई अल्पसंख्यक, राजनीतिक अल्पसंख्यक, नस्लीय अल्पसंख्यक, व्यावसायिक अल्पसंख्यक आदि हो सकते हैं।

2. लोकतांत्रिक व्यवस्था संबंधी विचार

वाद-विवाद लोकतंत्र का अभिन्न अंग है। हमारे देश में वाद-विवाद की परंपरा पुरानी है। लेकिन ऐसी बहस तभी फलदायी हो सकती है जब प्रत्येक पक्ष ध्यान से सुनता है कि दूसरे को क्या कहना है और उसमें सच्चाई को स्वीकार करने की इच्छा है। यदि हम दूसरे व्यक्ति के दृष्टिकोण को समझने की कोशिश करने के बजाय अपने स्वयं के दृष्टिकोण पर जोर देते हैं तो ऐसी बहस निष्फल रहनी चाहिए। वोल्टेयर ने कहा, "आप जो कहते हैं उससे मैं सहमत नहीं हूं, लेकिन मैं इसे कहने के आपके अधिकार की रक्षा करूंगा," वह केवल बहस के व्यर्थ हिस्से को स्वीकार कर रहा था। भारतीय संस्कृति इससे आगे जाती है और बहस को देखती है। बहस, सार्थक बहस सत्य की प्राप्ति के लिए एक साधन है। हम मानते हैं कि सत्य एकतरफा नहीं है और इसके विभिन्न पहलुओं को विभिन्न कोणों से देखा, परखा और अनुभव किया जा सकता है। इसलिए वह जो सभी में अंतर्निहित एकता का व्यापक दृष्टिकोण रखने की क्षमता रखता है ऐसी विविधता एक द्रष्टा है। संस्कारों के बिना लोकतंत्र व्यक्ति और समाज के बीच कोई संघर्ष नहीं है, यदि यह मौजूद है, तो यह एक विपथन है। समाज के हित में व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना आवश्यक है। वास्तव में बेलगाम स्वतंत्रता व्यक्ति का विकास नहीं, उसका विनाश होता है। समाज के साथ व्यक्ति की पूर्ण पहचान ही व्यक्ति के पूर्ण विकास की स्थिति है। व्यक्ति ही समाज की पूर्णता का माध्यम और माप है। व्यक्ति की स्वतंत्रता और समाज के हित परस्पर विरोधी नहीं हैं। लोकतंत्र लोगों के कर्तव्य की पूर्ति के लिए एक उपकरण है। साधन की प्रभावशीलता लोगों के जीवन में राष्ट्र की भावना, जिम्मेदारी की चेतना और अनुशासन पर निर्भर करती है। यदि ये संस्कार नागरिक में अनुपस्थित हैं, तो लोकतंत्र व्यक्ति, वर्ग और दल के हित के साधन के रूप में पतित हो जाता है। सत्ता का केंद्रीकरण एक व्यक्ति या संस्था में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक शक्तियों का केंद्रीकरण लोकतंत्र के रास्ते में एक बाधा है। आम तौर पर जब एक निश्चित क्षेत्र में शक्ति एक व्यक्ति में केंद्रित हो जाती है तो व्यक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपने हाथों में शक्ति को अन्य क्षेत्रों में भी केंद्रित करने का प्रयास करता है। इस कारण कम्युनिस्टों और खिलाफत की तानाशाही सरकारें स्थापित हुईं। यहां तक कि जब मानव जीवन अभिन्न है और इसके विभिन्न क्षेत्र एक दूसरे के पूरक हैं तो इन विभिन्न क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाली इकाइयाँ अलग-अलग रहनी चाहिए। आम तौर पर प्रशासन की विभिन्न इकाइयों को प्रशासन से संबंधित होना चाहिए और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिए। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था पहले आर्थिक क्षेत्र में सत्ता प्राप्त करती है और फिर राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश करती है, जबकि समाजवाद राज्य के हाथों में उत्पादन के सभी साधनों पर शक्ति केंद्रित करता है। ये दोनों प्रणालियाँ व्यक्ति के लोकतांत्रिक अधिकारों और उनके समुचित विकास के विरुद्ध हैं। इसलिए केंद्रीकरण के साथ-साथ हमें शक्तियों के विभाजन के बारे में भी सोचना होगा। पंडित नेहरू के समय में भारत ने भी लोकतांत्रिक समाजवाद का नारा बुलंद किया। हम इसमें सफल नहीं हुए क्योंकि आज जिस लोकतंत्र और समाजवाद के लिए हम प्रयास कर रहे थे, वह मूल रूप से पश्चिमी नींव पर टिका हुआ है और इसलिए यह अधूरा है। ये दो विचार जीवन के विभिन्न पहलुओं और उनसे जुड़े सत्य को व्यक्त करते हैं। उनका संश्लेषण संभव है, लेकिन तभी जब हमारा दृष्टिकोण संश्लेषण कर रहा हो। हमारे पूरे जीवन को पश्चिम में विकसित लोकतंत्र की संस्थाओं और परंपराओं में, या मार्क्स द्वारा प्रतिपादित और लेनिन, स्टालिन आदि द्वारा प्रचलित समाजवाद के तैयार किए गए सांचों में डालना उचित नहीं होगा। इस देश का जीवन उच्चतर है इन दोनों विचारों की तुलना में। हमें भारत पर पश्चिमी राजनीति थोपने के बजाय अपना राजनीतिक दर्शन विकसित करना होगा। ऐसा करते हुए हम पश्चिम में की गई सोच से लाभ उठा सकते हैं। लेकिन हमें तो इससे अभिभूत होना चाहिए और ही इसे शाश्वत सत्य मानना चाहिए। लोकतंत्र और राजनीतिक दल स्वराज की परिभाषा में तीन मुख्य बातें शामिल हैं। प्रथम, सरकार उन लोगों के हाथ में हो जो देश का हिस्सा हैं। द्वितीय, सरकार राष्ट्रहित में चलनी चाहिए, जिससे उसकी नीतियां राष्ट्रहित की ओर उन्मुख हों। तृतीय, ऐसी सरकार के पास राष्ट्र की भलाई के लिए अपनी ताकत होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में आत्मनिर्भरता के बिना स्वराज की कल्पना करना भी गलत है। जब सरकार देशवासियों के हाथ में हो तब भी स्वराज अर्थहीन हो जाता है यदि सरकार दबाव में जाती है या किसी अन्य राष्ट्र की अनुयायी बन जाती है। यदि राज्य रक्षा के मामले में आत्मनिर्भर नहीं है, अपनी नीतियों के संबंध में स्वतंत्र और आर्थिक नियोजन के संबंध में आत्मनिर्भर नहीं है, तो उस पर राष्ट्र के हित के खिलाफ काम करने का दबाव डाला जा सकता है। ऐसा आश्रित राज्य विनाश की ओर ले जाता है।

3. आर्थिक व्यवस्था संबंधी विचार

'समृद्धि बनाम धर्म' केवल भौतिक समृद्धि की अनुपस्थिति बल्कि भौतिक समृद्धि की अधिकता भी धर्म के अंत की ओर ले जाती है। यह इस देश का खास नजरिया है कि पश्चिम ने भौतिक साधनों के परिणाम के बारे में नहीं सोचा है। जब ये साधन उन्हें या उनके माध्यम से प्राप्त होने वाली चीजों और सुखों के लिए व्यसन पैदा करते हैं, तो हम कह सकते हैं कि भौतिक प्रभाव स्थापित हो गया है। भौतिक धन के अभाव में वह साधन नहीं रह जाता और अपने आप में साध्य बन जाता है। जब यह बहुत अधिक हो जाता है, तो यह धर्मी आचरण का साधन नहीं रह जाता है और कामुक आनंद का साधन बन जाता है। चूंकि इन सुखों की कोई सीमा नहीं है, इसलिए इन्हें दिया गया व्यक्ति हमेशा धन की कमी महसूस करेगा और साथ ही सुखों के लिए उसका व्यसन धन पैदा करने की उसकी क्षमता को कम कर देगा। "स्वदेशी" और "विकेंद्रीकरण" दो शब्द हैं जो वर्तमान परिस्थितियों के लिए उपयुक्त आर्थिक नीति को संक्षेप में प्रस्तुत कर सकते हैं। योजनाकार इस धारणा के कैदी बन गए हैं कि केवल बड़े पैमाने पर केंद्रीकृत उद्योग ही आर्थिक रूप से समृद्ध है और इसलिए इसके दुष्प्रभावों की चिंता किए बिना, या जानबूझकर लेकिन असहाय