ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VI , ISSUE- XII March  - 2022
Anthology The Research
दलित जीवन का यथार्थ चित्रण: मेरा बचपन मेरे कन्धों पर
Realistic Depiction of Dalit life: Mera Bachpan Mere Kansho Par
Paper Id :  15863   Submission Date :  12/03/2022   Acceptance Date :  20/03/2022   Publication Date :  23/03/2022
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श्वेता कुशवाहा
शोधार्थी
हिन्दी विभाग
कल्याणी विश्वविद्यालय
कल्याणी ,पश्चिम बंगाल
भारत
सारांश दलित साहित्य के क्षेत्र में डॉ. श्यौराज सिंघ बेचैन एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उन्होंने कविता, आलेख, निबंध, पत्रकारिता आदि के क्षेत्र में अपनी लेखनी चलाई है।हिन्दी दलित आत्मकथाओं में मूल रूप से भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था जिसने दलितों को पशुवत् जीवन जीने की लिए विवश किया के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर देखने को मिलता है। श्यौराज सिंह बेचैन ने अपनी आत्मकथा मेरा बचपन मेरे कन्धों पर में एक ऐसे दलित बालक के जीवन विडम्बनाओं को स्वर दिया है, जिसका पूरा जीवन स्वयं उसके कन्धों पर है। पिता की मृत्यु के पश्चात् अपने जीवन को अपने कन्धों पर उठाए गरीबी और भूख से मुक्ति के लिए बिकाऊ माल की तरह कुछ भी करने को तत्पर तथा पेट की भूख मिटने की कोशिश में विषाक्त अन्न खाने को विवश दलित बालक जीवन की त्रासदी को जहाँ आत्मकथाकार ने प्रस्तुत किया हैं वहीँ दूसरी ओर दलित स्त्री जीवन की उस त्रासद स्थितियों का चित्रण किया हैं जिसके कारण एक स्त्री को अपने तथा अपने बच्चों के आश्रय के लिए तीन-तीन विवाह करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Dr. Sheoraj Singh Bechain is a prominent signature in the field of Dalit literature. He has run his writings in the field of poetry, articles, essays, journalism etc. In Hindi Dalit autobiographies, basically the voice of resistance against the caste system and caste system of Indian society, which forced the Dalits to live animalistic life, was found to be seen. In his autobiography, Sheoraj Singh Restless, Mera Bachpan Mere Kandhon Par, has given voice to the irony of the life of a Dalit boy whose entire life is on his shoulders. After the death of the father, he took his life on his shoulders, ready to do anything like a commodity to get rid of poverty and hunger and was forced to eat toxic food in an attempt to end the hunger of the stomach, where the autobiographer told the tragedy of the life of a Dalit child. On the other hand, Dalit women have depicted the tragic situations of life, due to which a woman is forced to do three marriages each for the shelter of herself and her children.
मुख्य शब्द दलित आत्मकथा, भारतीय समाज,वर्ण व्यवस्था, सामाजिक यथार्थ, सवर्ण, दलित, दलित जीवन, गरीबी, भूख,स्त्री जीवन का यथार्थ।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Dalit Autobiography, Indian Society, Varna System, Social Reality, Savarna, Dalit, Dalit Life, Poverty, Hunger, Reality of Womens Life
प्रस्तावना
