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ग्यारहवीं शताब्दी कालीन संस्कृत साहित्य में शासन सैन्य अधिकारी एवं सेना |
Government Military officer and Army in Eleventh Century Sanskrit Literature |
Paper Id :
16482 Submission Date :
2022-09-15 Acceptance Date :
2022-09-22 Publication Date :
2022-09-24
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पूनम नागर
शोध छात्रा
संस्कृत विभाग
मेरठ काॅलेज
मेरठ ,उत्तर प्रदेश, भारत
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सारांश
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यहाँ ‘ग्यारहवीं शताब्दकालीन संस्कृत-साहित्य में सामाजिक व्यवस्था’ शीर्षक को शोधकार्य का क्षेत्र बनाने का एक प्रमुख कारण यह रहा है कि इस शताब्दी में संस्कृत-साहित्य का विकास उसकी विविध विधाओं में चरम उत्कर्ष के साथ हुआ हे जो हमारे समक्ष शोध की पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत करता है। प्रायः छटी शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक के उक्त वर्षो में देश सामाजिक दृष्टि से स्थिर था। व्यापक स्तर पर इस काल में कोई बहुत बड़े राष्ट्रीय स्तर के यु़द्ध नहीं हुए और जो कुछ क्षेत्रीय युद्ध हुए भी, उनका प्रभाव नगण्य एवम् आंशिक रही। यही कारण है कि संस्कृत भाषा, जो इस काल में पढी-लिखी जनता और वि़द्वानों को भाषा समझी जाती थी, उसमें महाकाव्य, नाटक, चम्पू, गीतिकाव्य, गद्यकाव्य, काव्यशास्त्र, व्याकरण, दर्शन, धर्म चिकित्सा, व्यवसाय, शिल्प वास्तुकला, राजनीति और नीतिशास्त्र आदि को लेकर बड़ें व्यापक स्तर पर ग्रन्थों की रचनाएँ हुई है। यह ग्रन्थ-राशि केवल विद्वानों की ही वस्तु नहीं थी, साधारण प्रबुद्ध जनता का भी इससे लगाव था। इस काल की सामाजिक व्यवस्था सुस्थिर, शान्त एवं प्रगतिशील थी, ऐसा इस काल में ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है। ग्यारहवीं शताब्दी में आकर एक विशेष परिवर्तन यह देखने को मिलता है कि उपर्युक्त सभी प्रकार के साहित्य में गहन विवेचना, बड़ी सूक्ष्मता तथा वैज्ञानिक समझ के दर्शन होते हैं। उक्त तथ्यों की पुष्टि हेतु ‘कश्मीर’ के महाकवियों के साहित्यिक योगदान को विशिष्ट विवेचन का विषय बनाया जा सकता है। कश्मीरी कवियों का प्रतिनिधित्व महाकवि ‘क्षेमेन्द्र’, ‘अभिनव कालिदास’,‘मम्मट’, ‘कैयट’, ‘विल्हण’, ‘महिमभट्ट‘, ‘अभिनवगुप्त’, ‘सोड्ढल’, ‘शिल्हण’, ‘क्षीरस्वामी’ और ‘उव्वट’ जैसे प्रसिद्ध आचार्य करते हैं। ‘कश्मीर’ में ऐसे उद्भट विद्वानों की एक लम्बी परम्परा विद्यमान रही है। न केवल भारतीय अपितु विदेशी विद्वान् भी ‘कश्मीर’ में संस्कृत-विद्या सीखने के लिए आते रहे है। ग्यारहवीं व बारहवीं शताब्दी का इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय योगदान यह है कि सदाबहार कश्मीर विद्वानों की भूमि ‘वाराणसी’ से भी कहीं अधिक गम्भीर सूक्ष्म और अति विस्तृत अध्ययन कश्मीर के क्षेत्र में मिलता है। ग्यारहवीं शताब्दी का कश्मीर का संस्कृत-साहित्य, संस्कृत भाषा की उक्त समृद्ध परम्परा पर प्रकाश डालने में प्रमुख योगदान रखता है। यही कारण है कि भारतमाता के शिरोमणि मुकुटरुप कश्मीर राज्य के संस्कृत-विद्वानों के सामाजिक योगदान को भी यहाँ अध्ययन का मुख्य विषय बनाया गया है जिसके सम्बन्ध में आज जानने की और अधिक आवश्यकता है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद |
