ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- VIII November  - 2022
Anthology The Research
गाँधी : सत्याग्रह का स्वरूप और विश्वशांति
Gandhi: Nature of Satyagraha and World Peace
Paper Id :  16756   Submission Date :  18/11/2022   Acceptance Date :  22/11/2022   Publication Date :  25/11/2022
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सुनिता मौर्य
शोध छात्रा
राजनीति विज्ञान विभाग
महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय
बीकानेर ,राजस्थान, भारत
सारांश सत्याग्रह एक सौम्य वस्तु है, वह कभी चोट नहीं पहुंचाता, उसके पीछे क्रोध या द्वेष नहीं होना चाहिए। उसमें शोरगुल, प्रदर्शन या उतावली नहीं होती, वह जबरदस्त उल्टी चीज है। उसकी कल्पना हिंसा से उल्टी परन्तु हिंसा का स्थान पूरी तरह भर सकने वाली चीज के रूप में की गई है। सत्याग्रह में हिंसा लूट मार, आगजनी आदि के लिए कोई स्थान नहीं है। सत्याग्रह का मतलब है सत्य के लिए आग्रह जिसे दूसरे शब्दों में सत्य की रक्षा के लिए अहिंसक संघर्ष भी कहा जा सकता है। स्वयं गांधी जी के ही शब्दों में सत्याग्रह का अर्थ- सत्य में लगे रहना या आत्मिक शक्ति को धरातल पर ले जाना है और इसके द्वारा विरोधी को गलत रास्ते से ठीक रास्ते पर लाना है। गांधी जी के मत से सत्य ही आत्मा है। सत्य का आग्रह रखकर अपनी भूमिका को नहीं छोड़ना, सब तरह के कष्ट झेलने के लिए तैयार रहना और यज्ञ में अपने प्राण तक अर्पण करना इसी को गांधी जी ने लड़ाई का शस्त्र बनाया। इस तरह जो मरने को तैयार है वह है सत्याग्रही।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Satyagraha is a gentle thing, it never hurts, there should be no anger or malice behind it. There is no noise, show, or haste in it, that is a tremendous reverse. It is conceived as something opposite to violence but which can completely fill the place of violence. There is no place for violence, looting, arson etc. in Satyagraha. Satyagraha means insistence on truth which in other words can also be called non-violent struggle to protect truth. In the words of Gandhi ji himself, the meaning of Satyagraha is to stick to the truth or to take the spiritual power to the ground and by this to bring the opponent from the wrong path to the right path. According to Gandhiji, truth is the soul. Not giving up one's role by insisting on truth, being ready to face all kinds of hardships and surrendering even one's life in ignorance, Gandhiji made this a weapon of war. One who is ready to die like this is a Satyagrahi.
मुख्य शब्द सत्याग्रह, सौम्य वस्तुए, स्पर्श, प्रेम।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Satyagraha, Gentle Things, Touch, Love.
प्रस्तावना
महात्मा गाँधी ने सत्याग्रह को व्यक्तिगत और पारिवारिक सीमा से निकालकर सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में उसका प्रयोग किया है। सत्याग्रह की उत्पत्ति एवं विकास के मूल में उनकी धारणा थी कि सत्याग्रह सत्य की शक्ति पर आधारित है और सत्य का स्पर्श प्रेम के द्वारा होता है। इसकी कला सरल है किन्तु इसकी सरलता एक विशेष चित्तकारी को उत्पन्न करती है और उसमें एक आश्चर्य का भाव रहता है। यह नैतिक विकास की एक प्रक्रिया है। यह अत्यन्त संकटकालीन स्थिति में नैतिक शक्ति का उन शक्तियों के विरूद्ध प्रयोग है, जो सामान्य मानवीय प्रवृति को आतंकित करती है।