भारतीय समाज और परंपरा द्वारा जिस समता, परोपकार और न्याय का दावा किया जाता है, दलित जीवन के अनुभव उसे सिरे से खारिज करते हैं। लोकजीवन, ग्राम जीवन की जिस सरलता, निश्छलता का उदाहरण दिया जाता है, दलित शोषण के अनुभव उससे बिल्कुल अलग हैं। दलित आत्मकथाएँ भारतीय समाज के दोहरे मानदंडों, उसके मुखौटों को अनावृत्त कर उच्चवर्ग के पाखंड को उद्घाटित करती है। मेरा बचपन मेरे कंधों पर श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा है। इस आत्मकथा में आत्मकथाकार ने बचपन की यातनाएं एवं दलित समुदाय के सामाजिक यथार्थ को रेखांकित किया है,।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोधपत्र के माध्यम से दलित आत्मकथा मेरा बचपन मेरे कन्धों पर का अध्यन करना है ।
साहित्यावलोकन
इस आत्मकथा के संदर्भ में प्रसिद्ध बंगला लेखिका महाश्वेता देवी ने कहा है, “भारतीय भाषाओं में इधर दलित लेखकों की कई मर्मस्पर्शी आत्मकथाएं प्रकाशित हुई है। उसी की नई कड़ी "मेरा बचपन मेरे कंधों पर" है। इसके लेखक है श्यौराज सिंह बेचैन। इस किताब में भी दलित दु:ख-दर्द की करुणाभरी दास्तान है। यदि आप इस देश में दलितों का प्रमाणिक आईना देखना चाहते हैं तो इन किताबों से आपको गुजरना ही होगा।....सवर्ण मानसिकता को श्यौराज सिंह बेचैन ने शिद्दत से महसूस किया है। इनकी आत्मकथा में इसी मानसिकता के कारण कई मर्मस्पर्शी आख्यान हैं। कई-कई दूसरी अंतर्कथाएँ भी समानांतर चलती रहती है।”1
मुख्य पाठ

दलित पत्रकार कंवल भारती ने श्यौराज सिंह बेचैन को उनकी आत्मकथा के  संदर्भ में लिखे पत्र में कहा है,“आपकी आत्मकथा को मैंने पढ़ लिया है। सच कहूं तो यह पहली आत्मकथा है, जिसने अपने आपको मुझसे पढ़वाया है। यह एक ऐसी पुस्तक है, जो आपकी मार्मिक कहानी के साथ-साथ, उन गांवों का भी जीवंत दस्तावेज है, जिन्हें हिन्दू भारत के गणराज्य बनाकर उन पर गर्व करते हैं। मैं गांव में नहीं रहा और गांव के जीवन का मुझे कोई अनुभव नहीं है, पर डॉ. अंबेडकर की रचनाओं में मैंने पढ़ा है कि भारत के गांव, जिन पर हिन्दूनाज करते हैं, दलितों के लिए घेटों(यातना का शिविर) की तरह है। आपकी आत्मकथा को पढ़कर जाना कि येघेटों क्या होते हैं?”2हिन्दी के जाने-माने वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने इस आत्मकथा के बारे में लिखा है कि “मेरा बचपन मेरे कंधों पर’' की प्रति यथासमय मिल गयी थी। एक रौ में पढ़ गया। ऐसा मेरे साथ कम होता है। यह कृति पहले रोकती-टोकती है,फिर झकझोरती है और फिर पकड़ लेती है। जिसे सुरुचि के गाल पर तमाचा कहा जाता है, उस तरह की कृति है यह। ऐसी कृतियां परंपरा-पोषित मान-मूल्यों के लिए हैं। फिर वह चाहे सामाजिक हो या साहित्यिक एक चुनौती की तरह होती है। आपने इस आत्मकथा के द्वारा वर्ण व्यवस्था के विकृत चेहरे के सामने एक बोलता हुआ आईना रख दिया है। कई मार्मिक स्थलों ने मेरे भीतर गोर्की के संस्मरणों की याद ताजा कर दिया है। इसे मैं इस कृति की बहुत बड़ी सफलता मानता हूं।”3

‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ आत्मकथा में यातनाओं की भरमार है। लेखक का बचपन अभाव के बीच में बीता है। पिता की असमय मृत्यु के बाद परिवार की स्थिति अत्यंत दयनीय होजाती है। जिसे लेखक ने इन शब्दों में रेखांकित किया है,“परिवार के भरण-पोषण के लिए पौने दो बीघा जमीन थी जिसमें ताऊ का आधा हिस्सा था। उसमें से एक बीघाकल्लर (बंजर) की चपेट में चुकी थी। जैसे हमारे घर का एकमात्र कमाऊ व्यक्ति चला गया था, उसी तरह जमीन की उर्वरता भी जा चुकी थी। बाकी पुरुषों में बड़े बब्बा भगीरथ, छोटे बब्बा गंगी और ताऊ बाबूराम तीनों नेत्रहीन थे ही। चौथे सदस्य बचे विधाराम बब्बा। चाचा के पिता सो ’फ़िरक(वह बैलगाड़ी केवल दो-तीन सवारियों के लिए होती थी) कि दुर्घटना में उनकी एक टांग टूट चुकी थी। कुल मिलाकर घर असहायों और अपाहिजों से भरा था। अम्मा के पास शिक्षा या रोजगार का कोई हुनर नहीं था। इस कारण वह किसी दूसरे पुरुष के बिना हमें पालने में असमर्थ थी।”