Here one of the main reasons for making the title 'Social System in Eleventh Century Sanskrit-Literature' as the area of research work is that in this century the development of Sanskrit-literature has taken place with extreme flourishing in its various genres, which is sufficient material for research before us. Presents. Generally from the sixth century to the twelfth century, the country was socially stable in those years. There were no major national level wars on a large scale during this period and whatever regional wars did take place, their impact was negligible and partial. This is the reason that the Sanskrit language, which was considered the language of educated people and scholars in this period, included epics, dramas, champu, lyric poetry, prose poetry, poetry, grammar, philosophy, religion, medicine, business, crafts, architecture, politics and Books on ethics etc. have been written on a large scale. This book was not only an object of scholars, ordinary enlightened people also had attachment to it. The social system of this period was stable, peaceful and progressive, it is known from the study of texts in this period. Coming in the eleventh century, a special change is seen that in all the above mentioned types of literature, there are visions of deep discussion, great subtlety and scientific understanding. To confirm the above facts, the literary contribution of the great poets of 'Kashmir' can be made a subject of special discussion. Representation of Kashmiri poets like Mahakavi 'Kshemendra', 'Abhinav Kalidas', 'Mammat', 'Kayat', 'Vilhan', 'Mahimbhatta', 'Abhinavgupta', 'Sodhal', 'Silhan', 'Kshiraswami' and 'Uvvat' Renowned teachers do. A long tradition of such outstanding scholars has existed in 'Kashmir'. Not only Indian but also foreign scholars have been coming to 'Kashmir' to learn Sanskrit-lore. The special remarkable contribution of the eleventh and twelfth centuries from this point of view is that even more serious, subtle and very detailed studies are found in the region of Kashmir than 'Varanasi', the land of evergreen Kashmir scholars. The Sanskrit-literature of Kashmir of the eleventh century has a major contribution in throwing light on the said rich tradition of Sanskrit language. This is the reason why the social contribution of the Sanskrit-scholars of the state of Kashmir, the crown jewel of Mother India, has also been made the main subject of study here, in relation to which there is a need to know more today. |
मुख्य शब्द
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शासन सैन्य अधिकारी एवं सेना। |
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद |
Government Military Officersn, Army. |
प्रस्तावना
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ग्यारहवीं एवं बारहवीं शती में भारत की राजनीतिक दशा लगभग एक सी ही रही है। अतः दोनों शताब्दियों की दशा एक होने से दोनों काल के ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक हो जाता है। यहाँ यद्यपि प्रमुखता से चिन्तन तो ग्यारहवीं शताब्दी का ही किया गया है तथापि क्षेमेन्द्र और कल्हण के ग्रन्थों में चिन्तन में प्र्याप्त समानताएँ है। अतः दोनों पर भी विचार करना अपेक्षित प्रतीत होता है।
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अध्ययन का उद्देश्य
