ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- VII October  - 2022
Anthology The Research
ग्रामीण अनुसूचित जातियों के राजनैतिक सशक्तिकरण में पंचायत राज व्यवस्था की भूमिका
Role of Panchayat Raj System in Political Empowerment of Rural Scheduled Castes
Paper Id :  16641   Submission Date :  11/10/2022   Acceptance Date :  20/10/2022   Publication Date :  25/10/2022
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ब्रह्म प्रकाश
सह - आचार्य
समाजशास्त्र विभाग
एन.आर.ई.सी. कॉलेज, खुर्जा
बुलंदशहर,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश जबसे राजनीति में अनुसूचित जातियों के लोगों ने अपनी सहभागिता देनी शुरू की है, तब से इन दलित जातियों में शिक्षा के क्षेत्र में भी आगे बढ़ने का काम किया है। वास्तव में देखा जाये तो 73वां संविधान संशाधन एक राजनीतिक परिवर्तन है, इससे स्थानीय राजनीति में दलित वर्ग का प्रभाव बढा है। समाज में छूआ-छूत अस्पृश्यता जैसी सामाजिक कुरीतियाँ समाप्त हो रही है। पंचायतराज व्यवस्था भारत के लिए एक नई उपलब्धि है। इस व्यवस्था में दलित वर्ग के लोगों के जुड़ने के कारण उनका ग्रामीण स्तरीय राजनैतिक विकास हुआ है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Ever since the people of scheduled castes have started giving their participation in politics, since then these Dalit castes have worked to move forward in the field of education as well. In fact, the 73rd Constitutional Amendment is a political change, due to which the influence of Dalits has increased in local politics. Social evils like untouchability are ending in the society. Panchayat Raj system is a new achievement for India. Due to the involvement of Dalit class people in this system, their village level political development has taken place.
मुख्य शब्द सशक्तिकरण, अनुसूचित जाति, अस्पृश्यता, जागरूकता, राजनैतिक, कुरीतियाँ।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Empowerment, Scheduled Castes, Untouchability, Awareness, Political, Evils.
प्रस्तावना
अशिक्षा, अज्ञानता, गरीबी, शोषण, जागरूकता की कमी आदि के कारण अनुसूचित वर्ग अपने को पिछड़ा महसूस कर रहा है। समाज में परिवर्तन हो रहा है दलित वर्ग शक्ति सम्पन्न हो रहे हैं। क्योंकि इसकी गति काफी धीमी है। इसलिये डॉ0 अम्बेडकर के कथन शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो के सिद्धांत का पालन करना दलित वर्ग के सशक्त बनने के लिये अतिआवश्यक है क्योंकि दलितों द्वारा शिक्षा के माध्यम से अपना विकास कर समाज के सभी क्षेत्रों में प्रवेश किया जा सकता है। संगठन के रूप में पंचायत राज संस्थायें एक साधन है और संस्थाओं के माध्यम से दलित वर्ग आज भी राजनैतिक सशक्तिकरण के लिये संघर्षरत हैं।
अध्ययन का उद्देश्य 1. अनुसूचित जातियों को राजनैतिक भागीदारी में लाना। 2. दलित वर्ग की राजनीति में भागीदारी बढ़ेगी तो निश्चित उनका आर्थिक व शैक्षिक विकास होगा।
साहित्यावलोकन

1. सिंह, आर.जी. ने अम्बेडकर विचार विमर्श को सामाजिक परिवर्तन में अनुसूचित जातियों के राजनैतिक सशक्तिकरण के प्रभाव को काफी नजदीकी से देखा है।

2. वाली, सुरेश राम ने सांमन्तवादी व्यवस्था के बाद अनुसूचित जातियों के अन्दर राजनैतिक सशक्तिकरण के बढ़ते हुए प्रभाव का मूल्यांकन किया है।

मुख्य पाठ

संविधान के 73वें संशोधन के डॉ0 अम्बेडकर के वर्ष 1932 के ग्राम पंचायत से सम्बन्धित विचारों को पंचायत राज संस्थाओं ने मूर्त रूप प्रदान किया है। पंचायत राज संस्थाओं में दलित वर्ग की भागीदारी या उनके हाथों में सत्ता आने से उनकी समाज के हर क्षेत्रों की स्थिति में सकारात्मक परिवर्तन हुआ। हम देखें तो 73वां संविधान संशोधन एक राजनैतिक परिवर्तन है। लेकिन इस राजनैतिक परविर्तन ने राजनैतिक शक्ति के साथ-साथ दलितों की सामाजिक स्थिति को भी सुधारा है। दलितोत्थान वर्तमान समय की आवश्यकता है तभी राष्ट्र विकासों-मुखी मार्ग पर गतिमान हो सकेगा। राजनैतिक दलों व राजनेताओं की दलितों पर होने वाले अत्याचारों को राजनैतिक रंग देकर अपने निजी या दलीय स्वार्थों की संकीर्ण प्रवृति पर नियन्त्रण लगाना भी अत्यन्त आवश्यक है। समानता के व्यवहार को महत्ता प्रदान करनी होगी क्योंकि दलितों को सामाजिक न्याय प्रदान किये बिना दलितों को राजनीतिक रूप में सशक्त करना असम्भव है।

