ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- IX December  - 2022
Anthology The Research
समकालीन भारतीय दर्शन की प्रमुख प्रवृतियां: एक दृष्टिकोण
Major Trends in Contemporary Indian Philosophy: An Approach
Paper Id :  15273   Submission Date :  15/12/2022   Acceptance Date :  24/12/2022   Publication Date :  25/12/2022
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संतोष कंवर भाटी
शोधार्थी
दर्शनशास्त्र
एम जे आर पी विश्वविद्यालय
जयपुर,राजस्थान, भारत ,
गौरी शंकर जीनगर
शोध निर्देशक दर्शनशास्त्र
एम जे आर पी विश्वविद्यालय
जयपुर, राजस्थान, भारत
जय भारत सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर
भूगोल विभाग
कमीशनरेट कॉलेज एजुकेशन
जयपुर, राजस्थान, भारत
सारांश वास्तविक तथा जिज्ञासा-भाव से निकाला हुआ संशयवाद विश्वास को उसकी स्वाभाविक नीवों पर जमाने में सहायक होता है। नीवों को अधिक गहराई में डालने की आवश्यकता का ही परिणाम महान् दार्शनिक हलचल के रूप में प्रकट हुआ, जिसने छः दर्शनों को जन्म दिया जिनमे काव्य तथा धर्म का स्थान विश्लेषण और शुष्क समीक्षा ने लिया रूढिवादी सम्प्रदाय अपने विचारों को जन्म संहिताबद्ध करने तथा उसकी रक्षा के लिए तार्किक प्रमाणों का आश्रय लेने को बाध्य हो गए। दर्शनशास्त्र का समीक्षात्मक पक्ष उतना ही महत्वपूर्ण हो गया है कि जितना कि अभी तक प्रकल्पनात्मक पक्ष था। दर्शनकाल से पूर्व दार्शनिक मतों द्वारा अखण्ड विश्व के सम्बन्ध में कुछ सामान्य विचार तो अवश्य प्राप्त हुए थे, किन्तु यह अनुभव नही हो पाया था कि किसी सफल कल्पना का आधार ज्ञान का एक समीक्षात्मक सिद्धान्त ही होना चाहिए। समालोचकों ने विरोधियों को इस बात के लिए विवश कर दिया कि वे अपनी प्रकल्पनाओं की प्रामाणिकता किसी दिव्य ज्ञान के सहारे सिद्ध न करें बल्कि ऐसी स्वाभाविक पद्धतियों द्वारा सिद्ध करें जो जीवन और अनुभव पर आधारित हों कुछ ऐसे विश्वासों के लिए, जिनकी हम रक्षा करना चाहते है, हमारा मापदण्ड शिथिल नहीं होना चाहिए।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Skepticism derived from real and curiosity helps to establish faith on its natural foundations. The need to deepen the foundations resulted in a great philosophical movement, which gave birth to six philosophies, in which analysis and dry criticism took the place of poetry and religion. Forced to take shelter of logical proofs. The critical side of philosophy has become as important as the presumptive side. Before the time of philosophy, some general ideas regarding the unbroken world had definitely been received by philosophical opinions, but it was not realized that the basis of any successful imagination should be a critical theory of knowledge. The critics forced the opponents to prove the validity of their hypothesis not by any divine knowledge, but by natural methods that are based on life and experience for some of the beliefs that we want to defend. Yes, our standards should not be relaxed.
मुख्य शब्द दार्षनिक प्रत्ययवादी, आध्यात्मिक, अनुभववाद, साम्यवादी भौतिकवाद, नवमूल्यांकन और नवमूल्य-परिवर्तन, बुद्धिवाद और मानववाद।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Philosophical Idealism, Metaphysics, Empiricism, Communist Materialism, Re-evaluation and Re-change, Rationalism and Humanism.