अध्ययन का उद्देश्य गाँधीजी ने अन्याय के प्रतिरोध के रूप में सत्याग्रह का सफल प्रयोग किया है, गाँधीजी ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्वशांति स्थापित करने के लिए युद्ध के विकल्प के रूप में सत्याग्रह को उपयुक्त व प्रभावी साधन माना। उन्होंने विश्वशांति के लिए शांति सेना की बात कही, प्रस्तुत शोध में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी उपादेयता का भी अध्ययन किया गया है, वर्तमान युग में जहां व्यक्ति का नैतिक पतन हो रहा है सत्याग्रह की उपयोगिता और अधिक महसूस होती है क्योंकि सत्याग्रह और इसकी प्रविधियां नैतिक गुणों में विकास पर जोर देती हैं। इसलिए आज के युग में सत्याग्रह विश्वशांति में कितना उपयोगी है प्रस्तुत शोध में इन्हीं विकल्पों के केन्द्र बिन्दु मानकर अध्ययन का प्रयास किया है।
साहित्यावलोकन
गाँधी जी ने अपने अखबारों ’इण्डियन ओपिनियन‘, ’नवजीवन‘, ’यंग इण्डिया‘ और ’हरिजन‘ में सत्याग्रह का स्वरूप समझाया है।
गाँधी दर्शन के सुप्रसिद्ध व्याख्याता-डॉ. गोपीनाथ धावन के अनुसार सत्याग्रह स्वरूप इस प्रकार है:-
1.    सत्याग्रह एक नैतिक शस्त्र है और उसका आधार है शारीरिक शक्ति की अपेक्षा आत्मिक शक्ति की श्रेष्ठता।
2.    सत्याग्रह का प्रयोग वही कर सकता है जिसमें बिना मारे मरने का साहस है।
3.    सत्याग्रह का उद्देश्य हे प्रेम और धैर्य पूर्वक कष्ट सहन द्वारा विरोधी का हृदय परिवर्तन करना।
4.    सत्याग्रह में घृणा, दुर्भावना इत्यादि के लिए कोई स्थान नहीं होता।
5.    सत्याग्रह गत्यात्मक है।
6.    सत्याग्रह विधेयात्मक रूप से कार्य करता है, प्रेम के कारण प्रसन्नता से कष्ट सहन को फलप्रद बनाता है।
7.    सत्याग्रह में उद्देश्य सिद्धि और आन्तरिक सुधार में घनिष्ठ सम्बन्ध है।
8.    सत्याग्रह का प्रयोग सार्वभौमिक है। सत्याग्रह अपने मित्रों अपने परिवार और यहां तक कि अपने स्वयं के विरूद्ध भी किया जा सकता है।
9.    सत्याग्रह सदा आंतरिक शक्ति पर जोर देता है और उसका विनाश आता हैं।
10.    सत्याग्रह अत्याचार और अन्याय के विरूद्ध अधिक फलप्रद और निश्चित विरोध है।
मुख्य पाठ
गाँधी जी ने सत्याग्रह को विभिन्न रूपों में पेश किया है जिन स्वरूपों में उन्होंने अपने जीवन में और दुनिया के समक्ष रखा है वे निम्न है:-
सत्याग्रह एवं हिंसक प्रतिरोध
हिंसक संघर्ष और गाँधी के सत्याग्रह आंदोलन में अंतर समझना आवश्यक है। सत्याग्रह और हिंसक संघर्ष या युद्ध दोनों ही प्रतिरोध की पद्धतियाँ हैं। प्रश्न उठता है कि जब दोनों ही प्रतिरोध की पद्धतियाँ हें तो उनमें अन्तर क्या है? जहाँ हिंसक संघर्ष का उद्देश्य विरोधी को अधिकाधिक क्षति पहुँचाना अथवा उसे पूर्णतः नष्ट भ्रष्ट करना होता है। वहाँ सत्याग्रह का उद्देश्य विरोधी द्वारा किये जाने वाले अन्याय तथा अत्याचार का अन्त करना ही होता है, स्वयं उसे किसी भी प्रकार का कष्ट पहुँचाना नहीं। हिंसक संघर्ष करने वाले व्यक्ति के मन में विरोधी के प्रति क्रोध, घृणा, प्रतिशोध आदि दुर्भावनाएं होती हैं, किन्तु सत्याग्रही के मन में विरोधी के प्रति स्नेह और सौहार्द्रपूर्ण भावना निहित होती है। वह विरोधी के दुष्कर्म से घृणा करता है, विरोधी से नहीं। हिसंक संघर्ष करने वाला व्यक्ति अपने विरोधी को कष्ट पहुँचाता है जबकि सत्याग्रही स्वयं अधिकाधिक कष्ट सहन करके विरोधी के हृदय को परिवर्तन करके अपना लक्ष्य प्राप्त करता है। हिंसक संघर्ष में व्यक्ति अपनी विजय तथा दूसरे पक्ष की पराजय की कामना करता है लेकिन सत्याग्रही के अन्तःकरण में इस प्रंकार के भाव नहीं होते बल्कि वे केवल सत्य और न्याय की विजय चाहते हैं, अपनी विजय और विरोधी की पराजय नहीं। उपर्युक्त सभी अन्तर के अतिरिक्त जो एक महत्वपूर्ण भेद है वह यह है कि हिंसक संघर्ष के अन्त हो जाने के बावजूद दोनों पक्षों में शत्रुता बनी रह सकती है परन्तु सत्याग्रह की समाप्ति के उपरान्त सत्याग्रही अपने सद्व्यवहार द्वारा विरोधी को अपना मित्र बना लेता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सत्याग्रह, युद्ध अथवा हिंसक संघर्ष से मूलतः भिन्न है।