दलितों के लिये पंचायतों में विशेषज्ञ प्रतिनिधित्व की बात को स्वीकार करते हुए संविधान में भाग नौ और ग्यारहवीं अनुसूची जोड़ी गयी जिसमें अनुच्छेद 243(डी) द्वारा अनुसूचित जाति, जनजाति तथा महिलाओं को पंचायतों के सभी स्तरों (ग्राम, ब्लॉक, जिला) पर एक तिहाई आरक्षण प्रदान किया गया। इस प्रकार से यह सिद्ध होता है कि डॉ0 अम्बेडकर द्वारा राज्यों में पंचायत राज व्यवस्था को अपनाया गया है और पंचायत राज अधिनियम का पालन किया जा रहा है। जिससे दलित राजनैतिक सशक्तिकरण को दिशा मिली है। वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के  परिवर्तन में पंचायती राज एक अहम भूमिका निभा रही है। व्यवस्था के लागू होने के पश्चात से समाज के कमजोर वर्गों अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं को इन संस्थाओं में स्थान मिला है जिससे समाज में इनकी स्थिति  बेहतर हुई है।

दलित वर्ग की भागीदारी से स्थानीय राजनीति में इस वर्ग का प्रभाव बढ़ा है। समाज में छुआ छूत, अस्पृश्यता आदि जैसी सामाजिक कुरीतियाँ समाप्त हो रही है।जिससे इस वर्ग को शासन द्वारा संचालित विकास योजनाओं का भी लाभ मिल रहा है। जो वर्ग अभी तक समाज में दबा-कुचला हुआ पड़ा था उसमें काफी राजनैतिक चेतना आयी है और इस वर्ग के लोग अब अपने हक के लिये संघर्ष कर रहे हैं जिसमें केन्द्र तथा राज्य की सरकारें दलित वर्गों को सशक्त बनाने के लिये नयी-नयी योजनायें बना रही है। ताकि इस वर्ग का चहुमुखी विकास हो सके।

लोकतंत्र की निम्नतम ईकाई पंचायत है और स्थानीय स्वशासन में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। पंचायती राज भारत के लिये नयी उपलब्धि नहीं है। प्राचीन काल से हमारे दश में इसकी सशक्त परम्परा रही है। प्राचीन भारत में जहाँ शक्तिशाली राजा महाराजा और सामन्त थे, वहीं साधन सम्पन्न एवं सक्षम गणराज्य थेेेे इनमें लिच्छिवी गणराज्य तो एक बहुत ही वैभवशाली और विख्यात गणराज्य था। इस समय की पंचायतों की विशेषता यह थी कि अनेक राज्य बने अनके राज्य मिटे किन्तु पंचायती राज प्रणाली वाली सामुदायिक सहयोग की भावना लोगों में बनी रही चूंकि निःस्वार्थ भावना में कार्य करने के कारण इस समय पंचो को परमेश्वर का सम्मान दिया जाता था।

सर्वप्रथम महात्मा गाँधी ने पंचायती राज व्यवस्था के माध्यम से समाज के कमजोर वर्ग के हाथों में सत्ता सौंपने की कल्पना की और वह पंचायतो को ज्यादा से जयादा अधिकार सम्पन्न कराने के पक्षधर थे ताकि ग्रामीण स्तर पर ग्राम स्वराज्य स्थापित हो सके। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सन 1959 में राजस्थान के नागौर जिले में पंचायती राज की त्रिस्तरीय व्यवस्था का उद्घाटन किया। इसके पश्चात देश के विभिन्न राज्यों में इस व्यवस्था को अपनाया गया। लेकिन इन सभी व्यवस्थाओं में समाज में कमजोर अथवा दलित वर्ग की भागीदारी पर ध्यान नहीं दिया गया और न ही कोई कानूनी प्रावधान बनाया गया। फिर 1977 में अशोक मेहता समिति जी0वी0आर0 राव समिति 1986 और एल0एम0 सिंधवी समिति 1986 में पंचायती राज संस्थाओं को अधिकार सम्पन्न तथा मजबूत करने के लिये समय-समय पर सुझाव दिये।