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लाखों करोड़ो भारतीय विद्वान ज्ञान विज्ञान और साहित्य की साधना करते रहें है और अपने अनुभव के उज्जवल आदर्श प्रस्तुत करते रहे हैं। यही हमारा सांस्कृतिक दायेंभाग है, जिसे सहेजकर रखना, हमारा पवित्र कर्तव्य है। भारतीय संस्कृति बड़ी स्फूर्तिमती और प्रेरणामयी रही है, इसका वास्तविक स्वरुप प्रस्तुत करना इस शोधकार्य का उद्देश्य है। |
साहित्यावलोकन
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इस प्रकार ग्यारहवीं शती की दुर्दशा का चित्र यहाँ कवि द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
इससे स्पष्ट है कि उस समय अराजकता फैली हुई थी।
अपराध की प्रवृत्ति बढ़ रही थी। राजा निरंकुश हो गये थे। प्रजा
त्रस्त थी। समाज की मर्यादाएँ टूट रही थीं। न्यायव्यवस्था ध्वस्त हो चुकी थी। कुछ
न्यायाधीश घूंस लेकर अनुचित
न्याय करते थे। प्रजा में भय का वातावरण व्याप्त हो गया था। मानव समाज दुर्गति को
प्राप्त हो रहा था। इसी दुरावस्था ने बाहरी आक्रान्ताओं को भारत में घुसने तथा
लूटपाट करने का अवसर प्रदान किया। इससे भारतीय सम्यता एवं संस्कृति का भारी विनाश हुआ। |
मुख्य पाठ
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ग्यारवीं शताब्दीकालीन
संस्कृत साहित्य में शासन सैन्य अधिकारी एवं सेना आदि ग्यारहवीं शती के
संस्कृत-ग्रन्थों में शासन, सैन्याधिकारियों एवं सेना के सम्बन्ध में यद्यपि अनेक स्थानों
पर परम्परागत रुप से कुछ विवरण प्राप्त होते है जिनका परिपक्व स्वरुप हमें ‘कल्हण’ की राजतरंगिणी’ में
देखने को मिलता है। उक्त दृष्टि से चिन्तन करने पर पता चलता है कि ग्यारहवीं एवं
बारहवीं शती में भारत की राजनीतिक दशा लगभग एक सी ही रही है। अतः दोनों शताब्दियों
की दशा एक होने से दोनों काल के ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक हो जाता है। यहाँ
यद्यपि प्रमुखता से चिन्तन तो ग्यारहवीं शताब्दी का ही किया गया है तथापि ‘क्षेमेन्द्र और कल्हण के ग्रन्थों में चिन्तन में प्र्याप्त समानताएँ है।
अतः दोनों पर भी विचार करना अपेक्षित प्रतीत होता है। प्राचीनकाल से भारत में ‘राज्य’
नामक संस्था को सामाजिक सुरक्षा एवम् आर्थिक समृद्धि के लिए अति आवश्यक
माना गया है। ‘राज्य’ नामक संस्था को
सामाजिक सुरक्षा एवम् आर्थिक समृद्धि के लिए अति आवश्यक माना गया है। ‘चाणक्य’ का ‘अर्थशास्त्र’,
जो प्राचीन भारत की राजनीति पर सबसे व्यावहारिक कृति है, में कहा गया है कि राजा को अपनी प्रजा के लिए अच्छी सरकार देने के प्रति
सदैव समर्पित रहना चाहिए और उसका झुकाव सभी लोगों के लिए अच्छा करने का होना
चाहिए। उसकी प्रजा की प्रसन्नता में ही उसकी प्रसन्नता तथा उसकी प्रजा के कल्याण
में ही उसका कल्याण है। ‘कल्हण’ ने भी
लिखा है-रज्जयति लोकानिति राजा अर्थात् जो प्रजा को आनन्दित करे वह राजा का
प्राथमिक कर्तव्य होना चाहिए क्योंकि उनके मध्य का सम्बन्ध तो पिता-पु़त्र जैसा
होता है। निर्वैर भाव से प्रजा के व्यवहारों को मानना मन्त्रियो का व्रत है तथा
अन्य सभी काम छोडकर प्रजा का पालन करना राजा का व्रत है। वे राजा धन्य है जो
पुत्रो की भाँति प्रिय अपनी प्रजा को सर्वथा सुखी देखकर रात को सुख की नींद सोते
है। राजा को अंहकारविहीन, ईष्वर के प्रति समर्पित, दक्ष, उदार, गम्भीर, विनयशील, नीतिज्ञ तथा कृत्य अकृत्य के निर्णय लेने
के गुण रो सम्पन्न होना चाहिए। धैर्यशील व मनस्वी होना उनकी असाधारण विषेशता
होती है। कल्हण का कहना है कि दान अचूक उपाय है किन्तु लोभ दोनो के महत्व को नष्ट
कर देता है, इसीलिए राज्यरूपी उद्यान में भोगरस के लोभी
राजारूपी भवरे विसिध प्रकार के वासनाभरणस्वरूप फूलो से अपना गन बहलाते है किन्तु
दैवस्वरूपी चंचल वायु की चपेट मे पड जाते है क्षेमेन्द्र भी राजाओ के राजवैभव के
