ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- VIII November  - 2022
Anthology The Research
अस्पृष्यों के अधिकार एवं गांधी अंबेडकर विवाद (गोलमेज सम्मेलन के संदर्भ में)
Rights of Untouchables and Gandhi Ambedkar Controversy (With Reference to Round Table Conference)
Paper Id :  16727   Submission Date :  26/11/2022   Acceptance Date :  27/11/2022   Publication Date :  13/12/2022
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अरुण कुमार
सह-आचार्य
राजनीति विज्ञान
राजकीय स्नात्कोत्तर महाविद्यालय राजगढ़,
अलवर,राजस्थान, भारत
राजेन्द्र कुमार गोठवाल
सहायक आचार्य
राजनीति विज्ञान
राजकीय कन्या महाविद्यालय
राजगढ़, अलवर राजस्थान, भारत
सारांश भारतीय संवैधानिक इतिहास में साइमन कमीशन की रिपोर्ट पर (1930-32) में संपन्न हुए गोलमेज सम्मेलनों का महत्वपूर्ण स्थान है। यदि इन्हें भारतीय नागरिकों के राजनीतिक अधिकारों के दस्तावेजों के निर्माण का मंच कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि इन मंचों पर भारतीय नागरिकों के अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष हुआ और इस संघर्ष में आधुनिक राजनीति के दो महानतम नेता केंद्र-बिंदु थे, प्रथम महात्मा गांधी तो दूसरे डॉ. भीमराव अंबेडकर। गांधी भारत में भारतीय स्वतंत्रता के अग्रदूत माने जाते हैं, तो वहीं डॉ. अंबेडकर दलितों के मसीहा। यदि दोनों के उद्देश्य की बात की जाए तो दोनों का एक ही उद्देश्य- स्वतंत्रता। यदि दोनों का उद्देश्य समान है तो फिर अधिकांश विद्वान गोलमेज सम्मेलनों के मंच को ‘‘गांधी बनाम डॉ. अंबेडकर‘‘ क्यों मानते हैं ?
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The Round Table Conferences held in (1930-32) on the report of the Simon Commission have an important place in Indian constitutional history. If it is said to be a platform for the creation of documents of political rights of Indian citizens, then there will be no exaggeration, because on these forums there was a struggle for the rights of Indian citizens and in this struggle, the two greatest leaders of modern politics were the focal point, first Mahatma Gandhi and second Dr. Bhimrao Ambedkar.
Gandhi is considered the pioneer of Indian independence in India, while Dr. Ambedkar is the messiah of Dalits. If we talk about the purpose of both, then both have only one purpose - freedom.
If the objective of both is the same, then why do most of the scholars consider the platform of Round Table Conferences as “Gandhi vs. Dr. Ambedkar”?
The main objective of our study is to find a solution to this question so that the real truth of this event can be revealed.
मुख्य शब्द गोलमेज सम्मेलन, स्वतंत्रता, अधिकार, न्याय, गांधी, डॉ. अंबेडकर।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Round Table Conference, Freedom, Rights, Justice, Gandhi, Dr. Ambedkar
प्रस्तावना
भारतीयों को शासन में भागीदारी देने और भारतीयों को शासन के समक्ष मांगे रखने के उद्देश्य से गोलमेज सम्मेलन का आयोजन प्रस्तावित था। 1930 के आस-पास देशभर में स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए संघर्ष किया जा रहा था, एक तरफ कांग्रेस भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व कर रही थी तो दूसरी तरफ डॉ. भीमराव अंबेडकर अछूतों के लिए संघर्ष कर रहे थे। कांग्रेस यह प्रचार कर रही थी कि वह संपूर्ण भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती है जबकि ब्रिटिश शासन कांग्रेस के साथ विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों के पक्ष को जानकर नीति-निर्माण करना चाहती थी।
अध्ययन का उद्देश्य लेखक के अध्ययन का मुख्य उद्देश्य इसी प्रश्न के समाधान को खोजना है ताकि इस घटनाक्रम की वास्तविक सच्चाई से पर्दा उठ सके।
साहित्यावलोकन

