ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VI , ISSUE- XII March  - 2022
Anthology The Research
1917 की बाॅल्शेविक क्रांति तथा लेनिन के संदर्भ
The Bolshevik Revolution of 1917 and References to Lenin
Paper Id :  15893   Submission Date :  12/03/2022   Acceptance Date :  18/03/2022   Publication Date :  25/03/2022
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वगता राम चौधरी
असिस्टेंट प्रोफेसर
इतिहास विभाग
एस० आर० एस० के० जे० गवर्नमेंट गर्ल्स कॉलेज
जालौर, राजस्थान, भारत
सारांश रूस की 1917 की बाॅल्शेविक क्रांति ने रूस में राजतंत्र का खात्मा कर समाजवादी सरकार को स्थापित कर दिया। लेनिन बाॅल्शेविक दल, ट्राटस्की जैसे निष्ठावान कार्यकर्ताओं और चेंका जैसे प्रशासनिक साधनों से रूसी क्रांति के बाद रूस में उपजे गृह युद्ध पर नियंत्रण किया और साम्यवाद का उभार प्रारंभ हुआ।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The Russian Bolshevik Revolution of 1917 abolished the monarchy in Russia and established a socialist government. The Lenin Bolshevik Party, loyal activists such as Trotsky, and administrative tools such as the Chenka controlled the civil war in Russia after the Russian Revolution and the rise of communism.
मुख्य शब्द रूस, रूसी क्रांति, बाॅल्शेविक दल, गृह युद्ध, मजदूर, किसान, क्रांति, संघर्ष, लाल सेना, ट्राटस्की, चेका, भूख, भारत, विचार आदि।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Russia, Russian Revolution, Bolshevik Party, Civil War, Workers, Peasants, Revolution, Struggle, Red Army, Trotsky, Cheka, Hunger, India, Ideas etc.
प्रस्तावना
रूसी क्रांति ने 1917 में रूस की राजशाही (जारशाही) का अंत कर दिया और लेनिन के नेतृत्व में मजदूर-किसानों के विकास का मार्ग तैयार हुआ।
अध्ययन का उद्देश्य 1917 की बाॅल्शेविक क्रांति ने रूस में राजशाही और सामंतशाही का अंत कर मजदूर-किसान के जीवन को सुधारने का कार्य किया। भारतीय संदर्भों में भी मजदूर-किसान के विकास के लिए इस संघर्ष को समझते में मदद मिल सकती है।
साहित्यावलोकन
लेनिन का रूस आगे चलकर स्टालिन का रूस हुआ, गोर्बाच्योव ने इसे पूंजीवाद के हवाले करने के प्रयास किये और वर्तमान में ब्लाद्विमीर पुतिन इसे साम्राज्यवादी और ताकत का प्रतीक बनाने पर तुले है। इतने लम्बे इतिहास में रूसी क्रांति को केवल इसीलिए याद किया जा सकता है कि उससे मजदूर-किसान और गरीब गुरबे का भला हो सके।
मुख्य पाठ

एक कहावत जो रूस से लेकर भारत में बहुत प्रसिद्ध रही हैवह है-जब तक भूखा इंसान रहेगा........ दुनिया में तूफान रहेगा।........ रूस के क्रांतिकारी हालात और उससे उपजी परिवर्तनकारी दशाओं को ध्यान में रखकर ये कहावत अस्तित्व में आई थी।............. मुंशी प्रेमचंद जैसे प्रसिद्ध हिन्दी कथाकार ने जिस क्रांति को जायज और विकासगामी ठहराया था, 1930 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जिस क्रांति की प्रशंसा की थीउसे 1917 की बाल्शेविक क्रांति के नाम से जाना जाता है और अनेक विचारक सामान्य भाषा में इसे ‘रूसी क्रांति‘ कहते रहे हैं।