वर्तमान पंचायती राज व्यवस्था के अन्तर्गत पंचायतों के तीनों स्तरों पर सदस्यों और अध्यक्ष के पदों हेतु पहली बार कुल निर्धारित पदों पर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों हेतु उनकी जनंसख्या के अनुसार और महिलाओं हेतु एक तिहाई पद आरक्षित किये। जिसमें जिला ब्लॉक और ग्रामीण स्तरीय पंचायतों में दलित प्रतिनिधि चुने गये और जिन्हें अपने क्षेत्रों तथा समाज के विकास के लिये रोजगार के लिये योजनायें बनाने और उसे क्रियान्वित करने का मौका मिला। इन ग्राम पंचायतों के गठन से न केवल ग्रामीण  विकास केा बल मिला बल्कि समाज में व्याप्त सामन्तवादी व्यवस्था का उन्मूलन भी हुआ। जिससे समाज के दलित वर्ग की थी निर्णय प्रक्रिया में सहभागिता बढ़ी।

आज ग्रामीण विकास की सभी योजनायें पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से चलायी जा रही हैं चूंकि इन संस्थाओं में दलितों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व होने के कारण अब इस वर्ग को लाभ मिल रहा है। धीरे-धीरे दलित वर्ग में चेतना आयी है साथ ही साथ आत्म विश्वास भी बढ़ा है।

पंचायतों में दलितों की भागीदारी स्थानीय सरकार में उपस्थिति बनाने का एक वैधानिक माध्यम है। दलित वर्ग की भागीदारी से गॉव के कामकाज में सामाजिक बाध्यता की सामाजिक दीवारें कुछ हद तक नीचे गिरी हैं तथा सक्रिय भागीदारी द्वारा स्थानीय राजनीति में अपना प्रभाव बढ़ाया है। विकास की स्थानीय राजनीति पर अपनी पकड़ मजबूत करने, अपनी क्षमता पहचानने और विकेन्द्रित स्तर पर अच्छे शासन का प्रयास बढ़ाने का मौका इन संस्था ने दिया है। इस कारण समाज में उच्च जाति एवं वर्ग के रूप में स्थापित बल अब पंचायत सदस्यता और अध्यक्षता में स्वयं को कुछ हद तक बेदखल महसूस कर रहा है।

दलित सशक्तिकरण में जागरूकता की कमी, जातिगत भेदभाव अशिक्षा, निम्न आर्थिक पृष्ठभूमि, दूसरे वर्गों पर निर्भर होना, सरकारी अधिकारियों का असहयोग आदि सभी विकास में बाधक रही हैं।

दलित वर्ग के सशक्तिकरण में पंचायती राज व्यवस्था ने प्रभावी तथा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है लेकिन केवल संविधान में अधिकारों की व्यवस्था होने से दलित सशक्त हो जायेंगे। यह समझना ठीक नहीं है, इसलिये इस वर्ग के सशक्तिकरण में समाज तथा संविधान की व्यवस्थाओं का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि सामाजिक समानता के बिना संवैधानिक समानता अधूरी है। समाज में दलित सशक्तिकरण को एक सामाजिक आन्दोलन का रूप देना होगा। वास्तविक रूप में दलित वर्ग को सशकत करने के लिये पंचायत राज व्यवस्था के माध्यम से जरूरत है। अनुसूचित जातियों/जनजातियों को समाज, सहयोग और सुरक्षित वातावरण उपलब्ध कराने की।

निष्कर्ष अनुसूचित जातियों के अन्दर देखा जाये तो पंचायतों में भागीदारी बढने के कारण उनका आर्थिक व सामाजिक विकास हुआ है, जो दलित समाज के अन्दर जागृति पैदा करता है और साथ ही साथ उनकी आने वाली पीढियों में आर्थिक और सामाजिक विकास को गति प्रदान करता है जिससे दलित समाज आगे बढ़ रहा है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. सिंह आर0जी0: (1992) अम्बेडकर विमर्श एवं सामाजिक परिवर्तन, प्रकाशित म0प्र0 हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल, पृष्ठ 35 2. माहेश्वरी एस0आर0: (1994) भारत में स्थानीय शासन, दीप एण्ड दीप सन्स पब्लिकेसन्स, नई दिल्ली, पृष्ठ 82-83 3. वाली सुरेश राम: (2006) नवीन पंचायत राज अधिनियम, डॉ0 अम्बेडकर के चिन्तन की प्रासंगिकता के सन्दर्भ में, बहुजन कल्याण प्रकाशन (प्रा0लि0) लखनऊ, पृष्ठ-110-111 4. रामचन्द्रन पी0:(1995) पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन इन इण्डिया, नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इण्डिया, नई दिल्ली, पृष्ठ 202 5. सिंह रूपेश कुमार: (2010) पंचायत राज और सामाजिक परिवर्तन: डॉ0 अम्बेडकर के विचारों के विशेष सन्दर्भ में, अम्बेडकर पीठ प्रकाशन, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म0प्र0) पृष्ठ-153 6. सिंह रूपेश कुमार: (2010) पूर्वोक्त, पृष्ठांकन 154-155 7. सिंह रूपेश कुमार: (2010) ‘उत्तर प्रदेश शासन, आपके द्वारा शासकीय निर्देश परिपत्र, उ0प्र0 शासन लखनऊ, पृष्ठ-2