ममता यादव द्वारा सम्पादित की गई पुस्तक दलित एंड पालिटिक्स 2010 जिसमे दलित आन्दोलन, दलित लीडर, आधुनिक दलित राजनीतिक संवैधानिक प्रावधान और अस्प्रश्यता निवारण एवं दलित राजनीति के सन्दर्भ में प्रेरणा मिली।

सौरभ उपाध्याय की पुस्तक डॉ. अम्बेडकर और दलित चेतना(2011) द्वारा लेखक एवं सम्पादक ने डॉ. बी.आर अम्बेडकर के जीवन एवं व्यक्तित्व तथा उनके सामाजिक राजनैतिक चेतना जाग्रत करने के प्रयासों पर प्रकाश डाला है।

राम बिलास भारती ने अपनी पुस्तक बीसवीं सदी में दलित समाज (2011) के द्वारा यह बताने का प्रयास किया है कि किस तरह दलित समाज के अंदर बदलाव आ रहे है बीसवीं सदी के प्रारम्भ में दलित समाज की किस तरह की राजनैतिक सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति थी तथा धर्म के प्रति दलितों का क्या दृष्टिकोण था पुस्तक के अन्य अध्यायों में उन्होंने डॉ. अम्बेडकर, जगजीवन राम, काँथीराम एवं मायावती के प्रयासों को रेखांकित किया है।

मुख्य पाठ

1930 में आयोजित प्रथम गोलमेज सम्मेलन में ब्रिटिश भारत के 57 देषी राज्यों के 16 तथा ब्रिटेन के प्रमुख राजनीतिक दलों के 16 सदस्य शामिल थे।

6 सितंबर 1930 को वायसराय के जरिये डॉ. भीमराव अंबेडकर को सम्मेलन में भाग लेने का निमंत्रण मिला। कांग्रेस ने इस सम्मेलन का बहिष्कार किया था। बेल्स फोर्ड ने कहा था वहाँ भारत माता (कांग्रेस) नहीं थी, ऐसे में कोई ठोस निर्णय नहीं लिया जा सका।साइमन आयोग के बहिष्कार, सविनय अवज्ञा आंदोलन, नेहरू प्रतिवेदन को अस्वीकार किये जाने के कारण कांग्रेस आंदोलनरत् थी। प्रमुख कांग्रेसी नेता जिनमें महात्मा गांधी भी थे, जेलों में बंद थे।

अछूतों के लिए प्रथम गोलमेज सम्मेलन उनके राजनीतिक अस्तित्व के लिए ऐतिहासिक था क्योंकि ब्रिटिश शासन ने पहली बार भारत के भविष्य निर्माण के नाम से परामर्श की दृष्टि से दलित प्रतिनिधि के रूप में डॉ. अंबेडकर तथा दीवान बहादुर आर. श्रीनिवासन को आमंत्रित किया था। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारतीय राजनीतिक जीवन में अस्पृष्यों का भी स्वतंत्र अस्तित्व है तथा भारतीय संविधान निर्माण में हिंदुओं के साथ-साथ अस्पृष्यों से भी सलाह मशविरा करना चाहिए, इन्हें भी अधिकार दिये जाने चाहिए। यह सिद्धांत मान्य हुआ।[1]

डॉ. भीमराव अंबेडकर की राह अधिक कठिन थी, उन्हें दोहरी लड़ाई लड़नी थी। भारतीय स्वतंत्रता के लिए उन्हें स्वराज्य की मांग करनी थी तथा अपने आठ करोड़ दलित भाइयों के पाँवों में पड़ी छुआछूत और सामाजिक अन्याय की बेड़ियों को भी काटना था।

आंदोलनरत् कांग्रेस ने गोलमेज सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया था। इस कारण इस सम्मेलन में भाग लेने वाले भारतीयों के प्रति निंदनीय प्रचार किया जा रहा था, राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित जनमानस कांग्रेस को संपूर्ण भारतीयों की प्रतिनिधि संस्था मानती थी और सम्मेलन में शामिल होने वाले प्रतिनिधि देशद्रोही माने जा रहे थे। भारत में सबसे अधिक आलोचना डॉ. भीमराव अंबेडकर की हो रही थी। कांग्रेस पक्ष के समाचार-पत्र इस कृत्य के लिए मुस्लिम सदस्यों को नहीं के बराबर, अन्य हिंदू सदस्यों को कभी-कभार परंतु डॉ. अंबेडकर पर रोज ही अपराधों की बौछार किया करते थे।

