ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VI , ISSUE- XII March  - 2022
Anthology The Research
साहित्यिक हिंदी पत्रकारिता : अवधारणा और विकास
Literary Hindi Journalism: Concept and Development
Paper Id :  15873   Submission Date :  13/03/2022   Acceptance Date :  18/03/2022   Publication Date :  25/03/2022
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विवेक कुमार जैसवाल
असिस्टेंट प्रोफेसर
संचार और पत्रकारिता विभाग
डॉ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय
सागर,मध्य प्रदेश, भारत
सारांश पत्रकारिता के इतिहास में साहित्यिक पत्रकारिता का हमेशा से विशिष्ट स्थान रहा है। साहित्यिक पत्रकारिता एक ऐसा माध्यम है जिसके जरिए साहित्य की विभिन्न विधाओं को विशेष प्रयोजन के साथ अभिव्यक्ति दी जाती है। ये विधाएँ आलोचना, काव्य, कथा-साहित्य, नाट्य, निबंध, संस्मरण, साक्षात्कार, समीक्षा, समकालीन साहित्य विमर्श, तुलनात्मक साहित्य, साहित्य-संस्कृति, आदि पर केंद्रित होती हैं। इन विधाओं को पत्र-पत्रिकाओं (मासिक, त्रैमासिक, वार्षिक, अर्धवार्षिक) के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। जाहिर है इस प्रस्तुति-कला के संयोजन व संपादन के लिए पत्रकारिता के माध्यम का सहारा लेना पड़ता है और इस प्रक्रिया के साथ ही साहित्यिक पत्रकारिता की शुरुआत समझी जा सकती है। स्पष्ट शब्दों में, अवधारणा के स्तर पर साहित्यिक पत्रकारिता एक ऐसा माध्यम है जो कि निर्धारित साहित्यिक उद्देश्यों की पूर्ति के साथ-साथ प्रकाशन सामग्री को स्थायित्व व दीर्घजीविता प्रदान करता है। दूसरे शब्दों में साहित्यिक पत्रकारिता क्षणों में नहीं युगों में जीवित रहने का प्रयास करती है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Literary journalism has always had a special place in the history of journalism. Literary journalism is a medium through which various genres of literature are given expression with a special purpose. These genres focus on criticism, poetry, fiction, drama, essay, memoirs, interviews, reviews, contemporary literary discussions, comparative literature, literature-culture, etc. These disciplines are presented through magazines (monthly, quarterly, annual, half yearly). Obviously, for the combination and editing of this presentation-art, one has to resort to the medium of journalism and with this process the beginning of literary journalism can be understood. In clear words, at the conceptual level, literary journalism is a medium that provides stability and longevity to the publication material along with fulfilling the prescribed literary objectives. In other words literary journalism tries to survive in the ages, not in the moments.
मुख्य शब्द साहित्यिक पत्रकारिता, दिनमान, लोकप्रिय पत्रकारिता, लघु पत्रिका, चाँद, तद्भव, हंस ।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Literary Journalism, Dinman, Popular Journalism, Small Magazine, Chand, Tadbhav, Hans.
प्रस्तावना
साहित्यिक पत्रकारिता के सरोकार मूल प्रवृत्ति में व्यापक होते हैं और यह काल व स्थान का अतिक्रमण करती है। साहित्यिक पत्रकारिता का यह चरित्र ही उसके और शुद्ध पत्रकारिता के बीच विभाजन रेखा की भूमिका निभाता है। इसके अतिरिक्त साहित्यिक पत्रकारिता मूलत: एक प्रकार से आदर्शवादी व सृजनात्मक होती है और स्वयं को बाजार की शक्तियों के संचालन एवं आक्रमण से सुरक्षित भी रखने की कोशिश करती है। यह भी सच है कि साहित्यिक पत्रकारिता स्वयं का वस्तु में रूपांतरण का भी प्रतिरोध करती है। साहित्यिक हिंदी पत्रकारिता का इतिहास न केवल समृद्ध है बल्कि समय के सापेक्ष उपजने वाले विमर्शों में यह अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. टेक्नोलोजी के अत्यधिक विकास और प्रयोग के बावजूद मुद्रित माध्यमों की महत्ता तनिक भी कम नहीं हुई है बल्कि यह मुद्रित होने के साथ-साथ इंटरनेट से जुड़े माध्यमों में प्रवेश कर चुकी है और साहित्यिक हिंदी पत्रकारिता को ग्लोबल प्रसिद्धि और प्रसार मिल रहा है. प्रत्येक सामाजिक विमर्श में साहित्यिक हिंदी पत्रिकाओं की भूमिका और महत्व सदैव रहेगी।
अध्ययन का उद्देश्य साहित्य और पत्रकारिता के बीच के संबंधों को तलाशना, साहित्य और पत्रकारिता कैसे एक दूसरे के पूरक हैं और कैसे एक दूसरे से अलग हैं, उनके कारणों की पहचान करना, साहित्यिक पत्रकारिता और व्यावसायिक पत्रकारिता के लक्ष्यों और उद्देश्यों को समझना, हिन्दी के विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं का मूल्यांकन और प्रासंगिकता की पड़ताल।
साहित्यावलोकन
किसी भी समाज का समग्र रूप से आंकलन और अध्ययन करने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत उस समाज के विभिन्न काल-खंडों में रचा गया साहित्य और उस दौरान उपजा विमर्श ही होता है, इसलिए वर्तमान में रहते हुए देश और समाज की भूतकालीन दशा और भविष्यगामी दिशा को समझने के लिए साहित्य-रचना को देखा जाना अति आवश्यक है। चूंकि यह माना गया है कि पत्रकारिता भी एक तरह का साहित्य ही है जो हड़बडी में और तुरंत प्रभाव छोड़ने के लिए लिखा जाता है इसलिए साहित्य-सृजन का एक रूप मानते हुए इसका अध्ययन भी आवश्यक है। सन सैंतालीस के बाद देश पंचवर्षीय योजनाओं के ‘ट्रायल’ के दौर से गुजर रहा था। भारतीय समाज के विकास का बहुआयामी आंकलन करते समय साठ के दशक को प्रस्थान बिंदु इसलिए माना गया है क्योंकि यह एक ऐसा समय था जब यह माना जा रहा था कि देश में लोकतंत्र लागू हो चुका है। लोकतंत्र की स्थापना जरूर हुई लेकिन वास्तविक अर्थों में लोकतंत्र का धीरे-धीरे क्षरण भी वहीं से शुरू होता है। नए तरीके का पूंजीवाद, नए तरीके का सामंतवाद पनपने के लक्षण दिखने शुरू हो गए थे। साथ ही भूमंडलीकरण की प्रक्रिया की आधारभूमि तैयार हो चुकी थी और समूचे विश्व के साथ ही साथ भारत भी एकध्रुवीय विश्व की राजनीतिक परियोजना का शिकार बनने की तरफ अग्रसर हो रहा था। इस अध्ययन के लिए साहित्यिक पत्रकारिता की अवधारणा पर लिखित पुस्तकों और साहित्य और पत्रकारिता की बीच के संबंध और उनके बीच के विभाजन को प्रस्तुत करने वाली पुस्तकों का ध्यान करने के पश्चात आलेख को साहित्यिक पत्रकारिता की अवधारणा को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है.
मुख्य पाठ

