ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- VIII November  - 2022
Anthology The Research
दलितोत्थान में डॉ. अम्बेडकर का योगदान
Contribution of Dr. Ambedkar in Dalit Upliftment
Paper Id :  16704   Submission Date :  15/11/2022   Acceptance Date :  22/11/2022   Publication Date :  25/11/2022
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निकिता जायसवाल
अतिथि व्याख्याता
राजनीति विज्ञान
टीएनएस कॉलेज, गोटेगांव
नरसिंहपुर ,मध्य प्रदेश, भारत
सारांश न्यायपूर्ण समाज के निर्माण में डॉ भीमराव अमेडकर का योगदान अतुलनीय है। वे स्वयं एक निम्न जाति ‘महार’ में पैदा हुए थे, शायद यही वजह थी कि उन्होंने समाज में व्याप्त सामाजिक असमानता, जाति व्यवस्था, शूद्रों के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार को बड़ी बारीकी से देखा। वह यह सोचने पर मजबूर हुए कि समाज में जातिगत असमानता क्यों है? इसी सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए उन्होंने आवाज़ उठाना शुरू किया। इस सामाजिक संघर्ष में वह सफल भी हुए जिसका परिणाम वर्तमान में हमारे सामने है। उनका जन्म ऐसे ही समय में हुआ था जब हिन्दू समाज एवं संभ्यता छुआछुत, अस्पर्श्यता, जाति प्रथा तथा रूढ़िवादिता के संकट दौर से गुज़र रही थी। उन्होंने हिन्दू समाज को पतन से बचाने इन सब मान्यताओं का विरोध और दलितों के उत्थान का महान कार्य किया।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Dr. Bhimrao Amedkar's contribution in building a just society is incomparable. He himself was born in a low caste 'Mahar', perhaps this was the reason that he saw very closely the prevailing social inequality, caste system, inhuman treatment of Shudras in the society. He was forced to think that why there is caste inequality in the society? To remove this social inequality, he started raising his voice. He was also successful in this social struggle, the result of which is in front of us at present. He was born at a time when the Hindu society and civilization was passing through the crisis of untouchability, untouchability, caste system and conservatism. He opposed all these beliefs to save the Hindu society from downfall and did a great job of upliftment of Dalits.
मुख्य शब्द जाति, डॉ. अम्बेडकर, अस्पृश्यता, संविधान, वर्ण व्यवस्था।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Caste, Dr. Ambedkar, Untouchability, Constitution, Varna System.
प्रस्तावना
दलित समुदाय में सामाजिक परिवर्तन की आवाज़ का इतिहास आधुनिक काल में लभगग 150 वर्ष पुराना है। भारत में वर्तमान समय में ‘दलित’ शब्द का अनेक अर्थों में उपयोग होता है जो वर्तमान में अनुसूचित जाति के अंतर्गत आते हैं। दलित का सीधा अर्थ पीड़ित, शोषित, दबाया हुआ या ‘जिनका छीना गया हो’ होता है। भारत की जनगणना 2011 के अनुसार भारत की जनसँख्या में लगभग 16।6% या 20।14% करोड़ आबादी दलित है। डॉ। अम्बेडकर का एक कथन है ‘मेरे दुःख दर्द और मेहनत को तुम नहीं जानते, जब सुनोगे, तो रो पड़ोगे।’ इस कथन में डॉ अम्बेडकर के ‘अछूतों के एकमात्र अछूत मसीहा बनने की कहानी छिपी हुई है। डॉ. अम्बेडकर ने ब्राह्मणवाद, उच्च जातियों के दंभ और पाखण्ड के विरुद्ध जीवन भर संघर्ष किया। उनका संघर्ष अहिंसा की सीमा के दायरे तक सीमित रहा। अम्बेडकर का मानना था की अस्पृश्यता की जड़ें वर्ण व्यवस्था में हैं। वर्ण व्यवस्था को उन्होंने अन्यायपूर्ण, अवैज्ञानिक तथा शोषणकारी सामाजिक योजना बताया। उन्होंने कहा कि “मनु, याज्ञवल्क्य आदि स्मृतिकारों ने अपने ग्रंथों में शूद्रों को हीन स्थिति में डाल दिया और शूद्रों को तीन वर्णों को उनका संरक्षक बनाकर उन्हें दया का पात्र बना दिया”।[1]
अध्ययन का उद्देश्य उक्ताशय के अध्ययन का उद्देश्य बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर द्वारा किये गए दलित उत्थान संबंधी कार्यों का विश्लेषण करना है ताकि उनके द्वारा सामाजिक न्याय और समता के उद्देश्यों को ज्यादा गहराई से जाना जा सके और उनके सामाजिक योगदान को रेखांकित करते हुए उनके द्वारा किये गए प्रयत्नों की प्रासंगिकता और महत्व से परिचय प्राप्त किया जा सके।
साहित्यावलोकन