आलोचना की परवाह किये बिना डॉ. अंबेडकर दलित वर्गों के और संपूर्ण देश के हित के लिए कृतसंकल्पित थे। भारत से गोलमेज सम्मेलन में जाते हुए उन्होंने कहा था ‘‘मैं देश के लिए स्वराज्य का समर्थन और अपने भाइयों के लिए मानवीय अधिकारों की मांग करूंगा।‘‘

गोलमेज सम्मेलन को लेकर कांग्रेस और डॉ. अंबेडकर के दृष्टिकोण में रात-दिन का अंतर था। जहाँ कांग्रेस यह चाहती थी की सभी दल, रियासतें आदि जो भारत की धरती से जुड़ी हैं, बहिष्कार करें। लेकिन भीमराव अंबेडकर का सोचना था कि वह इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाते हुए दलितों की स्थिति को विश्व के सामने रखे और उसकी सहानुभूति प्राप्त करे, साथ ही देश की स्वतंत्रता की मांग करें। डॉ. अंबेडकर भारत में लोकतांत्रिक आदर्श तथा इहवादी सभ्यता को स्थापित करवाने के लिए बहिष्कार की जगह संघर्ष में यकीन करते थे।[2]

इस तरह अंबेडकर और कांग्रेस के दृष्टिकोण में स्पष्ट अंतर था। कांग्रेस अंबेडकर को विद्रोही घोषित करना चाहती थी। हैरानी की बात यह थी कि इंडियन नेशनल कांग्रेस ने सम्मेलन में भाग लेने वाले नेताओं के विरूद्ध घृणा की ज्वाला भड़का दी परंतु ब्रिटिष सरकार के प्रति उनका व्यवहार शांतिपूर्ण और अहिंसापूर्ण था। अंबेडकर के खिलाफ श्री सुभाषचन्द बोस ने कहा ‘‘अंबेडकर को मेहरबान ब्रिटिश सरकार द्वारा थोपी गई अपनी नेतागिरी विरासत में मिली, क्योंकि उनकी सेवाएँ राष्ट्रवादी नेताओं को असमंजस में डालने के लिए आवश्यक थी‘‘[3]

डॉ. भीमराव अंबेडकर जानते थे कि अछूतों की समस्या का प्रभावी समाधान कांग्रेस के पास नहीं है। इसके लिए भारत में प्रयास करने से ज्यादा महत्वपूर्ण था इंग्लैंड में अछूतों के लिए सहानुभूति पैदा की जाए। अछूतों की समस्या का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने से ही उनके राजनीतिक भविष्य के साथ न्याय संभव है, भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में उचित स्थान और भागीदारी कांग्रेस के साथ जुड़कर प्राप्त करना लगभग असंभव मानते हुए उन्होंने गोलमेज सम्मेलन को अछूतों के राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति का मैदान बनाया जो एकदम सही साबित हुआ, डॉ. अंबेडकर सामाजिक अधिकारों के लिए भारत में आंदोलनरत रहे और राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए इंग्लैंड में कांग्रेस जिसका मूल उद्देश्य राजनीतिक अधिकारों को प्राप्त करना था। उन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ गांधी के नेतृत्व में आंदोलन किये परंतु अंबेडकर ने राजनीतिक अधिकार इंग्लैंड की भूमि से प्राप्त किये।

औपचारिक रूप से प्रथम गोलमेज सम्मेलन का उद्घाटन 12 नवंबर 1930 को हाउस ऑफ लार्ड्स में हुआ। सम्मेलन में भाग लेने वाले प्रतिनिधियों में सर तेज बहादुर सप्रु ने भारतीयों के लिए आस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूजीलैंड जैसी समानता की मांग की।[4] ने स्वराज्य की घोषणा की मांग की और कहा कि ‘‘यदि आप इस समय भारतीयों को डोमिनियम का दर्जा दें तो कुछ एक महीने में स्वतंत्रता का शोर समाप्त हो जाएगा।‘‘