सत्याग्रह एवं निष्क्रिय प्रतिरोध
सत्याग्रह के अर्थ को भली भाँति समझने के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि सत्याग्रह और निष्क्रिय प्रतिरोध में क्या अन्तर है। सर्वप्रथम 1906 में गाँधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में गोरे शासकों द्वारा भारतीयों के प्रति किये जाने वाले अन्याय तथा अत्याचार के विरूद्ध अपना अहिंसात्मक आंदोलन आरम्भ किया था। उस समय वे इसे निष्क्रिय प्रतिरोध ही कहा करते थे। किन्तु बाद में उन्होंने यह अनुभव किया कि उनका यह नामकरण उचित नहीं है, क्योंकि पाश्चात्य देशों में निष्क्रिय प्रतिरोध को केवल असहाय और दुर्बल व्यक्तियों का हथियार माना जाता था जिसका वे अपने कष्ट निवारण के लिए शक्तिशाली व्यक्तियों के विरूद्ध प्रयोग करते थे। निष्क्रिय प्रतिरोध का प्रयोग करने वाले व्यक्ति अहिंसा को नैतिक दृष्टि से उत्कृष्ट मानकर विवशता एवं दुर्बलता से जन्य मानते थे। इस प्रकार के प्रतिरोध का प्रयोग करने वाले व्यक्ति उपयुक्त परिस्थितियों में अन्याय व अत्याचार के निराकरण के लिए हिंसात्मक साधनों का प्रयोग करने में कोई संकोच नहीं करते थे। इस प्रकार निष्क्रिय प्रतिरोध का प्रयोग करने वाले व्यक्ति सत्य और अहिंसा को नैतिक सिद्धान्त मानकर अपनी सफलता के लिए व्यावहारिक साधन मात्र मानते थे, जिनका सुविधानुसार परित्याग किया जा सकता है। गाँधीजी के अहिंसात्मक प्रतिरोध की मान्यता इससे भिन्न है। इस कारण गाँधीजी अपने इस आंदोलन का निष्क्रिय प्रतिरोध के स्थान पर अन्य नाम ढूंढने का प्रयास करने लगे। तभी श्री मगन लाल गाँधी ने सुझाव दिया कि इस आंदोलन को ’सदाग्रह‘ की संज्ञा दी। इस प्रकार इस निष्क्रिय प्रतिरोध से पृथक किया।[3] गाँधीजी ने अनुभव किया कि निष्क्रिय प्रतिरोध में मूल शक्ति का आभास नहीं होता। उसकी व्याख्या कमजोर व्यक्तियों द्वारा अपनाये जाने वाले अस्त्र के रूप में की जा सकने की आशंका थी। अतः उन्होंने सत्याग्रह और निष्क्रिय प्रतिरोध को पर्यायवाची नहीं माना।
गाँधीजी के शब्दों में ’’मैंने निष्क्रिय प्रतिरोध और सत्याग्रह के मध्य स्पष्ट भेद किया है। जब मैंने सत्याग्रह के सिद्धान्त की पूर्ण तार्किक आघ्यात्मिक मीमांसा नहीं की थी, तब मैं इन शब्दों को पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयुक्त कर देता था। निष्क्रिय प्रतिरोध कमजोरों का अस्त्र समझा जाता है, साथ ही निष्क्रिय प्रतिरोध में अहिंसा के प्रति नैतिक निष्ठा तथा सत्य के मध्य अक्षुण्ण समर्पण के भाव अनिवार्य रूप से विद्यमान नहीं होते। इस प्रकार सत्याग्रह निष्क्रिय प्रतिरोध से अनिवार्यतः संदर्भों में भिन्न है। सत्याग्रह कमजोरों का नहीं, अपितु शक्तिशाली लोगों का अस्त्र है। यह किसी भी परिस्थिति में हिंसा के औचित्य को स्वीकार नहीं करता तथा यह प्रत्येक परिस्थिति में सत्य के प्रति अडिग आग्रह को अनिवार्य मानता है।‘‘[4]
इस प्रकार सत्याग्रह कायर तथा दुर्बल व्यक्ति का हथियार नहीं है। सच्चा सत्याग्रही वही हो सकता है जिसमें नैतिक तथा आध्यात्मिक बल के आधार पर स्वेच्छापूर्वक अधिकतम कष्ट सहन करने की क्षमता हो। ऐसे सत्याग्रही के जीवन में किसी प्रकार की दुर्बलता अथवा कायरता के लिए कोई स्थान नहीं है। सत्य पर वही व्यक्ति अडिग रह सकता है जिसमें नैतिक साहस तथा बल हो। ऐसा सत्याग्रही निश्चित ही दुर्बल एवं कायर नहीं हो सकता। गाँधीजी कायरता की अपेक्षा हिंसा को अधिक श्रेयस्कर मानते थे। क्योंकि उनके विचार में ’’हिंसा करने वाले व्यक्ति से यह आशा की जा सकती है कि वह कभी अहिंसा के अनुसार आचरण करना सीख जायेगा, परन्तु कायर व्यक्ति से ऐसी आशा नहीं की जा सकती।