इस अध्ययन के लिए डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखित उपलब्ध पुस्तकों का अध्ययन किया गया है तथा उनके लेखन को व्याख्यायित और विश्लेषित करने वाली विभिन्न सन्दर्भ ग्रंथों और पुस्तकों का अवलोकन किया गया है। सन्दर्भ का उल्लेख शोध पत्र के अंत में किया गया है। भारतीय जाति व्यवस्था को व्याख्यायित करने वाली विभिन्न पुस्तकों का भी अवलोकन किया गया है जिनके आधार पर दलित उत्थान में डॉ. अम्बेडकर के योगदान को रेखांकित करते हुए उनके कार्यों एवं विचारों को विश्लेषित किया गया है। 

मुख्य पाठ

डॉ. अम्बेडकर ने मनुस्मृति पर आधारित श्रेणीबद्ध असमानता के सिद्धांत को कड़ी चुनौती दी। वे ऐसे विचारों के विरोधी थे जो मनुष्य को अमानवीय स्थिति में ले जाते हैं। उनका मानना था कि “सामाजिक अधिकारों के क्षेत्र में मनुस्मृति निकृष्टतम् है सामाजिक अन्याय का कोई भी उदाहरण मनुस्मृति की तुलना में फीका लगेगा”।[2] वर्ण व्यवस्था के पदानुक्रम का परिणाम यह हुआ की शूद्रों को शिक्षा एवं संपत्ति प्राप्त करने तथा सामाजिक पर्व में भाग लेने से वंचित कर दिया गया। यही वर्ण व्यवस्था कालांतर में जाति व्यवस्था में परिवर्तित होकर अपरिवर्तनीय बन गयी। जाति प्रथा की उपज ही अस्पृश्यता या छुआछूत की भावना है।

डॉ. अम्बेडकर 1930 में अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ के अध्यक्ष बने। उन्होंने 1930-31 में दलितों के प्रतिनिधि के रूप में लंदन में आयोजित प्रथम एवं द्वितीय गोलमेज परिषद् में भाग लिया जहाँ उन्होंने अछूतों को हिन्दू समाज से पृथक प्रतिनिधित्व दिलाने में सफलता प्राप्त की। अम्बेडकर ने मानव अधिकारों के बल पर दलितों के न केवल सामाजिक बल्कि राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक आदि अधिकारों को दिलाने हेतु संघर्ष किया। वे भारतीय समाज की संरचना और परंपरा, दोनों में ही बदलाव की बात करते थे। उन्होंने भारतीय समाज की पतनोन्मुख परम्पराओं के सम्मुख दलितों के उत्थान हेतु 14 अक्टूबर 1956 में नागपुर में बौद्ध धर्म में पुनः प्रवेश कर दलितों को नवीन धार्मिक, अध्यात्मिक, नैतिक मूल्यों, रीति रिवाजों की परंपरा प्रदान की। सामाजिक संरचना में बदलाव लाने के लिए राजनीति और अर्थव्यवस्था के हथियारों से प्रहार किया। 1930 में दलितों को केवल वोट बैंक के रूप में ही देखे जाने का विरोध करते हुए उनके लिए पृथक निर्वाचन की माँग रखी। उन्होंने भारतीय संविधान में समानता का नारा ही नहीं दिया अपितु अवसर की समानता के साथ परिस्थिति की समानता भी प्रदान की और आगे चलकर दलितों की दयनीय दशा में सुधार लाने हेतु आरक्षण के प्रावधान को सुनिश्चित करने की पहल की। इसी के परिणामस्वरूप समाज में संरचनात्मक परिवर्तन हुए।[3]