जहाँ तक अकादमिक परिप्रेक्ष्य से साहित्यिक पत्रकारिता के वर्गीकरण का सवाल है कि ऐसा क्या मानक है जिसके आधार पर हम यह तय कर सकें कि कौन सी पत्रिका साहित्यिक है या कौन सी नहींइस लिहाज से साहित्यिक पत्रकारिता का निम्न वर्गीकरण किया जा सकता है-

१. शुद्ध साहित्यिक आंशिक साहित्यिक ३. लोकप्रिय व प्रतिष्ठानी साहित्यिक

शुद्ध साहित्यिक पत्रकारिता एक प्रकार से व्यक्ति या साहित्यिक संस्था आधारित होती है। इसमें लाभ-अर्जन के स्थान पर कृति व विचार संप्रेषण प्रमुख उद्देश्य रहता है। इस श्रेणी की पत्रकारिता व्यापक पाठक वर्ग के स्थान पर चिंतनशील व संवेदनशील पाठक वर्ग को केंद्र में रखती है। इस पत्रकारिता में प्रतिबद्धता व संकल्पबद्धता के तत्व प्रमुख होते हैं। यह दैनंदिन पत्रकारिता के मानकों से निर्देशित नहीं होती है। एक सीमा तक यह भी सच है कि साहित्यिक पत्रकारिता वैयक्तिक या समान विचारधर्मी समूह के संसाधनों पर आधारित होती है। फलस्वरूप यह अपनी इयत्ता को बचाए रखती है। आंशिक साहित्यिक पत्रिकाओं की श्रेणी में उन पत्रिकाओं को रखा जा सकता है जिसमें साहित्य एक भाग के रूप में उपस्थित होता है और उसमें समकालीन साहित्यिक विमर्शों और साहित्यिक विधाओं की नई रचनाओं को जगह दी जाती है। लोकप्रिय और प्रतिष्ठानी साहित्यिक पत्रिकाओं की श्रेणी में वे पत्रिकाएँ आती हैं जो बड़े घरानों और संस्थाओं से निकलती हैंजिनके साथ पूंजी का कोई संकट नहीं होता।