4कहने का तात्पर्य है कि जीवित रहने के लिए काम करना अनिवार्य बन गया था। घर के सभी बड़े बुजुर्ग अपाहिज थे। घर में फांके के दौर चल रहे हैं इस ह्रदय विदाकर स्थिति का वर्णन करते हुए लेखक ने लिखा है,“बब्बा, ताऊ और मैं घर के सामने हमेशा बिकाऊ माल की तरह बैठे रहते थें। कोई आए और हमें दिनभर के लिए खरीद ले जाए, चाहे कोई भी काम ले ताकि सेर-दो-सेर अन्न मिले और घर के बड़े बच्चों के पेट में अन्न पड़े।”5यह कड़वा सत्य है कि दलित लोग सदियों से दाने-दाने के लिए तड़प रहे हैं, पानी के लिए तरस रहे हैं।भूख कितनी  खतरनाक होती है इसकी झलक हमें इस आत्मकथा में देखने को मिलती है। पेट की आग भुजाने के लिए एक दिन लेखक और उसका परिवार ढडायन खा लेते हैं। इसका वर्णन लेखक ने बडे ही मार्मिक के साथ किया है,“गर्म-गर्म ढडाइन पेट में उतरी और हम में से जिसके शरीर में विष से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता जितनी कम थी, उतनी जल्दी वह होश खोने लगा था। एक-एक करके थोड़ी ही देर में हम चारों प्राणी जहां-तहां जमीन पर गिर पड़े थे।”6 ऐसे अनेक प्रसंग है आत्मकथा में जो हमारे दिल को दहला देते हैं वस्तुतः श्यौराज सिंह बेचैन का पूरा बचपन अभाव एवं गरीबी से गिरा रहा है। उन्हें पग-पग पर संघर्ष का सामना करना पड़ा है।वे गरीबी की भयानक स्थिति के साथ लड़ते रहे। गौरतलब है कि वह कभी हारे नहीं बल्कि उसका डटकर मुकाबला करते रहे हैं।

भारतीय समाज मेंदलितों की स्थिति का चित्रण करते हुए श्यौराज सिंह बेचैन लिखते हैं,“यूं तो हम गुलाम थे, जबकि देश उन्नीस सौ सेतांलीस में ही आजाद हो गया था, जिंदा है तो मालिक के लिए शरीर धुनों, बीमार हो तो कहीं और भाग जाओ, अपने गांव या शहर, मर रहे हो तो उनकी बला से, कल मरनेवाले हो तो आज मारो, कोई और चन्ग बंदा जायेगा। बालक हो,बूढ़ा हो या बीमार, रोटी तभी मिलेगी जब वो कमायेगा।”7दलितों की दयनीय स्थिति का उच्चवर्ग फायदा उठाता आया है। लेखक के पिता राधेश्याम की मृत्यु के बाद उनकी जिंदगी एकदम गरीबी में डूबी गई थी। गरीबी से विवशउनकी मां उनसे कहती है,“अब तोईअपनी जिंदगी अपनी कमाई पर गुजारनी है।जिद्द छोड़, कुछ काम सीख ले। कुछ नहीं तो साइकिल में पिंजर जोड़ना ही सीख ले।”8

समाज द्वारा दलितों पर जो काम थोपा गया था उनमें गंदगी साफ करना प्रमुख है। घर की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण श्यौराज सिंह बेचैन को अपने जीवन के प्रारंभिक चरण में पैतृक पेशा ही एकमात्र सहारा था। इस संदर्भ में वे लिखते हैं,“मैं जब से समर्थ हुआ जाने कितने कटरे-कटरियां, गाय-बैल और भैंसे उठाने में शामिल रहा था, उन सब की खाल उतारना मैं आज भी भूला नहीं हूं।”9 इस तरह के काम करने के कारण लेखक और उनके परिवार वालों को समाज ने बहिष्कृत किया था। एक जरूरी सेवा होने पर भी इसे करने से चमारों को जीवन भर घृणा और तिरस्कार मिलते रहे। लेखक ने आत्मकथा में लिखा है,“डोक्टर्स मनुष्य की लाश का पोस्टमार्टम करता है तो इज्जतदार होता है।भंगिन सफाई करती है तो दुत्कारी जाती है। चमार पशु की खाल उतारता है तो वह बहिष्कृत और अछूत बन रहता है।”10ऊंच-नीच और छुआछूत की समस्या सवर्ण और दलित के बीच ही नहीं है,बल्कि दलित जातियों में भी फैली हुई है। दलितों में जाति के अंतर्गत उपजातियां होने का उल्लेख लेखक ने आत्मकथा में किया है।