दोषाक का वर्णन करते है। उन्होंने ‘बौद्धावदानकल्पता’
मे कहा है कि प्राचीनकाल से ही राजवैभव व राजभोग राजाओ की दिनचर्या
का अंग था और राजाओ के मध्य इस प्रकार की भोग- दिलारिता निषिद्ध सीमा को पार कर
चुकी थी। भारत के प्राचीन ग्रन्थ में जो राजनीतिक चिन्तकों ने राज्य के सात अंग
(प्रकृति) राजा, अमात्य, कोष, भूमि (जनपद), वत, मित्र व
दुर्ग स्वीकार किये है। इनमे मंत्री का स्थान महत्वपूर्ण है। चाणक्य के ‘अर्थशास्त्र’ में कहा गया है कि राजा तभी
सफलतापूर्वक राज्य का संचालन कर सकता है जब उसे योग्य एवं बुद्धिमान मन्त्रियो की
सहायता मिले, क्योकि एक पहिया कभी रथ नही खींच सकता। ‘महाभारत’ में भी कहा गया है कि राजा मन्त्री पर उसी
प्रकार निर्भर करता है, जैसे पशु बादलों पर, ब्राह्मण वेदों पर तािा स्त्रियाँ अपने पतियों पर पी0वी0 काणे’ ने मन्त्री के लिए
तीन शब्दों-‘अमात्य’, ‘सचिव’ व ‘मन्त्रिन्’ का प्रयोग किया
है। ‘अर्थषास्त्र’ में सलाहकार के लिए ‘सचिव’ शब्द को प्रयुक्त किया गया है जबकि पृथक् रुप से
मन्त्रियों के लिए अमात्य, सचिव तथा मन्त्रि शब्दों का
प्रयोग किया है। ‘कल्हण’
ने सर्वत्र राजा की प्रभुसत्ता मन्त्रियों पर सी प्रकार स्वीकार की
है, जैसे हीरा किसी भी कीमती पत्थर से नहीं कट नहीं सकता
किन्तु सबों काट सकता है। ‘सोमदेव’
लिखते हैं कि राजा जब तक सही रास्ते पर चलता हो, उसे किसी को नहीं रोकना चाहिए, परन्तु जैसे ही वह
गलत रास्ते पर जाये, मन्त्रियों द्वारा रोक दिया जाना चाहिए।
राजा ‘अवन्तिवर्मा’ ने जन्मना वैष्णव
हुए अपने मन्त्री ‘शूर’ को प्रसन्न
करने के लिए अपने पुत्र के प्रिय सेवक ‘धन्व डामर’ का सिर काटकर राजा का क्रोध शान्त किया। इस प्रकार राजा व मन्त्रियों के
मध्य परस्पर सम्मान पर आधारित आदर्श सम्बन्ध होने चाहिए। जिनके मन में कभी
पारस्परिक क्रोध एवं मनोमालिन्य न उत्पन्न हुआ हो, ऐसे राजा
और मन्त्री संसार में न कभी देखे गये और न सुने गये। उत्तराधिकार सम्बन्धी
महत्त्वपूर्ण मामनों में राजाओं की पसन्द के निर्णय बदलने में मन्त्रियों की अहम
भूमिका होती थी। राजा ‘कलश’ (1063.1089 ई0) हर्ष को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था किन्तु मन्त्रियों के विरुद्ध
होने के कारण उसे अपने छोटे पुत्र ‘उत्कर्ष’ को लोहर प्रान्त से बुलाकर राजा बनाना पड़ा। अस्तु, मन्त्रियों
की शक्ति राजा के व्यक्तित्व पर निर्भर करती थी। कमजोर राजा प्रायः मन्त्रियों के
हाथ की कठपुतली होते थे। द्वितीय लोहर राजवंश के उत्तराधिकर-युद्ध के समय ‘गर्गचन्द्र’ इतना शक्तिशाली हो गया था कि राजा ‘सुस्सल’ केवल छायामात्र था तथा सभी अन्दर-बहार,
छोटे-बड़े जीवन-मृत्यु के लिए ‘गर्ग’ पर निर्भर थे। इसके विपरीत राजा उच्चल (1101-1111 ई0)
ने अपने द्वारपति को अधिक शक्तिशाली होते देख उसे पदच्युत कर दिया
तथा उसके अधिकार सहिष्णु व समर्पित लोगों को दे दिये। इस प्रकार एक समर्थ राजा ही
भली-भाँति राज्य का संचालन कर सकता है। ‘कौटिल्य’
के अनुसार एक मन्त्री में निम्न गुण होने चाहिए-वह उसी राज्य का
जन्मा हो, उच्चकुलोत्पन्न, प्रभावशाली,
चतुर, बुद्धिमान्, दूरद्रष्टा,
साहसी, चरित्रवान्, स्वस्थ,
शक्तिशाली, कला में निपुण, जागरुप एवं सतर्क, स्थिरचित, अहंकाररहित,
वक्तृकला में निपुण तथा इर्ष्यारहित हो। ‘कल्हण’
लिखते हैं कि मन्त्री के गुणें को ध्यान में रखकर मन्त्रियों की
नियुक्ति का प्रयास किया जाता था, किन्तु अच्छे गुणों के
मन्त्रियों का सर्वथा अभाव होता था। बहुत से ऐसे मन्त्री थे जो न तो राज्य में
जन्में थे, न ही उच्चकुलोत्पन्न थे। ‘हरदार’
भूति नामक वैश्य का पुत्र, जो गौरीष के मन्दिर