डॉ. अंबेडकर ने योजनाबद्ध तरीके से काम किया था। उन्होंने सम्मेलन से पूर्व ही अल्पमत समिति को एक स्मरण-पत्र प्रस्तुत किया और अपनी मांगे रख दी थी जो इस प्रकार थी।

1. अस्पृष्यता को समाप्त कर समान नागरिकता स्थापित की जाए।

2. सभी को समान अधिकारों के उपयोग के लिए स्वतंत्रता दी जाए।

3. सवर्ण हिंदुओं द्वारा दलित वर्गों के बहिष्कार को एक अपराध घोषित किया जाए।

4. दलित वर्गों के लिए केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधानसभाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाए।

5. प्रथम दस सालों के लिए इन्हें व्यस्क मताधिकार तथा पृथक निर्वाचन दिया जाए और इसके पश्चात् उन्हें संयुक्त निर्वाचन सहित आरक्षित सीटें दी जाए।

6. सरकारी सेवाओं में दलितों को पर्याप्त स्थान दिया जाए अर्थात् सेवाओं का पुनर्गठन इस प्रकार किया जाए की सभी समुदायों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व हो जाए।

7. दलित वर्गों की अन्य कठिनाइयों का निराकरण किया जाए और भेदभाव की नीति तथा इनके हितों की उपेक्षा से इनकी विशेष विकासात्मक योजना द्वारा रक्षा की जाए।

8. मंत्री सभा के निर्माण तथा सरकार की निर्णय-प्रक्रिया में दलित वर्गों को स्थान दिया जाए।4

उक्त मांगपत्र द्वारा अंबेडकर ने गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के अपने उद्देश्यों को यद्यपि स्पष्ट कर दिया था परंतु सम्मेलन में दिये गये भाषण और विभिन्न ब्रिटिश प्रतिनिधियों के वार्तालाप ये ही डॉ. अंबेडकर के दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।

ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने अंबेडकर से पूछा कि ‘‘आप आजादी की मांग क्यों करते है ? जब देश आजाद हो जाएगा तो आप लोगों का क्या होगा ? हिंदूराज में अछूतों के साथ फिर तो वैसा ही व्यवहार किया जाएगा जैसा पहले होता था।‘‘ डॉ. अंबेडकर ने इस प्रश्न का सच्चे देशभक्त और राष्ट्रवादी के रूप में उत्तर दिया। उन्होंने कहा कि यह हमारा अंदरूनी मामला है। हम अपने घर-परिवार में लड़ते जरूर हैं, किंतु जब बाहरी ताकतों से स्वायत्तता और संप्रभुता का बड़ा सवाल पैदा होता है तो हम अपने निजी हितों को भूलकर पूरे देश और राष्ट्र की बात करते हैं।‘‘[5]

गोलमेज सम्मेलन में अपने उद्बोधन में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने ब्रिटिष शासन को दलितों की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति से न केवल अवगत करवाया अपितु वह इस सम्मेलन द्वारा दलितों के पक्ष में माहौल बनाने के लिए भी कामयाब हुए, उन्होंने कहा दलित वर्ग एक अलग समूह है। वह मुसलमानों से अलग है यद्यपि उनको हिंदुओं सम्मिलित किया जाता है फिर भी वह इस जमात का भाग नहीं है, इनका अलग अस्तित्व है। इतना ही नहीं बल्कि [6] अन्य वर्गों से इसे बिल्कुल अलग दर्जा दिया गया है। इनका दर्जा भू-दास और गुलामों के बीच का है। हम इन्हें सरवाईलभी कहते हैं।

