P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- II October  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान दलित संवेदना से अनुप्राणित हिंदी उपन्यासों का ऐतिहासिक अनुशीलन
Historical Study of Hindi Novels Inspired by Dalit Sensibility During the Indian National Movement
Paper Id :  16604   Submission Date :  16/10/2022   Acceptance Date :  23/10/2022   Publication Date :  25/10/2022
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अंकित कुमार
शोधार्थी
इतिहास विभाग
दयानंद गर्ल्स (पी.जी.) कॉलेज
कानपुर,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान दलित समस्या एक गंभीर राजनीतिक मुद्दे के तौर पर उभरी। उसके पूर्व तक इसे एक सामाजिक मुद्दे के तौर पर देखा जा रहा था। सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन ने जाति प्रथा, छुआछूत, दलित शोषण व अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध एक पृष्ठभूमि तैयार की। इसी पृष्ठभूमि पर बीसवीं शताब्दी में राष्ट्रीय आंदोलन के समानांतर ही अछूतोद्वार आंदोलन भी संचालित किया गया। डॉ. भीमराव अंबेडकर व महात्मा गांधी जैसे तमाम राष्ट्रीय नेताओं ने दलितों की स्थिति में सुधार हेतु निरंतर प्रयास किये। युगीन हिंदी उपन्यासकार भी दलित समस्या के यथार्थ से मुंह नहीं मोड़ सकता था। फलत: हिंदी उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में छुआछूत जातिगत अपमान व पीड़ा को कलमबद्ध कर सामाजिक जागरण की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। हिंदी उपन्यासों ने न सिर्फ इस सामाजिक यथार्थ को झेल व भोग रहे लोगों की मन:स्थिति में झांककर उनकी संवेदना को ही समाज के समक्ष रखा अपितु उनकी स्थिति में सुधार हेतु कुछ उपाय भी सुझाए। ऐसे में राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान दलित संवेदना, उनके साथ होने वाले पाशविक व्यवहार व इसके विरुद्ध बलवती होती दलित चेतना को समझने के लिये युगीन हिंदी उपन्यासों का अनुशीलन आवश्यक हो जाता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The Dalit problem emerged as a serious political issue during the Indian national movement. Before that it was seen as a social issue. The socio-religious reform movement created a background against the caste system, untouchability, Dalit exploitation and inhuman treatment. It is on this background that in the twentieth century, in parallel with the national movement, the untouchables movement was also conducted. All the national leaders like Dr. Bhimrao Ambedkar and Mahatma Gandhi made continuous efforts to improve the condition of Dalits. Even the Hindi novelist of the era could not turn his back on the reality of the Dalit problem. As a result, Hindi novelists made a significant contribution towards social awakening by penning untouchability, caste insults and suffering in their novels. Hindi novels not only peeped into the inner condition of the people who were facing and experiencing this social reality and kept their feelings in front of the society, but also suggested some measures to improve their condition. In such a situation, it becomes necessary to study Hindi novels of the era to understand the Dalit sensibility during the national movement, the brute behavior of them and the Dalit consciousness rising against it.
मुख्य शब्द राष्ट्रीय आंदोलन, समाज, दलित समस्या, अछूत, अछूतोद्वार, हिंदी उपन्यास, चित्रण, प्रेमचंद्र।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद National Movement, Society, Dalit Problem, Untouchables, Untouchables, Hindi Novel, Illustration, Premchandra.