प्रस्तावना
इसका आरम्भ 1952 में होता है जिस वर्ष प्रथम भारतीय चुनाव हुआ। इलाहाबाद में 1954 ई. में आधुनिक भारतीय दर्शन परिषद् की स्थापना इस युग की एक प्रमुख घटना है, जिसने हिन्दी में दर्शन की प्रथम त्रैमासिक पत्रिका ‘दार्शनकि’ का प्रकाशन आरम्भ किया है। दूसरी घटना डॉ. राधाकृष्णन् युग के दार्शनिक, शास्त्रज्ञ, विद्वान थे। किन्तु इस युग के दार्शनिक, शास्त्र एवं विद्वान होने का दावा नही करते है। फिर राधाकृष्णन् युग के अधिकांश दार्शनिक प्रत्ययवादी तथा आध्यात्मिक थे और स्वातंत्रयोत्तर युग के दार्शनिक प्रायः प्रत्ययवाद का तो स्पष्ट निराकरण करते है। इनमें से कुछ आध्यात्मवाद का भी स्पष्ट खंडन करते है तथा कुछ आध्यात्मवाद की चर्चा से ही दूर है। स्वदेशी चिन्तन का अभाव तथा समकालीन पाश्चात्य दर्शन का घनघोर प्रभाव इस युग की प्रमुख विशेषता है।
अध्ययन का उद्देश्य पाश्चात्य मूल्यवाद से समकालीन भारतीय मूल्यवाद की एक विशेषता यह है कि यह सुंदरम् से अधिक शिवम को महत्व देता है, जब कि पाश्चात्य मूल्यवाद सुंदरम् को शिवम् से अधिक महत्व देता है। प्राचीन भारतीय परमार्थवाद भागवतम् या पावनत्व को शिवम् से भी अधिक महत्व देता था किन्तु समकालीन भारतीय मूल्यवाद शिवम् को सर्वाेत्तम मूल्य मानता है और जो कुछ अन्य मूल्यवान हो सकता है, उसको वह शिवम् से निम्नतर रखता है। जहाँ प्राचीन भारतीय परमार्थवाद मूल्य और मूल्य-लाभ को व्यक्तिगत मानता था वहाँ समकालीन भारतीय मूल्यवाद मूल्य और मूल्य-लाभ दोनो को समालगत मानता है। मूल्यों का स्वरूप सामाजिक है और उनका स्थिरीकरण भी समाज के रूपो में ही होता है। किन्तु भारतीय मूल्यवाद अभी बचपन मे ही है। नये मूल्यों की पर्याप्त खोज हो जाने के उपरान्त ही मूल्यवाद का शास्त्रीय रूप उभरेगा। किन्तु नव मूल्यबोध बहुतो को उपलब्ध हो चुका है, यह कम महत्व की बात नही है। आखिरकार दर्शन के अध्ययन का फल एक मूल्यबोध प्राप्त करना ही तो है।
साहित्यावलोकन

हम मानवतावाद को एक मूल्य सिद्धांत मान सकते है। फिर भी जो लोग इस सिद्धान्त का विशेष प्रचार-प्रसार कर रहे हैं, उनमें डॉ0 दयाकृष्ण, डॉ0 नंदकिशोर देवराज, अनंतगणेश जावडेकर आदि उल्लेखनीय है। राम मनोहरलोहिया (1910-1967) का समाजवाद और दीनदयाल उपाध्याय का एकान्त मानववाद मूल्यवाद के ही अंतर्गत हैं। किन्तु लोहिया का समाजवाद एक सर्वथा नवीन विचार-दर्शन है। वह  एक संपूर्ण समाज-दर्शन हैं उनका विचार-दर्शन एक नयी कान्ति का दर्शन है, वे भारतीय समाज के संस्थापक और सूत्रकार है उन्होने महात्मा गाँधी के विचार-दर्शन में अहिंसात्मक विधियो का प्रयोग करके एक नया विकास किया है। उनके दर्शन का विकास विशेषतः 19520 से लेकर 19580 तक हुआ अत; स्वातंत्रयोत्तर दर्शन में सबसे प्रथम स्थान उन्ही के दर्शन का है। उन्होने एक समग्र दृष्टि दी है, जिससे नवमूल्यांकन किया जा सकता है, प्राचीन और कालातीत मूल्यों  और उनकी मूर्तियो  की स्थापना की जा सकती है। उनकी सबसे बडी देन यह है कि उन्होने मार्क्सवाद से आगे जाने वाला एक समाजवादी  दर्शन दिया है और मार्क्सवाद की समाजवादी आलोचना की है तथा उन नवयुवको को एक विचार दर्शन दिया है जो इंग्लैंड, अमरीका की वर्तमान दार्शनिक पद्धतियों से स्वतंत्र और अधिक प्रगतिशील एक विचार-पद्धति को विकसित करना चाहते है। वे सक्रिय राजनीति में भी आगे बढ़े थे और भारतीय राजनीति प्रतिपक्ष  को वाणी, मन और कर्म से सबल करने मे लगे थे।