में द्वारपाल था, रानी सूर्यमती की सेवा करके प्रधानमन्त्री
(सर्वाधिकारी) बन गया था। आगे उन्होंने कहा है कि ‘क्षेम’
नामक नाई ने कोष को परिपूर्ण किया तथा ‘पादाग्र’
नामक पद सृजित किया; जो बाद में सभी
कार्यालयों में श्रेष्ठ हो गया। आगे उन्होंने मन्त्रिगण के
पश्चात् प्रशासनिक व्यवस्था का विवेचन किया है और कहा है कि राजा प्रशासनिक
व्यवस्था का सर्वोच्च बिन्दु माना जाता था, जो मन्त्रियों व कर्मचारियों की सहायता से
प्रशासन चलाता था। राजा ‘जयापीड़’ के
समय कश्मीर में ‘राजा’ पद की अपेक्षा ‘पण्डित’ पद अधिक लोगप्रिय था। यद्यपि पण्डितों में
बहुत से अवगुण आ गये थे तथापि उनकी प्रसिद्धि में किसी भी प्रकार की कमी नहीं आयी।
प्रतिदिन एक लाख दीनार वेतन पाने वाले ‘भट्टोद्भट’ नामक महापण्डित उसके यहाँ ‘सभापति’ पद पर विद्यमान था तथा अन्नक्षेत्र के अध्यक्ष ‘थक्किय’
नामक महान् पण्डित की विद्वता से प्रभावित होकर राजा ने उसे अपने
यहाँ रख लिया। ‘पादाग्र’
पद पर सर्वप्रथम उल्लेख राजा ‘अनन्तदेव’
के राज्यकाल (1028-1063 ई0) में प्राप्त होता है जब प्रधानमन्त्री हलधर ने इसे सभी पदों में श्रेष्ठ
बना दिया था। ‘पादाग्र के
सम्बन्ध में वर्णन किया गया है कि राजा ‘कलष’ ने मन्त्री ‘नोनक’ की पादाग्र
पद उसकी क्रूरता को देखते हुए नहीं प्रदान किया। इससे भी पद की महत्ता ज्ञात होती
है। इस पद पर राजा के विश्वासपात्र एवं योग्य व्यक्ति को ही बैठाया जा सकता था।
इसके अतिरिक्त ‘क्षेमेन्द्र’ ने राज्य
के महत्वपूर्ण पदाधिकारियो की सूची में ‘कम्पनापति’ को ‘द्वारपति’ तथा ‘अश्वपति’ के बीच रखा है। पाँच मुख्य मन्त्रियों में
अन्तिम महत्वपूर्ण पद ‘द्वाराधिप’ का
था, जिसका अभिप्राय ‘द्वारप्रमुख’
से है और जिसके समानार्थी शब्द ‘द्वारपति’, 'द्वारेश', ‘द्वारानायक’,
‘द्वाराधिकारी’ और ‘द्वाराधीश्वर’
प्रयुक्त हुए हैं। ‘कम्पनेश’
व ‘द्वाराधीश’ दोनो पदों
पर एक व्यक्ति के पदारूढ होने के भी साक्ष्य प्राप्त होते हैं। कृष्णमोहन के
अनुसार द्वाराधीश पद विशेष रूप से कश्मीर में ही प्राप्त होता है जबकि अन्य पद
हमें प्राचीन भारत के अन्य राज्यों में भी मिलते हैं, क्योंकि
कश्मीर के राजनीतिक इतिहास तथा घाटी की ओर जाने वाले मार्गो की सामरिम महत्ता ने
एक ऐसे अधिकारी की नियुक्ति को आवश्यक बना दिया जो विशेष रूप से सीमा-सुरक्षा का
दायित्व निभाये, इसी को द्वाराधिप या ‘आक्रमणों
का ‘निरीक्षक’ कहा गया। सम्भवतः शत्रु
के आक्रमण के समय शीघ्रता से निर्णय लिया जा सके, इसीलिए इसे
कम्पनेश (सेनापति) पद से संयुक्त कर दिया गया। आगे यह भी उल्लेख मिलता है, कि कश्मीर
के राजा ‘शंकरवर्मन्’ ने कायस्थों की
सलाह पर ‘गहकत्य’ (घरेलू मामलों का
प्रमुख) तथा ‘अट्टपतिभाग’ (बाजार
प्रमुख) नामक नये विभाग स्थापित किये। क्षेमेन्द्र’ लिखते
हैं कि प्रत्येक कायस्थ की सर्वोच्च इच्छा गृहकृत्याधिपति बनना होती थी जिसे अपने
अधीनस्थ साथ मुख्य अधिकारी तथा आठ कार्यालयीय कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार
प्राप्त होता था। इसके अतिरिक्त ‘परिपालक’ ‘नियोगी’, ‘जंजदिविर’ तथा ‘ग्रामदिविर’ भी गृहविभाग के अधीन कार्य करते थे।
परिपालक’ को प्रान्तीय गवर्नर कहा गया है। राजा ‘संग्रामराज’
के शासनकाल (1003-1028 ई0) में प्रधानमन्त्री ‘तुंग’ ने
निम्नजातीय ‘भद्रेश्वर’ नामक कायस्थ को
‘गृहकृत्याधिपति’ बना दिया, जिसने राजपरिचरों, देवताओं, गायों,
ब्राह्मणों, गरीबों तथा विदेशियों को प्राप्त
होने वाली सहायता समाप्त कर दी थी। उक्त कारणों के आधार पर ही सम्भवतया ‘क्षेमेन्द्र’ ने गृहकृत्याधिपति’ को ‘महत्तम’ भी कहा है। इसका