प्रस्तावना
दलित शब्द व्यापक रूप से पीड़ित, शोषित, उपेक्षित, दबा हुआ, कुचला हुआ आदि अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है। किंतु हिंदू सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत यह शब्द परंपरागत रूप से शूद्र माने जाने वाले वर्ण के लिए रुढ़ हो गया। दलित वर्ग के तहत वह सभी जातियाँ समाहित है, जो जातिगत सोपानक्रम में निम्नत्तर स्तर पर है। जिन्हे सदियों से उपेक्षित व दबा कर रखा गया। भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न नामों से इस वर्ग को संबोधित किया जाता रहा है, अंत्यज अछूत शूद्र, हरिजन, अनुसूचित जाति आदि। कालांतर में इन असम्मान सूचक शब्दों की जगह पर दलित शब्द का प्रचलन हुआ। दलित वर्ग प्राचीन काल से ही दमित व शोषित रहा। ब्रिटिश काल में भी उसकी स्थिति में कोई अमूलचूक बदलाव नहीं आया। पहले की भांति ही इस वर्ग को जातिगत भेदभाव, अस्पृश्यता, पाशविक व अमानवीय व्यवहार को निरंतर सहना पड़ा। हांलांकि सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन व राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान दलित वर्ग की पीड़ा व उनकी स्थिति में सुधार हेतु राष्ट्रीय स्तर पर न सिर्फ मंथन हुआ अपितु रचनात्मक कार्यों के जरिये इस वर्ग को मुख्यधारा में लाने के प्रयास भी किये गये। युगीन हिंदी उपन्यासकार जिस सामाजिक यथार्थ को अपने चक्षुओं से देख रहा था उसे अपने उपन्यासों को कल्पनाशक्ति का सुभग संयोग कर कलमबद्ध भी कर रहा था। अत: दलित समस्या के सामाजिक यथार्थ व इसके समाधान हेतु हो रहे सामाजिक व राजनीतिक प्रयासों के उपन्यासों में न केवल लिपिबद्ध किया गया अपितु यह सामाजिक जागरण का भी जीवंत दस्तावेज बने।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तावित शोध पत्र का उद्देश्य "राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान लिखे गये हिंदी उपन्यासों में युगीन दलित वर्ग की स्थिति को तत्कालीन उपन्यासकारों ने किस प्रकार से सामाजिक यथार्थता के साथ चित्रित किया और सामाजिक जागरण में योगदान दिया" पक्ष को अवलोकित करना है।
साहित्यावलोकन

प्रस्तावित शोध पत्र में मूल स्रोत के तौर पर युगीन प्रेमचंद व सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' के कुछ उपन्यासों का अवलोकन किया गया। इसके अलावा इस विषय पर पूर्व में हो चुके कुछ शोध कार्यो व शोध पत्रों का भी अनुशीलन किया गया है। जिसमें डॉ. कुसुम मेघवाल (2021) द्वारा कृत कार्य "हिंदी उपन्यासों में दलित वर्ग" के अवलोकन से युगीन दलित संवेदना व समस्या के साथ-साथ दलित वर्ग के विकास व उसके विभिन्न कालखंडों में स्थिति तथा उनकी स्थिति में सुधार हेतु किये गये प्रयासों की जानकारी प्राप्त होती है। इसके अलावा डॉ. वीरपाल सिंह के शोध पत्र "स्वतंत्रता पूर्व हिंदी उपन्यासों में अछूत समस्या (स्वाधीनता आंदोलन के विशेष संदर्भ में) के अवलोकन से दलित समस्या के सामाजिक यथार्थ के साथ-साथ राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान इस वर्ग के राजनीतीकरण तथा अछूतोंद्वार जैसे कार्यों पर बेहतर प्रकाश डाला गया है। यह शोध पत्र दलित समस्या पर कांग्रेस के दृष्टिकोण पर भी बेहतर प्रकाश डालता है।

मुख्य पाठ

सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन के दौरान छुआछूत, जातिगत शोषण तथा अमानवीय व्यवहार के विरोध में एक प्रकार का माहौल बनना प्रारंभ हुआ। सवर्ण व अवर्ण वर्ग के कई नेताओं या सुधारको तथा उनके संगठनों ने दलितों की स्थिति में सुधार का पुरजोर समर्थन किया। किंतु इन सुधारकों ने इसे महज एक सामाजिक समस्या के रूप में ही देखा। वह भी उनका ध्यान अछूत समझी जाने वाली जातियों की ओर तब गया जब ईसाई मिशनरियाँ इस वर्ग के लोगों को ईसाइयत में धर्मातंरित करने लगी थी। यह सामाजिक मुद्दा राष्ट्रीय आंदोलन के गांधीवाद चरण में राजनीतिक मुद्दे के साथ एकाएक हो गया। प्रारंभिक दौर का हिंदी उपन्यासकार भी' दलित समस्या के सामाजिक यथार्थ से सही से तादात्म नहीं कायम कर सका। दरसल इस समय हिंदी उपन्यास विधा भी विकास की अपने शैशवावस्था में थी। इसलिये इस दौर के हिंदी उपन्यासों में दलित संवेदना व पीड़ा के जो थोड़े बहुत चित्र मिलने भी हैं उनका स्वर भी सनातनी व सुधारवादी धार्मिक आग्रहों तक सीमित है। धार्मिक आग्रहों से युक्त इन उपन्यासों में दलित वर्ग का चित्रण ऊंच-नीच व छुआछूत के खंडन व मंडन तक सीमित है। इस दौर के उपन्यासकारों यथा किशोरी लाल गोस्वामी, लज्जाराम मेहता आदि का स्वर भी युगानुकूल रुढ़िवादी व परंपरावादी दिखाई पड़ता है। इसलिये उनके उपन्यासों में ना सिर्फ सुधारवादी विचारों का ही खंडन मिलता है अपितु यह भी दर्शाने का प्रयास हुआ की "अछूत को अछूत" बनाये रखने में ही समाज का हित है। इनके उपन्यासों में दलितों के विरुद्ध होने वाले अमानवीय व अन्यायपूर्ण व्यवहार का बचाव स्पष्ट रूप में दिखाई पड़ जाता है। अगर संक्षेप में कहें तो प्रेमचंद पूर्व हिंदी उपन्यासों में दलित उत्पीड़न के सामाजिक यथार्थ को मुखरता से कलमबद्ध किये जाने के बजाय परंपरागत श्रेणीक्रम का समर्थन अधिक दिखाई देता है।

       1917 के कलकत्ता अधिवेशन में कांग्रेस ने पहली बार अछूतों की व्यवहारिक, सामाजिक कठिनाइयों और उन पर होने वाली ज्यादतियों को राजनीतिक मुद्दा बनाकर दूर करने का निर्णय लिया। इसका राजनीति में दूरगामी असर हुआ। राष्ट्रीय आंदोलन के आरंभ में जो अछूत नीति बनी, प्रेमचंद्र ने उसी की ओर संकेत करते हुये अपने 'सेवासदन' उपन्यास में कहा कि- "राजनीति में इसका कुछ यूं प्रयोग होता है कि एक ओर तो राजनेता अछूत वर्ग को अपने हिंदू समाज से अलग नहीं होने देना चाहते वहीं दूसरी ओर सामाजिक स्तर पर उनके साथ भेदभाव व पाशविक व्यवहार करते हैं। दरअसल 1931 में हुये गोलमेज सम्मेलन के परिणामस्वरूप कम्युनल अवार्ड के तहत अछूत वर्ग को अनुसूचित जाति का नाम देते हुए इस वर्ग को भी प्रथक प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया। इस प्रकार साम्राज्यवादियों ने दलित समुदाय को हिंदू सामाजिक संरचना से अलग करने का कुपित प्रयास किया। इसे गांधीजी सहित तमाम राष्ट्रीय नेताओं ने राष्ट्रीय एकता पर ब्रिटिश कुठाराघात के तौर पर देखा। फलत: उन्होंने इसका विरोध किया और अंततः दलित वर्ग के लिये गोलमेज सम्मेलन में पुरुजोर राजनीतिक मांग रखने वाले दलित नेता डॉ. भीमराव अंबेडकर को मना लिया गया। दलितों को पृथक प्रतिनिधित्व के बजाय आरक्षण के माध्यम से राजनीतिक भागीदारी दी गई।