स्वातंयोत्तर भारतीय यथार्थवाद तार्किक प्रत्यक्षवाद से अधिक प्रभावित है। प्रो0 निकुंजबिहारी बनर्जी और  के.सच्चिदानदं मूर्ति जैसे अनुभववादी है जो तार्किक प्रत्यक्षवाद से प्रभावित है। के.सच्चिदानंद मूर्ति यथार्थवाद और अनुभववाद से प्रभावित अवश्य है, किन्तु वे वस्तुतः मूल्यवादी दार्शनिक है और मूल्यो मे उनका जितना विश्वास है, उतना वस्तुओं के सदभाव मे नही है। तत्वमीमांसा के क्षेत्र मे केवल प्रो0 निकुंजबिहारी बनर्जी ही विशुद्ध यथार्थवादी है। यद्यपि ये अवस्था मे रासबिहारीदास के समवयस्क है फिर भी उनके दर्शन का स्पष्टीकरण स्वातंत्रयोत्तर युग मे हुआ। यशदेवशल्य के सम्पादन मे अनुभववाद नामक एक पुस्तक 1960 मे प्रकाशित हुई थी जिसमे यशदेवशल्य के अतिरिक्त दयाकृष्ण, राजेन्द्रप्रसाद, श्री चंद, नारायण मूर्ति याकूब मसीह और सुरेशचंद्र के निबंध संकलित है। ये सभी निबंध समकालीन पाश्चात्य तार्किक प्रत्यक्षवाद पर है। इनके कोई भारतीय दृष्टिकोण नही है और न ही इन लेखको ने आगे चल कर अपनेआप को तार्किक प्रत्यक्षवादी ही घोषित किया है।
साम्यवादी दृष्टिकोण से बौद्धमत नामक ग्रंथ मे राहुल सांकृत्यायन, रामविलास शर्मा , देवी प्रसाद चटटोपाध्याय, वाई बलराम मूर्ति और मुल्कराज आनदं के विभिन्न निबधं सग्रंहीत है। किंतु बौद्धधर्म से सर्वथ  अप्रभावित भौतिकवादियों मे मानवेंद्रनाथ राय अग्रगण्य हैं यद्यपि वे आरंभ मे मार्क्सवादी भौतिकवाद से प्रभावित थे तथापि उन्होने एक ऐसे बुद्धिवाद और मानववाद का विशेष प्रचार किया जो अंत मे साम्यवाद का विरोधी हो गया है। उन्होने भारतीय प्रत्ययवादी और आध्यात्मवादी विचारधारा का खंडन करके अपने मानववाद की स्थापना की है।
प्रो० डी. डी. कौशाम्बी और एस.ए. दागे ने समस्त भारतीय इतिहास की ही व्याख्या मार्क्सवादी सिद्धांत ऐतिहासिक भौतिकवाद के द्वारा करने का प्रयास किया है। उनके पश्चात् देवी प्रसाद चटटोपाध्याय ने बताया है कि समस्त भारतीय दर्शनो का मूल स्वर भौतिकवाद है। इस प्रकार वर्तमान काल की राजनीतिक शक्ति का सहारा लेकर साम्यवादी विचारक कहने लगे है कि भारतीय दर्शन वास्तव में पश्चिमी दर्शन को कोई नया पाठ नही पढाता है। उनका तात्पर्य यह है कि समकालीन भारत को अपने प्राचीन दर्शन का मूलमंतव्य है। कहना नही होगा कि यह विचारधारा निराधर है और कुछ चार्वाकमत, तंत्र आदि भारतीय दर्शनोको अधिक महत्व देने के कारण बनी है। अधिक से अधिक यह भारतीय दर्शन का एक पक्ष हो सकती है और इसे समस्त भारतीय दर्शनो के स्थान पर प्रतिष्ठित नही किया जा सकता है। यह समस्त भारतीय  दर्शनो का समन्वय नही है।

मुख्य पाठ

(क) मूल्यवाद