दलित समाज में सदियों से लादी हुई धार्मिक, सामाजिक गुलामी के कारण अम्बेडकर ने हिंदुत्व को नकारने की घोषणा की। उनका मानना था कि दलितों पर हुए अत्याचार एकांगी नहीं हैं बल्कि यह धर्म विशेष की परंपरागत सोच का नतीजा है। गाँधी जी ने धर्म परिवर्तन की घोषणा को अम्बेडकर का बम्बशेल कहकर पुकारा था।[4] डॉ. अम्बेडकर ने दलितों को उनकी हजारों वर्षों की गुलामी से मुक्ति हेतु यह जीवन ही अर्पित कर दिया था। डॉ. अम्बेडकर ने विभिन्न मंचों पर दलितों को सामाजिक व राजनैतिक अधिकार प्राप्त करने के उद्देश्य से ब्रिटिश शासन काल से ही दलितों के पक्ष को प्रस्तुत किया।[5] दलितों की समस्याओं को शासन के सम्मुख रखने तथा उनके हितों के लिए संघर्ष का नेतृत्व करना अम्बेडकर के लिए स्वाभाविक था। उन्होंने दलितों के न्यायपूर्ण हितों के लिए सौथ्बरी समिति तथा साइमन कमीशन के सन्मुख वकालत की जिसका परिणाम यह हुआ कि ब्रिटिश शासन ने दलितों को पृथक प्रतिनिधित्व दिए जाने संबंधी डॉ. अम्बेडकर की माँग को स्वीकार कर लिया। अखिल भारतीय अनुसूचित जाति परिषद् के प्रतिनिधि के रूप में डॉ. अम्बेडकर ने स्वतंत्र भारत के संविधान में दलितों को न्यायपूर्ण अधिकार प्रदान किये जाने हेतु आवश्यक प्रावधान किये जाने किए जाने के उद्देश्य से ज्ञापन दिया। इस ज्ञापन की अनेक मांगे संविधान में स्वीकार कर ली गईं। बाद में यह स्टेट एंड मायनारिटीज़ शीर्षक से एक लघु पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुआ”।[6]

डॉ। अम्बेडकर द्वारा दलितों के लिए किये गए संघर्ष की ईमानदारी और निष्ठा आज दलित समाज की प्रेरणा और धरोहर है। उन्होंने दलितों के सामाजिक एवं आर्थिक उत्थान हेतु लम्बी लड़ाई लड़ी, जिसका प्रतिफल उन्ही द्वारा रचित आधुनिक भारत के संविधान में हुआ। “समाज में फैली अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए अनु। 17 द्वारा सदैव के लिए निषेध लगा दिया गया”।[7] उन्होंने अस्पृश्य और दलितों के लिए जो संघर्ष किये हैं, उनकी मुक्ति के लिए जो किया है वह किसी जाति या वर्ण तक सीमित नहीं है। वे एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था चाहते थे जिसमें धर्म, राज्य, सत्ता, पूंजीवाद आदि द्वारा स्त्री-पुरुष का शोषण समाप्त हो जाये। डॉ. अम्बेडकर भली-भांति जानते थे कि गरीब व अशिक्षित होने के कारण पूंजीवादी व्यवस्था में दलितों की आर्थिक उन्नति संभव नहीं है। उनका मानना था कि सामाजिक व आर्थिक अधिकारों की प्राप्ति और उनका सार्थक उपयोग दलितों के लिए तब तक संभव नहीं है जब तक उनको शासन में भागीदारी नहीं मिलती। इस हेतु उन्होंने ‘इंडिपेंडेंट लेबर्स पार्टी’ (1936) का गठन किया। उनकी पहल पर आगे चलकर दलितों ने, विशेष रूप से उनके अनुयाइयों ने ‘रिपब्लिकन पार्टी’ के झंडे तले अपना राजनीतिक मोर्चा संभाला।