रूप से वे उस दिशा में जारी रहे हैं। "स्वदेशी" के साथ भी ऐसा ही हुआ है। "स्वदेशी" की अवधारणा को पुराने जमाने की कहकर प्रतिक्रिया के रूप में उसका उपहास किया जाता है। हम हर चीज में विदेशी सहायता का उपयोग गर्व से करते हैं, सोच, प्रबंधन, पूंजी, उत्पादन के तरीके, प्रौद्योगिकी से लेकर यहां तक कि उपभोग के मानकों और रूपों तक। यह प्रगति और विकास का मार्ग नहीं है। हम अपने व्यक्तित्व को भूल जाएंगे और एक बार फिर आभासी गुलाम बन जाएंगे। "स्वदेशी" की सकारात्मक सामाग्री को हमारी अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण की आधारशिला के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। पश्चिमी अर्थव्यवस्था पर निर्भरता केवल जीवन के विभिन्न आदर्शों के कारण बल्कि समय और स्थान के संदर्भ में विभिन्न परिस्थितियों के कारण भी हमारे आर्थिक विकास के मार्ग में बाधक है, इसलिए हमें बुनियादी तौर पर पश्चिम से अलग होना होगा। लेकिन हम मार्शल और मार्क्स से बंधे हुए हैं। हम मानते हैं कि जिन आर्थिक सिद्धांतों की उन्होंने चर्चा की है, वे शाश्वत हैं। यहां तक कि जो यह महसूस करते हैं कि वे कुछ प्रणालियों पर निर्भर हैं, तो वे भी उन सिद्धांतों की प्रणालियों बाहर नहीं निकल सकते हैं। पश्चिम की आर्थिक समृद्धि ने हममें उत्पादन की क्षमता के प्रति एक अंध विश्वास पैदा कर दिया है। पश्चिमी अर्थशास्त्रियों ने इतना आलोचनात्मक साहित्य तैयार किया है कि हम आसानी से इससे अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकते। यह संभव है कि अर्थशास्त्र के विज्ञान में कुछ सिद्धांत हो सकते हैं जो समय, स्थान या व्यवस्था पर निर्भर नहीं होते हैं और सभी के लिए उपयोगी साबित हो सकते हैं, लेकिन बहुत कम लोगों में इस गुण का आकलन करने की क्षमता होती है। हमारे अर्थशास्त्री पश्चिमी अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ हो सकते हैं, लेकिन वे इसमें कोई ठोस योगदान नहीं दे पाए हैं क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था उन्हें तो आवश्यक विचार प्रदान कर सकती है और ही प्रयोग के लिए आवश्यक क्षेत्र। कोई भी अधिकार शाश्वत नहीं है, चाहे वह संपत्ति से ही संबंधित हो या अन्य चीजों से, शाश्वत नहीं है। वे सभी समाज के हित पर निर्भर हैं। वास्तव में ये अधिकार व्यक्ति को दिए जाते हैं ताकि वह अपने सामाजिक कर्तव्यों का पालन कर सके। एक सैनिक को हथियार इसलिए दिए जाते हैं कि उसका कर्तव्य समाज की रक्षा करना है। यदि वह अपना कर्तव्य नहीं करता है तो वह शस्त्र धारण करने का अधिकार खो देता है। इसी तरह संपत्ति का अधिकार एक व्यक्ति को दिया जाता है ताकि वह समाज द्वारा निर्धारित अपना कर्तव्य निभा सके। इस प्रयोजन के लिए इन अधिकारों को समय-समय पर परिभाषित और संशोधित करना आवश्यक हो जाता है। संपत्ति का कोई भी अधिकार समाज का पूर्ण अधिकार नहीं है।