       प्रेमचंद्र पूर्व के उपन्यासों में दलित वर्ग के प्रति सहानुभूति व न्याय की कमी दिखाई देती है। प्रेमचंद पहले ऐसे उपन्यासकार हैं जो उपन्यास को कल्पना की उड़ानों से उतार यथार्थता के धरातल पर लाये। उन्होंने समाज व राष्ट्र की प्रत्येक छोटी-बड़ी समस्या को अपने उपन्यासों के केंद्र में रखा। उन्होंने ही पहली बार दलित वर्ग को लेखकीय न्याय प्रदान किया। छुआछूत, ऊंच-नीच, जाति भेद जैसे सामाजिक दुराग्रहों के साथ-साथ दलित वर्ग की आर्थिक, सामाजिक समस्याओं का चित्रण अत्यंत मार्मिक रूप में उनके उपन्यासों में देखा जा सकता है। उनकी रचनाओं में अछूतोंद्वार एवं अन्यायपरक अन्ध परंपराओं से भारतीय समाज को मुक्ति दिलाने का आग्रह क्रमिक रूप में दिखाई पड़ता है। उनके 'प्रेमाश्रम' उपन्यास में दलित वर्ग से लिये जाने वाले युगीन बेगार का चित्रण हुआ है। बेगार प्रथा शासन की क्रूरतम अमानवीय व अन्यायपरक व्यवस्था थी। जिसमें दलित वर्ग से मनचाहा काम लिया जाता था। इसके एवज मे उन्हें कुछ भी नहीं प्राप्त होता था। यदि कोई मजदूरी मांगने की हिम्मत दिखा भी दे तो उसे न सिर्फ सार्वजनिक रूप से जातिगत टिप्पणियां कर अपमानित ही किया जाता था अपितु कभी-कभी तो उसकी पिटाई भी कर दी जाती थी। प्रेमचंद का 'रंगभूमि' उपन्यास गांधीवादी विचारधारा से अनुप्राणित है इसमें स्वतंत्रता आंदोलन कालीन परिस्थितियों का चित्रण विस्तृत फलक पर किया गया है। 'रंगभूमि' पहला ऐसा उपन्यास है जिसमें सूरदास नामक एक दलित पात्र को नायक बनाया गया। प्रेमचंद्र ने सूरदास को गांधीजी के प्रतिरूप के तौर पर प्रस्तुत किया और पराधीन भारतीय जनता का प्रतिनिधि बनाया। पांडेयपुर में सूरदास की प्रतिमा स्थापित किये जाने के दौरान जो प्रीतिभोज आयोजित किया गया प्रेमचंद्र उसमें अछूत समस्या का समाधान भी प्रस्तुत करते हैं।- "प्रीतिभोज में छूत-अछूत, सर्वण-अर्पण सभी एक ही पंगत में बैठकर भोजन करते हैं। यह सूरदास की बड़ी नैतिक विजय थी" किंतु यह सामाजिक भोज की तुलना में राजनीतिक अधिक था बावजूद इसके इसे राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान किया गया रचनात्मक कार्यक्रम कहा जा सकता है।

       प्रेमचंद्र ने अपने 'गबन' उपन्यास में पात्र देवीदीन के माध्यम से दलित वर्ग के एक आदर्श चरित्र को प्रस्तुत किया है। देवीदीन धुर राष्ट्रवादी है। वह राष्ट्र पर अपने दो पुत्रों को बलिदान कर चुका है। इस बात पर उसे बड़ा गर्व है। वह गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन का पक्का समर्थक है। विदेशी माल के प्रयोग को बंद करने हेतु उसने पुरुजोर प्रयास किये। वह नहीं चाहता कि हमारे यहॉ का धन विदेशों में जाये और हमारे गरीब श्रमिक भूखों मरे। वह दिखावे से नफरत करता है और देशभक्ति के लिये भावनाओं की निष्ठा का समर्थक है। प्रेमचंद ने अपने 'गोदान' उपन्यास में दलित वर्ग का चित्रण मातादीन- सिलिया कथा के माध्यम से किया है। सिलिया जो कि चमार जाति से है उसकी कथा मूल कथा के समानांतर चलती है। इसके माध्यम से प्रेमचंद ने सवर्ण-अवर्ण समस्या को उठाने का प्रयास किया है। उपन्यास की नारी पात्र सिलिया की दशा बड़ी ही दयनीय है। जो सवर्ण दिन के उजाले में दलित होने के कारण उसकी परछाई से भी बच कर चलते हैं वही रात के अंधेरे में उसे अपनी अंकशायिनी बनाने में जरा सा भी नही झिझकते असवर्ण नारी सवर्ण की नजरों में महज भोग की कोई चीज है। मातादीन का सिलिया से अवैध संबंध है लेकिन वह उससे शादी नहीं करता है। निरंतर शारीरिक संबंध रखने पर उसके ब्राह्मणत्व पर कोई आंच नहीं आती किंतु उसी औरत से शादी करने