इनमें अंतर यह है कि भूदास और गुलामों से कोई छुआछूत का व्यवहार नहीं करता और दलित वर्ग के साथ छुआछूत का व्यवहार है। अपने तर्क का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि दलित वर्ग ऐसी जमात है जो इंग्लैंड या फ्रांस की जनसंख्या से भी अधिक है। वे आगे कहते हैं कि ब्रिटिश और दलित वर्ग में जो संबंध है वह विशिष्ट है। सनातनी हिंदुओं द्वारा वर्षों से होने वाले अन्याय और अत्याचारों से मुक्त करने वाले दलित लोग इस अपेक्षा से ब्रिटिशों की ओर देखते हैं। इन्होंने हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख के विरूद्ध अंग्रेजों के पक्ष में युद्ध किया था और भारत में ब्रिटिश साम्राज्य स्थापित करने में मदद की थी।

गोलमेज सम्मेलन में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कांग्रेस की उदारवादी नीति याचना दूर रहते हुए अपनी विषिष्ट शैली में ही जिसमें प्रतिकार, आक्रोश, वेदना, पीड़ा थी। अपने विचार व्यक्त किये थे। उनके द्वारा रखे गये विचार तर्कपूर्ण थे। वे दलितों के लिए अधिकारों की मांग के साथ भारत की स्वाधीनता के लिए प्रतिबद्ध थे। साथ ही वे दलितों के लिए ऐसे अधिकार मांगने के पक्षधर नहीं थे जिससे भारतीय समाज में फूट पड़ती हो या भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ना संभावित हो।

गोलमेज सम्मेलन में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के नेता डॉ. मूंजे ने इसमें डॉ. भीमराव अंबेडकर का भरपूर सहयोग किया। दोनों ने संयुक्त वक्तव्य देकर इस आषंका को खत्म किया जिसका आशय यह लगाया जा रहा था कि हिन्दू महासभा और भीमराव अंबेडकर के बीच गहरी खाई है और ब्रिटिश शासक द्वारा प्रचारित फूट डालो व राज करो की नीति को इस वक्तव्य ने करारा जवाब दिया। डॉ. अंबेडकर ने भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् दलितों के सांस्कृतिक, धार्मिक व आर्थिक अधिकारों से संबंधित प्रारूप तैयार किया था और इस प्रारूप को हिंदू नेताओं ने पूर्णतया स्वीकार कर लिया था।

प्रायः हिंदू महासभा और दलित नेता अंबेडकर को एक दूसरे के विपरीत घोषित किया जाता रहा परंतु सच्चाई यह थी की अखिल भारतीय हिंदू महासभा इस समय भी दलित वर्ग के अधिकारों को मान्यता देती जा रही थी।

सितंबर 1931 में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन का आयोजन हुआ। महात्मा गांधी ने भी इस सम्मेलन में भाग लिया। अपने प्रथम भाषण द्वारा गांधी जी ने यह साबित करने का प्रयास किया की कांग्रेस ही भारतीय हितों, धर्मों तथा जातियों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था है।

गांधी जी और डॉ. भीमराव अंबेडकर के बीच बड़ा विवाद का कारण यह बना कि जहाँ गांधी जी दलितों को हिंदू धर्म का हिस्सा मानते थे, वहीं डॉ. भीमराव अंबेडकर हिंदू धर्म से अलग दलित-हितों के संरक्षण के लिए ब्रिटिश शासन के समक्ष पुरजोर मांग कर रहे थे। महात्मा गांधी दलित वर्गों की भलाई की मांग के प्रति अंबेडकर के समर्थन में नहीं थे और मुस्लिमों के लिए पृथक निर्वाचन का समर्थन कर रहे थे। यह तुष्टिकरण ही बड़ा विवाद का कारण बन रहा था।