चमार, जाटव, भंगी, चूहड़, वाल्मीकि आदि जातियों में भेद-भाव के कारणआपस में संवाद नहीं होते। दलितों के बीच भेद-भाव भरे व्यवहार को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं,“दस जने एक नीम के नीचे बैठकर भी भेद दर्शाने के लिए चमार मिट्टी के ऊचें टीले पर और भंगी निचली जगह पर बैठकर लंबे-लंबे किस्से कहानियां सुनाया करते थे। बीच में कोई यादव या मुसलमान जाता तोभंगी चमार दोनों अपनी खाटों या ऊँचा टीला छोड़ नीचे जमीन पर बैठ जाते थे।”11

        श्यौराज सिंह बेचैन ने ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर में स्त्री की दयनीय स्थिति तथा उसके संघर्षपूर्ण जीवन को मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया हैं। भारतीय समाज मेंधर्म और नैतिकता की आड़ में सबसे ज्यादा अत्याचार औरतों पर ही हो रहे हैं। धर्म के तालिबान हर युग में औरतों की नाकेबंदी करते आये हैं। यह बातपूरे समाज पर लागू होती है। कोई आदमी चाहे कितना भी कमजोर क्यों हो उसके भीतर अपने से नीचे के व्यक्ति और खासतौर से अपनी पत्नी पर अपना रौब-दाब जमाने की तीव्र आकांक्षा होती है। विवाह संस्था उसे इस बात का पुख्ता अधिकार भी दे देती है। यह प्रवृत्ति दलित समाज के पुरुषों पर भी उतनी ही सच्चाई से लागू होती है। वैसे तो दलित समाज खुद शोषण का शिकार रहा है लेकिन स्त्रियों के मामले में वह भी उसी तरह की मानसिकता से ग्रस्त रहा है, जिस तरह की मानसिकता का शिकार उच्चवर्ण रहा है।श्यौराज सिंह बेचैन की मां सूरजमुखी अपने पति की मृत्यु के बाद जिस तरह से अपने बच्चों को पालती है, वह संघर्ष की एक मिसाल है। मुखी के पास तो संपत्ति है और ही किसी और का सहारा। वह जगह-जगह भटकती है।कभी सरदारों के खेतों पर जाकर काम करती है तो कभी दिल्ली में मजदूरी। मुखी अपने संघर्ष को कहीं भी अतिरंजित करके नहीं बताती,जबकि दिल्ली में मुखी जहां अनाज साफ करने जाती है उसकी मालकिन कहती है,“सूरजमुखी औरतों में हिम्मत होनी चाहिए। विधवा तो मैं भी हुई थी, पर मैंने विधवा होकर भी अपने बच्चों को डॉक्टरी और इंजीनियरिंग में भेज दिया, और तुम गांव की औरतें बुजदिल होती हो। हमेशा मर्द पर ही निर्भर रहती हो। अपनी खुद्दारी को पहचानती नहीं हो।”12 इस पर मुखी का जवाब गौर करने लायक है,“जिस स्त्री के लिए जीविका के साधन सुलभ होते हैं और जो हर तरफ से लाचार हारी हुई होती है, उन दोनों की परिस्थितियों में गहरा अंतर होता है। वे दोनों आत्मनिर्भरता या संकट में साहस दिखाने के एक जैसे दावे नहीं कर सकती। भूखे बच्चों का पेट केवल हिम्मत से नहीं भरा जा सकता। बिना पैसे के बच्चा डॉक्टर, इंजीनियर तो क्या चपरासी भी नहीं बन सकता।”13मुखी सामाजिक व्यवस्था के अंतर को जानती है।संपत्ति एक ऐसी सच्चाई है, जिसके बिना आज की तारीख में जिंदगी जीना तो असंभव नहीं कठिन जरूर है।संपत्ति के अभाव में मुखी जगह-जगह भटकती है। वह अपने बेटे श्यौराज सिंह बेचैन से कहती है,“बेटा, तेरे बाप के पास दो-चार बीघा हूं उपजाऊ जमीन होती तो मैं एक डगहूंगाम ते बाहर नाय धत्ती। आदमी की नाय मोई तुम्हारे पेट कूं रोटी की जरूरत है।”14 मुखी का संघर्ष इसी रोटी को लेकर है। इसलिए वह पहले रामलाल के घर बैठ जाती है और बाद में पाली मुकीमपुर के भिखारी के घर।