के नाम पर उसके ब्राह्मणत्व पर खतरा पैदा हो जाता है। प्रेमचंद्र ने सिलिया- मातादीन के इस प्रसंग से दलित वर्ग की आर्थिक, सामाजिक, दैहिक व भावनात्मक शोषण-परक सवर्णों की दोहरी नैतिकता को 'गोदान' उपन्यास में स्पष्ट अभिव्यक्ति दी है। मातादीन सिलिया को महज पेट भरने भर को अनाज देता है। जिसके एवज में वह उसका शारीरिक और भावनात्मक दोनों ही तरीकों से शोषण करता है। जब उसे उसकी आवश्यकता नहीं होती तो उसे वह छोड़ देता है। अंत में प्रेमचंद्र ने इस उपन्यास में गांधीवादी हृदय परिवर्तन सिद्धांत की भी पुष्टि की है जब मातादीन को यह यकीन हो जाता है कि यह शुद्धि मात्र एक ढकोसला है। उसे आत्मज्ञान होता है और वह मानवीय संबंधों को महत्व देते हुए सिलिया को अंगीकार कर लेता है। लेखक ने अंत में जाति-पाति से जुड़े धार्मिक पूर्वाग्रहों, अंधविश्वासों व पौरोहित्यवाद की व्यर्थता सिद्ध की है। 

       प्रेमचंद का 'कर्मभूमि' उपन्यास दलित  संवेदना एवं उनकी आर्थिक, सामाजिक समस्याओं को अभिव्यक्त करने वाली एक सशक्त कृति है वैसे तो इसकी विषय वस्तु मुख्यत: स्वाधीनता हेतु चलाये जा रहे सत्याग्रह आंदोलन पर केंद्रित है। लेकिन इसके साथ ही राजनीतिक, सामाजिक समस्याये भी गुथी हुई चलती है। अछूतों से संबंधित जो विचार प्रेमचंद्र ने इसमें प्रस्तुत किये हैं वह गांधीवादी दृष्टिकोण से अनुप्राणित है। उपन्यास में वर्णित अछूतों की मंदिर प्रवेश की समस्या संकुचित धार्मिक मनोवृत्ति को दर्शाती है। तथाकथित सुधारवाद का नारा लगाने वाले लोग इतने भी सहिष्णु नहीं दिखते कि निम्न वर्ग के लोगों को बराबर स्थान दे सके। अछूत समस्या का एक आर्थिक पक्ष यह भी वर्णित है कि इस वर्ग में हीनता का भाव कुछ इस कदर भर गया था कि वह अपने साथ होने वाली घटनाओं को भी ईश्वरीय विधान मानकर सहन कर लेता था। 'कर्मभूमि' उपन्यास का सर्वण पात्र अमरकांत अपना घर छोड़कर रैदास परिवारों के एक छोटे से गांव में जा बसता है उसे देखकर गांव की ही एक दलित महिला पात्र सलोनी काकी आश्चर्यचकित है। लेकिन अमरकांत उसे विश्वास दिलाता है कि वह जात-पात नहीं मानता। वह दलितों के बीच रहकर उनमें शिक्षा का प्रचार-प्रसार करता है। उसकी पत्नी सुखदा अछूतों के मंदिर प्रवेश सत्याग्रह में भाग लेती है। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने गांव में अछूत समस्या को आर्थिक कारकों से जोड़कर प्रस्तुत किया है। भारत के अन्य कई वर्गों की तरह अछूतों की मूल समस्या भी आर्थिक रही है। इसलिये कर्मभूमि उपन्यास में दलित वर्ग किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर नौकरशाही व जमींदारों के अत्याचार का विरोध करते हैं। उपन्यास में दर्शाया गया है कि दलितों की जैसी स्थिति ग्रामीण क्षेत्रों में है उससे भी बत्तर नगरों में है। वह जहाँ रहते हैं वह साक्षात नरक के समान है। म्यूनिसिपल बोर्ड और उसके कर्मचारी केवल धनिको की सेवा करना ही अपना कर्तव्य समझते हैं। गरीबों की झोपड़ियों की ओर उनका कोई ध्यान नहीं है। इसके विरोध में पहली बार सभी दलित संगठित हो आंदोलन करते हैं। वह अब अन्याय व उपेक्षा सहने के बजाए यह वर्ग संघर्ष का रास्ता चुनता है। जो यह दर्शाता है कि धीरे-धीरे ही सही दलितों में आर्थिक स्वालंबन व स्वत्व का विचार बलवती हो रहा था। दलित वर्ग में जातीय चेतना की आग भड़कती जा रही थी। अब यह वर्ग मात्र सामाजिक, धार्मिक स्तर पर ही नहीं अपितु आर्थिक स्तर पर भी सक्रिय हो चुका था। पूर्व जन्मों के आधार पर कोई दरिद्र या धनवान होता है, के ईश्वरीय विधान सिद्धांत को दलितों ने नकार दिया था। ईश्वर व धर्म के नाम पर होने वाले अत्याचार व अन्याय के विरोध में लोग सक्रिय हो रहे थे। 