गांधी और अंबेडकर के बीच विरोधाभास गहरा होता गया। जहाँ अंबेडकर दलित-हितों के साथ समझौता नहीं करना चाहते थे। वहीं गांधी जी का मानना था कि दलितों को पृथक निर्वाचन की व्यवस्था हिंदू धर्म को तोड़ने वाली साबित होगी। अंबेडकर और गांधी का विरोधाभास नैसर्गिक था। जहाँ गांधी जी हिंदू धर्म को और हिंदू समाज को सर्वश्रेष्ठ मानते थे वहीं डॉ. अंबेडकर समस्त बुराइयों और समस्या का कारण हिंदू धर्म एवं हिंदू समाज को मानते थे। एक-दूसरे के विपरीत यह खाई बहुत गहरी थी। उसे केवल राष्ट्रीय हित की दृष्टि से ही   दूर किया जा सकता था। किंतु एक बात एकदम सही साबित हुई कि अंबेडकर के द्वारा दलितों के हितों की पैरवी करने के फलस्वरूप महात्मा गांधी के लक्ष्य एवं उद्देश्य असफल होते नजर आ रहे थे।

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में डॉ. भीमराव अंबेडकर स्पष्ट, राष्ट्रवादी, प्रखर दलित हितैशी एवं अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस की रीति-नीति के विरोधी के रूप में उभरे परंतु साथ ही अस्पृष्यों के लिए हर्षोल्लास और प्रेरणा के माध्यम बने। विदेशी समाचार-पत्रों ने भी डॉ. अंबेडकर की भरपूर प्रशंसा की यहाँ तक कि जो समाचार-पत्र डॉ. भीमराव अंबेडकर के विरोधी थे वे भी उन्हें राष्ट्रवादी घोषित करने लगे कुलाबा, इंडियन डेलीमीटर, संडे क्रॉनिकल, केसरी, सर्वहट्स ऑफ इण्डिया जैसे समाचार-पत्रों ने डॉ. भीमराव अंबेडकर, राष्ट्रभक्त घोषित कर दिया।

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के दौरान महात्मा गांधी और अंबेडकर के बीच तनाव का उपजना स्वाभाविक था। अतः इसे कम करने की दिशा में पहल किये बगैर द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के दूसरे सत्र में गांधी जी भाग लेंगे या नहीं, इस बात पर संदेह विद्यमान था। महात्मा गांधी और डॉ. अंबेडकर के बीच चर्चा होनी चाहिए। ऐसा प्रयास बाला साहब खेर ने किया। अंबेडकर ने स्वयं कोई पहल नहीं की। 6 अगस्त 1931 को गांधी जी ने पत्र लिखकर अंबेडकर से मिलने की इच्छा प्रकट की और दोनों के बीच 14 अगस्त 1931 को मणिभवन में मुलाकात हुई। प्रथम मुलाकात में ही यह स्पष्ट हो गया कि अंबेडकर और गांधी के बीच समन्वय स्थापित हो पाना लगभग असंभव है। जहाँ गांधी दलित प्रेम एवं दलितोद्धार कार्यक्रमों को कांग्रेस की उपलब्धि के रूप में चिन्ह्ति कर रहे थे, वहीं अंबेडकर कांग्रेस के उक्त कार्यों को ढोंग एवं दिखावा मात्र समझते थे।

उन्होंने गांधी जी को स्पष्ट किया कि कांग्रेस सदस्य बनने की यदि यह शर्तें होती कि सदस्य अस्पृष्यता को बढ़ावा नहीं देंगे, जिस प्रकार खादी पहनना कांग्रेस सदस्य के लिए अनिवार्य किया गया था। वैसा ही सदस्यता के लिए अस्पृष्यता नहीं करने की शर्तें लगी होती तो वे कांग्रेस के दलित प्रेम के प्रशंसक हो जाते। कुल मिलाकर प्रथम मुलाकात विरोध को बढ़ावा देने वाली ही साबित हुई। स्पष्ट विरोध हिंदू समाज के अभिन्न हिस्से को लेकर उपजा। गांधी जी अस्पृष्यों को हिंदू धर्म में बनाये रखने के पक्षधर थे, जबकि अंबेडकर की नजर में हिंदू धर्म ही अस्पृष्यों की वर्तमान दयनीय दशा के लिए जिम्मेदार था। अतः वो उनसे अलग अस्पृष्यों के अस्तित्व को खड़ा करना चाहते थे। अतः दो महापुरूषों की यह अनिर्णयात्मक भेंट समाप्त हुई।