उल्लेख ‘राजतरङणी में कई स्थलों पर हुआ है, जहाँ स्पषटतया इसका सम्बन्ध राजस्व-प्रशासन से माना गया है। ‘क्षेमेन्द्र’ लिखते है कि ग्रहकृत्याधिपति से नीचे
के सभी पदों को समाप्त कर दिया किन्तु उन्हीं के शासनकाल में क्षेम नामक नाई,
जिसे गंजाधिकारी (वित्तविभाग का अधिकारी) बनाया गया था, ने द्वादष भाग जैसे नये-नये कर लगाकर वह राजकोष भरने लगा था, पादाग्र नामक नये पद को सृजित किया। इस प्रकार स्पष्ट है कि राजस्व की
बढोतरी वाले पदों को उस समय प्रमुखता प्रदान की गयी। लेखनकार्य करने तथा उन्हें
सुरक्षित रखने वाले अधिकारियों को उस समय दिविर कहा जाता था, जिसके लिए क्षेमेन्द्र ने राजदिविर ग्रामदिविर और खवासदिविर शब्दों का
प्रयोग किया है। क्षेमेन्द्र ने दिविर की व्याख्या में लिखा है- दिवि अर्थात आकाश में 'र' अर्थात रोना-यानि जो आकाश में रोता है वह दिविर है उन्होने लिखा है कि कलियुग को भी उन पर
दया आ गयी और उसने देवों को आतंकित करनं के लिए उसके (दिविर) के हाथ में कलम दे
दिया। इस प्रकार राजस्व वसूलने वाला दिविर या कायस्थ का पद बहुत महत्वपूर्ण हो गया
था। राजकर्मचारी जनता का जिस
प्रकार शोषण करते थे, उसका यह कहानी उचित संकेत करती है। इनके लिए कायस्थ शब्द भी
प्रयुक्त हुआ है। इनकी सलाह पर राजाओ ने जनता पर नाना प्रकार के कर लगाकर इतना
त्रस्त किया गया कि गाँवों और नगरो में मिट्टी भी राजकीय कर से नहीं बच सकी।
कमजोर शासकों के समय ये कायस्थ अत्यधिक कर वसूल कर राजकोष में
स्वल्प भाग देकर शेष स्वयं हडप लेते थे। यही कारण है कि परवर्तीकाल में ये लोग
जनता के कोपभाजन बनने लगे। क्षेमेन्द्र तथा कल्हण के
अनुसार प्राचीन कश्मीर में गाँवो की संख्या 66063 थी। जोनराज ने भी यह संख्या बतायी है।
परन्तु 1941 के सेन्सस रिपोर्ट में कहा गया है कि कल्हण
क्षेमेन्द्र तथा जोनराज ने गाँवो की संख्या का अतिशयोक्तिपूर्ण उल्लेख किया है,
वास्तव में प्राचीन कश्मीर में गाँवों की संख्या 3518 थी। कल्हण और क्षेमेन्द्र ने कर्मचारियो से
संयुक्त स्थानीय प्रशासन की चर्चा की है, जिसकी सबसे छोटी
इकाई ग्राम थी जिसका अधिकारी अपने कार्य करते थे। पार्श्वनाथचरित का रचनाकाल 1025
ई0 है। इसके लेखन के समय राजतन्त्र ही था इस
समय उत्तर भारत में गुर्जर-प्रतिहार वंश के यशपाल नामक राजा का राज्य था। यशपाल के
समय 1023 ई0 में मथुरा में एक नवीन जैन
मन्दिर का निर्माण हुआ था। ईसा की ग्याहरवी शताब्दी के मध्य में यशपाल की मृत्यु
हो गयी। यह गुर्जर-प्रतिहार वंश का अन्तिम शासक था। धारा में परमार नरेश सिंधुराज
के पुत्र भोज का शासन था। इसने 1010 ई0 से 1053 ई0 पर्यन्त राज्य
किया। पार्श्वनाथचरित के उल्लेख
के अनुसार दक्षिण भारत में चालुक्य चक्रवर्ती जयसिंह का राज्य था। राजा भोज ने
जयसिंह के ऊपर अपने चाचा मुञज की मृत्यु का बदला लेने के लिए
आक्रमण भी किया था। जयसिंह ने भोज का डटकर मुकाबला किया। पराजय किसी की नहीं हो
सकी, क्योंकि दोनो में सन्धि हो गयी थी। पार्श्वनाथचरित के अनुशीलन
से पता चलता है कि राजा अरविन्द प्रजा का सदैव ध्यान रखता था। राजा अरविन्द बडा
तेजस्वी था। अपने तेज के कारण उसने अखिल दिङमण्डल पर विजय प्राप्त कर ली थी। वह
कलाओ से सम्पन्न था। धर्माराधन के साथ ही काम एवं अर्थ-पुरूषार्थ का भी भोग करता
था। वह धनधायसम्पन्न, गुणवान, कठोर दण्ड का धारक, दानी तथा समदर्षी था, किन्तु उन्नत पुरूषो से अधिक
सहानभूति रखता था। इसी प्रकार अन्य राजाओ के प्रसंग मे भी उक्त गुणो का वर्णन किया
है। इस प्रकार स्पष्ट है कि कुछ राजा बडे योग्य भी हुआ करते थे और राज्य का सफलतापूर्वक संचालन करते थे। पार्श्वनाथचरित से राजा के कर्तव्य व उत्तराधिकार का
ज्ञान प्राप्त होता है, जहाँ कहा गया है कि प्रजा का अनुरंजन