 स्वाभाविक है कि भारत में हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता मुख्य रूप से पत्रिकाओं, लघु पत्रिकाओं के माध्यम से की जाती रही है। इन पत्रिकाओं को मोटे तौर निम्न तरीके से विभाजित किया जा सकता है- नियतकालीन और अनियतकालीन अर्थात पाक्षिक, मासिक, द्विमासिक, त्रैमासिक, अर्ध वार्षिक, वार्षिक आदि।

साहित्यिक पत्रकारिता का एक और आयाम है- साहित्यिक पत्रिका और गैर- साहित्यिक पत्रिका। साहित्यिक पत्रिका के अंतर्गत ऐसी पत्रिकाओं को वर्गीकृत किया जा सकता है जिसका संपादन शुद्ध साहित्यकारों द्वारा किया गया। इस श्रेणी के अंतर्गत ‘सरस्वती’, ‘चाँदआलोचनाकल्पनानई कहानीअभिनव कदमअक्षर पर्व’, ‘हंस’ आदि को रखा जा सकता है।

दूसरी श्रेणी में वे हैं जिनका संपादन साहित्यकारों ने किया लेकिन ये बड़े प्रकाशन समूह की पत्रिकाएँ थींजैसे- ‘धर्मयुगसाप्ताहिक हिंदुस्तानज्ञानोदयकादंबिनीशुक्रवार’, ‘वामा’ आदि।

लघु पत्रिकाएँ- विचारपरक साहित्यिक पत्रिकाएँ  जैसे- ‘समयांतर’, ‘पहलनया पथ’ जिसमें  साहित्य और विचार दोनों का समावेश होता है।                  

साहित्य और पत्रकारिता दोनों ही ज्ञान के व्यवस्थित संस्थान हैं और एक दूसरे की अनिवार्यता साबित करने के लिए प्रतिबद्ध भी रहे हैं। साहित्यिक पत्रकारितापत्रकारिता में प्रतिरोधी चेतना के अभाव के कारण आ सकीसाहित्यिक पत्रकारिता का जन्म ही एक तरह से अपने में पत्रकारिता के मानक गुणों को समावेशित करने तथा प्रतिरोधी चेतना को जगाने के लिए हुआ है। यह एक ऐसी पत्रकारिता होती है जिसमें साहित्य होता है और साहित्य में पत्रकारिता होती है। इसमें एक दूसरे के विलीनीकरण का रूप सामने उपस्थित होता है। साहित्य और पत्रकारिता को एक दूसरे से बहुत अलग भी नहीं किया जा सकता। दोनों के अवयव एक दूसरे में घुले-मिले हुए हैं। पत्रकारिता जहां हताशनिराश लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए प्रतिरोधी विचारों का सृजन करती है और सरकारों को बात-बात पर चेतावनी देती रहती है जिससे समाज में जागृति आती है और परिवर्तनकारी लहरों का फैलाव होता हैतो वहीं साहित्य भी इस शुचितापूर्ण जिम्मेदारी का निर्वहन करता है। साहित्य भी पत्रकारिता की शैली में ही प्रतिरोध जगाने का काम करता है। आजादी के पूर्व की साहित्यिक पत्रकारिता आज भी हमारे लिए मानक बनी हुई है।