जारशाही जैसी राजसत्ता का धड़ाधड़ तरीके से अंत कर समाजवादी व्यवस्था को काबिज करने वाली ये रूसी क्रांति पूरी दुनिया में एक वैचारिक तूफान की तरह फैलती गयी और यूरोप के अनेक देश तथा अमेरिका जैसी ताकत इसके उभार से थर्रा उठे।

भारत में राम मनोहर लोहिया जैसे युगपुरूष जिस समाजवादी व्यवस्था की हिमायत करते रहेवो व्यवस्था और वैचारिकता ‘बाल्शेविक क्रांति‘ के बाद ही आ पाई।

बाल्शेविक मूलतः रूस का एक राजनैतिक दल था जो लेनिन के नेतृत्व में मजबूत और प्रभावी होता गया और अपने समकालीन - मेंशेविक जैसे राजनैतिक दलों को उसने बहुत पीछे छोड़कर जनता का विश्वास हासिल किया।

रूस में जार (सम्राट) का शासन था जो रोमोनोव वंश से था और 300 वर्षों से इस वंश का शासन चला आ रहा था। जार निकोलस द्वितीय के अत्याचारउसकी पत्नी के गुरु रासपुटिन के भ्रष्टाचार व अंधविश्वास जनित कार्याें से जनता भड़कने लगी। धार्मिक रूढ़ियों व भ्रष्टाचार के अंत के लिये ‘निहिलिस्ट‘ आन्दोलन हुआ। बाल्शेविक दल और लोनिन ने संघर्ष कियामेंशेविक दल ने उदारवादी तरीके से जार का विरोध किया।

हरिशंकर शर्मा रूस की बाल्शेविक क्रांति और लेनिन द्वारा इसमें निभायी भूमिका पर लिखते है- ‘‘लेनिन के विचारों से स्पष्ट होता है कि वह प्रजा की हुकूमत में विश्वास करता था। उसका कहना था कि हम रूस में इस प्रकार की शासन व्यवस्था कायम करना चाहते हैं जिसमें कृषकश्रमिक व सैनिकों का पूर्ण सहयोग हो। [1]

वास्तव में लेनिन के ये विचार समाज के मूलभूत पक्षों को साथ लेकर परिवर्तन की बात सामने रखते हैं और समाज के सभी उपेक्षित पक्षों को साथ लेकर उनका भला करने के प्रयास ही समाजवाद की परिभाषा गढ़ते हैं।

रूसी क्रांति में लियोटाॅलस्टाॅयतर्गनेवडोस्टोवश्कीमैक्सिम गोर्की आदि साहित्यकारों की भूमिका को भी अहम माना जाता है। लेनिन ने इस्करा और जार्या जैसे पत्र स्विट्जरलैंड में प्रवास करते हुए निकाले थे जो रूस की जनता में लोकप्रिय हुए और लेनिन के समाजवादी विचार घर-घर पहुँचे।

रूस की जनता धीरे-धीरे राजतंत्र और सेना के विरूद्ध विद्रोह पर उतारू होने लगी। हरिशंकर शर्मा अपने ग्रंथ ‘‘आधुनिक विश्व की रूपरेखा‘‘ में इस संबंध में लिखते हैं कि ‘‘रूस के लोगों को आशंका हो गई कि कहीं सेना देश पर अधिकार न कर बैठे। इस पर लोगों ने बाल्शेविक पार्टी का समर्थन करना आरंभ कर दिया।‘‘[2]

नवम्बर 1917 में रूस में रक्तहीन बाल्शेविक क्रांति हुई और सत्ता बाल्शेविक साम्यवादी दल के हाथ में आयी तथा लेनिन को मंत्रिमंडल का प्रमुख बनाया गया। सन् 1917 से 1920 तक बाॅल्वेशिक सरकार को विरोधियों (मेंशोविक दलसामंत-जमीदारजार समर्थकइंगलैड़फ्रांसअमेरिका) द्वारा छेडे़ गये गृह-युद्ध का सामना करना पड़ा और जनता के समर्थनट्राटस्की की ‘लाल सेना‘ के आतंक व ‘चेका‘ (विशेष न्यायालय) के कारण विरोधी समर्पण को तैयार हुए व साम्यवाद का डंका बजा।