भूख और गरीबी की विकट समस्या ‘जूठन’ से लेकर ‘मुर्दहिया’ तक स्त्री के पात्रों के पीड़ादायक संघर्ष का मूल कारण है।यह संघर्ष इन लेखकों के लिए तो भूख तक सीमित है, किंतु इनकी माताओं को कभी ठाकुरों की व्यभिचारी चेष्टाओं का सामना करना पड़ता है तो कभी बाल-बच्चों की खातिर तीन-तीन विवाह करने पड़ते हैं। गरीबी, भूख की यह स्थिति उन्हें अज्ञानता,अशिक्षा,बाल-विवाह, जात-बिरादरी की कुरीतियों में धकेल कर जीवन को और अधिक अंधकारमय कर देती है। दलित स्त्री की समस्या जठराग्नि के साथ ही उसकी सामाजिक स्थिति, लैंगिक पहचान की भी है।घोर गरीबी और भूख भी स्त्री-पुरुष के भेदभाव तथा पुरुष के वर्चस्व को समाप्त नहीं कर पाते। यह दलितों के कष्टकर जीवन से निकला स्त्री जीवन का कटु सत्य है, जिसका दृश्य इस आत्मकथा में प्रस्तुत है।

निष्कर्ष हिन्दी के दलित आत्मकथाकारों की ‘स्व’ की यात्रा में संपूर्ण दलित समाज का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत हुआ है।हिन्दू सामाजिक व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था की वर्चस्ववादी प्रवृत्ति के दमनकारी हथकंडे यहां उजागर हुए हैं। दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण आत्मकथा वे ही है जो अपने जीवन और पूरे समाज में मौजूद पाखंड की पोल खुलती है।वे सवर्ण समाज की दुर्बलताओं के साथ दलित समाज की आतंरिक दुर्बलओं को भी समान रूप से उजागर करती है।‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ सिर्फ एक अछूत बालक की कथाही नहीं उसने पूरे दलित समाज की जिंदगी का चित्रण किया है। इसमें विद्रोह की कोई आवाज नहीं है क्योंकि आर्थिक स्थितियों की दयनीय परिस्थितियों में रहकर सब कुछ सहने के लिए लेखक विवशथे। फिर भी उन्होंने अपनी आत्मकथा के जरिए बिना हिचक के सारी घटनाओं को सच्चाई के साथ प्रस्तुत किया है।‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ सदियों से दलितों पर होने वालेअन्याय, अत्याचार और उत्पीड़न का सीधा खुलासा है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1.वनकर धीरजभाई, ‘हिन्दी दलित आत्मकथा विमर्श’, ज्ञान प्रकाश, कानपूर, प्रथम संस्करण:2017, पृष्ठ संख्या-75 2. वनकर धीरजभाई, ‘हिन्दी दलित आत्मकथा विमर्श’, ज्ञान प्रकाश, कानपूर, प्रथम संस्करण:2017, पृष्ठ संख्या-76 3. वनकर धीरजभाई, ‘हिन्दी दलित आत्मकथा विमर्श’, ज्ञान प्रकाश, कानपूर, प्रथम संस्करण:2017, पृष्ठ संख्या-76 4. बेचैन श्यौराज सिंह, ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण:2013, पृष्ठ संख्या-28 5. बेचैन श्यौराज सिंह, ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण:2013, पृष्ठ संख्या-39 6. बेचैन श्यौराज सिंह, ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण:2013, पृष्ठ संख्या-43 7. बेचैन श्यौराज सिंह, ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण:2013, पृष्ठ संख्या-145 8. बेचैन श्यौराज सिंह, ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण:2013, पृष्ठ संख्या-41 9. बेचैन श्यौराज सिंह, ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण:2013, पृष्ठ संख्या-59 10. बेचैन श्यौराज सिंह, ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण:2013, पृष्ठ संख्या-31 11. बेचैन श्यौराज सिंह, ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण:2013, पृष्ठ संख्या-125 12. बेचैन श्यौराज सिंह, ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण:2013, पृष्ठ संख्या-140 13. बेचैन श्यौराज सिंह, ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण:2013, पृष्ठ संख्या-140 14. बेचैन श्यौराज सिंह, ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण:2013, पृष्ठ संख्या- 141