ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- IX December  - 2022
Anthology The Research
स्वामी दयानन्द सरस्वती : जीवन चरित
Swami Dayanand Saraswati: Biography
Paper Id :  16828   Submission Date :  2022-12-19   Acceptance Date :  2022-12-22   Publication Date :  2022-12-25
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सुषमा देवी
असिस्टेंट प्रोफेसर
इतिहास विभाग
भगवान परशुराम कॉलेज
कुरुक्षेत्र,हरियाणा, भारत
सारांश
महापुरूषों की विश्वविजयिनी सर्वतोमुखी प्रतिभा उन्हें चिहिन्त कर देती है। वे ज्ञान, विज्ञा या बुद्वि में नहीं अपितु सर्वविषयों में समकालीन मनुष्यों के ऊपर अवस्थान करते हैं। पारिपार्श्विक अनीति एवं अनाचार के मध्य में वे अपने पुण्यमय पन्थ का आविष्कार कर लेते हैं तथा सहस्त्र अत्याचार सहन कर कदाचित कर्तव्य भ्रष्ट नहीं होते हैं। तरह-तरह के कष्ट और अत्याचार सहन करके भी वे अत्याचारियों के प्रति कष्ट अथवा प्रतिकूल नहीं होते। बटिक जैसे महापुरूष तो दूसरों की भलाई के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर देते है। ऐसे ही महापुरूष जिन्होनें आर्य समाज की स्थापना करके भारत का नाम पूरे संसार में रोशन कर दिया वे थे स्वामी दयानन्द सरस्वती जी। भारत देश की यह खूबी रहीं है कि जब-जब और जिस-जिस प्रकार के व्यक्तियों की राष्ट्र को जरूरत पड़ी तब-तब वैसे ही महापुरूषों ने इस देश में जन्म लिया। महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, शंकराचार्य, विवेकानन्द की परम्परा में स्वामी दयानन्द सरस्वती जी भी आते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का कथन था ‘‘मेरा देश जो संसार भर का शिक्षक रहा, संसार भर में धनीमानी रहा, संसार भर में सत्य और सदाचार में अनुकरणीय रहा, किसी प्रकार पुनः अपना वही पहला उच्च स्थान प्राप्त करें, यही मेरे हृदय की अभिलाषा है।" अपनी इसी इच्छा को पूरा करने में उन्होनें अपना पूरा जीवन देश को समर्पित कर दिया। स्वामी दयानन्द जी जीवन भर अखण्ड ब्रह्मचारी रहे। किन्तु उन्होने गृहस्थों को भी उपदेश दिए।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The world-conquering all-round talent of great men marks them. He is not situated in knowledge, science or intellect but in all subjects, he is situated above the contemporary humans. In the midst of peripheral immorality and malpractices, they invent their own virtuous path and perhaps do not become corrupt in their duty by tolerating thousands of atrocities. Even after tolerating various types of sufferings and atrocities, they do not get hurt or hostile towards the oppressors. Legends like Batik even sacrifice their lives for the betterment of others. Swami Dayanand Saraswati was such a great man who made India famous in the whole world by establishing Arya Samaj. The specialty of the country India has been that whenever and whatever type of people the nation needed, such great men took birth in this country. Swami Dayanand Saraswati also comes in the tradition of Mahatma Buddha, Mahavir Swami, Shankaracharya, Vivekananda. Swami Dayanand Saraswati ji's statement was "My country which has been the teacher of the world, has been rich in the world, has been exemplary in truth and virtue in the world, somehow regain its first high position, this is the desire of my heart." In fulfilling this desire, he dedicated his whole life to the country. Swami Dayanand ji remained an unbroken celibate throughout his life. But he also preached to the householders.
मुख्य शब्द महापुरूष, जीवन, समाज, जन्म चरित।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Great Person, Life, Society, Birth Biography.
प्रस्तावना
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का जन्म 1824 में गुजरात राज्य के मोखी टंकारा नगर के जीवापुर मुहल्ले में हुआ था। स्वामी जी के बचपन का नाम मूलशंकर था। किन्तु दुलार से उन्हें दयाराम भी कहा जाता था। स्वामी दयानन्द सरस्वती अपने माता-पिता की ज्येष्ठ सन्तान थे। उनके पिता जी धनाठय् जमींदार, सरकार के राजस्व आदामकारी और प्रभावशाली कट्टरशैव ब्राह्मण थे। उनके पिता जी शैव तथा माता वैष्णव मत की अनुगामिनी थी।
अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन चरित का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन

प्रस्तुत विषय पर कई लेखकों आदित्यपाल सिंह आर्य, डॉं. वेदव्रत आलोक एवं श्रीनाथ दासगुप्ता ने अध्ययन किया है।

मुख्य पाठ

स्वामी जी के अपने शब्दों में मेरे परिवार में किसी भी वस्तु का अभाव नहीं था। परन्तु माता-पिता के चित्त कभी-कभी अप्रसन्न हो जाते थे। क्योंकि ये लोग विवाह के दीर्घकाल उपरान्त भी निःसन्तान थे। इसलिए दोनों के चित्त में अप्रसन्नता स्थायी रूप से बैठ गई थी। पिता जी अपने उपास्य देव शिव से और माता जी अपने उपास्य देव विष्णु से सन्तान मांगते थे। परन्तु प्रार्थना व्यर्थ चली जाती थी। इसलिए दोनों ने प्रार्थना करना बन्द कर दिया। सन्तानाभाव के कारण सांसारिक सुख दोनों को शान्ति नहीं दे सका। काफी विचार विमर्श के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि मेरे पिता जी दूसरा विवाह कर लेवे और वह विवाह मेरी माता जी की चौथी बहन मेरी मौसी से करने का निर्णय लिया गया। मेरी माता जी ने इसमें अपनी सहमति दे दी। दो-तीन महीने के बाद विवाह होगा ऐसा निश्चय हो गया था। लेकिन एक महीने के अन्दर ही पता लग गया कि माता जी को सन्तान होने वाली है। अतः दूसरे विवाह का प्रकरण बन्द हो गया। यथा समय मेेरी माता ने पुत्र सन्तान प्रसव किया। वह सन्तान ही मैं हूँ।

पॉंच वर्ष की आयु में स्वामी जी ने घर से ही शिक्षा प्राप्त करनी शुरू की। स्वामी जी के पिता और अभिभावक कुल परम्परागत धर्माचरण के साथ-साथ धर्मशास्त्र पाठ तथा रामायणमहाभारतपुराणादि से कहानियाँ याद कराने लगे। अपने पिता से प्रभावित होकर स्वामी जी ने शिव पूजन करना शुरू कर दिया था। स्वामी जी तीक्ष्ण बुद्धि का पता इस बात से चलता है कि चौदह वर्ष की अवस्था तक इनको व्याकरणयजुर्वेद तथा अन्य वेदों के अंश कंठाग्र हो गए थे।

स्वामी जी के कुल की प्रथा के अनुसार चौदह वर्ष की अवस्था में उनके बाग्दान की तैयारियॉं होने लगी। उनके माता-पिता जी अधिक शिक्षा के पक्षपाती नहीं थे। वे चाहते थे कि पुत्र उनकी भान्ति जमीदारी करे और सद्गृहस्थ बने। किन्तु पुत्र कांशी जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहता था। परन्तु उनके पिता जी ने कांशी भेजने की बात को अस्वीकार कर दिया।