दरअसल डॉ. अम्बेडकर एक ऐसे समाज का स्वप्न देख रहे थे जिसमें मनुष्य की पहचान मनुष्य के रूप में हो। आर्थिक व बौद्धिक रूप से कमज़ोर तथा पिछड़े लोगों को सुविधाएं व अधिकार देकर वे समतावादी समाज व्यवस्था स्थापित करने की बात करते थे। “अम्बेडकर का दृढ़विश्वास था कि समता के बिना स्वतंत्रता, अधूरा लोकतंत्र है और स्वतंत्रता के बिना समता केवल तानाशाही में परिवर्तित हो सकती है। इसलिए वह समता और स्वतंत्रता दोनों का आश्वासन देने वाली समाज व्यवस्था चाहते थे”।[8]

अम्बेडकर का मानना था कि छुआछूत की जड़ वर्ण तथा जाति में है उन्होंने जातिप्रथा और वर्णव्यवस्था को हिन्दू धर्म और देश के अध:पतन के लिए उत्तरदायी बताया।[9] अम्बेडकर ने जातिप्रथा को एक क्रूर व्यवस्था बताया और इसे तोड़ने के लिए अंतर्जातीय विवाह को एकमात्र उपाय बताया। उनका मानना था कि अंतर्जातीय विवाह अधिकाधिक होता जाए तो जाति में बंधन अपने आप कमज़ोर हो जायेंगे क्योंकि रक्त संबंधों के कारण आत्मीयता की भावना पनपती है। अम्बेडकर ने अपृश्यता प्रथा में निहित अन्याय पर प्रकाश डालने के लिए अपनी कृति ‘ऐनीहिलेशन आफ कास्ट’ की 1936 में रचना की। डॉ. अम्बेडकर ने 27 अप्रैल 1927 को अपना दूसरा पाक्षिक मराठी पत्र ‘बहिष्कृत भारत’ निकालते हुए यह उद्देश्य बताया था कि यह दलित वर्ग को राष्ट्रीय घटनाओं के प्रति जागरूक रखने का काम करेगा लेकिन उनका यह कार्य धनाभाव के कारण पूरा न हो सका और 15 नवम्बर 1929 को ही बंद हो गया।

डॉ. अम्बेडकर प्रारंभ से मानते थे की दलित यदि समाज में अपना स्थान बनाना चाहते हैं तो दलित वर्गों को आत्म सुधार में विश्वास करना चाहिए। वे कहते थे कि अछूत ही अछूत को नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं। इसके लिए उन्होंने दलितों को मदिरापान और गोमांस भक्षण छोड़ने की सलाह दी।[10]

डॉ. अम्बेडकर ने विभिन्न आन्दोलनों का भी नेतृत्व किया इन आंदोलनों में अमरावती में अम्बा देवी मंदिर (1927), बम्बई में गणपति प्रांगण (1929) तथा नासिक में कालाराम मंदिर (1930) में प्रवेश के लिए हुए आन्दोलन प्रमुख हैं। अम्बेडकर मानते थे कि किसी भी उत्पीड़ित समूह को अपने भीतर से नेतृत्व पैदा करना चाहिए – किसी अन्य समूह की सहानुभूति या नेतृत्व के सहारे उसे अपने उत्थान की आशा नहीं करनी चाहिए।[11]

वे समाज सुधार चाहते थे किन्तु उपकार के रूप में नहीं अपितु अधिकार के रूप में। उन्होंने दलितोद्धार हेतु दलितों को शिक्षित बनो, संगठित बनो, संघर्ष करो एवं आत्मनिर्भर बनने की सलाह दी। 1926 में सतारा में दलितों को संबोधित करते हुए बाबा साहब ने कहा “जैसे-जैसे  दलितों के हाथ में अधिकार आयेंगे, उनकी आर्थिक स्थिति सुधरेगी और वे वैसे-वैसे प्रगति की ओर अग्रसर होंगे।”[12]