‘‘[5] दुर्बल एवं कायर व्यक्ति के विपरीत, सत्याग्रही पूर्णतयः निर्भय होता है। सत्य पर अटल रहते हुये वह सदा यही कहता है कि ’’मैं संसार में किसी से नहीं डरूँगा। मैं सत्य द्वारा असत्य को पराजित करूँगा, घृणा को प्रेम द्वारा तथा अन्याय को न्याय द्वारा पराजित करके मैं सभी व्यक्तियों के प्रति सदैव सद्भाव रखूंगा, और स्वयं सहर्ष अधिकतम कष्ट सहन करूंगा।‘‘[6] सत्याग्रह की यह प्रतिज्ञा किसी कायर की नहीं, अपितु नैतिक दृष्टि से साहसी तथा वीर की प्रतिज्ञा है। इस प्रकार पूर्णतः निर्भय होकर सदैव सत्य पर अडिग रहना और केवल अहिंसात्मक उपायों द्वारा सभी प्रकार के अन्याय, अत्याचार तथा शोषण का दृढ़तापूर्वक प्रतिरोध करना सत्याग्रह की अनिवार्य शर्त है।
किसी भी परिस्थिति में सत्याग्रह में असत्य, हिंसा, अन्याय, कष्ट देना, धोखा, अप्रमाणिकता, कपट, आक्रमण अथवा शोषण के लिए कोई स्थान नहीं होता। अतः सत्याग्रही को इस बात का विष्वास कर लेना चाहिए कि किसी प्रश्न के उठ खड़े होने पर उपर्युक्त कोई भी बात करणीभूत न बनें।
सत्याग्रह और अनुशासन 
गाँधीजी के अनुसार सत्याग्रही को पूर्ण रूप से अनुशासित होना चाहिए। सत्याग्रही को स्वार्थी, किसी के भड़काने या भावनाओं से प्रभावित होकर उद्वेलित नहीं होना चाहिए। गाँधीजी के अनुसार इसका प्रयोग गंभीरतापूर्वक सोच-विचार करके ही करना चाहिए। बिना उचित संकल्प के या बिना निष्ठा के सत्याग्रह का पालन नहीं हो सकता। इसके पालन के लिए कठोर नैतिक नियम एवं अनुषासन और आत्म नियंत्रण की आवश्यकता होती है। सत्याग्रह केवल उन लोगों के द्वारा किया जाता है जो शुद्ध मानसिक स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं, और जिनके मन में सत्य की सर्वोच्चता और उसकी अमोघ शक्ति के प्रति अडिग आस्था होती है।
सत्याग्रही के लिए आवश्यक है कि वह पूर्ण ईमानदार एवं निष्ठावान हो। अपने लक्ष्यों तथा उद्देश्यों के प्रति दृढ़ता से समर्पित हो तथा अपने संकल्प के प्रति उसमें निष्ठा हो। गाँधीजी का कहना है कि सत्याग्रही के लिए खुले मन का होना अनिवार्य है। यदि अपने मन में कुछ छिपा कर वह इस मार्ग पर अग्रसर होता है, तो उसका सत्याग्रह निर्दोश सत्याग्रह नहीं हो सकता। उनका विश्वास है कि सत्याग्रह के द्वारा विरोधी का हृदय परिवर्तन तभी कराया जा सकता है, जब उसे पूर्णतः खुले हृदय से प्रभावित किया जाए। इस सन्दर्भ में गाँधीजी कहते हैं कि ’’यदि विपक्षी सत्याग्रही को कई बार धोखा भी दे तो भी सत्याग्रही को विरोधी के प्रति मन में किसी भी प्रकार की द्वेष भावना उत्पन्न नहीं करनी चाहिए। क्योंकि मानव प्रकृति में अटूट आस्था रखना सत्याग्रह का नैतिक तत्व है।‘‘[7]
गाँधीजी के अनुसार सत्याग्रही एक पूर्णतः अनुशासित सैनिक है। उसका स्वामी सत्य है तथा पथ प्रदर्शक उसकी अन्तर आत्मा है। उसका व्यवहार इन्हीं से प्रेरित है। अतः उसे प्रेमपूर्ण किन्तु अडिग होना आवश्यक है किसी सांसारिक शक्ति से उसे भयभीत नहीं होना चाहिए। उसे मृत्यु से भी नहीं डरना चाहिए।
निर्भयता के गुण के फलस्वरूप आत्म-बलिदान की भावना तथा आत्मीयता की शक्ति का सहज रूप से विकास हो जाता है। सत्याग्रही बड़े से बड़े बलिदान के लिए सदा तत्पर रहता है। वह निःस्वार्थ हो जाता है और किसी प्रकार का बलिदान उसके लिए कठिन नहंी रह जाता है। उसे सत्य तथा अन्य शुभ के लिए सभी प्रकार के कष्ट झेलने हेतु दृढ़ संकल्प होना आवश्यक है।
संकल्प के या बिना निष्ठा के सत्याग्रह का पालन नहीं हो सकता। इसके पालन के लिए कठोर नैतिक नियम एवं अनुशासन और आत्म नियंत्रण की आवश्यकता होती है। सत्याग्रह केवल उन लोगों के द्वारा किया जाता है जो शुद्ध मानसिक स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं, और जिनके मन में सत्य की सर्वोच्चता और उसकी अमोघ शक्ति के प्रति अडिग आस्था होती है।