स्वामित्व का अधिकार वास्तव में एक निश्चित सीमा के भीतर और एक निश्चित उद्देश्य के लिए किसी विशेष वस्तु का उपयोग करने का अधिकार है। ये अधिकार समय के साथ बदलते रहते हैं। इसलिए सिद्धांत रूप में हम व्यक्ति के अधिकारों और समाज के अधिकार के बीच के झगड़े में नहीं फंस सकते। हमारे लिए राज्य ही समाज का एकमात्र रूप नहीं है। हम मानते हैं कि व्यक्ति, परिवार, समुदाय, राज्य सभी अलग-अलग रूप हैं जिनमें समाज खुद को अभिव्यक्त करता है और पूरा करता है। संयुक्त परिवार इस देश में व्यावहारिक इकाई है जिसमें हम व्यक्ति में सामाजिक भावना को संरक्षित करना चाहते हैं, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को कमाने का अधिकार है, लेकिन स्वामित्व का अधिकार परिवार में निहित है। धन का उपयोग परिवार के लाभ के लिए किया जाता है। यह ट्रस्टीशिप का भारतीय सिद्धांत है जिसे गांधीजी और अन्य विचारकों ने प्रतिपादित किया है। श्रमिकों के लिए स्वामित्व का अधिकार यह आश्चर्य की बात है कि आज संयुक्त स्टॉक कंपनियों में एक शेयरधारक, जिसका कंपनी के साथ अपने लाभ में एक हिस्से के अलावा कोई अन्य संबंध नहीं है, स्वामित्व अधिकारों का प्रयोग करने में सक्षम होना चाहिए, जबकि कार्यकर्ता जो एक उधोग में काम करता है, अपनी मशीनों को गति में सेट करता है और अपनी आजीविका के लिए उस पर निर्भर करता है, उसे अजनबी होने की भावना का अनुभव करना चाहिए। यह भावना उचित नहीं है। इसलिए यह आवश्यक है कि शेयरधारक के साथ-साथ कार्यकर्ता को स्वामित्व अधिकार और उसके प्रबंधन और लाभ में हिस्सा दिया जाए। भोजन का अधिकार आजकल आम तौर पर सुना जाने वाला नारा है "अपनी रोटी कमाना चाहिए" आम तौर पर कम्युनिस्ट इस नारे का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन पूंजीपति भी इससे बुनियादी तौर पर असहमत नहीं हैं। यदि उनमें कोई अंतर है, तो यह केवल इस संबंध में है कि कौन कमाता है और कितना कमाता है। पूंजीपति पूंजी और उद्यम को उत्पादन के महत्वपूर्ण कारक मानते हैं और यदि वे लाभ का एक बड़ा हिस्सा लेते हैं, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें लगता है कि यह उनका देय है। दूसरी ओर, कम्युनिस्ट केवल श्रम को ही उत्पादन का मुख्य कारक मानते हैं। इसलिए वे उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा मजदूरों को देते हैं। इनमें से कोई भी विचार सही नहीं है। सख्ती से कहा जाए तो हमारा नारा होना चाहिए कि जो कमाएगा वह खिलाएगा और हर व्यक्ति के पास खाने के लिए पर्याप्त होगा। भोजन का अधिकार जन्मसिद्ध अधिकार है। कमाने की क्षमता शिक्षा और प्रशिक्षण का परिणाम है। समाज में कमाने वालों को भी भोजन अवश्य करना चाहिए। बच्चों, बूढ़ों, बीमारों, विकलांगों, सभी की देखभाल समाज द्वारा की जानी चाहिए। प्रत्येक समाज आमतौर पर इस जिम्मेदारी को पूरा करता है। मानव जाति का सामाजिक और सांस्कृतिक अनुमान इस जिम्मेदारी को निभाने की तत्परता में निहित है। आयात हमें अपनी वर्तमान कठिनाइयों से निपटने में मदद कर सकता है, समस्या का वास्तविक समाधान देश में कृषि उत्पादन को अधिकतम करना है। हमने इस दिशा में पर्याप्त रूप से काम नहीं किया है, यह कहने की जरूरत नहीं है। अमेरिकी सरकार के साथ खाद्यान्न समझौता इस मोर्चे पर सरकार की विफलता का स्पष्ट प्रमाण है। 