'कर्मभूमि' उपन्यास का ही एक अछूत पात्र  गूदड़ पूर्वजन्म के फल की अवधारणा को नकारते हुए कहता है- "यह सब मन को बहलाने की बातें है, जिसमें गरीब अपनी दशा में संतुष्ट रहें और अमीरों के राग-रंग में खलन न पड़े"। गांधी जी अछूतोंद्वार आंदोलन के जरिये दलितों के नागरिक अधिकार व सामाजिक बराबरी की बात करते थे किंतु प्रेमचंद ने दलितों के आर्थिक उत्थान को भी अपने उपन्यास में आवश्यक माना। इसलिए वह अछूतोंद्वार के प्रश्न पर महज नगर तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि इसे ग्रामीण अंचल तक भी ले गये।

       प्रेमचंद्र के अतिरिक्त पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र', सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' व जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित युगीन हिंदी उपन्यासों में भी दलित समस्या का यंत्र-तंत्र चित्रण देखा जा सकता है पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' का 1928 में प्रकाशित 'बुधुआ की बेटी' उपन्यास जो बाद में 'मनुष्यानंद' नाम से भी प्रकाशित हुआ यें समाज में सबसे अछूत मानी जाने वाली भंगी जाति की एक स्त्री को नायिका बनाया गया। इस उपन्यास में 'उग्र' जी ने उस घिनौने सामाजिक यथार्थ को कलमबद्ध किया जिसके चलते समाज पतोन्मुख था। उपन्यास का पात्र बुधुआ जाति का भंगी है और उसकी पुत्री रधिया उपन्यास की नायिका है। बुधुआ पुत्र लोभ में आयी अंधविश्वासी स्त्रियों के साथ फकीरों को कुकृत्य करते देख उनकी हत्या कर देता है। फलत: उसे जेल हो जाती है और उसकी पुत्री रधिया अनाथ हो जाती है। अनाथ रधिया को हिंदू समाज का कोई सहारा तो नहीं मिलता, अगर कुछ मिलता है तो सिर्फ युवकों की कामुक दृष्टि। ऐसे ही एक सवर्ण युवक घनश्याम पर रधिया विश्वास कर बैठती है। उसे उम्मीद होती है कि वह उसे सम्मान देगा। लेकिन उसकी दुरअभिलाषा जल्द ही रधिया के समक्ष उजागर हो जाती है घनश्याम के इस दुर्व्यवहार से रधिया का मन पूरी तरह पुरुष वर्ग के प्रति घृणा से भर जाता है इसके प्रतिकार में वह अपने रुप यौवन पर पुरुष वर्ग को पतंगे की तरह जलाना प्रारंभ कर देती है। 'उग्र' जी ने कटु शब्दों में युगीन पाखंडी समाज की आलोचना करते हुए यह भाव व्यक्त किया कि जो समाज एक अनाथ दलित युवती को सहारा नही दे पाया वही उसके रुप यौवन पर भूखे भेड़िये की तरह झपटता है, यह कितना बड़ा पाखंड है जो सदियों से हिंदू समाज में पलता आया है इन्हीं दोहरे सामाजिक व नैतिक मूल्यों पर 'उग्र' जी ने पूरी ताकत से प्रहार किया। रधिया के माध्यम से उग्र ने न सिर्फ दलित युवती के जीवन की विडंबनाओं को ही उजागर किया अपितु हिंदू समाज में व्याप्त सैद्धांतिक व व्यवहारिक पक्ष के भारी अंतर को भी रेखांकित किया है।

       सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी का 'निरूपमा' 'कुल्ली भाट' उपन्यास भी युगीन दलित संवेदना को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करते हैं। 'कुल्ली भाट' उपन्यास का नायक कुल्ली सामाजिक क्रांति का प्रतीक है। वह अछूतों के लिये एक पाठशाला चलाता है। जिसके चलते उसे सामाजिक बहिष्कार सहना पड़ता है। सरकार भी उसका कोई सहयोग नही करती, बावजूद इसके वह अपने बलबूते पर पाठशाला चलाता है। जिसमें धोबी, भंगी, चमार, डोम,पासी जैसी अछूत समझी जाने वाली जातियों के बच्चे पढ़ते हैं। उपन्यास में निराला जी ने नायक कुल्ली के माध्यम से अछूतोंद्वार को यथार्थवादी नजरिए से देखा और इसके नाम पर चल रहे पाखंड को भी उजागर किया। वह लिखते है तथाकथित बड़े आदमी सुधार व अछूतोद्वार की बात तो करते है, पर काम के वक्त मुहँ मोड़ लेते हैं। अपने 'निरूपमा' उपन्यास में 'निराला' जी ने अछूत समस्या को थोड़ा अलग ढंग से प्रस्तुत किया। जिसमें नायक डॉ. कुमार न सिर्फ उच्त वर्ण से है बल्कि लंदन से पी.एच.डी. करके लौटा है, किंतु नौकरी न मिलने के कारण उसने समाज पर व्यंग करने हेतु चमारों का पेशा अपना लिया है। परिणामतः कुमार के साथ उसके पूरे परिवार का बहिष्कार होता है। आधुनिक शिक्षा प्राप्त लखनऊ के लोग भी उसे हिकारत से देखते हैं जयशंकर प्रसाद ने अपने 'कंकाल' उपन्यास में धर्म के नाम पर दलितों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार व उनकी दुर्दशा पर चिंता प्रकट करते हैं प्रसाद स्पष्ट तौर पर यह मानते हैं कि वर्ण व जाति के बंधन में जकड़कर ही भारतवर्ष की यह दुर्गति हो रही है और सामाजिक विषमता बढ़ रही हैं। यहाँ प्रत्येक व्यक्ति अपनी झूठी महत्ता पर इतराता हुआ दूसरे को नीचा दिखाने पर तुला है। अन्य समाज सुधारकों की भांति ही प्रसाद भी वर्ण जाति व्यवस्था को ईश्वरकृत के बजाये एक सामाजिक अवधारणा के तौर पर ही देखते हैं।

निष्कर्ष इस प्रकार राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में लिखे गये हिंदी उपन्यासों में जहाँ प्रेमचंद पूर्व हिंदी उपन्यासों में दलित या अछूत वर्ग के प्रति सहानुभूति की कमी नजर आती है और अधिकांश उपन्यास सनातनी एवं सुधारवादी आग्रहों तक सीमित नजर आते हैं तो वहीं राष्ट्रीय आंदोलन के गांधीवादी चरण में प्रेमचंद के आगमन से हिंदी उपन्यास विधा सामाजिक सरोकारों से जुड़ी और इसने अपने विस्तृत फलक पर युगीन दलित संवेदना को न सिर्फ अभिव्यक्त ही किया अपितु आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक पक्ष को भी खंगालने के प्रयास किये। एक ओर राष्ट्रीय नेताओं द्वारा विशेषकर गांधी जी व डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा दलित वर्ग के सशक्तिकरण हेतु निरंतर प्रयास किये जा रहे थे। दूसरी ओर युगीन हिंदी उपन्यासकार दलितों की स्थिति, उनके साथ होने वाले दुर्व्यवहार, शोषण व उत्पीड़न तथा उनकी आर्थिक बदहाली को अपने उपन्यासों में कलमबद्ध कर सामाजिक जागरण का कार्य कर रहे थे। इस दौर के हिंदी उपन्यासों में न सिर्फ दलित संवेदना का ही चित्रण मिलता है अपितु सुधार की भावना से प्रेरित हो यह समाधान की राह भी दिखाते हैं। अगर संक्षेप में कहें तो प्रेमचंद युगीन हिंदी उपन्यासों से दलित या अछूत समस्या और दलित चेतना को जो अभिव्यक्ति मिलनी प्रारंभ हुई वह उत्तरोत्तर बढ़ती गई। उपन्यासकारों ने दलित व हिंदू समाज को भीतर तक झांककर देखा और प्रत्येक सामाजिक यथार्थ का नीर-क्षीण विवेचन अपने उपन्यासों में किया।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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