शासकों जमींदारों और पूँजीवादी राष्ट्रो व काॅर्पोरेट ताकतो द्वारा बाल्शेविक विचारधारा व लेनिन का खुला विरोध करना इस बात की पुष्टि करता है कि लेनिन श्रमिक व किसान तथा निम्न मध्यमवर्ग की जनता का नायक था और पूँजीवादी व सांमती ताकते सदैव से ही शोषणकारी विचारधारा की पोषक रही है। पी. एन. तिवारी इन हालात का बयान करते हुए लिखते है -‘‘रूस की क्रांति ही पहली क्रांति थी जिसमें मजदूरों ने किसानों और सैनिको के साथ मिलकर शासन के विरूद्ध बगावत कीजिसमें सर्वहारा वर्ग सफल रहा। इस क्रांति ने दलितों को आवाज दी और मजदूरों को अपनी शक्ति का भान कराया।‘‘[3]

रूस इस क्रांति ने गरीब आदमी में यह चेतना ला दी कि उसे उसका अधिकार मिलने के साथ-साथ भविष्य में सत्ता संगठन और सर्वोच्च पद तक पर बैठने का मौका मिलेगा। वास्तव में रूसी क्रांति गरीब आदमी के स्वाभिमान का गुणात्मक रूप साबित हुई।

एक तरफ की तमाम ताकतवर ताकतों से लोनिन ने जनता और हौंसलो के भरोसे ही लड़ाई लड़ी थी और वह इसमें विजयी हुआ। जनता ने लेनिन की विजय में अपनी विजय मानी।

रूस की बाल्शेविक क्रांति के कारणों पर यदि हम विचार करे तो हम देखते हैं कि जारशाही की निरंकुशताअत्याचार और भ्रष्टाचार बढ़ चुका था। सामाजिक असमानता चरम पर थी। किसानों की दुर्दशा हो रही थी। मजदूरों की दशा दयनीय हो चुकी थी। जार द्वारा गैर रूसी जातियों का रूसीकरण करने से असंतोष उत्पन्न हो रहा था। निहिलिस्ट आंदोलन द्वारा जार का विरोध किया जा रहा था। सन् 1905 की मजदूर क्रांति (खूनी रविवार की घटना) घटित हो चुकी थी। ड्यूमा (संसद) का प्रभाव जार ने खत्म कर डाला था। लेखक और साहित्यकार क्रांति को हवा दे रहे थे। नौकरशाही भ्रष्ट हो चुकी थी। जार निकोलस द्वितीय की अकर्मण्यता भी एक बड़ा कारण थी। रासपुटिन जैसे राजगुरू का भ्रष्टाचार और अंधविश्वास को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति से जनता कुपित थी। समाजवाद का विकास हो रहा था। सोशल डेमोके्रट्रिक दल (बाॅल्वेशिक तथा मेंशेविक) सक्रिय थे। प्रथम विश्व युद्ध में सैनिकों की बड़े स्तर पर मौत हो रही थी। राशन की भयंकर कमी हो रही थी। .......... ये तमाम कारण अंततः 1917 की क्रांति का आधार बने और रूस में राजसत्ता का खात्मा हो गया।

लेनिन ने एक आम आदमी की तरह रूस के हालात और जनता की समस्याओं को समझा और एक समझदार तथा निष्ठावान - समर्पित नेता की तरह रूसी राष्ट्रवाद को लोककल्याणकारी परिणाम में परिणत किया।

पी. एन. तिवारी लिखते हैं कि ‘‘इस क्रांति (रूसी क्रांति) ने सामाजिक परिवर्तन पर बल दिया और इसके लिए उचित समझा कि समाज के निम्न वर्ग के लोगों का प्रशासन पर अधिकार होना चाहिए।‘‘[4]