समय बीतने के साथ हम विदेशी स्रोतों पर अधिक निर्भर होते गए हैं। हमें डर है कि वर्तमान में पर्याप्त मात्रा में भोजन की उपलब्धता के कारण सरकार स्थानीय स्तर पर उत्पादन बढ़ाने के उनके प्रयासों में आत्मसंतुष्ट हो सकती है। अमेरिकी सरकार को लगता है कि अमेरिका इस नीति का पालन केवल लोकतांत्रिक दुनिया के संघर्षरत लोगों को यह एहसास दिलाने के लिए कर रहा है कि "स्वतंत्रता और भोजन दोनों हो सकते हैं" लेकिन हम जो चाहते हैं वह है हमारी आजादी और हमारा खाना। यह तभी संभव है जब हम "विदेशी भोजन से मुक्ति" के अपने पुराने नारे को पुनर्जीवित करें। विदेशी स्रोतों पर निर्भरता हमें दरिद्र बनाएगी और उलझाएगी। निःसंदेह सभी के लिए एक वोट राजनीतिक लोकतंत्र की कसौटी है, तो सभी के लिए काम करना आर्थिक लोकतंत्र का एक पैमाना है। काम करने के इस अधिकार का मतलब गुलाम श्रम नहीं है जैसा कि कम्युनिस्ट देशों में होता है। काम केवल व्यक्ति की आजीविका का साधन ही नहीं होना चाहिए बल्कि वह उस व्यक्ति की पसंद का होना चाहिए, ताकि वह अपने आप को स्वतंत्र अनुभव कर सकें। यदि उस काम को करने के लिए कार्यकर्ता को राष्ट्रीय आय में उचित हिस्सा नहीं मिलता है, तो उसे बेरोजगार माना जाएगा। इस दृष्टि से न्यूनतम मजदूरी, वितरण की एक न्यायसंगत प्रणाली और सभी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा आवश्यक है।

निष्कर्ष इस प्रकार पंडित उपाध्याय बीसवीं सदी के सबसे कम प्रसिद्धि वाले भारतीय राजनेताओं में से एक हैं जिन पर ओर अधिक अध्ययन किए जाने की जरूरत है। वह ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने कांग्रेस पार्टी का एक व्यवहारिक विकल्प प्रदान कर भारतीय लोकतंत्र को मजबूत किया, जिसकी चमक स्वतंत्रता के गुजरते वर्षों के साथ फीकी पड़ रही थी। नई पीढ़ी उस विकल्प की प्रतीक्षा कर रही थी जिसके लिए दीनदयाल उपाध्याय ने जमीन तैयार की थी। उनका दर्शन इस मिट्टी में गहराई से निहित था और उनके दर्शन के निशान इस देश के सांस्कृतिक लोकाचार में पाए जा सकते हैं जो हजारों साल पुराने हैं। उन्होंने न केवल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा के लिए एक कैडर तैयार किया बल्कि अपने द्वारा प्रतिपादित आदर्शों को साकार करने के लिए संगठन का एक मजबूत आधार भी दिया। निस्संदेह उपाध्याय ने डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ जिस पार्टी की स्थापना की थी, वह अब पूर्ण बहुमत के साथ न केवल केंद्रीय स्तर पर सत्ता में है, बल्कि आधे से अधिक राज्यों में भी उसकी सरकारें हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास' के मूल मंत्र के साथ लगातार काम कर रहे हैं, जो कि अंत्योदय के इक्कीसवीं सदी के अवतार के अलावा ओर कुछ नहीं है। यह विचार उपाध्याय द्वारा आधी सदी पहले प्रतिपादित किया गया था। वर्तमान भाजपा सरकार के कार्यक्रम और नीतियां दीनदयाल उपाध्याय के आदर्शों की कल्पना करते हैं जिन्हें अब प्रधान मंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार साकार करने का प्रयास कर रही हैं। अब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार समाज के वंचित वर्गों को सशक्त बनाने और सभी के लिए सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए सभी प्रयास कर रही है, तो दीनदयाल उपाध्याय के विचारों का अध्ययन करना अधिक अनिवार्य हो जाता है। अतः वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में उपाध्याय के विचारों की महत्ता ओर ज्यादा बढ गई है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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