अच्युतानंद मिश्र जी साहित्यिक हिंदी पत्रकारिता के इतिहास का मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं कि “गत साठ वर्षों की हिंदी पत्रकारिता की मूलात्मा साहित्यिक-सांस्कृतिक ही रही है जो उसके उद्भव से लेकर अब तक विद्यमान है। व्यापक जनाकांक्षा और जन संघर्षों को लेकर चलने वाली यह पत्रकारिता आज इस मायने में भी आश्वस्ति देती है कि भूमंडलीय और बाजार के वैश्विक हमलों के बावजूद इसकी प्रतिरोधी क्षमता और सांस्कृतिक चेतना की उदग्रता में कोई कमी नहीं आई है। हिंदी जिस तरह वंचित जनों की वाणी हैउसके संघर्षों की अभिव्यक्ति हैउसी तरह उसकी साहित्यिक पत्रकारिता एक नई सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक प्रति संसार बनाने को प्रतिबद्ध एक आंदोलन हैजिसमें समानतासमतास्वत्व तथा आत्मनिर्भरता के आदर्शों की शक्ति है। हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता जैसी विविधता अन्यत्र नहीं है। हिंदी के विशाल परिक्षेत्र में अनेक वैचारिक प्रतिबद्धताओंदृष्टियोंसंकल्पों और आदर्शों को लेकर जो सैकड़ों नियमित पत्रिकाएँ निकल रही हैंवे अपने आप में हिंदी की अद्वितीय सृजनात्मकता और हिंदी जनों की अपरिमित निष्ठा का प्रमाण हैं[1] आजादी से पूर्व साहित्य और पत्रकारिता में एकमेव था या यों कहें कि साहित्य और पत्रकारिता एक ही सिक्के के दो पहलू थे। “हिंदी पत्रकारिता का एक निश्चित ध्येय थातब पत्रिकाओं का प्रकाशन व्यावसायिक न था इसलिए राष्ट्रीय प्रश्नों और समस्याओं पर टिक कर बहस करना उसका अपना धर्म बन गया था। लेखकों की चिंताएं जो पत्र-पत्रिकाओं में व्यक्त होती थींवे उनकी रचना भूमि भी बनती थीं। पत्रकारिता ध्येयवादी थी और साहित्य उन्हीं सपनोंसंघर्षों की अभिव्यक्ति थाइसलिए वे दोनों ही मिलकर एक ऐसी पत्रकारिता को जन्म देते हैं जो एक समग्र संस्कृति निर्मित करती है[2]