वास्तव में 1917 की बाल्शेविक क्रांति स्पष्ट तौर पर गरीबों को हक दिलाने की क्रांति थी और इसमें जायज-नाजायज सभी तरीके आजमाए गए जिससे जार और शोषक पूंजीपतियों की सत्ता तथा प्रभुत्व को खत्म किया जा सकें।

लेनिन ने क्रांति में विजय के पश्चात् जो भी काम किये वे प्रायः जनहितकारी ही माने गये। जमीन और कारखानों का राष्ट्रीयकरण करने से जनता को अपने जीवन स्तर में सुधार का अवसर मिलाशिक्षा को सर्वसुलभ और सुगम बनाने से जनता शिक्षित-विवेकवान और उचित मानव संसाधन के रूप में विकसित हुई। श्रमिकों के हित में कानून बनाए जाने से उनकी कार्यक्षमता और उत्साह में वृद्धि हुई। किसानों के लिए अनेक लाभकारी प्रावधान करने से फसल उत्पादन बढ़ा और विरोधियों को कठोरता से दबाने के कारण अराजकता शांत हो गईतंत्र तथा व्यवस्था चलाने में सुगमता हुई।

रूस की क्रांति को ‘जनता की क्रांति‘ कहा जा सकता है क्योंकि जनता के प्रत्यक्ष- परोक्ष सहयोग से ही इस क्रांति में सफलता मिल सकी और इसका सर्वाधिक फायदा भी जनता को ही मिल सका।

लेेनिन के नेतृत्व में रूसी क्रांति की सफलता पर डॉ. कृष्ण गोपाल शर्मा लिखते हैं - ‘‘लेनिन अपने अग्रज की तरह भावुक क्रांतिकारी नहीं थाजो दो चार की हत्या कर स्वयं भी सत्ता के हत्थे चढ़ जाए। उसने संकट की घड़ी में बिना हिचक पलायन किया और मौका आने पर ही लौटा।‘‘ [5]

रूसी क्रांति का नायक लेनिन कजान प्रांत में जन्मा था और विश्वविद्यालय की पढ़ाई के दौरान ही क्रांतिकारी गतिविधियों के चलते उसे जेल भेज दिया गया था। 5 साल बाद आजाद होकर वह देश से निकाला गया और स्विट्जरलैंड जाकर ‘इस्करा‘  ‘जार्या‘ पत्र निकालकर रूसी जनता को जागृत किया। सन् 1917 में पेट्रोग्राड पहुँचकर उसने बाल्शेविक दल को संगठित किया और ‘मध्यमवर्गीय क्रांति (बुर्जुआ क्रांति) की जगह ‘समाजवादी क्रांति‘ (सर्वहारा क्रांति) का नारा दिया।01 जुलाई में लोनिन के नेतृत्व में असफल विद्रोह हुआ और लेनिन भागकर फिनलैंड़ गया। 01 सितम्बर 1917 में लेनिन ने बाल्शेविक दल की कार्यकारिणी को पत्र लिखकर क्रांति का आदेश दिया। खुराना एवं शर्मा के अनुसार- ‘‘07 नवम्बर 1917 को बोल्शेविक दल के स्वयंसेवकों ने पेट्रोग्राड के सरकारी कार्यालय और रेल्वे स्टेशन पर अधिकार कर लिया। केरेन्सकी ने किसी अज्ञात स्थान पर भागकर जान बचायी। उसके अनेक साथियों व मंत्रियों को बन्दी बना लिया गया। सेना के मुख्यालय पर भी बाॅल्शेविकों ने अधिकार स्थापित कर लिया।‘‘[6]