बहिष्कृत दलितों के आन्दोलन को मजबूत करने के लिए डॉ. अम्बेडकर ने ‘बहिष्कृत भारत’ नाम पाक्षिक पत्र का प्रकाशन शुरू किया और स्पष्ट किया कि यह पत्र जनता की जागृति के लिए स्वयं ली हुई दीक्षा है। इसका पहला अंक 3 अप्रैल 1927 को प्रकाशित हुआ। श्रममंत्री के रूप में बाबा साहब ने दलितोद्धार की दिशा में आई.सी.एस की नौकरी में दलितों का अनुपात बढ़ाने, जनसँख्या के अनुपात में मुसलमानों की भांति दलितों को नौकरियाँ देने का अधिकार, दलितों में शिक्षा के विकास के लिए निधि की व्यवस्था, दलित छात्रों के लिए लंदन के विश्वविद्यालय में कुछ स्थान आरक्षित कराने, केंद्रीय असेंबली में दलितों की संख्या बढाए जाने, कार्यकारी परिषद् में एक दलित के स्थान पर दो दलित की नियुक्ति की सिफारिश जैसे अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये[13]

अम्बेडकर के चिंतन से पता चलता है वे दलित वर्ग के हित को इतना अधिक प्राथमिकता देने की प्रामाणिकता उनके इस कथन से पता चलती है जिसमें वे कहते हैं कि “यदि कभी उनके हित और अनुसूचित जातियों के हित में टकराव हुआ तो वे अनुसूचित जातियों के हित को प्राथमिकता देंगे और यदि देश के हित और दलित वर्ग के हित में प्राथमिकता की बात आये या टकराव हो तो वे दलित वर्ग को प्राथमिकता देंगे”।[14] उनकी आकांक्षा थी कि “मैं उन दलित लोगों की सेवा और हित में मरुँ जिनके बीच मेरा जन्म हुआ, पालन पोषण हुआ और मैं जिनके बीच रह रहा हूँ।[15]

चूँकि अम्बेडकर यथार्थवादी एवं मानवतावादी सोच के व्यक्ति थे वे समाज के शोषित वर्ग को ‘अछूत’ कहे जाने पर आपत्ति ही नहीं की अपितु  उसे पुनः परिभाषित भी किया। उन्होंने व्यक्ति और समाज, संविधान तथा संसदीय प्रणाली, धर्म और नवमानवतावाद आदि के बारे में गंभीर चिंतन किया और कहा कि हिन्दू समाज अपृश्यता, असमानता एवं शोषण रुपी रोग से ग्रस्त है। इस आतंककारी व्यवस्था के आगे झुकना आत्महत्या के समान है।[16] अम्बेडकर द्वारा चलाये गए महान सत्याग्रह का अछूतों पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। 8 अगस्त 1930 को नागपुर में दलित वर्ग कांग्रेस के पहले अधिवेशन में अम्बेडकर ने मांग रखी कि दलितों को पर्याप्त आरक्षण प्राप्त होना चाहिए और उन्होंने गांधी द्वारा शुरू किये गए ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ का विरोध किया और कहा कि इस तरह से जो क्रांति होगी वह दिशाहीन होगी। उन्हें 1924 के गांधी के अछूतोद्धार कार्यक्रम का मार्ग अधिक विलम्ब तथा अप्रभावी लगा। हरिजन कल्याण एवं अस्पृश्यता उन्मूलन संबंधी उपायों पर उनका गांधीजी से मतभेद था।[17] अम्बेडकर का मानना था की यदि तिलक ब्राह्मण की जगह अछूत जाति में पैदा होते तो वे कहते कि अस्पृश्यता  उन्मूलन मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं उसे लेकर रहूँगा।

अम्बेडकर ने दलित समस्या के निराकरण के अनके उपाय भी बताये। डॉ. अम्बेडकर कहते थे कि जब तक दलित सवर्णों के साथ एक ही गाँव में रहेंगे तब तक वे भेदभाव, अत्याचार और शोषण के शिकार होते रहेंगे। इसलिए उनका कहना था कि दलितों के पृथक गाँव बनाने के लिए सरकार को भूमि आवंटित करनी चाहिए। साथ ही दलितों को शहरी क्षेत्रों में स्थायी रूप से बसने की सलाह दी। वे मानते थे कि गाँवो में दलितों का जीवन पशुवत होता है इसलिए उनका सुझाव था कि दलितों को अपनी आजीविका लौकिक व्यवसायों से कमानी चाहिए।