सामान्यत: सामंती काल और औद्योगिक काल मे साहित्य को पत्रकारिता की जननी माना जाता रहा हैक्योंकि इन समाजों में ये दोनों विधाएँ इतनी मुखरित रूप से विभाजित नहीं थीं जितनी आज दिखाई देती हैं। इसका प्रमुख कारण सामंती और औद्योगिक कालों मे सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक और टेक्नोलोजीय शक्तियों की विकास अवस्था है। लेकिन जैसे-जैसे औद्योगिक क्रांति का विस्तार होता गया, पूंजीवादी व्यवस्था का वर्चस्व बढ़ने लगानए बाजार व नए उपभोक्ता वर्ग उभरने लगे, लोकतांत्रिक गतिविधियों व संस्थाओं का विस्फोट होने लगा, संचार के नए माध्यमों (विशेष रूप से प्रिंट) की जरूरत महसूस होने लगी। इस पृष्ठभूमि में साहित्य और पत्रकारिता के पारंपरिक संबंधों का पुनर्निर्धारण भी होने लगा। मूलत: साहित्य मनुष्य की कोमल व सृजनात्मक अभिव्यक्ति का एक दीर्घजीवी माध्यम होता है जबकि पत्रकारिता उसकी तात्कालिक, त्वरित और लक्षित अभिव्यक्ति का माध्यम होता है। साहित्य में समय के तीनों काल (भूत, वर्तमान, भविष्य) समाहित रहते हैं और अपनी निर्धारित भूमिका निभाते हैं। इसके विपरीत पत्रकारिता वर्तमान से मुठभेड़ करती है और मनुष्य की दैनंदिन गतिविधियों को एक संगठित रूप में वृहद स्तर पर संप्रेषित करती है। यह तात्कालिक और त्वरित संप्रेषण व्यक्ति, समाज और राज्य के अंतर्संबंधों तथा तदजनित संस्थाओं को प्रभावित करता है और इन्हें परस्पर जोड़ने में भी अपनी इतिहासिक भूमिका निभाता है। यह सर्वविदित है कि राष्ट्र-राज्यों के निर्माण में प्रिंट माध्यम अर्थात पत्रकारिता ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। विशेष रूप से १८वीं१९वीं और २०वीं शताब्दियों की युगांतकारी घटनाओं (अमरीकी क्रांति, फ्रांसीसी क्रांति, भारत का १८५७ का स्वतंत्रता संग्राम१९१७ की बोल्शेविक क्रांति, भारत का स्वतंत्रता आंदोलन, दक्षिण अफ्रीका मे गांधीजी का सत्याग्रह आदि) में साहित्य और पत्रकारिता के अवदान ने ही आधुनिक साहित्यिक पत्रकारिता का मार्ग प्रशस्त किया। यह एक वैश्विक परिघटना है कि भारत समेत विश्व के अन्य देशों (इंग्लैंड, फ्रांस, अमेरिका, रूस, चीन आदि) में साहित्यकार पत्रकारिता के कर्म से जुड़े रहे हैं। इस साहित्यिक पत्रकारिता ने लोकतांत्रिक व जनतांत्रिक जनआंदोलनों को सूक्ष्म व वृहद स्तरों पर एक आकार देने में भूमिका निभाई। इस संदर्भ में चार्ल्स डिकेंस, चार्ल्स लेम, मक्सिम गोर्की, लू-शुनभारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, माखनलाल चतुर्वेदी, निराला, बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे अनेक नाम हैं जिन्होंने साहित्य-सृजन के साथ-साथ पत्रकारीय उत्तरदायित्वों का भी वहन किया- साप्ताहिक, दैनिक, मासिक पत्र-पत्रिकाएँ निकाली, तात्कालिक मुद्दों पर सृजनात्मक शैली में अपने विचार रखे, पत्रकारिता को रचनात्मकता से समृद्ध किया। यह परंपरा आधुनिक काल में भी अनवरत रूप से जारी है। दक्षिणी अमेरिका के विश्वविख्यात उपन्यासकार मार्खेज मूलत: एक सक्रिय पत्रकार भी रहे हैं। इसी संदर्भ में भारत में भी अनेक ऐसी विभूतियाँ हैं जिनमें साहित्य और पत्रकारिता का संगम दिखाई देगा। हिंदी मे उत्तर औपनिवेशिक काल अर्थात स्वातंत्र्योत्तर भारत मे साहित्यिक पत्रकारों के प्रमुख हस्ताक्षरों में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, रामानंद दोषी, कमलेश्वर, मोहन राकेश, राजेंद्र यादवज्ञानरंजन, विद्यानिवास मिश्र, कमला प्रसाद, रवींद्र कालिया, उदय प्रकाश, कन्हैयालाल नंदन, गुलशेर अहमद शानी, असगर वजाहत, रमेश उपाध्याय, राजकिशोर, पंकज बिष्ट, विष्णु नागर, प्रभु जोशी, अरुण प्रकाश, रमणिका गुप्ता जैसे नामों को शामिल किया जा सकता है। इसी प्रकार ऐसे भी पत्रकार रहे हैं जिनकी अभिव्यक्ति, भाषा-शैली और प्रस्तुतीकरण ने पत्रकारिता की सीमाओं को लांघा, उसे साहित्यिक स्पृश्यता से समृद्ध किया और सृजनात्मक क्षेत्र में अपनी पैठ भी बनाई। इस संदर्भ में प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर, राहुल बारपुते, मायाराम सुरजन, गणेश मंत्री, ललित सुरजन, आलोक श्रीवास्तव, शरद दत्त, यशवंत व्यास, मधुसूदन आनंद, हरिवंश आदि के नामों का उल्लेख किया जा सकता है जिनकी पत्रकारिता में साहित्य की उपस्थिति की झलक कम या अधिक देखी जा सकती है। जवरीमल्ल पारखसेरा यात्रीविभूति नारायण रायदुर्गा प्रसाद गुप्त आदि साहित्यकार-पत्रकारों का योगदान भी कम नहीं है भले ही ये साहित्य सृजन और पत्रकारिता में नियमित रूप से सक्रिय न रहे हों। कमोवेश आज भी ये अपना योगदान साहित्य और पत्रकारिता दोनों विधाओं को समृद्ध करने के लिए प्रयासरत हैं।

पहले पत्रकारिता केवल पत्रकारिता कहलाती थी और प्राय: किसी भी उपसंपादक को कोई भी काम सौंप दिया जाता था। उपसंपादक सभी विषयों से संबंधित सामग्रियों का चयन-संपादन करता था। पहले भी लगभग सभी समाचार पत्रों में साहित्यिक पृष्ठ होते थे लेकिन साहित्यिक पत्रकारिता जैसे शब्दों का प्रचलन नहीं हुआ था। यहाँ तक कि पूर्णत: साहित्य के प्रति समर्पित पत्रिकाओं के संपादक भी साहित्यिक पत्रकार नहीं कहलाते थे।