लेनिन ने अपने राजनैतिक प्रबंधनकूटनीति और बेहतर कार्य योजना से रूस की सत्ता की सत्ता और प्रशासन पर नियंत्रण तो कर लिया किन्तु उसे मेंशेविक दलसामंतोजार-समर्थ को और इंगलैड़फ्रांस एवं अमेरिका के भीषण विरोध का सामना करना पड़ा जिसे ‘चेका‘ जैसे न्यायालय की मदद और ट्राटस्की की ‘लाल सेना‘ के बल पर कठोरता से कुचल दिया गया। रूस की जनता का अपार समर्थन लेनिन के लिए हर राजनैतिक कदम सुगम बनाता गया।

रूस की क्रांति का प्रभाव हर देश के मजदूरों पर पड़ा और किसान भी इससे अछूते नहीं रह पाए। रूस की इस क्रांति का ही परिणाम था कि पूंजीवादी ताकतों ने समाजवाद को अपना खुला शत्रु मान लिया और राष्ट्र संघ तक को श्रमिकों के कल्याण के लिए अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ की स्थापना करनी पड़ी।

लेनिन ने जमीन और कारखानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। अमेरिका और यूरोप के पूँजीपति देश लेनिन के नेतृत्व वाले रूस के कट्टर शत्रु बन गए। पी. एम. तिवारी इन हालात का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि - ‘‘लेनिन की कारवाइयों से देशी एवं विदेशी पूंजीपति विक्षुब्ध हुए और उन्होंने 1919 ई. में रूस पर देशी पूँजीपतियों की मिलीभगत से हमला कर दिया। 1919 ई. के अंत तक ऐसा लगता था कि साम्यवादी रूस का अंत हो जाएगालेकिन लोनिन ने इस विकट स्थिति का सामना डटकर योग्यतापूर्वक किया।‘‘[7] 

डॉ. हेतसिंह बघेला लिखते हैं - ‘‘रूसी साम्यवादी अपनी क्रांति को विश्व क्रांति का अग्रदूत समझते थे। बाल्शेविक नेताओं की दृष्टि में कितनी ही राष्ट्रीय क्रांतियां होने को थी। लेनिन का विश्वास था कि प्रथम महायुुद्ध के कारण पश्चिमी देशों का पूंजीपति वर्ग नष्ट हो जाएगा।‘‘[8]

हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक डा. अमरनाथ के अनुसार- ‘‘रूसी क्रांतिकारी नेता व विचारक लेनिन ने साम्राज्यवाद को पूँजीवाद की चरम अवस्था कहा था।‘‘[9]

बाल्शेविक विचारधारा और लेनिन की स्पष्ट मान्यता थी कि वे अमीरों के अत्याचारों और शोषण के खिलाफ गरीबों की मदद कर उनका विकास करने के लिए ही सत्ता चाहते है।

हालांकि लेनिन और उसके समर्थकों का यही दावा था कि रूसी क्रांति गरीबों के भले के लिए है लेकिन उनके इस काम में एक प्राकृतिक विपदा ने बाधा पैदा की। सन् 1921-22 में रूस में भयंकर अकाल पड़ा और तत्कालीन स्त्रोतों से पता चलता है कि इस अकाल में 50 लाख लोग भूख से मरे। लेनिन के कट्टर समर्थक ट्राटस्की ने कहा कि ‘यह क्रांति हमें बहुत महंगी पड़ी है।

हालांकि आगे चलकर हालात नियंत्रण में आए। बाल्शेविक क्रांति के परिणाम दीर्घकालिक व दूरगामी सिद्ध हुए। जारशाही का अंत हुआ। रूस प्रथम विश्व युद्ध से निकलारूस एक ताकतवर देश के रूप में उभरालेनिन का अधिनायकवाद अस्तित्व में आयापूँजीवादी व्यवस्था समाप्त हो गईकिसानों की हालत सुधरीऔद्योगिक विकास होने लगाश्रमिकों का जीवन स्तर सुधराअसमानता का अंत हुआस्त्रियों की दशा में सुधार आयाशिक्षा का विकास हुआवर्ग संघर्ष समाप्त हुआ व सर्वाहारा वर्ग का महत्व बढ़ा।