जब मूलशंकर तेरह वर्ष के थे उनके जीवन में  एक ऐसी घटना घटी जिसके कारण स्वामी जी संसार से विरक्त हुए और उनके मस्तिक में प्रकाश का उदय हुआ। इस घटना से उनमें मूर्तिपूजा के प्रति अविश्वास जागा। शिवरात्रि को धर्मनिष्ठ पिता ने उन्हें व्रत रखने का आदेश दिया। मूलशंकर जी विधिपूर्वक उपवास रखा और अन्य साथियों के साथ नगर से बाहर बने शिवालय में पूजा के लिए पहुॅंचें।  शिवरात्रि में चार पहर में चार बार पूजा का विद्वान था। इस बीच पुजारी को सोना नहीं चाहिए। बालक मूलशंकर का यह पहला अवसर था इसलिए वह बहुत सावधान रहा कि उसे नींद न आये। लेकिन मूलशंकर जी ने देखा कि मन्दिर के पुजारी तथा उपासक सब बाहर जाकर सो गए तथा उनके धर्मनिष्ठ पिता जी भी इस व्रत का पालन न कर सके। तभी मूलशंकर जी ने देखा कि बिल में से एक चूहा निकलकर महादेव की पिंडी पर चढ़ाई हुई सामग्री खा रहा था तथा मूर्ति के ऊपर स्वतन्त्रतापूर्वक घूम रहा था। मूलशंकर जी अत्यन्त विचलित हुए तथा उनके मन में अनेक विचार आए। उन्होंने सोचाक्या ये वही महादेव है जो अपनी रक्षा चूहों से भी नहीं कर सकते। अपने सन्देहों को मूलशंकर जी ज्यादा देर तक नहीं झेल सके। पिता जी कठोरताधर्मपरायणता और शिवभक्ति से वे काफी परिचित थे। फिर भी जब उन्होंने पिता जी को जगाया और शिव जी की इस अकर्मण्यता के बारे में प्रश्न किया। उन्होंने बालक मूलशंकर जी को डांटकर कहा-‘‘कलि काल में शिवजी का दर्शन सदा नहीं होता। इस रूप में पूजा करने से वे प्रसन्न होकर कभी-कभी ही दर्शन देते हैं’’ पर बालक का मन शान्त न रह सका। बालक मूलशंकर ने मन में तय किया कि यथार्थ महादेव का दर्शन किए बिना मैं मूर्ति पूजा नहीं करूंगा। इस निश्चय के बाद उसे नींद भी आने लगी तथा भूख भी सताने लगी। पिता ने अविश्वासी पुत्र का अधिक देर रोकना उचित न समझा तथा घर जाने की आज्ञा दे दी। पर व्रत भंग न करने की हिदायत दी परन्तु बालक मूल जी ने घर जाकर माता जी से मिठाई मांगी तथा भरपेट खाकर सो गए। परन्तु स्वयं स्वामी जी के शब्दों में ‘अगले दिन उनके माता-पिता जी के बीच प्रचण्ड झगड़ा हुआ।'

बालक मूलशंकर जी के जीवन में फिर एक घटना घटी। उनकी छोटी बहन की हैजे से मृत्यु हो गई। बहन की मृत्यु के समय स्वामी जी की आयु 16 वर्ष थी। स्वामी जी शब्दों में बहन की मृत्यु से उनके हृदय को गहरा आघात लगा लेकिन उनको रोना नहीं आया। क्योंकि मृत्यु के सम्बन्ध में उन्हें कुछ ज्ञान नहीं था तथा उनका यह पहला अनुभव था। स्वामी जी को भय हुआ कि एक दिन वे भी मर जाऐंगे। उन्होंने सोचा कि कुछ ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे यह दुःख छूटे तथा यही वह घटना थी जिससे उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। इसी बीच मूलशंकर जी के विवाह की तैयारियॉं होने लगी। लेकिन मूलशंकर जी ने पिता से प्रार्थना की कि ‘‘मेरा अध्ययन अब तक असम्पूर्ण है’’, विवाह के प्रश्न को अभी विराम दीजिए। अभी उपनिषद् और वेदान्त पढ़़ने के लिए मैं कांशी चला जाऊं। लेेकिन कांशी जाने की अनुमति माता और पिता से नहीं मिली परन्तु गांव से तीन कोस की दूरी पर एक प्रसिद्ध पण्डित के पास पढ़ने जाने की अनुमति मिल गयी। यहीं वेदान्त का अध्ययन करते हुए स्वामी जी के मुहॅं से निकला ‘‘मैं विवाह नहीं कारूँगा’’ परन्तु जब स्वामी जी को लगा कि उनके माता-पिता उनका विवाह जरूर करेंगे तो 21 वर्ष की अवस्था में उन्होेंने घर का त्याग कर दिया।

घर से चलकर चार कोस दूर उन्होंने रात बिताई। तीन महीने तक मूलशंकर जी ज्ञान की प्यास में इधर-उधर भटकते रहे। फिर एक दिन सिद्धपूर के मेले में पहुँचे जहां उनके माता-पिता जी ने उनको पकड़ लिया। तीन दिन पिता की कैद में रहकर चौथे दिन रात को वे भाग निकले। चौदह वर्ष तक अमृत की खोज में दत्तचित रहे। इसी बीच उनकी भेंट स्वामी पूर्णानन्द से हुई तथा उन्होंने ब्रह्मचारी का विधिवत रूप धारण किया तथा स्वामी पूर्णानन्द ने ही उनका नाम मूलशंकर से दयानन्द रख दिया।