सत्याग्रही का विनम्रभाव होना चाहिए, विनम्रता का अर्थ है- स्वयं को परमात्मा की विराट सत्ता का अंश मात्र समझना और अहंकार से पूरी तरह मुक्त हो जाना। गाँधी जी ने विनम्रमा को ’’मैं‘‘ के भाव से पूरी तरह मुक्त होने तथा साहस और सामर्थ्य को समझने की प्रवृत्ति के रूप में परिभाषित किया है। उनका मत है कि विनम्र व्यक्ति छिद्रान्वेशी होने की अपेक्षा अपनी अपूर्णताओं को दूर करने के लिए समर्पित होगा। गाँधीजी के अनुसार- ’’हम अपने सूक्ष्म दोषों को पर्वताकार बना लें और दूसरों के पर्वताकार दोषों को सूक्ष्म समझे तभी मानवीय एकता के आदर्श की स्थापना हो सकती है।‘‘[8]
गाँधीजी कहते हैं कि सत्याग्रही को अपने विश्वास तथा आचरण के प्रति अडिग रूप से समर्पित रहना अनिवार्य है। उसे किसी प्रकार के बहकावे, लालच तथा प्रलोभन के वशीभूत नहीं होना चाहिए। उसके लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक प्रकार के दबाव, उत्पीड़न आदि में भी अडिग रहे। इसके लिए सत्याग्रही में सबल चारित्रिक शक्ति का होना आवश्यक है।
सत्याग्रही के लिए यह भी आवश्यक है कि उसके विचार तथा कर्मों में समरूपता एवं सामंजस्य हो। गाँधी जी के अनुसार इस सामंजस्य के अभाव में विभिन्न प्रकार की अशुभ प्रवृत्तियों के उत्पन्न होने की सम्भावना बढ़ती है। इस सामंजस्य का अभाव इस बात का भी सूचक है कि व्यक्ति का आन्तरिक पक्ष तथा व्यक्तित्व संगठित नहीं है। यदि सत्याग्रही का व्यक्तित्व असंगठित हो तथा विचार एवं कर्म में समरूपता न हो तो ऐसे सत्याग्रही से उस लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती और न ही कोई प्रभाव उत्पन्न हो सकता है।
गाँधीजी ने सत्याग्रही के लिए अपनी स्वार्थमूलक प्रवृत्तियों पर रोक लगाने की भी अनुशंसा की है। इसके लिए वे कुछ व्यावहारिक सुझाव भी देते हैं। इसी संदर्भ में उन्होंने उपवास विधि का प्रयोग किया था। गाँधीजी का कहना है कि सत्याग्रही होने के लिए सत्याग्रही में सहिष्णुता का गुण होना आवश्यक है। यदि सत्याग्रही में सहिष्णुता एवं सहनशीलता के गुण न हो तो वह हर क्षण आवेश में रहेगा, क्रोधित रहेगा और ऐसी स्थिति में उसका सत्याग्रह दूषित हो जायेगा। उनका कहना है कि यदि सत्याग्रही सहिष्णु नहीं रहे तो उसमें आत्मनियंत्रण की कमी रहेगी।
गाँधीजी का कहना है कि सत्याग्रही के लिए यह भी आवश्यक है कि वह जीवन के सामान्य नियमों का पालन करता रहे, जैसे- समय की पाबन्दी, व्यवस्था के अनुरूप सद्गुणयुक्त आचरण आदि। इनसे आत्म नियंत्रण की शक्ति बढ़ती है तथा जीवन व्यवस्थित होता है। गाँधीजी के अनुसार सत्याग्रही के लिए अनिवार्य है ईश्वर में अटूट विश्वास एवं आस्था। वस्तुतः सत्याग्रह का सम्पूर्ण विचार इस विश्वास पर आधृत है कि ईश्वर एक है जिसका ईश्वरीय रूप प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान है। यदि ईश्वर में आस्था न हो तो ऐसा व्यक्ति सच्चे अर्थों में सत्याग्रही नहीं हो सकता। ईश्वरत्व में आस्था रहने पर ही सत्य का आग्रह सफल एवं सार्थक हो सकता है।
सत्याग्रही को कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपने रास्ते से विचलित नहीं होना चाहिए चूँकि सत्याग्रह अहिंसक भले ही हो लेकिन है तो वह संघर्ष ही। इसीलिए इस संघर्ष का नियंत्रण अन्त तक अपने ही हाथ में रखने की सम्पूर्ण सावधानियां बरतनी चाहिए। गाँधीजी के विचार में एक सत्याग्रही को अपने कर्त्तव्यों के प्रति पूर्ण जागरूक एवं सुनिश्चित होना चाहिए। सत्याग्रह करने वालों के मन में किसी भी प्रकार की कुटिल भावना की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। उसे सभी प्रकार के छल-कपट को त्याग कर अपने आचरण में अर्थात् कथनी और करनी में एकता एवं संगतता रखनी चाहिए। एक सत्याग्रही का कर्त्तव्य अपने विरोधी को उसकी गलती का अहसास कराकर उसे अपना आचरण-सुधारने के लिए प्रेरित करना होता है। सत्याग्रही अपने आचरण द्वारा विरोधी के अन्तःकरण में छिपे श्रेष्ठ भावों को जागृत करने की दिशा में प्रयत्नशील होता है।