हमारे विचार से स्वातंत्रयोत्तर युग की सबसे प्रबल दार्शनिक धारा मूल्यवाद है। जैसे पश्चिम में तार्किक प्रत्ययवाद का विकास मूल्यात्मक प्रत्ययवाद में हुआ, वैसे भारतीय प्रत्ययवाद का भी विकास परमार्थवाद या परम मूल्यवाद में हुआ है। परम मूल्यवाद ने एक और भावाद्वैत, आत्माद्वैत, विशिष्टाद्वैत, भेदाभेद आदि के संघर्षों को शांत कर दिया है, क्योंकि वे सभी एक परमार्थ में विश्वास करते है और दूसरी ओर इसने परमार्थ में प्रकारता में भेद मान कर यथार्थवाद-प्रत्ययवाद, भौतिकवाद-आध्यात्मवाद आदि के विवाद को भी समाप्त कर दिया है। जिन लोगों ने मानववाद को अग्रसर किया है वे भी मूल्यवादी ही है, क्योंकि वे मानवीय मूल्यों की उपलब्धि के लिए प्रयत्नशील है। भाषा-विश्लेषण और अनभुववाद भी सुदंरम् और शिवम् जैसे मूल्यो को स्वीकार करते है और उनकी एक ऐसी व्याख्या देने का प्रयत्न करते है जिससे उनका संबंध हो जाये। इसी प्रकार जनता-जनार्दन और दरिद्रनारायण की सेवा एक नया मूल्य है। विभिन्न धर्मों की एकता का जो प्रचार करते हैं वे एक प्रकार से इसी आध्यात्मिक मूल्य को विकसित करते है। इसी प्रकार समाजवाद और साम्यवाद के द्वारा भी लोग केवल मानव-मूल्यों की प्रतिष्ठा में संलग्न है।
(ख) भाषा-विश्लेषण
इस मौलिकता को लेकर आगे चलकर समकालीन भारतीय भाषा-विश्लेषण का संप्रदाय खडा हो सकता है। किन्तु अभी इसकी संभावना दूरवर्ती है, यह यथार्थ नही है। भाषा-विश्लेषण के क्षेत्र मे एक ओर प्राचीन भारतीय व्याकरण दर्शन का परिष्कार हो रहा है और दूसरी ओर आधुनिक पाश्चात्य भाषा-विश्लेषण का अनुकरण।
(ग) अनुभववाद
राधाकृष्णन् युग के जी.सी. चटर्जी, रासबिहारीदास और मानवेन्द्रनाथ राय ने अपने को क्रमशः अनभुववादी, यथार्थवादी और भौतिकवादी घोषित किया था। इसके अतिरिक्त डॉ० यदुनाथ सिन्हा और नागराज शर्मा ने भारतीय प्रत्ययवाद के विरोध में भारतीय यथार्थवाद का परिष्कार किया था। ये सब यथार्थवादी दृष्टिकोण प्रचलित भारतीय प्रत्ययवाद और अद्वैतवाद के विरोध में थे एक ओर अंग्रेज दार्शनिक बटेंड रसेल, हवाइट हेड, जी.इ. मूर. और सैम्युअल एलेक्जेंडर के प्रभाव के कारण थे तो दूसरी ओर द्वैतवेदंत, जैनमत और न्यायवैशेषिक के प्रभाव से इनकी विचारधारा को हम स्वातंयपूर्व भारतीय यथार्थवाद कह सकते है।
(घ) साम्यवादी भौतिकवाद
साम्यवादी भौतिकवाद के मानने वालो मे बौद्ध विद्वान् आ0 नरेन्द्रदेव, राहुल सांकृत्यायन और धर्मानदं कौशाम्बी को सबसे पहले गिना जाता है। किंतु वे यथार्थतः भौतिकवादी नही थे। वे बौद्ध सर्वास्तिवाद मे प्रतिपन्न थे और साम्यवादी भौतिकवाद को उसी दिशा मे एक विकसित मत मानते थे।

सामग्री और क्रियाविधि
समकालीन पाश्चात्य भाषा-विश्लेषण का भारत में प्रचार करने वालो मे धीरेन्द्र मोहन दत्त, कालिदास भटटाचार्य, दयाकृष्ण, के.जे. शाह, यशदेवशल्य आदि प्रमुख है। प्राचीन भारतीय भाषा-विश्लेषण और भाषा-दर्शन का प्रचार करने वालो मे गौरीनाथ शास्त्री, के.ए. सुब्रह्मण्यम, अय्यर, के. कुंजनी, राजा लक्ष्मण स्वरूप, रामचद्रं पांडेये , विष्णु प्रसाद भट्टाचार्य प्रमुख है। इन दोनो प्रकारो से स्वतंत्र कोई नया भारतीय भाषा विश्लेषण भारत मे पैदा हो रहा है, इसकी जानकारी इन लेखको को नही है। संभव है इन दोनो प्रकारो के विद्वानो ने अपने-अपने क्षेत्र के परिष्कार मे कही-कही मौलिकता प्रदर्शित की हो।