1917 की रूस की क्रांति के बाद यद्यपि लेनिन और बाल्शेविक दल के अनेक कदमों कीनीतियों की आलोचना की जा सकती है लेकिन अन्य व्यवस्थाओं के मुकाबले गरीब-गुरर्बे के लिए इस क्रांति के बाद का साम्यवाद और समाजवाद बेहतर सिद्ध हुआ। आगे चलकर लेनिन का नायकत्व ही उसके स्वयं के चरित्र को खंडित करने लगा और वह साम्राज्यवाद की दौड़ में चाहे-अनचाहे कूद गया। सन् 1918 में लेनिन के नेतृत्व में रूस का नया संविधान बना और इसी संविधान में किसान-मजदूरों के अधिकारों की रक्षा की घोषणा हुई। इसी संविधान के तहत रशियन सोश्लिस्ट फेडरल सोवियत रिपब्लिक (R.S.F.S.R.) की स्थापना हुई और मास्को रूस की राजधानी बना। सन् 1924 में लेनिन की मृत्यु हो गई।

रूसी क्रांति की आलोचना करते हुए इस क्रांति के एक नेता जिनोवीव ने कहा था-‘‘हमने कभी यह कल्पना नहीं कि गृह-कलह के काल में हमें इस प्रकार की आतंकवादी नीति अपनानी पड़ेगी और हमारे हाथ खून से रंग जावेंगे।‘‘[10]

निष्कर्ष यदि मजदूर-किसान और गरीब की पीड़ा तंत्र और व्यवस्था द्वारा समय पर समझी जाए और उसका परिहार किया जाए तो संघर्ष के हालात नहीं बनेंगे।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. आधुनिक विश्व-हरिशंकर शर्मा, पृष्ठ 505, मल्लिक एंड कम्पनी, जयपुर, चतुर्थ संस्करण 2000 2. आधुनिक विश्व की रूपरेखा- (1453-1976 ई.)- हरिशंकर शर्मा पृष्ठ 459, मल्लिक एंड कम्पनी जयपुर, 2001 3. ज्म्।ब्भ् ल्व्न्त्ैम्स्थ् भ्प्ैज्व्त्ल् (यूरोप का इतिहास-1789-1950 ई.)-पी. एन. तिवारी, भारती भवन, पटना 2012 4. ज्म्।ब्भ् ल्व्न्त्ैम्स्थ् भ्प्ैज्व्त्ल् (यूरोप का इतिहास-1789-1950 ई.)-पी. एन. तिवारी, पृष्ठ 201, भारती भवन पटना, 2012 5. आधुनिक विश्व का इतिहास-डाॅ. कृष्ण गोपाल शर्मा, कमल सिंह कोठारी, डाॅ. विष्णु प्रसाद शर्मा, पृष्ठ 233, अजमेर बुक कम्पनी, जयपुर, 2019 6. विश्व का इतिहास (1789-1964 ।ण्क्ण्) खुराना एवं शर्मा, पृष्ठ 109, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल आगरा, 2014, द्वादश संस्करण 7. ज्म्।ब्भ् ल्व्न्त्ैम्स्थ् भ्प्ैज्व्त्ल् (यूरोप का इतिहास-1789 से 1950 ई.)-पी. एन. तिवारी, पृष्ठ 203, भारती भवन पटना, 2012 8. यूरोप का इतिहास-(1789-1950 ई.)-डाॅ. मथुरालाल शर्मा, डाॅ. हेतसिंह बघेला, पृष्ठ 174, काॅलेज बुक डिपो नयी दिल्ली, 1988 9. हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली- डाॅ. अमरनाथ, पृष्ठ 468, राजकमल प्रकाशन नयी दिल्ली 2009 पहला संस्करण 10. छम्ॅ ब्।डठत्प्क्ळम् डव्क्म्त्छ भ्प्ैज्व्त्ल्ए टण्12 च्।ळम् 415