18 अक्टूबर 1925 को बम्बई में दलितों की एक सभा को संबोधित करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा “तुम्हारे गले में पड़ी तुलसी की माला तुम्हें सूदखोरों के चंगुल से नहीं बचा पायेगी इसलिए मैं आपको सलाह देता हूँ कि जो थोड़ी बहुत राजनैतिक शक्ति आपके हाथों में आ रही है आप उसका लाभ उठायें।” इस वक्तव्य से दलितों को यह सन्देश दिया कि उन्हें राजनीतिक शक्ति प्राप्त करनी चाहिए। यह शक्ति उन्हें अपनी एकता व संगठन से प्राप्त करनी चाहिए न कि दूसरों के संरक्षण से।[18]

डॉ. अम्बेडकर का लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में अटूट विश्वास था इसलिए संवैधानिक दायरे के अन्दर लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया के द्वारा दलित समस्या का हल ढूंढने के पक्ष में थे। 21 मार्च 1928 को नागपुर में एक सभा में दलितों के लिए एक सन्देश में उन्होंने कहा कि “यदि भारत में स्वराज आता है तो भारत के संविधान में अछूतों के लिए मौलिक अधिकार अवश्य सम्मिलित किये जाने चाहिए।[19]

डॉ. अम्बेडकर के सोचने का ढ़ंग ठोस व बुनियादी था। वे यह समझते थे कि निरंतर संघर्ष करके ही अछूत समाज हिन्दुओं से कुछ प्राप्त कर सकता है। अम्बेडकर की दलितों के प्रति समर्पण की भावना से काम करना उनके लिए कई बार निंदा या विरोध जैसी परिस्थितियों का सामना करने पर मजबूर कर देता था। यहाँ तक कि अपनी दलितोद्धार नीति के कारण अम्बेडकर सवर्ण हिन्दुओं के दुश्मन बन गए। उनको प्रतिक्रियावादी, सम्प्रदायवादी, देशद्रोही तथा अंग्रेजों का खरीदा हुआ गुलाम तक कहा गया। अम्बेडकर का मानना था कि कांग्रेस की अछूतों के प्रति नीति काल्पनिक तथा केवल मानसिक थी, जबकि अछूतोद्धार के प्रति अम्बेडकर की नीति प्राकृतिक, वास्तविक तथा व्यहवारिक थी।

अम्बेडकर की ‘द अनटचेबल्स हु वर दे एंड व्हाई दे बिकेम अनटचेबल्स’ पुस्तक जो 1948 में प्रकाशित हुई थी, में अस्पृश्यता के प्रत्येक पहलू पर विचार किया गया। अस्पर्श्यता की उत्पत्ति के बारे में मान्यताएं बताईं। दलितों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए उन्होंने जीवन पर्यंत कार्य किया। इसके लिए उन्होंने न केवल स्वयं प्रयत्न किया बल्कि दलितों को भी अपनी कमजोरियों दूर करने का सन्देश किया। संगठन, संघर्ष और शिक्षा को वो दलितोद्धार का साधन मानते थे। वे कहते थे कि अन्याय तब तक समाप्त नहीं होगा जब तक उसे सहन करने वाला स्वयं खड़ा न हो। अम्बेडकर का दलितोद्धार के लिए संकल्पित थे। उनका मानना था कि मेरे जीवन का कोई अर्थ नहीं यदि मैं उस वर्ग की घृणित तथा अमानुषिक अन्याय को मिटाने में असफल रहा।

निष्कर्ष अम्बेडकर ने दलितों के हितों के लिए बहुत अधिक समर्पित भाव से कार्य किया। देश के विभिन्न भागों का भ्रमण कर वैयक्तिक एवं सामूहिक रूप से दलितों से संपर्क कर, उनकी समस्याओं की जानकार प्राप्त कर एवं उन पर होने वाले अत्याचारों का भी का अध्ययन किया। दलितों के प्रेरणास्रोत कहे जाने वाले डॉ. अम्बेडकर ने न केवल दलितों को आत्मसम्मान, स्वाभिमान व अस्मिता का अहसास कराया बल्कि उन्हें भारतीय समाज में अपना स्थान भी दिलाया। दलितों को उनके मानवीय अधिकारों से परिचित कराते हुए अन्याय व अत्याचार के खिलाफ लड़ना सिखाया।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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