जाँच - परिणाम यथार्थवाद और भाषा-विश्लेषण ने प्रत्येक दार्शनिक को विमुग्ध कर लिया है जो लोग प्रत्ययवाद और आध्यात्मवाद की चर्चा करने का प्रयास करते है वे भी भाषा-विश्लेषण के आलोक में मूल्यवाद को प्रस्तुत करते है। इस युग के प्रमुख दार्शनिकों में प्रो. एन.बी. बनर्जी, डॉ. कालिदास भटटाचार्य, डॉ. दयाकृष्ण, डॉ. आनंद गणेश जावडेकर, देवी प्रसाद चटटोपाध्याय, डॉ. गणेश्वर मिश्र आदि प्रमुख के राधाकृष्णन् युग का दार्शनिक शब्द प्रमाण को महत्व न देते हुए भी प्रस्थानत्रयी या किसी अन्य दार्शनिक ग्रंथ का भाष्यकार था। स्वतंत्रयोत्तर दार्शनिक भाष्यकार नही है। वह शब्द प्रमाण को महत्व नही देता है। किन्तु वह भाषा विश्लेषण और शब्द को महत्व देता है और लौकिक भाष-प्रयोग के विश्लेषण की विधि से या तर्क-शक्ति से अनुभव का विश्लेषण, अनुभववाद और साम्यवादी भौतिकवाद। जिनका वर्णन आगे विस्तार से किया गया है।
निष्कर्ष आधुनिक भारतीय भाषा के माध्यम से सर्वथा नव चितंन करना राजा राममोहन राय की मुख्य समस्या थी जो उस समय टाल दी गयी थी। आज इस समस्या को टाला नहीं जा सकता है। आज प्राचीन पाश्चात्य दर्शन, अमेरिका इंग्लैंड का प्रभाव, रूसी साम्यवाद का प्रभाव आदि भारतीय चितंन पर प्रभावकारी है। किन्तु इन प्रभावो से स्वतत्रं एक दार्शनिक मत का निर्माण करना ही असली समस्या है। स्वातंत्रयोत्तर युग का दार्शनिक इसके प्रति जागरूक है, यही बहुत बड़ी उपलब्धि है। इस जागृति का प्रतिफल अवश्य ही यथाकाल होगा। अभी तक भारतीय दर्शन की मान्यता और प्रतिष्ठा का दाता इग्लैन्ड और अमेरिका राष्ट्र थे। किन्तु अब रूस भी भारतीय दर्शन का मान्यता और प्रतिष्ठा का दाता हो रहा है। किन्तु इन तीनो की सामाजिक और राजनीतिक पद्धतियों में अंतर हैं। इस कारण भारत मे दार्शनिक इस समय प्रायः दो प्रकार के है। इससे दार्शनिको के दो विरोधी दल पनप रहे है। यह दार्शनिक प्रतिबद्धता स्वातंत्रयोत्तर दर्शन मे बड़ा प्रभाव डाल रही है। इन दोनो दलो के विरोध मे तटस्थता, दल-निरपेक्षता और स्वदेशी प्रगति का आहवान किया गया है। कहा गया है कि हम कब अपने दार्शनिको को पहचानेगे तथा उनको प्रतिष्ठा देगे ? कब हम विदेशी मान्यता और प्रतिष्ठा की लालसा का परित्याग करेगे?
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. स्वीट्जर अलबर्ट अंडरवुड,: इंडिया थाट एण्ड इटस डेवलपमेट 2. अलबर्ट अंडरवुड, ए.सी: कंटेम्पोररी इंडियन थाट 3. राधाकृष्णन: कंटेम्पोरेरी इंडियन फिलासफी 4. पाण्डेय, संगमलाल: भारतीय दर्शन 5. शिल्व, आर्थरपाल: फिलासफी ऑफ राधाकृष्णन 6 नीलो, बिल्फेड: इम्पैक्ट ऑफ इंडियन थाट आन जर्मन पोएट्स एण्ड फिलाफर्स: 7. राधाकृष्णन: महात्मा गांधी 8. नवरवणे, वी.एस: समकालीन भारतीय दर्शन आधनिुक भारतीय चितंन