सत्याग्रह और नैतिकता
सत्याग्रह एक नैतिक पद्धति है। इसे समझने हेतु गाँधीजी के नैतिक विचारों के अर्थ को समझना आवश्यक है। नैतिकता पर गाँधीजी ने गम्भीरतापूर्वक विचार किया। गाँधीजी के नैतिकता सम्बन्धी विचार सत्याग्रह के मूल में निहित है। चूंकि सत्याग्रह पद्धति जिस प्रक्रिया पर कार्य करती है वह प्रक्रिया नैतिक है, नैतिक आचार के बिना सत्याग्रही अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता है। सामान्यतः नैतिकता की अवधारणा द्वारा व्यक्ति को कर्तव्य-अकर्तव्य तथा उचित-अनुचित का बोध होता है। मनुष्य का नैतिक उत्तरदायित्व जिसके कारण हम नैतिक दृष्टि से उसकी प्रशंसा अथवा निन्दा करते हैं, अन्ततः इसी नैतिक संकल्प स्वातन्त्र्य पर आधारित है। गाँधीजी के अनुसार सच्ची नैतिकता मनुष्य की आन्तरिक प्रेरणा तथा स्वतंत्र इच्छा से ही उत्पन्न होती है। ऐसी नैतिकता प्रचलित परम्पराओं रीति-रिवाजों तथा किसी प्रकार के भय पर आधारित न होकर मनुष्य के स्वतंत्र निर्बाध अन्तःकरण पर ही आधृत होती है। जब मनुष्य प्रलोभन और भय दोनों से मुक्त होकर केवल अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए कोई कर्म करता है तभी उसके कर्म को नैतिक माना जा सकता है। इसीलिए गाँधी ने कहा कि सच्ची नैतिकता परम्परागत मार्ग का अनुसरण करने में नहीं अपितु स्वयं अपने लिए सत्य का मार्ग खोजने और निर्भय होकर उसकी ओर अग्रसर होने में है। जो कर्म अपनी स्वतंत्र इच्छा से नहीं किया गया उसे नैतिक नहीं कहा जा सकता। नैतिक कर्म तो आत्मा की आवाज है, जिसमें स्वार्थ, प्रलोभन या किसी प्रकार के दबाव के लिए कोई स्थान नहीं है। गाँधीजी द्वारा की गयी नैतिकता की यह व्याख्या दार्शनिक दृष्टि से निश्चित ही उचित और संतोषजनक है। उनका महान ’कर्म‘ सत्याग्रह इसी सत्ययुक्त नैतिकता पर आधारित है।
जिस प्रकार नैतिकता का उद्देश्य व्यक्ति और समाज दोनों के हित में समुचित सामंजस्य उत्पन्न करके दोनों के कल्याण के लिए मार्ग प्रथस्त करना है, उसी प्रकार सत्याग्रह, सत्याग्रही और विरोधी में सौहार्द्रपूर्ण सामंजस्य स्थापित करने का अथक प्रयास ही है। ये सिद्धान्त समाज में समुचित सामंजस्य उत्पन्न करके दोनों के कल्याण के लिए मार्ग प्रथस्त करते हैं। इनका कार्य मनुष्य में व्याप्त स्वार्थमूलक इच्छाओं तथा प्रवृत्तियों को नियंत्रित करके सभी व्यक्तियेां में पारस्परिक सौहाद्रपूर्ण वातावरण स्थापित करना है। व्यक्ति अपनी निकृष्ट इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने की आन्तरिक भावना और आत्मीय शक्ति के कारण ही पशु से भिन्न है। इसी में उसके जीवन की सार्थकता एवं महत्ता है जो उसकी नैतिकता ही उसे प्रदान करती है। यही कारण है कि गाँधीजी ने नैतिकता को मनुष्य के जीवन तथा उसकी व्यक्तिगत और सामाजिक प्रगति का मूल आधार माना है। गाँधीजी यह मानते थे कि मनुष्य ने अब तक जो उन्नति की है उसका कारण उसकी नैतिकता ही है। यह नैतिकता ही स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों पर नियंत्रण कर दूसरों में निःस्वार्थ सेवा की भावना उत्पन्न करती है और यह निःस्वार्थ सेवा ही मनुष्यों में परस्पर सहयोग एवं सौहार्द्र स्थापित करके समाज के अस्तित्व को बनाये रखती है। इस प्रकार समाज में व्याप्त अनैतिकता, भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता, प्रलोभन आदि को नैतिक तत्व से युक्त सत्याग्रह के माध्यम से समाप्त किया जा सकता है।
सत्याग्रह व अहिंसक प्रतिकार
’मंगल प्रभात‘ के 1 मई 1963 के अंक में अहिंसक प्रतिकार के बारे में लेख लिखा है, जिसे शीतलतम् ब्रह्मास्त्र कहा है, जिसका प्रयोग गाँधी जी ने नोआरवाली में करके दिखाया है।