ज्ञान की खोज में दयानन्द मथुरा पहुँचे जहॉं उनकी भेंट दंडीस्वामी विरजानन्द जी से हुई। उनकी असली शिक्षा यहीं पर हुई। ग्रन्थ अध्ययन के अलावा गुरु-शिष्य में वार्तालाप हुआ करता था। इस वार्तालाप में आर्यावर्त के पुनुरत्थान की चर्चा होती थी। स्वामी विरजानन्द की शिक्षा ने स्वामी दयान्नद को आर्दश सुधारक बना दिया। ऐसा कहा जाता है कि जब दयानन्द चलने को हुए तो उन्होंने गुरु-दक्षिणा के रूप में आधा सेर लौंग गुरु को भेंट कीपर गुरु ने आर्शीवाद देते हुए कहा कि ‘‘मैं तुम्हारे जीवन की दक्षिणा चाहता हॅूं। प्रतिज्ञा करो कि जब तक जीवित रहोगे आर्य ग्रन्थों का प्रचारअनार्य ग्रन्थों का खण्डन तथा वैदिक धर्म की स्थापना के हेतु अपने प्राण तक न्यौछावर कर दोगे’’ ऋषि दयानन्द ने तथास्तु कहकर गुरु की आज्ञा शिरोधार्य की।

स्वामी दयानन्द ने देश भर का दौरा किया। एक बार घूमते-घूमते स्वामी जी ओखीमठ पहुंचे। इस मठ में धन-सम्पति सम्पन्न एक महन्त रहते थे। वे महन्त दयानन्द जी को शिष्य बनाने को उत्सुक थे। उस महन्त ने अपने रत्नों के भंडार खोलकर दयानन्द जी को दिखाए तथा कहा-‘‘बेटा तुम मेरे शिष्य बन जाओ, यह अतुल सम्पत्ति तुम्हे मिलेगी’’ सच्चे वैराग्यवान दयानन्द की आंखों में आंसू भर आए और उन्होंने विनम्र होकर निवेदन किया- ‘‘महाराज’’ यदि मैं सोने चॉंदीधन रत्नों की दृष्टि से विपन्न होता तो माता-पिता की अतुल स्नेहचित तथा भाई-बहनों का प्यार भरी अशेष सम्पत्ति का परित्याग करके क्यों गृह त्याग करतामैं ज्ञान पिपासु हूँ। दुहाई आपकी आप मुझे पुनः सांसारिक विषयों व बन्धनों में बांधने की कोशिश न करें।

स्वामी जी ने अनेक राजा-महाराजाओं से भेंट की। कुछ राजा महाराजा उनके भक्त बन गए जबकि कुछ उनसे अप्रसन्न भी हुए। उनके विरोधियों ने उनकी हत्या तक कराने की कोशिश की। बड़े-बड़े पण्डितों से उनका शास्त्रार्थ हुआ। उनकी बुद्धि तथा ज्ञान का सिक्का उनके विरोधियों ने भी माना। स्वामी जी की सेवा के लिए कल्लू कहार नामक एक नौकर रहता था। वह स्वामी जी के सामान की चोरी करके भाग गया। षड़यन्त्र का शुरूआत यहीं से हुई। स्वामी जी की हत्या एक षडयन्त्र के तहत ही की गई। स्वामी जी का दूध में कांच मिलाकर पिलाया गया था। स्वामी जी को उदरशूल हो निकला तथा जी मचलाने लगा। फिर महर्षि को जोधपुर से आबू भेजने का निर्णय लिया गया। उन्हें डोली में ले जाया गया किन्तु मार्ग लम्बा था। दशा बिगडती देख उन्हे अजमेर लाने का निर्णय किया गया। अजमेर में उनकी चिकित्सा की गई। किन्तु दशा चिन्ताजनक बनी रही। 30 अक्तुबर 1883 का दिन था। सुबह 11 बजे से ही श्वास की गति अधिक बढ़ गई। उनकी इच्छानुसार औषधि बन्द कर दी गई और उसी दिन सायंकाल ऋषि का देहावासन हो गया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ऐसे महापुरूष थे जिनका जन्म युगो-युगो के बाद होता है। दयानन्द सरस्वती जी ने ‘वेदों की ओर लौटो’ का नारा देते हुए वेदों को भारत का आधार स्तम्भ बताया। उनका विश्वास था कि हिन्दू धर्म और वेद जिन पर भारत का पुरातन समाज टिका था। शाश्वतअपरिवर्तनीयधर्मातीत तथा दैवीय है।