करना ही राजा का मुख्य कर्तव्य है, ‘महाभारत’ में भीष्म ने ‘युधिष्ठिर’ को
इसीलिए राजा कहा है क्योंकि वह समस्त प्रजा को दुःखीरूपी कूप से निकालने का कार्य
किया। ‘नीतिवाक्यामृत’ में शत्रुओ को
प्रराक्रम दिखाना,अपराधियों को कठोर दण्ड देना तथा सज्जनों
की रक्षा करना राजा का धर्म बताया गया है। ‘अरविन्द’ में उक्त सभी गुण दिखलाई पड़तं है राजा का उत्तराधिकारी
प्रायः उसका ज्येष्ठ पुत्र ही होता था। यही राजतन्त्र की मर्यादा रही है। ‘पार्श्वनाथचरित’ के अनुसार राजा ‘अरविन्द’ और
सभी अन्य राजाओ के उत्तराधिकारी उनके ज्येष्ठ पुत्र ही हुए हैं। इसी प्रकार मन्त्री व उसके
उत्तराधिकारी का ज्ञान प्राप्त होता है। राजतन्त्र में राजा सर्वोच्च सत्ता है, किन्तु
किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय के पूर्व राजा मन्त्रियों
से सलाह अवश्य लेता है। ‘शुक्रनीतिसार’ में कहा गया है कि राजा चाहे समस्त विद्याओं पे कितना ही दक्ष क्यों न हो,
फिर भी उसे बिना मन्त्रियों की सलायता के राज्य के किसी भी विषय पर
विचार नहीं करना चाहिए। ‘पार्श्वनाथचरित’
में गुप्तचार जब ‘कमठ’ के
दुराचार की शिकायत करता है तो मन्त्री मरूभूति उस शिकायत की सत्यता की जाँच के लिए
निवेदन करता हुआ कहता हे देव ! यद्यपि तुम्हारे अनुचर असहाय दुःखदायक दण्ड के भय
से मिथ्या बातें नहीं कहते हैं किन्तु घटना का दृढ़निश्चय अपराध-विशेषज्ञों द्वारा
करवाता है। मन्त्री की मंत्रणा से शत्रुओं तक की सम्पत्तियाँ राजा को प्राप्त हो
जाती थी। इसी प्रकार आगे भी कहा है। कि शत्रु राजा वज्रवीर पर युद्ध के लिए
प्रस्थान करते समय मन्त्री मरूभूति के साथ ले जाने से राजा ‘अरविन्द’
ने राजभर मन्त्री के अग्रज ‘कमठ’ को सौंप दिया। ‘युवराज’
शब्द भावी राजा के लिए प्रयुक्त होता रहा है। राजतन्त्र में युवराज
का महत्वपूर्ण स्थान होता है। राजा अपने औरस पुत्र को ही युवराज पद पर अभिसिक्त
करते थे। युवराज ही राज्य का उत्तराधिकारी होता था। जब राजा ‘व्रजवीर’ ने अपने पुत्र ‘व्रजनाभ’
को ही राजकीय गुणों से मण्डित देखा तो मन्त्रियों की सलाहपूर्वक उसे
‘युवराज’ पद पर अभिसिक्त कर दिया और
राजा व्रजवीर ने बहुत दिनों से धारण किये हुए पृथ्वी के भार को कुछ कम कर सुख से
समय बिताया। ‘पार्श्वनाथचरित’
से ज्ञात होता है कि राजा पुत्र का राज्याभिषेक करके प्रायः तपस्या
करने के लिए वन चले जाते थे। पुत्र के राज्यभिषेक के बाद पुत्र ही राजा बन जाता
था। ‘सामन्त’ राजा वे शासक कहलाते थे,
जिन पर चढ़ाई करके राजा ने विजय तो प्राप्त कर ली हो, किन्तु राजा की अधीनता स्वीकार कर लेने पर उन्हे पुनः राजपद पर प्रतिष्ठित
कर दिया गया हो। ‘शुक्रनीतिसार’ में
कहा गया है कि जिससे प्रतिवर्ष प्रजा को पीड़ित किये बिना एक लाख रजत-मुद्राओ से
लेकर तीन लाख तक वार्षिक कर मिलता है, उसे ‘सामन्त’ राजा कहते हैं। ‘पार्श्वनाथचरित’
में सामन्त राजाओं का निर्देष मिलता है । वज्रवीर को जीतने के बाद
राजा ‘अरविन्द’ ने कर लगाकर उसे पुनः
पद्मपुर का राजा बना दिया। अतएव ‘वज्रवीर भी ‘सामन्त’ राजा की श्रेणी में आ गया। इस प्रकार ‘सामन्त’ का भी महत्तवपूर्ण स्थान था। उस समय राजा की सहायता के
लिए अनेक अधिकारी एंव सेवक होते थे। राजा कहीं बाहर जाता था तो वरिष्ठ अधिकारी एंव
सेवक उसके साथ जाते थे। मन्त्री और युवराज राजा की सर्वाधिक सहायता करते थे। यही
कारण है कि युवराज और मन्त्री को राजा का क्रमशः दक्षिण औैर वामअंग के दोनों बाहु, नेत्र तथा
कर्ण माना गया है। प्रत्येक विभाग के विभागीय अधिकारी अलग हाते थे। उस समय ‘कूर्म’ नामक व्यक्ति ‘अपराध-जाँच-विभाग’
का अधिकारी था। ‘पार्श्वनाथचरित’
के अध्ययन से पता चलता है कि उस समय राजा और प्रजा के सम्बन्ध बड़े