’’दक्षिण अफ्रीका में गाँधीजी ने सत्याग्रह का प्रयोग किया जो नोआरवाली वाले शीतलतम ब्रह्मास्त्र के जैसा ही था। गाँधीजी के शब्दों में ’’मैंने अहिंसक प्रतिकार वेदतो व्याघात‘ कहा है और विनोबाजी अहिंसक प्रतिकार की जगह ’अहिंसक साध्यय-दान‘ का शब्द पसन्द करते हैं।
अहिंसक प्रतिकार को आपने कहा है, सात्विकतम क्षात्र साधन। आप ही कहते हैं कि शीतलतम बह्मास्त्र उसके आगे की सीढ़ी है। गाँधी जी ने कहा है ’कायरता से तो हिंसा अच्छी, किन्तु हिंसा की अपेक्षा अहिंसा श्रेष्ठ है।‘ गाँधी जी ने स्वयं कई बार बलवानों की अहिंसा नहीं थी, वह दुर्बलों की अहिंसा थी।‘
गाँधी जी जिसे बलवानों की अहिंसा अथवा सत्याग्रह कहते थे, वही शीतलतम ब्रह्मास्त्र है। इस युग में दलित, पीड़ित, अपमानित, इस दलित पीड़ित, अपमानित, असहाय मानवता की ऐसे ही साधन का व्यवहार करना है, जो सर्व संहारकारी अणुशक्ति का मुकाबला कर सके।
अहिंसक प्रतिकार का उपयोग आत्मरक्षा के लिए शीतलतम ब्रह्मास्त्र की तरह काम करेगा। आज के अणु युद्ध के सहारे से अपने ही बल के द्वारा सर्वसाधारण मनुष्य को आत्म रक्षण करने की शक्ति अगर शीतलतम ब्रह्मास्त्र से ही प्राप्त होने की संभावना हो तो आत्मोहार के लिए भी इसी अस्त्र का उपयोग करना श्रेयस्कर होगा। शीतलतम ब्रह्मास्त्र सात्विकतम क्षात्रसाधना की अपेक्षा श्रेष्ठ है। अहिंसक प्रतिकार जो सत्याग्रह का ही स्वरूप है इसमें आत्म बलिदान से अन्याय का प्रतिकार करते हैं। सत्याग्रही मन में कहता है कि अन्याय बरदास्त करना मेरे लिए असहत है। मैं उसका विरोध करूंगा। विरोध करते जो भी भुगतना पड़े, सब कुछ सह करूंगा। इस तरह के सात्विक मुकाबले के अन्त में सत्याग्रही के अन्दर ब्रह्मतेज पैदा होता है और वह तेज काफी बढ़ने के बाद ही सत्याग्रही में अन्दर से आत्मविश्वास पैदा होता है कि मैं इस ब्रह्मतेज का उपयोग कर सकता हूं।
स्वामी विवेकानन्द ने एक जगह कहा है कि- तमो गुण से ऊपर उठकर सत्व गुण में प्रवेश करते समय कभी-कभी बीच की मंजिल के तौर पर रजोगुण आ जाता है।
अहिंसक प्रतिकार रूपी सात्विक क्षात्रसाधना की सिद्धि जिन्हें प्राप्त है, ऐसे विरले महात्मा ही अपने जीवन द्वारा ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर सकते हैं।
अहिंसक प्रतिकार करते हमारा जो भी संहार होगा उसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए।
सत्याग्रह व हत्याग्रह
सत्याग्रही मुफ्त में मरना नहीं चाहता। वह जरूरत पड़ने पर प्राणदण्ड जरूर अदा करता है। किन्तु शत्रु से लड़कर, उसे मारने की कोशिश कर उसे आत्म-समर्थन का मौका नहीं देता। शत्रु की वीरता का भी संचार नहीं होने देता। सत्याग्रही तो बिना किसी शस्त्र से प्रतिकार किये और बिना हार माने विरोध करता रहता है; जिससे शत्रु को या तो अपनी दुष्टता छोड़नी पड़ती है अथवा दुनिया के सामने हत्यारे जल्लाद की भूमिका धारण करनी पड़ती है। आदमी चाहे जितना गया-गुजरा हो, दीर्घकाल तक इस भूमिका को बरदाश्त नहीं कर सकता।
’’थेंक गॉड बुई सरेण्डर्ड‘‘- ’’ईश्वर की कृपा कि उसने हमें आत्म-समर्पण की सद्बुद्धि और हिम्मत दी‘‘, ऐसा कहने की नौबत सत्याग्रही पर नहीं आ पड़ती।
शत्रु हिम्मत हार जाए, उसकी शक्ति नष्ट हो जाए और वह विनाष देखकर युद्ध छोड़ दे, यही युद्ध करने का उद्देश्य होता है। सत्याग्रह का उद्देश्य भिन्न है। सत्याग्रही चाहता है कि शत्रु अपने कार्य में केवल विफल हो न हो जाए, किन्तु उससे विरक्त भी हो जाए। शत्रु का हृदय अगर क्रूर-का-क्रूर ही बना रहा, तो हमने उस पर क्या विजय पायी ? अगर शत्रु दब गया तो वह हृदय में जलता रहेगा। ’जयं वेरं पसवति दुःखं सेति पराजितो‘-जिसका पराजय हुआ हो, उसे रात को नींद नहीं आती, उसके मन में वैरभाव बढ़ता ही जाता है।‘ इस तरह शत्रु को हराकर उसका तेजोवध करने से दुनिया की हिंसा बढ़ती है। और यदि हम हार गये, तो हमारी भी वही हालत होती है। सत्याग्रही स्वयं निर्भय होकर दूसरे को अभय दान देता है, जिससे लोभी अपने लोभ के लिए अपमानित अनुभव करता है, क्रोधी का क्रोध गल जाता है। सत्याग्रही की वीरता के प्रति सारी दुनिया के दिल में आदरभाव पैदा होता है और दुनिया में तेजस्विता और मित्रता बढ़ती है।