चूंकि शुद्ध साहित्यिक पत्रिकाएँ गैर-व्यापारिक संसाधन आधारित होती हैं इसलिए यह प्राय: आर्थिक संकटों से जूझती भी रहती हैं। इस प्रक्रिया में साहित्यिक पत्रिकाओं की अकाल मृत्यु भी हो जाती है। लेकिन उल्लेखनीय यह है कि साहित्यिक पत्रकार की जिजीविषा चुकती नहीं है। साहित्यकार-संपादक अपनी पत्रिका को पुनर्जीवित करने के उपक्रम में जुट जाता है। विगत १५० वर्षों का अवलोकन करें तो कई साहित्यिक पत्रिकाएँ दीर्घजीवी सिद्ध हुईं जबकि अधिकतर आर्थिक अभावों के आक्रमणों के सामने परास्त भी हो गईं।

साहित्यिक पत्रकारिता के ज्यादातर मामलों में दीर्घजीवी न होने का एक और महत्त्वपूर्ण कारक यह भी है कि इसका कोई व्यवस्थित तंत्र नहीं होताइसमें बिखराव और अलगाव होता है। साहित्यिक पत्रकारिता की यही सबसे बड़ी विडंबना भी है और त्रासदी भी। प्रतिरोध के लक्ष्यों पर चलते हुए साहित्यिक पत्रकारिता अपना तंत्र नहीं बना सकतीवह अपना बाजार नहीं बना सकतीसाहित्यिक पत्रकारिता मत-भिन्नताओं का शिकार होती है और अपने समूह के ही बीच भयानक खाई का निर्माण भी करती रहती है।  

इसके बावजूद हिंदी में और अन्य भाषाओं में भी साहित्यिक पत्रकारिता की अत्यंत संपन्न परंपरा रही है। साहित्यिक हिंदी पत्रकारिता में प्रेमचंद की पत्रिका ‘हंस’ इसका सशक्त उदाहरण है। ‘चाँद’, ‘माधुरी’ ‘सरस्वती’, ‘इंदु’ आदि ऐसे अन्य ज्वलंत उदाहरण हैं। इन जैसी पत्रिकाओं से उस समय अनेक आने लेखक उभरेहिंदी साहित्य को एक दिशा मिली और अघोषित रूप से साहित्यिक हिंदी पत्रकारिता की नींव पड़ी। एक लंबी फेहिरस्त है रचनाकारों और रचनाओं काजो इस अघोषित साहित्यिक पत्रकारिता की देन है। इन तथा ऐसी ही पत्रिकाओं ने आधुनिक हिंदी साहित्य की भी पृष्ठभूमि तैयार की और पत्रकारिता यह सिलसिला निरंतर आगे बढ़ता गया। ‘विशाल भारत’ जैसे समाचार पत्रों ने भी इसमें योगदान किया जबकि आज यह दुखद ही प्रतीत होता है कि मौजूदा समाचार पत्रों खासकर राष्ट्रीय दैनिक पत्र कहलाने वाले अखबारों में साहित्य हाशिए पर चला गया है। ‘जनसत्ता” जैसे समाचार पत्र अपवाद स्वरुप हो सकते हैं जिनमें सप्ताह में एक दिन कुछ पन्ने साहित्य के प्रति तो कुछ साहित्यिक हलचलों और वाद-विवादों के प्रति समर्पित होते हैं। साहित्यिक पत्रकारिता केवल गल्प साहित्य तक ही नहीं सीमित थी बल्कि उसमें कविता ने भी अपनी जगह बनाई। १९४३ में अज्ञेय के संपादन में प्रयोगवादी कविताओं का पहला संग्रह ‘तारसप्तक’ सामने आया जिससे ‘नई कविता’ की नींव पड़ी।  तब तक ‘माधुरी’, ‘इंदु’,  ‘सरस्वती’ आदि का युग समाप्त हो चुका था और ‘प्रतीक’ जैसी नए भावबोध और नई रचनाशीलता की पत्रिकाएँ सामने आ चुकी थीं। जहां तक कथा-साहित्य का संबंध है , भैरव प्रसाद गुप्त के संपादन में स्वातंत्र्योत्तर काल में ‘कहानी’ और बाद में ‘नई कहानियां’ ने साहित्यिक पत्रकारिता की एक नई जमीन तैयार की जिसने भीष्म साहनीअमरकांतमार्कंडेयकमलेश्वरमोहन राकेशशेखर जोशीनिर्मल वर्माराजेंद्र यादवमन्नू भंडारीउषा प्रियंवदाकृष्णा सोबती आदि के रूप में कथाकारों की नई पीढ़ी को समाने लाने में अग्रणी भूमिका निभाई। हिंदी में साहित्यिक गहमागहमी का एक दौर ‘नई कहानी’ और ‘नई कविता’ के आंदोलन के साथ ही आरंभ हो चुका था। ‘धर्मयुग’ और ‘सारिका’ जैसी व्यावसायिक घरानों से निकलने वाली पत्रिकाओं की भूमिका भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही। यह वही दौर था जब ‘कल्पना’, ‘लहर’, ‘माध्यम’ ‘कृति’ आदि पत्रिकाएँ भी निकल रहीं थीं जो शुरू से अंत तक साहित्य और साहित्यिक मुद्दों के प्रति समर्पित थीं। इस दौर में हिंदी प्रदेशों से लगभग सभी बड़े शहरों से काफी पत्रिकाएँ निकालनी शुरू हुईं। इन्हीं पत्रिकाओं के दौर में लघु बनाम व्यावसायिक पत्रिकाओं की लड़ाईयां लड़ी गईं। व्यावसायिक पत्रिका के रूप में निशाने पर था ‘धर्मयुग’, और दिलचस्प यह है कि ‘धर्मयुग’ ने भी तब छोटी पत्रिकाओं पर हमला बोलते हुए लगातार तीन लेखों की श्रृंखला प्रकाशित की थी। दरअसल साहित्यिक पत्रकारिता की सुगबुगाहट तभी ज्यादा तेज हुई क्योंकि इन तथा ऐसी अन्य छोटी पत्रिकाओं के संपादक प्राय: यह मानते थे कि साहित्य के लिए जो कुछ भी किया जा रहा है उनकी पत्रिकाओं द्वारा ही किया जा रहा है और व्यावसायिक पत्रिकाएँ साहित्य की दुनिया में कोई सार्थक योगदान नहीं कर रही हैं।