मधुर थे। यद्यपि अपराधियों के प्रति बड़ी ही कठोर दण्ड-व्यवस्था थी तथापि सामान्य
प्रजा के प्रति राजा का मधुर भाव था। राजस्व के रूप में जो धन राजकोष में आता था।
वह प्रजा की भलाई के कार्यो में ही खर्च किया जाता था। उस समय राजा ने साधनविहीन
मार्गो में पानी शालिका (प्याऊ) की व्यवस्था कर दी थी। प्रजा का दुःख से उद्धार
करना ही राजा का कार्य था। कवि ‘हेमचन्द्र’
ने अपने ग्रन्थ ‘शब्दनुशासन’ में उस काल के कुछ संघ-राज्यों पर भी प्रकाश डाला है जो पूर्ववर्ती शती से
प्रचलन में अवश्य रहे होंगे। वे कहते हैं कि उस समय ‘वाहीक’
एवं उत्तर-पश्चिम में नाना प्रकार के ‘संघ-राज्य’
थे, जिनमें शासन की अनेक कोटियाँ प्रचलित थीं।
लूटमार करके आत्मनिर्वाह करने वाले कबीले कुछ ऐसे होते थे कि वे अपना एक मुखिया
बनाकर अर्थात् चुनकर किसी प्रकार संघ-शासन चलाते थे। इनमें ‘व्रात’
और ‘पूग’ मुख्य संघ होते
थे। इनका शासन कुछ व्यवस्थित होता था। शासनतन्त्र का संचालन युक्त या अयुक्त,
नियुक्त और परिवार आदि के द्वारा होता था। राजशासन में दूत का
महत्वपूर्ण स्थान था। इस प्रकार कुछ कबीलों आदि के संघ-राज्य भी संचलित हो रहे थे।
इस प्रकार स्पष्ट है कि केवल कुछ राजा ही भलीभाँति शासन का संचालन कर पा रहे थे,
अन्यथा तो अराजकता का ही राज्य था।
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निष्कर्ष
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निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि ग्यारहवीं शती का काल भारत की राजनीतिक उथल-पुथल का काल रहा है। एक और तो स्थानीय राजा परस्पर लड़ते-झगड़ते रहते थे और दूसरे उनमें दूरदर्शिता की कमी भी आ गयी थी। उनमें स्वार्थभाव अधिक पनपने लगा था। राजा ‘भोज’ जैसे इक्का-दूक्का राजा ही मात्र शक्तिशाली राजा रह गये थे। दिन प्रतिदिन की झड़पों, करों की मार, लूटपाट, अतिविलासिता, जनता से राजाओं और जनता, बारहवीं शती में आने वाली आपदा- विदेशी आक्रान्ताओं की लूट से अपने को बचा न सके और यह देश कईं शताब्दियों तक लुटेरों का दास बना रहा। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् ही इस देश का सौभाग्य वापिस आ सका औश्र वह भी आधा-अधूरा। देश-विभाजन का दंश इस सदा सताता रहेगा। ग्याहरवीं शती के राजनीतिज्ञों ने जो भूल की थी, उससे छुटकारा पाना संभव नहीं है। भविष्य में देश को इसकी हानि उठानी ही पड़ेगी। इस प्रकार ग्यारहवीं शती के लिए सभी आर्थिक दुरावस्था भी इसे और दुर्बल बना रही थी। वस्तुतः इस दुर्गति के लिए सभी उत्तरदायी थे। कोई भी ऐसा राजा नहीं था जो ‘चाणक्य’ या ‘चन्द्रगुप्त’ के समान पूरे देश को एकता के सूत्र में बाँध पाता। अतः देशवासियों ने जो परिणाम भुगता, उससे सीख लेनी चाहिए। यही इस अध्ययन का निष्कर्ष कहा जा सकता है। |
भविष्य के अध्ययन के लिए सुझाव
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इस विषय पर अध्ययन अति आवश्यक है। भूतकाल में देश को जो हानि उठानी पड़ी, उन्होंने जो परिणाम भुगते उससे सीख लेनी चाहिए ताकि भविष्य में ऐसी भारत की स्थिति न हो। |
अध्ययन की सीमा
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अप्रैल 2022 से अक्टूबर 2022। |
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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1. अर्थशास्त्र - 1,2,4,3
2. राज0 1,18, 5-350, 7, 506, 8, 60
3. राज0 2, 48
4. वही, 2, 20, 42
5. वही, 5 , 189, 8, 334 |
अंत टिप्पणी
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1. राज0 6, 628-629
2. लोकप्रकाश, पृ0 60
3. जोनराजकृत राज0 5, 153
4. राज0 -5, 178
5. वही, पृ0 168 |