भारत के राजनीतिक भविष्य का निर्धारण द्वितीय गोलमेज सम्मेलन द्वारा होना था। अंबेडकर द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में जाने से पूर्व कांग्रेस, गांधी और हिंदू समाज दलित विरोधी दृष्टिकोण को देश के सम्मुख रखने में सफल हो गये थे।

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में 125 प्रतिनिधि जा रहे थे। जिनमें अस्पृष्य समाज के केवल दो ही थे। डॉ. भीमराव अंबेडकर चाहते थे कि महात्मा गांधी जी भी सम्मेलन में भाग लें वो भी तब जब अंबेडकर यह भलीभाँति जानते थे कि महात्मा गांधी ही दलित के अधिकारों के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बन सकते हैं। फिर भी उनका मानना था कि ‘‘गांधी जी नहीं आयेंगे तो समझौता नहीं होगा, ऐसा नहीं है। इग्लैंड को भारत के साथ कुछ समझौता करना पड़ेगा। किंतु गांधी जी के बिना यह समझौता या संधि पिछड़े और सामान्य जनता के हितों के लिए पोषक नहीं होगी। उनके सहकार्य के बिना जो समझौता होगा वह पूंजीपति, जमींदार, राजा-महाराजा और वरिष्ठ वर्ग के  लोगों के हितों का पोषक होगा‘‘

‘‘श्रमिक, किसान, सामान्य एवं पिछड़ी जनता के हितों के लिए समझौता नहीं होगा। अतः गांधी जी को अपना हठ छोड़कर समय की आवश्यकता देखकर यहाँ आना अत्यंत आवश्यक है‘‘

गांधी जी स्वयं को दरिद्र नारायण के प्रतिनिधि मानते है तो जरूर भाग लेंगे। महात्मा गांधी जी ने न केवल भाग लिया अपितु उन्होंने अपने भाषण में यह दावा पेश किया कि कांग्रेस सभी भारतीयों के हितों का प्रतिनिधित्व करती है। मुसलमान, दलित, महिला, रजवाड़ों सभी के संबंध में जो भी निर्णय हो वो कांग्रेस के अनुरूप ही होने चाहिए। गांधी जी यह सिद्ध करना चाहते थे कि भारत का अर्थ कांग्रेस है, अतः वार्तों का आधार बिंदू कांग्रेस ही होनी चाहिए।

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने फैड्रल   कमेटी की बैठक में कहा कि फैड्रल एसेंबली के लिए रियासतों के प्रतिनिधि मनोनीत नहीं निर्वाचित हो, क्योंकि मनोनयन अनुत्तरदायी बना देता है साथ ही जमींदारों के प्रतिनिधित्व को भी अंबेडकर ने रूढ़िवादी, प्रगति विरोधी तथा लोकतंत्र विरोधी बताया।

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में यह एक ऐसा बिंदु था जिस पर दोनों महापुरूषों के विचार समानार्थी थे। इसी कारण गांधी जी ने भीमराव अंबेडकर के प्रति बाहरी रूप से सहानुभूति भी प्रदर्शित की।

परंतु मूल मुद्दा अछूतों को विशेष अधिकार देने के बारे में था जिसके प्रति महात्मा गांधी की भूमिका अंबेडकर की दृष्टि में दलित विरोधी थी। इनकी सबसे बड़ी भिन्नता यह थी कि गांधी जी मुसलमानों, सिक्खों के प्रति सहानुभूति रख रहे थे परंतु दलित वर्ग को सुविधा देने के खिलाफ थे। वे दलित वर्ग को व्यस्क मताधिकार प्राप्ति के आश्वासन पर संतुष्ट रखना चाहते थे। उन्हें और किसी भी प्रकार की सुविधा नहीं दी जाये।

यहाँ गांधी के दृष्टिकोण के कारण अंबेडकर अकेले पड़ते गये। परंतु उन्होंने हौसला नहीं खोया वे पुनः गांधी जी से मिले और दलितों की मांग पर समर्थन मांगा परंतु गांधी जी तैयार नहीं हुए, और बड़ी चालाकी से अंबेडकर की मांग को यह कह कर टाल गये कि शेष प्रतिनिधि दलितों की मांग का समर्थन करेंगे तो वे भी समर्थन कर सकते हैं। समय आने पर गांधी जी न केवल स्वयं बदल गये अपितु दूसरों को भी अंबेडकर की मांग के विरोध में खड़े करने का प्रयास करने लगे।