सच तो यह है कि साहित्यिक पत्रकारिता छोटे-बड़े प्रयासों पर नहीं बल्कि संपादकों और उनके सहयोगियों की दृष्टि पर निर्भर करती है। जब ‘चाँद’, ‘माधुरी’, ‘सरस्वती’, ‘इंदु’, ‘हंस’ आदि पत्रिकाएँ थी तब अन्य पत्रिकाएँ भी हुआ करती थीं लेकिन ये पत्रिकाएँ यदि साहित्यिक पत्रकारिता की मिसाल बन गई तो इसका कारण संपादकों के पास सही समझ और साहित्यिक दृष्टि थी जिसके चलते उन्होंने खोज-खोजकर पाठकों को श्रेष्ठ रचनाएँ पढ़ने के लिए दीं। यही काम ‘कहानी’ और ‘नई कहानियां’ ने किया। इन दोनों पत्रिकाओं को साहित्यिक पत्रकारिता की श्रेणी से महज इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता कि एक के पीछे श्रीपतराय की पूंजी थी और दूसरी राजकमल प्रकाशन से निकली थी। इसी भांति ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’ और ‘ज्ञानोदय’ को भी इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता कि वे व्यापारिक घराने की पत्रिकाएँ रही हैंआखिर अनेक लेखकों को इन्हीं पत्रिकाओं से ख्याति मिली।  सच यह है कि धर्मवीर भारती के संपादन काल में ‘धर्मयुग’ में किसी नए लेखक की रचना छापने का मतलब होता था कि उस लेखक को साहित्यकार के रूप में मान्यता मिल गई है। इसी भांति ‘कल्पना’ में छपने से साहित्य की दुनिया में लेखक को गंभीरता से लिया जाने लगता था जबकि यह संपन्न व्यक्ति द्वारा निकाली जाती थी। दूसरी ओर ‘लहर’ और बाद में ‘पहल’ आदि भी साहित्यिक पत्रकारिता का उदाहरण बनीं जबकि ये पत्रिकाएँ नितांत व्यक्तिगत प्रयासों से निकल रहीं थीं। आदिवासी और महिलाओं पर केंद्रित विमर्श और विशेष रूप से दलित साहित्य को सुचिंतित तरीके से सामने लाने का साहसिक प्रयास रमणिका गुप्ता ने अपनी पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी के जरिए जारी रखा है। इसी प्रकार ‘माध्यम’ और सरकारी विभागों और राजकीय प्रतिष्ठानों से निकलने वाली पत्रिकाओं ‘आजकल’, ‘समकालीन भारतीय साहित्य’, ‘पूर्वग्रह’ आदि का भी समय-समय पर व्यापक योगदान रहा है। हालांकि संपादकों के बदलने के साथ इनके स्तर का उठना-गिरना जारी रहा जो कि व्यावसायिक घरानों से निकलने वाली पत्रिकाओं पर भी लागू होती है। धर्मवीर भारती से पहले और बाद में ‘धर्मयुग’ का राकेश और कमलेश्वर से पहले और बाद में ‘सारिका’ का और मनोहर श्याम जोशी तथा मृणाल पांडे से पहले और बाद में ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ का क्या स्तर था और कैसी प्रतिष्ठा थीयह बात भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में दर्ज हो चुकी है।