सत्याग्रही को अपना असर करने के लिए जो कीमत देनी पड़ती है, उससे वह नहीं हटता। अगर हिंसा निर्वीर्य और विफल है, तो सत्याग्रह रामबाण, अमोघ और विश्व-विजयी है। उसमें किसी की भी पराजय नहीं है। सत्याग्रह की विश्व-विजय में सारे विश्व को परास्त कर किसी एक के विजयी होने की बात नहीं है। उसमें तो सारा विश्व ही विजयी होकर रहता है।
सत्याग्रह व तितिक्षा
तितिक्षा या सहन करने की शक्ति किसी भी जाति के लिए अत्यन्त महत्त्व की सम्पदा है। तितिक्षा शब्द तिज् धातु पर से आया है। तिज् माने घिस करके तेज करना। उसका दूसरा अर्थ है, धैर्य के साथ सहन करना। यह तितिक्षा (सहन करने की शक्ति) शारीरिक होनी चाहिए और मानसिक भी। जिन लोगों के पास तितिक्षा की सामर्थ्य है, वे दुनिया में आगे बढ़ते हैं। उनका हर तरह का ऐश्वर्य बढ़ता है, सुखोपभोग के साधन उन्हें प्राप्त होते हैं।
सत्याग्रह असल में है, अहिंसक प्रतिकार-शक्ति। शरीर के ऊपर विजय पाकर आत्मा को तेज करने की, विजयी करने की शक्ति। इसमें तप की ही प्रधानता है, तितिक्षा का ही बल है, मनोविग्रह की सामर्थ्य है। यह शक्ति जितनी बढ़ती जाती है, उतना ही अहिंसा के बल पर का विश्वास बढ़ता है; आत्म-शक्ति पर श्रद्धा बैठती है। संकल्प सामर्थ्य की होड़ में तितिक्षा की ही विजय होती है।
गाँधीजी ने अपने जीवन में आखिर तक तितिक्षा का ही सहारा लिया। उपवास बर्दाश्त करना, मीलों तक चलते रहना, नंगे पैर मुसाफिरी करना, मौन का सेवा करना, स्वाद-लोलुपता पर विजय पाना, सब तरह के विकारों का संयम करना और इस तरह चित्त की रक्षा करना, यह थी उनकी आध्यात्मिक साधना।
जो लोग तितिक्षा की उपेक्षा करते हैं, वे शक्ति बढ़ाने का तरीका बिल्कुल नहीं जानते। जैसा कि शुरू में कहा है, तितिक्षा शारीरिक वृत्ति है और मानसिक भी। शारीरिक तितिक्षा का क्षेत्र हमने देख लिया; मानसिक तितिक्षा का क्षेत्र भी इससे कम नहीं। उसकी विजय तो लोकोत्तर होती है। उसका भी चिन्तन और अनुशीलन करना जरूरी है।
निष्कर्ष सत्याग्रह आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक नैतिक शास्त्र है सत्याग्रह का आधार ही प्रेम है इसमें घृणा, प्रति हिंसा आदि का कोई स्थान नहीं होता। सत्याग्रह एक ऐसी साफ स्वच्छ और शुद्ध वस्तु है कि उसका परिचय होने के बाद शरीफ आदमी को उसी का सहारा लेने का दिल होता है ऐसा ’सज्जनों का शस्त्र‘ हाथ में आने के बाद हिंसा युक्त उपाय काम में लाने को जी नहीं चाहता। सत्याग्रह असल में है, अहिंसक प्रतिकार शक्ति। शरीर के ऊपर विजय पाकर आत्मा को तेज करने की, विजय करने की शक्ति, इसमें तप की ही प्रधानता है, तितिक्षा का ही बल है, मनोनिग्रह को सामर्थ्य है यह शक्ति जितनी बढ़ती जाती है उतना ही अहिंसा में बल पर का विश्वास बढ़ता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. मालेलकर काका: शान्ति सेना व विश्वशांति, फर. 1966, सर्व सेवा संघ, राजघाट वाराणसी, पृ. 45 2. हरिजन 15.04.33 3. स्पीचेज एण्ड राइटिंग ऑफ महात्मा गाँधी, पृ. 476 4. कमल के.एल.: गांधी चिंतन, जयपुर पब्लिषिंग हाऊस (1988), पृ. 10 5. कलैक्टेड वर्क्स आफ महात्मा गाँधी, खण्ड 69, पृ. 7-8 6. गाँधी, एम.के., हिन्द स्वराज, पृ. 8 7. कलैक्टेड वर्क्स आफ महात्मा गाँधी, खण्ड 16, पृ. 509 8. हरिजन, 21 अक्टूबर, 1939 9. आर. दिवाकर: सत्याग्रह मीमांसा, पृ. 74 10. कालेलकर, काका: सत्याग्रह विचार और युद्ध नीति, मंत्री सर्व सेवा संघ, राजघाट, वाराणसी, 1965, पृ. 4-79