विवाद गहराता चला गया, दोनों के बीच कोई सुलह नहीं हो सकी। दोनों के दृष्टिकोणों के बीच स्पष्ट अंतर विद्यमान था। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में गांधी जी अस्पृष्यों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र एवं आरक्षित स्थान देने के लिए सहमत नहीं हुए। गांधी ने कांग्रेस के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहा कि ‘‘कांग्रेस सिर्फ मुसलमानों और सिक्ख समाजों को पृथक निर्वाचन क्षेत्र देने को तैयार है। अस्पृष्यों को पृथक निर्वाचन क्षेत्र या आरक्षित स्थान देकर हिंदुओं से अलग जाति विशेष सुविधा देने को कांग्रेस राजी नहीं है।

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन भी असफल हो गया, परंतु डॉ. भीमराव अंबेडकर विजेता बने। ब्रिटिश प्रधानमंत्री (रैमसे मैकडोनाल्ड ) ने 16 अगस्त 1932 को अधिनिर्णय दिया जिसे सांप्रदायिक पंचाट कहा गया। इसमें मुस्लिम, बौद्ध, सिक्ख, भारतीय ईसाई, एंग्लो-इंडियन, पारसी और अछूत (दलित) आदि के लिए अलग-अलग चुनाव क्षेत्र बनाये गये। दलितों केा हिंदुओं से अलग मानकर उनके लिए पृथक निर्वाचन तथा प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया।  अंबेडकर की सफलता में महात्मा गांधी फिर बाधा बने और इस पंचाट के खिलाफ 20 सितंबर 1932 को यरवदा जेल में आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया। अंततः पूना समझौते के माध्यम से दोनों महापुरूषों के बीच विवाद समाप्त हुआ।

निष्कर्ष गोलमेज सम्मेलनों के घटनाक्रम का अध्ययन करने के पश्चात् यह स्पष्ट होता है कि गांधी और अंबेडकर दोनों का मूल उद्देश्य स्वतंत्रता था, किंतु इस स्वतंत्रता के दो दृष्टिकोण थे। प्रथम दृष्टिकोण गांधी का था जिसमें वे अनायास ही या जानबूझकर हजारों वर्षों से स्वतंत्रता की मांग करने वाले दलितों की स्वतंत्रता के विरोधी बन जाते हैं तो द्वितीय दृष्टिकोण डॉ. अंबेडकर का जो मानव की स्वतंत्रता के पक्ष में था। प्रथम दृष्टिकोण अनेकों मायनों में अनैतिकता का रूप धारण करता है तो द्वितीय दृष्टिकोण नैतिकता के पक्ष में पूर्णतः झुका हुआ। यही कारण है कि इस नैतिक और अनैतिक संघर्ष में डॉ. अंबेडकर विजयी हुए।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. डॉ. शहारे म.ला., डॉ. नलिनी अनिल, बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर की संघर्ष यात्रा एवं संदेश प्रकाशन, नई दिल्ली, 14.04.1993, पृ. 92 2. भटनागर, राजेन्द्र मोहन, युगपुरूष अंबेडकर, राज्यपाल एंड सं.जू., कश्मीरी गेट, दिल्ली-6, 1994, पृ.231-232 3. डॉ. जाटव, डी.आर. राष्ट्रीय आंदोलन में डॉ. अंबेडकर की भूमिका, समता साहित्य सदन, जयपुर, 1996, पृ. 59 4. डॉ. जाटव, डी.आर. राष्ट्रीय आंदोलन में डॉ. अंबेडकर की भूमिका, समता साहित्य सदन, जयपुर, 1996, पृ. 60 5. ठाकुर-हरिनारायण, दलित साहित्य का समाजशास्त्र, भारतीय ज्ञानपीठ, 18 इन्स्टीट्युशन एरिया, लोदी रोड़, नई दिल्ली, पृ.312