इसी प्रकार ‘दिनमान’, ‘पाखी’, लखनऊ से ‘लमही’, मध्य प्रदेश से ‘प्रेरणा’, ‘उत्तरशती’, ‘आलोचना’, ‘नया पथ’, ‘नया विकल्प’, ‘अंततः’, ‘वर्तमान साहित्य’ , ‘वसुधा’, ‘कृति’, ‘पहल’, ‘सापेक्ष’, ‘आकंठ’, ‘कंक’, ‘साम्य’, ‘वाक्’, ‘यात्रा’, ‘तनाव’ सहित अनेक पत्र-पत्रिकाएँ मासिक द्वैमासिकत्रैमासिक हैं जो साहित्य कर्म के प्रति गंभीर रही हैं। हालांकि इनमें से कइयों का प्रकाशन अब बंद हो चुका है और कुछ नियमित-अनियमित रूप से निकल भी रही हैं।

लखनऊ से ही ‘तद्भव’ निकलती है जिसमें प्रकाशित रचनाएँ प्राय: चर्चा के केंद्र में रहती हैं। प्रकाशन के पच्चीस से ज्यादा साल पूरे कर चुकी ‘हंस’ संभवतः आज की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और विवादास्पद पत्रिका है। ‘हंस’ का महत्त्व इस कारण भी है कि उसने लघु पत्रिका और व्यावसायिक पत्रिकाओं के बीच संतुलन कायम किया है। ‘कथादेश’ भी महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका है जिसमें साहित्य के दृष्टिकोण से अच्छी सामग्री प्रकाशित होती है और कलेवर भी बेहतर है लेकिन उसमें संपादकीय स्तंभ का अभाव है। इस मायने में पंकज बिष्ट की ‘समयांतर’ पत्रिका सर्वोत्तम उदाहरण हैजहां हमें स्पष्ट और खरे-खरे संपादकीय देखने को मिलते हैं और उसी भांति विभिन्न विषयों पर दो-टूक और विचारोत्तेजक लेख भी। यद्यपि परंपरागत अर्थों में ‘समयांतर’ मूलतः साहित्यिक पत्रिका नहीं कही जा सकती लेकिन ‘समयांतर’ को साहित्यिक पत्रकारिता की परिधि में इस दृष्टि से रखना जरूरी है कि इसमें सामाजिकराजनीतिसांस्कृतिक और आर्थिक आदि विषयों पर गंभीर सामग्री दी जाती है। पुस्तकों के बारे में विस्तृत समीक्षात्मक लेख प्रकाशित करने वाली यह अब तक की पहली पत्रिका कही जा सकती है।

निष्कर्ष साहित्यिक हिंदी पत्रकारिता का इतिहास न केवल समृद्ध है बल्कि समय के सापेक्ष उपजने वाले विमर्शों में यह अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. टेक्नोलोजी के अत्यधिक विकास और प्रयोग के बावजूद मुद्रित माध्यमों की महत्ता तनिक भी कम नहीं हुई है बल्कि यह मुद्रित होने के साथ-साथ इंटरनेट से जुड़े माध्यमों में प्रवेश कर चुकी है और साहित्यिक हिंदी पत्रकारिता को ग्लोबल प्रसिद्धि और प्रसार मिल रहा है. प्रत्येक सामाजिक विमर्श में साहित्यिक हिंदी पत्रिकाओं की भूमिका और महत्त्व सदैव रहेगी।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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