स्वामी दयानन्द जी ने पुराणों जैसे हिन्दू धर्म ग्रन्थों की प्रमाणिकता को अस्वीकार किया तथा कहा कि पुराण ही हिन्दू धर्म में मूर्ति पूजा जैसी कुरीतियॉं तथा अन्धविश्वासों के लिए उत्तरदायी हैं। स्वामी दयानन्द जी ऐसे पहले हिन्दू सुधारक थे जिन्होेंने बचाव के स्थान पर प्रहार की नीति अपनायी और हिन्दू विश्वास की रक्षा करते हुए ईसाइयों और मुसलमानों का उनके ही दोषों के आधार पर चुनौती दी। समाज सुधार की दिशा में स्वामी जी ने चार्तुवर्ण व्यवस्था को जन्म के बदले कर्म के आधार पर समर्थन किया। सामाजिक तथा शैक्षिक मामलों में स्त्री-पुरूष के समान अधिकारों की स्वामी जी वकालत की।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने 1882 में बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की। यह संघ आडम्बर से अछुता और समाज सुधार का पोषक था। आर्य समाज की स्थापना के माध्यम से महर्षि ने मानव मात्र में नूतन जीवन एवं जागृति उत्पन्न करने का अमोघ साधन प्रस्तुत किया था। 1863 में स्वामी दयानन्द जी ने झूठे धर्मों का खण्डन करने के उद्देश्य से ‘पाखण्ड खण्डिनी’ पताका लहराई। स्वामी दयानन्द जी द्वारा लिखी गई महत्त्वपूर्ण रचनाएं थी।

1. सत्यार्थ प्रकाश (1847 संस्कृत)

2. पाखण्ड खण्डन (1866)

3. वेदभाष्य भूमिका (1876)

4. ऋग्वेद भाष्य (1877)

5. अद्वैत मत का खण्डन (1873)

निष्कर्ष
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने अपने अमर ग्रन्थ (सत्यार्थ प्रकाश) के अष्टम समुल्लास के अन्तर्गत स्पष्ट शब्दों में लिखा था ‘‘कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है। वह सर्वोपरि उत्तम होता है। ममतांतर के आग्रह रहित अपने और पराये का पक्षपात शून्य प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखगामी नहीं होता’ डॉ. एनीबेसेंट ने अपनी पुस्तक (इण्डिया ए नेशन) में लिखा है-‘‘स्वामी दयानन्द ने सर्वप्रथम घोषणा की थी कि भारत भारतीयों के लिए है। श्रीमती ऐनी बेसंट ने तो कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में यहॉं तक कहा था- ‘‘जब स्वराज्य मन्दिर बनेगा तो उसमें बड़े-बड़े नेताओं की मूर्तियॉं होगीं और सबसे ऊंची मूर्ति दयानन्द जी की होगी’’। इस प्रकार स्वराज्य शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग स्वामी दयानन्द जी ने किया तथा भारत की स्वतन्त्रता का वृक्ष लगाया। इसलिए हमें स्वराज्य के मन्त्रदाता उस सन्यासी का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करके उसके श्री चरणों में श्रद्धाजंलि अवश्य अर्पित करनी चाहिए।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. अपना जन्मचरित्र (कलकता-कथ्य, पूना-प्रवचन एवं जन्म चरित्र का सयुंक्त -संस्करण) स्वामीदयानन्द सरस्वती-ई. आदित्यपाल सिंह आर्य एवं डॉं. वेदव्रत आलोक । 2. श्री श्री दयानन्द चरित (बगंला में लिखित जीवन चरित का नागरी लिटयन्तर तथा हिन्दी अनुवाद- श्रीनाथ दासगुप्ता, आर्य समाज कलकता ) 3. सत्यार्थ प्रकाश, स्वामी दयानन्द सरस्वती 4. डिस्कवरी ऑफ इण्डिया- जवाहर लाल नेहरू 5. इण्डिया ए नेशन- डॉं. ऐनी बेसन्ट 6.https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6_%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A5%80